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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[गकारादि
गुडूच्यंशुमतीदारुबलामधुकसारिवे।
गिलोय, पितपापड़ा, मण्डूकपर्णी, हुलहुल रास्त्रापरूषकं द्राक्षात्रिफला शैलवालुकम्॥ और पटोलत्रका स्वरस पुटपाक विधिसे निकालकर कोष्णं सगुडसर्पिष्फ पिघद्वातज्वरापहम् ॥ शहद मिलाकर सेवन करनेसे वातपित्त जनित
गिलोय, शालपर्णी, दारुहल्दी खरैटी, मुलहटी, भयङ्कर जीर्णञ्चरका नाश होता है। दोनों सारिवा, रास्ना, फालसेकी छाल, मुनक्का, त्रिफला । (१२०८) गुरुपञ्चमूलीकाथः (वै. जी. । वि.३) (हर, बहेड़ा, आमला) और शैवाल (सिरवाल) के
अतः परं कोमलवाणि कासकिञ्चित् उष्ण काथमें गुड़ और घृत मिलाकर पीनेसे
श्वासप्रतिकारमुदीरयामः। वातःवर नष्ट होता है।
निहन्ति कासं गुरुपञ्चमूली (प्र. वि. गुड़ और घुत ६-६ मासे मिलाने
कृतः कषायश्चपलासहायः ॥ चाहिये ।)
अयि मृदुभाषिणि ? अब मैं कास श्वास प्रति(१२०५) गुडूच्यादि क्वाथः (ग. नि. । स्व.), कार बतलाता हूँ। वृह पञ्चमूल (बेलकी छाल, सोनागुडूच्यतिविषामू मञ्जिष्ठाधन्वयासकैः। पाठा, ग्वम्भारी, पाढल और अरणी)के काथमें पीपल वासारखदिनिम्बैश्च पिवेत्काथं हि वातिके॥ का चूर्ण मिलाकर सेवन करनेसे कास श्वास नष्ट होते हैं।
गिलोय, अतीस, मूर्वा. मजीर धमासा, बाँसा (१२०९) गृहधूमादि काथः (यो. र. । भु. रो.) (अडूसा) खैरसार और नीमका. काथ वातज्वर में
- गृहधूमारनालेन काथं समधुसैन्धवम् । हितकर है।
पाणिना मर्दयेच्चाऽऽस्ये उपजिहापशान्तये ॥ (१२०६ ) गुडूच्यादिगणः
धरका धुवां काजीमें पकाकर उसमें शहद (सु० सं० । सू. अ. ३८)
और संधानमक मिलाकर उँगलीसे इसकी मालिश गुडूचीनिम्बकुस्तुम्बरुचन्दनानि पमकठचेति।
करनेसे उपजिह्वा रोग नष्ट होता है। एष सर्वज्वरान्हन्ति गुहूच्यादिस्तु दीपनः ।। गिलोय, नीमकी छाल, कुस्तुम्बुरु (नेपाली
(१२१०)गैरिकादिकाथः ( वृ.नि.र. । उप०) धनिया ) लाल चन्दन और पद्माख । यह गुडूच्यादि गैरिकाञ्जनमञ्जिष्ठामधुकोशीरपद्मकैः । गण सर्व ज्वर नाशक, और दीपन है । | चचन्दनोत्पलैः स्निग्धैः पेयः पित्तोपदंशहा ।। ( १२०७ ) गुडूच्यादि पुटपाकः (आ.वे. वि.) गेरू, सुर्मा, (अथवा रसौत ) मजीट, मुलहटी गुडूची पर्पटं मेषपर्णी च हिलमोचिका। खस, पाख, लाल चन्दन और नीलोफर के क्वाथ पटोलं पुटपाकेन रस एषां मधुप्लुतः॥ में घृत भिलाकर सेवन करनेसे पित्तजनित उपदंश वातपित्तज्वरं हन्ति चिरोत्थमपि दारुणम्॥ | नष्ट होता है ।
.१ पुटपाक विधि प्रथम भागके परिशिष्ट में अवलोकन कीजिए
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