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भारत-भैषज्य-र - रत्नाकरः ।
[ ४०८ ]
सिवा संमर्दयेत्तावद्वस्त्रान्निर्याति सत्वरम् । निर्धूमाङ्गारके वह लोहपात्रे घृताक्तके || तावच्च स्थाप्यते यावत्तैलाभो जायते रसः । प्रथमं कदली श्रेष्ठा ह्यलाभे पद्मिनी दलम् || तदलाभे नागवल्ली ह्येकस्य च दलद्वयम् । गोमयोपरि निक्षिप्ते पत्रे तं ढालयेद्रसम् ॥ पुनर्दत्वापरं पत्रं पत्रस्योपरि गोमयम् । रसं तं शीतलीभूतं खल्वे सूक्ष्मं हि पेपयेत् ॥ भृङ्गराजरसेनादौ दातव्याः सप्तभावना । आटरूषकपत्राणां स्वरसैः सप्तभावना || त्रिकटोर्वारिणा सप्त सप्तैवं त्रिफलाम्भसा । सप्तार्द्रक रसेनैवं सप्तपत्रकजैद्रवैः ॥ व्याघ्रीरसेन सप्तैव शिग्रुमूलरसेन च । वत्सनागविषेणैव श्रीखण्डेनैव सप्त च ॥ सशुष्कं च ततश्चूर्ण सूक्ष्मं सम्मर्दयेदृढम् । प्रक्षिपेत्कूप्यके चूर्ण सम्भिन्नाञ्जनसन्निभम् ॥ ताम्रपर्पटि संज्ञोयं रसश्च परिकीर्त्तितः । रोगिणे प्रत्यहं देयो वलयुग्मो जलान्वितः । त्रिभिर्दिनैर्ज्वरो याति श्लेष्मवातादिसम्भवः । वातरक्ते जीर्णेषु ग्रहण्यां कुष्ठरोगिषु || मासैकेन निहन्त्याशु रोगानेतान्सुदारुणान् ॥
शुद्ध पारा और गन्धक २॥ -२ ॥ तोले तथा ताम्र भस्म १। तोला लेकर सबको खरल में घोटकर इतनी महीन कज्जली तैयार कीजिये कि जो कपड़ेमेंसे आसानी के साथ छन सके फिर एक लोहे के पात्रको घी चुपड़कर धूम्ररहित आगपर रखकर उसमें यह कजली डाल दीजिये । जब वह पिघल कर तेलके समान हो जाय तो भूमिपर गायका ताजा गोबर बिछाकर उसपर केलेका पत्ता रख
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तकारादि
दीजिये और उसके ऊपर उपरोक्त पिघली हुई कजलीको हाल कर उसके ऊपर दूसरा पत्ता रखकर उसपर पुन: गोबर डाल दीजिये । यदि केला न मिल सके तो कमलिनीका पत्ता और यदि वह भी न मिले तो नागरवेल्के पानोंसे काम चला लेना चाहिये ।
जब औषध स्वांगशीतल हो जाय तो उसे सावधानी पूर्वक निकालकर अत्यन्त महीन पीसकर भंगरे के रस, बासे (असे) के पत्तोंके रम त्रिकुटा और त्रिफले के काथ, अद्रक के रस, तेजपातके काथ, कटेली और संहजनेकी जड़की छालके रस तथा बछनाग विष और सफेद चन्दनके काथकी सात सात भावना देकर सुखाकर अत्यन्त महीन पीसकर रखिये ।
इसे ६ रत्तीकी मात्रानुसार पानीके साथ सेवन करने से कफज और वातज ज्वर तीन ही दिनमें नष्ट हो जाता है । तथा वातरक्त, अजीर्ण, ग्रहणी और कुछ रोग १ मास तक सेवन करने से नष्ट हो जाते हैं।
(नोट-भूमी पर गोबर इतना बिछाना चाहिये कि जिससे : ४ - ५ अंगुल मोटी शिला सी बन जाय; और उसे चौरस करके उसके धरातलको समान करदेना चाहिये । इस पर पिघली हुई कज्जली बहुत फुरतीसे डालनी चाहिये क्यों कि देर लगासे कजली जम जाती है और फिर पर्पटी अच्छी नहीं बनती। यह भी ध्यान रखना चाहिये कि सम्पूर्ण कज्जली एकही स्थानमें न डाल कर समस्त पत्र पर फैला कर डाली जाय; और उस पर तुरन्त ही दूसरा पत्ता ढककर गोबर फैला दिया जाय ।)
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