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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ २ ] पेषयित्वा बलिः सर्वदेहे लिप्तः प्रयत्नतः । घर्मे तिष्ठेत्ततो रोगी मध्याह्ने तक्रभक्तकम् ॥ भुञ्जीत रात्रौ सेवेत बहिं प्रातः समुत्थितः । महिषीच्छगणैर्देहं संलिप्य स्नानमाचरेत् ॥ शीतोदकेन पामादिखर्जूकुष्ठं प्रशाम्यति ॥ २ निष्क ( ८ माशे) गन्धकको तेल के साथ प्रातःकाल पिलाकर समस्त देहपर गन्धक और मरिचके चूर्णको चिरचिटेके काथमें घोटकर और तैल में मिलाकर मालिशकरके रोगीको धूप में बिठला दीजिए और मध्याह्न में दूधभात खिलाइये | तत्पश्चात् रात्रिको अग्नि तपाकर प्रातःकाल समस्त शरीरपर भैंसके गोबरकी मालिश कराके शीतल जलसे स्नान कराइये । - भैषज्य - भारत इस प्रयोगसे पामा और खुजली तथा कुष्ठ रोग नष्ट होता है । (१५१५) गन्धकगन्धनाशनप्रकारः ( आ. प्र. । अ. ६ ) विचूर्ण्य गन्धकं क्षीरे घनीभावावधिं पचेत् । ततः सूर्यावर्त्तरसं पुनर्दत्वा पचेच्छनैः ॥ पश्चाच्च पातयेत् प्राज्ञो जले त्रैफलसम्भवे । जहाति गन्धको गन्धं निजं नास्तीह संशयः ॥ गन्धकके चूर्णको ( ८ गुने ) दूधमें इतना पकाएं कि वह गाढ़ा हो जाय, फिर उसमें सूर्यावर्त ( हुलहुल ) का रस डालकर धीरेधीर पकाएं और गाढ़ा होनेपर त्रिफला काथमें डालदें । इस क्रियासे गन्धककी गन्ध नष्ट हो जाती है । (१५१६)गन्धकगन्धहरणम् (रसें.चि.मं. अ. ५) देवदाम्लपर्णी वा नागरं वाथ दाडिमम् । मातुलुङ्ग यथालाभं द्रवमेकस्य वा हरेत् ॥ - रत्नाकरः । [ गकारादि गन्धकस्य तु पादांश टङ्कणद्रवसंयुतम् । अनयोर्गन्धकं भाव्यं त्रिभिर्वारं ततः पुनः ॥ धत्तरतुलसीकृष्णालशुनं देवदालिका । शिग्रुमूलं काकमाची कर्पूरं शङ्खिनीद्वयम् ॥ कृष्णा गुरुश्च कस्तूरी बन्ध्याकर्कोटकी समम् । मातुलुङ्गरसैः पिष्ट्वा क्षिपेदेरण्डतैलके ॥ अनेन लोहपात्रस्थं भावयेत् पूर्वगन्धकम् । त्रिवारं क्षौद्रतुल्यस्तु जायते गन्धवर्जितः ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४ भाग गन्धक और १ भाग सुहागेको एकत्र करके देवदाली ( बिण्डाल डोढा ), अम्लपर्णी, नारंगी, अनार और बिजौरे नीबूमेंसे किसी एकके रसकी ३ भावनाएं दीजिए तत्पश्चात् समान भाग धतूरा (पञ्चाङ्ग) तुलसी, पीपल, ल्हसन, देवदाली, सहज की जड़, मकोय कपूर, दोनों प्रकारकी शङ्खा होली, काला अगर, कस्तूरी और बांझ ककोड़ेको बिजोरे नीबूके रसमें घोटकर अरण्डीके तेल में मिलाकर इससे उपरोक्त गन्धकको लोहेके पात्र में तिन भावना दीजिए । इस क्रियासे गन्धक गन्ध रहित हो जाता है । (१५१७) गन्धकगुणाः ( भा. प्र. । ख. १ ) पित्तलः कटुकपाके कण्डूवीसर्पजन्तुजित् ॥ गन्धकः कटुतिक्तो वीर्योष्णस्तुवरः सरः । हन्ति कुष्ठक्षयप्लीहकफवातान् रसायनम् ॥ गन्धक कटु, तिक्त, कषाय, उष्ण, सर, पित्तबर्द्धक, पाकमें कटु, और खुजली, विसर्प, कृमि कुष्ट, क्षय, लीह (तिल्ली ) और कफवात नाशक तथा रसायन है । ( १५१८) गन्धकग्रासविधिः (र.चि.मं. (स्तव. १) सामुद्रकं द्विखण्डं स्वात्तिलखण्डस्य मध्यगम् । कुर्यात्कुण्डलिकां प्राज्ञो मृन्मयां तां द्रढायसीम् ॥ For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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