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चूर्णप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः।
[१३१ ] अथ घकारादिचूर्णप्रकरणम् अर्श रोगमें वायुको अनुलोमन ( यथोचित (१६३१) घननादयोगः ( यो. स.। समु.५) मार्गगामी ) करनेके लिए घीमें भुनी हुई हर्रमें गव्येन दुग्धेन समं निपीतं
गुड़ और पीपलका चूर्ण अथवा निसोत और क्षौद्रेण युक्तं घननादमूलम् ।।
दन्तीमूलका चूर्ण ( समान भाग ) मिलाकर (उष्ण बलां च कोलं गुडमिश्रमद्या
जलसे ) सेवन करना चाहिए। द्रक्तप्रवाहं चिरजं निहन्ति । ॥ इति घकारादिचूर्णपकरणम् ॥ चौलाईकी जड़के चूर्णको शहदमें मिलाकर गोदुग्धके साथ पीने अथवा खरैटीकी जड़ और अथ धकारादिगुटिका-प्रकरणम् बेरको गुड़में मिलाकर खानेसे पुराना रक्तप्रवाह भी बन्द हो जाता है।
(२६३५) घनादिगुटिका (१६३२) घनादिचूर्णम् ( . मा. । बाल.) (वृ. नि. र. । कास.; वै. जी. । वि. ३ ) घनकृष्णारुणाशृङ्गीचूर्ण क्षौद्रेण संयुतम् ।
घनविश्वशिवागुडजा गुटिका शिशोवरातिसारघ्नं कासश्वासवमीहरम् ॥
त्रिदिनं वदनाम्बुजमध्यधृता। नागरमोथा, पीपल, अतीस और काकड़ा
हरति श्वसनं कसनं ललने ! सिंगीका समान भाग मिश्रित चूर्ण शहद में मिलाकर
ललनेव हिमं हृदये निहिता ।। चटानेसे बच्चोंकी खांसी, श्वास, वमन और ज्वरा
___ नागरमोथा, सोंठ, हर्र और गुड़के चूर्णको तिसारका नाश होता है।
एकत्र मिलाकर गोलियां बना लीजिए । इन्हें (१६३३) घनादिचूर्णम् ( वृ.नि.र. । वाल.) मुखमे रखनेसे श्वास और खांसी नष्ट होती है । घनशृङ्गीविषाणाश्च चूर्ण हन्ति समाक्षिकम् ।।
घोडाचोलीगुटिका ( रसः) वान्तिज्वरं तथा योगो मधुनातिविषारजः॥
(“ अश्वकञ्चुकी रस" अवलोकन कीजिये।) नागरमोथा, काकड़ासिंगी और अतिविषा ( अतीस )का समान भाग चूर्ण अथवा केवल
॥ इति घकारादिगुटिकाप्रकरणम् ॥ अतीसका चूर्ण शहदमें मिलाकर चटानेसे बच्चोंकी वमन और ज्वरका नाश होता है ।
अथ धकारादिघृतप्रकरणम् ( व्य. वि-१-१ माशा चूर्ण दिनभरमें (१६३६) घृत धोनेकी विधि ३-४ बार चटाएं ।)
द्रुतहस्तेन संघृष्टं सजलं सर्पिष्पुनःपुनः। १६३४) घृतभर्जितहरीतकी (वं.से.।अशो.) धौत वारसहस्रन्तु तददै शतमेव वा ॥ सगुडां पिप्पलीयुक्तामभयां घृतभर्जिताम् । हिमवज्जायते शीतं वयं मेध्यं तथैव च । त्रिदन्तीयुतां वापि भक्षयेदनुलोमिनीम् ॥६३॥ एतलेपादिषु योज्यं दाहवीसर्पनाशनम् ॥
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