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धवला - टीका - समन्वितः
षटखंडागमः
वर्गणानामधेये
खंड - ५
पुस्तक - १४
भाग - ४, ५, ६
- प्रकाशक
जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर
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श्रीमंत सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन साहित्योद्धारक सिद्धान्त ग्रंथमाला द्वारा अधिकार प्राप्त
जीवराज जैन ग्रंथमाला.
( धवला-पुष्प १४) श्री भगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलि-प्रणीतः
षटखंडागमः
श्रीवीरसेनाचार्य-विरचित-धवला-टीका-समन्वितः
तस्य
पंचमखंडे वर्गणानामधेये हिन्दी भाषानुवाद-तुलनात्मकटिप्पण-प्रस्तावनानेकपरिशिष्टः सम्पादितम्
बंधनानयोगद्वारम
खंड ५
पुस्तक १४
भाग ४, ५, ६
- ग्रंथसम्पादकः - स्व. डॉ. हीरालालो जैनः
- सहसम्पादको - स्व. पं. फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री
स्व. पं. बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री
-प्रकाशक: - जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर
वीर नि. संवत् २५२०
इ. सन १९९४
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प्रकाशक
सेठ अरविंद रावजी
अध्यक्ष- जैन संस्कृति संरक्षक संघ
फलटण गल्ली, सोलापुर - २
*
संशोधित द्वितीय आवृत्ति १९९४ प्रतियाँ- ११००
संशोधक सहाय्यकस्व. डॉ. ए. एन. उपाध्ये
स्व. पं. ब्र. रतनचंदजी मुख्तार
पं. जवाहरलालजी शास्त्री, भिण्डर
ग्रंथमाला संपादक -
पं. नरेंद्रकुमार भिसीकर शास्त्री, सोलापुर ( न्यायतीर्थ महामहिमोपाध्याय )
डॉ. पं. देवेंद्रकुमार शास्त्री, नीमच
Xx
मुद्रक -
कल्याण प्रेस, सोलापुर.
मुद्रण सम्राट, सोलापुर.
मूल्य - १२० /- रुपये
( सर्वाधिकार सुरक्षित )
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Rights to Publish Received From Shrimant Seth Sitabrai Lakshmichandra Jain
Sahityoddhraka Siddhanta Granthamala
Jivaraj Jain Granthamala
Dhavala Section- 14
THE
SHATKHANDAGAMA
OF PUSHPADANTA AND BHOOTABALI
WITH THE COMMENTARY DHAVALA OF VEERASENA
Varganakhanda
Bandhananuyogadwarm
Edited
With introduction, translation, notes and indexes
By Late Pt. Hiralal Jain
Assisted by Late Pt. Phoolachandra Siddhanta Shastri Late Pt. Balachandra Siddhanta Shastri
Vol. 5
Book- 14
Section- 4, 5, 6
Published by Jaina Samskriti Samrakshaka Sangha
SOLAPUR.
Veera Samvat- 2520
A. D. 1994
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Published bySeth Aravind Raoji President Jaina Samskriti Samrashaka Sangha Phaltan Galli, SOLAPUR-2
Revised Second Edition - 1994
( 1100 Copies )
Research Assistants Late Dr. A. N. Upadhye Late Dr. Pt. Ratanchandji Mukhtar Pt. Jawaharlal Jain Shastri ( Bhindar )
Editors of GranthamalaPt. Narendrakumar Bhisikar Shastri (Solapur )
( Nyayateertha, Mahamahimopadhyaya ) Dr. Pt. Devendrakumar Shastri (Neemach )
Printed byKalyan Press, Solapur. Mudran Samrat, Solapur.
Price ; Rs. 120/
( Copyright Resorved )
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हार्दिक अभिनंदन!
धवला षटखंडागमके भाग १० से १६ तक के पुनर्मुद्रण के लिए 'धर्मानुरागी' धवला परम संरक्षक श्री. डॉ. अप्पासाहेब कलगोंडा नाडगौडा पाटील और उनकी धर्मपत्नी सौ डॉ. त्रिशलादेवी अप्पासाहेब नाडगौडा पाटील रबकवी ( कर्नाटक ) इन्होंने आर्थिक सहयोग देकर जिनवाणीको सेवाका जो महान् आदर्श उपस्थित किया है उसके लिए उनका हार्दिक अभिनंदन करते हुए हम उनके प्रति अनेकशः धन्यवाद प्रकट
करते हैं ।
- विश्वस्त मंडल - जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर.
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- प्रकाशकीय निवेदन -
षट्खण्डागम धवला सिद्धांत ग्रंथके पंचम खण्डके चतुर्थ, पंचम तथा षष्ठ वे भागमें अर्थात् चौदहवें पुस्तक में वर्गणाओंका सविस्तर वर्णन किया गया है ।
इस ग्रंथका पूर्व प्रकाशन श्रीमंत सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन साहित्योद्धारक फंड विदिशा द्वारा हुआ है। उसका मूल ताडपत्र ग्रंथसे मिलानकर संशोधित पाठसहित द्वितीयावृत्तिका प्रकाशन अधिकार प्राप्त जीवराज जैन ग्रंथमाला सोलापुर द्वारा प्रकाशित करने में हम अपना सौभाग्य समझते हैं।
स्व. ब्र. रतनचंदजी मुख्त्यार( सहारनपुर) तथा पं. जवाहरलालजी सिद्धान्त शास्त्री । भिंडर ) इनके द्वारा भेजे हुए संशोधनका भी इस संशोधनकार्यमें हमें सहयोग मिला जिसके लिए हम सभी सज्जनोंके अतीव आभारी हैं।
इस ग्रंथका प्रूफ संशोधन कार्य जीवराज जैन ग्रंथमालाके संपादक श्री. पं. नरेंद्रकुमार भिसीकर शास्त्री तथा श्री. धन्यकुमार जैनी द्वारा संपन्न हुआ है । तथा मुद्रणकार्य कल्याण प्रेस, तथा मुद्रण सम्राट, सोलापुर इनके द्वारा संपन्न हुआ है। हम इनके भी आभार प्रदर्शित करते हैं।
धर्मानुरागी श्रीमान् डॉ. अप्पासाहेब कलगोंडा नाडगौडा पाटील तथा उनकी धर्मपत्नी डॉ. सौ. त्रिशलादेवी नाडगौडा पाटील इन महानुभावोंने षट्खण्डागम धवला भा. १० से १६ तकके पुनर्मुद्रणके लिए आर्थिक सहयोग देकर जिनवाणीकी सेवाका महान आदर्श उपस्थित किया। इसलिए उनका हार्दिक अभिनंदन करते हुए हम उनके सहयोग के लिए अनेकश: धन्यवाद प्रकट करते हैं।
- रतनचंद सखाराम शहा
मंत्री
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जीवराज जैन ग्रंथमालाका परिचय
सोलापुर निवासी श्रीमान् स्व. ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी कई वर्षोंसे संसारसे उदासीन होकर धर्मकार्य में अपनी वृत्ति लगाते रहे। सन १९४० में उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठी कि अपनी न्यायोपार्जित संपत्तिका उपयोग विशेषरूपसे धर्म और समाजकी उन्नति के कार्य में करें । तदनुसार उन्होंने समस्त भारतका परिभ्रमण कर जैन विद्वानोंसे इस बातकी साक्षात् और लिखित संमतियां संग्रह की कि कौनसे कार्य में संपत्तिका उपयोग किया जाय । स्फुट मतसंचय कर लेने के पश्चात् सन १९४१ के ग्रीष्म कालमें ब्रह्मचारीजीने श्रीसिद्धक्षेत्र गजपंथ की पवित्र भूमिपर विद्वानोंका समाज एकत्रित किया और ऊहापोहपूर्वक निर्णयके लिये उक्त विषय प्रस्तुत किया । विद्वत्समेलनके फलस्वरूप ब्रह्मचारीजीने जैन संस्कृति तथा साहित्य के समस्त अंगोंके संरक्षण, उद्धार और प्रचारके हेतु 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' की स्थापना की और उसके लिए ३०,००० तीस हजार रुपयों के दानकी घोषणा कर दी। उनकी परिग्रह निवृत्ति बढती गई। सन १९४४ में उन्होंने लगभग २,००,००० दो लाख की अपनी संपूर्ण संपत्ति संघको ट्रस्टरूपसे अर्पण की। इसी संघ के अंतर्गत 'जीवराज जैन ग्रंथमाला' का संचलन हो रहा है।
प्रस्तुत ग्रंथ, श्रीमंत सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन साहिस्योद्धारक सिद्धान्त ग्रंयमाला के द्वारा अधिकार प्राप्त जीवराज जैन ग्रंथमालाके धवला विभागका चौदहवाँ पुष्प है ।
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विषय सूची
प्रस्तावना १ विषय-परिचय २ विषयसूची
मल अनुवाद और टिप्पण १ बंधअनुयोगद्वार २ बंधक अनुयोगद्वार ३ शरीरिशरीरप्ररूपणा ४ चूलिका ५ बंधविधान
१-५६४
१-४६ ४७-२२४ २२५. ४६८ ४६९-५६२ ५६३-५६४
परिशिष्ट १ बंधणअणुयोगद्दार सुत्तापिण २ अवतरण गाथासूची ३ विशेष वाक्यसंग्रह ४ न्यायोक्तियाँ ५ ग्रंथोल्लेख ६ पारिभाषिक शब्दसूची
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स्व. ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी
संस्थापक
जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापूर.
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विषय-परिचय
बन्धनके चार भेद हैं- बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । यहाँ इस अनुयोगद्वारमें, बन्धक और बन्धविधानको सूचनामात्र की है, क्योंकि बन्धकका विशेष विचार खुद्दाबन्ध में और बन्धविधानका विशेष विचार महाबन्ध में किया है । शेष दो प्रकरण अर्थात् बन्ध और बन्धनीयका विचार इस अनुयोगद्वारमें किया है। इस अनुयोगद्वार में बन्धनीयके प्रसंगसे वर्गणाओंका विशेषरूपसे ऊहापोह किया गया है, इसलिए ही स्पर्शसे लेकर यहां तकके पूरे प्रकरणकी वर्गणाखंड संज्ञा पडी है । अब संक्षेपसे इस भाग में वर्णित विषयका ऊहापोह करते हैं ।
१ बन्ध
बन्ध के चार भेद हैं- नामबन्ध, स्थापनाबन्ध, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध | इनमें से नंगम, संग्रह और व्यवहारनय सब बन्धोंको स्वीकार करते हैं। ऋजुसूत्रनय स्थापनाबन्धको स्वीकार नहीं करता है, शेष को स्वीकार करता है । शब्दनय केवल नामबन्ध और भावबन्धको स्वीकार करता है । कारण स्पष्ट है ।
एक जीव एक अजीव नाना जीव और नाना अजीव आदि जिस किसीका बन्ध ऐसा नाम रखना नामबन्ध है । तदाकार और अतदाकार पदार्थों में यह बन्ध है ऐसी स्थापना करना स्थापनाबन्ध है । द्रव्यबन्धके दो भेद हैं- आगमद्रव्यबन्ध और नोआगमद्रव्यबन्ध | भावबन्ध के भी ये ही दो भेद हैं । बन्धविषयक स्थित आदि नौ प्रकारके आगम में वाचना आदि रूप जो उपयुक्त भाव होता है उसे आगम भावबन्ध कहते हैं । नोआगमभावबन्ध दो प्रकारका हैजीवभावबन्ध और अजीवभावबन्ध । जीवभावबन्धके तीन भेद हैं- विपाकज जीवभावबन्ध, अविपाकज जीवभावबन्ध और तदुभयरूप जीवभावबन्ध । जीवविपाकी अपने अपने कर्मके उदयसे जो देवभाव, मनुष्य भाव, तिर्यञ्चभाव, नरकभाव, स्त्रीवेद, पुरुषवेद आदि रूप औदयिक भाव होते हैं वे सब विपाकज जीवभावबन्ध कहलाते हैं। अविपाकज जीवभावबन्धके दो भेद हैंऔपशमिक और क्षायिक । उपशान्त क्रोध, उपशान्त मान आदि औपशमिक अविपाकज जीवभावबन्ध कहलाते हैं और क्षीणमोह, क्षीणमान आदि क्षायिक अविपाकज जीवभावबन्ध कहलाते हैं । यद्यपि अन्यत्र जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक मानकर इन्हें अविपाकज जीवभावबन्ध कहा है पर ये तीनों भाव भी कर्मके निमित्तसे होते हैं, इसलिए यहाँ इन्हें अविपाकज जीवभावबन्ध में नहीं गिना है । तथा एकेन्द्रियलब्धि आदि क्षायोपशमिकभाव तदुभयरूप जीवभावबन्ध कहे जाते हैं । अजीवभावबंध भी विपाकज, अविपाकज और तदुभयके भेदसे तीन प्रकारका है। पुद्गलविपाकी कर्मोंके उदयसे शरीरमें जो वर्णादि उत्पन्न होते हैं वे विपाकज अजीवभावबंध कहलाते हैं । तथा पुद्गल के विविध स्कन्धों में जो स्वाभाविक वर्णाद होते हैं वे अविपाकज अजीवभावबंध कहलाते हैं और दोनों मिले हुए वर्णादिक तदुभयरूप अजीवभावबंत्र कहलाते हैं
यह हम पहले ही संकेत कर आये हैं कि द्रव्यबंध दो प्रकारका है-- आगमद्रव्यबंध और नोआगमद्रव्यबंध । बंत्रविषयक नौ प्रकारके आगम में वाचता आदिरूप जो अनुपयुक्त भाव होता है उसे आगमद्रव्यबंध कहते हैं। नोआगम द्रव्यबंध दो प्रकारका हैप्रयोगबंध और विस्रसाबंध । विस्रसाबंध के दो भेद हैं- सादिविसाबंध और अनादिविस्रसाबंध | अलग अलग धर्मास्तिकायका अपने देशों और प्रदेशोंके साथ अधर्मास्तिकायका अपने
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देशों औरप्रदेशोंके साथ और आकाशस्तिकायका अपने देशों और प्रदेशोंके साथ अनादिकालीन जो बंध है वह अनादि विस्रसाबंध कहलाता है तथा जो स्निग्ध और रूक्षगुणयुक्त पुद्गलोंका जो बन्ध होता है वह सादि विस्रसाबन्ध कहलाता है। सादिविस्रसाबन्धके लिए मूल ग्रन्थका विशेषरूपसे अवलोकन करना आवश्यक है। नाना प्रकारके स्कन्ध इसी सादि विस्रसाबन्धके कारण बनते हैं। प्रयोगबन्ध दो प्रकारका है- कर्मबन्ध और नोकर्मबन्ध । नोकर्मबन्धके पाँच भेद हैंआलापनबन्ध, अल्लीवणबन्ध, संश्लेषबन्ध, शरीरबन्ध और शरीरिबन्ध । काष्ठ आदि पृथग्भूत द्रव्योंको रस्सी आदिसे बाँधना आलापनबन्ध है। लेपविशेषके कारण विविध द्रव्योंके परस्पर बंधनेको अल्लीवणबन्ध कहते हैं लाख आदिके कारण दो पदार्थों का परस्पर बंधना संश्लेषबन्ध कहलाता है। पांच शरीरोंका यथायोग्य सम्बन्धको प्राप्त होना शरीरबन्ध कहलाता है। इस कारण पांच शरीरोंके द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी पन्द्रह भेद हो जाते हैं। नामोंका निर्देश मूल में किया ही है। शरीरबन्धके दो भेद हैं- सादि शरीरबंध और अनादिशरीरबन्ध । जीवका औदारिक आदि शरीरोंके साथ होनेवाले बन्धको सादिशरीरबन्ध कहते हैं। यद्यपि तैजस और कार्मणशरीरका जीवके साथ अनादिबन्ध है पर यहां अनादि सन्तानबन्धकी विवक्षा न होनेसे वह सादिशरीरबन्धमें ही गभित कर लिया गया है। कर्मबन्धका विशेष विचार कर्मप्रकृति अनुयोगद्वारमें पहले ही कर आये हैं ।
२ बन्धक
बन्धकका विशेष विचार खुद्दाबन्धमे ग्यारह अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर पहले कर आये हैं, इसलिए यहाँ इस विषयकी सूचनामात्र दी गई है।
३ बन्धनीय जीवसे पृथग्भूत जो कर्म और नोकर्म स्कन्ध हैं उनकी बन्धनीय संज्ञा है । वे पुद्गल द्रव्य, क्षेत्र काल और भावके अनुसार वेदनयोग्य होते हैं । ऐसा होते हुए भी वे स्कन्ध पर्यायसे परिणत होकर ही वेदनयोग्य होते हैं ऐसा नियम है । उसमें भी सभी पुद्गलस्कन्ध वेदनयोग्य नहीं होते किन्तु तेईस प्रकारको वर्गणाओंमें जो ग्रहणप्रायोग्य वर्गणायें हैं उनके कर्म और नोकर्मरूप परिणत होनेपर ही वे वेदनयोग्य होते हैं अत: यहाँ वर्गणाओंका अनुगम करते हुए उनका इन आठ अनुयोगद्वारोंका अवलम्बन लेकर विचार किया गया है। वे आठ अनुयोगद्वार ये हैं- वर्गणा, वर्गणाद्रव्यसमुदाहार, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, अवहार, यवमध्य पदमीमांसा और अल्पबहुत्व ।
वर्गणा- वर्गणाके दो भेद है- आभ्यन्तर वर्गणा और बाह्य वर्गणा । आभ्यन्तरवर्गणा दो प्रकारको है- एकश्रेणिवर्गणा और नानाश्रेणिवर्गणा । उनमें से एकश्रेणिवर्गणाका सर्व प्रथम सोलह अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर विचार किया गया है । वे सोलह अनुयोगद्वार ये हैंवर्गणानिक्षेप वर्गणानयविभाषणता, वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, वर्गणाध्रुवाध्रुवानुगम, वर्गणासान्तरनिरन्तरानुगम, वर्गणाओजयुग्मानुगम, वर्गणाक्षेत्रानुगम, वर्गणास्पर्शनानुगम, वर्गणाकालानुगम, वर्गणाअन्तरानुगम, वर्गणाभावानुगम, वर्गणाउपनयनानुगम, वर्गणापरिमाणानुगम वर्गणाभागाभागानुगम और वर्गणाअल्पबहुत्वानुगम ।
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( ४ )
यहां वर्गणानिक्षेपके छह भेद करके उनमें से कौन निक्षेप किस नयका विषय है यह बतलाकर इस प्रकरणको समाप्त किया गया है । वर्गणाके सोलह अनुयोगद्वारों में से केवल दो का ही विचार कर वर्गणाद्रव्यसमुदाहारका अवतार क्यों किया गया है यह प्रश्न उठाकर वीरसेनस्वामीने उसका यह समाधान किया है कि वगंणा प्ररूपणा अधिकार केवल वर्गणाओंकी एक श्रेणिका कथन करता है किन्तु वर्गणाद्रव्यसमुदाहार वर्गणाओंकी एकश्रेणि और नाना - श्रेणिका सांगोपांग विचार करता है अतः यहां वर्गणाके शेष चौदह अधिकारोंका कथन न करके वर्गणाद्रव्यसमुदाहारका कथन प्रारम्भ किया है।
वर्गणाद्रव्यसमदाहार- इस अनुयोगद्वारके भी चौदह अवान्तर अधिकार हैं जिनके नाम ये हैं- वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, वर्गणाध्रुवाध्रुवानुगम, वर्गणासान्तरनिरन्तरानुगम वर्गणाओजयुग्मानुगम, वर्गणक्षेत्रानुगम, वर्गणास्पर्शनानुगम, वर्गणाकालानुगम, वर्गणाअन्तरानुगम, वर्गणाभावानुगम, वर्गणा उपनयनानुगम, वर्गणापरिमाणानुगम, वर्गणाभागाभागानुगम और वर्गणा अल्पबहुत्व।
वर्यणाप्ररूपणा- इसके द्वारा तेईस प्रकारकी वर्गणाओंका विचार किया है। वे तेईस प्रकारकी वर्गणायें ये है-एकप्रदेशिक परमाणुपुद्गल द्रव्य वर्गणा, संख्यातप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्य वर्गणा, असंख्यात प्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा, अनन्तप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा, आहारवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, तैजसशरीरद्रव्यवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, भाषाद्रव्यवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, मनोद्रव्यवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, कार्मणद्रव्यवर्गणा, ध्रुवस्कन्धवर्गणा, सान्तरनिरन्तरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा, ध्रुवशून्यद्रव्यवर्गणा, बादरनिगोदद्रव्यवर्गणा, ध्रुवशून्यद्रव्यवर्गणा, सूक्ष्म निगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा और महास्कन्धवगंणा ।
___एक परमाणुकी एकप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा संज्ञा है। द्विप्रदेशिक से लेकर उत्कृष्ट संख्यातप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा तककी सब वर्गणाओंकी संख्यातप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । जघन्य असंख्यातप्रदेशिकसे लेकर उत्कृष्ट असख्यातप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाओंकी असंख्यातप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा संज्ञा है। आहारवर्गणासे पूर्वतककी अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी जितनी वर्गणाये हैं उनकी यहां अनन्तप्रदेशिक परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा संज्ञा दी है। इन्ही वर्गणाओंमें परीत और अपरोतप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणायें भी सम्मिलित हैं । औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके योग्य वर्गणाओंकी आहारवर्गणा संज्ञा है । इसी प्रकार आगे भी अपने अपने कार्य के अनुसार उन उन वर्गणाओंकी संज्ञा जाननी चाहिए । यहां जो चार ध्रुवशून्यवर्गणायें कहीं हैं वे वस्तुतः शून्यरूप हैं । केवल पिछली वर्गण। और अगली वर्गणाके मध्यके शून्यरूप अन्तरालका परिज्ञान कराने के लिए यह संज्ञा दी गई है।
___ यहाँ अन्तमें आई हुई प्रत्येकशरीरवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, सूक्ष्म निगोदवर्गणा और महास्कन्धवर्गणा ये चार ऐसी वर्गणायें हैं जिनके स्वरूपके विषयमें कुछ अलगसे प्रकाश डालना आवश्यक हैं, अतः यहाँ इस विषयमें लिखा जाता है। एक जीवके एक शरीरमे जो कर्म और नोकर्मस्कन्ध संचित होता है उसकी प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा संज्ञा है यह प्रत्येक शरीर पथिवीकायिक, जलकायिक, अप्ति कायिक, वायु कायिक, देव, नारकी, आहारकशरीरी प्रमत्तसंयत और
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केवली जिनके पाया जाता है । इन आठ प्रकारके जीवोंको छोडकर शेष जितने संसारी जीव है उनका शरीर या तो निगोद जीवोंसे प्रतिष्ठित होने के कारण सप्रतिष्ठित प्रत्येकरूप है या स्वयं निगोदरूप है। मात्र जो प्रत्येक वनस्पति निगोदरहित होती है वह इसका अपवाद है। यहां यह प्रश्न उठता है कि जब मनुष्योंके शरीर अन्य अवस्थाओं में निगोदोंसे प्रतिष्ठित होते हैं तब ऐसी अवस्थामें आहारकशरीरी, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जीवों के शरीर निगोदरहित कैसे हो सकते हैं ? समाधान यह है कि प्रमत्तसंयत जीवके जो औदारिकशरीर होता है वह तो निगोदोंसे सप्रतिष्ठित ही होता है। वहां जो आहारकशरीर उत्पन्न होता है वह अवश्य ही निगोदराशिसे अप्रतिष्ठित होने के कारण केवल प्रत्येकरूप होता है। इसी प्रकार जब यह जीव बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है तो वहां उसके शरीरमें जितनी निगोदराशि होती है उसका क्रमसे अभाव होता जाता है और बारहवें गुणस्थानके अंतिम समयमें निगोदराशि और क्रमराशिका पुरी तरहसे अभाव होकर सयोगिकेवली जीवका शरीर केवल प्रत्येकरूप हो जाता है। उसके बाद अयोगिकेवली जीवके यही शरीर रहता है, इससिए यह भी प्रत्येकरूप होता है। यह जघन्य प्रत्येकशरीर वर्गणा क्षपितकशि विधिसे आये हए अयोगिकेवली अंतिम समयमें होती है और उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणा महावनके दाहादिके समय एकबंधनबद्ध अग्निकायिक जीवोंके होती है। यहां यद्यपि महावनके दाहके समय जितने अगि जीव होते हैं उनका अपना अपना शरीर अलग अलग ही होता है, पर वे सब जीव और उन शरीर परस्पर संयुक्त रहते हैं, इसलिए उन सबकी एक वर्गणा मानी गई है। यहां एक प्रश्न यह होता है कि विग्रहगतिमें स्थित जो बादर निगोद और सूक्ष्म निगोद जीव होते हैं उन्हें प्रत्येकशरोर मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि, वहां उन जीवोंका एक शरीर न होनेसे वे सब अलग अलग ही माने जाने चाहिए। इस शकाका समाधान यह है कि वहां भी उनके साधारण नोकर्मका उदय रहता है और इसलिए वे अनंत होते हुए भी एकबंधनबद्ध ही होते हैं, अतः उन्हें प्रत्येकशरीर नहीं माना जा सकता। यह कहना कि विग्रहगतिमें शरीरनामकर्मका उदय देखा जाता है, इसलिए जिनके इन कर्मोंका उदय होता है उन्हें निगोद जीव मानने में कोई बाधा नहीं आती। तथा इनके अतिरिक्त जो जीव होते हैं, चाहे उन्होंने शरीर ग्रहण किया हो और चाहे शरीर ग्रहण न किया हो. वे सब प्रत्येकशरीर जीव कहलाते हैं । इस प्रकार प्रत्येकशरीरवर्गणा किन किन जीवोंके किस प्रकार होती है इसका विचार किया।
उक्त चार वर्गणाओंमें दूसरी वर्गणा बादरनिगोदवर्गणा है। यह वर्गणा क्षपित कशिविधिसे आये हुए क्षीणकषाय जीवके अंतिम समयमें होती है, क्योंकि, एक तो जो क्षपितकशि विधिसे आया हुआ जीव होता है उसके कर्म और नोकर्मका सञ्चय उत्तरोत्तर न्यन न्यन होता जाता है। दूसरे ऐसा नियम है कि क्षपकवेणि पर आरोहण करनेवाले जीवके विशुद्धिवश ऐसी योग्यता उन्पन्न हो जाती है जिससे उस जीवके क्षीणकषाय गणस्थान में पहँचने पर उसके प्रथम समयमें शरीरस्थित अनंत बादरनिगोद जीव मरते है इस प्रकार क्षीणकषायके प्रथम समयसे लेकर आवलिपृथकत्बप्रमाण काल जाने तक उत्तरोत्तर विशेष अधिक विशेष अधिक बाद रनिगोद जीव मरते हैं। उससे आगे क्षीणकषायके काल में आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल शेष रहने तक संख्यातभाग अधिक संख्यातभाग अधिक जीव मरते हैं। उससे अगले समय में असंख्यात गुणे जीव
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मरते हैं। इस प्रकार क्षीणकषायके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे जीव मरते हैं। इस प्रकार क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जो मरनेवाले निगोद जीव होते हैं उनके विस्रसोपचयसहित कर्म और नोकर्मके समुदायको एद बादर निगोदवर्गणा कहते हैं। चूंकि यह अन्य बादर निगोदवर्गणाकी अपेक्षा सबसे जघन्य होती है, अतः क्षपितकशि विधिसे आये हुए जीवके क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य बादर निगोदवर्गणा कही गई है।
यहाँ बारहवें गुणस्थानमें उस गुणस्थानवाले जीवके शरीरके सब निगोद जीवोंके मरनेकी बात कही गई है । इसका अभिप्राय यह है कि सयोगी केवली और अयोगिकेवली जीवका शरीर एक मात्र अपने जीवको छोडकर अन्य त्रस और स्थावर निगोद जीवोंसे रहित हो जाता है । उनके शरीरकी सात धातु और उपधातु यहाँ तक कि रोम, नख, चमडी और रक्त भी एक सयोगिकेवली जीवके शरीरको छोडकर अन्य किसी जीवका आधार नहीं रहता। यहाँ बारहवें गुणस्थानमें यद्यपि क्रमसे निगोद राशिका अभाव बतलाया गया है, इसलिए यह प्रश्न हो सकता है की क्षीणकषाय जीवके शरीरसे निगोदराशिका अभाव होता है तो होओ, पर उसके शरीरसे त्रसराशिका भी अभाव हो जाता है यह कैसे माना जा सकता है ? उत्तर यह है कि नारकी देव, आहारकशरीरी और केवली इन चार प्रकारके त्रस जीवोंके शरीरोंको छोडकर अन्य जितने त्रस जीवोंके शरीर हैं वे सब बादरनिगोद प्रतिष्ठित होते हैं, ऐसा आगमवचन है । अब जब कि केवली जिनके शरीरमें एक भी निगोद जीव नहीं रहता तो वहाँ उनके आधारभूत अन्य क्रमिरूप त्रस जीवोंकी सम्भावना ही नहीं की जा सकती है। यही कारण है कि केवली जिनके शरीरको कृमिरूप त्रस जीवों और बादरनिगोद जीवोंसे रहित बतलाया है निगोद जीव क्षीणकषाय जीवके शरीरमें से क्यों मरने लगते हैं, इसका समाधान वीरसेन स्वामीने इस प्रकार किया है। उनका कहना है कि ध्यानके बलसे वहाँ उत्तरोत्तर बादर निगोद जीवोंकी उत्पत्तिका निरोध होता जाता है, इसलिए क्रमसे नये बादर निगोद जीव उत्पन्न नहीं होते हैं और जो पुराने बादरनिगोद जीव होते हैं उनकी आयु पूर्ण हो जाने के कारण वे मर जाते हैं । यद्यपि क्षीणकषायके शरीर में बादर निगोद जीव सर्वथा उत्पन्न ही नहीं होते ऐसी बात नहीं है । प्रारम्भमें तो वे उत्पन्न होते हैं और क्षीणकषायगुणस्थानके कालम बादरनिगोद जोवकी जघन्य आयु प्रमाण कालके शेष रहने तक वे उत्पन्न होते हैं। इसके बाद नहीं उत्पन्न होते । यहाँ यह प्रश्न होता है कि जिस प्रकार प्रारम्भ में वे उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार क्षीणकषायके अन्तिम समय तक वे क्यों नहीं उत्पन्न होते ? समाधान यह है कि केवली जिनका शरीर प्रतिष्ठित प्रत्येकरूप है ऐसा षटखण्डागम शास्त्रका अभिप्राय है। अब यदि यह माना जाता है कि क्षीणकषाय जीवके शरीरमें अन्तिम समय तक बादर निगोद जीव उत्पन्न होते हैं तो केवली जिनके शरीरमें भी बादर निगोद जीवोंका सद्भाव मानना पडता है। चूंकि केवली जिनके शरीरमें बादर निगोद जीवोंका सद्भाव नहीं बतलाया है, इसलिए यह बात सुतरां सिद्ध हो जाती है कि क्षीणकषायके शरीरमें अन्तिम समय तक बादर निगोद जीव न उत्पन्न होकर जहाँ तक सम्भव है वहीं तक उत्पन्न होते है ।
_____ साधारणतः अन्य शास्त्रोंमें केवली जिनके शरीरको सात धातु और उपधातुसे रहित परमौदारिक रूप कहा गया है और यह भी बतलाया है कि केवलीके शरीरके नख और केश
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नहीं बढते । केवली होने के समय शरीरकी जो अवस्था रहती है, आयुके अन्तिम समय तक वही अवस्था बनी रहती है, सो इन सब बातोंका रहस्य इस मान्यतामें छिपा हुआ है। इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि उनके शरीरमेंसे हड्डी आदिका अभाव हो जाता है। जो चीज जैसी होती है वह वैसी ही बनी रहती है। मात्र उसमें से बादर निगोद जीव और उनके आधारभूत ऋमिका अभाव हो जाने से वह उस प्रकार पुद्गलका सञ्चयमात्र रह जाता है। उदाहरणके लिए दूध लीजिए । गायके स्तनोंसे दूध निकालनेपर कुछ कालमें उसमें जीवोत्पत्ति होने लगती है, पर अग्नि पर अच्छी तरहसे तपा लेनेपर उसमें कुछ काल तक जीवोत्पत्ति नहीं होती। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह दूध ही नहीं रहता । दूध तो उस अवस्थामें भी बना रहता है। इस प्रकार जो बात दूधके विषयमें है वही बात केवली जिनके शरीरके और उसकी धातुओं और उपधातुओंके विषयमें भी जाननी चाहिए ।
_इस प्रकार क्षपितकांश विधिसे आए हुए क्षीणकषाय जीवके अन्तिम समयमें प्राप्त शरीरमें जघन्य बादरनिगोदवर्गणा होती है। तथा स्वयम्भूरमणद्वीपके कर्मभूमिसम्बन्धी भागमें मूलीके शरीरमें उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा होती है। मध्यमें नाना जीवोंका आश्रय लेकर य बादरनिगोदवर्गणायें अनेक विध होती हैं।
तीसरी विचारणीय सूक्ष्मनिगोदवर्गणा है। बादर और सूक्ष्मनिगोदवर्गणामें अन्तर यह है कि बादरनिगोदवर्गणा दूसरेके आश्रयसे रहती है और सूक्ष्म निगोदवर्गणा जलमें, स्थलमें व आकाशमें सर्वत्र विना आश्रयके रहती है। क्षपित कशिविधिसे और क्षपित घोलमान विधिसे आये हुए जो सूक्ष्म निगोद जीव होते हैं उनके यह सूक्ष्म निगोद वर्गणा जघन्य होती है। यह तो आगमप्रसिद्ध बात है कि एक निगोद जीव अकेला नहीं रहता । अनन्तानन्त निगोद जीवोंका एक शरीर होता है। असंख्यातलोकप्रमाण शरीरोंकी एक पुलवि होती है और आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंका एक स्कन्ध होता है। यहाँ ऐसे सूक्ष्म स्कन्धकी एक जघन्य वर्गणा ली गई है। तथा उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणा एक बन्धनबद्ध छह जीवनिकायोंके संघातरूप महामत्स्य के शरीर में दिखलाई देती है। ये अपने जघन्यसे उत्कृष्ट तक निरन्तर क्रमसे पाई जाती हैं। बादर निगोद वर्गणाओंमें जिस प्रकार बीच-बीच में अन्तर दिखलाई देता है उस प्रकार इनमें नहीं दिखलाई देता।
चौथी विशेष वक्तव्य योग्य महास्कन्धद्रव्यवर्गणा है। यह वर्गणा आठों पथिवियाँ, भवन और विमान आदि सब स्कन्धोंके संयोगसे बनती है । यद्यप इन सब पृथिवी आदिमें अन्तर दिखलाई देता है, पर सूक्ष्म स्कन्धों द्वारा उनका परस्पर सम्बन्ध बना हुआ है, इसलिए इन सबको मिलाकर एक महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा मानी गई है।
इसप्रकार ये कुल तेईस वर्गणायें हैं। इनमें से आहारवगंणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा मनोवर्गणा और कार्मणशरीरवर्गणा ये पाँच वर्गणायें जीवद्वारा ग्रहण योग्य हैं, शेष नहीं। इन वर्गणाओंका प्रमाण कितना है, पिछली वगंणासे अगली वर्गणा किस क्रमसे चाल होती है, अपनी जघन्यसे अपनी उत्कृष्ट कितनी बडी है आदि प्रश्नोंका समाधान मलको देखकर कर लेना चाहिए ।
यहां तक एकश्रेणिवर्गणाओंका विचार करके आगे नानाश्रेणिवर्गणाओंका विचार करते हुए कौन वर्गणा कितनी होती है यह बतलाया गया है । एकश्रेणिवर्गणामें जातिकी
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अपेक्षा कुल वर्गणायें तेईस मानकर उनका विचार किया गया है और नानाश्रेणिवर्गणामें प्रत्येक वर्गणा संख्याकी अपेक्षा कितनी हैं इसप्रकार परिमाण बतलाकर विचार किया गया है।
वर्गणानिरूपणा- तेईस प्रकारकी वर्गणाओंमेंसे कौन वर्गणा किस प्रकार उत्पन्न होती है, क्या भेदसे उत्पन्न होती है या संघातसे उत्पन्न होती है, या भेद- संघातसे उत्पन्न होती है इस बातका विचार इस अधिकारमें किया गया है। स्कन्धके टूटने का नाम भेद है। परमाणुओंके समागमका नाम संघात है और स्कन्धका भेद होकर मिलनेका नाम भेद-संघात है। उदाहरणार्थ- द्विप्रदेशी आदि उपरिम वर्गणाओंके भेदसे एकप्रदेशी वर्गणा उत्पन्न होती है। द्विप्रदेशी वर्गणा त्रिप्रदेशी आदि उपरिम वर्गणाओंके भेदसे, एकप्रदेशी वर्गणाओंके संघातसे और स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे उत्पन्न होती है। इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए। मात्र सान्तर- निरन्तर वर्गणासे लेकर अशन्यरूप जितनी वर्गणायें हैं वे सब स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे ही उत्पन्न होती हैं। इतनी बात अवश्य है कि किन्हीं सूत्रपोथियों में सान्तर-निरन्तर वर्गणाकी उत्पत्ति भी पूर्वकी वर्गणाओंके संघातसे, उपरिम वर्गणाओंके भेदसे और स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे बतलाई है। कारणका विचार मूल टीकामें किया ही है, इसलिए वहाँसे जान लेना चाहिए ।
पहले वर्गणाद्रव्यसमुदाहारके चौदह भेद करके सूत्रकारने वर्गणाप्ररूपणा और वर्गणानिरूपणा इन दो का ही विचार किया है। शेष बारहका क्यों नही किया है इस बात का विचार करते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि सूत्रकार चौबीस अनुयोगद्वारस्वरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभूतके ज्ञाता थे, इसलिए उन अनयोगद्वारोंके अजानकार होनेके कारण नहीं किया है, यह तो कहा नहीं जा सकता है। वे उनका कथन करना भल गये इसलिए नहीं किया है या भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि, सावधान व्यक्तिसे ऐसी भूल होना सम्भव नहीं है। फिर क्यों नहीं किया है इस बातका समाधान करते हुए वीरसेनस्वामी कहते हैं कि पूर्वाचार्योंके व्याख्यानका जो क्रम रहा है उसका प्ररूपण करनेके लिए ही यहाँ भूतबलि भट्टारकने शेष बारह अनुयोगद्वारोंका कथन नहीं किया है। इस प्रकार मूल सूत्रोंमें शेष बारह अनुयोगद्वारोंका विचार तो नहीं किया गया है, फिर भी वीरसेनस्वामीने उन अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर वर्गणाओंका विस्तारसे विचार किया है, सो समस्त विषय मलसे जान लेना चाहिए ।
बाह्य वर्गणा विचार इस प्रकार यहाँ तक आभ्यन्तर वर्गणाका विचार करके आगे बाह्यवर्गणाका विचार चार अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर किया गया है। वे चार अनुयोगद्वार ये हैं- शरीरिशरीरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा, शरीरविससोपचयप्ररूपणा और विस्रसोपचयप्ररूपणा । शरीरी जीवको कहते हैं। इनके प्रत्येक और साधारणके भेदसे दो प्रकारके शरीर होते हैं। इन दोनोंका जिसमें प्रतिपादन किया जाता है उसे शरीरिशरीरप्ररूपणा कहते हैं। औदारिक आदि पाँच प्रकारके शरीरोंका अपनी अवान्तर विशेषताओंके साथ जिसमें प्ररूपणा किया जाता है उसे शरीरप्ररूपणा कहते हैं। जिसमें पाँचों शरीरोंके विस्रसोपचयके सम्बन्धके कारणभूत स्निग्ध स्क्षगुणके अविभागप्रतिच्छेदोंका कथन किया जाता है उसे शरीरविनसोपचयप्ररूपणा कहते हैं । तथा जिसमें जीवसे मुक्त हुए उन्हीं परमाणुओंके विस्र सोपचयकी प्ररूपणा की जाती है उसे विस्रसोपचयप्ररूपणा कहते हैं ।
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न्न हुए
शरीरिशरीरप्ररूपणा- इसमें जीवोंके प्रत्येकशरीर और साधारण शरीर ये दो भेद बतलाकर साधारणशरीर वनस्पतिकायिक ही होते हैं और शेष जीव प्रत्येकशरीर होते हैं यह बतलाया गया है। इसके आगे साधारणका लक्षण करते हुए बतलाया है कि जिनका साधारण आहार है और श्वासोच्छ्वासका ग्रहण साधारण है वे साधारण जीव हैं। इनका शरीर एक होता है। उसे व्याप्त कर अनन्तानन्त निगोद जीव रहते हैं, इसलिए इन्हें साधारण कहते हैं और इसीलिए आहार और श्वासोच्छ्वासका ग्रहण भी साधारण होता है। तात्पर्य यह है कि सर्व प्रथम उत्पन्न हुए जीव जितने कालमें शरीर आदि चार पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होते हैं उतने ही कालमें अनन्तर उसी शरीरमें उत्पन्न हुए जीव भी शरीर आदि चार पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो जाते हैं। यहां अलग अलग जीवोंके योगके तारतम्यसे और आगे पीछे उत्पन्न होनेसे पर्याप्तियोंके पूर्ण करने में कोई अन्तर नहीं पड़ता। यहां तक पर्याप्तियोंके पूर्ण होनेके समय में यदि जीव इस शरीरमें उत्पन्न होते हैं तो वे उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही पूर्वमें उत्प जीवों द्वारा ग्रहण किये गये आहारसे उत्पन्न हुई शक्तिको प्राप्त कर लेते हैं। उन्हें उसके लिए अलगसे प्रयत्नशील नहीं होना पडत।। विशेष स्पष्ट कहें तो यह कहा जा सकता है कि पर्याप्तियोंकी निष्पत्तिके लिए एक जीव द्वारा जो अनुग्रहण अर्थात् परमाणु-पुद्गलोंका ग्रहण है वह उस समय वहाँ रहनेवाले या पीछे उत्पन्न होनेवाले अन्य अनन्तानन्त जीवोंका अनुग्रहण होता है, क्योंकि, एक तो उस आहारसे जो शक्ति उत्पन्न होती है वह यगपत सब जीवोंको मिल जाती है। दूसरे उन परमाणुओंसे जो शरीरके अवयव बनते हैं वे सबके होते हैं । इसी प्रकार बहत जीवोंके द्वारा जो अनग्रहण है वह एक जीवके लिए भी होता है। एक शरीरमें जो प्रथम समयमें जीव उत्पन्न होते हैं और जो द्वितीयादि समयों में उत्पन्न होते हैं वे सब यहाँपर एक साथ उत्पन्न हुए माने जाते हैं, क्योंकि, उन सबका एक शरीरके साथ सम्बन्ध पाया जाता है। यह तो उनके आहारग्रहणकी विधि है। उनके मरण और जन्मके सम्बन्ध भी यह नियम है कि जिस शरीरमें एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ नियमसे अनन्तानन्त जीव उत्पन्न होते हैं और जिस शरीर में एक जीव मरता है वहाँ नियमसे अनन्तानन्त जीवोंका मरण होता है। तात्पर्य यह है कि वे एक बन्धनबद्ध होकर ही जन्मते हैं और मरते हैं। वे निगोद जीव बादर और सूक्ष्म के भेदसे दो प्रकारके होते है और ये परस्पर अपने सब अवयवों द्वारा समवेत होकर ही रहते हैं। उसमें भी बादर निगोद जीव मली, थवर और आद्रक आदिके आश्रयसे रहते है और सूक्ष्म निगोद जीव सर्वत्र एक बन्धनबद्ध होकर पाये जाते हैं। एक निगोद जीव अकेला कहीं नहीं रहता। इन निगोद जोवोंके जो आश्रय स्थान हैं उनमें असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीर होते हैं। उनमें से एक एक निगोदशरीरमें जितने बादर और सूक्ष्म निगोद जीव प्रथम समयमें उत्पन्न होते है उनसे दूसरे समय में उसी शरीरमें असंख्यातगुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक उत्तरोत्तर प्रत्येक समयमें असंख्यातगुण हीन असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं। पुन: एक, दो आदि समयसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका अंतर देकर पुनः एक दो आदि समयोंसे लेकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार
परन्तरक्रमसे जबतक सम्भव है वे निगाद जीव उत्पन्न होते हैं। ये सब उत्पन्न हए जीव एक साथ एक क्षेत्रावगाही होकर रहते हैं। सूत्रकार कहते हैं कि ऐसे अनन्त जीव हैं जो अभीतक वसपर्याप्तको नहीं प्राप्त हुए हैं, क्योंकि, इनका एकेन्द्रिय जातिमें उत्पत्तिका
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कारणभूत संश्लेश परिणाम प्रबल है जिससे वे निगोदवास छोडने में असमर्थ हैं। अबतक जितने सिद्ध हुए और जितना काल व्यतीत हुआ उससे भी अनन्तगुणे जीव एक निगोदराशिमें निवास करते हैं। यहाँपर वीरसेनाचार्य संख्यात आदिकी परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि आय रहित जिन राशियोंका केवल व्ययके द्वारा विनाश सम्भव है वे राशियाँ संख्यात और असंख्यात कही जाती हैं। तथा आय न होनेपर भी जिस राशिका व्ययके द्वारा कभी अभाव नहीं होता वह राशि अनन्त कही जाती हैं। यद्यपि अर्धपुद्गल परिवर्तन काल भी अनन्त माना जाता है, पर यह उपचार कथन है। और इस उपचारका कारण यह है कि यह अन्य ज्ञानोंका विषय न होकर अनन्त सज्ञावाले सिर्फ केवलज्ञानका विषय है, इसलिए इसमें अनन्तका व्यवहार किया जाता है। निगोदराशि दो प्रकारकी है- चतुर्गतिनिगोद और नित्य निगोद। जो चारों गतियोंमें उत्पन्न होकर पुनः निगोदमें चले जाते हैं वे चतुर्गतिनिगोद कहलाते है । इतरनिगोद शब्द इसीका वाचक है और जो अबतक निगोदसे नहीं निकले हैं या सर्वदा निगोद में रहते हैं वे नित्यनिगोद कहे जाते हैं। अतीत काल में कितने जीव त्रसपर्यायको प्राप्त कर चुके हैं इस प्रश्नका समाधान करते हुए वीरसेनस्वामी लिखते हैं कि अतीतकालसे असंख्यातगुणे जीव ही अभीतक त्रसपर्यायको प्राप्त हुए हैं।
___यह अर्थपद है। इसके अनुसार यहाँ आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है। वे ये हैं- सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । यहाँ इन आठों अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले, चार शरीरवाले और शरीर सहित जीवोंका ओघ और आदेशसे विचार किया गया है । विग्रहगतिमें विद्यमान चारों गतिके जीव दो शरीरवाले होते है. क्योंकि उनके तेजस और कार्मण ये दो शरीर पाये जाते हैं। औदारिक, तेजस और कार्मणशरीरवाले या वैक्रियिक, तैजस और कार्मणशरीरवाले जीव तीन शरीरवाले होते हैं। औदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मणशरीरवाले या औदारिक, आहारक, तैजस और कार्मणशरीरवाले जीव चार शरीरवाले होते हैं। तथा सिद्ध जीव शरीर रहित होते हैं । यहाँ सत् आदि अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे विशेष व्याख्यान मूलसे जान लेना चाहिए । विशेष बात इतनी है कि सूत्रोंमें केवल सत्प्ररूपणा और अल्पबहुत्व प्ररूपणा ही कही गई है। शेष छहका व्याख्यान वीरसेन आचार्य ने किया है।
शरीरप्ररूपणा- इसका व्याख्यान छह अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे किया गया है। वे छह अनुयोगद्वार ये हैं- नामनिरुक्ति, प्रदेशप्रमाणानुगम, निषेकप्ररूपणा, गुणकार, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व । नामनिरुक्तिमें पाँचों शरीरोंकी निरुक्ति की गई है। प्रदेशप्रमाणानुगममें पाँचों शरीरोंके प्रदेश अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवे भागप्रमाण है यह बतलाया गया है । निषेकप्ररूपणाका विचार अवान्तर छह अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर किया गया है। उनके ये नाम हैं- समुत्कीर्तना प्रदेशप्रमाणानुगम, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, प्रदेशविरच और अल्पबहत्व। समुत्कीर्तना द्वारा बतलाया गया है कि जिन औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीरकी वर्गणाओंका प्रथम समयमें ग्रहण होता है उनमें से कुछ एक समय तक, कुछ दो समय तक इस प्रकार तीन आदि समयसे लेकर जिसकी जितनी उत्कृष्ट स्थिति होती है कुछ उतने काल तक रहती हैं। आशय यह है कि इन शरीरोंको स्थितिमें आवाघा काल नहीं होता। इसी प्रकार तैसजशरोरके
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विषय में भी जानना चाहिए। मात्र तैजसशरीरकी उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागर लेनी चाहिए । कार्मणशरीर के परमाणु ग्रहण करनेके बाद एक आवलि तक नहीं खिरते, इसलिए इसके परमाणु कुछ एक समय अधिक एक आवलि तक और कुछ दो समय अधिक एक आवल तक इस प्रकार तीन समय अधिक एक आवलिसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे कर्म स्थितिप्रमाण काल तक रहते हैं । कार्मणशरीरकी स्थिति में कमसे कम एक आवलिप्रमाण आबाधा काल है, इसलिए यहाँ आबावाको ध्यान में रखकर निर्जराका विचार किया गया है । प्रदेशप्रमाणानुगम में बतलाया है कि पाँचों शरीरोंके प्रदेश प्रत्येक समय में अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण प्राप्त होते हैं । और यह क्रम अपनी अपनी स्थिति तक जानना चाहिए । अनन्तरोपनिधामें बतलाया है कि पाँचों शरीरोंके प्रदेश प्राप्त होकर प्रथम समय में बहुत दिये जाते हैं । तथा द्वितीयादि समयोंमें विशेष हीन विशेष हीन दिए जाते हैं । इस प्रकार अपनी अपनी स्थिति पर्यन्त जानना चाहिए । परम्परोपनिधा में बतलाया है कि प्रारम्भके तीन शरीरों के प्रदेश प्रथम समयमें जितने दिये जाते हैं, अन्तर्मुहूर्त जाने पर उसके अन्तिम समय में वे आध दिये जाते हैं । इसलिए इन शरीरोंकी एक द्विगुणहाणि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और नाना द्विगुणहानियाँ आदिके दो शरीरोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और आहारकशरीरमें संख्यात समयप्रमाण होती हैं । तथा तैजसशरीर और कार्मणशरीरके प्रदेश प्रथम समय में जितने निक्षिप्त होते हैं, पल्यके असंख्यातवें भाग जाकर वे आधे निक्षिप्त होते हैं। इनकी एक द्विगुणहानि पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है और नाना द्विगुणहानियाँ पल्यके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । प्रदेशविरच में सोलह पदवाला दण्डक कहा गया है जिसमें पर्याप्तनिर्वृत्ति, निर्वृत्तिस्थान और जीवनीयस्थान इनका स्वतन्त्र भाव से और सम्मूच्र्छन, गर्भज व औपपादिक जीवोंके आश्रयसे स्वस्थान अल्पबहुत्व कहा गया है । उसके बाद इन्हींका परस्थान अल्पबहुत्व कहा गया है । पुनः इसके आगे प्रदेशविरचके छह अवान्तर अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश करके उनके आश्रयसे पाँच शरीरोंकी प्ररूपणा की गई है। उनके नाम ये हैं- जघन्य अग्र स्थिति, अग्रस्थितिविशेष, अग्रस्थितिस्थान, उत्कृष्ट अग्र स्थिति, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्व । निषेकप्ररूपणा के अंतिम अनुयोगद्वार अल्पबहुत्व में पाँच शरीरोंके आश्रय से एक गुणहानि और नाना गुणहानियों के अल्पबहुत्वका विचार किया गया है । इस प्रकार अपने अवान्तर अधिकारोंके साथ निषेक प्ररूपणाका कथन करके गुणकार अनुयोगद्वारमें पाँच शरीरोंके प्रदेश उत्तरोत्तर कितने गुणे हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए गुणकारका कथन किया है। पदमीमांसा में औदारिक आदि पाँच शरीरोंके जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशों का स्वामी कौन-कौन जीव है इसका विचार किया गया है । अल्पबहुत्व में औदारिक आदि पाँच शरीरोंके प्रदेशों के अल्पबहुत्वका विचार कर शरीरप्ररूपणा समाप्त की गई है ।
शरीरवित्र सोपचयप्ररूपणा - यद्यपि पांच शरीरोंमें स्निग्धादि गुणोंके कारण जो परमाणुपुद्गल सम्बद्ध होकर रहते हैं उनकी विस्रसोपचय संज्ञा है । फिर भी यहाँ पर इन विस्रसोपचयोंके कारणभूत जो स्निग्धादि गुण हैं उन्हें भी कारण में कार्यका उपचार करके विस्रसोपचय कहा गया है । इस प्रकार यहां इन्हीं स्निग्वादि गुणोंका इस अनुयोगद्वार में अपने छह अवान्तर अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर विचार किया गया है । उनके नाम ये हैंअविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धक प्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा
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और अल्पबहुत्व । अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणामें बतलाया है कि औदारिक शरीरके एक एक प्रदेश में सब जीवोंसे अनन्तगुणे अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। वर्गणाप्ररूपणामें बतलाया है कि इस प्रकार अविभागप्रतिच्छेदवाले सब जीवोंसे अनन्त गुणे परमाणुओंकी एक वर्गणा होती है और ये सब वर्गणायें अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण होती हैं। इतनी वर्गणाओंका एक औदारिकशरीरस्थान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। स्पर्धक प्ररूपणामें बतलाया है कि अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणाओंका एक स्पर्षक होता है । तथा सब स्पर्धक मिलकर भी इतने ही होते हैं। अन्तर प्ररूपणामें बतलाया है कि एक स्पर्धकसे दूसरे स्पर्धककी अन्तिम वर्गणामें जितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं उन्हें सब जीवोंसे अनन्तगुणे करने पर जो लब्ध आवे उतने अविभागप्रतिच्छेद उससे अगले स्पर्धककी प्रथम वर्गणामें जानने चाहिए। शरीरप्ररूपणामें बतलाया है कि ये अनन्त अविभागप्रतिच्छेद शरीरके बन्धनके कारणभूत गुणोंका प्रज्ञासे छेद करने पर उत्पन्न होते हैं और फिर यहीं पर प्रसंगसे छेदके दस भेदोंका स्वरूपनिर्देश किया गया है। अल्पबहत्वमें पांच शरीरोंके अविभागप्रतिच्छेदोंके अल्पबहत्वका विचार करके शरीरविस्रसोपचयप्ररूपणा समाप्त की गई है।
वित्रसोपचयप्ररूपणा- जो पाँच शरीरोंके पुद्गल जीवने छोड दिये हैं और जो औदारिकभावको न छोडकर सब लोकमें व्याप्त होकर अवस्थित हैं उनकी यहाँ विस्रसोपचय संज्ञा मानकर विस्रसोपचयप्ररूपणा की गई है। एक एक जीवप्रदेश अर्थात् एक एक परमाण पर सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय उपचित रहते हैं और वे सब लोकमें से आकर विस्रसोपचयरूपसे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं। या वे पाँच शरीरोंके पुद्गल जीवसे अगल होकर सब आकाश प्रदेशोंसे सम्बन्धको प्राप्त होकर रहते हैं। इस प्रकार जीवसे अलग होकर सब लोकको प्राप्त हुए उन पुद्गलोंकी द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, कालहानि और भावहानि किस प्रकार होती है, आगे यह बतलाया गया है और यह बतलाने के बाद जीवसे अभेदरूप पाँच शरीर पुद्गलोंके विस्रसोपचयका माहात्म्य बतलाने के लिए अल्पबहुत्वका निर्देश किया गया है। तथा मध्यमें प्रसंगसे जीवप्रमाणानुगम प्रदेशप्रमाणानुगम और इनके अल्पबहुत्वका भी विचार किया गया है। इस प्रकार इतना विचार करने पर बाह्यवर्गणाका विचार समाप्त होता है।
चलिका __ पहले जो अर्थ कह आये हैं उनका विशेषरूपसे कथन करना चूलिका है। पहले 'जत्थेय मरदि जीवो' इत्यादि गाथा कह आधे हैं । यहां पर सर्व प्रथम इसी गाथाके उत्तरार्ध विचार किया गया है। ऐसा करते हुए बतलाया है कि प्रथम समयमें एक निगोद जीवके उत्पन्न होने पर उसके साथ अनन्त निगोद जीव उत्पन्न होते हैं। तथा जिस समय ये जीव उत्पन्न होते हैं उसी समय उनका शरीर और पुलवि भी उत्पन्न होती है। तथा कहीं कहीं पुलविकी उत्पत्ति पहले भी हो जाती है, क्योंकि, पुलवि अनेक शरीरोंका आधार है, इसलिए उसकी उत्पत्ति पहले मानने में कोई बाधा नहीं आती। साधारण नियम यह है कि अनन्तानन्त निगोद जीवोंका एक शरीर होता है और असंख्यात लोकप्रमाण शरीरोंकी एक पुलवि होती है। प्रथम समय में जितने निगोद जीव
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उत्पन्न होते हैं दूसरे समयमें वहीं पर असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं । तीसरे समय में उनसे भी असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं । उसके बाद कमसे कम एक समयका और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका अन्तर पड जाता है। पुन: अन्तरके बादके समय में असंख्यातगणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं और यह क्रम आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक चालू रहता है। इस प्रकार इन निगोद जीवोंकी उत्पत्ति और अन्तरका क्रम कहकर अद्धाअल्पबहुत्व और जीव अल्पबहुत्वका विचार किया गया है । अद्धाअल्पबहुत्वमें सान्तरसमयमें और निरन्तरसमयमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका अल्पबहत्व तथा इन कालोंका अल्पबहुत्व विस्तारके साथ बतलाया गया है । जीव अल्पबहुत्वमें कालका आश्रय लेकर जीवोंका अल्पबहुत्व बतलाया गया है । इसके बाद स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियों में जो बादर और सूक्ष्म निगोद जीव उत्पन्न होते हैं वे सब पर्याप्त ही होते हैं या अपर्याप्त ही होते हैं या मिश्ररूप ही होते हैं इस प्रश्नका समाधान करते हुए प्रतिपादन किया है कि सब बादर निगोद जीव पर्याप्त ही होते हैं, क्योंकि, अपर्याप्तकोंकी आयु कम होनेसे वे पहले मर जाते हैं, इसलिए पर्याप्त जीव ही होते हैं। किन्तु इसके बाद वे मिश्ररूप होते हैं, क्योंकि बादमें पर्याप्त और अपर्याप्त बादर निगोद जीवोंके एक साथ रहने में कोई बाधा नहीं आती। किन्तु सूक्ष्म निगोद वर्गणामें सभी सूक्ष्म निगोद जीव मिश्ररूप ही होते हैं, क्योंकि, इनकी उत्पत्तिके प्रदेश और कालका कोई नियम नहीं है ।
इस प्रकार 'जत्थेय मरदि जीवो' इत्यादि गाथाके उत्तरार्धका कथन करके उसके पूर्वार्धका विचार करते हुए बतलाया गया है कि जो बादर निगोद जीव उत्पत्तिके क्रमसे उत्पन्न होते हैं और परस्पर बन्धनके क्रमसे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं उनका मरणका क्रमसे ही निर्गम होता है। इनका उत्पत्तिके क्रमसे निर्गमन नहीं होता है, किन्तु मरण के क्रमसे निर्गमन होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । मरणका क्रम क्या है इस प्रश्नका समाधान करते हुए बतलाया है कि वह दो प्रकारका है- यवमध्यक्रम और अयवमध्य क्रम। इनमेंसे पहले अयवमध्यक्रमका निर्देश करते हैं- सर्वोत्कृष्ट गुणश्रेणिके द्वारा मरनेवाले और सबसे दीर्घकाल द्वारा निर्लेप्यमान होनेवाले जीवोंके अन्तिम समयमें मृत होनेसे बचे हुए निगोदोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । यहाँ निगोद शब्द पुलविधाची है। अभिप्राय यह है कि क्षीणकषायके अन्तिम समय में पूर्व में मृत हुए जीवोंसे बचे हुए जीवोंकी पुलवियाँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है। क्षीण कषायके अन्तिम समय में निगोद जीवोंके शरीर असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं और एक एक शरीर में पूर्व में मरनेसे बचे हुए अनन्त निगोद जीव होते हैं। तथा उनकी आधारभत पुलवियाँ उक्त प्रमाण होती हैं । यहाँ क्षीणकषायके कालके भीतर वा थवर आदि में मरनेवाले जीवोंकी प्ररूपणा चार प्रकारकी है- प्ररूपणा. प्रमाण. श्रेणि और अल्पबहुत्व । प्ररूपणामें बतलया है कि क्षीणकषायके प्रत्येक जीव मरते है । प्रमाणमें बतलाया है कि क्षीणकषायके प्रत्येक समयमें अनंत जीव मरते हैं। श्रेगि दो प्रकारकी है- अनंतरोपनिधा और परंपरोपनिधा। अनंतरोपनिधामें बतलाया है कि क्षीणकषायके प्रथम समयमें मरनेवाले जीव स्तोक हैं। दूसरे समय में मरनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार आवलिपृथक्त्व कालतक प्रत्येक
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समय में विशेष अधिक विशेष अधिक जीव मरते हैं । उसके आगे विशेष अधिक मरणके अन्तिम समयतक प्रत्येक समय में संख्यात भाग अधिक जीव मरते हैं। उसके बाद क्षीणकषाय के संख्यातवें भागप्रमाण कालमेंसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल शेष रहनेपर इसके भीतर असंख्यातगुणित क्रमसे गुणश्रेणि मरण होता है । परम्परोपनिषामें बतलाया है कि क्षीणकषाय के प्रथम समय में जितने जीव मरते हैं उससे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल जानेपर मरनेवाले जीव दूने हो जाते हैं, इस प्रकार इतना इतना अवस्थित अध्वान जाकर मरनेवाले जीवोंकी संख्या दूनी दूनी होती जाती है और यह क्रम असंख्यातवें भाग अधिक मरनेवाले जीवोंके अन्तिम समयके प्राप्त होनेतक जानना चाहिए। उसके बाद अन्तिम समयतक प्रत्येक समय में असंख्यातगुणे जीव मरते हैं ।
अग्गे क्षीणकषायके कालमें बादर निगोद जीवके जघन्य आयुप्रमाण कालके शेष रहनेपर बादर निगोद जीव नहीं उत्पन्न होते हैं । इस अर्थको स्पष्ट करनेके लिए आयुओंका अल्पबहुत्व बतलाया गया है । आगे जघन्य और उत्कृष्ट बादर और सूक्ष्म निगोद जीवोंकी पुलवियों का परिमाण बतलाकर सब निगोदोंकी उत्पत्तिमें कारण महास्कन्धके अवयव आठ पृथिवी, टङ्क, कूट, भवन, विमान, विमानेन्द्रक आदि बतलाये गये हैं। साथ ही यह भी बतलाया गया है कि जब मास्कन्धके स्थानोंका जघन्य पद होता है तब बादर सपर्याप्तकोंका उत्कृष्ट पद होता है और जब बादर सपर्याप्तकोंका जघन्य पद होता हैं तब मूल महास्कन्धस्थानोंका उत्कृष्ट पद होता है ।
आगे मरणयवमध्य और शमिलायवमध्य आदिका कथन करनेके लिए संदृष्टियां स्थापित करके सब जीवोंमें महादन्डकका कथन किया गया है और संदृष्टियों में जो बात दरसाई गई है उसका यहां सूत्रोंद्वारा प्रतिपादन किया गया है । यहा विशेष जानकारीके लिए मूलका स्वाध्याय अपेक्षित है । इस प्रकार इतने कथन द्वारा ' जत्थेय मरइ जीवो' इस गाथाकी प्ररूपणा समाप्त होती हैं ।
अब पांच शरीरोंके ग्रहण योग्य कौन वर्गणायें हैं और कौन ग्रहण योग्य नहीं हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए ये चार अनुयोगद्वार आये हैं- वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, प्रदेशार्थता और अल्पबहुत्व । वर्गणाप्ररूपणा में पुन: एक प्रदेशी परमाणु पुद्गल द्रव्य वर्गणा से लेकर कार्मणद्रव्यवर्गणा तककी सब वर्गणाओंका नामोल्लेख किया गया है । वर्गणानिरूपणा में इन वर्गणाओं में से एक-एक वर्गणाको लेकर यह वर्गणा ग्रहणप्रायोग्य नहीं है ऐसी पृच्छा करके जो जो वर्गणा ग्रहणप्रायोग्य नहीं है उसे अग्रहणप्रायोग्य बतलाकर अन्त में यही पृच्छा अनन्तानन्त परमाणु पुद्गल द्रव्य वर्गणाके विषय में करके यह बतलाया गया है कि इसमें से कुछ वर्गणायें ग्रहणप्रायोग्य हैं और कुछ वर्गणायें ग्रहणप्रायोग्य नहीं हैं। इसका विशेष खुलासा करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि इस सूत्र में जघन्य आहारवर्गणासे लेकर महास्कन्धद्रव्य वर्गणा तक सब वर्गणाओंकी अनन्तानन्तप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा संज्ञा है। इनमें से आहारवर्गणा तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा मनोवर्गणा और कार्मणशरीरखगंणा ये पाँच वर्गणायें ग्रहणप्रायोग्य हैं, शेष नहीं । जो पांच वर्गणायें ग्रहणप्रायोग्य हैं उनमें आहारवर्गणा मेंसे औदारिकशरीर Safararरीर और आहारकशरीर इन तीन शरीरोंका ग्रहण होता है । तैजस वर्गणामेंसे तैजसशरीरका ग्रहण होता है । भाषावर्गणा में से चार प्रकारकी भाषाओंका ग्रहण होता है ।
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मनोवर्गणामेंसे चार प्रकारके मनकी रचना होती हैं और कार्मणवर्गणामेंसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मोका ग्रहण होता है। इन सूत्रोंकी टीका करते हुए वीरसेन स्वामीने एक बहुत ही महत्वकी बातकी ओर ध्यान आकृष्ट किया है। उनका कहना है कि यद्यपि आहार वर्गणासे औदारिक आदि तीन शरीरोंका निर्माण होता है पर जिन आहारवर्गणाओंसे औदारिकशरीरका निर्माण होता है उनसे वैक्रियिक और आहारक शरीरका निर्माण नहीं होता। जिन आहारवर्गणाओंसे वैक्रियिकशरीरका निर्माण होता हैं उनसे औदारिक और आहारकशरीरका निर्माण नहीं होता । तथा जिन आहारवर्गणाओंसे आहारकशरीरका निर्माण होता है उनसे औदारिक और वैक्रियिकशरीरका निर्माण नहीं होता । वस्तुत: औदारिक आदि तीन शरीरोका निर्माण करनेवाली आहारवर्गणायें अलग अलग है उनके मध्य में ब्यवधान न होनेसे उनकी एक वर्गणा मानी गई है । इसी प्रकार भाषा आदि वर्गणाओंमें चार भाषाओं, चार मन और आठ कर्मोकी वर्गणायें भी अलग अलग जाननी चाहिए । इस प्रकरणके जो सूत्र हैं उन्हीके आधारसे उन्होंने यह अर्थ फलित किया है। प्रदेशार्थतामें सब शरीरोंकी प्रदेशार्थता अनन्तानन्त प्रदेशवाली है यह बतलाकर आदिके तीन शरीरोंमें पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श बतलायें हैं। तथा अन्तके दो शरीरोंम पांच वर्ण पाँच रस, दो गन्ध और चार स्पर्श बतलाये हैं। आहारकशरीरमें धवल वर्ण होता है ऐसी अवस्था में यहां पांच वर्ण कसे बतलाये हैं इसका समाधान करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि आहारकशरीरके विस्रसोपचयकी अपेक्षा उसका धवल वर्ण कहा जाता है, वैसे उसमें पांचो वर्ण होते हैं । इसी प्रकार इस शरीरमें अशुभ रस, अशुभ गन्ध और अशुभ स्पर्श अव्यक्त भावसे रहते हैं, या अशुभ रस, अशुभ गन्ध, और अशुभ स्पर्श
ली वर्गणाये आहारकशरीररूपसे परिणमन करते समय शभ रूप हो जाती हैं, इसलिए इसम पांच वर्गों के समान पांच रस, दो गन्ध और आठस्पर्श भी बतलाये है । तथा तैजस और कार्मण स्कन्ध प्रतिपक्षरूप स्पर्श नहीं होते, इसलिए चार स्पर्श बतलाये है । अल्पबहुत्व दो प्रकारका है- प्रदेश अल्पबहुत्व और अवगाहना अल्पबहुत्व । प्रदेशअल्पबहुत्वमें बतलाया है कि औदारिकशरीर द्रव्य वर्गणाके प्रदेश सबसे स्तोक है। उनसे वैक्रियिकशरीर द्रव्यवर्गणाके प्रदेश असंख्यात गुणं हैं। उनसे आहारकशरीर द्रव्यवर्गणाके प्रदेश असंख्यातगुणे है। उनसे आहारकशरीय द्रव्यवर्गणाके प्रदेश असंख्यातगुण हैं । उनसे तैजसशरीर द्रव्यवर्गणाके प्रदेश अनन्तगुणे हैं । उनसे भाषा, मन और कार्मणशरीर द्रव्यवर्गणाके प्रदेश उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं अवगाहना अल्पबहुत्वमें बतलाया है कि कार्मणशरीर द्रव्यवर्गणाकी अवगाहना सबसे स्तोक है। उससे मनोद्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी है। उससे भाषाद्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी है। उससे आहारकशरीर द्रव्यवर्गंणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी है। उससे वैक्रियिकशरीर द्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी है और उससे औदारिक शरीर द्रव्यवर्गणाकी अवगाहना असंख्यातगुणी है।
बन्धविधान बन्धके चार भेद हैं-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । इन चारोंका विस्तारसे निरूपण भगवान् भूतबलि भट्टारकने महास्कन्ध में किया है । उसका यहां पर प्ररूपण करनेपर बन्धविधान समाप्त होता है।
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पृष्ठ
२२
२
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विषय-सूची विषय पृष्ठ |
विषय मंगलाचरण
विचार
१८ बन्धनके चार भेद व उनके नाम
अजीवभावबन्धके तीन भेद व उनका बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान
स्वरूप निर्देश शब्दोंकी निरुक्ति
१ | विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्धका विचार २३ बन्ध आदि शब्दोंका लक्षण
अविपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्धका बन्ध अनुयोगद्वार विचार
२४ बन्धके चार भेद
| तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावबंधका विचार नामबन्ध आदिमें से किसको कौन नय द्रव्यबंधके दो भेद स्वीकार करता है इसका विचार
आगमद्रव्यबंधका विशेष विचार नामबन्धका विचार
४ नोआगम द्रव्यबंधके दो भेद स्थापनाबन्धका विचार
| विस्रसाबंधके दो भेद काष्ठकर्म आदिकी व्याख्या
| अनादिविस्रसाबंधके तीन भेद व उनका भावबन्धके दो भेद
७ | विशेष ऊहापोह आगम भावबन्ध का विचार
सादिविस्रसाबंधका विशेष विचार आगमके नौ भेद और उनके लक्षण
| भंदके कारणका निर्देश उपयोगके आठ भेद और उनके लक्षण
कौन पुद्गल नहीं बँधते और कोन पुद्गल नोआगम भावबन्धके दो भेद ।
बँधते हैं इस बातका विचार जीवभावबन्धके तीन भेद व उनके लक्षण
कितनी मात्रा हीन व अधिक होने पर । विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्धका विचार १०
बंध होता है इस बात का विशेष विचार अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्धके दो भेद १२
| विषम और सम शब्दके अर्थ जीवत्व आदि तीनका अविपाक प्रत्ययिक
जघन्य गुणवाले पुद्गल नहीं बँधते इस जीवभावके भेदोंमें न ग्रहण करने के
बातका निर्देश कारणका ऊहापोह तत्त्वार्थसूत्र में जीवत्व आदिको पारिणामिक
सादिविस्रसाबंध का उदाहरण सहित किस अभिप्रायसे कहा है इस बातका
निर्देश भी निर्देश
प्रयोगबंधके दो भेद व प्रयोगबंधका असिद्धत्व भावके दो भेद ही भव्यत्व और
लक्षण
३६
नोकर्म बंधके पांच भेद व उनका स्वरूप अभव्यत्व औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभाव
| निर्देश बन्धका बिचार
१४ | आलापनबंधका उदाहरणसहित निर्देश क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्धका- | अल्लीवणबंध का उदाहरणसहित निर्देश ३९ विचार
१५ | संश्लेषबंधका उदाहरण सहित निर्देश तदुभयअविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्धका शरीरबंधके पाँच भेद
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or
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(१७)
KK WWWWW०० ००
४७
६५
विषय पृष्ठ
विषय शरीरोंके परस्पर बन्धसे उत्पन्न होनेवाले अग्रहणद्रव्यवर्गणाका विचार पन्द्रह अवान्तर भेदोंका निर्देश ४२ तैजसद्रव्यवर्गणाका विचार शरीरिबन्ध के दो भेद
४४ अग्रहणद्रव्यवर्गणाका विचार सादि शरीरिबन्धका विशेष विचार ४५
भाषाद्र व्यवर्गणाका विचार अनादि शरीरिबन्धका सोदाहरण विचार ४६
| अग्रहणद्रव्य वर्गणाका विचार कर्मबन्धके विषय में सूचना
मनोद्रव्यवर्गणाका विचार बन्धक अनयोगद्वार
अग्रहणद्रव्यवर्गणाका बिचार
कार्मणद्रव्यवर्गणाका विचार गति आदि चौदह मार्गणावाले जीव
ध्रुवस्कन्ध द्रव्यवर्गणाका विचार बन्धक है इस बातका निर्देश
ध्रुवस्कन्ध शब्द देने का प्रयोजन गति मार्गणाके आश्रयसे बंधकोंका निर्देश
सान्तरनिरन्तरद्रव्यवर्गणाका विचार करके खुद्दाबन्धके ग्यारह अनुयोगद्वारोंके
ध्रुवशन्यवर्गणाका विचार समान जानने की सूचना
४७ प्रत्येकशरीरवगणाका विचार बन्धनीय अनुयोगद्वार
प्रत्येकशरीरवर्गणाका स्वरूपनिर्देश बन्धनीय कौन हैं इस बात का निर्देश ४८ प्रत्येकशरीरवर्गणाके जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट वर्गणाप्ररूपणाके आश्रयसे आठ अनुयोगद्वारोंकी तकके अवान्तर भेदोंका विशेष विचार ६५ सूचना व उनका सयुक्तिक विचार ४९ ध्रुवशून्यवर्गणाका विचार
८३ वर्गणाके सोलह अनुयोगद्वारोंका नाम निर्देश ५० | बादरनिगोदवर्गणाका विचार वर्गणाके दो भेद व उनकी मीमांसा ५१ बादरनिगोदवर्गणाके जघन्यसे लेकर वर्गणानिक्षेपके छह भेद व निक्षेपकथनका उत्कृष्ट तकके अवान्तर भेदोंका निर्देश ८४ प्रयोजन
क्षीणकषाय गुणस्थानमें बादरनिगोद जीवों कौन नय किस निक्षेपको स्वीकार करता है
का मरण होकर आगे उनका अभाव इस बातका विचार
क्यों हो जाता है इसका विचार वर्गणाद्रव्यसमुदाहारके चौदह अनुयोगद्वारोंका
हिंसा और अहिंसाके स्वरूप पर प्रकाश ८९ नामनिर्देश
ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणाका विचार ११२ वर्गणाके सोलह अनुयोगद्वारोंमेंसे आदिके दो
दवर्गणाका विचा
११३ का ही कथन क्यों किया है इस
सूक्ष्म निगोदवर्गणाके आधारका निर्देश ११३ बातका विचार
सूक्ष्म निगोदवर्गणाके जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट वर्गणाद्रव्यसमुदाहारका विशेष रूपसे कथन
तकके अवान्तर भेदोंका विशेष विचाय ११४ क्यों किया है इस बातका विचार
ध्रुवशून्यद्रव्यवर्गणाका विचार एकप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाका
महास्कन्धद्रव्यवर्गणाका विचार
११७ विचार
सब वर्गणाओंके लानेके लिए गुणकार द्विप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाका क्या क्या है इस बातका निर्देश विचार
नानाश्रेणिवर्गणाओंकी प्ररूपणा ११८ त्रिप्रदेशी आदि परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाओंका एक प्रदेशी आदि सब वर्गणायें कैसे उत्पन्न विचार
होती हैं इस विषयका विशेष ऊहापोह १२० आहार द्रव्यवर्गणाका विचार ५९ | नानाणि शब्दका अर्थ
१३४
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( १४ )
१४०
१४७
१४७
१४८
विषय पृष्ठ विषय
पृष्ठ चौदह अनुयोगद्वारोंमेंसे दो का ही कथन नानाश्रेणिवर्गणाअल्पबहुत्वानुगम क्यों किया इसका सयुक्तिक उत्तर १३४ अनन्तरोपनिधाके दो भेद
१७९ एकश्रेणि ध्रुवाश्र्वानुगम अनुयोगद्वारके द्रव्यार्थतारूप अनन्तरोपनिधाका विचार १७९ आश्रयसे विचार
परम्परोपनिधाके दो भेद
१८२ इसी प्रकार नानाश्रेणि ध्रुवाध्रुवानुगमके द्रव्यार्थतारूप परम्परोपनिधाका विचार १८२ जाननेकी सूचना
इसी प्रसंगसे प्ररूपणा आदि तीन अनुयोगएकश्रेणि सान्तरनिरन्तरानुगमके आश्रयसे ।
द्वारोंके आश्रयसे विचार
१८२ सब वर्गणाओंका विचार
प्रदेशार्थतारूप अनन्तरोपनिधाका विचार १८३ इसी प्रकार नानाश्रेणि सान्त रनिरन्तरानुगमके
अनन्तरोपनिधामें द्रव्यार्थताकी संदृष्टि १८४ जाननेकी सूचना
अनन्तरोपनिधामें प्रदेशार्थताकी संदृष्टि १८४
प्रदेशोंका आश्रय लेकर यवमध्य एकश्रेणिओजयुग्मानुगमके आश्रयसे सब
परम्परोपनिधाका विचार वर्गणाओंका विचार
१८८ नानाश्रेणिओजयुग्मानुगमके आश्रयसे सब
इसी प्रसंगसे प्ररूपणा आदि तीन अनुयोगवर्गणाओंका विचार
द्वारोंके आश्रयसे विचार
१८९
अवहारके दो भेद एकश्रेणिक्षेत्रानुगम
१९०
द्रव्यार्थताकी अपेक्षा अवहारका विचार १९० नानाश्रेणिक्षेत्रानुगम
१४९
प्रदेशार्थताकी अपेक्षा अवहारका विचार १९२ एक श्रेणिस्पर्शनानुगम
१४९ यवमध्यप्ररूपणाके दो भेद
२०१ इसी प्रकार नानाश्रेणि स्पर्शनानुगमके जानने की
द्रव्यार्थताकी अपेक्षा विचार
२०१ सूचनाके साथ विशेष निर्देश १५०
श्रेणिप्ररूपणाके दो भेद
२०२ एकश्रेणिकालानुगम
अनन्तरोपनिधाके आश्रयसे विचार २०२ इसी प्रकार नानाश्रेणि कालानगम जानने की
परम्परोपनिधाके आश्रयसे विचार २०४ सूचनाके साथ विशेष निर्देश
१५०
| इसी प्रसंगसे प्ररूपणा आदि तीन अनयोगएकश्रेणिअन्त रानुगम १५१ द्वारोंके आश्रयसे विचार
२०४ इसीप्रकार नानाश्रेणिअन्त रानगम जानने की
उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाका भागहार २०६ सूचनाके साथ विशेष निर्देश १५२ भागाभाग
२०६ एकश्रेणिवर्गणाभावानगम १५२ । अल्पबहत्व
२०६ इसी प्रकार नानाश्रेणिवर्गणा भावानुगमके प्रदेशार्थताकी अपेक्षा यवमध्यविचार जानने की सूचना
पदमीमांसा
२०७ एकश्रेणि नानाश्रेणिवर्गणाउपनयनानुगमके अल्पबहुत्वके तीन भेद
२०८ आश्रयसे मतान्तरका निर्देश ब उसका नानाश्रेणिद्रव्यार्थता अल्पबहुत्वका निर्देश २०८ परिहार
१५३ नानाश्रेणिप्रदेशार्थता अल्पबहत्वका निर्देश २१२ एकश्रेणिवर्गणापरिमाणानुगम
एकश्रेणि-नानाश्रेणि प्रदेशार्थता अल्पनानाश्रणिवर्गणापरिमाणानुगम
बहुत्वका निर्देश
२१५ एकश्रेणिवर्गणाभागाभागानुगम
बाह्यवर्गणा विचार नानाश्रेणिवर्गणाभागाभागानुगम
| बाह्यवर्गणाकी अन्य प्ररूपणाका प्रारम्भ २२३ एकश्रेणिवर्गणाअल्पबहुत्वानुगम १६३ । बाह्यवर्गणाके विषयमें विशेष ऊहापोह २२३
द
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पृष्ठ
विषय
२२४ाशी
विषय
पृष्ठ उसके विषय में चार अनुयोगद्वारोंका नाम ।
शरीरप्ररूपणा निर्देश व स्वरूप कथन
२२४ | शरीरप्ररूपणाके छह अनुयोगद्वारोंका नामशरीरिशरीरप्ररूपणा
निर्देश और उनकी सार्थकताका विचार ३२१
औदारिक शब्दकी नामनिरुक्ति व ऊहापोह ३२२ जीवोंके दो भेद व उनका स्वरूप निर्देश २२५ |
२२५ | वैक्रियिक शब्दकी नामनिरुक्ति व ऊहापोह३२५ कौन जीव साधारणशरीर हैं और कौन जीव |
आठ ऋद्धियोंके नाम
३२५ प्रत्येकशरीर हैं इस बातका निर्देश २२५ आहारक शब्दकी नामनिरुक्ति व ऊहापोह ३२७ साधारण जीवोंका लक्षण मिर्देश २२६ | | तैजस शब्दकी नामनिरुक्ति व ऊहापोह ३२७ साधारण जीवोंके अनुग्रहणका विचार २२८ तैजसशरीरके दो भेदोंका विचार ३२८ साधारण जीवोंके एकसाथ क्या क्या कार्य नि:सरणरूप तेजसशरीरके दो भेदोंका होते हैं इस बातका निर्देश
२२९ विचार
३२८ साधारण जीवोंकी उत्पत्ति और मरणके
कार्मण शब्दकी नामनिरुक्ति व ऊहापोह ३२८ विषयमें नियम
२३०
पाँच शरीरोंके प्रदेशोंके प्रमाणका निर्देश ३३० दोनों प्रकारके निगोद जीव परस्पर कैसे
निषेकप्ररूपणामें छह अनुयोगद्वारोंके नाम ३३१ रहते हैं इस बातका विशेष स्पष्टीकरण २३१
समुत्कीर्तना
३३१ प्रदेशप्रमाणानुगम
३३६ बादरनिगोद और सूक्ष्म निगोद जीवोंकी
अनन्तरोपनिधा योनिका विचार
२३२ परम्परोपनिधा
३४६ अनन्त जीवोंने निगोदवास नहीं छोडा इस
प्रदेशविरच व उसके स्वरूपनिर्देशके साथ बातका संयुक्तिक निर्देश
२३३
सोलह पदवाला दण्डकविधान ३५२ एक शरीरमें रहनेवाले निगोद जीवोंका
जघन्य पर्याप्त निर्वत्तिका स्वरूपनिर्देश ३५२ प्रमाण
२३४
निर्वत्ति स्थानोंका विचार संसारी जीवोंका अभाव क्यों नहीं होता
जीवनीयस्थान
३५४ इस बातका सहेतुक विचार
इस विषय में अल्पबहुत्व निगोदके दो भेदोंका निर्देश ।
२३६ | खुद्दाभवके दो भेद व उनका स्वरूपनिर्देश ३६२ शरीरिशरीरप्ररूपणाका सदादि आठ अनु- एक मुहूर्त में मनुष्यके कितने श्वासोच्छ्वास योगद्वारोंके आश्रयसे कथन करने की
होते हैं इस बात का निर्देश
३६२ सूचना
२३७ | एक अन्तमुहूर्तमें कितने क्षुल्लक भवग्रहण ओघ और आदेशसे सत्प्ररूपणा २३७
होते हैं इस बातका नाम निर्देश ३६२ ओघ और आदेशसे द्रव्यप्रमाणप्ररूपणा २४९
प्रदेशविरचके छह अनुयोगद्वारोंका ओघ और आदेशसे क्षेत्रप्ररूपणा २५३
नामनिर्देश
औदारिकशरीरकी अपेक्षा अग्रस्थिति ओघ और आदेशसे स्पर्शन प्ररूपणा
आदि चारका विचार
३६७ ओघ और आदेशसे कालप्ररूपणा
२५७ अग्रस्थितिका स्वरूप निर्देश
३६७ ओघ और आदेशसे अन्तरप्ररूपणा
अग्रस्थितिविशेषका स्वरूप निर्देश ३६७ ओघ और आदेशसे भावप्ररूपणा
३०१ | आहारकके सिवा शेष तीन शरीरोंकी ओघ और आदेशसे अल्पबहुत्वप्ररूपणा ३०१ | औदारिकके समान जानने की सूचना ३६८
sout
२८४
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बिषय
पृष्ठ
आहारशरीरकी अपेक्षा अग्रस्थिति आदि चारका विचार
भागाभागानुगमके तीन अनुयोगद्वारा जघन्यपदकी अपेक्षा ओदारिकशरीरका विचार
उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा औदारिकशरीरका विचार
शेष चार शरीरोंकी अपेक्षा इसी प्रकार जानने की सूचना
अजघन्य - अनुत्कृष्ट पदकी औदारिक शरीरका विचार
शेष चार शरीरोंकी अपेक्षा इसी प्रकार जानने की सूचना
अल्पबहुत्व के तीन अनुयोगद्वार जघन्य पदकी अपेक्षा औदारिकशरीरका विचार
( २० )
३६९
३६०
जघन्योत्कृष्ट पद अल्पबहुत्व गुणकारके तीन अनुयोगद्वारा जघन्य गुणकार
३७०
३७२
३७२
३७२
३७३
आहारकके सिवा शेष तीन शरीरोंकी अपेक्षा इसी प्रकार जानने की सूचना
३७७
जघन्य पदकी अपेक्षा आहारकशरीरका विचार
उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा औदारिकशरीरका विचार
३७३
३७३
३७८
आहारकके सिवा शेष तीन शरीरोंकी अपेक्षा इसी प्रकार जाननेकी सूचना ३८० उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा आहारकशरीरका विचार जघन्योत्कृष्ट पदकी अपेक्षा ओदारिकशरीर का विचार
३८२ आहारकके सिवा शेष तीन शरीरोंकी अपेक्षा इसी प्रकार जाननेकी सूचना ३८४ जघन्योत्कृष्ट पदकी अपेक्षा आहारकशरीर
का विचार
३८५
निषेक अल्पबहुत्व के तीन अनुयोगद्वार ३८७ जघन्यपद अल्पबहुत्व
३८८
उत्कृष्टपद अल्पबहुत्व
३८९
३७०
३९०
३९२
३९२
विषय
पृष्ठ
उत्कृष्ट गुणकार जघन्योत्कृष्ट गुणकार पदमीमांसा के दो अनुयोगद्वार
उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा ओदारिक शरीरकी पदमीमांसा
३९४
३९५
३९७
३९७
४०५
तीन अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे प्रकृत विषयका उपसंहार करनेकी सूचना संचयानुगम और उसके तीन अनुयोगद्वार ४०५ भागहारप्रमाणानुगम व दो मतोंका निर्देश ४०५ प्रथम उपदेश के अनुसार समयप्रबद्ध प्रमाणानुगम
द्वितीय उपदेशके अनुसार समयप्रबद्धप्रमाणानुगम
अनुत्कृष्ट पदकी अपेक्षा औदारिक शरीरकी पदमीमांसा
उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा वैक्रियिकशरीरकी पदमीमांसा
अनुत्कृष्ट पदकी अपेक्षा वैक्रियिकशरीरकी षदमीमांसा
४०८
४०८
४१०
४११
४१३
उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा आहारकशरीरकी पदमीमांसा
अनुत्कृष्ट पदकी अपेक्षा आहारकशरीरकी पदमीमांसा
उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा तैजसशरीरकी पदमीमांसा
अनुत्कृष्ट पदकी अपेक्षा तैजसशरीरकी पदमीमांसा
उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा कार्मणशरीरकी पदमीमांसा
४१४
४१६
४१६
४२२
४२२
जघन्य पदकी अपेक्षा ओदारिकशरीरकी पदमीपांसा
अजघन्य पदकी अपेक्षा औदारिकशरीरकी पदमीमांसा
४२३
४२४
जघन्य पदकी अपेक्षा ओदारिकशरीरकी पदमोमांसा
अजघन्य पदकी अपेक्षा वैक्रियिकशरीरकी पदमी मांसा
४२४
४२५
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________________
( २१ )
विषय
४४०
४३०
विषय
पृष्ठ जघन्यपदकी अपेक्षा आहारकशरीरकी जीवसे अलग होनेपर उनकी चार प्रकारकी पदमीमांसा
४२५ हानिका निर्देश अजघन्य पदकी अपेक्षा आहारकशरीरको द्रव्यहामिकी अपेक्षा औदारिक शरीरकी पदमीमांसा ४२६ एकप्रदेशी वर्गणाका विचार
४४१ जघन्य पदकी अपेक्षा तैजसशरीरकी
द्विप्रदेशी आदि वर्गणाओंका विचार ४४२ पदमीमांसा
४२६ शेष चार शरीरोंकी अपेक्षा इसी प्रकार अजघन्य पदकी अपेक्षा तैजसशरीरकी
जाननेकी सूचना
४४४ पदमीमांसा
४२८ । क्षेत्रहानिकी अपेक्षा औदारिक शरीरकी जघन्य पदकी अपेक्षा कार्मणशरीरकी
एक प्रदेशी वर्गणाका विचार
४४४ पदमीमांसा
४२८ द्विप्रदेशी आदि वर्गणाओंका विचार ४४५ अजघन्य पदकी अपेक्षा कार्मणशरीरकी शेष चार शरीरोंकी अपेक्षा इसी प्रकार पदमीमांसा
४२९
जानने की सूचना अल्पबहुत्व
४२९ कालहाविकी अपेक्षा औदारिकशरीरके
एकप्रदेशी वर्गणाद्रव्यका विचार ४४७ शरीरविनसोपचयप्ररूपणा
द्विप्रदेशी आदि वर्गणाद्रव्यका विचार ४४८ शरीरविस्रसोपचय प्ररूपणाके छह अनु
शेष चार शरीरोंकी अपेक्षा इसी प्रकार योगद्वार
जानने की सूचना
४४९ विनसोपचयका स्वरूपनिर्देश
४३०
भावहानिकी अपेक्षा औदारिकशरीरके एक औदारिकशरीरकी अपेक्षा एक प्रदेश में
गुणयुक्त वर्गणा द्रव्यका विचार ४५० अविभागप्रतिच्छंदोंका प्रमाण निर्देश ४३१ | द्विगणयक्त आदि वर्गणा द्रव्यका विचार ४५० अविभागप्रतिच्छेदोंका स्वरूप निर्देश ४३१
द्विगुण शब्दका अर्थ
४५१ कितने अविभागप्रतिच्छेदोंकी एक वर्गणा
चार शरीरोंकी अपेक्षा इसी प्रकार जानने की होती है इस बातका निर्देश
४३२
सूचना कुल वर्गणाओंका प्रमाण निर्देश
पाँच शरीरोंके आश्रयसे विस्रसोपचय कितनी वर्गणाओंका एक स्पर्धक होता है
अल्पबहुत्वका कथन
४५३ इस बातका विचार
जीवप्रतिबद्ध विस्रसोपचयका अल्पबहुत्व ४५९ कुल स्पर्धकोंका प्रमाण निर्देश
प्रकृत प्ररूपणाको स्पष्ट करनेके लिए तीन एक एक स्पर्धकका कितना अन्तर होता है।
अनुयोगद्वारोंका नाम निर्देश इस बातका निर्देश
जीवप्रमाणानुगम अविभागप्रतिच्छेद कैसे निष्पन्न किये जाते हैं इस बातका विचार
प्रदेशप्रमाणानुगम
४३४ छेदनाके दस भेद व उनका स्वरूप निर्देश ४३५
अल्पबहत्वके दो भेदोंका नाम निर्देश पाँच शरीरोंके अविभागप्रतिच्छेदोंका
जीव अल्पबहुत्व अल्पबहुत्व
प्रदेश अल्पबहुत्व एक एक शरीरपरमाणु पर कितने विस्र
चलिका सोपचय होते हैं इस बातका निर्देश ४३८ | अगला ग्रन्थ चूलिका है इस बातकी विस्रसोपचयोंका स्थान विचार ४३९ । प्रतिज्ञा
AWAN
४६५ ४६५
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( २२)
४९२
कथन
विषय पृष्ठ विषय
पृष्ठ 'जत्थेय मरदि जीवो' इस गाथाके उत्तरार्ध के स्कन्ध आदिके आश्रयसे सब सूक्ष्म निगोद कथनकी प्रतीज्ञा
४६९ / मिश्ररूप होते हैं इस बातका निर्देश ४८४ प्रथम समयमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका बादर निगोदोंका मरणक्रमसे निर्गमन होता प्रमाण ४६९ है इस बातका निर्देश
४८५ द्वितीयादि समयोंमें उत्पन्न होनेवाले अयवमध्यक्रमसे निर्गमनका विचार ४८७ जीवोंका प्रमाण
४७० क्षीणकषायके काल में जघन्य आयुमात्र इस प्रकार कितने कालतक जीव निरन्तर | काल शेष रहनेपर बादर निगोद जीव नहीं रूपसे उत्पन्न होते हैं इस बातका निर्देश ४७१/ उत्पन्न होते इस अर्थका ज्ञान कराने के लिए पुनः अन्तर देकर निरन्तर क्रमसे कितने | आयुओंके अल्पबहुत्वका कथन ४९१ कालतक जीव उत्पन्न होते हैं इस बातका गुणश्रेणिमरणके अन्तिम समयमें जघन्यनिर्देश
४७१ | बादर निगोद वर्गणा होती है इस अल्पबहुत्वके दो भेदोंका निर्देश ४७४ | बातका निर्देश अद्धाअल्पबहुत्व
४७४ | जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणाका प्रमाण कथन४९२ सान्तर समय में उपक्रमण कालका स्वरूप उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोदवर्गणाका प्रमाण निर्देश ४७४
४९३ निरन्तर समयमें उपक्रमण कालका स्वरूप उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणाकाप्रमाणकथन ४९३ निर्देश
४७४ | निगोदवर्गणाओंके कारणका निर्देश ४९४ सान्तर समयमें उपक्रमणकाल विशेषका महास्कन्धके स्थानोंका निर्देश व उनका स्वरूप निर्देश ४७५ स्वरूप कथन
४९४ उपक्रमणकालविशेषका स्वरूप निर्देश | महास्कन्ध वर्गणाका जघन्य व उत्कृष्ट भाव । सान्तर उपक्रमण जघन्य कालका स्वरूप |किस अवस्थामें होता है इस बातका निर्देश ४९५ निर्देश
४७६ मरणयवमध्य और शमिलायवमध्य आदिका उत्कृष्ट सान्तर उपक्रमणकालका स्वरूप कथन करने के लिए संदृष्टि निर्देश
सब जीवोंमें महादण्डकका निर्देश सान्तर उपक्रमणकालका स्वरूप निर्देश ४७७ क्षुल्लकभवके तीन भाग
५०१ सान्तर उपक्रमणकालविशेषका स्वरूप
प्रथम विभागका विचार
५०१ निर्देश
४७७ आधारके तीन प्रकार निरन्तर उपक्रमणकाल विशेषका स्वरूप प्रकारान्तरसे प्रथम विभागका विचार निर्देश
| मध्यम त्रिभागका विचार
५०२ अपक्रमणकालका स्वरूप निर्देश ४७९ यवमध्यविचार
५०२ प्रबन्धनकालका स्वरूप निर्देश ४८० | शमिला शब्दका अर्थ
५०३ जीवअल्पबहुत्व विचार ४८१ | शमिलामध्यका तात्पर्य
५०३ स्कन्ध आदिके आश्रयसे सब बादर निगोद । सब यवमध्योंकी यवमध्य और शमिलामध्य पर्याप्त होते हैं या मिश्ररूप होते हैं इस | ये दो संज्ञायें हैं इस बातका निर्देश ५०३ बातका निर्देश ४८३ | आसंक्षेपाद्धाका अर्थ
५०३
०
५०२
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विषय
आक्षेपाद्धा कहाँ से कहाँ तक होता है इस बातका निर्देश
क्षुल्लकभवग्रहणका स्वरूप निर्देश वह कहाँ होता है इस बातका विचार जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्ति कहाँ होती है इस बातका निर्देश
( २३ )
पृष्ठ
५०३
५०४
५०४
५०४ उत्कृष्ट अपर्याप्त निर्वृत्तिके कालका निर्देश ५०४ सूक्ष्मनिगोद जीवोंकी जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्तिके कालप्रमाणका निर्देश
इन्हीं जीवोंकी उत्कृष्ट अपर्याप्त निर्वृत्तिके कालका निर्देश
सूक्ष्मनिगोद जीवोंकी उत्कृष्ट अपर्याप्त निर्वृत्ति में होनेवाले आवश्यक निर्लेपन शब्दका अर्थ
५०८
बादरनिगोद अपर्याप्त जीवोंके निर्लेपनस्थान कितने होते हैं इस बातका निर्देश सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त जीवोंका आयु यवमध्य कहांसे कितना काल जानेपर होता है इस बातका विचार
बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके निर्वृत्तिस्थान कहाँसे कितना काल जानेपर कितने होते हैं इस बातका निर्देश
सब जीवोंकी निर्वृत्तिका अन्तर कहाँ से
विषय
कितना काल जानेपर होता है इस
बातका निर्देश
५११
५१० सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंका आयुयवमध्य कहांसे कितना काल जानेपर होता है इस बातका विचार सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंका मरण यवमध्य कहाँसे कितना काल जानेपर होता है इस बातका विचार बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंका मरण यवमध्य कहाँसे कितना काल जानेपर होता है इस बातका विचार
५११
५१२
सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके निर्वृत्तिस्थान कहाँ से कितना काल जानेपर कितने होते हें इस बातका निर्देश
५१३
वे तीन शरीरोंके निर्वृत्तिस्थान उत्तरोत्तर विशेष अधिक होते हैं इस बातका निर्देश ५१७ ५०५ | इन तीन शरीरोंके निर्वृत्तिस्थानोंका अल्पबहुत्व
प्रकृत में आवश्यकोंके निर्देशकी प्रतिज्ञा तीन शरीरोंके निर्वृत्तिस्थान कहाँसे कितना काल जानेपर कितने होते हैं इस बातका निर्देश
५१०
५०६ | तीन शरीरोंके इन्द्रिय निर्वृत्तिस्थान कहाँसे | कितना काल जाने पर कितने होते हैं। ५०६ इस बात का निर्देश
पृष्ठ
५१५
५१६
५०७ | तीन शरीरोंके ये निर्वृत्तिस्थान उत्तरोत्तर विशेष अधिक होते हैं इस बातका निर्देश ५२० इन तीन शरीरोंके निर्वृत्तिस्थानों का अल्पबहुत्व
५१६
५१४ | अल्पबहुत्व
५२१ तीन शरीरोंके आनापान, भाषा और मनसंबंधी निर्वृत्तिस्थान कहाँसे कितना काल जाने पर कितने होते हैं इस बातका निर्देश ५२१ तीन शरीरोंके ये निर्वृत्तिस्थान उत्तरोत्तर विशेष अधिक होते हैं इस बातका निर्देश ५२२ इन तीन शरीरोंके इन निर्वृत्तिस्थानोंका अल्पबहुत्व
प्रकृत में आवश्यकों का निर्देश
५१९
५२५ तीन शरीरोंके निर्लेपनस्थान कितना काल जाने पर कितने होते हैं इस बातका निर्देश निर्लेपनस्थानका स्वरूप निर्देश शरीरपर्याप्तिका स्वरूप निर्देश इन्द्रियपर्याप्तिका स्वरूप निर्देश निर्लेपनस्थानका स्वरूप निर्देश
तीन शरीरोंके ये निर्लेपनस्थान उत्तरोत्तर विशेष अधिक होते हैं इस बातका निर्देश ५२८ तीन शरीरोंके इन निर्लेपनस्थानोंका
५२६
५२६
५२७
५२७
५२७
५२९
५२९
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विषय सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके कहाँ से कितना जाकर कितने निर्वृत्तिस्थान होते हैं इस बातका निर्देश
बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके कहाँसे कितना जाकर कितने निर्वृत्तिस्थान होते हैं इस बातका निर्देश
विषय
अग्रहणप्रायोग्यका अर्थ आहारद्रव्यवर्गणाका कार्य निर्देश अग्रहणद्रव्यवर्गणा का स्वरूप निर्देश तैजसशरीर द्रव्यवणाका कार्य निर्देश अग्रहणद्रव्यवर्गणाका स्वरूप निर्देश ५३१ | भाषा द्रव्यवर्गणाका कार्य निर्देश अग्रहणद्रव्यवर्गणा का स्वरूप निर्देश मनोद्रव्यवर्गणाका कार्य निर्देश अग्रहणद्रव्यवर्गणाका स्वरूप निर्देश कार्मणद्रव्यवर्गणाका कार्य निर्देश
पृष्ठ
( २४ )
सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंका कहाँसे कितना काल जाने पर आयुयवमध्य होता है इस बातका निर्देश
५४३
५४६
५४८
५४९
५४९
५५०
५५१
५५१
५५२
५५३
अपने अपने अवान्तर कार्यको करनेवाली ये ५३३ | वर्गणायें अलग अलग हैं इस बातका निर्देश
५३०
बादर निगोद पर्याप्त जीवोंका कहांसे कितना काल जाने पर आयुयवमध्य होता है इस बातका निर्देश सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंका कहाँसे कितना काल जाने पर मरणयवमध्य होता है इस बातका निर्देश
५३२
बादर निगोद पर्याप्त जीवोंका कहाँसे कितना काल जाने पर मरणयवमध्य होता है इस बातका निर्देश सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवों के कहांसे कितना काल जानेपर कितने निर्लेपनस्थान होते हैं इस बातका निर्देश बादर निगोद पर्याप्त जीवोंके कहाँ से कितना काल जाने पर कितने निर्लेपनस्थान होते हैं इस बातका निर्देश
५३५
५३५
५३६
५३६
वहीं पर प्रत्येक शरीर पर्याप्तकोंके कितने निर्लेपनस्थान होते हैं इस बातका निर्देश इस विषय में अल्पबहुत्व वहाँ एकेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रियसंबंधी आवश्यकों का निर्देश
बन्धनी वर्गणाओंके प्रसंगसे चार अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश
वर्गणाप्ररूपणा
वर्गणानिरूपणा के प्रसंगसे कौन वर्गणा ग्रहणप्रायोग्य है और कौन वर्गणा ग्रहणप्रायोग्य नहीं है इस बातका निर्देश ग्रहणप्रायोग्यका अर्थ
औदारिकशरीर वर्गणाओंके प्रदेशार्थताका ५३३ व वर्णादिकका विचार
५५४
वैक्रियिकशरीरवर्गणाओंके प्रदेशार्थताका व वर्णादिकका विचार
५५६
आहारकशरीरवर्गगाओंके प्रदेशार्थता व वर्णादिकका विचार
आहारकशरीर धवलवर्णवाला होता है। फिर पाँच वर्णवाला क्यों कहा है इस प्रश्नका समाधान इसी प्रकार पाँच रस आदिवाला कहने के कारणका निर्देश तैजसशरीरवर्गणाकी प्रदेशार्थता व वर्णादिकका विचार
५५८
भाषा, मन और कार्मणवर्गणाकी प्रदेशार्थता व वर्णादिकका विचार
प्रकृतमें दो प्रकारके अल्पबहुत्व कहने की
प्रतिज्ञा
प्रदेश अल्पबहुत्व विचार
५३४
५३७
५४१
५४२
पृष्ठ
अवगाहना अल्पबहुत्व विचार
बन्ध विधान
५५३
५५७
५५७
५५९
५५९
५६०
५६२
बन्धविधानके चार भेद ५४३ | बन्धविधानका विशेष व्याख्यान महाबंध में ५४३ | किया है इस बातकी सूचना
५६४
५६४
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सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदो छक्खंडागमो
सिरि-वीरसेणाइरिय विरइय-धवला टीका-समण्णिदो
तस्स पंचमे खंडे वग्गणाए
बधणाणुयोगटार
सिद्धे विउद्धसयले अज्झत्थबहित्थबंधणुम्मवके ।
भत्तीए अहं गमिउं पुणो पुणो बंधणं वोच्छं ॥१॥ बंधणे ति चउन्विहा कमविभासा -- बंधो बंधगा बंधणिज्ज बंधविहाणे ति ॥१॥
बंधो बंधणं, तेण बंधो सिद्धो। बध्नातीति बन्धनः । तदो बंधगाणं गहणं। बध्यत इति कर्मसाधने समाश्रीयमाणे बंधणिज्जस्स गहणं । बध्यते अनेनेति करणसाधने
__सब पदार्थोंका साक्षात्कार करनेवाले और भीतर तथा बाहरके सब बन्धनोंसे मुक्त हुए सिद्धोंको बार बार भक्तिपूर्वक नमस्कार करके मैं ( ग्रन्थकर्ता ) बन्धननामक अनयोगद्वारका कथन करता हूं ॥१॥
__ 'बन्धन' इस अनुयोगद्वारमें बन्धनको क्रमसे चार प्रकारको विभाषा है-- बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान ॥ १॥
बँधना इसका नाम बंधन हैं, इससे बंध की सिद्धि होती है। जो बाँधता है वह बंधन है, इससे बंधकका ग्रहण होता है। 'जो बाँधा जाता है ' इस प्रकार कर्मसाधनका आश्रय करनेपर बंधन शब्दसे बधनीयका ग्रहण होता है । जिसके द्वारा बाँधा जाता है। इस प्रकार करण
४ ताप्रती 'कम्मविभासा ' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड शब्दनिष्पत्तौ सत्यां बनधिवधानोपलब्धिः । तेण बंधणस्स चउन्विहा चेव कमविभासा होदि ।
दव्वस्स दवेण दव-भावाणं वा जो संजोगो समवाओ वा सो बंधो णाम । बंधस्स दव-भावभेदभिण्णस्स जे कत्तारा ते बंधया णाम । बंधपाओग्गपोंग्गलदवं बंधणिज्जं णाम । पडि-दिदि-अणुभाग पदेसभेदभिण्णा बंधवियप्पा बंधविहाणं णाम। एदेसु चउसु बंधणेसु ताव बंधपरूवण?मुत्तरसुत्तं भणदि ।।
___जो सो बंधो णाम सो चउन्विहो-णामबंधो ट्ठवणबंधो दवबंधो भावबंधो चेदि ॥२॥
बंधणयविभासणवाए को गओ के बंधे इच्छदि ॥ ३॥
णिक्खेवं काऊण तदपरूवणं मोत्तण बंधणयविभासणा किमळं कीरदे?ण एस दोसो, अणवगयणयसरूवस्स भावजीवस्स मिक्खेवट्ठपरूवणाए किज्जंतीए अवुत्ततुल्लत्तप्पसंगादो अण्णाणविणासणठें परूवणा कीरदेोजदि सा तंण कुणइ तोसा किफला साधनमें बन्धन शब्दकी सिद्धि करनेपर उससे बन्धविधानका ग्रहण होता है । इसलिये बन्धनका विशेष व्याख्यान क्रमसे चार प्रकारका ही होता है ।
विशेषार्थ- यहां व्युत्पत्ति पूर्वक 'बन्धन' के चार भेद किये गये हैं- बन्ध, बन्धक बन्धनीय और बन्धविधान । कोई किसीसे बंधता है इससे बन्धकी सिद्धि की गई है। जो बाँधता है वह बन्धक है, और जो बाँधता है वह बन्धनीय है। इससे बन्धक और बन्धनीयकी सिद्धि की गई है । जब कोई वस्तु बधती है तो वह कितने प्रकारसे बंधती है, इसके द्वारा बन्धविधानकी सिद्धि की गई है । इस प्रकार बन्धनके चार भेद ही हो सकते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
द्रव्यका द्रव्यके साथ तथा द्रव्य और भावका क्रमसे जो संयोग और समवाय होता है वह बन्ध कहलाता है । द्रव्य और भावके भेदसे भिन्न दो प्रकारके बन्धके जो कर्ता हैं वे बन्धक कहलाते हैं । बन्धके योग्य पुद्गल द्रव्य बन्धनीय कहा जाता है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग
और प्रदेशके भेदसे भेदको प्राप्त हुए बन्धके भेदोंको बन्धविधान कहते हैं। इन चार प्रकारके बन्धनों में से सर्व प्रथम बन्धका कथन करने के लिय आगेका सूत्र कहते हैं -
बन्धके चार भेद है- नामबन्ध, स्थापनाबन्ध, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध ।। २॥
बन्धका नयको अपेक्षा विशेष विचार करनेपर कौन नय किन बन्धोंको स्वीकार करता है ।। ३ ॥
शंका- निक्षेपका निर्देश करने के बाद उसका निरूपण करना था, किन्तु वैसा न करके पहले बन्धनका नयकी अपेक्षा विशेष विचार किसलिये किया जाता है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, नयके स्वरूपको समझे विना भव्योंको निक्षेपका कथन करनेपर वह अनुक्तके समान प्राप्त होता है, इसलिये अजानकाविनाश करनेके लिए पहले बन्धनका नयकी अपेक्षा विशेष विचार किया गया है। यदि वह अज्ञानका विनाश न करे
मप्रतिपाठोऽयम् | अ-आ- का-ताप्रतिषु 'अण्णोण्णविणासणटुं ' इति पाठ।।
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बंधणाणुयोगद्दारे बंधणणयविभासणदा होज्ज । जदि एवं, तो बंधणयविभासणा चेव पुवं किण्ण परूविदा ? ण, णिक्खेवे अणुद्दिठे संते तमाधारं काऊण भण्णमाणणयविभासणाणुववत्तीदो । तम्हा णिक्खेव काऊण पच्छा बंधणयविभासणा कोरदे।
णेगम-ववहार-संगहा सव्वे बंधे ॥ ४ ॥
णेगम-ववहार-संगहणया सव्वे बंधे इच्छंति; तेसि विसए चदुण्णमेदेसि संभवादो। सुद्धसंगहणए चदुण्णमेदेसि णिक्खेवाणं संभवो णस्थि ति ण वोत्तुं जुत्तं; असुद्धसंगहमस्सिदूणेदेसि णिक्खेवाणमवलंभादो । दवट्रिएसु एदेसु णएसु कधं भावणिक्खेवो लब्भइ ? ण, वंजणपज्जायमस्सिदूण भावबंधोवलंभादो।
उजुसुदो ट्ठवणबंधं णेच्छदि ॥ ५॥
कुदो ? तत्थ भावाणं सरिसत्ताभावादो । ण च संकप्पवसेण भावो भावंतरं पडिवज्जदि; एगत्थंभम्मि संकप्पवसेण तिहुवणप्पवेसप्पसंगादो । ण च एवं, तिहुवणभावाणुवलंभादो।
सद्दणओ णामबंघे भावबंधं च इच्छदि ॥ ६ ॥
तो उसका और क्या फल हो सकता है ?
शंका-यदि ऐसा है तो पहले बन्धका नयकी अपेक्षा ही विशेष विचार क्यों नहीं किया?
समाधान-नहीं, क्योंकि, निक्षेपका कथन किये बिना उसे आधार बनाकर नयकी अपेक्षा विशेष व्याख्यान करना नहीं बन सकता, इसलिये निक्षेपका निर्देश करनेके बाद ही बन्धका नयकी अपेक्षा विशेष व्याख्यान किया है।
नैगम, व्यवहार और संग्रह नय सब बन्धोंको स्वीकार करते हैं ॥ ४ ॥
नैगमनय, व्यवहारनय और संग्रहनय सब बन्धोंको स्वीकार करते हैं; क्योंकि, इनके विषयरूपसे ये चारों बन्ध सम्भव हैं । यदि कहा जाय कि शुद्ध संग्रहनयमें ये चारों निक्षेप सम्भव नहीं हैं, सो ऐसा कहना ठीक नहीं है ; क्योंकि, अशुद्ध संग्रहनयकी अपेक्षा ये सब निक्षेप उसके विषय बन जाते हैं ।
शंका-ये तीनों द्रव्याथिक नय हैं, इसलिये इनके विषयरूपसे भावनिक्षेप कैसे प्राप्त हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, व्यञ्जनपर्यायकी अपेक्षा भावबन्ध इनका विषय बन जाता है । ऋजुसूत्रनय स्थापनाबन्धको स्वीकर नहीं करता ॥ ५ ॥
क्योंकि, यह नय पदार्थोंकी सदृशताको स्वीकार नहीं करता। यदि कहा जाय कि संकल्पवश एक पदार्थ दूसरे पदार्थरूप हो जायगा, सो यह बात भी नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर एक खम्भेमें संकल्पवश तीन लोकके प्रवेशका प्रसंग प्राप्त होता है । और ऐसा है नहीं, क्योंकि, उसमें तीन लोकका सद्भाव नहीं पाया जाता।
शब्दनय नामबन्ध और भावबन्धको स्वीकार करता है ॥ ६ ॥
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४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ७. कधं णामबंधस्स तत्थ संभवो ? ण, णामेण विणा इच्छिदत्थपरूवणाए अणुववत्तीदो ! जो सो णामबंधो णाम सो जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाणं वा जीवस्स च अजोवस्स च जीवस्स च अजीवाणं च जीवाणं च अजीवस्स च जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णामं कोरदि बंधोत्ति सो सव्वो णामबंधो णाम ।। ७ ।।
णामस्स पवृत्ती एदेसु अट्ठसु चेव; एदेहितो बज्झस्स अण्णस्साणुवलंभादो । एदे अट्ठसु पवत्तमाणबंधसद्दो णामबंधो कधं नाम अप्पा पयासेदि ? ण, सुज्ज-मणिचंदादिसु स- परप्पयासस्सुवलंभादो ।
जो सो टुवणबंधो णाम सो दुविहो- सब्भावट्ठवणाबंधो चेव असब्भावट्ठवणाबंधो चेव ॥ ८ ॥
सब्भावासब्भावटुवणबंधेहितो पुधभूदट्ठवण बंधाभावादो दुविहो चेव टुवणबंधो होदि । को दुवणबंधो णाम ? अण्णबंधम्मि अण्णबंधस्स सो एसो त्ति बुद्धीए दुवणा शंका- इन दोनों नयोंमें नामबन्ध कैसे सम्भव है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, नामके बिना इच्छित पदार्थका कथन नहीं किया जा सकता; इस अपेक्षा नामबन्धको इन दोनों नयोंके विषय स्वीकार किया है ।
जो यह नामबन्ध है वह इस प्रकार है- एक जीव, एक अजीव, बहुत जीव, बहुत अजीव, एक जीव और एक अजीव, एक जीव और बहुत अजीव, बहुत जीव और एक अजीव तथा बहुत जीव और बहुत अजीव; इनमेंसे जिसका बन्ध यह नाम किया जाता है वह सब नामबन्ध है ॥ ७ ॥
नामकी प्रवृत्ति इन आठों में ही होती है, क्योंकि, इनके बाहर अन्य पदार्थ नहीं
पाया जाता ।
शंका- इन आठ में प्रवृत्त हुआ बन्ध शब्द नामबन्ध होता हुआ अपने आपको कैसे प्रकाशित करता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, सूर्य, मणि और चन्द्र आदिमें स्व और परके प्रकाशनकी योग्यता पाई जाती है । आशय यह है कि जैसे सूर्य आदि स्व-परप्रकाशक होते हैं वैसे नाम शब्द भी स्व-परप्रकाशक है ।
स्थापना बन्ध दो प्रकारका
है-- सद्भावस्थापनाबन्ध और असद्भाव
स्थापनाबन्ध ।। ८ ।।
सद्भावस्थापनाबन्ध और असद्भावस्थापनाबन्धसे जुदा कोई तीसरा स्थापनाबन्ध नहीं पाया जाता, इसलिये स्थापनाबन्ध दो प्रकारका ही होता है ।
शका - स्थापनाबन्ध किसे कहते हैं ?
समाधान - अन्य बन्ध में अन्य बन्धकी ' वह यह है' इस प्रकार बुद्धिसे स्थापना करना स्थापनाबन्ध है | आकृतिवाले पदार्थ में सद्भावस्थापना होती है और आकृतिरहित पदार्थ में • तातो 'णामबंधो' । कथं णाम अप्पाणं' इति पाठः ।
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५,
६, ९.)
बंधाणुयोगद्दारे ठवणबंध परूवणा garबंध णाम । आकृतिमति सद्भावस्थापना, अनाकृतिमति तद्विपरीता ।
जो सो सम्भावासम्भावट्ठवणाबंधो णाम तस्स इमो निद्देसोकट्ठकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्यकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मे सु ar भेंडकम्मे वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया सब्भाव - असब्भावट्ठवणाए ठविज्जदि बंधो त्ति सो सव्वो सब्भावअसम्भावट्ठवणबंधो णाम ॥ ९ ॥
( ५
सर्वाणि खइरसाग कट्ठादिसु चक्कबंध. मुरवबंध-विज्जाहरबंध-नागपाबंध- संसरवास - बंधादोणं जहासरूवेण घडियठवणा सम्भावटुवणबंधो णाम । अजहासरूवेण एसि बंधा ते वा सब्भाववणबंधो नाम । चित्तारेहिंतो वण्णविसेसेहि निष्कनाणि चित्तकम्माणि णाम । वत्थेसु पाण- सालिय- कोसद्दादीहिं जाणि वूणfoरियाणि पाइदाणि स्वाणि छिपएहि वा कदाणि पोत्तकम्माणि णाम 1 लेप्पयारेहि लेविऊण जाणि णिप्पाइदाणि रुवाणि ताणि लेप्यकम्माणि णाम 1 पत्थरकट्टए हि* जाणि पव्वदेसु घडिदाणि रुवाणि ताणि लेणकम्माणि णाम 1 तेहि चेव छिण्णसिलासु घडिदरूवाणि सेलकम्माणि णाम । सद्भाव स्थापना होती है ।
जो वह सद्भावस्थापनाबन्ध और असद्भावस्थापनाबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है --- काष्ठकर्मोंमें, पोतकर्मों में, लेप्यकर्मोंमें, लयनकर्मोंमें, शैलकर्मोंमें, गृहकर्मों में, भित्तिकर्मोंमें, दन्तकर्मोंमें, भेंडकर्मोंमें; तथा अक्ष या कौडी इनको आदि लेकर और दूसरे पदार्थ अभेदस्वरूपसे सद्भावस्थापना तथा असद्भावस्थापनामें 'यह बन्ध है' इस रूपसे स्थापित किये जाते हैं वह सब सद्भावस्थापनाबन्ध और असद्भावस्थापना बन्ध है ॥ ९ ॥
श्रीपर्णी, खंर और साग काष्ठ आदिमें चक्रबन्ध, मुरजबन्ध, विद्याधरबन्ध, नागपाशबन्ध, और संसारवासबन्ध आदिकी तदाकार स्थापना करना सद्भावस्थापनाबन्ध कहलाता है । बन्धोंकी उन श्रीपर्णी आदि काष्ठों में अतदाकार स्थापना करना असद्भावस्थापनाबन्ध कहलाता है । चित्रकार रंग विशेषोंसे जो चित्र बनाते हैं वे चित्रकर्म कहलाते हैं । वस्त्रों में पाण, सालिय और कोसद्द आदि बुनकरोंके द्वारा बुनने रूप क्रियासे जो आकार बनाये जाते हैं या छीपा उनपर जो आकार बनाते हैं वे पोतकर्म कहलाते हैं । लेप्यकार लेपन कर जो आकार बनाते हैं वे लेप्यकम कहलाते हैं । पत्थर फोडा पर्वतों में जो आकार घटित करते हैं वे लयनकर्म कहलाते हैं । वे ही छिन्न शिलाओंमें जो आकार घटित करते हैं वे शैलकर्म कहलाते हैं । मृत्तिकापिण्डके द्वारा प्रासादोंमें जो
X अप्रतौ'- कोसद्दादीहि जाणि दूणण किरियाए' काप्रती ' - कोसट्टादीहिं जाणि दूणणकिरियाए तातो'- कोसट्टादीहिं जाणि दूणण किरियाए ' इति पाठा ।
अ आ-काप्रतिषु एत्थ रट्टट्टएहि
मप्रती 'पत्थरउट्टएहि' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वगणा-खंड
मट्टियपिडेण पासादेसुर घडिदरूवाणि गिहकम्माणि णाम । तेण चेव कुड्डेसु घडिदरूवाणि भित्तिकम्माणि णाम । दंतिदंतादिसु घडिदरूवाणि दंतकम्माणि णाम। भेंडेहि घडिदरूवाणि भेंडकम्माणि णाम । एदाणि दस विह कम्माणि देसामासियाणि । तेण पत्तकम्म-भिगकम्म-तलवत्तकम्म-तालिवत्तकम्म-भुजवत्तकम्म-सीवणकम्म-मणिवियाण-कम्मादीणि वत्तवाणि । एदेसु कम्मेसु जहासरूवेण दृविदबंधो सम्भावढवणबंधो णाम। तग्विवरीयसरूवेण ढवणाबंधो असब्भावटवणबंधो णाम । एदेसि देसामसियत्तं कधं णव्वदे ? उवरि भण्णमाण-एवमादिय-वयणादो। अक्खो जाम पासओ, वराडओ णाम कवड्डुओ। एदाणि वे वि वयणाणि असब्भावढवणाए ठविदाणि । कुदो एवं नव्वदे? अक्खेसु वा वराडएसु वा त्ति सत्तमीयंतणिद्देशाभावादो। एदेसु एदे वा अमा एयत्तेण ठवणाए बद्धीए ठविज्जति बंधो त्ति सो सम्वो ठवणबंधो णाम । ठवणासद्दो बुद्धिवाचओ त्ति कुदो णव्वदे ? धरणी धारणी ढवणा कोट्ठा पदिट्ठा त्ति सुत्तादो। आकार घटित करते हैं वे गृहकर्म कहलाते हैं। उसीसे दिवालोंमें जो आकार बनाये जाते हैं वे भित्तिकर्म कहलाते हैं। हाथीके दांतोंमें जो आकार बनाये जाते हैं वे दन्तकर्म कहलाते हैं । भेंडोंसे जो आकार बनाये जाते हैं वे भेंडकर्म कहलाते हैं। ये दसों ही कर्म देशामर्शक हैं । इससे पत्रकर्म, भृङ्गकर्म, तलवत्त (आभूषण) कर्म, तालिपत्रकर्म, भोजपत्रकर्म, सोनेका कर्म और मणिविज्ञानकर्म आदिको ग्रहण करना चाहिए। इन कर्मोमें तदाकारस्वरूपसे बंधकी स्थापना करना सद्भावस्थापनाबंध है और अतदाकाररूपसे बंधकी स्थापना करना असद्भावस्थापनाबंध है ।
शंका--- इनका देशामर्शकस्थापना कैसे जाना जाता है ?
समाधान-- सूत्र में आगे कहे जानेवाले 'एवमादिय' वचनसे जाना जाता है । अक्ष पांसेका नाम है और वराटक कौडीका नाम है। ये दोनों ही वचन असद्भावस्थापनाके सूचक हैं ।
शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- सूत्रमें ' अक्खेसु वा वराडएसु वा ' इस प्रकार सप्तम्यन्त वचनका निर्देश नहीं किया है । इससे जाना जाता है कि ये दोनों वचन असद्भावस्थापनाके सूचक है।
इनमें या ये 'अमा' अर्थात् अभेदरूपसे, स्थापना अर्थात् बुद्धिमें 'बन्ध' इस प्रकार स्थापित किये जाते हैं इसलिये यह सब स्थापनाबन्ध कहलाता है।
शंका-- स्थापना शब्द बुद्धि का वाचक है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- 'धरणी, धारणी, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये बुद्धि के नाम हैं' इस सूत्रसे जाना जाता है ।।
विशेषार्थ-- यहाँ सद्भाव और असद्भावरूप दोनों प्रकारके स्थापनाबन्धकी चर्चा की गई है। स्थापना एक पदार्थकी दूसरे पदार्थमें होती है। जिसमें स्थापना की जाती है यदि वह तदाकार होता है तो वह सद्भावस्थापना कहलाती है और यदि अतदकाकार होता है तो वह असद्भावस्थापना कहलाती है। बुद्धिसे 'यह वह ही है ' ऐसा एकत्व स्थापित करके स्थापना की जाती है, ऐसा यहाँ समझना चाहिये।
है अ-काप्रत्योः · वट्टइपिडेण पासादेसु', आप्रती · वट्टइपासादेसु ' ता. प्रती ' वड्डइपिंडेण पासादेसु ' इति पाठः। * प्रकृति अनुयोगद्वार सू० ४० ( पु० १३ ) ।
.त्रका
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५, ६, १२.)
बंधणाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा जो सो दध्वबंधो णाम सो थप्पो ।। १० ॥ किमळं थप्पो कोरदि ? बहुवष्णणिज्जत्तादो।
जो सो भावबंधो णाम सो दुविहो-- आगमदो भावबंधो चेव णोआगमदो भावबंधो चेव ॥ ११ ॥ एवं दुविहो चेव भावबंधो होदि; आगम-णोआगमेहितो वदिरित्तभावाणुवलंभादो।
जो सो आगमदो भावबंधो णाम तस्स इमो णिहेसो-ठिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं । जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेहणा वा श्रय-थुदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कटु जावदिया उवजुत्ता भावा सो सव्वो आगमदो भावबंधो णाम ॥ १२ ॥
दिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससममिदि णवविहो आगमो । कधमेगो आगमो णवविहत्तं पडिवज्जदे ? लक्खणभेदेण । कि तल्लक्खणं? उच्चदे-अवधृतमात्रं स्थितं नाम । जेण बारह वि अंगाणि अवहारिवाणि सो
द्रव्यबन्ध स्थगित किया जाता है ॥ १० ॥ शंका- किसलिये स्थापित किया जाता है ? समाधान- क्योंकि, आगे उसका बहुत वर्णन करनेवाले हैं। भावबन्ध दो प्रकारका है-आगमभावबन्ध और नोआगमभावबन्ध ॥११॥
इस प्रकार भावबन्ध दो ही प्रकारका होता है, क्योंकि, आगमभाव और नोआगमभावसे अतिरिक्त अन्य भाव नहीं पाया जाता।
जो आगमभावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है- 'स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम । इनके विषयों वाचना, पच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा, तथा इनसे लेकर जो अन्य उपयोग हैं उनमें भावरूपसे जितने उपयुक्त भाव हैं वे सब आगमभावबन्ध है ।। १२ ।
स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम; यह नौ प्रकारका आगम है।
शंका-एक आगमके नौ भेद कैसे हो जाते हैं ? समाधान-लक्षणके भेदसे एक आगमके नौ भेद हो जाते हैं। शंका-वह लक्षण कौन-सा है ? समाधान-कहते हैं, अवधारणमात्रकी स्थित संज्ञा है । जिसने बारह ही अंगोंको
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८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १२. साहू द्विवसुदणाणं होदि । कधं तस्स द्विदत्तं? अण्णत्थ संचाराभावादो। तं पि कुदो? परेसि करणसत्तीए अभावादो । जो अवगयमत्थं सण्णिमणि चितिऊण वोत्तं समत्थो सो जिदं णाम सुदणाणं । जो अवगयबारहअंगो संतो खलणेण विणा अवगयमत्थं वोत्तुं समत्थो सो परिजिदंणाम सुदणाणं होदि। ण च एदे वे वि आगमा परपच्चायणक्खमा दच्छत्ताभावादो। जो अवगयबारहअंगो संतोपरेसि वक्खाणक्खमो सो आगमो वायणोव. गदो णाम । का वाचना? शिष्याध्यापनं वाचना । सुत्तं सुदकेवली, तेण समं सुदणाण सुत्तसमं । अधवा सुत्तं बारहंगसद्दागमो, आइरियोवदेसेण विणा सुत्तादो चेव जं उपज्जदि सुदणाणं तं सुतसमं।अत्थो गणहरदेवो, आगमसुत्तेण विणा सयलसुदणाणपज्जाएण परिणदत्तादो । तेण समं सुदणाणं अत्थसमं । अधवा अत्थो बीजपदं, तत्तो उप्पण्णं सयलसुदणाणमत्थसमं। आइरियाणमवएसो गंथो, तेण समं गंथसमं। बारहअगसद्दागममाइरियपादमले सोऊण जं उप्पण्णं सुदणाणं तं गंथसममिति वृत्तं होदि । आइरियपादमूले बारहंगसद्दागमं सोऊण जस्स अहिलप्पत्थविसयं चेव सुदणाणं समुप्पण्णं सो णाम. समं । बारहंगसद्दागमं सुर्णेतस्स जस्स सुदपडिबद्धत्यविसयमेव सुदणाणं समुप्पण्णं सो अवधारित कर लिया है वह साधु स्थित श्रुतज्ञान है ।
शंका-इसकी स्थित संज्ञा क्यों है ? समाधान-अन्यत्र इसका संचार नहीं होता, इससे उसकी स्थित संज्ञा है । शंका-ऐसा भी क्यों है ? समाधान-क्योंकि, अन्यके साधकतमरूपसे करण होनेकी शक्ति नहीं पाई जाती ।
जो जाने हुए अर्थको धीरे-धीरे विचार कर कहने के लिये समर्थ होता है वह जित नामका श्रुतज्ञान है। जो बारह अंगोंको जानकर बिना स्खलनके जाने हुए अर्थको कहने के लिये समर्थ होता है वह परिजित नामका श्रुतज्ञान है । ये दोनों ही आगम अन्यको ज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं, क्योंकि, इनमें दक्षता नहीं पाई जाती। जो बारह अंगोंको जानकर अन्यके लिये उनका व्याख्यान करने में समर्थ है वह वाचनोपगत नामका आगम है ।
शंका वाचना किसे कहते हैं ? समाधान-शिष्योंको पढ़ाना इसका नाम वाचना है ।
सूत्रका अर्थ श्रुतकेवली है । उसके समान जो श्रुतज्ञान होता है वह सूत्रसम श्रुतज्ञान है । अथवा, सूत्रका अर्थ बारह प्रकारका अंगरूप शब्दागम है । आचार्यके उपदेश के बिना सूत्रसे ही जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह सूत्रसम श्रृतज्ञान है। अर्थ गणधरदेवका नाम है, क्योंकि, वे आगमसूत्रके बिना सकल श्रुतज्ञानरूप पर्यायसे परिणत रहते हैं, इनके समान जो श्रुतज्ञान होता है वह अर्थसम श्रुतज्ञान है । अथवा अर्थ बीजपदको कहते हैं, इससे जो समस्त श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह ग्रन्थसम श्रुतज्ञान है । आचार्यों के उपदेशको ग्रन्थ कहते हैं, इसके समान जो श्रुतज्ञान होता है वह ग्रन्थसम श्रुतज्ञान है । आचार्यके पादमूलमें बारह अंगरूप शब्दागमको सुनकर जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह ग्रन्थसम श्रुतज्ञान है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । आचार्यके पादमूलमें बारह अंगरूप शब्दागमको सुनकर जिसके कथन करने योग्य अर्थको विषय करनेवाला ही श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ है वह नामसम श्रुतज्ञान है। बारह अंगरूप शब्दागमको सुननेवाले जिसके सुने हुए अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाले पदार्थको विषय करनेवाला
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बंधणाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा
घोससमं । एवं णवविहं सुदणाणं परूविदं ।
संपहि एत्थ उवओगो वायणा-पुच्छण-पडिच्छण-परियट्टण-अणपेहग-स्थयथुदि-धम्मकहाभेएण अट्टविहो । तत्थ परेसिं वक्खाणं वायणा णाम । तत्थ अणिच्छिदढाणं पण्णवावारो पुच्छणं णाम । आइरिएहि कहिज्जमाणत्थाणं सुणणं पडिच्छणं णाम । अवगयत्थस्स हियएण पुणो पुणो परिमलणं परियणं णाम । सुत्तत्थस्स सुदाणुसारेण चितणमणुपेहणं णाम । सव्वसुदणाणविसओ उवजोगो थवो णाम । एगंगविसओ* एयपुवविसओ वा उवजोगो थुदी गाम । वत्थु-अणुयोगादिविसओ भावो धम्मकहा णाम । एवमादिया उवजोगा भावे ति कट्ट जावदिया उवजुत्ता भावा सो सवो आगमदो भावबंधो णाम ।
जो सो णोआगमदो भाबबंधो णाम सो दुविहो--जीवभावबंधो चेव अजीवभावबंधो चेव ॥ १३ ॥
एवं दुविहो चेव णोआगमभावबंधो होदि; जीवाजीववदिरित्तणोआगमभावबंधाभावादो।
जो सो जीवभावबंधो णाम सो तिविहो--विवागपच्चइयो जीवभावबंधो घेव अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो चेव तदुभयपच्चइओ जीवभावबंधों चेव ॥ १४॥ श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ है वह घोषसम श्रुतज्ञान है । इस प्रकार नौ प्रकारके श्रुतज्ञानका कथन किया।
___ इनके विषय में वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति और धर्मकथाके भेदसे आठ प्रकारका उपयोग होता है। उनमें से अन्यके लिये व्याख्यान करना वाचना हैं। उसमें अनिश्चत अर्थको समझने के लिये प्रश्न करना पृच्छना है । आचार्य जिन अर्चाका कथन कर रहे हों उनका सुनना प्रतीच्छना है । जाने हुए अर्थका हृदयसे पुनः पुनः विचार करना परिवर्तना है। सूत्रके अर्थका श्रुतके अनुसार चिन्तन करना अनुप्रेक्षणा है । समस्त श्रुतज्ञानको विषय करनेवाला उपयोग स्तव कहलाता है । एक अंग या एक पूर्वको विषय करनेवाला उपयोग स्तुति कहलाता है । तथा वस्तु और अनुयोगद्वार आदिको विषय करनेवाला उपयोग धर्मकथा कहलाता है । इत्यादि जितने उपयोग हैं उनमें यह भाव है ' ऐसा समझ कर जितने उपयुक्त भाव होते हैं वह सब आगम भावबन्ध है।
नोआगमभावबन्ध दो प्रकारका है-जीवभावबन्ध और अजीवभावबन्ध ॥१३॥
इस तरह दो प्रकारका ही नोआगमभावबन्ध है, क्योंकि, जीव और अजीव इन दो भेदोंके सिवा नोआगमभावबन्ध नहीं पाया जाता।
जीवभावबन्ध तीन प्रकारका है-विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध, अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध और तदुभयप्रत्यायक जीवभावबन्ध ॥ १४ ॥
* अ-आ- काप्रतिषु 'एबंगयविसओ '; ताप्रती एवंगयविसओ', इति पाठ 1
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१०. ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १५. एवं तिविहो चेव जीवभावबंधो होदि, अण्णस्स चउत्थस्स जीवभावस्स अणुवलंभादो । कम्माणमुदओ उदीरणा वा विवागो णाम, विवागो पच्चओ कारणं जस्स भावस्स सो विवागपच्चइओ जीवभावबंधो णाम । कम्माणमुदय-उदीरणाणमभावो अविवागो णाम । कम्माणमवससो खओ वा अविवागो ति भणिदं होदि । अविवागो पच्चयो कारणं जस्स भावस्स सो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम । कम्मागमुदय-उदीरणाहिंतो तदुवसमेण च जो उप्पज्जइ भावो सो तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो णाम ।
जो सो विवागपच्चइओ जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसोदेवे त्ति वा मणुस्से त्ति वा तिरिक्खे ति वा रइए ति वा इथिवेदे ति वा पुरिसवेदे त्ति वा णवंसयवेदे त्ति वा कोहवेदे त्ति वा माणवेदे त्ति वा मायवेदे ति वा लोहवेदे ति वा रागवेदे ति वा दोसवेदे ति वा मोहवेदे त्ति वा किण्हलेस्से त्ति वा णीललेस्से त्ति वा काउलेस्से त्ति वा तेउलेस्से त्ति वा पम्मलेस्से त्ति वा सुक्कलेस्से ति वा असंजदेत्ति वा अविरदे ति वा अण्णाणे त्ति वा मिच्छादिट्रि त्ति वा जे चामण्ण
इस प्रकार तीन प्रकारका ही जीवभावबन्ध है. क्योंकि अन्य चौथा जीवभाव नहीं पाया जाता । कर्मो के उदय और उदीरणाको विपाक कहते हैं, और विपाक जिस भावका प्रत्यय अर्थात् कारण है उसे विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहते हैं । कर्मो के उदय और उदीरणाके अभावको अविपाक कहते हैं। कर्मोके उपशम और क्षयको अविपाक कहते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अविपाक जिस भावका प्रत्यय अर्थात कारण है उसे अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहते हैं। कर्मोके उदय और उदीरणासे तथा इनके उपशमसे जो भाव उत्पन्न होता हैं उसे तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहते हैं।
विशेषार्थ- यहाँ जीवभावबन्धके तीन भेदोंके स्वरूपपर प्रकाश डाला गया है । विपाकका अर्थ उदय और उदीरणा है । अविपाक का अर्थ उपशम और क्षय है, तथा तदुभयका अर्थ क्षयोपशम है । इसमें देशघातिस्पर्धकोंका उदय और उदीरणा रहती है तथा सर्वघाति स्पर्धकोंका अनुदय रहता है । क्षयोपशम शब्द द्वारा अनुदय ही कहा गया है क्षय अर्थात् अनुदय ही उपशम ऐसी उसकी व्युत्पत्ति है । तदुभयमें विपाक और अविधाक दोनोंका ग्रहण हो जाता है, किन्तु क्षयोपशम शब्द द्वारा उदय और उदीरणा अविवक्षित रहते हैं । अभिप्राय दोनोंका एक है।
जो विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है-- देवभाव, मनुष्यभाव, तिर्यचभाव, नारकमाव, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद क्रोधवेद, मानवेद, मायावेद, लोभवेद, रागवेद, दोष वेद, मोहवेद, कृष्णलेश्या, नोललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या, असंयतभाव, अविरतभाव, अज्ञानभाव और मिथ्यादृष्टि भाव; तथा
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बंधणाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा एवमादिया कम्मोदयपच्चइया उदयविवागणिप्पण्णा भावा सो सव्वो विवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम ।। १५ ।।
देवगदिणामकम्मोदएण अणिमादिगुणं णीदो देवभावो होदि । मणुसगदिणामकम्मोदएण अणिमादिगुणवदिरित्तो मणुस्से ति भावो होदि । तिरिक्खगइणामकम्मो. दएण तिरिक्खे त्ति भावो। णिरयगइणामकम्मोदएण णेरइए त्ति भावो। इत्थिकम्मोदएण इथिवेदो ति भावो होदि । पुरिसवेदभावो विवागपच्चइयो; पुरिसवेदोदयजणिदत्तादो। णवंसयवेदभावो विवागपच्चइयो; णवंसयवेदकम्मोदयजणिदत्तादो। कोधमाण-माया-लोभभावा विवागपच्चइया; कोध-माण-माया-लोभदव्वकम्मविवागजणिदत्तादो । रागो विवागपच्चइयो; माया-लोभ-हस्स-रदि-तिवेदाणं दव्वकम्मोदयणिदत्तादो । दोसो विवागपच्चइयो; कोह-माण-अरदि सोग-भय-दुगुंछाणं दव्वकम्मोदयजणिदत्तादो । पंचविहमिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्तं च मोहो, सो विवागपच्चइयो; मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तं-अणंताणबंधोणं दव्वकम्मोदयजणिदत्तादो। किण्णणील-काउ-तेउ-पम्म- सुक्कलेस्साओ विवागपच्चइयाओ अघादिकम्माणं तप्पाओग्गदव्वकम्मोदएण कसाओदएण च छलेस्सागिप्पत्तीदो। असंजदत्तं विवागपच्चइयं; संजमघादिकम्माणमुदएण समप्पण्णतादो। अविरवत्तं विवागपच्चइयं देस
इसी प्रकार कर्मोदयप्रत्ययिक उदयविपाकसे उत्पन्न हुए और जितने भाव हैं वे सब विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध हैं ॥ १५॥
देवगति नामकर्मके उदयसे जो अणिमा आदि गणोंको प्राप्त करता है वह देवभाव है। मनुष्यगति नामकर्मके उदयसे अणिमा आदि गुणोंसे रहित मनुष्यभाव होता है। तिर्यंचगति नामकर्मके उदयसे तिर्यचभाव होता है। नरकगति नामकर्मके उदयसे नारकभाव होता है । स्त्रीवेद कर्मके उदयसे स्त्रीवेदरूप भाव होता है । पुरुषवेदभाव विपाकप्रत्ययिक है, क्योंकि, वह पुरुषवेदके उदयसे उत्पन्न होता है । नपुंसकवेदभान विपाकप्रत्ययिक है, क्योंकि, वह नपुंसकवेद कर्मके उदयसे उत्पन्न होता है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये भाव भी विपाकप्रत्ययिक होते हैं ; क्योंकि, ये भाव क्रोध, मान, माया और लोभरूप द्रव्यकर्मों के विपाकसे उत्पन्न होते हैं। राग भी विपाकप्रत्ययिक होता है, क्योंकि, इसकी उत्पत्ति माया, लोभ, हास्य, रति और तीन वेदरूप द्रव्यकर्मों के विपाकसे होती है। दोष भी विपाक्प्रत्ययिक होता है, क्योंकि, इसकी उत्पत्ति क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सारूप द्रव्य कर्मके विधाकसे होती है। पाँच प्रकारका मथ्यात्व,, सम्यग्मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व मोह कहलाता है। वह भी विपाकप्रत्ययिक होता है क्योंकि, इसका उत्पत्ति मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनतानुबन्धीरूप द्रव्यकर्मके उदयसे होती है। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ललेश्या भी विपाकप्रत्ययिक होती हैं, क्योंकि, छह लेश्याओंकी उत्पत्ति अघाति कर्मोंमेंसे तत्प्रायोग्य द्रव्यकर्मके उदयसे और कषायके उदयसे होती हैं । असंयतभाव भी विपाकप्रत्ययिक होता है, क्योंकि, यह संयमका घात करने
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१२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १६. सयलविरइघाइकम्मोदयजणिदत्तादो। संजम-विरईणं को भेदो ? ससमिदिमहन्वयाणुव्वयाइं संजमो । समिईहि विणा महन्वयाणुव्वया विरई। अण्णाणं विवागपच्च इयं ; मिच्छत्तोवयजणिवत्तादो णाणावरणकम्मोदयजणिवत्तादो वा। मिच्छत्तं विवागपच्चइयं; मिच्छत्तोदयजणिदत्तादो । जे च अमी अण्णे च एवमादिया कम्मोदय-- पच्चइया उदयविवागणिप्पण्णा सो सम्वो विवागपच्चइयो जीवभावबंधो गाम ।
जो सो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम सो दुविहोउवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव खइयो अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो चेव ॥ १६ ॥
वाले कर्मोंके उदयसे उत्पन्न होता है । अविरतभाव भो विपाकप्रत्ययिक है, क्योंकि, यह देशविरति और सकल विरतिके घातक कर्मों के उदयसे उत्पन्न होता है।
शंका--संयम और विरतिमें क्या भेद है ?
समाधान--समितियोंके साथ महाव्रत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं और समितियोंके बिना महाव्रत और अणुव्रत विरति कहलाते हैं । यही इन दोनोंमें भेद है।
अज्ञानभाव भी विपाकप्रत्ययिक होता है. क्योंकि. यह मिथ्यात्वके उदयसे अथवा ज्ञानातरणके उदयसे उत्पन्न होता है । मिथ्यात्व भी विपाकप्रत्ययिक होता है, क्योंकि, यह मिथ्यात्वके उदयसे उत्पन्न होता है। इसी प्रकार कर्मोदयप्रत्ययिक उदयविपाकनिष्पन्न और जितने भाव होते हैं वे सब विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहलाते हैं।
विशेषार्थ-प्रकृतमें प्रत्यय शब्द निमित्तवाची है । यहाँ देवभाव, मनुष्यभाव आदि जितने भाव गिनाये हैं ये सब विवक्षित कर्मके उदय और उदीरणाके निमित्तसे होते हैं, इसलिये इन्हें विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहा है। यहाँ ये कुल चौबीस भाव गिनाये हैं। जब कि तत्त्वार्थसूत्रमें कुल इक्कीस भाव ही गिनाये हैं। तत्त्वार्थसूत्र में गिनाये गये भावोंमेंसे असिद्धत्व भाव यहाँ नहीं गिनाया है और यहाँ राग, दोष, मोह और अविरति ये चार भाव अतिरिक्त गिनाये हैं। इनमेंसे यद्यपि अविरति भावका सामान्यतः असंयतभावमें अन्तर्भाव किया जा सकता है, पर शेष तीन भावोंके गिनाने में विशिष्ट दृष्टिकोणकी प्रतीति होती है। नोकषायोंके नौ भेद हैं, उनमेंसे रति आदिके उदयसे होनेवाले भावोंका तत्त्वार्थसूत्र में दर्शन नहीं होता, जब कि यहाँ इन भावोंका राग और दोष में अन्तर्भाव हो जाता है। इसी प्रकार सासादनभाव और सम्यग्मिथ्यात्वभावकी परिगणना भी तत्त्वार्थसूत्र में नहीं की गई है जब कि यहाँ इनका अन्तर्भाव मोहमें हो जाता है। एक बात अवश्य है कि यहाँ असिद्धत्व भाव नहीं गिनाया है, पर इसके साथ यहाँ इसी प्रकार और दूसरे भावोंके ग्रहण करनेकी सूचना अवश्य की है । इसलिये कोई हानि नहीं है । आशय यह है कि यहाँ औदयिक भावोंका विचार करते समय उस दृष्टिकोणको अपनाया गया है जिससे प्रायः सभी भावोंका ग्रहण हो जाता है।
___ अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध दो प्रकारका है--औपशामिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध और क्षायिक अविपाकप्रत्यायिक जीवभावबन्ध ।। १६ ॥
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५, ६,१६. )
बंधाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा
एवं दुविहो चेव अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो होदि । जीव-भव्वाभव्वतादिजीवभावा पारिणामिया वि अस्थि, ते एत्थ किष्ण परुविदा ? वुच्चदे-आउआदिपाणाणं धारणं जीवणं णाम । तं च अजोगिचरिमसमयादो उवरि णत्थि सिद्धेसु पाणणिबंधणटुकम्माभावादो । तम्हा सिद्धा ण जीवा जीविदपुव्वा इदि । सिद्धाणं पि जीवत्तं किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, उवधारस्स सच्चत्ताभावादो । सिद्धेसु पाणाभावण्णहाणुववत्तदो जीवत्तं ण पारिणामियं, किंतु कम्मविवागजं; यद्यस्य भावाभावानुविधानतो भवति तत्तस्येति वदन्ति तद्विद इति न्यायात् । तत्तो जीवभावो ओवइओ ति सिद्धं । तच्चत्थे जं जीवभावस्स पारिणामियत्तं परूविदं तं पाणधारणत्तं पडुच ण परुविदं, किंतु चेदणगुणमवलंबिय तत्थ परूवणा कदा । चेण तं पिण विरुज्झदे ।
अघाइकम्मच उक्कोदयजणिदमसिद्धत्तं णाम । तं दुविहं- अणादि-अपज्जवसिदं अनादिसपज्जवसिदं चेदि । तत्थ जेसिमसिद्धत्तमणादि-अपज्जवसिदं ते अभव्वा णाम । जेसिमवरं ते भव्वजीवा । तदो भव्वत्तमभव्वत्तं च विवागपच्चइयं चेव । तच्चत्थे पारिणामियत्तं परुविदं, तेण सह विरोधो कधं ण जायदे ? ण, असिद्धत्तस्स अणादि-अपज्जवसिदत्तं
इस तरह दो प्रकारका ही अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध होता है ।
शंका- जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व आदिक जीवभाव पारिणामिक भी हैं, उनका यहाँ क्यों कथन नहीं किया ?
समाधान - कहते हैं, आयु आदि प्राणोंका धारण करना जीवन है । वह अयोगी के अन्तिम समयसे आगे नहीं पाया जाता, क्योंकि, सिद्धोंके प्राणोंके कारणभूत आठों कर्मोंका अभाव है । इसलिये सिद्ध जीव नहीं हैं, अधिकसे अधिक वे जीवितपूर्व कहे जा सकते हैं ।
शंका- सिद्धों के जीवत्व क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, सिद्धोंमें जीवत्व उपचारसे हैं, और उपचारको सत्य मानना ठीक नहीं है ।
सिद्धों में प्राणोंका अभाव अन्यथा बन नहीं सकता, इससे मालूम पड़ता है कि जीवत्व पारिणामिक नहीं है । किन्तु वह कर्मके विपाकसे उत्पन्न होता है, क्योंकि, 'जो जिसके सद्भाव और असद्भावका अविनाभावी होता है वह उसका है, ऐसा कार्य कारणभावके ज्ञाता कहते हैं ' ऐसा न्याय है । इसलिये जीवभाव औदयिक है, यह सिद्ध होता है । तत्त्वार्थसूत्र में जीवत्वको जो पारिणामिक कहा है वह प्राणोंको धारण करनेकी अपेक्षासे नहीं कहा है, किन्तु चैतन्य गुणकी अपेक्षासे वहाँ वैसा कथन किया है, इसलिये वह कथन भी विरोधको प्राप्त नहीं होता ।
चार अघाति कर्मोंके उदयसे उत्पन्न हुआ असिद्धभाव है । वह दो प्रकारक है- अनादिअनन्त और अनादि-सान्त । इनमें से जिनके असिद्धभाव अनादि-अनन्त हैं वे अभव्य जीव हैं और जिनके दूसरे प्रकारका है वे भव्य जीव हैं । इसलिये भव्यत्व और अभव्यत्व ये भी विपाकप्रत्ययिक ही हैं ।
शंका- तत्त्वार्थ सूत्र में इन्हें पारिणामिक कहा है, इसलिये इस कथनका उसके साथ विरोध कैसे नहीं होगा ?
( १३
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१४) छक्खंडागमे वगणा-खंड
( ५, ६, १७. अणादि-सपज्जवसिदत्तं च णिक्कारणमिदि तत्थ तेसि पारिणामियत्तब्भुवगमादो।
जो सो ओवसमिओ अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो-से उवसंतकोहे उपसंतमाणे उवसंतमाए उवसंतलोहे उवसंतरागे उवसंतदोसे उवसंतमोहे उवसंतकसायवीयरागछदुमत्थे उवसमियं सम्मत्तं उवसमियं चारित्ते, जे चामण्णे एवमादिया उवसमिया भावा सो सध्वो उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम ।१७।
उवसंतकोहे अणियट्टिम्मि जो भावो सो उवसमिओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; दव-भावकोधाणमवसमेण समुभदत्तादो। उवसंतमाणे जीवे जो भावो सो उव. समियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; दव-भावमाणाणमवसमेण समन्भदत्तादो । उपसंतमाये जीवे जो भावो सो उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; दव्वभावमायाणमुवसमेण समभदत्तादो । उवसंतलोभे जीवे जो भावो सो वि उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; दव्व-भावलोहाणमुवसमेण समन्भूदत्तादो । उवसंतरागे जोवे जो भावो सो उसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; माया-लोभ-हस्स-रदि-तिवेददक्वकम्माणमुवसमेण समुन्भूदत्तादो । उवसंतदोसे जीवे जो भावो सो उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो;
समाधान-नहीं, क्योंकि, असिद्धत्वका अनादि-अनन्तपना और अनादि-सान्तपना निष्कारण है, यह समझकर उन्हें वहाँ पारिणामिक स्वीकार किया गया है।
जो औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है- उपशान्तक्रोध, उपशान्तमान, उपशान्तमाया, उपशान्तलोभ, उपशान्तराग, उपशान्तदोष, उपशान्तमोह, उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ, औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र, तथा इनसे लेकर और जितने औपशमिक भाव हैं वह सब औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है ।। १७ ।।
अनिवृत्तिकरणमें क्रोधके उपशमसे जो भाव होता है वह औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह द्रव्य क्रोध और भावक्रोध के उपशमसे उत्पन्न होता है । उपशान्तमान जीवके जो भाव होता है वह औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह द्रव्यमान और भावमानके उपशमसे उत्पन्न होता है । उपशान्तमाया जीवमें जा भाव होता है वह औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह द्रव्यमाया और भावमायाके उपशमसे उत्पन्न होता है। उपशान्तलोभ जीवमें जो भाव होता है वह भी औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभाबबंध है, क्योंकि, वह द्रव्यलोभ और भावलोभके उपशमसे उत्पन्न होता है। उपशान्तराग जीवमें जो भाव होता है वह औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह माया, लोभ, हास्य, रति और तीन वेदरूप द्रव्यकर्मों के उपशमसे उत्पन्न होता हैं । उपशान्तदोष जीवमें जो भाव होता है वह औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है,
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५, ६, १८. ) बंधणाणुयोगद्दारे दवबंधपरूवणा कोह-माण-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं दव्वकम्मवसमेण समुन्भदत्ताबो। ( उवसंतमोहे जीवे जो भावो सो वि उवस मियो अविवामपच्चइयो जीवभावबंधो, अट्ठावीस मोहणीयपयडीणं दव्वकम्मवसमेण समुभदत्तादो) उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थे जीवे जो भावो सो वि उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधों; पणुवीसकसायाणं दव्वकम्मुवसमेण समुभदत्तादो। जमवसमियं सम्मत्त तं पि उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; तिविहदंसणमोहणीयदव्वकम्मुवसमेण समुप्पत्तीए । जं उवसमियं चारित्तं तं पि गवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; चारित्तमोहणीयस्स देस.सवसमणाए समुन्भूदत्तादो।जे च अमी पुवुत्ता भावा अण्णो वा वि अपुव्वअणिर्याट्ट-सुहमसांपराइय-उवसंतकसाएसु समयं पडि जे उप्पज्जमाणा जीवभावा सो सव्वो उबसमिओ अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो णाम ।
जो सो खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो-से खीणकोहे खीणमाणे खीणमाये खीणलोहे खीणरागे खीणदोसे खीणमोहे खीणकसायवीयरायछदुमत्थे खइयसम्मत्तं खइयचारित्तं खइया वाणलद्धी खइया लाहलद्धी खइया भोगलद्धी खइया परिभोगलद्धी खइया वीरियलद्धी केवलपाणं केवलदसणं सिद्ध बुद्ध परिणिव्वदे सव्ववखाणमंतयडे ति जे चामण्णे एवमादिया खाइया भावा सोसवो खाइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम ॥१८॥ क्योंकि, वह क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सारूप द्रव्य कर्मीके उपशमसे उत्पन्न होता है । उपशान्तकषाय-वीतरगछद्मस्थ जीवमें जो भाव होता है वह भी औपमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह पच्चीस कषायरूप द्रव्यकर्मोंके उपशमसे उत्पन्न होता है । जो औपशमिक सम्यक्त्व है वह भी औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, व तीन प्रकारके दर्शनमोहनीय द्रव्यकर्म के उपशमसे उत्पन्न होता है । जो औपशमिक चारित्र है वह भी औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह चारित्रमोहनीयकी देशोपशमना और सर्वोपशमनासे उत्पन्न होता है। चूंकि ये पूर्वोक्त भाव और दूसरे भी अपूर्वकरण, अनिवृत्ति करण, सूक्ष्मसाम्पराय और उपशान्त कषाय गुणस्थानों में प्रत्येक समयमें उत्पन्न होनेवाले जो जीवके भाव हैं वह सब औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है।
जो क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार हैक्षीणक्रोध, क्षीणमान, क्षीणमाया, क्षीणलोभ, क्षीणराग, क्षीणदोष, क्षीणमोह, क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानलब्धि, क्षायिक लाभलब्धि, क्षायिक भोगलब्धि, क्षायिक परिभोगलब्धि, क्षायिक वीर्यलब्धि, केवलज्ञान, केवलदर्शन, सिद्ध, बुद्ध, परिनिर्वृत्त, सर्वदुःख-अन्तकृत, इसी प्रकार और भी जो दूसरे क्षायिक भाव होते हैं वह सब क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है ।।१८।
प्रतिषु 'अणेया वि' इति पाठः ]
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१६ )
छवखंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, १८.
खोकीहे जीवे जो भावो सो खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम; दव्व भावको हाणं णिरवसे सक्खएण समुप्पण्णत्तदो । खोणमाणे जीवे जो भावो सो विखइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधी णाम; दव्व-भावमाणक्खएण समुप्पत्तीदो☼ । खीणमाए जीवे जो भावो सो वि खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो ; दुविहमायक्खएण समुप्पत्ती दो । खोणलोहे जीवे जो भावो सो त्रिखइओ अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो; दुविहलो हक्खएण समुप्पत्तीदो । खीणरागे जीवे जो भावो सो अविवाग. पच्चइयो जीवभावबंधो; माय- लोह-हस्स·रदि-तिवेदाणं दुविहकम्मक्खएण समुब्भूदत्तादो । खीणदोसे जीवे जो भावो सो वि खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो ; कोह- माण- अरदि सोग-भय- दुगंछाणं दुविहकस्मवखरण समुत्पत्ती दो । खोणमोहे जीवे जो भावो सो वि खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; अट्ठावीसभेदभिष्णमोहक्खएण समुद्भूदत्तादो। खीणकसायवीदरागछदुमत्थे जीवे जो भावो सो वि खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; पंचवीसकसायाणं णिस्सेसक्खएण समुप्पत्तीदो। जं खइयं सम्मत्तं तं पि खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; दंसणमोहक्खएण सभुपत्तदो । जं खइयं चारितं तं पि खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो, चारितमोहक्खण समुप्पत्तीदो । जा खइया दाणलद्धी सो वि खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; दाणंतराइयस्स णिम्मूलक्खएण समुप्पत्ती दो । अरहंता खीणदाणंतराइया
क्षीणक्रोध जीवमें जो भाव होता है वह क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह द्रव्य और भाव क्रोध के सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होता है। क्षागमान जीवमें जो भाव होता है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह द्रव्यमान और भावमानके क्षयसे उत्पन्न होता है । क्षीणमाया जीवमें जो भाव होता है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह दो प्रकारकी मायाके क्षयसे उत्पन्न होता है । क्षीणलोभ जीवमें जो भाव होता है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह दो प्रकारके लोभके क्षयसे उत्पन्न होता है । क्षीणराग जीवमें जो भाव होता है वह भी अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह दोनों प्रकारके माया, लोभ, हास्य, रति और तीन वेदरूप कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होता है । क्षीणदोष जीवमें जो भाव होता है वह भी क्षायिक अविपाक -- प्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह दोनों प्रकारके क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुसारूप कर्मों के क्षयसे उत्पन्न होता है । क्षीणमोह जीवमें जो भाव होता है वह क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह अट्ठाईस प्रकारके मोहनीयके क्षयसे जत्पन्न होता है । क्षीणकषाय- वीतरागछद्मस्थ जीवमें जो भाव होता है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह पच्चीस कषायोंके निश्शेष क्षयसे उत्पन्न होता है। जो क्षायिक सम्यक्त्व है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह दर्शन मोहनीयक क्षयसे उत्पन्न होता है । जो क्षायिक चारित्र है, वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह चारित्रमोहनीय क्षयसे उत्पन्न होता है । जो क्षायिक दानलब्धि है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह दानान्तरायके निर्मूल क्षयसे उत्पन्न होती है । समुत्पत्तीए' इति पाठ: । एवमग्रेऽपि ।
मप्रतिपाठोऽयम् अ-आ- कानाप्रतिषु
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५, ६, १८.)
बंधणाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा सवेसि जीवाणमिच्छिदत्थे किण्ण देंति ? ण, तेसि जीवाणं लाहंतराइयभावादो । जा खइया लाहलद्धी सो खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो, लाहंतराइयक्खएण समुप्पत्तीदो। अरहंता जदि खीणलाहंतराइया तो तेसि सव्वत्थोवलंभो किण्ण जायदे? सच्चं, अस्थि तेसि सव्वत्थोवलंभो, सगायत्तासेसभुवणत्तादो। जा खइया भोगलद्धी सो वि खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो, भोगतराइयवखएण समुप्पत्तीदो । जा खइया परिभोगलद्धी सो वि खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो, परिभोगंतराइयक्खएण समुप्पत्तीदो । जदि अरिहंता खोणपरिभोगंतराइया तो किण्ण भोगेति परिभोगति वा?ण, खीणकसायाणं उवभोग-परिभोगेहि पओजणाभावादो* । जा खडया विरियलद्धी सो खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो, विरियंतराइयक्खएण समुप्पत्तीदो। केवलणाणं केवलदसणं च खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो, केवलणाण-दसणावरणक्खएण समुप्पत्तीदो । सिद्धे जो भावो सो खइयो अविवागपच्चइयो,
शंका- अरिहन्तोंके दानान्तरायका तो क्षय हो गया है, फिर वे सब जीवोंको इच्छित अर्थ क्यों नहीं देते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, उन जीवोंके लाभान्तराय कर्मका सद्भाव पाया जाता है।
जो क्षायिक लाभलब्धि है वह भी क्षायिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह लाभान्तराय कर्मके क्षयसे उत्पन्न होती है ।
__ शंका- अरिहन्तोंके यदि लाभान्तराय कर्मका क्षय हो गया है तो उनको सब पदार्थोकी प्राप्ति क्यों नहीं होती ?
समाधान- सत्य है, उन्हे सब पदार्थों की प्राप्ति होती है, क्योंकि, उन्होंने अशेष भुवनको अपने आधीन कर लिया हैं।
___ जो क्षायिक भोगलब्धि है वह भी जायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह भोगान्तराय कर्म के क्षयसे उत्पन्न होती है । जो क्षायिक परिभोग लब्धि है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह परिभोगान्तराय कर्मके क्षयसे उत्पन्न होती है।
_ शंका- यदि अरिहन्तोंके (भोगान्तराय और) परिभोगान्तराय कर्मका क्षय हो गया है तो वे अन्य पदार्थों का (उपभोग और) परिभोग क्यों नहीं करते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, जो जीव क्षीणकषाय होते हैं उनका उपभोग-परिभोगसे प्रयोजन नहीं रहता।
जो क्षायिक वीर्यलब्धि है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभाबबन्ध है, क्योंकि, वह वीर्यान्तराय कर्मके क्षयसे उत्पन्न होती है। केवलज्ञान और केवलदर्शन क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध हैं, क्योंकि, ये क्रमशः केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण कर्मके क्षयसे उत्पन्न होते हैं जो सिद्धभाव है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि
*प्रतिषु ' उपभोगे परिभोगहि य जोजणाभावादो ' इति पाठ।
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१८. )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १९.
अटुकम्मक्खएण समुप्पत्तीदो। बुद्ध जो भावी सो वि खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो, अंतरंग-बहिरंगावरणक्खएण समप्पत्तीदो। परिणिस्वदे जो भावो सो वि खइयो अविवागपच्चइओ, असेसकम्मक्खएण समप्पत्तीदो । सम्वदुक्खाणमंतयडतं पि खइयो अविवागपच्चइओ, सव्वदुक्खएण समुप्पत्तीदो । जे च अमी पुवुत्ता भावा अण्णे च समयं पडि समभदा सो सम्वो खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम । - जो सो तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो -- खओवसमियं एइंदियलद्धि त्ति वा खओवसमियं बीइंदियलद्धि त्ति वा खओवसमियं तीइंदियलद्धि त्ति वा खओवसमियं चरिदियलद्धि ति वा खओवसमियं पंचिदियलद्धि त्ति वा खओवसमियं मदिअण्णाणि त्ति वा खओवसमियं सुदअण्णाणि त्ति वा खओवसमियं विहंगणाणि ति वा खओवसमियं आभिणिबोहियणाणि ति वा खओवसमियं सुदणाणि त्ति त्ति वा खओवसमियं ओहिणाणि त्ति वा खओवसमियं मण
वह आठों कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होता है। जो बुद्धभाव है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह अन्तरंग और बहिरंग आवरणके क्षयसे उत्पन्न होता है । जो परिनिर्वृत भाव है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक है, क्योंकि, वह अशेष कर्मों के क्षयसे उत्पन्न होता है। सब दुःखोंका अन्तकृत्त्व भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक है, क्योंकि, वह सब दुःखोंके क्षयसे उत्पन्न होता । ये पूर्वोक्त भाव और दूसरे भी भाव जो प्रतिसमय उत्पन्न होते हैं वह सब क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है ।
विशेषार्थ- यहाँ क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध इक्कीस गिनाये हैं और इनके साथ प्रतिसमय होनेवाले अन्य क्षायिक भावोंकी सूचना की है । तत्त्वार्थसूत्रमें क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, केवलज्ञान, केवलदर्शन और पाँच क्षायिक लब्धियाँ ; ये कुल नौ भाव गिनाये हैं। यहाँ गिनाये गये भावोंमें कुछ ऐसे भाव अवश्य हैं जिनका अलगसे उल्लेख करना यहां आवश्यक है । जैसे सिद्धभाव, सर्वदुःख-अन्तकृद्भाव आदि । शेषका कथंचित् अन्तर्भाव हो जाता है । यद्यपि पाँच लब्धियोंका काम बाह्य सामग्रीकी प्राप्त नहीं है, किन्तु कहीं कहीं उनका काम बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति बतलाया गया है, जो उपचार कथन है।
जो तदुभयप्रत्ययिक जीवभारबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है-- क्षायोपशमिक एकेन्द्रियलब्धि, क्षायोपशमिक द्वीन्द्रियलब्धि, क्षायोपशमिक त्रीन्द्रियलब्धि, क्षायोपशमिक चतुरिन्द्रियलब्धि, क्षायोपशमिक पञ्चेन्द्रियलब्धि, क्षायोपशमिक मत्यज्ञानी, क्षायोपशमिक श्रुताज्ञानी, क्षायोपशमिक विभंगज्ञानी, क्षायोपशमिक आभिनिबोधिकज्ञानी, क्षायोपशमिक श्रुतज्ञानी, क्षायोपशमिक अवधिज्ञानी, क्षायोपमिक मनःपर्यय---
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५, ६, १९. )
गद्दारे भावबंधपरूवणा
( १९
पज्जवणाणि त्ति वा खओवसमियं चक्खुदंसणि त्ति वा खओवसमियं अचक्खुवंसणि ति वा खओवसमियं ओहिदंसणि त्ति वा खओवसमियं सम्मामिच्छत्तलद्धि त्ति वा खओवसमियं सम्मत्तलद्धि त्ति वा खओवसमियं संजमा संजमलद्धि त्ति वा खओवसमियं संजमलद्धित्ति वा खओवसमियं दाणलद्धित्ति वा खओवसमियं लाहलद्धि त्ति वा खओवसमियं भोगलद्धि त्ति वा खओवसमियं परिभोगलद्धि त्ति वा खओवसमियं वीरियलद्धित्ति वा खओवसमियं से आयारधरे त्ति वा खओवसमियं सूदयडधरे त्ति वा खओवसमियं ठाणधरे त्ति वा खओवस मियं समवायधरे त्ति वा खओवसमियं वियाहपण्णत्तधरे त्ति वा खओवसमियं णाहधम्मधरे ति वा खओवसमियं उवासयज्झेंणधरे त्ति वा खओवसमियं अंतयडधरे त्ति वा खओवसमियं अणुत्तरोववादियदसधरे त्ति वा खओवसमियं पण्णवागरणधरे त्ति वा खओवसमियं विवाग सुत्तधरे त्ति वा खओवसमिमं विट्टिवादधरे त्ति वा खओवसमियं गणित वा ओवसमियं वाचगे त्ति वा खाओवसमियं वसपुण्वहरे त्ति वा हाओवसमियं चोहसपुण्वहरे सिवा जे चामण्णे एवमादिया खओवसमियभावा सो सव्वो तदुभयपच्चइओ जीवभावबंधो णाम । १९।
ज्ञानी, क्षायोपशमिक चक्षुदर्शनी, क्षायोपशमिक अचक्षुदर्शनी, क्षायोपशमिक अवधिदर्शनी, क्षायोपशमिक सम्यरिथ्यात्वलद्धि, क्षायोपशमिक सम्यक्त्वलब्धि, क्षायोपशमिक संयमासंयमलब्धि, क्षायोपशमिक संयमलब्धि, क्षायोपशमिक दानलब्धि, क्षायोपशमिक लाभलब्धि, क्षायोपशमिक भोगलब्धि, क्षायोपशमिक परिभोगलब्धि, क्षायोपशमिक वीर्यलब्धि, क्षायोपशमिक आचारधर, क्षायोपशमिक सूत्रकृद्धर, क्षायोपशमिक स्थानधर, क्षायोपशमिक समवायधर, क्षायोपशमिक व्याख्याप्रज्ञप्तिधर, क्षायोपशमिक नाथधर्मधर, क्षायोपशमिक उपासकाध्ययनधर, क्षायोपशमिक अन्तकृद्धर, क्षायोपशमिक अनुत्तरौपपादिकदशधर, क्षायोपशमिक प्रश्नव्याकरणधर, क्षायोपशमिक विपाकसूत्रधर, क्षायोपशमिक दृष्टिवादधर, क्षायोपशमिक गणी, क्षायोपशमिक वाचक, क्षायोपशमिक दशपूर्वधर, क्षायोपशमिक चतुर्दश पूर्वधर; ये तथा इसी प्रकारके और भी दूसरे जो क्षायोपशमिक भाव हैं वह सब तदुमयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है ॥ १९ ॥
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२०)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
___एदस्स सुत्तस्स अत्थो उच्चदे । तं जहा-एत्थ सव्वे वा-सद्दा समुच्चयठे दढव्या। एइंदियलद्धि त्ति एदं च खओवसमियं, पातिदियावरणखओवसमेण समुप्पत्तीए । बेई. दियलद्धि त्ति एवं पि खओवसमियं, फांसिदियावरणक्खओवसमेण समुप्पत्तीए । तीइंदियलद्धि त्ति एदं च खओवसमियं, जिब्भा फास-घाणिदियावरणाणं खओवसमेण समुप्पत्तीए । चरिदियलद्धि त्ति एवं च खओवस मियं, जिब्भा-कास-घाण- चक्खिदियावरणाणं खओवसमेण समप्पत्तीए। पचिदियलद्धि त्ति एवं च खओवसमियं, पंचामदियावरणाणं खओवसमेण समप्पत्तीए । मदिअण्णागि ति एवं पि खओवसमियं, मदिणाणावरणखओवसमेण समुप्पत्तीए । कुदो एदं मदिअप्णात्तिं तदुभयपच्चइयं ? मिच्छत्तस्स सव्वघादिफयाणमुदएण णाणावरणीयस्स देसघादिफयाणमुदएण तस्सेव सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण च मदिअण्णाणित्तप्पत्तीदो । सुदअग्णाणि त्ति तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो, सुदणाणावरणस्स देसघादिफद्दयाणमुदएण मिच्छत्तोदयाणुविद्धण समुप्पत्तीदो । विहंगणाणि ति तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो,
ओहिणाणावरणदेसघादिफद्दयाणमदएण मिच्छताणविद्धे ग समुप्पत्तीदो । आभिणिबोहियणाणाणि त्ति तदुभयपच्चइओ जीवभावबंधो, मदिणाणाणावरणीयस्स देसघादिफद्दयाणमुदएण तिविहसम्मत्तसहाएण तदुप्पत्तीदो । आभिगिबोहियणाणस्स
अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । यथा-इस सूत्रमें सब 'वा' शब्द समुच्चयरूप अर्थमें जानने चाहिये। एकेन्द्रियलब्धि यह भी क्षायोपशमिक है, क्योंकि, वह स्पर्शनइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होती है। द्वीन्द्रियलब्धि यह भी क्षायोपशमिक है, क्योंकि, वह जिह वा और स्पर्शन इन्द्रियावर ण वर्मोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न होती है । त्रीन्द्रियलब्धि यह भी क्षायोपशमिक है, क्योंकि, यह जिह वा, स्पर्शन और ध्राण इन्द्रियावरण कर्मोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न होती है। चतुरिन्द्रियलब्धि यह भी क्षायोपशमिक है, क्योंकि, यह जिह वा, स्पर्शन, घ्राण और चक्षु इन्द्रियावरण कर्मोके क्षयोपशमसे उत्पन्न होती है। पचेन्द्रियलब्धि यह भी है पशमिक है, क्योंकि, यह पाँचों इन्द्रियावरण कर्मोके क्षयोपशमसे उत्पन्न होती है । मत्यज्ञानी यह भी क्षायोपशमिक है, क्योंकि, यह मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है ।
शका- यह मत्यज्ञानित्व तदुभयप्रत्ययिक कैसे है ?
समाधान- मिथ्यात्वके सर्वघाती स्पर्धकोंका उदय होनेसे तथा ज्ञानावरणीयके देशघाति स्पर्धकोंका उदय होनेसे और उसीके सर्वघाति स्पर्धकोंका उदयक्षय होनेसे मत्यज्ञानित्वकी उत्पत्ति हाता है, इसलिये वह तदुभयप्रत्ययिक है।
श्रुतज्ञानी तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, यह मिथ्यात्व कर्मके उदयसे युक्त श्रुतज्ञानावरण कर्मके देशघाति स्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न होता है। विभंगज्ञानी तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध हैं, क्योंकि, मिथ्यात्वसे युक्त अवधिज्ञानावरण कर्मके देशघाति स्पर्धकोंके उदयसे इसकी उत्पत्ति होती है । आभिनिबोधिकज्ञानी तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, तीन प्रकारके सम्यक्त्वसे युक्त मतिज्ञानावरणीय कर्मके देशघाति स्पर्धकोंके उदयसे इसकी उत्पत्ति होती है ।
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बंधणाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा
( २१
उदयपच्चइयत्तं घडदे, मदिणाणावरणीयस्स देसधादिफयाणमुदएण समुप्पत्तीए । गोवसमियपच्चइयत्तं, उवसमाणवलंभादो? ण, णाणावरणीयसव्वधादिफद्दयाणमुदयाभावेण उवसमसण्णिदेण आभिणिबोहियणाणप्पत्तिदसणादो । एवं सुदणाणि ओहिणाणि मणपज्जवणाणि-चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणि-ओहिदंसणिआदीणं वत्तव्वं, विसेसाभावादो। सम्मामिच्छत्तलद्धि त्ति खओवसमियं, सम्मामिच्छत्तोदयजणिदत्तादो । सम्मामिच्छत्तफद्दयाणि सव्वघादीणि चेव, कधं तदुदएण समुप्पण्णं सम्मामिच्छत्तं उभयपच्चइयं होदि? ण, सम्मामिच्छ तफहयाणमुदयस्स सव्वघादित्ताभावादो । तं कुदो णव्वदे? तत्यतणसम्मत्तस्सुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदी। सम्मामिच्छत्तदेसघादिफद्दयाणमुदएण तस्सेव सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावेण उवसमसण्णिदेण सम्मामिच्छत्तमुपज्जदि त्ति तदुभयपच्चइयत्तं । (सम्मत्तलद्धि त्ति खओवसमियं, सम्मत्तोदयजणिदत्तादो। सम्मत्तफद्दयाणि देसघादीणि चेव, कधं तदुदएण समुप्पण्णं उभयपच्चइयं होदि? ) ण,सम्मत्त
शंका- आभिनिबोधिकज्ञानके उदयप्रत्ययिकपना बन जाता है, क्योंकि, मतिज्ञानावरण कर्मके देशघाति स्पर्धकोंके उदयसे इसकी उत्पत्ति होती है। पर औपशमिकनिमित्तकपना नहीं बनता, क्योंकि, मतिज्ञानावरण कर्मका उपशम नहीं पाया जाता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, ज्ञानावरणीय कर्मके सर्वधाति स्पर्धकोंके उपशम संज्ञावाले उदयाभावसे आभिनिबोधिक ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है. इसलिये इसका औपशमिकनिमित्तकपना भी बन जाता है।
इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी आदिका कथन करना चाहिये, क्योंकि, उपर्युक्त कथनसे इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है ।
सम्यग्मिथ्यात्व लब्धि क्षायोपशमिक है, क्योंकि, वह सम्यग्मिथ्यात्वके उदयसे उत्पन्न होती है।
शंका- सम्यग्मिथ्यात्व कर्मके स्पर्धक सर्वघाति ही होते हैं, इसलिये इनके उदयसे उत्पन्न हुआ सम्यग्मिथ्यात्व उभयप्रत्ययिक कैसे हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्व कर्मके स्पर्धकोंका उदय सर्वघाति नहीं होता। शंका- वह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- क्योंकि, सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्वरूप अंशकी उत्पत्ति अन्यथा बन नहीं सकती। इससे मालूम पडता है कि सम्यग्मिथ्यात्व कर्मके स्पर्धकोंका उदय सर्वघाति नहीं होता।
सम्यग्मिथ्यात्वके देशघाति स्पर्धकोंके उदयसे और उसीके सर्वघाति स्पर्धकोंके उपशम संज्ञावाले उदयाभावसे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्पत्ति होती है, इसलिये वह तदुभयप्रत्ययिक कहा गया है ।
सम्यक्त्वलब्धि क्षायोपशमिक है, क्योंकि, वह सम्यक्प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न होती है।
शंका- सम्यक्प्रकृतिके स्पर्धक देशघाति ही होते हैं । उसके उदयसे उत्पन्न हुआ सम्यक्त्व उभयप्रत्ययिक कैसे हो सकता है ?
ताप्रत्तो 'ण, ( सम्मत्तलद्धित्ति तदुययपच्चइयत्तं ), सम्मत्तं-'इति पाठ ।
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२२. )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २०.
देसघादिफद्दयाणमुदएण सम्मत्तप्पत्तीदो ओवइयं । ओवसमियं पि तं सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावादो । दंसणमोहणीयमेव सम्मत्तकयाणं सव्वधावित्तणेण उवसंताणं देसघादित्त गेण उदिण्णाणं कारियं वेदगसम्मत्तमिदि तदुभयपच्चइयत्तं उच्चदिति भणिदं होदि । एसो अत्यो पुग्विल्लेसु उत्तरिल्लेसु पदेसु जोजेयव्वो, पहाणत्तादो। एवं संजमासंजम संजम-दाण- लाह - भोग- परिभोग वीरियलद्वीणं पि तदुभयपच्चइयत्तं परूवेवं । आयारधरे त्ति तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो, आयारसुदणाणावरणस्स देसघादिफद्दयाणं सव्वघादित्तणेण उवसंताणमुदएण आयारसुदुप्पत्तीदो। एवं जणिदूण यत्तव्वं जाव दिट्टिवादधरे त्ति वा । एका दशांगविद्गणी । द्वादशांगविद्वाचकः । एवमेदे खओवसमिया भावा अण्णे वि सुहुमीभूदा तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो णाम ।
जो सो अजीवभावबन्धो नाम सो तिविहो विवागपच्चइयो अजीवभावबंधों चेव अविवागपच्चइयो अजीवभावबंधो चेव तदुभयपच्चइयो अजीवभावबंधो चेवं ।। २० ।।
मिच्छत्तासंजम व - कसाय जोगेहितो पुरिसपओगेहि वा जे निप्पण्णा अजीवभावा
समाधान- नहीं, क्योंकि सम्यक्त्वके देशघाति स्पर्धकोंके उदयसे सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है, इसलिये तो वह ओदायिक है । और वह औपशमिक भी है, क्योंकि, वहाँ सर्वघाति स्पर्धकों का उदय नहीं पाया जाता ।
सम्यक्प्रकृति दर्शनमोहनीयका एक भेद है । उसके सर्वघातिरूपसे उपशमको प्राप्त हुए और देशघातिरूपसे उदयको प्राप्त हुए स्पर्धकों का वेदकसम्यक्त्व कार्य है, इसलिये वह तदुभयप्रत्ययिक कहा गया है; यह उक्त कतनका तात्पर्य है । इस अर्थकी पहलेके और आगे के सब पदों में योजना करनी चाहिए, क्योकि, उभयनिमित्तक भावोंमे इसीकी प्रधानता है ।
इसी प्रकार संयमासंयमलब्धि, संयमलब्धि, दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, परिभोगलब्धि और वीर्यलब्धिको भी तदुभयप्रत्ययिक कहना चाहिये ।
आचारधर तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, आचारश्रुतज्ञानावरण के सर्वघातिरूपसे उपशमको प्राप्त हुए देशघातिस्पर्धकोंके उदयसे आचारश्रुतकी उत्पत्ति होती है इसी प्रकार दृष्टिवादधर तक सब पदोंका जानकर व्याख्यान करना चाहिये ।
ग्यारह अंगका ज्ञाता गणी कहलता है और बारह अंगका ज्ञाता वाचक कहलाता है । इस प्रकार ये क्षायोपशमिक भाव और अति सूक्ष्म दूसरे भीं क्षायोपशमिक भाव तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध हैं ।
1
विशेषार्थ - यहाँपर क्षायोपशमिकभावके भेद बहुत विस्तारसे किए गए हैं, फिर भी तत्त्वार्थसूत्र में इस भावके जितने भेद किए गए हैं उनमें इन सब भावोंका अन्तर्भाव हो जाता है अजीवभावबन्ध तीन प्रकारका है-विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध, अविपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध और तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध ॥ २० ॥
मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योगसे या पुरुषके प्रयत्नसे जो अजीवभाव उत्पन्न होते हैं
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( २३
५, ६, २१. )
बंधणाणुयोगद्दारे दव्वबंधपरूवणा तेसि विवागपच्चइओ अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । जे अजीवभावा मिच्छत्तादिकारहि विणा समप्पण्णा तेसिमविवागपच्चइओ अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । जे दोहि वि कारणेहि समप्पण्णा तेसि तदुभयपच्चइयो अजीवभावबंधो त्ति सण्णा । एवं तिविहो चेव अजीवभावबंधो होदि, अण्णस्स असंभवादो।
जो सो विवागपच्चइयो अजीवभावबंधो णाम तस्स इमो गिद्देसो-पओगपरिणदा वण्णा पओगपरिणदा सद्दा पओगपरिणदा गंधा पओगपरिणदा रसा पओगपरिणदा फासा पओगपरिणदा गदी पओगपरिणदा ओगाहणा पओगपरिणदा संठाणा पओगपरिणवा खंधा पओगपरिणदा संधदेसा पओगपरिणदा संधपदेसा जे चामण्णे एवमादिया पओगपरिणदसंजत्ता भावा सो सम्वों विवागपच्चइओं अजीवभावबंधों णाम ॥ २१ ॥
वणणामकम्मोदएण ओरालियसरीरखंधेसु जादवण्णा पओगपरिणवा णाम,
उनकी विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध यह संज्ञा है। जो अजीवभाव मिथ्यात्व आदि कारणोंके बिना उत्पन्न होते हैं उनकी अविपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध यह संज्ञा है । और जो दीनों ही कारणोंसे उत्पन्न होते है उनकी तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध यह संज्ञा है । इस तरह तीन प्रकारका ही अजीवभावबन्ध होता है, क्योंकि, इनके सिवा अन्य अजीवभावबन्ध सम्भव नहीं है।
विशेषार्थ-यहाँ जीवभावबन्ध के समान अजीवभावबन्ध भी तीन प्रकारका बतलाया गया है । यहाँ विपाकसे पुरुषका प्रयत्न या उसके मिथ्यात्व आदि भाव लिये गये हैं । इनके निमित्तसे पुद्गलकी जो रूप रसादि पर्याय या दूसरी अवस्थायें होती हैं वे विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध कहलाते हैं। जो पुरुषके प्रयत्नके बिना पुद्गल के बन्धरूप विविध प्रकारके परिणमन होते हैं वे अविपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध कहलाते हैं और तदुभय इन दोनोंरूप होते हैं। यह उक्त कथनका सार है।
___ जो विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध होता है उसका निर्देश इस प्रकार है-- प्रयोगपरिणत वर्ण, प्रयोगपरिणत शब्द, प्रयोगपरिणत गन्ध, प्रयोगपरिणत रस, प्रयोगपरिणत स्पर्श, प्रयोगपरिणत गति, प्रयोगपरिणत अवगाहना, प्रयोगपरिणत संस्थान, प्रयोगपरिणत स्कन्ध, प्रयोगपरिणत स्कन्धदेश और प्रयोगपरिणत स्कन्धप्रदेश ; ये और इनसे लेकर जो दूसरे भी प्रयोगपरिणत संयुक्त भाव होते हैं वह सब विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध है ॥ २१ ॥
वर्ण नामकर्म के उदयसे औदारिकशरीरके स्कन्धोंमें उत्पन्न हुए वर्ण प्रयोगपरिणत वर्ण हैं
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२४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २२. हलिद्दचुण्णजोगेण पूअफल-पण्णचुण्णसंजोगेण वा जणिदवण्णा वि पओअपरिणदा णाम। संख-वीणा-वंस भेरी-पटह-झल्लरी-मुइंगसद्दा कंठोट्ठादिजणिदसद्दा च पओअपरिणदात्ति भण्णंते । गंधजत्तिसस्थवत्तविहाणेण जणिदगंधा पओअपरिणदा णाम । सूअसत्थ उत्तविहाणेण जणिदरसा पओअपरिणदा रसा णाम रसणामकम्मणिदरसा वा। फासणा. मकम्मोदयजणिदट्टफासा पओअपरिणदा णाम रूवादिपासा वा। कंड-सेल्ल-जंतगोफण-वत्थरादोणं गई पओअपरिणदा । कट्टिमजिणभवणादीणमोगाहणा पओअपरि. णदा। कट्ट-सिला-थंभ-तुलादीणं कट्टिमाणं संठागा पओअपरिणदा। घड-पिढर-रंजणादीणं पि कट्टिमाणं खंधा पओअपरिणदा। पओअपरिणदाणं खंधाणमद्धं तिभागो का पओअपरिणदा खंधदेसा। पओअपरिणदाणं खंधाणं भेदं गदाणं चदुब्भागो पंचमभागो वा पओअपरिणदा खंधपदेसा। जे च अमी अण्णे च एवमादिया पओअपरिणदा संजुत्ता भावा सो सव्वो विवागपच्चइओ अजीवभावबंधो गाम ।
जो सो अविवागपच्चइओ अजीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो- विस्ससापरिणदा वण्णा विस्ससापरिणवा सद्दा विस्ससापरिणदा गंधा विस्ससापरिणवा रसा विस्ससापरिणदा फासा विस्ससा
या हलदीके और चुनेके योगसे अथवा पूगफल और पर्णचूर्णके योगसे उत्पन्न हुए वर्ण भी प्रयोगपरिणत वर्ण हैं । शंख, वीणा, बाँस, भेरी, पटह. झालर और मृदंगके शब्द और कण्ठ, ओष्ठ आदिसे उत्पन्न हुए शब्द भी प्रयोगपरिणत शब्द हैं । गन्ध बनानेकी युक्ति का कथन करनेवाले शास्त्रमें जो विधि कही है उसके अनुसार उत्पन्न किये गये गन्ध प्रयोगपरिणत गन्ध हैं। भोजनशास्त्र में कही हुई विधिके अनुसार उत्पन्न किये गये रस प्रयोगपरिणत रस हैं या रस नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए रस प्रयोगपरिणत रस हैं । स्पर्श नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए आठ प्रकारके स्पर्श प्रयोगपरिणत स्पर्श हैं, अथवा रुई आदिमें सस्कारसे जो आठ प्रकारके स्पर्श उत्पन्न किये जाते हैं वे प्रयोगपरिणत स्पर्श हैं।
लकडी, शैल, यन्त्र, गोफन और पत्थर आदिकी गति प्रयोगपरिणत गति है । कृत्रिम जिनभवन आदिकी अवगाहना प्रयोगपरिणत अवगाहना है । बनाये गये काष्ठ, शिला, स्तम्भ और तराजू आदिके आकार प्रयोगपरिणत संस्थान हैं। बनाये गये घट, पिढर और रांजन आदिके भी स्कन्ध प्रयोगपरिणत स्कन्ध हैं। प्रयोगपरिणत स्कन्धोंका चौथा भाग या तृतीय भाग प्रयोगपरिणत स्कन्धदेश हैं और भेदको प्राप्त हुए प्रयोगपरिणत स्कन्धोंका चौथा भाग या पाँचवाँ भाग प्रयोगपरिणत स्कन्धप्रदेश हैं। ये या इनसे लेकर इसी प्रकारके प्रयोगपरिणत जो दूसरे भी संयुक्त भाव हैं वह सब विपाकप्रत्ययिक अजीव भावबन्ध हैं।
जो अविपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है-विस्रसापरिणत वर्ण, विस्रसापरिणत शब्द, विस्रसापरिणत गन्ध, विस्त्रसापरिणत रस, विस्त्रसा
० अ-आ- काप्रतिषु 'रूवा का पशा वादिपासा' इति पाठ: 1
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( २५
५, ६, २२. ) बंधणाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा परिणवा गदी विस्ससापरिणवा ओगाहणा विस्ससापरिणवा संठाणा विस्ससापरिणदा खंधा विस्ससापरिणवा खंधदेसा विस्ससापरिणदा खंधपदेसा जे चामण्णे एवमादिया विस्ससापरिणवा संजुत्ता भावा सो सम्वो अविवागपच्चइओ अजीवभावबंधो णाम ।। २२ ॥ अवट्रिमाणं भवण-विमाण-मेरु कुलसेलादीणं वण्णो पुढवि-आउ तेउवाऊणमकट्टिमवण्णा च विस्ससापरिणदा णाम । वंसादीणं मुत्तिदन्वाणं संघट्टणेण समुट्टिदा विस्ससापरिणदा सदा । कत्थूरि-कुंकुमागरु-तमालपत्तादीणं जे साभाविया गंधा ते विस्ससापरिणदा गंधा। जब-जंबीर पणसंबादीणं फलाणं पुष्फंकुरादीणं च साभाविया जे रसा ते विस्ससापरिणदा रसा । पउमप्पलादीणं जे साभाविया फासा ते विस्ससापरिणदा फासा । चंदाइच्चगह-णक्खत्त-ताराणं वाऊणं च जा गदी सा विस्ससापरिणदा गदी। अकिट्टिमाणं भवविमाणाणं जिणहराणं सिद्धखेत्तागासाणं जा ओगाहणा सा विस्ससापरिणदा ओगाहणा णाम। गंध रस-फासा जेसु पुवुद्दिट्टा ते गंध-रस-फासणामकम्मोदयजणिदा ति अविवागपच्चइत्तं ण जुज्जदे? जदि एवं तो एदे मोत्तूण पोग्गलाणं जे साभाविया गंध-रस-फासा ते घेत्तव्वा ।
परिणत स्पर्श, विस्रसापरिणत गति, विस्त्रसापरिणत अवगाहना, विस्त्रसापरिणत संस्थान, विसापरिणत स्कन्ध, वित्रसापरिणत स्कन्धदेश और विस्त्रसापरिणत स्कन्धप्रदेश; ये और इनसे लेकर इसी प्रकारके विस्रसापरिणत जो दूसरे संयुक्त भाव हैं वह सब अविपाक प्रत्ययिक अजीवभावबन्ध है ॥ २२ ॥
अकृत्रिम भवन, विमान, मेरुपर्वत और कुलपर्वत आदिके वर्ण या पृथिवी, जल, अग्नि और वायुके अकृत्रिम वर्ण विस्रसा परिणत वर्ण हैं। बाँस आदि मूर्त द्रव्योंके संघर्षणसे उत्पन्न हुए शब्द विस्रसापरिणत शब्द हैं । कस्तूरी, कुंकुम, अगरु और तमालपत्र आदिकी जो स्वाभाविक गन्ध होती है वह विस्रसापरिणत गन्ध है । जम्बू , जंबीर, पनस और आम्र आदि फलोंके तथा फूल और अंकुर आदिके जो स्वाभाविक रस होते हैं वे विस्रसापरिणत रस हैं । पद्म और उत्पल आदिके जो स्वाभाविक स्पर्श होते हैं वे विस्रसापरिणत स्पर्श हैं । चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओंकी तथा वायुकी जो गति होती है वह विस्रसापरिणत गति है। अकृत्रिम भवन, विमान और जिनघर आदि तथा सिद्धक्षेत्रके आकाशकी जो अवगाहना है वह विस्रसापरिणत अवगाहना है ।
शंका-जिन पदार्थों में पूर्व निर्दिष्ट गन्ध, रस और स्पर्श नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए गन्ध, रस और स्पर्श होते हैं वे अविपाकप्रत्ययिक नहीं बन सकते ?
समाधान-यदि ऐसा है तो इन्हें छोड़कर पुद्गलोंके जो स्वाभाविक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श होते हैं वे यहाँपर लेने चाहिये।
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२६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २३. चंदाइच्च-गह-णक्खत्त-ताराणं भवण-विमाण-कुलसेलादीणंच जे साभाविया संठाणा ते विस्ससापरिणदा संठाणा । तेसि चेव चंदाइबिबादीणं जे खंधा ते विस्ससापरिणदा खंधा । मेहादीणं विस्ससापरिणदखधाणं जाणि खंधाणि ताणि विस्ससापरिणदा खंधदेसा । मेहिंदहण-विज्ज चंदक्कादीण जे अवयवा ते विस्ससापरिणदा खंधपदेसा । जे च इमे पुद्दिट्ठा अण्णे च एवमादिया विस्तसापरिणदा संजुत्ता भावा सो सव्वो अविवागपच्चइओ अजीवभावबंधो णाम । __ जो सो तवभयपच्चइयो अजीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो पओअपरिपदा वण्णा वण्णा विस्ससापरिणदा पओअपरिणदा सद्दा सद्दा विस्ससापरिणदा पओअपरिणदा गंधा गंधा विस्ससापरिणदा पओअपरिणदा रसा रसा विस्ससापरिणदा पओअपरिणवा फासा फासा विस्ससापरिणदा पओअपरिणवा गदी गदी विस्ससापरिणदा (पओअपरिणदा ओगाहणा ओगाहणा विस्ससापरिणदा) पओअपरिणदा संठाणा संठाणा विस्ससापरिणदा पओअपरिणवा खंधा खंधा विस्ससापरिणदा पओअपरिणवा खंधदेसा खंधदेसा विस्ससापरिणदा पओअपरिणदा खंधपदेसा खंधपदेसा विस्ससापरिणदा जे चामण्णे एवमादिया पओअ-विस्ससापरिणदा संजत्ता भावा सो सव्वो तदुभयपच्चइओ अजीवभावबंधो णाम ॥ २३ ॥
चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारकाओंके तथा भवन, विमान और कुलाचल आदिके जो स्वाभाविक संस्थान होते हैं वे विस्रसापरिणत संस्थान हैं। उन्हीं चन्द्र सूर्य के बिम्ब आदिके जो स्कन्ध होते हैं वे विस्र सापरिणत स्कन्ध हैं । स्वभावसे परिणत हुए मेघादिकके स्कन्धोंके जो स्कन्ध होते हैं वे विस्रसापरिणत स्कन्धदेश हैं । मेव, इन्द्रधनुष्य, बिजली, चन्द्र और सूर्य आदिके जो अवयव होते हैं वे विस्रसापरिणत स्कन्धप्रदेश हैं। ये पूर्वोक्त और इनसे लेकर इसी प्रकारके विस्रसापरिणत और भी जो संयोगको प्राप्त हुए भाव हैं वह सब अविपाकप्रत्ययिक अजीवभावबंध हैं।
जो तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावबंध है उसका निर्देश इस प्रकार है--प्रयोगपरिणत वर्ण और विस्र सापरिणत वर्ण, प्रयोगपरिणत शब्द और विस्त्रसापरिणत शब्द, प्रयोगपरिणत गंध और विस्त्रसापरिणत गन्ध. प्रयोगपरिणत रस और वित्रतापरिणत रस, प्रयोगपरिणत स्पर्श और विस्रसापरिणत स्पर्श, प्रयोगपरिणत गति और विस्त्रसापरिणत गति, ( प्रयोगपरिणत अवगाहना और विस्रसापरिणत अवगाहना ) प्रयोगपरिणत संस्थान और विस्रसापरिणत संस्थान, प्रयोगपरिणत स्कन्ध, प्रयोगपरिणत स्कन्धदेश और विस्त्रसापरिणत स्कन्धदेश, प्रयोगपरिणत स्कन्धप्रदेश और विस्त्रसापरिणत स्कन्धप्रदेश; ये और इनसे लेकर प्रयोग और बिस्त्रसापरिणत जितने भी संयुक्तभाव हैं वह सब तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावबंध है।२३।
O आ -काप्रन्योः 'विज्जु बदक्कादीण', ताप्रती 'विज्जुचडक्कादीण' इति पाठ ]
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५, ६ , २४. ) बंधणाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा
( २७ एदस्स अत्थो वच्चदे-पओअपरिणदखंधवण्णेहि विस्ससापरिणदखंधवण्णाणं जो संजोगो सो तदुभयपच्चइओ अजीवभावबंधो णाम । को एत्थ संबंधो घेष्पदे? संजोगलक्खणो समवायलक्खणो वा । तत्थ संजोगो दुविहो देसपच्चासत्तिकओ गुणपच्चासत्तिकओ चेदि । तत्थ देसपच्चासत्तिकओ णाम दोण्णं दवाणमवयवफासं काऊण जमच्छणं सो देसपच्चासत्तिकओ संजोगो । गुणेहि जमण्णोणाणुहरणं सो गुणपच्चासत्तिकओ संजोगो। समवायसंजोगो सुगमो। एवं सद्द-गंध-रस-फासोगाहण-संठाणगदि-खंध-खंधदेस-खंधपदेसाणं च जहासंभव दुसंजोगपरूवणा कायव्वा । सुगमं ।
जो सो थप्पो दव्वबंधो णाम सो दुविहो आगमथो दव्वबंधो चेव णोआगमदो दवबंधो चेव ।। २४ ॥
एवं दुविहो चेव दव्वबंधो, अण्णस्सासंभवादो।
जो सो आगमदो दव्वबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो-छिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्यसमं गंथसमं णामसमं घोससम । जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा वणुपेहणा वा थय-थुदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया अणुवजोगा दवे त्ति
अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- प्रयोगपरिणत स्कन्धोंके वर्गों के साथ विस्रसापरिणत स्कन्धोंके वर्णों का जो संयोग होता है वह तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध है ।
शंका-यहाँ कौनसा सम्बन्ध लिया गया है ? समाधान-संयोगसम्बन्ध और समवायसम्बन्ध दोनों लिये गये हैं।
संयोग दो प्रकारका है-देशप्रत्यासत्तिकृत संयोगसम्बन्ध और गुणप्रत्यासत्तिकृत संयोगसम्बन्ध । देशप्रत्यासत्तिकृतका अर्थ है दो द्रव्योंके अवयवोंका सम्बद्ध होकर रहना, यह देशप्रत्यासत्तिकृत संयोग है । गुणोंके द्वारा जो परस्पर एक दूसरेको ग्रहण करना वह गुणप्रत्यासत्तिकृत संयोगसम्बन्ध है । समवायसम्बन्ध सुगम है ।
इसी प्रकार शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श, अवगाहना, संस्थान, गति, स्कन्ध, स्कन्धदेश और स्कन्धप्रदेश ; इनका यथासम्भव द्विसंयोगी कथन करना चाहिये । यह कथन सुगम है।
जो द्रव्यबन्ध स्थगित कर आये हैं वह दो प्रकारका है-आगम द्रव्यबन्ध और नोआगम द्रव्यबन्ध ॥ २४ ॥
इसप्रकार द्रव्यबन्ध दो प्रकारका ही है, क्योंकि, इसका अन्य भेद सम्भव नहीं है।
जो आगम द्रव्यबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है- स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम, और घोषसम ; इनके विषयमें वाचना, पच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति और धर्मकथा तथा इनसे
अ० आ० काप्रतिषु ' जो णोआगमदो' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
२८. ) कटु जावदिया अणुवजूत्ता भावा सो सन्वो आगमदो बज्वबंधो णाम ॥ २५ ॥
सुगममेदं, बहुसो परूवित्तादो।
जो सो णोआगमको दव्वबंधो सो दुविहो- पओअबंधी चेव विस्ससाबंधो ॥ २६ ॥
एवं णोआगमदो बंधो दुविहो चेव; अण्णस्सासंभवादो। जो सो पओअबंधो णाम सो थप्पो ॥ २७ ॥
कुदो ? बहुवणणिज्जत्तादो। जो सो विस्ससाबंधो णाम सो बुविहो-सादियविस्ससाबंधो चेव अणादियविस्ससाबंती चेव ॥ २८ ॥
एवं साहाविओ बंधो दुविहो चेव; अण्णस्स अणुवलंमादो। जो सो सादियविस्ससाबंधो णाम सों थप्पो ॥ २९ ॥
कुवो ? बहुवष्णणिदो।
लेकर जो अन्य अनुपयोग हैं उनमें द्रव्य निक्षेप रूपसे जितने अनुपयुक्त भाव हैं वह सब आगमद्रव्यबन्ध है ।। २५ ॥
__इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि इसका अनेक बार कथन कर आये हैं।
विशेषार्थ- यहाँ आगमके भेद और उनके उपयोगके प्रकार बतलाकर अनुपयुक्त दशाम आगमद्रव्यबन्ध कहा है । आशय यह है कि बन्धविषयक शास्त्रके जितने प्रकारके जानकार हैं और उनके उपयोग हैं वे सब जब अनुपयुक्त दशामें रहते हैं तब उनकी आगमद्रव्यबन्ध संज्ञा होती है।
जो नोआगमद्रव्यबन्ध है वह दो प्रकारका है प्रयोगवन्ध और विस्रसाबन्ध ॥२६॥ इस प्रकार नोआगमद्रव्य बन्ध दो ही प्रकारका है, क्योंकि, इसका अन्य भेद सम्भव नहीं हैं। जो प्रयोगबन्ध है वह स्थगित करते हैं ॥ २७ ॥ क्योंकि, आगे इसका बहुत वर्णन करना है ।
जो विस्रसाबन्ध है वह दो प्रकारका है-सादिविस्रसाबन्ध और अनादिविनसाबन्ध ।। २८ ॥
इस प्रकार विस्रसाबन्ध दो ही प्रकारका है, क्योंकि, इसका अन्य भेद नहीं पाया जाता। जो सादि विस्रसाबंध है वह स्थगित करते हैं ॥ २९ ॥ क्योंकि, इसका आगे बहुत वर्णन करना है।
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३१. )
योगद्दारे दव्वबंधपरूवणा
( २९
जो सो अणावियविस्ससाबंधो नाम सो तिविहो -- धम्मत्थिया अधम्मत्थिया आगासत्थिया चेदि ।। ३० ॥
जीवत्थिया पोग्गलत्थिया एत्थ किरण परुविदा ? ण, तासि सक्किरियाणं सगमगाणं धम्मत्थियादीहि सह अणादियविस्ससाबंधाभावादो । ण तासि पदेसबंधो वि अगादयो वइससियो अस्थि; पोग्गलत्तण्णहाणुववत्तीदो तप्पदेसाणं पि संजोग - विजोयसिद्धीए । एक्केक्को दव्वबंधो तिविहो होदि त्ति जाणावणदृमुत्तरसुतं भणदि
धम्मत्थिया धम्मत्थियदेसा धम्मत्थियपदेसा अधम्मत्थिया अधम्मत्थियदेसा अधम्मत्थियपदेसा आगासत्थिया आगासत्थियदेसा आगासत्थियपदेसा एदासि तिष्णं पि अत्थआणमरणोण्णपदेसबंधो होदि ।। ३१ ।।
जो अनादि वित्रसाबन्ध है वह तीन प्रकारका है- धर्मास्तिकविषयक, अधर्मास्तिकविषयक और आकाशास्तिकविषयक ॥। ३० ।।
५,
शका - यहाँ जीवास्तिक और पुद्गलास्तिकविषयक अनादि विस्रसाबन्ध क्यों नहीं कहा ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उनकी अपनी गमन आदि क्रियाओंका धर्मास्तिक आदिके साथ अनादिसे स्वाभाविक संयोग नहीं पाया जाता । यदि कहा जाय कि उनका प्रदेशबन्ध तो अनादिसे स्वाभाविक है सो यह बात भी नहीं है, क्योंकि, यदि ऐसा माना जायगा तो पुद्गलो में पुद्गलत्व नहीं बनेगा और पुद्गल तथा जीवोंके प्रदेशोंका भी संयोग और वियोग अनुभव सिद्ध है, अत: इनका अनादि विस्रसाबन्ध नहीं कहा है ।
विशेषार्थ -- यहाँ धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यका अनादि विस्रसाबन्ध बतलाया है । प्रश्न यह है कि ऐसा बन्ध पुद्गल और जीवोंका क्यों नहीं कहा । इसका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि एक तो जीव और पुद्गलकी जो गति, स्थिति और अवगाहन क्रिया होती वह बदलती रहती है । दूसरे पुद्गलके परमाणुओंका परस्पर बन्ध भी अनादिकालीन नहीं बन सकता है | और तीसरे पुद्गलों और जीवोंके प्रदेशोंका संयोग और वियोग भी होता रहता है। न तो इन दोनों द्रव्योंका अन्यसे संयोग अनादि और वैस्रसिक है और न स्वयं अपने प्रदेशों का संयोग भी ऐसा है, इसलिये इनके सम्बन्धको अनादि विस्रसाबन्ध में सम्मिलित नहीं किया है । माना कि जीवके प्रदेशों में विभाग नहीं होता, पर वे सदा धर्मादिक द्रव्योंके समान एक आकार में स्थिर नहीं रहते, इसलिये इसका भी अनादि विस्रसाबन्ध नहीं माना है ।
एक एक द्रव्यबन्ध तीन प्रकारका है यह ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं-धर्मास्तिक, धर्मास्तिकदेश और धर्मास्तिकप्रदेश; अधर्मास्ति, अधर्मास्तिकदेश और अधर्मास्तिक प्रदेश तथा आकाशास्तिक, आकाशास्तिकदेश और आकाशास्तिकप्रदेश; इन तीनों ही अस्तिकायोंका परस्पर प्रदेशबन्ध होता है ।। ३१ ॥
मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु धम्मत्थिया धम्मत्थियपदेसा अधम्मत्थिया अधम्मत्थियपदेसा आगत्या आगासत्थियपदेसा एदासि इति पाठ: । ताप्रती तु 'धम्मत्थिय देसा' आदीनि कोष्ठकान्तर्गतानि सन्ति 1
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ३२.
___सवावयसमहो धम्मत्थिया णाम । एदस्स धम्मत्थियअवयविस्त सगअवयवेहि जो बंधो सो धम्मत्थियबंधो णाम । तस्स अद्धप्पहडि जाव चदुब्भागं ति सो धम्मत्थियदेसो णाम । तेसि धम्मत्थियदेसाणं सगअवयवेहि जो बंधो सो धम्मत्थियदेसबंधो णाम । तस्सेव चदुब्भागप्पहुडि पदेसा णाम । तेसिमण्णोण्गबंधो धम्मत्यियपदेसबंधो त्ति भण्णदि । एवमधम्मत्थिय-आगासत्थियाणं पि परूवणा कायव्वा । एदासि तिण्णं पि अत्थियाणमण्णोण्णपदेसबंधो भवदि सो सम्वो अणादियविस्ससाबंधो णाम।।
जो सो थप्पो सादियविस्ससाबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसोवेमादा णिद्धदा वेमादा ल्हुक्खदा बंधो ॥ ३२ ॥
मादा जाम सरिसत्तं । विगदा मादा विमादा । विमादा णिद्धदा विमादा ल्हुक्खदा च बंधो होदि, बंधकारणं होदि त्ति बुत्तं होदि । कधं कारणस्स कज्जववएसो ? कारणे कज्जवयारादो। णिद्धदाए विसरिसत्तं ल्हु क्खदं पेक्खिदूण ल्हुक्खदाए विसरिसत्तं णिद्धदं पेक्खिदूण घेत्तव्वं । तेण गिद्धपरमाणूणं ल्हुक्खपरमाणूहि सह बंधो होदि । ल्हुक्खपरमाणणं पि णिद्धपरमाणहि सह बंधो होदि, गुणेण सरिसत्ताभावादो।
समणिद्धदा समल्हक्खदा भेदो ॥ ३३ ॥
धर्मद्रव्यके सब अवयवोंके समूहका नाम धर्मास्तिक है । अवयवीरूप इस धर्मास्तिकका अपने अवयवोंके साथ जो बन्ध है वह धर्मास्तिकबन्ध कहलाता है । इसके आधेसे लेकर चौथे भाग तकके हिस्सेको धर्मास्तिदेश कहते हैं। इन धर्मास्तिकके देशोंका अपने अवयवोंके साथ जो बन्ध है वह धर्मास्तिकदेशबन्ध कहलाता है। और इसीके चौथे भागसे लेकर आगेके सब अवयय प्रदेश कहलाते है । इनका परस्पर जो बन्ध है वह धर्मास्तिक प्रदेशबन्ध कहलाता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिक और आकाशास्तिकका भी कथन करना चाहिये । इन तीनों ही अस्तिकायोंका परस्परमें जो प्रदेशबन्ध होता है वह सब अनादि विस्रसाबन्ध है।
जो सादि विस्रसाबन्ध स्थगित कर आये थे उसका निर्देश इस प्रकारका हैविसदृश स्निग्धता और विसदृश रूक्षता बन्ध है ॥ ३२ ॥
मादाका अर्थ सदृशता है । जिसमें सदृशता नहीं होती उसे विमादा कहते है । विसदृश स्रिग्धता और विसदृश रूक्षता यह बन्ध है अर्थात् बन्धका कारण है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-कारणको कार्य क्यों कहा? समाधान-कारणमें कार्यका उपचार होनेसे ऐसा कहा है।
यहाँ स्निनग्धतामें विसदृशता रूक्षताकी अपेक्षा और रूक्षतामें विसद्शता स्निग्धताकी अपेक्षा लेनी चाहिये । इसलिये यह निष्कर्ष निकला कि स्निग्ध परमाणुओंका रूक्ष परमाणुओंके साथ बन्ध होता है और रूक्ष परमाणुओं का भी स्निग्ध परमाणुओंके साथ बन्ध होता है, क्योंकि, यहाँ गुणकी अपेक्षा समानता नहीं पाई जाती।
समान स्निग्धता और समान रूक्षता भेद है ।। ३३ ।।
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५, ६, ३४. ) बंधणाणुयोगद्दारे दवबंधपरूवणा।
समणिद्धदा समल्हक्खदा च भेदस्स असंजोगस्स कारणं होदि । गिद्धपरमाणणं णिद्धपरमाणूहि ल्हुक्खपरमाणणं च ल्हुक्खपरमाणहि सह बंधो पत्थि ति भणिद होदि । णिद्धपरमाणहि सह बंधमागवल्हुक्खपरमाण जदि गिद्धगुणेण परिणदा होंति णिद्धपरमाणू वा ल्हुक्खगुणण परिणदा, तो णिच्छएण भेदेण होदवमिदि घेत्तन्वं । एद अत्थं दोहि वि देत्तेहि परूविदं गाहाए फुडीकरणथमुत्तरसुत्तं भणदि
गिद्धणिद्धा ण बज्झंति ल्हुक्खल्हुक्खा य पोग्गला । णिद्धल्हक्खा य बज्झंति रूवारूवी य पोग्गला ॥ ३४ ॥
एदिस्से गाहाए पढमद्धेण 'समणिद्धदा समल्हुक्खदा भेदो ति एदस्स अत्थो परूविदो । णिद्धपरमाण णिद्धपरमाणहि ण बज्झंति, णिद्धगुणभावेण समाणत्तादो। ल्हुक्खा पोग्गला ल्हुक्खपोग्गलेहि सह बंधं णागच्छति, ल्हुक्खगुणभावेण समाणत्तादो । बिदियद्धेण पढमसुत्तद्धं परूवेदि । 'णिद्ध ल्हुक्खा य बझंति' गिद्धा पोग्गला ल्हुक्खा पोग्गला च परोपरं बंधमागच्छंति, विसरिसत्तादो। णिद्धल्हुक्खपोग्गलाणं कि गुणाविभागपडिच्छेदेहि सरिसाणं बंधोहोदि आहो विसरिसाणं बंधो होदि ति पुच्छिदे 'रूवारूवी य पोग्गला बज्झति' ति भणिदं । गणाविभागपडिच्छेदेहि समाणा
__समान स्निग्धता और समान रूक्षता भेद अर्थात् असंयोगका कारण होता है । स्निग्ध परमाणुओंका स्निग्ध परमाणुओंके साथ और रूक्ष परमाणुओंका रूक्ष परमाणुओंके साथ बन्ध नहीं होता, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । स्निग्ध परमाणुओंके साथ बन्धको प्राप्त हुए रूक्ष परमाण यदि स्निग्ध गुणरूपसे परिणत होते हैं या स्निग्ध परमाणु रूक्ष गुणरूपसे परिणत होते हैं तो नियमसे उनका भेद हो जाता है, यह अर्थ यहाँ लेना चाहिये । यह अर्थ दोनों ही सूत्रोंके द्वारा कहा गया है । अब गाथा द्वारा इसी अर्थको स्पष्ट करने के लिये आगेका गाथासूत्र कहते हैं
स्निग्ध पुद्गल स्निग्ध पुद्गलोंके साथ नहीं बँधते, रूक्ष पुद्गल रूक्ष पुद्गलोंके साथ नहीं बंधते । किन्तु सदृश और विसदृश ऐसे स्निग्ध रूक्ष पुद्गल परस्पर बँधते हैं।। ३४ ।
इस गाथाके पूर्वार्ध द्वारा समणिद्धदा समल्हुक्खदा भेदो' इस सूत्रका अर्थ कहा गया है। स्निग्ध परमाणु दूसरे स्निग्ध परमाणुओंके साथ नहीं बाँधते, क्योंकि, स्निग्ध गुणकी अपेक्षा वे समान हैं। रूक्ष पुद्गल दूसरे रूक्ष पुद्गलोंके साथ बन्धको नहीं प्राप्त होते, क्योंकि, रूक्ष गुणकी अपेक्षा वे समान हैं।
गाथाके उत्तरार्ध द्वारा प्रथम सूत्रका अर्थ कहते हैं-'णिद्धल्हुक्खा य बझंति' अर्थात् स्निग्ध पुद्गल और रूक्ष पुद्गल परस्पर बन्धको प्राप्त होते हैं, क्योंकि, इनमें विसदृशता पाई जाती है क्या गुणोंके अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा समान स्निग्ध और रूक्ष पुद्गलोंका बन्ध होता है या अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा विसदृश स्निग्ध और रूक्ष पुद्गलोंका बन्ध होता है, ऐसा प्रश्न करने पर 'रूवारूवी य पोग्गला बझंति' यह कहा है । जो स्निग्ध और रूक्ष गुणोंसे युक्त पुद्गल गुणोंके
अ. काप्रत्योः 'मागणहि बज्झति, 'आप्रतौ 'माणूहि बझंति ' इति पाठः । * प्रतिष 'सरिसाणं गिद्धल्हुक्खापोग्गलाणं बंधो' इति पाठः ।
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३२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ३५.
जे गिद्धल्हुक्खगुणजुत्तपोग्गला ते रूविणो णाम, ते वि बझंति । विसरिसा पोग्गला अरूविणो णाम, ते वि बंधमागच्छति । णिद्धल्हुक्खपोग्गलाणं गुणाविभागपडिच्छेदसंखाए सरिसाणमसरिसाणं च बंधो होदि त्ति भणिदं होदि ।
वेमादा णिद्धदा वेमादा ल्हक्खदा बंधो ॥ ३५ ॥ णिद्धपोग्गलाणं गिद्धपोग्गलेहि ल्हुक्खपोग्गलाणं ल्हुक्खपोग्गलेहि गुणाविभागपडिच्छेदेहि सरिसाणमसरिसाणं च पुग्विल्लत्थे बंधाभावे संते तेसि पि बंधो अस्थि त्ति जाणावणळं एक्स्स सुत्तस्स बिदियो अत्थो वच्चदे । तं जहा-मादा णाम अविभागपडिच्छेदो। कि पमाणं तस्स ? जहण्णगुणवड्ढिमेत्तो। द्वे मात्रे यस्यां स्निग्धतायामधिके होने वा द्विमात्रा* स्निग्धता, सो बंधो बंधकारणं होदि । णिद्धपोग्गला वेअविभागपडिच्छेदुत्तरणिद्धपोग्गलेहि वेअविभागपडिच्छेदहीणणिद्धपोग्गलेहि वा बझंति । तिष्णिआदिअविभागपडिच्छेदुत्तरपोग्गलेहि तिण्णिआदि-- अविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण परिहीणपोग्गलेहि च बंधो पत्थि त्ति घेत्तव्यं । एवं ल्हुक्खपोग्गलाणं पि ल्हुक्खपोग्गलेहि सह बंधो पत्तव्यो । अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा समान होते हैं वे रूपी कहलाते हैं। वे भी बंधते हैं। और विसदृश पुद्गल अरूपी कहलाते हैं । वे भी बन्धको प्राप्त होते हैं। स्निग्ध और रूक्ष पुद्गल गुणोंके अविभागप्रतिच्छेदोंकी संख्याकी अपेक्षा चाहे समान हों चाहे असमान हों, उनका परस्पर बध होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
द्विमात्रा स्निग्धता और द्विमात्रा रूक्षता ( परस्पर ) बन्ध है ॥ ३५ ॥
गुणोंके अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा सदृश और विसदृश ऐसे स्निग्ध पुद्गलोंका स्निग्ध युद्गलोंके साथ और रूक्ष पुद्गलोंका रूक्ष पुद्गलोंके साथ पूर्वोक्त अर्थ के अनुसार बन्धका अभाव प्राप्त होनेपर उनका भी बन्ध होता है, इस बात का ज्ञान करानेके लिये इस सूत्रका दूसरा अर्थ कहते हैं । यथा- मात्राका अर्थ अविभागप्रतिच्छेद है।
शंका- उसका कितना प्रमाण है ? समाधान- गुणकी जघन्य वृद्धिमात्र उसका प्रमाण है ।
जिस स्निग्धतामें दो मात्रा अधिक या हीन होती है वह द्विमात्रा स्निग्धता कहलाती हैं । वह बन्ध है अर्थात् बन्धका कारण है । स्निग्ध पुद्गल दो अविभागप्रतिच्छेद अधिक स्निग्ध पुद्गलोंके साथ या दो अविभागप्रतिच्छेद कम स्निग्ध पुद्गलोंके साथ बँधते हैं। इनका तीन आदि अविभागप्रतिच्छेद अधिक पुद्गलोंके साथ और तीन आदि अविभागप्रतिच्छेद कम पुद्गलोंके साथ बन्ध नहीं होता, यह अर्थ यहाँ लेना चाहिये । इसी प्रकार रूक्ष पुद्गलोंका भी रूक्ष पुद्गलोंके साथ बन्धका कथन करना चाहिये। अब इस अर्थका निश्चय उत्पन्न करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
* अ-आ-काप्रतिषु, 'द्विमात्रो' इति पाठः 1 मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ काताप्रतिष :-पोग्गले हि ण बज्झंति, इति पाठः ।
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बंधणाणुयोगद्दारे दव्वबंधपरूवणा
( ३३ . __एदस्स अत्थस्स णिण्णयजणणटुमुत्तरसुत्तं भणदि-- गिद्धस्स णि ण दुरहिएण ल्हुक्खस्स ल्हुक्खेण दुराहिएण। गिद्धस्स ल्हुक्खेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा ।। ३६॥ः ।
णिद्धस्स पोग्गलस्स अण्णण गिद्धपोग्गलेण जदि बंधो होदि तो दुराहिएणेव।। ल्हुक्खस्स ल्हुक्खेण जदि बंधो तो वि दुराहिएण बंधो होदि । णिद्धस्स सव्वपोग्गलस्स .. ल्हुक्खेण सव्वेण पोग्गलेण सह बंधो होदि ति भणिवे 'विसमे समे वा' । गुणाविभागपडिच्छेदेहि ल्हुक्खपोग्गलेण सरिसो णिद्धपोग्गलो समो णाम।असरिसो विसमो णाम । तत्थ णिद्ध-ल्हुक्खेण पोग्गलाणं बंधो होदि (त्ति) सव्वेसि पोग्गलाणं बंधे संपत्ते 'जहण्णवज्जे' त्ति भणि । जहण्णगणाणं गिद्ध-ल्हुक्खपोग्गलाणं सत्थाणेण परत्थाणेण वा पत्थि बंधो । एवं गणविसिटाणं पोग्गलाणं बंधो होदि, अण्णारिसाण पोग्गलाणं पुण भेदेण होदव्वं, बंधे विरुद्धगुणसमण्णिदत्तादो ।
स्निग्ध पुद्गलका दो गुण अधिक स्निग्ध पुदगलके साथ और रूक्ष पुद्गलका दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गलके साथ बन्ध होता है। तथा स्निग्ध पुद्गल का रूक्ष पुद्गलके साथ जघन्य गुणके सिवा विषम अथवा सम गणके रहनेपर बन्ध होता है ॥३६॥
स्निग्ध पुद्गलका अन्य स्निग्ध पुद्गलके साथ यदि बन्ध होता हैं तो दो गुण अधिक स्निग्ध पुद्गलके साथ ही होता है । रूक्ष पुद्गलका अन्य रूक्ष पुद्गलके साथ यदि बन्ध होता है तो दो गुण अधिक रूक्ष पुद्गलके साथ ही होता है।
स्निग्ध सब पुद्गलका रूक्ष सब पुद्गलके साथ जो बन्ध होता है वह किस अवस्थामें होता है, ऐसा पूछनेपर 'विसमे समे वा' यह वचन कहा है गुणके अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा रूक्ष पुद्गलके साथ सदृश स्निग्ध पुद्गल सम कहलाता है और असदृश स्निग्ध पुद्गल विषम कहलाता है । यहाँ स्निग्ध और रूक्ष गुणके द्वारा पुद्गलोंका बंध होता है, इस नियमके अनुसार सब पुद्गलोंका बन्ध प्राप्त होनेपर 'जहण्ण तज्जे' यह कहा है । जघन्यगुणवाले स्निग्ध और रूक्ष पुद्गलोंका न तो स्वस्थानकी अपेक्षा बन्ध होता है और न परस्थानकी अपेक्षा ही बन्ध होता हैं। इस तरह इस प्रकारके गुणविशिष्ट पुद्गलोंका बन्ध होता है और अन्यादृश पुद्गलोंका भेद होता है, क्योंकि, बन्ध विरुद्ध गुणसे युक्त होना आवश्यक है।
विशेषार्थ- पुद्गल परमाणुओंके बन्धके विषयमें दो परम्परायें उपलब्ध होती हैं। प्रथम परम्पराका निर्देश यहाँ किया ही हैं। इसके अनुसार निम्न व्यवस्था फलित होती है ।
क्रमांक
विसदृशबन्ध
नहीं
गुणांश जघन्य+जघन्य जघन्य-एकादिअधिक जघन्येतर+समजघन्येतर जघन्येतर+एकाधिकजघन्येतर जघन्येतर+व्यधिकजघन्येतर
जघन्येतर-|-त्र्यादिअधिकजघन्येतर Jain Education-intenmellen
or m"
सदृशबन्ध नहीं नहीं नहीं नहीं
Road to dis no
नहीं
animlainelibrary.org
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नहीं
नहीं
नहीं नहीं
नहीं
३४. ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ३७. से तं बंधणपरिणामं पप्प से अब्भाणं वा मेहाणं वा संज्झाणं वा विज्जणं वा उक्काणं वा कणयाणं वा दिसादाहाणं वा धूमकेणं वा इंदाउहाणं वा से खेत्तं पप्प कालं पप्प उड्डे पप्प अयणं पप्प पोग्गलं पप्प जे चामण्णे एवमाविया अंगमलप्पहुडीणि* बंधणपरिणामेण परिणमंति सो सम्वो सावियविस्ससाबंधो गाम ॥ ३७ ॥ से ते जहण्णगणपोग्गलवदिरित्ता पोग्गला तं बंधणपरिणामं तं बंधकारणणिद्ध-ल्हुक्ख दूसरी परम्पग तत्त्वार्थसूत्रकी है । इसके अनुसार निम्न व्यवस्था फलित होती है-- क्रमांक गुणांश
सदृशबन्ध । विसदृशबन्ध जघन्य+जधन्य जघन्य+एकादिअधिक
नहीं जघन्येतर+समजघन्येतर
नहीं जघन्येतर-+एकाधिकजघन्येतर
नहीं | जघन्येतर+व्यधिकजघन्येतर | जघन्येतर-+त्र्यादिअधिकजघन्येतर
नहीं
नहीं यद्यपि सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिकमें 'णिद्धस्स णिद्धेण' इत्यादि गाथा उद्धृत की गई है, पर इस गाथाके उत्तरार्द्धके अर्थ में मतभेद है और यह मतभेद तत्त्वार्थवार्तिकसे स्पष्ट हो जाता है । गाथाके उत्तरार्द्धका शब्दार्थ यह है कि स्निग्धगुणवाले परमाणुका रूक्षगुणवाले परमाणुके साथ सम या विषमगुण होनेपर बध होता है । मात्र जघन्य गुणवालेका किसी भी अवस्थामें बंध नहीं होता । किन्तु तत्त्वार्थवार्तिकमें 'समे विसमे वा' इस पदमें समका अर्थ तुल्यजातीय और विषमका अर्थ अतुल्यजातीय किया है । तत्त्वार्थवातिककारके समक्ष वर्गणाखण्डके ये सूत्र उपस्थित थे, फिर भी उन्होंने यह अर्थ किया है । तत्त्वार्थसूत्र में 'बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च' यह सूत्र आया है और इस सूत्रसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थसूत्रके मतसे तुल्यजातीय और अतुल्यजातीय पुद्गलपरमाणुओंका बन्ध दो अधिक गुणके होनेपर ही होता है । यही कारण है कि तत्त्वार्थवार्तिककारने उक्त गाथांशका उक्त प्रकारसे अर्थ किया है।
इस प्रकार वे पुदगल बन्धनपरिणामको प्राप्त होकर विविध प्रकारके अभ्ररूपसे, मेघरूपसे, सन्ध्यारूपसे, बिजलीरूपसे, उल्कारूपसे, कनकरूपसे, दिशादाहरूपसे, धूमकेतुरूपसे व इन्द्रधनुषरूपसे, क्षेत्रके अनुसार, कालके अनुसार, ऋतुके अनुसार, अयनके अनुसार और पुद्गलके अनुसार जो बन्धन परिणामरूपसे परिणत होते हैं वह सब सादिविस्रसाबन्ध है ॥ ३७ ।। _ 'से ते' अर्थात् जघन्यगुण पुद्गलोंके सिवा वे पुद्गल 'तं बंधणपरिणाम' अर्थात् बंधके कारण
* अ-आ-काप्रतिषु 'अन्याण' इति पाठ: 1 * ताप्रती-'प्पहुडि (डी) णि इति पाठः ।
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बंधाणुयोगद्दारे दव्वबंध परूवणा
( ३५
गुणपरिणामं पप्प पाविदूण सव्वे गिद्ध ल्हुक्खपोग्गला बंधमागच्छंति । णवरि णिद्वाणं गिद्धेहि ल्हुक्खाणं ल्हुक्खेहि पोग्गलेहि णत्थि बंधो। किंतु वेअविभागपडिच्छेदाहियाणं निद्धपोग्गलाणं वेअविभागपडिच्छेद हीण णिद्धपोग्गलेहि अस्थि बंधो। वेअविभागपडिच्छेदाहियल्हुक्ख पोग्गलाणं च वेअविभागपडिच्छेद ही णल्हुक्खपो ग्गले हि य सह अस्थि बंधो । एवं बंधं पाविण से अमाणं वा अवारिसु वा मेहा अब्भा णाम, तेसिमभाणं सरूत्रेण तेसि ते परिणमति । वारिसु वा कसणवण्णा मेहा णाम । उदयत्थवण्णकाले पुव्वावर दिसासु दिस्समागा जासवण कुसुमसंकासा संज्झा णाम | रत्त-धवल - सामवण्णाओ - तेजङभ हियाओकुवियभुवंगो व्व चलंतसरीरा मेहेसु उवलब्भमाणाओ विज्जूओ णाम । जलंतग्गिपिंडो व्व अणेगसंठाणेहि आगासादो विदंता उक्का जाम । माणुस - पसु-पक्खिमारणीयो तरु- गिरिसिहर-वियारणीय असणयो कणया णाम । उत्पायकाले अग्गिणा विणा दावाणलो व्व दिसासु उवलब्भमाणो दिसादाहो नाम उप्पादकाले चेव धूमलट्ठि व्व आगासे उबलब्भमाणा धूमकेदू णाम | पंचवण्णा होदूण धणुवागारेण खुट्टागारेण वा पुव्वावर दिसासु उवलभमाणा इंदा उहा णाम । एदेसि मेह- संज्झा-विज्जुक्क कणय-1 य- दिसादाह- धूमकेदुभूत स्निग्ध और रूक्ष गुणरूप परिणामको प्राप्त होकर सब स्निग्ध और रूक्ष पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्निग्ध पुद्गलोंका स्निग्ध पुद्गलोंके साथ और रूक्ष पुद्गलों का रूक्ष पुद्गलोंके साथ बन्ध नहीं होता । किन्तु दो अविभागप्रतिच्छेद अधिक स्निग्ध पुद्गलोंका दो अविभागप्रतिच्छेद हीन स्निग्ध पुद्गलोंके साथ बन्ध होता है । तथा दो अविभागप्रतिच्छेद अधिक रूक्ष पुद्गलोंका दो अविभागप्रतिच्छेद हीन रूक्ष पुद्गलोंके साथ बन्ध होता है । इस प्रकार बन्धको प्राप्त होकर वे पुद्गल परिणमन करते हैं । यथा-
वर्षा ऋतु के सिवा अन्य समयमें जो मेघ होते हैं उन्हें अभ्र कहते हैं । उन अभ्ररूपसे वे परिणत होते हैं । अथवा वर्षाऋतुमें जो कृष्णवर्ण के बादल होते हैं वे मेघ कहलाते हैं । सूर्योदयके समय और सूर्यास्त के समय पूर्वापर दिशाओं में जो जपा कुसुमके सदृश दिखाई देती है वह सन्ध्या कहलाती है । जो रक्त, धवल और श्यामवर्णकी होती है, जिसमें अत्यधिक तेज होता है, जो कुपित हुए भुजंगके समान चञ्चल शरीरवाली होती है, और जो मेघों में उपलब्ध होती है वह विद्युत् कहलाती है । जो जलते हुए अग्निपिण्डके समान अनेक आकारवाली होकर आकाशसे गिरती है वह उल्का कहलाती है । जिससे मनुष्य, पशु और पक्षी मर जाते हैं तथा जो वृक्ष और पर्वतोंके शिखरों का विदारण करती है ऐसी अशनिको कनक कहते हैं। उत्पातकाल अनि बिना दावानलके समान जो दशों दिशाओं में उपलब्ध होता उसे दिशादाह कहते हैं । उत्पातकाल में ही धूमयष्टिके समान जो आकाश में उपलब्ध होता है उसे घूमकेतु कहते हैं । जो पाँच वर्णका होकर धनुषाकाररूपसे या त्रुटित आकाररूपसे पूर्वापर दिशाओं में उपलब्ध होता है उसे इन्द्रायुध कहते हैं । इन मेघ, सन्ध्या, विजली, दिशादाह, धूमकेतु और इन्द्रायुध के आकाररूपसे वे पुद्गल परिणत • तातो 'भुवं ( जं ) गो' इति पाठ ।
कनक,
५,
६, ३७.)
अ आ-काप्रतिष 'अच्चाणं' इति पाठ: 1
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ३८. इंउहाणमागारेण ते परिणमंति । ते कधं परिणमंति ति वृत्तं विसिटागासदेसो
खेत्तं । सीदुसुण* वरिसणेहि उवलक्खियो कालो*। सिसिर-वसंत-णिदाह-वासा-- रत्त-सरदहेमंता उडू । दिणयरस्य दविखणुत्तरगमणमयणं । पूरण-गलणसहावा पोग्गला णाम । खेत्तं कालं उड्ड अयणं पोग्गलं च तप्पाओग्गं पप्प पाविदूण ते पोग्गला तेसिमागारेण परिणमंति, अण्णहा सव्वत्थ सव्वद्धं तेसिमप्पत्तिप्पसंगादो । जे च अमी अण्णे च एवमादिया अंगमलप्पहुडीणि सरीरमलप्पहुडीणि* एत्य प्पहुडिसणई 4 सुज्जचंदग्गह--णक्खत्तुवराग-परिवेस- धब्धणयरादओ घेत्तव्वा । सा सव्वोसादियविस्ससाबंधो नाम ।
जो सो थप्पो पओअबंधो गाम सो दुविहो- कम्मबंधो चेद णोकम्मबंधो चेव ॥ ३८॥ होते हैं । वे किस कारणसे परिणत होते हैं, ऐसा पूछनेपर 'से खेत्तं पप्प' इत्यादि सूत्रवचन कहा है। विशिष्ट आकाशदेशका नाम क्षेत्र है। शीत, उष्ण और वर्षासे उपलक्षित समयका नाम काल है। शिशिर, वसन्त, निदाघ, वर्षा, शरद और हेमन्तका नाम ऋतु है । सूर्यका दक्षिण और उत्तरको गमन करना अयन है जिनका पूरण और गलन स्वभाव है वे पुद्गल कहलाते है। अपने अपने योग्य क्षेत्र, काल, ऋतु, अयन और पुद्गलको प्राप्त होकर वे पुद्गल उन मेघ आदिके आकाररूपसे परिणत होते हैं; अन्यथा सर्वत्र और सर्वदा उनकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है । जो ये और अन्य अगमल अर्थात् शरीरमल आदि पदार्थ हैं । यहाँ 'प्रभात' शब्दसे सूर्य, चन्द्र, ग्रह और नक्षत्र इनका उपराग तथा परिवेश और गन्धर्वनगर आदि लेने चाहिए । यह सब सादि विस्रसाबन्ध है ।
विशेषार्थ--आगमद्रव्यबन्धके सिवा शेष सब बन्ध नोआगमद्रव्यबन्ध कहलाते हैं। इसके प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध ये दो भेद हैं जिसमें जीवके व्यापारकी अपेक्षा होती है वह प्रयोगबन्ध कहलाता है और जो जीवके व्यापारके बिना अपनी योग्यतानुसार होता है वह विस्रसाबन्ध कहलाता है। यहाँ सादिविस्रसाबन्धका विचार किया जा रहा है। यह पुदगलोंकी अपनी-अपनी योग्यतानुसार होता है। यों तो जितने भी कार्य होते है वे सब अपनी अपनी योग्यतानुसार ही होते है । किन्तु बाह्य निमित्तको ध्यानमें रखकर बन्धके प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध ये भेद किए गए हैं । कर्मबन्ध प्रयोगबन्ध में आता है, पर समयप्राभूतमें इसके विषयमें लिखा है कि रागदिकका निमित्त पाकर कर्मपुद्गल स्वयं कर्मरूपसे परिणत होते हैं
और कर्मका निमित्त पाकर जीव रागादिकरूपसे परिणमण करता है । समयप्राभृतके उक्त कथनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बलात् अन्य अन्यका परिणमन करानेवाला नहीं होता, किन्तु एक दूसरे का निमित्त पाकर प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणमन करता है । शेष कथन सुगम है ।
जो प्रयोगबन्ध स्थगित कर आये हैं वह दो प्रकारका है--कर्मबन्ध और नोकर्मबन्ध ॥ ३८ ॥
ता. प्रती ' सोदुसण' इति पाउ::1* अ. प्रतौ 'काले' इति पाठ अ. आ. प्रत्योः 'काल उद् इति पाठः18 ता. प्रतो 'प्पहुडि' (डी) णि' इति पाठः । * ता. प्रती 'प्पहडीण (णि) अ. आ. प्रत्यो 'पहडीण' इति पाठ: 10 अ. आ. प्रत्यो 'सज्जेग' इति पा5: .आ.7 त्योः 'गंधबण्णयरादओ' इति पाठ
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बंधाणुयोगद्दारे भावबंध परूवणा
( ३७
एवं दुविहो चेव पओअबंधो होदि, अण्णस्स अणुवलंभादो । को पओगबंधो णाम? जीववारेण जो समुत्पण्णी बंधो सो पओअबंधो णाम ।
जो सो कम्मबंधो नाम सो थप्पो ॥ ३९ ॥
५,
६, ३९.)
कुदो ? बहुवण्णणिज्जत्तादो ।
जो सो णोकम्मबंधो नाम सो पंचविहो- आलावणबंधो अल्लीवणबंध संसिलेस बंधो सरीरबंधो सरोरिबंधो चेदि ।। ४० ।।
एवं णोकम्मबंधी पंचविहो चेव; अण्णस्स अणुवलंभादो । तत्थ आलावणबंधो णाम रिसोति वृत्ते वुच्चदे रज्जु-वरत-कट्ठदव्वादीहि जं पुधभूदाणं दव्वाणं बंधणं सो आलावणबंधो णाम । लेवणविसेसेण जडिदाणं दव्वाणं जो बंधो सो अल्लीवणबंधो णाम । रज्जु-वरत्त- कट्ठादीहि विणा अल्लीवण विसेसेहि विणा जो चिक्कणअचिक्कणदव्वाणं चिक्कणदव्वाणं वा परोप्परेण बंधो सो संसिलेसबंधो णाम । पंचणं सरीराणमण्णोष्णेण बंधो सो सरीरबंधो णाम । जीवपदेसाणं जीवपदेसेहि पंचसरीरेहि य जो गंधो सो सरीरिबंधो णाम । संपहि आलावणबंधसरूवपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
इस तरह दो प्रकारका ही प्रयोगबन्ध होता है, क्योंकि, अन्य प्रकारका प्रयोगबन्ध उपलब्ध नहीं होता 1
शंका- प्रयोगबन्ध किसे कहते हैं ?
समाधान-जीवके व्यापार द्वारा जो बन्ध समुत्पन्न होता है उसे प्रयोगबन्ध कहते हैं। जो कर्मबन्ध है उसे स्थगित करते भें ।। ३९ ॥
क्योंकि, आगे उसका बहुत वर्णन करना है ।
जो नोकर्मबन्ध है वह पाँच प्रकारका है -- आलापनबन्ध,
अल्लीवनबन्ध,
इस प्रकार नोकर्मबन्ध पाँच प्रकारका ही होता है, क्योंकि, इनके सिवा अन्य बन्ध उपलब्ध नहीं होता । उनमें से आलापनबन्धका क्या स्वरूप है, ऐसा पूछनेपर कहते हैं- रस्सी, वरत्रा (रस्सी विशेष ) और काष्ठद्रव्य आदिकसे जो पृथग्भूत द्रव्य बाँधे जाते हैं वह आलापनबन्ध है । लेपविशेष से परस्पर सम्बन्धको प्राप्त हुए द्रव्योंका जो बन्ध होता है वह अल्लीवनबन्ध कहलाता है | रस्सी, वरत्रा और काष्ठ आदिकके बिना तथा अल्लीवन विशेष के विना जो चिक्कण और अचिक्कण द्रव्योंका अथवा चिक्कण द्रव्योंका परस्पर बन्ध होता है वह संश्लेषबन्ध कहलाता है । पाँच शरीरोंका जो परस्पर बन्ध होता है वह शरीरबन्ध होता है । तथा जीवप्रदेशोंका जीवप्रदेशों के साथ और पाँच शरीरोंके साथ जो बन्ध होता है वह शरीरिबन्ध कहलाता हैं । अब आलापनबन्ध के स्वरूपका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
संश्लेषबन्ध, शरीरबन्ध और शरीरिबन्ध ॥ ४० ॥
ता. आ. प्रत्यौः - णिज्जित्तादो' इति पाठ: ।ता. प्रतो' (लेव ) ण विसेसेण जदिदाणं' अ० आ० का० प्रतिषु 'लोयणविसेसेण जदिदाणं इति पाठः । ॐ अ. आ. प्रत्वौः 'अल्लियण' इति पाठinelibrary.org
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३८)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं जो सो आलावणबंधो णाम तस्स इमो णिहेसो-से सगडाणं वा जाणाणं वा जुगाणं वा गड्डीण* वा गिण्लीणं वा रहाणं वा संदणाणं वा सिवियाणं वा गिहाणं वा पासावाणं वा गोवुराणं वा तोरणाणं वा से कट्टेण वा लोहेण वा रज्जुणा वा वन्भेण वा दब्भेण वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदव्वेहि आलावियाणं बंधो होदि सो सन्वो आलावणबंधो णाम ॥ ४१ ॥
एदस्सत्थो वच्चदे। तं जहा-लोहेण बद्धणेमि-तुंब-महाचक्का लोहबद्धछुहयपेरंता लोणादोणं गरुअभरुव्वहणक्खमा सयडा णाम । समद्दमझे विविहभंडेहि आरिदा संता जे गमणक्खमा वोहित्ता ते जाणा णाम । गरुवत्तणेण महल्लत्तणेण: य जं तुरय-वेसरादीहि वन्भदि त जगं णाम । बहरदोचक्काओ धण्णादिहलअव्वभरुव्वहणक्खमाओ गडडीओ णाम फिरिक्कीओ गिल्लीयो नाम । का फिरिक्की णाम? चुदेण वट्टलागारेण घडिदणेमितुंबाधारसरलटकट्टा फिरिक्की णाम । जुद्ध अहिरह महारहाणं चडणजोग्गा रहा णाम ।
जो आलापनबंध है उसका यह निर्देश है-जो शकटोंका, यानोंका, युगोंका, गड्डियोंका, गिल्लियोंका, रथोंका, स्यन्दनोंका, शिविकाओंका, गहोंका, प्रासादोंका, गोपुरोंका और तोरणोंका काष्ठसे, लोहसे, रस्तोसे, चमडे की रस्सीसे और दर्भसे जो बन्ध होता है तथा इनसे लेकर अन्य द्रव्यों से आलापित अन्य द्रव्योंका जो बन्ध होता है वह सब आलापन बन्ध है ।। ४१ ॥
अब इस सूत्रका अर्य कहते हैं । यथा-जिनको धुर, गाडोको नाभि और महाचक्र लोहसे बंधे हुए हैं, जिनके छहय पर्यन्त लोहसे बधे हए है और जो नमक आदि भारी भारको ढोने में समर्थ हैं वे शकट कहलाते हैं । नाना प्रकारके भाण्डोंसे आपूरित होकर भी समुद्र में गमन करने में समर्थ जो जहाज होते हैं वे यान कहलाते हैं । जो बहुत भारी होनेसे और बहुत बडे होनेसे घोड़ा और खच्चर आदिके द्वारा ढोया जाता है वह युग कहलाता है। जिनके दो चके छोटे हैं और जो धान्य आदि हलके भारके ढोने में समर्थ हैं वे गड्डी कहलाती हैं। फिरिक्कीको गिल्ली कहते हैं।
शंका- फिरिक्की किसे कहते हैं ?
समाधान - जिसकी नेमि और तुम्बकी आधारभूत आठ लकड़ियाँ वर्तुलाकार चुन्दसे घटित हैं उसे फिरक्की कहते हैं।
जो युद्ध में अधिरथी और महारथियोंके चढ़ने योग्य होते हैं वे रथ कहलाते हैं। जो
अ आ प्रत्यौः 'सदाणं इति पाठ: 1. अ आ. प्रत्यो 'गदीणं इति पाठः । 1 अ.भा. प्रत्यो: 'लोगादीणं' इति पाठः । ता अ. आ. प्रतिषु बोहित्था इति पाठ | ता. अ आ. प्रतिषः गरुवत्थणेण महल्लत्थणेण इति पारः | +अ प्रती वुच्चदि आ प्रतो वृज्झदि इति पाठः) ता अ. -बा-प्रतिषु '-हलुह- इति पाठःता . प्रतो '-कट्ठा (९) इति पाठः 16 ता. प्रतो अहिरह (राय) महारहा (राया) णं' इति पाठः ।
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५, ६, ४२.)
बंधणाणुयोगदारे दव्वबंधपरूवणा चक्कवट्टि-बलदेवाणं चडणजोग्गा सव्वाउहावण्णा णिमणपवणवेगा अच्छे भंगे वि चक्क. घडणगुणण अपडिहयगमणा संदणा णाम । माणसेहि वुडभमाणाल सिविया णाम । कट्टियाहि बद्ध कुड्डा उवरि वंसिकच्छण्णा गिहा णाम । पक्कसइला सइला आवासा पासादा णाम । पायाराणं वारे घडिदगिहा गोवरं णाम । पुराणं पुराणं पासादाणं वंदणमालबंधणटुं पुरदो टुविदरुक्खविसेसा तोरणं णाम । एदेसि पुवुत्ताणं जे बंधा ते आलावणबंधा णाम । केणेसि बंधो होदि ? कट्टेण वा लोहेण वा रज्जुणा वा वन्भेण वा दब्भेण वा । 'वा' सद्देण वक्केण वा सुंबेण+ वा कट्ठियाए वा इच्चेवमादि घेत्तव्वं । कट्ठादीहि अण्णदम्वेहि अण्गदव्वाणं आलाविदाणं जोइदाणं बंधो होदि सो सव्वो आलावणबंधो नाम ।
जो सो अल्लीवणबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो -- से कडयाणं वा कुड्डाणं वा गोवरपीडाणं वा पागाराणं वा साडियाणं* वा जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदत्वेहि अल्लीविवाणं बंधो होदि सो सव्वो अल्लीवणबंधो नाम ॥ ४२ ॥ चक्रवर्ती और बलदेवोंके चढ़ने योग्य होते हैं, जो सब आयुधोंसे परिपूर्ण होते हैं, जो पवनके समान वेगवाले होते हैं और धुरके टूट जाने पर भी जिनके चक्रोंकी इस प्रकारकी रचना होती है जिस गुणके कारण जिनके गमनागमन में बाधा नहीं पड़ती वे स्यन्दन कहलाते हैं। जो मनुष्यों द्वारा उठाकर ले जाई जाती हैं वे शिविका कहलाती हैं। जिनकी भीत लकड़ियोंसे बनाई जाती है और जिनका छप्पर बाँस और तृणसे छाया जाता है वे गृह कहलाते हैं। ईंटों और पत्थरोंके बने हुए पत्थरबहुल आवासोंको प्रासाद कहते हैं। कोटोंके दरवाजोंपर जो घर बने होते हैं वे गोपुर कहलाते हैं । प्रत्येक पुर और प्रासादोंपर वन्दनमाला बाँधने के लिए आगे जो वृक्षविशेष रखे जाते हैं वे तोरण कहलाते हैं । इन पूर्वोक्त शकट आदिके जो बन्ध होते हैं वे आलापनबन्ध कहलाते हैं।
शंका-इनका बन्धन किस पदार्थसे होता है ?
समाधान-काष्ठसे, लोहसे, रस्सीसे, वर्धसे और दर्भसे होता है । यहाँ सूत्र में आये हुए 'वा' शब्दसे वकलेसे, शुम्ब अर्थात् तणविशेषसे और लकडीसे होता है इत्यादि लेना चाहिए ।
__ काष्ठ आदि अन्य द्रव्योंसे जो आलापित अर्थात् परस्पर सम्बन्धको प्राप्त हुए अन्य द्रव्योंका बन्ध होता है वह सब आलापनबन्ध है।
जो अल्लोवणबन्ध है उसका यह निर्देश है-कटकोंका, कुड्डोंका, गोवरपीडोंका, प्राकारोंका और शाटिकाओंका तथा इनसे लेकर और जो दूसरे पदार्थ हैं उनका जो बन्ध होता है अर्थात् अन्य द्रव्योंसे सम्बन्धको प्राप्त हुए अन्य द्रव्योंका जो बन्ध होता है वह सब अल्लीवणबन्ध है ॥ ४२ ।।
Aआप्रतौ 'वज्झमाणा' इति पाठ 14 अ. आ. प्रत्योः 'दब्वेण वा सद्देण' इति पाठः14 ता. अ. आ. प्रतिष 'सुभेण' इति पाठः। प्रतिष दोहदाण इति पाठः1 ४ अ. आ. प्रत्योः 'कटयाणं वा कटाणं वा इति पाठः। *ता आ प्रत्योः ! पासादियाणं' अ० प्रती 'सादियाणं इति पाठः
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४० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं .
( ५, ६, ४२.
बंसकंबोहि अण्णोण्णजणणाए जे किज्जति घरावणादिवाराणं ढंकणठं. ते कडया णाम । जिणहरघरायदणाणं ठविदओलित्तीओ कुड्डा णाम । कुड्डाणं पोग्गलबंधो अल्लीवणबंधो णाम, बभ-दब्भ-लोह-कटु-रज्जणं बंधेण विणा अल्लियणमेत्तेणेव बंधुवलंभादो ण च एसो बंधो संसिलेसबंधे पविसदि,ओल्लमट्टियाए चिक्कणगणाभावादो। छाणेण लेविदूण जाणि पीडाणि किज्जति ताणि गोवरपीडाणिणामाएदेसि जो बंधो सो वि अल्लीवणबंधो णाम, सगदेहादो पुधभूददब्भादिबंधकारणाभावादो। जिणहरादीणं रक्खळं पासेसु विदओलित्तीओ* पागार णाम । पक्किट्टाहिरी घडिदवरंडा वा पागार णाम । तत्थ वि इट्टाहितो पुघभूदबंधकारणाणव-- लंभादो । पुव्वं पासादगोवरादीणं पक्किट्टा विणिम्मियाणमालावणबंधो होदि त्ति परविदं । संपहि तेसिं चेव अल्लोवणबंधपरूवणं कधं ण विरुज्झदे ? ण, पासादगोवर रुक्खाणमइयवडादीणं ( ? ) लोहेण लोह---कढकोलेहि य बंधं दळूण तेसिमालावणबंधपरूवणादो । तत्थ वि कुड्डाणं पुण
बाँसकी कमचियोंके द्वारा परस्पर बुनकर घर और अवन अदिके ढाँकने के लिए जो बनाई जाती हैं वे कटक अर्थात् चटाई कहलाती हैं। जिनगृह, घर और अवनकी जो भीतें बनाई जाती हैं उन्हें कुड़ कहते हैं। कूड़ोंका जो पूदगलबन्ध होता है वह अल्लीवणबन्ध कहलाता है, क्योंकि, वर्ध, दर्भ, लोह, काष्ठ और रस्सीके बन्धके बिना परस्पर मिलाने मात्रसे ही यह बन्ध उपलब्ध होता है । यह बन्ध संश्लेषबन्ध में अन्तर्भत होता है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, गीली मिट्टी में चिक्कण गुणका अभाव है । गोवरसे लेपकर जो पीड बनाये जाते हैं वे गोवरपीड कहलाते हैं। इनका जो बन्ध होता, है वह भी अल्लीवणबन्ध है, क्योंकि, इनके बन्ध में अपनेसे भिन्न दर्भादि बन्धके कारण नहीं उपलब्ध होते । जिनगृह आदिको रक्षाके लिए पार्श्वमें जो भीतें बनाई जाती हैं वे प्राकार कहलाते हैं अथवा पकी हुई ईटोंसे जो वरण्डा बनाये जाते हैं वे प्राकार कहलाते हैं। यहाँ पर भी ईंटोंसे पृथग्भूत बन्धके कारण नहीं पाये जाते ।
शका-पहले पकी हुई ईटोंसे बने हुए प्रासाद और गोपुर आदिका आलापनबन्ध होता हैं ऐसा कह आये हैं और अब यहाँ उनका हो अल्लीवणबन्ध कह रहे हैं सो यह कथन विरोधको कैसे नहीं प्राप्त होता?
___समाधान- नहीं, क्योंकि, पहले प्रासाद, गोपुर आदिकका लोहेसे तथा लोह और काष्ठकी कीलोंसे बन्ध देखकर उनका आलापनबन्ध कहा है। परन्तु उनकी भीतोंका तो अल्लीवणबन्ध ही होता है, इसलिए उक्त कथनमें कोई विरोध नहीं है।
* अ-आ- प्रत्यो: 'जदणाए इति पाठः। .ता. प्रती 'दं (ढं) कणठं अ. आ. प्रत्यो। 'दंकणठें' इति पाठः। अ आ. प्रतीः 'कदया' इति पाठ:
1 ता . प्रती 'जिणहरघरायणाण' अ. प्रती 'जिणाहरघरावणाणं' आ. प्रतौ 'जिणहरघरावणाणं' इति पाठ।।.अ. आ. प्रत्यो: 'पीदाणि' इति पाठः । *ता म. आ. प्रतिष 'ओत्तित्तीओ' इति पाठः। ता. प्रती 'पक्किदाहि' इति पाठः । ४ता. प्रतौ इट्टाहिती
इति पाठः। * ता अ. आ. प्रतिषु कारणमुव-लंभादो इति पाठः 18 ता. प्रतौ 'पक्किट्ठा' इति पाठः )
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बंधणाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा
( ४१ अल्लोवणबंधो चेव । बहुलियाहि परियत्तविसए परिहिज्जमाणाओ साडियाओ* णाम । तासि जो तंतुसंताणबंधो सो अल्लीवणबंधो णाम, तंतूहितो पुधभूदबंधकारणाणुवलंभादो । अण्णे एवमादिया ति वयणेण णेत्तपट्ट कप्पाससुत्तविसेसेण वुअफेवस्थाणं गहणं कायव्वं । सेसं सुगमं ।
जो सो संसिलेसबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो-जहा कट्ठ-जदूणं अण्णोण्णसंसिलेसिवाणं बंधों संभवदि सो सवो संसिलेसबंधो णाम ॥४३॥
जदू णाम लक्खा । लक्खाए कटुस्स च जो अण्णोण्णसंसिलेसेण बंधो सो संसिलेसबांधो णाम । ण च एस गंधो अल्लीवणबंधे पविसदि, पाणिएण जणिदद्दवाभावादो। णालावणबंधे पविसदि; तदो पुधभूददव्वादिबंधकारणाभावादो। जदुग्गहणमेदमुवलक्खणं वज्जलेव-मयणादीणं, चिक्कणदव्वाणं तेण तेसि पि एत्थ गहणं कायव्वं ।
जो सो सरीरबंधो णाम सो पंचविहो-- ओरालियसरीरबंधो वेउब्वियसरीरबंधो आहारसरीरबंधो तेयासरीरबंधो कम्मइयसरीरबंधो चेदि ।। ४४॥ एवं पंचविहो चेव सरीरबंधो होदि, अण्णस्स एदेहितो पुधभूदबंधस्स अणुवलंभादो।
___ स्रियोंके द्वारा देशविशेषमें जो पहिनी जाती हैं वे शाटिका कहलाती हैं । तथा इनका जो तन्तु सन्तानबन्ध होता है वह अल्लीवणबन्ध है, क्योंकि, इनमें तन्तुओंके सिवा अलगसे बन्धके कारण नहीं उपलब्ध होते । 'अण्णे एवमादिया' इस वचनसे नेत्रपट्ट और कपासके सूतसे बुने हुए वस्त्रोंका ग्रहण करना चाहिए । शेष कथन सुगम है।
जो संश्लेषबन्ध है उसका यह निर्देश है-जैसे परस्पर संश्लेषको प्राप्त हुए काष्ठ और लाखका बन्ध होता है वह सब संश्लेषबन्ध है ॥ ४३ ॥
जतु लाखको कहते हैं । लाख और काष्ठके परस्पर संश्लेषसे जो बन्ध होता है वह संश्लेषबन्ध है। यह बन्ध अल्लीवणबन्धमें अन्तर्भूत नहीं होता, क्योंकि, यहाँ पानीसे संयोगको प्राप्त हुए द्रव्य का अभाव हैं । आलापनबन्ध में भी अन्तर्भूत नहीं होता, क्योंकि, इनसे पृथग्भूत द्रव्यादि बन्धके कारण नहीं पाये जाते।
____ 'जतु' पदका ग्रहण यहाँ वज्रलेप और मैन आदि चिक्कण द्रव्योंका उपलक्षण है । इससे इनका भी यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
___ जो शरीरबन्ध है वह पाँच प्रकारका है-- औदारिकशरीरबन्ध, वैक्रियिकशरीरबन्ध, आहारकशरीरबन्ध, तैजसशरीरबन्ध और कार्मणशरीरबन्ध ।। ४४ ॥
इस प्रकर पाँच प्रकारका ही शरीबन्ध होता है, क्योंकि, इनसे पृथग्भूत दूसरा शरीरबन्ध
ता. आ. प्रतिषु 'बुहेलिपाहि' इति पाठ: 1 अ-आ- 'प्रत्योः 'महेलियहि' इति पाठ * अ. आ. प्रत्योः 'सादियाओ' इति पाठः । अ आ. प्रत्योः 'वुडवत्थाणं' इति पाठः।
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४२. ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ४५. संपहि एगादिसंजोगे के ओरालियसरीरस्त बंधवियप्पुप्पायगढमुत्तरसुत्तं भणदि
ओरालिय-ओरालियसरीरबंधो ॥ ४५ ॥
ओरालियसरीरणोकम्मखंधाणमण्णेहि ओरालियसरीरणोकम्मक्खंधेहि जो बंधो सो ओरालिय-ओरालियसरीरबंधो । एवमेसो एगसंजोगेण एक्को चेव भंगो होदि १। संपहि दुसंजोगभंगपरूवणटुमुत्तरसुत्तं भणदि
ओरालिय-तेयासरीरबंधो ।। ४७ ।।
ओरालियसरीरपोग्गलाणं तेयासरीरपोग्गलाणं च एक्कम्हि जीवे जो परोप्परेण बंधो सो ओरालिय तेयासरीरबधो णाम १ ।
ओरालिय-कम्मइयसरीरबंधो ।। ४७ ॥ ओरालियखंधाणं कम्मइयक्खंधाणं च एक्कम्हि जीवे ट्रिदाणं जो बंधो सो ओरालिय. कम्मइयसरीरबंधो णाम २।ओरालियखंधाणं वे उब्विय आहारसरीरेहि सह णस्थि बंधो; ओरालियसरीरेण परिणदजीवे सेसदोण्णं सरीरागनमावादो। होदु णाम वेउन्वियसरीरस्स अभावो, तस्स देव-णेरइएसु चेव अस्थित्तसणादो। आहारसरीरं पुण मणुस्सेसु चेव होदि, तेण ओरालियसरीरेण सह आहारसरीरस्स संबंधेण होदवमिति? नहीं उपलब्ध होता । अब एकादि संयोगरूप औदारिक शरीरके बन्धविकल्पोंको उत्पन्न कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
औदारिक-औदारिकशरीरबंध ॥ ४५ ॥
औदारिकशरीर नोकर्मस्कन्धोंका अन्य औदारिकशरीर नोकर्मस्कन्धोंके साथ जो बन्ध होता है वह औदारिक-औदारिकशरीरबन्ध है । इस प्रकार यह एकसंयोगसे एक ही भंग होता है १ । अब द्विसंयोग भंगका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
औदारिक-तैजसशरीरबन्ध ॥ ४६ ॥
औदारिकशरीरके पुद्गलोंका और तैजसशरीरके पुद्गलोंका एक जीवमें जो परस्परबन्ध होता है वह औदारिक-तैजसशरीरबन्ध है १ ।
औदारिक कार्मणशरीरबत्ध ॥ ४७ ।।
एक जीवमें स्थित औदारिकस्कन्धोंका और कार्मणस्कन्धोंका जो परस्पर बन्ध होता है वह औदारिक-कार्मणशरीरबन्ध हैं २ । औदारिकस्कन्धोंका वैक्रियिक और आहारकशरीरके साथ बन्ध नहीं होता, क्योंकि, औदारिक-शरीररूपसे परिणत हुए जीवमें शेष दो शरीरोंका अभाव पाया जाता है।
शंका- इसके वैक्रियिकशरीरका अभाव भले ही रहा आवे; क्योंकि, उसका देव और नारकियोंके ही अस्तित्व देखा जाता है। किन्तु आहारकशरीर तो मनुष्योंके ही होता है, इसलिए औदारिकशरीरके साथ आहारकशरीरका सम्बन्ध होना चाहिए ?
8 अप्रती 'संजोगो' इति पाठः। *अ. आ. प्रत्योः 'सरीराणं' इति पाठः ।
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५, ६, ५५. )
गद्दारे भावबंधपरूवणा
( ४३
ण, आहारसरीरेण परिणमंताणं ओरालियसरीरस्स उदयाभावेण तेण संबंधाभावादो । एवं दुसंजोगभंगपरूवणा कदा | संपहि तिसंजोगपरूवणद्वमुत्तरसुत्तं भणदि -- ओरालिय- तेया- कम्मइयसरीरबंधो ॥ ४८ ॥
ओरालिय- तेया- कम्मइयसरीरखंधाणं एक्कम्हि जीवे णिविद्वाणं जो अण्णोष्णेण बंध सो ओरालिय- तेया- कम्मइयसरीरबंधो नाम । एवं तिसंजोगे एक्को चेव भंग १ | संपहि वेव्वियसरीरस्स एगादिसंजोग भंगपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदिवेव्विय- वे उब्वियसरीरबंधो ॥ ४९ ॥ वेव्विय तेयासरीरबंधो ॥ ५० ॥ वेडव्विय-कम्मइयसरीरबंधो ।। ५१ ।
वेडविय तेया- कम्मइयसरीरबंधो ॥ ५२ ॥
एदाणि चत्तारि वित्ताणि सुगमाणि । आहारसरीरभंगवरूत्रणट्टमुत्तरसुत्तं भणदिआहार - आहारसरीरबंधो ॥ ५३ ॥
आहार - तेयासरीरबंधो ॥ ५४ ॥
आहार- कम्मइयसरीरबंधो ॥ ५५ ॥
समाधान- नहीं, क्योंकि, आहारकशरीररूपसे परिणमन करनेवाले जीवोंके औदारिकशरीरका उदय नहीं होनेसे उसके साथ सम्बन्ध नहीं होता ।
इस प्रकार द्विसंयोगी भंगका कथन किया । अब त्रिसंयोगी भंगका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
औदारिक- तैजस-कार्मणशरीरबन्ध ॥ ४८ ॥
एक जीव में निविष्ट हुए औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरके स्कन्धों का जो परस्पर बन्ध होता है वह औदारिक- तेजस - कार्मणशरीरबन्ध है । इस प्रकार त्रिसंयोगी एक ही भंग होता है । अब वैक्रियिकशरीरके एकादिसंयोगी भंगोंका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैंवैffee- वैयिकशरीरबन्ध || ४९ ॥
वैक्रियिक- तेजसशरीरबन्ध ।। ५० ।।
वैक्रियिक- कार्मणशरीरबन्ध ॥ ५१ ॥ वैक्रियिक- तैजस- कार्मणशरीरबन्ध ।। ५२ ॥
ये चारों ही सूत्र सुगम हैं । अब आहारकशरीरके भंगोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
आहारक आहारकशरीरबन्ध ।। ५३ ।। आहारक-तैजसशरीरबन्ध ॥ ५४ ॥ आहारक- कार्मणशरीरबन्ध ॥ ५५ ॥
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४४ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
आहार - तेया- कम्मइयसरीरबंधो ॥ ५६ ॥ एवाणि चत्तारिवि सुत्ताणि सुगमाणि । तेया- तेया सरीरबंधो ॥ ५७ ॥ तेयासरीर - कम्मइयसरीरबंधो ॥ ५८ ॥
सेसभंगा एत्थ किरण परुविदा ? ण, पुणरुत्तवोसध्द संगादो ।
कम्मइय-कम्मइयसरीरबंधो ५९ ॥
एत्थ एवको चेव भंगो । सेसा गंगा संता वि किमट्ठे ण परूविदा ? पुव्वं
1
परुविदत्तादो ।
+ सो सव्वो सरीरबंधो णाम ।। ६० ।।
एसो पण्णारसविहो बंधो सरीरबंधो त्ति घेत्तव्वो ।
जो सो सरीरिबंधो णाम सो दुविहो - सादियसरी रिबंधो चेव
अणादियसरीरिबंधो चेव ।। ६१ ।।
एवं दुहि चेव सरीरिबंधो होदि; अण्णस्सासंभवादो । आहारक- तैजस- कार्मणशरीरबन्ध ॥ ५६ ॥
ये चार सूत्र भी सुगम हैं ।
तेजस - तेजसशरीरबन्ध ।। ५७ ।।
तंजसशरीर- कार्मणशरीरबन्ध ।। ५८ ।
शका - शेष भंग यहाँ क्यों नहीं कहे ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, पुनरुक्त दोषका प्रसंग प्राप्त होता है । कार्मण-कार्मणशरीरबन्ध ।। ५९ ।।
( ५, ६, ५६.
यहाँ एक ही भंग होता है ।
शंका- शेष भंग भी होते है, फिर वे किसलिए नहीं कहे ?
समाधान- क्योंकि, उनका कथन पहले कर आये हैं ।
वह सब शरीरबन्ध है ॥ ६० ॥
यह पन्द्रह प्रकारका बन्ध शरीरबन्ध है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । जो शरीरिबन्ध है वह दो प्रकारका है- सादि शरीरिबन्ध और अनादि शरीरिबन्ध ।। ६१ ॥
इस प्रकार शरीरिबन्ध दो प्रकारका ही होता है, क्योंकि अन्य प्रकारके शरीरिबन्धका होना असम्भव है |
अ० प्रती एदाणि चत्तारि सुत्ताणि वि सुगमाणि आ. प्रतो 'एदाणि वि सुत्ताणि सुगमाणि इति पाठ: : प्रतिषु धवलान्तर्गतमिदं न सूत्रत्वेनोपलभ्यते ।
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५, ६, ६२.)
बंधणाणुयोगद्दारे दव्वबंध परूवणा
( ४५
जो सो सादियसरी रिबंधो नाम सो जहा सरीरबंधो तहा
दव्वा ॥ ६२ ॥
1
सरीरी णाम जीवो। तस्स जो बंधो ओरालियादिसरीरेहि सो सरीरिबंधो णाम । तस्स भंगपरूवणा जहा सरीरबंधस्स परूविदा तहा परूवेदव्वा । तं जहाओरालियसरीरेण सरीरिस्त बंधो। वेउव्वियसरीरेण सरीरिस्स बंधो । आहारसरीरेण सरोरिस्त बंधो। तेजइयसरीरेण सरोरिस्स बंधो । कम्मइयसरीरेण सरीरिस्त बन्धो 1 सरीरिणा सरीरस्स बन्धो । कधमेसो छटुभंगो जुज्जदे ? ण, कम्म णोकम्माणमणादिसंबंधेण मुत्तत्तमुवगयस्त जीवस्स घणलोगमेत्तपवेसल्स जोगवसेण संघार- विसप्पणधम्मियस्स अवयवाणं परतंतलक्खण संबंधेण छट्टमंगुप्पत्तीए विरोहाभावादो । एवमेदे छब्भंगा ६ । ओरालिय-तेजासरीरेहि सरोरिस्स गंधो, ओरालियकम्मइयसरी रेहि सरीरिस्स बंधो, ओरालिय- तेजा - कम्मइयसरीरेहि सरीरिस्स गंधो, एवमोरालियसरी रेहि निरुद्धे तिष्णि भंगा ३ । वेउब्विय- आहारसरीराणं एवं चेव तिष्णि तिणि भंगा परूवेदव्वा । तेजा कम्मइयसरोरेहि सरोरिस्स बंधो १ । एवं तेयासरीरे णिरुद्धे * एक्को चेव दुसंजोगमंगो । कम्मइयम्मि दुसंजोग भंगो णत्थि । एवमेदे सोलस सरीरिबंधा १६ ।
जो सादि शरीरिबन्ध हैं वह शरीरबन्धके समान जानना चाहिए ।। ६२ ।।
शरीरी जीवको कहते हैं। उसका जो औदारिक आदि शरीरोंके साथ बन्ध होता है वह शरीरबन्ध है । इसके भंगों का कथन, जिस प्रकार शरीरबन्धके भंगोंका कथन किया है, उस प्रकार करना चाहिए। यथा-औदारिकशरीर के साथ शरीरीका बन्ध, वैक्रियिकशरीर के साथ शरीरीका बन्ध, आहारकशरीर के साथ शरीरीका बन्ध, तैजसशरीर के साथ शरीरीका बन्ध कार्मणशरीर के साथ शरीरीका बन्ध, ओर शरीरीके साथ शरीरका बन्ध ।
शंका- यहाँ छठवाँ भंग कैसे बन सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, जो कर्म ओर नोकर्मीका अनादि सम्बन्ध होनेसे मूर्तपनेको प्राप्त हुआ है और जिसके घनलोकप्रमाण जीवप्रदेश योगके वशसे सकोच और विस्तार धर्मवाले हैं ऐसे जीवके अवयवोंके परतन्त्रलक्षण सम्बन्ध से छठे भंगकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता,
इस प्रकार ये छह भंग हुए ६ ।
दारिश की विवक्षा होनेपर तीन भंग होते हैं ३ । इसी प्रकार तीन तीन भंग कहने चाहिए । तैजस-कार्मण इस प्रकार तैजसशरीरकी विवक्षा होनेपर द्विसंयोगी एक ही द्विसंयोगी भंग नही होता । इस प्रकार ये सोलह शरीरिबन्ध होते हैं १६ ।
औदारिक- तैजसशरीरोंके साथ शरीरीका बन्ध, औदारिक कार्मण शरीरोंके साथ शरीरीका बन्ध, और औदारिक- तेजस - कार्मण शरीरोंके साथ शरीरीका बन्ध; इस प्रकार वैक्रियिक और आहारक शरीरोंके शरीरोंके साथ शरीरीका बन्ध, भंग होता है १ । कार्मणशरीर में
ता. आ. प्रत्योः ' तेवासरीरणिद्वे ' इति पाठ: ।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ६३.
जो अणादियसरीरिबंधो णाम यथा अटण्णं जीवमज्झपदेसाणं अण्णोण्णपसबंधो भवदि सो सम्वों अणावियमरीरिबंधो णाम ॥ ६३ ।।
जीवमज्झपदेसाणमट्टण्णं पि जो बंधो सो अणादियसरीरिबन्धो होदि । किंतु एसो ण पओअबंधो; साभावियत्तादो ति वुत्ते- ण एस दोसो; दिटतदुवारेण णिद्दिद्वत्तादो । जहा अण्णं पि जीवमझपदेसाणमणादियो बंधो तहा सरीरिस्स जो पुवरहिदबंधो सो अणादियसरीरिबंधो त्ति घेत्तव्यो । को सो बंधो ? सरीरिस्स कम्म-णोकम्मसामण्णेण जो बंधो सो अणादियसरीरिबंधो णाम ।
जो सो थप्पो कम्मबंधो णाम यथा कम्मे त्ति तहा णेवव्वं ।६४॥ कम्मबंधस्स चउसटिभंगा जहा कम्माणयोगहारे परूविदा तहा परूवेदम्वा ।
__ एवं संखेवेण परूविदूण बंधो त्ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
जो अनादिशरीरिबन्ध है। यथा- जीवके आठ मध्यप्रदेशोंका परस्पर प्रदेशबन्ध होता है यह सब अनादि शरीरिबन्ध है ॥ ६३ ॥
शंका- जीवके आठ मध्यप्रदेशोंका जो बन्ध है वह अनादिशरीररिबन्ध है, यह ठीक है; किन्तु यह प्रयोगबन्ध नहीं है, क्योंकि, यह स्वाभाविक होता है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि दृष्टान्त द्वारा अनादि शरीरिबन्धका यहाँ निर्देश किया है । जिस प्रकार जीवके आठ मध्यप्रदेशोंका अनादिबन्ध होता है उसी प्रकार शरीरका जो पूर्व कालकी मर्यादासे रहित बन्ध है वह अनादि शरीरिबन्ध है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
शंका- वह बन्ध क्या है ?
समाधान- शरीरीका कर्म और नोकर्म सामान्यके साथ जो बन्ध है वह अनादि शरीरिबन्ध है।
जो कर्मबन्ध स्थगित कर आये हैं उसे कर्मअनुयोगद्वारके समान जानना चाहिए ॥ ६४ ॥ कर्मबन्धके चौंसठ भंग जिस प्रकार कर्म अनुयोगद्वारमें कहे हैं उसी प्रकार कहने चाहिए ।
इस प्रकार संक्षेपसे कथन करनेपर बन्ध अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
४ आ० प्रती 'होज्ज' इति पाठ Jain Education Internatione
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.
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बंधगाणुयोगद्दारं जे ते बंधगा णाम तेसिमिमो णिहेसो-गदि इंदिए काए जोगे वेद कसाए णाणे संजमे बंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारे चेदि ॥ ६५ ॥
एवं सुत्तं चोद्दसमग्गणढाणाणि परूवेदि, अण्णहा बंधगपरूवणाणुववत्तीदो । एदेसि मग्गणट्ठाणाणं जहा खुद्दाबंधे परूवणा कदा तहा कायव्वा ।
____ गदियाणुवादेण णिरयगदीए गैरइया• बंधा तिरिक्खा बंधा देवा बंधा मणुसा बंधा वि अत्थि अबंधा वि अस्थि सिद्धा अबंधा* । एवं खुद्दाबंधएक्कारसअणुयोगद्दारं णेयव्वं ।। ६६ ॥
एत्थ उद्देसे खुद्दाबंधस्स एक्कारसअणुयोगद्दाराणं परूवणा कायव्वा, अम्हेहि पुण गंथबहुत्तभएण ण कदा।
एवं महादंडया णेयव्वा ।। ६७ ॥ एक्कारसअणुयोगद्दाराणं परवणं कादूण पुणो महादंडयाणं पिपरूवणा कायव्वा।
एवं बंधगे त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । जो बन्धक हैं उनका यह निर्देश है- गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञो और आहार ।। ६५ ।।
यह सूत्र चौदह मार्गणास्थानोंका प्ररूपण करता है, अन्यथा बन्धकका कथन नहीं बन सकता । इन मार्गणास्थानोंका जिस प्रकार क्षुल्लकबन्धमें कथन किया है उस प्रकार करना चाहिये।
गति मार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारक जीव बन्धक हैं, तिथंच बन्धक हैं देव बन्धक हैं, मनुष्य बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं, सिद्ध अबन्धक हैं । इस प्रकार यहाँ क्षुल्लकबन्धके ग्यारह अनुयोगद्वार जानने चाहिए ॥ ६६ ॥
इस स्थानपर क्षुल्लकबन्धके ग्यारह अनुयोगद्वारोंका कथन करना चाहिए । हमने ग्रन्थके बढ़ जानेके भयसे उनका कथन यहाँ नहीं किया है।
इसी प्रकार महादण्डक जानने चाहिए ॥ ६७ ।। ग्यारह अनुयोगद्वारोंका कथन करके अनन्तर महादण्डकोंका भी कथन करना चाहिए ।
विशेषार्थ- यहाँ बन्धकका कथन करना है। पहले यह कथन क्षुल्लकबन्धमें कर आये हैं, इसलिये यहाँ उसके अनुसार ही इस कथनके करनेकी सूचना की है। क्षुल्लकबन्धमें सर्व प्रथम 'बन्धक ' के कथनकी प्रतिज्ञा की है । अनन्तर चौदह मार्गणाओंका नामनिर्देश करके उनमें से प्रत्येक मार्गणामें कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है यह बतलाया है । अनन्तर एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व आदि ग्यारह अनुयोगों के द्वारा बन्धकका कथन करके अन्तमें महादण्डक दिये हैं । यहाँ भी इसी प्रकार कथन करनेसे बन्धक अनुयोगद्वार समाप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
इस प्रकार बन्धक यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। * आ० प्रती दिसणेसु' इति पाठा) ता० प्रती 'णेरया' इति पाठः। * अ० आ० प्रत्योः 'अबंधा ।। २] इति पाठः । ४ आ० प्रती 'अहेहि इति पाठः ।
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बंधणिज्जाणुयोगद्दारं जं तं बंधणिज्जं णाम तस्स इममणुगमणं कस्सामो- वेवणअप्पा पोग्गला, पोग्गला खंधसमुद्दिट्ठा, खंधा वग्गणसमुद्दिट्ठा ।। ६८॥
वेद्यन्त इति देवनाः । जीवादो पुधभदा कम्म-णोकम्मबंधपाओग्गखंधा बंधणिज्जा णाम । तेसि कधं वेदणाभावो जुज्जदे ? ण, दव्व-खेत्त-काल-भावेहि वेदणापाओग्गेसु बवट्ठियणयमस्सिदूण वेदणासहपवृत्तीए अब्भुवगमावो। वेदनावमात्मा स्वरूपं येषा ते वेदनात्मानः पुद्गलाः इह गृहीतव्याः । कुदो ? अण्णास बंधणिज्जत्ताभावादो। ते च बंधणिज्जा पोग्गला खंधसमुद्दिट्ठा, खंधसरूवाअणंताणंत परमाणुपोग्गलसमुदयसमागमेण बंधपाओग्गपोग्गलसमप्पत्तीदो। एदेण एयपदेसिया-दुपदेसियादीणं पोग्गलाण, बंधणिज्जत्तपडिसेहो कदो। ते च खंधा वग्गणसमुद्दिवा; वग्गणाहितो पुधभूवक्खंधाभावादो। एदेण बंधणिज्जपोग्गलाणं णिवियप्पत्तपडिसेहो कदो। तेण बंधणिज्जपरूवणे कीरमाणे वग्गणपरूवणा णिच्छएण कायव्वा; अण्णहा तेवीसवग्गणासु इमा चेव वग्गणा बंधपाओग्गा, अण्णाओ* बंधपाओग्गाओ ण होति त्ति अवगमाणुववत्तीदो ।
जो बन्धनीय है उसका इस प्रकार अनुगमन करते हैं- वेदनस्वरूप पुद्गल है। पुद्गल स्कन्धस्वरूप हैं, और स्कन्ध वर्गणास्वरूप हैं ॥ १॥
जो वेदे जाते हैं उन्हें वेदन कहते हैं। जीवसे पृथग्भूत बन्धयोग्य कर्म और नोकर्म स्कन्ध बन्धनीय कहा
शंका-वे वेदनरूप कैसे हो सकते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वेदनायोग्य हैं, उनमें द्रव्याथि कनयकी अपेक्षा वेदना शब्दकी प्रवृत्ति स्वीकार की गई है।
वेदनपना जिनका आत्मा अर्थात् स्वरूप है वे वेदनात्मा कहलाते हैं । यहाँ इस पदसे युद्गलोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, अन्य कोई पदार्थ बन्धनीय नहीं हो सकते । वे बन्धनीय पुद्गल स्कन्धसमुद्दिष्ट अर्थात् स्कन्धस्वरूप कहे गये हैं, क्योंकि, स्कन्धरूप अनन्तानन्त परमाणुपुद्गलोंके समुदायरूप समागमसे बन्धयोग्य पुद्गल होते हैं । इस पदसे एक प्रदेशी और दो प्रदेशी आदि वर्गणाओंसे पृथग्भूत स्कन्ध नही पाये जाते । इस पदसे बन्धनीय पुद्गल निर्विकल्प होते हैं इस बातका निषेध किया है । इसलिए बन्धनीयका कथन करते समय वर्गणाका कथन नियमसे करना चाहिए । अन्यथा तेईस प्रकारकी वर्णणाओंमें ये वर्गणा ही बन्धयोग्य हैं, अन्य बन्धयोग्य नहीं हैं, यह ज्ञान नहीं हो सकता।
४ अ० प्रती समट्रिदा' इति पाठः। *ता०. अ. आ० प्रतिष 'वेदनात्मनः' इति पाठः । .ता० प्रती (अ) जंता-' इति पाठ: 10 अ० प्रती 'बंधपोग्गलपाओग्ग-' इति पाठः । ता० आ. प्रत्यो 'अण्णा जो' इति पाठः 1
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५, ६, ६९. ) बंधणाणुयोगद्दारे वग्गणाणमणुगमणट्टदा
वग्गणाणमणुगमणठ्ठदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणुओगद्दाराणि णादवाणि भवंति- वग्गणा वग्गणदव्वसमदाहारो अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा अवहारो जवमज्झं पदमीमांसा अप्पाबहुए त्ति ॥६९।।
संपहि एदेसिमटण्णमणुयोगद्दाराणमत्थपरूवणा कीरदे । तं जहा- तत्थ वग्गणपरूवणा किमट्ठ कीरदे ? एगपरमाणुवग्गणप्पहुडि एगेगपरमाणुत्तरकमेण जाव महावखधो त्ति ताव सव्ववग्गणाणमेगसेडिपरूवणठं कीरदे । वग्गणदव्वसमुदाहारो किमढमागदो? पुवुत्तवग्गणाणं किं समाणा पोग्गला अण्णे वि अस्थि आहो त्थि, काओ वग्गणाओ धुवाओ काओ वा अद्धवाओ, काओ सांतराओ काओ वा पिरंतराओ त्ति इच्चादिवग्गणविसेसं चोद्दसअणुयोगद्दारेहि णाणेगसे डिगयं परूवणटुमागदो। अणंतरोवणिधा किमट्टमागदा? परमाणदव्ववग्गणाहितो दुपदेसियर दव्ववग्गणा दव्वटुपदेसटुदाहि* कि सरिसा आहो विसरिसा दुपदेसियदव्ववग्गणादो तिपदेसियदव्ववग्गणा दग्वटुपदेसटुदाहि ( कि) सरिसा आहो विसरिसा एवमणंतरहेट्ठिमहेट्टिमवग्गणाहितो अणंतरउवरिम (उवरिम) वग्गणाणं दव्वपदेसट्टपरूवणटुमागदा । परंपरोवणिधा किमट्ठमागदा ? परमाणुपोग्गलदव्यवग्गणादो केद्रं गंतूण दुगुणा वा
वर्गणाओंका अनुगमन करते समय ये आठ अनयोगद्वार ज्ञातव्य हैं- वर्गणा, वर्गणाद्रव्यसमुदाहार, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा अवहार, यवमध्य, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व ।। ६९॥
अब इन आठ अनुयोगद्वारोंकी अर्थप्ररूपणा करते हैं। यथाशंका-- यहाँ वर्गणा अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा किसलिए की है ?
समाधान-- एक परमाणुरूप वर्गणासे लेकर एक एक परमाणुकी वृद्धिक्रमसे महाकन्ध तक सब वगणाओंकी एक श्रेणि है, इस बातका कथन करने के लिए वर्गणा अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा की है।
शंका-- वर्गणाद्रव्यसमुदाहार अनुयोगद्वार किसलिए आया है ?
समाधान-- पूर्वोक्त वर्गणाओंके पुद्गल क्या समान हैं या अन्य प्रकार हैं या अन्य प्रकार नहीं है, कोन वर्गणार्य ध्रुव हैं, कौन वर्गणायें अध्रुव हैं, कौन वर्गगायें सान्तर हैं और कौन वर्गणायें निरन्तर हैं; इस प्रकार चौदह अनुयोगद्वारोंके द्वारा नानाश्रेणिगत और एकश्रेणिगत वर्गणाविशेषका कथन करनेके लिए यह अनुयोगद्वार आया है।
शंका-- अनन्तरोपनिधा अनुयोगद्वार किसलिए आया है ?
समाधान- परमाणुद्रव्यवर्गणासे द्विप्रदेशी द्रव्यवर्गणा द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताकी अपेक्षा क्या सदृश है या विसदृश है, द्विप्रदेशो द्रव्यवर्गणासे त्रिप्रदेशी द्रव्यवर्गणा द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताकी अपेक्षा क्या सदृश है या विसदृश है, इस प्रकार अनन्तर पूर्व पूर्व वर्गणासे अनन्तर उपरिम उपरिम वर्गणाकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताका कथन करने के लिए यह अनुयोगद्वार आया है।
शंका-- परम्परोपनिधा अनुयोगद्वार किसलिए आया है ? ४ ताप्रती ' दुपदेहि ( सि ) य ' आ. प्रती · दुपदेहिय-' इति पाठः । *अ. प्रती 'दब्वपदेसट्रदाहि ' इति पाठः ।
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५० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
1
( ५, ६, ७०. दुगुणहीणा वा होंति त्ति पुच्छिदे एत्तियमद्वाणं गंतून होंति त्ति जाणावण मागदा अवहारो किमट्टमागदो ? एक्केक्का वग्गणा दव्वटुपदेसदाहि सव्ववग्गणाणं केवडिओ भागो त्ति जाणावणट्टमागदो । जवमज्झपरूवणा किमट्टमागदा ? विसेसाहियकमेण गच्छमाणाणं वग्गणाणं कम्हि उद्देसे पदेसं पडुच्च जवमज्झं होदि किं वा ण होदित्ति पुच्छिदे एत्तियमद्धाणं गंतूण जवमज्झं होदि त्ति जाणावणटुमागदा । पदमीमांसा किमट्टमागदा ? सव्ववग्गणाणमुक्कस्साणुक्कस्सजहण्णाजहण्णादिपदाणं गवेसण -- मागदा अप्पा बहुगपरूवणा किम मागदा ? तेवीस वग्गणदव्वपदेसवाणं थोवबहुत्त परूवणट्ट मागदा ।
वग्गणाति तत्थ इमाणि वग्गणाए सोलस अणुओगद्दाराणि - वग्गणणिक्खेवे वग्गणणयविभासणदाए वग्गणपरूवणा वग्गणणिरूवणा, वग्गणधुवाधुवाणुगमो वग्गणसांतरणिरंत राणुगमो वग्गणओजजुम्मागमो वग्गणखेत्ताणुगमो वग्गणफोसणाणुगमो वग्गणकालाणु
समाधान- परमाणुरूप पुद्गलद्रव्यवर्गणासे कितनी दूर जानेपर दूना होता है या द्विगुणाहीन होता है ऐसा पूछने पर इतना स्थान जाकर दूना या आधा होता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए यह अनुयोगद्वार आया है ।
शंका- अवहारअनुयोगद्वार किसलिए आया है ?
समाधान- एक एक वर्गगा द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताकी अपेक्षा सब वर्गणाओंका कितने वाँ भाग है इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह अनुयोगद्वार आया है ।
शंका- यवमध्यप्ररूपणा किसलिए आई है ?
समाधान- विशेषाधिकक्रमसे जाती हुई वर्गणाओंका किस स्थानपर प्रदेशोंकी अपेक्ष यवमध्य होता है अथवा नहीं होता है ऐसा पूछनेपर इतना स्थान पर जाकर यवमध्य होता इस बातका ज्ञान करानेके लिए यह अनुयोगद्वार आया 1
शंका- पदमीमांसा अनुयोगद्वार किसलिए आया है ?
समाधान - सब वर्गणाओंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य आदि पदोंकी गवेषणा करने के लिए यह अनुयोगद्वार आया है ।
शंका- अल्पबहुत्वप्ररूपणा किसलिए आई है ?
समाधान-तेईस वर्गणाओंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता के अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए यह प्ररूपणा आई है ।
वर्गणाका प्रकरण है । उसके विषयमें ये सोलह अनुयोगद्वार होते हैं-वर्गणानिक्षेप, वर्गणानयविभाषणता, वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, वर्गणाध्रुवा ध्रुवानुगम, वर्गणासान्तर निरन्तरानुगम, वर्गणाओजयुग्मानुगम, वर्गणाक्षेत्रानुगम, वर्गणा स्पर्शनानुगम,
ता. प्रतो- हिया ( य ) कमेण, अ. आ. प्रत्योः '-हियाकमेण ' इति पाठ: ।
अ. प्रती 'सोलसमणिओगद्दाराणि ' इति पाठः ।
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५, ६, ७१.) बंधणाणुयोगद्दारे वग्गणाणिक्खेवपरूवणा गमो वग्गणअंतराणुगमो वग्गणभावाणुगमो वग्गणउवणयणाणुगमो वग्गणपरिमाणाणुगमो वग्गणभागाभागाणुगमो वग्गणअप्पाबहुए त्ति ॥ ७० ॥
संपहि वग्गणा दुविहा-अब्भंतरवग्गणा बाहिरवग्गणा चेदि । जा सा बाहिरवग्गणा सा पंचण्हं सरीराणं चदुहि अणुयोगद्दारेहि उवरि भणिहिदि । जा सा अब्भंतरवग्गणा सा दुविहा एगसेडि-णाणासेडिभेएण । तत्थ एगसेडिवग्गणाए इमाणि सोलस अणयोगहाराणि णादवणि भवंति । संपहि एदेहि सोलसअणुयोगद्दारेहि जहाकमेण वग्गणाणमणुगमं कस्सामो
वग्गणणिक्खेवे ति छविहे वग्गणणिक्खेवे- गामवग्गणा टुवणवग्गणा वव्ववग्गणा खेत्तवग्गणा कालवग्गणा भाववगगणा चेदि ॥७१॥ निश्चये क्षिपतीति निक्षेपः । सो किमळं कीरदे? प्रकृती प्ररूपणार्थम् । उक्तंच
__ अवगयणिवारणटुं पयदस्स परूवणाणिमित्तं च ।
संसयविणासणठें तच्चत्थवधारणटुं च ॥ १ ॥ छच्चेव णिक्खेवा एत्थ किमळं कदा?ण एस दोसो, छच्चेवे ति णियमाभावादो । वर्गणाकालानुगम, वर्गणाअन्तरानुगम, वर्गणाभावानुगम, वर्गणाउपनयनानुगम, वर्गणा परिमाणानुगम, वर्गणाभागाभागानुगम और वर्गणाअल्पबहुत्वानुगम ॥ ७० ॥
वर्गणा दो प्रकारकी है-आभ्यन्तरवर्गणा और बाह्यवर्गणा । जो बाह्यवर्गणा है वह पांच शरीरों सम्बन्धी चार अनुयोगद्वारोंके द्वारा आगे कहेंगे । जो अभ्यन्तरवर्गणा है वह एकश्रेणि और नानाश्रेणिके भेदसे दो प्रकारकी है। उनमें से एकश्रेणिवर्गणाके ये सोलह अनुयोगद्वारा ज्ञातव्य हैं । अब इन सोलह अनुयोगद्वारोंके द्वारा यथाक्रमसे वर्गणाओंका विचार करेंगे।
वर्गणानिक्षेपका प्रकरण है । वर्गणानिक्षेप छह प्रकारका है - नामवर्गणा, स्थापनावर्गणा, द्रव्यवर्गणा, कालवर्गणा और भाववर्गणा ॥ ७१ ॥
जो निश्चयमें रखता है वह निक्षेप है । शंका-वह निक्षेप किस लिये करते हैं ?
समाधान-प्रकृतका निरूपण करनेके लिये। कहा भी है- अप्रकृत अर्थका निराकरण करने के लिये, प्रकृत अर्थका कथन करनेके लिये, संशयका विनाश करनेके लिये, और तत्त्वार्थका निश्चय करने के लिये निक्षेप किया जाता है ।। १॥
शंका-यहाँ छह ही निक्षेप किसलिये किये गये हैं ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, निक्षेप छह ही होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है । * अ. प्रती ' भणिहिदि ' इति पाठः । ४ अ. आ. प्रत्योः ' -मणुगमणं ' इति पाठ! ©ता. अ. आ. प्रतिषु 'प्रकृति-' इति पाठः।
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५२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ७२.
वग्गणासद्दो णामवग्गणा । सो एसो त्ति बुद्धीए वग्गणासरूवेण संकप्पिदत्थो ढवणवग्गणा । दव्ववग्गणा दुविहा आगम-णोआगमदव्ववग्गणाभएण । वग्गणापाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमदव्ववग्गणा णाम । णोआगमदव्ववग्गणातिविहा जाणुगसरीर-भवियतव्वदिरित्त-णोआगमदव्ववग्गणाभेएणा जाणगसरीर-भवियदव्ववग्गणाओ सुगमाओ। तवदिरित्त-दव्ववग्गणा दुविहा- कम्मवग्गणा पोकम्मवग्गणा चेदि । तत्थ कम्मवग्गणा णाम अटुकम्मक्खंधवियप्पा । सेसएक्कोणवीसवग्गणाओ णोकम्मवग्गणाओ। एगागासोगाहणप्पहुडि पदेसुत्तरादिकमेण जाव देसूणघणलोगे ति ताव एदाओ खेत्तवग्गणाओ। कम्मदव्वं पडुच्च समयाहियावलियप्पहुडि जाव कम्मदिदि ति णोकम्मदव्वं पडुच्च एगसमयादि जाव असंखेज्जा लोगा ति ताव एदाओ कालवग्गणाओ। भाववग्गणा दुविहा आगम-णोआगमभाववग्गणाभेएण। वग्गणापाहुडजाणगो उवजुत्तो आगमभाववग्गणा। ओदइयादिपंचण्णं भावाणं जे भेदा ते णोआगमभाववग्गणा । एवं वग्गणाणिक्खेवे त्ति समत्तमणयोगद्दारं*।
वग्गणणयविभासणदाए को णओ काओ वग्गणाओ इच्छदि । णेगम-ववहार-संगहा सव्वाओ ।। ७२ ॥
कुदो ? दवट्ठियाणं तिग्णमेसि णयाणं विसए छण्णं णिक्खेवाणमत्थित्तं पडि • वर्गणाशब्द नामवर्गणा है। वह यह है' इस प्रकार बुद्धि द्वारा वर्गणारूपसे संकल्पित अर्थ स्थापनावर्गणा है। द्रव्यवर्गणा दो प्रकारको है- आगमद्रव्यवर्गणा और नोआगद्रव्यवर्गणा । वर्गणाप्राभूतको जाननेवाला किन्तु वर्तमान में उसके उपयोगसे रहित जीव आगमद्रव्य वर्गणा है। नोआगमद्रव्यवर्गणा तीन प्रकारकी है - ज्ञा यकशरीरनोआगमद्रव्यवर्गणा, भावि. नोआगमद्रव्यवर्गणा और तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यवर्गणा । ज्ञायकशरीर और भाविनोआगमद्रव्यवर्गणायें सुगम हैं। तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यवर्गणा दो प्रकारको है-- कर्मवर्गणा और नोकर्मवर्गणा। उनमें से आठ प्रकारके कर्मस्कन्धोंके भेद कर्मवर्गणा है, तथा शेष उन्नीस प्रकारकी वर्गणायें नोकर्मवर्गणायें हैं। एक आकाशप्रदेशप्रमाण अवगाहनासे लेकर प्रदेशोत्तर आदिके क्रमसे कुछ कम घनलोक तक ये सब क्षेत्रवर्गणायें हैं। कर्मद्रव्य की अपेक्षा एक समय अधिक तक आवलिसे लेकर उत्कृष्ट कर्मस्थिति तक और नोकर्मद्रव्यकी अपेक्षा एक समयसे लेकर असख्यात लोकप्रमाण काल तक ये सब कालवर्गणायें हैं। भाववर्गणा दो प्रकारकी है- आगमभाववर्गणा और नोआगमभाववर्गणा । वर्गणाप्राभतको जाननेवाला और वर्तमान में उसके उपयोगसे युक्त जीव आगमवर्गणा है । औदयिक आदि पाँच भावोंके जो भेद हैं वे सब नोआगमभाववर्गणा हैं । इस प्रकार वर्गणानिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
वर्गणानयविभाषणताका प्रकरण है-- कौन नय किन वर्गणाओंको स्वीकार करता है ? नैगम, व्यवहार संग्रहनय सब वर्गणाओंको स्वीकार करते हैं ।। ७२ ।। ___ क्योंकि, इन तीनों द्रव्यार्थिक नयोंके छ हों निक्षेप विषय हैं इस बातक स्वीकार करने में कोई * ता. प्रतो :-प्पहुडि कम्मदिदि ' इति पाठ: 1 * ता. प्रतो '-दारं (१) ।' इति पाठः ।
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५, ६, ७५.) बंधणाणुयोगद्दारे वग्गणापरूवणादिअणुयोगद्दारणिद्देसो (५३ विरोहाभावादो।
उजुसुदो ट्ठवणवग्गणां णेच्छदि ।। ७३ ॥ अण्णदवस संकप्पवसेण अण्णदव्वसरूवावत्तिविरोहादो। सद्दणओ णामवग्गणां भाववग्गणां च इच्छदि ।। ७४॥
एदस्स णयस्स विसए अण्णेसि णिखेवाणमभावादो । एत्थ केण णिक्खेवेण पयदं ? णोआगमपोग्गलदव्वणिक्खेवेण पय, जीव-धम्माधम्म-कालागासदव्वर वग्गणाहि एत्थ पओजणाभावादो।
वग्गणादव्वसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि चोद्दस अणुयोगद्दाराणिवग्गणापरूवणा वग्गणाणिरूवणा वग्गणाधुवाधुवाणुगमो वग्गणासांतरणिरंतराणुगमो वग्गणाओजजुम्माणुगमो वग्गणाखेत्ताणुगमो वग्गणाफोसणाणुगमो वग्गणाकालाणुगमो वग्गणाअंतराणुगमो वग्गणाभावाणुगमो वग्गणाउवणयणाणुगमो वग्गणापरिमाणाणुगमो वग्गणाभागाभागाणुगमो वग्गणाअप्पाबहए त्ति ॥ ७५ ।।
वगणापरूवणं सोलसेहि अणुयोगद्दारेहि कहामो त्ति पइज्जां काऊण पुणो तस्थ
विरोध नहीं आता।
ऋजुसूत्रनय स्थापनावर्गणाको स्वीकार नहीं करता ।। ७३ ।। क्योंकि, संकल्पवश अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपसे परिवर्तन होने में विरोध आता है।
शब्दनय नामवर्गणा और भाववर्गणाको स्वीकार करता है ॥ ७४ ।। क्योंकि, इस नयके विषय अन्य निक्षेप नहीं हैं। शका- यहाँ किस निक्षेपका प्रकरण है ?
समाधान-नोआगमपुद्गलद्रव्यनिक्षेपका प्रकरण है; क्योंकि, यहाँपर जीव, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्यवर्गणाओंसे प्रयोजन नहीं है।
वर्गणाद्रव्यसमुदाहारका प्रकरण है। उसमें ये चौदह अनुयोगद्वार हैं- वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, वर्गणाध्रुवाध्रुवानुगम, वर्गणासान्तर निरन्तरानुगम, वर्गणाओजयुग्गानगम, वर्गणाक्षेत्रानुगम, वर्गणास्पर्शनानुगम, वर्गणाकालानुगम, वर्गणाअन्तरानुगम, वर्गणाभावानुगम, वर्गणाउपनयनानुगम, वर्गणापरिमाणानुगम, वर्गणाभागाभागानुगम और वर्गणाअल्पबहुत्वानु गम ॥ ७५ ॥
शंका-वर्गणाप्ररूपणा सोलह अनुयोगद्वारोंके द्वारा करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा वरके फिर वहाँ
४ अ. प्रतो-कालागमदब्ब- 'इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
५४ )
( ५, ६, ७६.
आइल्लाणं दोष्णं चैव अणुओगद्दाराणं परूवणं काऊण सेसतत्थतणचोद्दसेहि अणुओगद्दारेहि वग्गणपरूवणमकाऊण वग्गणदव्वसमुदाहारो किमिदि वोत्तुमारद्धो ? ण वग्गणपरूवणा वग्गणाणमेगसेड भणदि । वग्गणदव्वसमुदाहारो पुण वग्गणाणं णाणेगसेडी भद, तेण वग्गणदन्त्र समुदाहारपरूवणा वग्गणपरूवणाविणाभाविणि त्ति कट्टु वग्गणदव्वसमुदाहारो वोत्तमाढत्तो; * अण्णहा गंथबहुत्तभएण पुनरुत्तदोसप्प संगादो । वग्गणपरूवणदाए इमा एयपदेसियपरमाणुषोग्गलदव्ववग्गणा णाम ॥ ७६ ॥
"
एत्थ ताव एगसेमिस्सिदूण वग्गणपरूवणं कस्सामो- एगपदे सियपोग्गलदव्ववग्गणा परमाणुसरूवा ; अण्णहा एगपदेसिय त्ति विसेसणाणुववत्तीए परमाणू च अपच्चवखो; 'व इंदिए गेज्झ' * इदि वयणादो । तदो तत्थ इमा इदि पच्चक्खणिद्दसो ण घडदे ? ण, आगमपमाणेण सिद्धपरमाणुविसयबोहे पच्चक्खे संते पच्चक्खणिद्दे सोववत्तीए परियम्मे परमाणू अपदेसो त्ति वृत्तो, एत्थ पुण परमाणू एयपदेसो त्ति भणिदो कधमेदेसि सुत्ताणं ण विरोहो ? ण एस दोसो; एगपदेसं मोत्तूण विदियादिपदेसाणं तत्थ पडिहरणादो । न विद्यन्ते द्वितीयादयः प्रदेशाः यस्मिन् सोऽप्रदेशः परमाणुप्रारम्भके दो ही अनुयोगद्वारोंका कथन करके और शेष चौदह अनुयोगद्वारोंके द्वारा वर्गणाका कथन न करके वर्गेणाद्रव्यसमुदाहारका कथन किसलिए किया जा रहा है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, वर्गणाप्ररूपणा अनुयोगद्वार वर्गणाओंकी एक श्रेणिका कथन करता है, किन्तु वर्गणाद्रव्यसमुदाहार वर्गणाओंकी नाना और एक श्रेणियोंका कथन करता है, इसलिए वर्गणाद्रव्यसमुदाहारप्ररूपणा वर्गणाप्ररूपणाकी अविनाभाविनी है ऐसा समझ कर वर्गणाद्रव्यसमुदाहारका कथन आरम्भ किया है । अन्यथा ग्रन्थके बहुत बढ़ जानेका भय था जिससे पुनरुक्त दोनका प्रसंग आता ।
वर्गणाकी प्ररूपणा करनेपर यह एकप्रदेशी परमाणुपुद् गलद्रव्यवर्गणा है । ७६ ॥
यहाँ सर्व प्रथम श्रेणिका अवलम्बन लेकर वर्गणाका कथन करते हैं-- एकप्रदेशी पुद्गलद्रव्यवर्गणा परमाणुस्वरूप होती है; अन्यथा 'एकप्रदेशी' यह विशेषण नहीं बन सकता । शंका- परमाणु अप्रत्यक्ष होता है; क्योंकि, 'उसका इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होता ' ऐसा सूत्रवचन है । इसलिये उसके लिये सूत्रमें 'इमा' ऐसा प्रत्यक्षनिर्देश नहीं बन सकता ? समाधान- नहीं, क्योंकि, आगमप्रमाणसे सिद्ध परमाणुविषयक ज्ञानके प्रत्यक्षरूप होनेपर ' इमा' इस प्रकार प्रत्यक्ष निर्देश बन जाता है ।
शका - परिकर्म में परमाणुको अप्रदेशी कहा है परन्तु यहाँपर उसे एकप्रदेशी कहा हैं, इसलिये इन दोनों सूत्रोंमें विरोध कैसे नहीं होगा ?
ܘ
समाधान- यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, परमाणुके एकप्रदेशको छोड़कर द्वितीयादि प्रदेश नहीं होते इस बातका परिकर्म में निषेध किया है। जिसमें द्वितीयादि प्रदेश नहीं हैं वह
ता. आ. प्रत्यो: 'हारो त्ति किमिदि इति पाठ: ।
-मादत्तादो' इति पाठः ।
अ. प्रती ' -मादत्तो आ प्रती
ता. प्रतो 'इंदिग्रगेज्झं' इति पाठः ।
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५, ६, ७७. ) बंधणाणुयोगद्दारे दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा (५५ रिति । अन्यथा खरविषाणवत् परमाणोरसत्त्वप्रसड्.गात् । कधं परमाणुस्स पोग्गलत्तं ? अण्णेहि मेलणसत्तिसंभवादो। परमाणूणं परमाणुभावेण सव्वकालमवट्ठाणाभावादो दव्वभावो | जुज्जदे ? ण, पोग्गलभावेण उप्पाद-विणासवज्जिएण परमाणूणं पि दव्यत्तसिद्धीदो।
इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम ।। ७७॥ दोण्णं परमाणूणं अजहण्णणिद्ध-ल्हुक्खगुणाणं समुदयसमागमेण दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदववग्गणा होदि । परमाणणं समागमो किमेगदेसेण होदि आहो सव्वप्पणा? ण ताव सव्वप्पणा; अणंताणं पि परमाणूणं समागमेण परमाणमेतपरिमाणप्पसंगादोण च एवं; सेसासेसवग्गणाणमभावप्पसंगा। ण एगदेसेण समागमो वि परमाणुस्स सावयवत्तप्पसंगादो। ण तं पि; अणवत्थापसंगादो। णाणवत्था वि; सयलथूलकज्जाणमणुप्पत्तिसंगादो। ण च एगपदेसाणं दोण्हं परणाणणं सव्वप्पणा समागमं मोत्तण एगदेसेण समागमो अत्थि; बिदियादिपदेसाभावादो त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-दवट्ठियअप्रदेश परमाणु है यह उसकी व्युत्पत्ति है । यदि 'अप्रदेश' पदका यह अर्थ न किया जाय तो जिस प्रकार गधेके सींगोंका असत्त्व है उसी प्रकार परमाणु के भी असत्त्वका प्रसंग आता है।
शंका-- परमाणु पुद्गलरूप है यह बात कैसे सिद्ध होती है ?
समाधान--- उसमें अन्य पुद्गलोंके साथ मिलनेकी शक्ति सम्भव है, इससे सिद्ध होता है कि परमाणु पुद्गलरूप है ।
शंका-- परमाणु सदा काल परमाणुरूपसे अवस्थित नहीं रहते इसलिये उनमें द्रव्यपना नहीं बनता ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, परमाणुओंका पुद्गलरूपसे उत्पाद और विनाश नहीं होता इसलिये उनमें भी द्रव्यपना सिद्ध होता है।
यह द्विप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा है ॥ ७७ ॥
अजघन्य स्निग्ध और रूक्ष गुणवाले दो परमाणुओंके समुदायसमागमसे द्विप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा होती है।
___ शंका-- परमाणुओंका समागम क्या एकदेशेन होता है या सर्वा मना होता है ? सर्वात्मना तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, ऐसा होनेपर अनन्त परमाणुओंका भी यदि समागम हो जाय तो भी परमाणुमात्र परिणाम प्राप्त होता है। पर ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेपर परमाणुवर्गणाके सिवा शेष सब वर्गणाओंका अभाव प्राप्त होता है। एकदेशेन समागम भी नहीं बनता, क्योंकि, ऐसा होनेपर परमाणु सावयव प्राप्त होता है। यदि परमाणुको सावयव माना जाता है तो अनवस्था दोष आता है। अनवस्था नही आवे यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर सब स्थूल कार्योकी अनुत्पत्तिका प्रसंग आता है । और एकप्रदेशी दो परमाणुओंके सर्वात्मना समागमको छोडकर एकदेशेन समागम बन नहीं सकता, क्योंकि, परमाणुके द्वितीयादि प्रदेश नहीं पाये जाते ?
प्रतौ । परिमाणत्तप्पसंगादो' इति पाठः।
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५६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ७७.
णए अवलंबिज्जमाणे दोण्णं परमाणणं सिया सव्वप्पणा समागमो; णिरवयवत्तादो। जे जस्स कज्जस्स आरंभया परमाणू ते तस्स अवयवा होति । तदारद्ध कज्ज पि अवयवी होदि । ण च परमाणु अनुहितो णिप्पज्जदि, तस्त आरंभयाणमण्णेसिमभावादो। भावे वा ण एसो परमाण; एत्तो सुहमाणमसि संभवादो । ण च एगसंखंकिर्याम्म परमाणम्मि बिदियादिसंखा अस्थि; एक्कस्स दुब्भावविरोहादो। कि च जदि परमाणुस्स अवयवो अस्थि तो परमाणुणा अवविगा होदव्वं । ण च एवं; अवयव विभागेण अवयवसंजोगस्स विणासे संते परमाणुस्स अभावप्पसंगादो । ण च एवं; कारणाभावेण सयलथलकज्जाणं पि अभावप्पसंगादो। ण च कप्पियसरूवा अवयवा होंति; अव्ववत्थापसंगादो । तम्हा परमाणुणा गिरवयवेण होदव्वं । तदो सिद्धो सव्वप्पणा परमाणूणं सिया समागमो। ण च णिरवयवपरमाणहितो थूलकज्जस्स अणुप्पत्ती; गिरवयवाणं पि परमाणणं सवप्पणा समागमेण थूलकज्जप्पत्तीए विरोहासिद्धोदो। पज्जवट्टियणएर अवलंबिज्जमाणे सिया एगदेसेण समागमो । ण च परमाणूणमवयवा णस्थि; उरिमहेटिममज्झिमोवरिमोवरिमभागाणमभावे परमाणुस्स वि अभावप्पसंगादो। ण च एदे भागा
समाधान-- यहाँ इस शंकाका समाधान करते हैं कि द्रव्याथिक नयका अवलम्बन करनेपर दो परमाणुओंका कथंचित् सर्वात्मना समागम होता है, क्योंकि, परमाणु निरवयव होता है। जो परमाणु जिस कार्यके आरम्भक होते हैं वे उसके अवयव होते हैं और उनके द्वारा आरम्भ किया गया कार्य अवयवी होता है। परमाणु अन्यसे उत्पन्न होता है यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, उसके आरम्भक अन्य पदार्थ नहीं पाये जाते। और यदि उसके आरम्भक अन्य पदार्थ होते हैं ऐसा माना जाता है तो यह परमाणु नहीं ठहरता, क्योंकि, इस तरह इससे भी सूक्ष्म अन्य पदार्थों का सद्भाव सिद्ध होता है । एक संख्यावाले परमाणु में द्वितीयादि संख्या होती है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, एकको दोरूप मानने में विरोध आता है। दूसरी बात- यदि परमाणुके अवयव होते हैं ऐसा माना जाय तो परमाणुको अवयवी होना चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, अवयवके विभागद्वारा अवयवोंके संयोगका विनाश होनेपर परमाणुका अभाव प्राप्त होता है। पर ऐसा है नहीं, क्योंकि, कारणका अभाव होनेसे सब स्थल कार्योंका भी अभाव प्राप्त होता है। परमाणुके कल्पितरूप अवयव होते हैं, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इस तरह माननेपर अव्यवस्था प्राप्त होती है। इसलिये परमाणुको निरवयव होना चाहिये। अत: सिद्ध होता है कि परमाणुओंका कथंचित् सर्वात्मना समागम होता है। निरवयव परमाणुओंसे स्थूल कार्यकी उत्पत्ति नहीं बनेगी यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, निरवयव परमाणुओंके सर्वात्मना समागमसे स्थूल कार्यकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता ।
पर्यायाथिकनयका अवलम्बन करनेपर कथंचित् एकदेशेन समागम होता है। परमाणुके अवयव नहीं होते यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, यदि उसके उपरिम, अधस्तन, मध्यम और उपरिमोपरिम भाग न हों तो परमाणुका ही अभाव प्राप्त होता है। ये भाग कल्पितरूप होते हैं यह
8 अ. प्रती 'ट्ठियाणए ' इति पाठः ]
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५, ६, ७८. ) बंधणाणुयोगद्दारे तिपदेसियादिपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणाओ (५७ संकप्पियसरूवा; उडाधोमज्झिमभागाणं उवरिमो वरिमभागाणं च कप्पणाए विणा उवलंभादो। ण च अवयवाणं सव्वत्थ विभागेण होदव्वमेवे त्ति णियमो, सयलवत्थूणमभावप्पसंगादो। ण च भिण्णपमाणगेज्झाणं भिण्णदिसाणं च एयत्तमस्थि, विरोहादो। ण च अवयवेहि परमाणू णारद्धो, अवयवसमूहस्सेव परमाणुत्तदसणादो। ण च अवयवाणं संजोगविणासेण होदव्वमेवे ति णियमो, अण्णादिसंजोगे तदभावादो। तदो सिद्धा दुपदेसियपरमाणपोग्गलदव्ववग्गणा । एसा परूवणा उवरि सम्वत्थपरूवेदव्व।।
एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय-छप्पदेसिय-सत्तपदेसियअट्ठपदेसिय-णवपदेसिय-दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसियपरित्तपदेसिय-अपरित्तपदेसिय-अणंतपदेसिय-अणंताणंतपदेसियपरमाणपोग्गलदव्ववग्गणा णाम ।। ७८ ॥
पुवपरूविदएयपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा* एयवियप्पा। दुपदे सियपरकहना ठीक नहीं है, क्योंकि, परमाणु ऊर्श्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग तथा उपरिमोपरिमभाग कल्पनाके विना भी उपलब्ध होते हैं। तथा परमाणु के अवयव हैं इसलिये उनका सर्वत्र विभाग ही होना चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, इस तरह माननेपर तो सब वस्तुओंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है । जिनका भिन्न भिन्न प्रमाणोंसे ग्रहण होता है, और जो भिन्न भिन्न दिशावाले हैं वे एक हैं यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर विरोध आता है । अवयवोंसे परमाणु नहीं बना है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, अवयवोंके समूहरूप ही परमाणु दिखाई देता है। तथा अवयवोंके सयोगका विनाश होना चाहिये यह भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि, अनादि संयोगके होनेपर उसका विनाश नहीं होता। इसलिये द्विप्रदेशी परमाणु पुद्गल द्रव्यवर्गणा सिद्ध होती है । यह प्ररूपणा आगे सर्वत्र करनी चाहिये।
विशेषार्थ- यहाँ प्रसंगसे परमाणु सावयव है कि निरवयव इस बातका विचार किया गया है। परमाणु एक और अखण्ड है, इसलिये तो वह निरवयव माना गया है और उसमें ऊर्ध्वादि भाग होते हैं इसलिये वह सावयव माना गया है। द्रव्याथिकनय अखण्ड द्रव्यको स्वीकार करता है और पर्यायाथिकनय उसके भेदोंको स्वीकार करता है। यही कारण है कि द्रव्याथिकनयकी अपेक्षा परमाणुको निरवयव कहा है और पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा सावयव कहा है। परमाणुका यह विश्लेषण केवल बुद्धिका व्यायाम नहीं है, किन्तु वास्तविक है ऐसा यहाँ समझना चाहिये।
इस प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पञ्चप्रदेशी, षट्प्रदेशी, सप्तप्रदेशी, अष्टप्रदेशी, नवप्रदेशी, दशप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, परीतप्रदेशी, अपरीतप्रदेशी. अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा होती है ।। ७८ ॥
पहले कही गई एकप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा एक प्रकारकी होती है । तथा द्विप्रदेशी * अ. आ. प्रत्योः -परिमो · इति पाठः। ता. प्रतौ । उवरिमसव्वत्थ ' इति पाठः 1 * ता. प्रती '-वग्गणा (ए)' इति पाठः।
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५८)
छक्खंडागमे वग्गणा-खडं
( ५, ६, ७८
माणपोग्गलदव्ववग्गणप्पहडि जाव उक्कस्ससंखेज्जपदेसियदव्ववग्गणे त्ति ताव एसा संखेज्जपदेसियवग्गणा णाम रूवणक्कस्ससंखेज्जमेत्तवियप्पा । एवमेदाओ दोणि वग्गणाओ२। उक्कस्ससंखेज्जपदेसियपरमाणुपोग्गलवग्गणाए उरि एगरूवे पक्खित्ते जहणिया असंखेज्जपदेसियदव्ववग्गणा होदि । पुणो रूवत्तरकमेण असंखेज्जपदेसियदव्ववग्गणा ताव गच्छंति जाव उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जपदेसियदव्ववग्गणे त्ति । उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जादो उक्कस्ससंखेज्जे सोहिदे सुद्धसेसम्मि जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाओ चेव असंखेज्जपदेसियवग्गणाओ । एदाओ संखेज्जपदेसियवग्गणाहितो असंखेज्जगणाओ। को गुणगारो? असंखेज्जा लोगा । एदाओ सवाओ वि तदिया असंखेज्जपदेसियवग्गणा होदि ३ ।
__परित्त-अपरित्तवग्गणाओ सुत्तद्दिवाओ अणंतपदेसियवग्गणासु चेव णिवदंति, अणंत-अणंताणतेहितो वदिरित्तपरित्त अपरित्ताणमभावादो। तेण तस्विसेसणभावेण परित्तापरित्तणिद्देसो परवेयन्वो।
उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जपदेसियपरमाणपोग्गलदव्ववग्गणाए उरि एगरूवे पक्खित्ते जहणिया अणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा होदिातदो रूवत्तरकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धेहितो अणंतगुणहीणमद्धाणं गच्छदि । सगजहण्णादो अणंतपदेसिय. उक्कस्सवग्गणाणंतगुणा को गुणगारो? अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिम. परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणासे लेकर उत्कृष्ट संख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणा तक यह सब संख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणा है । इसके एक कम उत्कृष्ट संख्यातभेद होते हैं । इस प्रकार ये दो वर्गणायें हुईं।२। उत्कृष्ट संख्यातप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणामें एक अंकके मिलाने पर जघन्य असंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणा होती है । पुनः उत्तरोत्तर एक एकके मिलाने पर असंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणायें होती हैं और ये सब उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणाके प्राप्त होने तक होती हैं। उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातमेंसे उत्कृष्ट संख्यातके न्यून करने पर शेष में जितने रूप ( अंक ) हैं उतनी ही असंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणायें होती हैं । ये संख्यातप्रदेशी वर्गणाओंसे असंख्यातगुणी होती हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यातलोक गुणकार है । ये सब ही तीसरी असंख्यातप्रदेशी वर्गणा है । ३।
सूत्र में कही गई परीतवर्गणायें और अपरीतवर्गणायें अनन्तप्रदेशी वर्गणाओंमें ही सम्मिलित हैं, क्योंकि, अनन्त और अनन्तानन्तसे अतिरिक्त परीत और अपरीत संख्या उपलब्ध नहीं होता। इसलिये अनन्तके विशेषणरूपसे हो परीत और अपरीतके निर्देशका कथन करना चाहिये ।
उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातप्रदेशी परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणामें एक अंकके मिलाने पर जघन्य अनन्तप्रदेशी परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणा होती है । पुनः क्रमसे एक एककी वृद्धि होते हुये अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्थान आगे जाते हैं । अपने जघन्यसे अनन्तप्रदेशी उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी होती है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है।
"अ. आ. प्रत्योः 'तव्विसेसेण-' इति पाठः ।
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५, ६, ८०.)
बंधणाणुयोगद्दारे अगहणदव्ववग्गणा भाग मेत्तो। परमाणपोग्गलदब्यवग्गणसहो ति-चदुपदेसियादिसु सम्वत्थ जोजेयव्वो अंतदीवयत्तादो । एबमेसा अपंतपदेसियदव्ववग्गणा चउत्थी ४ । कुदो? एदासिमेयत्तं ? अणंतभावेण । एदाओ चत्तारि वि वग्गणाओ अगेज्झाओ।
अगंताणतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणाणमुवरि आहारदव्ववग्गणा णाम ॥ ७९ ॥
उकास्सअणंतपदेसियदव्यवग्गणाए उवरि एगरूवे पक्खित्ते जहणिया आहारदव्ववग्गणा होदि । तदो रूवुत्तरकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगण* सिद्धाणमणंतभागमेत्तवियप्पे गंतूण समप्पदि । जहण्णादो उक्कस्सिया विसेसाहिया । विसेसो पुण अभवसिद्धिएहि अणंतगणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो होतो वि आहार उक्कस्सदम्ववग्गणाए अणंतिमभागो । कधमेदं णव्वदे? अविरुद्धाइरियवयणादो। ओरालिय.. वेउव्विय- आहारसरीरपाओग्गपोग्गलक्खंधाणं आहारदव्ववग्गणा ति सण्णा । एवमेसा पंचमी वग्गणा ५ ।
आहारदव्ववग्गणाणमुवरि अगहणदव्ववग्गणा णाम ॥ ८० ॥ उक्कस्सआहारदव्दवग्गणाए उरि एगरूवे पक्खित्ते पढ़मअगहणदव्ववग्गणाए
__ सूत्र में आया हुआ 'परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणा' शब्द त्रिप्रदेशी और चतुःप्रदेशी आदि पदोंमें सर्वत्र जोड़ना चाहिये, क्योंकि वह अन्तदीपक है । इस प्रकार यह अनन्तप्रदेशी द्रव्यवर्गणा चौथी है । ४ । ये सब वर्गणायें एक क्यों हैं ? क्योंकि, ये सब अनन्तरूपसे एक हैं । ये चारों ही वर्गणायें अग्राह्य हैं।
विशेषार्थ-प्रथम परमाणुवर्गणा, दूसरी संख्यातवर्गणा, तीसरी असंख्यातवर्गणा और चौथी अनन्तवर्गणा ये चार प्रकारकी वर्गणायें अग्राह्य हैं। इसका यह आशय है कि जीव द्वारा इनका ग्रहण नहीं होता। शेष कथन सुगम है। अनन्तानन्तप्रदेशी परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणाके ऊपर आहारद्रव्यवर्गणा है । ७९॥
__उत्कृष्ट अनन्तप्रदेशी द्रव्यवर्गणायें एक अंकके मिलाने पर जघन्य आहार द्रव्यवर्गणा होती है। फिर एक अधिकके क्रससे अभव्योंसे अनन्तगणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण भेदोंके जाने पर अन्तिम आहार द्रव्यवर्गणा होती है । यह जघन्यसे उत्कृष्ट विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण होता हुआ भी उत्कृष्ट आहार द्रव्यवगंणाके अनन्तवें भागप्रमाण है।
शका यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-अविरुद्ध आचार्यों के वचनसे जाना जाता है ।
औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरके योग्य पुद्गल स्कन्धोंकी आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । इस प्रकार यह पाँचवीं वर्गणा है । ५।।
आहारद्रव्यवर्गणाके ऊपर अग्रहणद्रव्यवर्गणा है ॥ ८० ॥ उत्कृष्ट आहार द्रव्यवर्गणामें एक अंकके मिलाने पर प्रथम अग्रहण द्रव्यवर्गणासम्बन्धी अ. आ. प्रत्यो. ' -- मग भाग-' इति पाठः । * अ. प्रतो — गुणं ' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ८१. सव्वजहण्णवग्गणा होदि । तदो रूवृत्तरकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगण-सिद्धाणमणं. तभागमेत्तद्धाणं गंतूण उक्कस्सिया अगहणदव्यवग्गणा होदि । जहण्णादो उक्कस्सिया अणंतगुणा। को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो। एवमेसा छट्ठी वग्गणा ६ । कधमेदामि वग्गणाणमेयत्तं ? अगहणभावेण । पंचण्णं सरीराणं भासा-मणाणं च अजोग्गा जे पोग्गलक्खंधा तेसिमगहणवग्गणा त्ति सणा ।
अगहणदववग्गणाणमुवरि तेयादवववग्गणा णाम । ८१ ॥ उक्कस्सियाए अगहणदव्ववग्गणाए उवरि एगरूवे पक्खित्ते सवजहणिया तेजा. दव्ववग्गणा होदि। तदो रूवत्तरकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतभागमेत. मध्दाणं गंतूण उक्कस्सिया तेजइयसरीरदव्यवग्गणा होदि । जहण्णादो उक्कस्सा विसेसा. हिया । केत्तियमेत्तो विसेसो? अभवसिदिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो। एसा सत्तमी वग्गणा ७। एदिस्से पोग्गलक्खंधा तेजइयसरीरपाओग्गा तेणेसा गहणवग्गणा।
तयादवववग्गणाणमरि अगहणदव्ववग्गणा णाम ।। ८२ ॥ तेजइयसरीरउक्कस्सदव्य वग्गणाए उरि एगरूवे पक्खि ते बिदियअगहणदव्ववग्गणाए पढमिल्लिया सव्वजहण्णअगहणदव्ववग्गणा होदि। तदो रूवुत्तरकमेण अभवसिदिएहि अणंतगुण-सिध्दाणमणंतभागमेत्तमदाणं गंतूग बिदियअगहणवव्ववग्गणाए सर्वजघन्य वर्गणा होती है। फिर एक एक बढाते हुये अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्थान जाकर उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्यवर्गणा होती है। यह जघन्यसे उत्कृष्ट अनन्तगुणी होती है। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है। इस प्रकार यह छठी वर्गणा है । ६ ।
शंका-- इन वर्गणाओंमें एकत्व कैसे है ? समाधान -- अग्रहणपनेकी अपेक्षा इनमें एकत्व है।
पाँच शरीर तथा भाषा और मनके अयोग्य जो पुद्गलस्कन्ध हैं उनकी अग्रहणवर्गणा संज्ञा है।
अग्रहण द्रव्यवर्गणाके ऊपर तैजसशरीरद्रव्यवर्गणा है ॥ ८१ ।।
उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्यवर्गणामें एक अंकके मिलानेपर सबसे जघन्य तेजसशरीर द्रव्यवर्गणा होती है । पुनः एक एक अधिकके क्रमसे अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्थान जाकर उत्कृष्ट तैजसशरीरद्रव्यवर्गणा होती है । यह अपने जघन्यसे उत्कृष्ट विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है। यह सातवीं वर्गणा है । ७ । इसके पुद्गलस्कन्ध तेजसशरीरके योग्य होते हैं, इसलिये यह ग्रहणवर्गणा है।
तैजसशरीरद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर अग्रहण द्रव्यवर्गणा है ॥ ८२ ॥ उत्कृष्ट तेजसशरीर द्रव्यवर्गणामें एक अंकके मिलाने पर दूसरी अग्रहण द्रव्यवर्गणासंबंधी ४ ता. अ. आ. प्रतिष -मेदेसि ' इति पाठः |
अ. आ. प्रत्योः -सरीरपाओग्गा ' इति पाठ:1 *ता प्रतौ -सरीरदब्ध । इति पाठः ।
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५, ६, ८३. )
योगद्दारे भासादव्ववग्गणा
( ६१
उक्कस्सिया वग्गणा होदि । सगजहण्णादो सगउक्करसवग्गणा अनंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो एसा अट्ठमी वग्गणा ८ । पंचणं सरीराणं गहण #पाओग्गा ण होदित्ति अगहणवग्गणसण्णिदा । जहण्णादो उक्कस्वग्गणा अनंतगुणे ति कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो ।
अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि भासावव्ववग्गणा णाम । ८३ ।
अगहण उक्कस्सदव्ववग्गणाए उवरि एगरूवे पक्खिते सव्वजहणिया मातादव्ववग्गणा होदि । तदो रूवृत्तरकमेण अभवसिद्धिएहि अनंतगुण* सिद्धाणमणंत भागमत्तमद्वाणं गंतून भासादव्ववग्गणाए उक्कस्सिया दव्ववग्गणा होदि । जहण्णादो उक्कस्सा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तो विसेसो ? सगजहण्णवग्गणाए अनंतिमभागो । को पडिभागो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो । एसा णवमी वग्गणा९ । भासादव्ववग्गणाए परमाणुपोग्गलक्खंधा चदुष्णं भासानं पाओग्गा । पटह - भेरी काहलब्भगज्जणादिसद्दाणं पि एसा चैव वग्गणा पाओग्गा । कधं काहलादिसद्दाणं भासाववएसो ?
पहली सर्वजघन्य अग्रहणद्रव्यवर्गणा होती है । फिर आगे एक एक अधिकके क्रमसे अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण स्थान जाकर दूसरी अग्रहणद्रव्यवर्गणासम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । यह अपनी जघन्य वर्गणासे अपनी उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है । यह आठवी वर्गणा है । ८ । यह पाँच शरीरोंके ग्रहणयोग्य नहीं है इसलिये इसकी अग्रहण द्रव्यवर्गणा संज्ञा है ।
शंका- जघन्यसे उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है ।
अग्रहण द्रव्यवर्गणाओंके ऊपर भाषा द्रव्यवर्गणा है ॥ ८३ ॥
उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्यवर्गणा में एक अंकके प्रक्षिप्त करने पर सबसे जघन्य भाषा द्रव्यवर्गणा होती है । इससे आगे एक एक अधिकके क्रमसे अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्थान जाकर भाषा द्रव्यवर्गणासम्बन्धी उत्कृष्ट द्रव्यवर्गणा होती है । यह अपने जघन्यसे उत्कृष्ट विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण कितना है ? अपनी जघन्य वर्गणाका अनन्तवाँ भाग विशेषका प्रमाण | प्रतिभाग क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंका अनन्तवाँ भाग प्रतिभाग है । यह नौवीं वर्गणा है । ९ । भाषा द्रव्यवर्गणाके परमाणुपुद्गलस्कन्ध चारों भाषाओंके योग्य होते हैं तथा ढोल, भेरी, नगारा और मेघका गर्जन आदि शब्दोंके भी योग्य ये ही वर्गणायें होती हैं ।
शंका- नगारा आदिके शब्दोंकी भाषा संज्ञा कैसे है ?
* ता. प्रतो ' ( अ ) गहण - अ आ प्रत्यो: 'अगहण - ' इति पाठ । इति पाठ: । ता. प्रती वग्गणा ( ए ) इति पाठ |
ता. अ. आ. प्रतिषु - गुणों अ. प्रती ' पाओग्गपटह, इति पाठ:
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६२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ८४. ण, भासो व्व भासे त्ति उवयारेण काहलादिसद्दाणं पि तव्ववएससिद्धीदो ।
भासादव्ववग्गणाणमवरि अगहणदव्ववग्गणा जाम ॥ ८४ ।।
उक्कस्समासादव्ववग्गणाए उवरि एगरूवे पक्खित्ते तदियअगहणदग्धवग्गणाए सम्वजहणिया वग्गणा होदि । तदो रूवत्तरकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाण. मणंतभागमेत्तमद्धाणं गंतूण तदियअगहणदव्ववग्गणाए उक्कस्सिया वग्गणा होदि । सगजहण्णादो उक्कस्ता अणंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो । एसा दसमी वग्गणा १० । एदिस्से वि पोग्गलक्खंधा गहणपाओग्गा ण होति । कुदो? अण्णहा अगहणसण्णाणुववत्तीदो।
अगहणवत्ववग्गणाए उवरि मददव्ववग्गणा णाम ॥ ८५ ॥
तदियागहणदव्वउक्कस्सवग्गणाए* उवरि एगरूवे पक्खित्ते जहणिया मणदव्ववग्गणा होदि । तदो रूवुत्तरकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तमद्धाणं गंतूण उक्कस्सिया मणदव्ववग्गणा होदि । सगजहण्णवग्गणादो उक्कस्सवग्गणा विसेसाहिया। विसेसो पुण सव्वजहण्णमणदव्ववग्गणाए अणंतिमभागो। तस्स को पडिभागो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो। एसा एक्कारसमी वग्गणा ११ । एदीए वग्गणाए दव्वमणगिव्वत्तण कीरदे ।
समाधान-- नहीं, क्योंकि, भाषाके समान होनेसे भाषा है इस प्रकारके उपचारसे नगारा आदिके शब्दोंकी भी भाषा संज्ञा है।
भाषा द्रव्यवर्गणाओंके ऊपर अग्रहण द्रव्यवर्गणा है ।। ८४ ।।
उत्कृष्ट भाषा द्रव्यवर्गणामें एक अंकके मिलाने पर तीसरी अग्रहण द्रव्यवर्गणासम्बन्धी सबसे जघन्य वर्गणा होती है। इसके आगे एक एक अधिकके क्रमसे अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्थान जाकर तीसरी अग्रहणद्रव्यवर्गणासम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है। यह अपने जघन्यसे उत्कृष्ट अनन्तगुणी होती है। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है । यह दसवीं वर्गणा है । १० । इसके भी पुद्गलस्कन्ध ग्रहणयोग्य नहीं होते हैं, क्योंकि, ऐसा नहीं माननेपर इसकी अग्रहण संज्ञा नहीं बन सकती है। __ अग्रहण द्रव्यवर्गणाके ऊपर मनोद्रव्यवर्गणा है ॥ ८५ ॥
तीसरी उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्य वर्गणामें एक अकके मिलाने पर जघन्य मनोद्रव्यवर्गणा होती है। फिर आगे एक एक अधिकके क्रमसे अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्थान जाकर उत्कृष्ट मनोद्रव्यवर्गणा होती है। यह अपने जघन्यसे उत्कृष्ट वर्गणा विशेष अधिक है। तथा विशेषका प्रमाण सबसे जघन्य मनोद्रव्यवर्गणाका अनन्तवाँ भाग है । इसका प्रतिभाग क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण प्रतिभाग है । यह ग्यारहवीं वर्गणा है। ११ । इस वर्गणासे द्रव्यमनकी रचना करते हैं। * ता. प्रतो '-दव्ववग्गणाए ' इति पाठ:
1 0 अ. प्रती '-मणोणिवत्तणं ' आ. प्रतो '-मणोणिवत्तं ण' इति पाठः।
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५ ,६, ८८.)
वंधणाणुयोगद्दारे धुवक्खधदव्ववग्गणा
मणदव्ववग्गणाणमवरि अगहणदव्ववग्गणा णाम ॥ ८६ ॥
संपहि उक्कस्समगदव्ववग्गणाए उवरि एगरूवे पक्खित्ते चउत्थीए अगहणदव्ववग्गणाए सव्वजहणिया वग्गणा होदि । तदो पदेसुत्तरादिकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तमद्धाणं गंतूण चउत्थअगहणदत्ववग्गणाए उक्कस्सवग्गणा होदि । सगजहण्णवग्गणादो उक्कस्सिया वग्गणा अणंतगुणा। को गुणगारो? अभवसिद्धिएहि अणंतगणो सिद्धाणमणंतिमभागो। एसा बारसमी वग्गणा १२ महणपाओग्गा ण होदि, अप्पाहियपरिमाणत्तादो।
अगहणदव्ववग्गणाणमवरि कम्मइयदव्ववग्गणा णाम ॥८७॥
चउत्थीए अगहणदव्ववग्गणाए उकस्सदव्ववग्गणाए उवरि एगरूवे पक्खित्ते सव्वजहणिया कम्मइयसरीरकव्ववग्गणा होदि । तदो पदेसुत्तरादिकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणसिद्धाणमणंतभागमेत्तमद्धाणं गंतूण कम्मइयदव्ववग्गणाए उक्कस्सिया वग्गणा होदि । सगजहण्णवग्गणादो सगुक्कस्सिगा वग्गणा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तो विसेसो ? जहण्णकम्मइयवग्गणाए अणंतिमभागो। तस्स को पडिभागो? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो। एसा तेरसमी वग्गणा १३ । एदिस्से वग्गणाए पोग्गलवखंधा अट्टकम्मपाओग्गा ।
कम्मइयदव्ववग्गणाणमुवरि *धुवक्खंधदव्ववग्गणा णाम ॥८८॥ मनोद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर अग्रहण द्रव्यवर्गणा है ॥ ८६ ॥
उत्कृष्ट मनोद्रव्यवर्गणामें एक अंकके मिलाने पर चौथी अग्रहणद्रव्यवर्गणासम्बन्धी सबसे जघन्य वर्गणा होती है। इससे आगे एक एक प्रदेशके अधिक क्रमसे अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्थान जाकर चौथी अग्रहण द्रव्यनर्गणासम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । यह अपनी जघन्य वर्गणासे उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी है। गुणकार क्या है? अभव्योंसे अनन्तगुण। और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है । यह बारहवीं वर्गणा है । १२ । यह ग्रहणयोग्य नहीं होती है, क्योंकि, यह न्यूनाधिक परिणामवाली है।
अग्रहण द्रव्यवर्गणाओंके ऊपर कार्मण द्रव्यवर्गणा है ।। ८७ ।।
चौथी अग्रहण द्रव्यवर्गणासम्बन्धी उत्कृष्ट द्रव्यवर्गणामें एक अंकके प्रक्षिप्त करने पर सबसे जघन्य कार्मणशरीर द्रव्यवर्गणा होती है। आगे एक एक प्रदेश अधिकके क्रमसे अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण स्थान जाकर कार्मण द्रव्यवर्गणासम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है। यह अपनी जघन्य वर्गणासे अपनी उत्कृष्ट वर्गणा विशेष अधिक है । विशेषका प्रमाण कितना है । जघन्य कार्मणवर्गणाके अनन्तवें भागप्रमाण है। इसका प्रतिभाग क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण इसका प्रतिभाग हैं । यह तेरहवीं वर्गणा है । १३ । इस वर्गणाके पुद्गलस्कन्ध आठ कर्मोके योग्य होते हैं।
कार्मण द्रव्यवर्गणाओंके ऊपर ध्रुवस्कन्ध द्रव्यवर्गणा है ॥ ८८ ॥ * अ. आ. प्रत्यो: ' -क्खंधादव-' इति पाठ!)
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६४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ८९. एसो धुवक्खंधणिद्देसो अंतदोवओ । तेण हेट्रिमसव्ववग्गणाओ धुवाओ चेव अंतरविरहिदाओ ति घेत्तव्वं । एत्तो पहडि उरि भण्णमाणसव्ववग्गणासु अगहणभावो णिरंतरमणवावेदव्वो। संपहि कम्मइय उक्कस्सवग्गणाए एगरूवे पक्खित्ते जहणिया धवक्खंधदव्यवग्गणा होदि । तदो रूवत्तरकमेण सव्वजोवेहि अणंतगणमेत्तमद्धाणं गंतूणं धुवक्खंधदव्यवग्गणाए उक्कस्सिया वग्गणा होदि । सगजहणणवग्गणादो सगुक्कस्सिया वग्गणा अणंतगुणा । को गुणगारो? सव्वजोवेहि अणंतगुणो। एसा चोद्दसमी वग्गणा १४ । आहार तेजा* भासा मण-कम्मइयवग्गणाओ चेव एत्थ परूवेदव्वाओ, बंधणिज्जत्तादो, ण सेसाओ, तासि बंधणिज्जत्ताभावादो, ण सेसाओ। तासि बंधणिज्जत्ताभावादो ? ण, सेसवग्गणपरूवणाए विणा बंधणिज्जवग्गणार परूवणोवायाभावादो वदिरेगावगमणेण विणा णिच्छिदण्णयपच्चयपत्तीए अभावादो वा।
धुवक्खंधदव्ववग्गणाणमुवरि सांतरणिरंतरदश्ववग्गणा णाम । ८९ । अंतरेण सह णिरंतरं गच्छदि त्ति सांतरणिरंतरदव्ववग्गणासण्णा एदिस्से अत्थाणुगया। संपहि उक्कस्सधुवक्खंधवग्गणाए उवरि एगरूवे पक्खिते जण्णिया सांतरणिरंतरदव्ववग्गणा होदि। तदो रूवुत्तरकमेण सव्वजोवेहि अणंतगुणमेत्तमद्धाणं गंतूण सांतरणिरंतरदश्ववग्गणाए उकस्सवग्गणा होदि । सगजहण्णवग्गणादो सगुक्कस्सवगगा
यह ध्रुवस्कन्ध पदका निर्देश अन्तदीपक है । इससे पिछली सब वर्गणायें ध्रुव ही है अर्थात् अन्तरसे रहित हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहांसे लेकर आगे कही जानेवाली सब वर्गणाओंमें अग्रहणपनेकी निरन्तर अनुवृत्ति करनी चाहिए ।
उत्कृष्ट कार्मण वर्गणामें एक अंकके मिलाने पर जघन्य वस्कन्ध द्रव्यवर्गणा होती है । अनन्तर एक एक अधिकके क्रमसे सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थान जाकर ध्रुवस्कन्ध द्वव्यवगणासम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है। यह अपने जघन्य से अपनी उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है । यह चौदहवीं वर्गणा है । १४ ।
शंका-यहाँ पर आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा ही कहनी चाहिये, क्योंकि, वे बन्धनीय हैं। शेष वर्गणायें नहीं कहनी चाहिये, क्योंकि, वे बन्धनीय नहीं हैं ?
___ समाधान-नहीं, क्योंकि, शेष वर्गणाओंका कथन किये बिना बन्धनीय वर्गणाओंके कथन करनेका कोई मार्ग नहीं है । अथवा व्यतिरेकका ज्ञान हुये बिना निश्चित अन्वयके ज्ञान में प्रवृत्ति नहीं हो सकती, इसलिये यहाँ बन्धनीय व अबन्धनीय सब वर्गणाओंका निर्देश किया है।
ध्रुवस्कन्ध द्रव्यवर्गणाओंके ऊपर सान्तरनिरन्तर द्रव्यवर्गणा है ॥ ८९ ।।
जो वर्गणा अन्तरके साथ निरन्तर जाती है उसकी सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । यह सार्थक संज्ञा है। उत्कृष्ट ध्रुवस्कन्ध द्रव्यवर्गणामें एक अंकके मिलाने पर जघन्य सान्तरनिरन्तर द्रव्यवर्गणा होती है। आगे एक एक अंकके अधिक क्रमसे सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थान जाकर सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणासम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । यह अपनी जघन्य वर्गणासे
* ता० अ० प्रत्यो: 'तेज- ' इति पाठः। प्रतिष ‘वि एगबंधणिज्जवग्गणाणं ' इति पाठ: 1
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५, ६.९०. )
बंधणाणुयोगद्दारे पत्तेयसरी रदव्ववग्गणा
( ६५
अनंतगुणा । को गुणगारो ? सव्वजीवेहि अनंतगुणो । एसा पण्णारसमी वग्गणा १५ । एसा वि अगहणवग्गणा चेव, आहार-तेजा-भासा-मण-कम्माणमजोगत्तादो ।
सांतरणिरंतरदव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णवग्गणा नाम ॥ ९० ॥
अदीदाणादट्टमाणकालेसु एदेण सरूवेण परमाणुपोग्गलसंचयाभावादो धुवसुण्णदव्ववग्गणा त्ति अत्थाणुगया सण्णा । संपहि उक्कस्सांतरणिरंत रदव्ववग्गगाए उवरि परमाणुत्तरो परमाणुपोग्गलक्खंधो तिसु वि कालेसु णत्थि । दुपदेसुत्तरो वि णत्थि । एवं तिपदेसुत्तरादिकमेण सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तमद्वाणं गंतूण पढमधुवसुण्णवग्गणाए उक्कस्वग्गणा होदि । सगजहण्णवग्गणादो सगुक्कस्सिया वग्गणा अनंतगुणा । को गुणगारो ? सव्वजीवेहि अनंतगुणो । एसा सोलसमी वग्गणा १६ सव्वकालं सुण्णभावेण अवद्विदा ।
धुव सुण्णदव्ववग्गणाणमुवरि पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा णाम । ९१ | एक्क्स्स जीवस्स एक्कम्हि देहे उवचिदकम्म णोकम्मक्खंधो पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा णाम । संपहि उक्कस्सधुवसुण्णदव्ववग्गणाए उवरि एगरूवे पविखत्ते सव्वजहणिया पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा होदि । एसा जहणिया पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा कस्स होदि ? जो जोवो सुहुमणिगोदअपज्जत्तएसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेग
अपनी उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है । यह पन्द्रहवीं वर्गणा है । १५ । यह भी अग्रहणवर्गणा ही है; क्योंकि, यह आहार, तैजस, भाषा, मन और कर्मके अयोग्य है ।
सान्तर निरन्तरद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर ध्रुवशून्यवर्गणा है ।। ९० ।
अतीत, अनागत और वर्तमान काल में इस रूपसे परमाणु पुद्गलों का संचय नहीं होता, इसलिये इसकी ध्रुवशून्यद्रव्यवर्गणा यह सार्थक संज्ञा है । उत्कृष्ट सान्तरनिरन्तर द्रव्यवर्गणा के ऊपर एक परमाणु अधिक परमाणुपुद्गलस्कन्ध तीनों ही कालोंमें नहीं होता, दो प्रदेश अधिक भी नहीं होता, इस प्रकार तीन प्रदेश अधिक आदिके क्रमसे सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थान जाकर प्रथम ध्रुवशून्यवर्गणासम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । यह अपनी जघन्य वर्गणा से अपनी उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी है । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है । यह सोलहवीं वर्गणा है | १६ | जो सर्वदा शून्यरूपसे अवस्थित है |
ध्रुवशून्यद्रव्यवर्गणाओं के ऊपर प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा है ॥ ९१ ॥
एक एक जीवके एक एक शरीर में उपचित हुए कर्म और नोकर्मस्कन्धों की प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा संज्ञा है । अब उत्कृष्ट ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा में एक अंकके मिलाने पर जघन्य प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा होती हैं ।
शंका- यह जघन्य प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा किसके होती है ?
समाधान- जो जीव सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकों में पल्यका असंख्यातवां माग कम कर्मस्थिति
श्र. आ . प्रत्यो ' - कालसुण्णभावेण इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ९१. ऊणियं कम्मदिदि विद कम्मंसियलक्खणेण अच्छिदो। पुणो पलिदोवमस्स असंखे. ज्जदिमागमेताणि संजमासंजमकडयाणि ततो विसेसाहियाणि सम्मत्त-अणंताणुबंधि. विसंजोयणकंडयाणि अट्ठसंजमकंड याणि चदुक्खुत्तो कसाय-उवसामणं च कादूण पुणो अपच्छिमे भवग्गहणे पुत्रकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो। तदो गणिक्खमणादिअ. टुवस्संतोमुत्तमहियाणमवरि सम्मत्तं संजमं च जुगवं घेतण* सजोगिजि गो जादो। तदो देसूणपुवकोडि सव्वमोरालिय-तेजइयसरीराणं अदिदिगलणाए णिज्जरं करिय कम्मइयसरीरस्स गणसे ढिणिज्जरं कादूण चरिमसमयभवसिद्धियो जादो । एवंविहलक्खणेणागदअजोगिचरिमसमए सव्वजहणिया पत्तेयसरीरवग्गणा होदि; एदस्स देहे णिगोदजीवाणमभावादो।
संपहि एदिस्से वग्गणाए माहप्पज्जाणावणठंडाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा- ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरपरमाणणं तिणि पुंजे उवरि दृविय तेसि हेवा तेसि चेव विस्ससोरचयपुंजे च टुविय पुणो एदेसि छण्णं जहण्णपुंजाणमवरि परमाणुवड्ढावणविहाणं वुच्चदे- खविदकम्मंसियलक्खणेणागदस्त चरिमसमयभवसिद्धियस्त ओरालियसरीरविस्ससोवचयपुंजम्मि एगविस्ससोवचयपरमाणुम्हि वडिदे तमण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि। पुणो तत्थेवरी दोसुपरमाणुसु वड्डिदेसु तदियमपुणरुत टाणं होदि। तिसु परमाणुसु वड्डिदेसु चउत्थमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । चदुसु विस्ससोवचयपरमाणुपोग्गलेसु वड्डिदेसु पंचममपुण. कालतक क्षपित कर्माशिकरूपसे रहा । पुन: जिसने पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण संयमासयम - काण्डक, इनसे कुछ अधिक सम्यक्त्वकाण्डक तथा अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनाकाण्डक तथा आठ संयमकाण्डक करते हुए चारबार कषायकी उपशामना की। पुनः अन्तिम भवको ग्रहण करते हुए पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ । अनन्तर गर्भनिष्क्रमण कालसे लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहुर्तका होनेपर सम्यक्त्व' और संयमको एकसाथ प्राप्त करके सयोगी जिन हो गया। अनन्तर कुछ कम पूर्वकोटि कालतक औदारिक और तैजसशरीरकी अधःस्थितिगलनाके द्वारा पूरी निर्जरा करके तथा कार्मणशरीरकी गुणश्रेणिनिर्जरा करके अन्तिम समयवर्ती भव्य हो गया । इस प्रकार आकर जो अयोगीकेवलीके अन्तिम समय में स्थित है उसके सबसे जघन्य प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा होती है, क्योंकि, इसके शरीरमें निगोद जीवोंका अभाव है।
अब इस वर्गणाके माहात्म्यका ज्ञान कराने के लिए स्थानप्ररूपणा करते हैं। यथा- औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरके परमाणुओंके तीन पुञ्ज ऊपर स्थापित करके और उनके पहले ही विस्रसोपचयोंके पुज स्थापित करके फिर इन जघन्य छह पुञ्जोंके ऊपर परमाणुओंके बढानेकी विधि कहते हैं । क्षपितकर्माशिकविधिसे आकर जो अन्तिम समयवर्ती भव्य हुआ है उसके औदारिकशरीरके विस्र सोपचय पुञ्ज में एक विस्रसोपचय परमाणुके बढनेपर वह अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । पुनः उसी में दो परमाणुओंके बढनेपर तीसरा अधुनरुक्त स्थान होता है। तीन परमाणुओंके बढनेपर चौथा अपुनरुक्त स्थान होता है। चार विस्रसोपचय परमाणु
४ अ. प्रतो ' कम्मढिदि (बधिय-) खविद- इति पाठः। * ता . प्रतो '-जुगवं घेत्तूण ' इति स्थाने 'घेत्तूण जुगवं ' इति पाठः) ता. प्रतो. 'तत्थ ' इति पाउ:1 * अ. प्रतौ ' तदियपुणरुत्त , इति पाठः1 . आ. प्रतो । तमामपूणहत्तट्राणं होदि 1 तिस्' इति पाठः।
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५, ६, ९१. )
बंधाणुयोगद्दारे पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा
( ६७
तद्वाणं होदि । एवमे गंगुत्तरपरमाणुवड्ढीए वड्ढावेदव्वं जाव ओरालिय सरीरविस्ससोवचयपुंजम्मि सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्ता परमाणू वडिदा त्ति । एवं वड्डाविदे ओरालिय- सरीरविस्ससोवचयपुंजम्मि सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्ताणि अपुनरुत्तट्टाणाणि लद्धाणि भवंति । एसा द्वाणपरूवणा संभवं पडुच्च कोरदे । को संभवो णाम? इंदो मेहं पल्लट्टेदुं समत्यो त्ति एसो संभवो णाम । वत्तिसरूवेण एत्तिएस ट्ठाणेसु समुपणे को दोसो होदि ? ण, सव्वजीवरासीदो सिद्धाणमणंतगुणत्तप्पसंगादो। ण चुप्पण्णट्ठाणमेत्ता सिद्धा अस्थि ; अदीदकालस्स असंखेज्जदिभागाणं सिद्धाणं द्वाणमेत्तपमाणत्तविरोहादो ।
पुणो अणे जीवे खविदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण सव्वजहण्णवत्तेयसरीरवग्गणाए उवरि विस्ससोवचएण सह एगपरमाणुणा ओरालियसरीरमब्भहियं कादूणच्छिदे एवं पि अपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कुदो? परमाणुत्तरकमेण पुव्वं वड्डाविदओरालियस रविस्ससोवचयपुंजेण सह संपहि अहियएगोरालियसरीरपरमाणुदंसणादो । पुव्वत्तोरालियमशेर- सव्वजहण्णपरमाणुपुंजादो संपहियओरालियसरीरपरमाणुपुंजो परमाणुत्तरो होदि । पुणो पुव्विल्लक्खवगं मोत्तूण संपहियखवगं घेत्तूण एदस्स ओरालियसरी रविस्ससोवचयपुंजम्मि परमाणुत्तर- दुपरमाणुत्तरादिकमेण सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तेसु
पुद्गलोंके बढनेपर पाँचवां अपुनरुक्त स्थान होता है। इसप्रकार औदारिकशरीर के विस्रसोपचयपुंजमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे परमाणुओंकी वृद्धि होनेतक उत्तरोत्तर एक एक परमाणुकी वृद्धि करनी चाहिए । इस प्रकार वृद्धि करनेपर औदारिकशरीरके विस्रसोपचय पुंज में सब जीवोंसे अनन्तगुणे अपुनरुक्त स्थान उपलब्ध होते हैं । यह स्थानप्ररूपणा सम्भव सत्यकी अपेक्षा की है ।
शंका -- सम्भवसत्य किसे कहते हैं ?
समाधान-- ' इन्द्र मेरुको पलटने में समर्थ है । ' इसे सम्भव कहते हैं ।
शंका-- व्यक्तरूपसे इतने स्थानोंके उत्पन्न होनेपर क्या दोष उत्पन्न होता है ?
समाधान-- •नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेपर सब जीवोंसे सिद्ध अनन्तगुणे प्राप्त होते हैं ।
परन्तु यहाँ जितने स्थान उत्पन्न किये गये हैं उतने सिद्ध हैं नहीं, क्योंकि, सिद्ध अतीत कालके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, इसलिए उन्हें उक्तस्थानप्रमाण माननेमें विरोध आता है ।
पुनः क्षपित कर्माशिविधिसे आकर सबसे जघन्य प्रत्येकशरीर वर्गणा के ऊपर विस्रसोपचयसहित एक परमाणुसे औदारिकशरीरको अधिक करके अन्य एक जीवके स्थित होनेपर यह अरु स्थान होता है, क्योंकि, उत्तरोत्तर एक परमाणुके क्रमसे पहले बढ़ाए हुए औदारिकशरीर विस्रसोपचय पुंजके साथ इस समय औदारिकशरीरका एक परमाणु अधिक देखा जाता है । पूर्वोक्त औदारिकशरीर के सबसे जघन्य परमाणुपुंजकी अपेक्षा साम्प्रतिक औदारिकशरीर परमाणुपुंज एक परमाणु अधिक है । पुनः पूर्वोक्त क्षपकको छोडकर और साम्प्रतिक क्षपकको ग्रहणकर इसके औदारिकशरीर विस्रसोपचय पुंज में एक परमाणु अधिक, दो परमाणु अधिक आदिके क्रम से
ता. प्रती 'द्वाणमेव (त्त ) - ' अ प्रती 'द्वाणमेव - ' इति पाठ: । ता. प्रतो' अण्णो जीवो' इति पाठः । आ. प्रतौ ' -जहण्णपुंजादो ' इति पाठ: 1 ता. आ प्रत्योः '-पुंजम्मि परमाणुत्तरादि-' इति पाठः ।
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६८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५.६, ९१.
विस्ससोवचयपरमाणुपोग्गलेसु वड्ढिदेसु सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्ताणि चेव अपुणरुत्तद्वाणानि लब्भंति ।
तदो अण्णे जीवे खविदकम्मं सियलक्खणेणागंतून सव्वजहणेण ओरालियसरीरपुंजं दुपरमाणुत्तरं काढूण तस्सेव विस्ससोवचयपुंजं पि दोष्णं परमाणूणं विस्सासुवचयपुंजे अहियं काढूणच्छिदे अनंतरहेट्ठिमट्ठाणादो संपहियद्वाणं परमाणुत्तरं होदि । कारणं पुव्वं व जाणिदूण वत्तव्वं । संपहि उप्पण्णद्वाणस्त्र ओरालियस रोरविस्सासुवचयपुंजम्मि एगपरमाणुपोग्गले वड्ढिद्दे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं दो- तिणिआदि जाव सजीवेहि अनंतगुणमेत्तओरालियविस्सुवचयपरमाणुपोग्गलेसु वड्ढि - देसु अाणि अपुणरुत्तट्ठाणाणि लब्धंति ।
तदो अण्णे जीवे खविदकम्मं सिय सव्वजहष्णोरालियसरीरं तिपरमाणुत्तरं कादूण सव्वजहष्णोरालिय सरीरविस्स सुवचयपुंजं तिष्णं परमाणूणं विस्ससोवचएहि अहियं काणच्छिदे अनंत रहेट्टिमट्टाणादो एगवारेण वढवणागदं संपहियद्वाणं परमाणुत्तरं । एवमणेण विहाणेण ओरालियसरीरदोपुंजा वढावेदव्वा जावप्पप्पणी तप्पा ओग्गउक्कस्तदव्वपमाणं पत्ता त्ति । णवरि तेजा कम्मइयसरीराणि सव्वजहण्णाणि देव । एदेसि चदुष्णं वड्ढीए विना सविस्ससोवचयओरालियसरीरस्सेव कथं वुड्ढी होदि ? ण, तज्जहण्णाविरोहिउक्कस्सवुड्ढीए एत्थ गहणादो ।
सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढ़नेपर सब जीवोंसे अनन्तगुणे ही अपुनरुक्त स्थान उपलब्ध होते हैं ।
पुनः क्षपित कर्माशिक विधिसे आकर सबसे जघन्य औदारिकशरीर पुंजको दो परमाणु अधिक करके तथा उसीके विस्रसोपचय पुंजको भी विस्रसोपचय पुंजकी अपेक्षा दो परमाणु अधिक करके अन्य जीवके स्थित होनेपर अनन्तर पिछले स्थानसे साम्प्रतिक स्थान एक परमाणु अधिक होता है । कारण पहलेके समान जान कर कहना चाहिए। अब इस समय उत्पन्न हुए स्थानके औदारिकशरीर विस्रसोपचय पुंज में एक परमाणु पुद्गल के बढ़नेपर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार दो, तीनसे लेकर सब जीवोंसे अनन्तगुणे औदारिक विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढ़नेपर अनन्त अपुनरुक्त स्थान उपलब्ध होते हैं ।
अनन्तर क्षपित कर्माशिकरूपसे प्राप्त सबसे जघन्य औदारिकशरीर पुंजको तीन परमाणु अधिक करके तथा सबसे जघन्य विस्रसोपचय पुंज में विस्रसोपचयके तीन परमाणु अधिक करके स्थित हुए अन्य जीवके अनन्तर पिछले स्थानसे एकबार वृद्धि हो कर प्राप्त हुआ साम्प्रतिक स्थान एक परमाणु अधिक होता है । इस प्रकार इस विधि से अपने-अपने तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट द्रव्य के प्रमाणके प्राप्त होने तक औदारिकशरीरके दो पुंज बढाने चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन सब स्थानोंमें तैजस और कार्मणशरीर सबसे जघन्य रहते हैं ।
शंका- इन चारों ( तैजस और कार्मणशरीर तथा उनके विस्रसोपचय ) की वृद्धि हुए बिना अपने विसोपचय सहित औदारिकशरीरकी ही वृद्धि कैसे होती है ?
ता० प्रतौ एगपरमाणुत्तरपोग्गले * ता० प्रतौ ' णे ( ए ) वभणेण '
' इति पाठः । * अ० प्रती अ० आ० प्रत्योः ' जवमणेण
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पुंजम्मि ' इति पाठः । इति पाठः |
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५, ६, ९१. )
बंधाणुयोगद्दारे पत्तेयसरी दव्ववग्गणा
( ६९
तदो अण्णो वि जीवो खविदकम्मंसियो विस्तसुवचयेहि सह ओरालिय सरीरमुक्कसं काढून पुणो तेजइयसरीरसव्वजहण्णविस्ससुवचयपुंजम्मि एगपरमाणुपोग्गले ढाव अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । तदो अण्णेण जीवेण तेजइयसरीर विस्स सुवचयपुंजे दुपरमाणुत्तरे कदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । सविस्ससुवचयमोरालियसरीरं तप्पा ओग्गुक्कस तेज इयसरीरपरमाणुपुंजो जहण्णो । सविस्सासुवचयं कम्मइयसरीरं पि एत्थ जहणणं चेव ।
पुणो अण्णे जीवे तेजइयसरीरविस्ससुवचयपुंजं तिपरमाणुत्तरं काढूणच्छिदे अण्णमपुणरुत्तद्वाणं होदि । एवं परमाणुत्तरादिकमेण सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तविस्सुवचय परमाणुपोग्गलेसु वडिदेषु तदो अण्णम्हि* जीवे खविदक्रम्मंसिये तथा ओघक्कस्सीकयविस्सुवचयमोरालिय सरीरे विस्ससुवचएहि सह जहण्णीकदकम्मइ यसरीरे सव्वजहण्णतेजइयसरीरं परमाणुत्तरं काऊण तस्सेव विस्ससुवचयपुंजं एगपरमाणुविस्ससुवचएहि अब्भहियं कादूणच्छिदे अनंतरट्ठाणादो संपहियद्वाणं परमाणुत्तरं होदि । कारणं जाणिदूण वत्तव्वं । एवं वड्ढा वेदव्वं जाव तेजइयसरीरदोपुंजा तप्पा ओग्गुक्कस्सा जादा ति । कितप्पाओगुक्कस्सत्तं ? जोगवड्ढीए विणा ओकड्डुक्कड्डुणवसेण जत्तियाणं परमाणूणं सविस्ससु
समाधान- नहीं, क्योंकि इन चारोंके जघन्य रहते हुए उनकी अविरोधी उत्कृष्ट वृद्धि ही यहाँ ग्रहण की गई है ।
पुनः अन्य क्षपित कर्माशिक जीवके विस्रसोपचय सहित औदारिकशरीरको उत्कृष्ट करके अनन्तर तैजसशरीर के सबसे जघन्य विस्रसोपचय पुंजमें एक परमाणु पुद्गलके बढाने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। अनन्तर अन्य जीवके द्वारा तैजसशरीरके विस्रसोपचय पुंज में दो परमाणु अधिक करने पर अन्य अपुनरुक्न स्थान होता है । यहाँ पर विस्रसोपचय सहित औदारिक शरीर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट है । तैजसशरीर परमाणु पुंज जघन्य है और विस्रसोपचयसहित कार्मण शरीर भी यहाँ पर जघन्य है ।
पुनः अन्य जीवके तैजस शरीर के विस्रसोपचय परमाणु पुंजको तीन परमाणु अधिक करके स्थित होने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार परमाणु अधिक आदिके क्रमसे सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचयरूप परमाणु पुद्गलोंकी वृद्धि होने पर अनन्तर जिसने विस्रसोपचयसहित औदारिकशरीरको ओघ उत्कृष्ट किया है और विस्रसोपचयसहित कार्मणशरीरको जघन्य किया है तथा तैजसशरीरको एक परमाणु अधिक करके व उसीके विस्रसोपचयपुंजको विसोपचयके एक परमाणुसे अधिक करके जो क्षपित कर्माशिक अन्य जीव स्थित है उसके अनन्तर स्थानसे साम्प्रतिक स्थान एक परमाणु अधिक होता है। कारणका जानकर कथन करना चाहिये । इस प्रकार तैजसशरीर के दो पुंज तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट होने तक बढाने चाहिये ।
शंका- यहाँ तत्प्रायोग्य उत्कृष्टसे क्या तात्पर्य है ?
समाधानन- योगवृद्धि के बिना उत्कर्षण और अपकर्षणके द्वारा विस्रसोपचयसहित जितने
ता० प्रती Jain Educatio international
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अण्णेहि अ० आ० प्रत्यो: Pry अण्णंहि dhal इति पाठ: ।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
वचयाणं वडढी संभवदि तत्तियमेत्तपरमाहि अब्भहियत्तं । जोगादो वड्ढी कि ण घे पदे? ण, तिण्णं सरीराणमक्कमेण वुट्टिप्पसंगादो ।।
पुणो अण्णो जीवो खविदकम्मसिओ विस्ससूवचएहि सह ओरालिय-तेजासरीराणि तप्पाओग्गुक्कस्साणि कादण कम्मइयसरीरविस्ससुवचया परमाणुतरकमेण वड्ढावेदव्वा जाव सम्बजोवेहि अणंतगुणमेत्ता परमाणू वडिदा त्ति । तदो अण्णो जीवो पुरवं व खविदकम्मंसिओ अजोगिचरिमसमए अच्छि दो । ताधे अण्णमपुणरुतढाणं होदि ।
पुणो अण्णो जीवो खविदकम्मंसिओ विस्ससुवचयहि सह तप्पाओग्गुक्कस्सीकयओरालिय-तेजासरीरो कम्मइयसरीरं पडि खविदकम्मंसिओ अजोगिरिमसमए कम्मइयसरीरविस्स सुवचयजहण्णपुंज दुपरमाणुत्तरं कादूण अच्छिदो । ताघे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं कम्मइयपरोरविस्ससोवचया परमाणु *त्तरकमेण वड्ढावेदव्वा जाव सव्वजोवेहि अणंतगणमेत्ता परमाण वडिदा ति ।
तदो अण्णो जीवो पुव्वं व खविदकम्मंसिओ अजोगिचरिमसमए कम्मइयसरीरं परमाणुत्तरं कादूण कम्मइयसरीरविस्ससुवचयपुंज सव्वजोवेहि अणंतगुणमेत्तपरपरमाणुओंकी वृद्धि सम्भव हो मात्र उतने परमाणु अधिक करना यही यहाँ तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट पदसे तात्पर्य है।
शंका-योगसे परमाणुओंकी वृद्धि क्यों नहीं ली गई है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, योगसे परमाणुओंकी वृद्धि ग्रहण करने पर तीनों शरीरोंकी युगपत् वृद्धि प्राप्त होती है।
पुनः क्षपित कौशिक अन्य एक जीव लीजिये जो विस्रसोपचय सहित औदारिक और तैजसशरीरको तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट करके कार्मणशरीरके विस्रसोपचयमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे परमाणुओंकी वृद्धि होने तक एक-एक परमाणु बढाता है । तब पहले के समान क्षपित कौशिक इस अन्य जीवके अयोगी गुणस्थानके अन्तिम समय में स्थित होने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है।
___ पुनः अन्य एक क्षपित कौशिक जीव लीजिये जिसने अपने विस्र सोपचयसहित औदारिक और तेजसशरीरको तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट किया है तथा जो कार्मणशरीरके प्रति क्षपित कर्माशिक है उसके कार्मणशरीरके विस्र सोपचय जघन्य पुंज में दो परमाणु अधिक करके अयोगी गुणस्थानके अन्तिम समय में स्थित होने पर उस समय अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार सब जीवोंसे अनन्तगुणे परमाणुओंकी वृद्धि होने तक कार्मणशरीरके विनसोपचयको एक एक परमाण द्वारा बढाना चाहिये।
पुनः क्षपित कर्माशिक एक अन्य जीव लीजिये जो अयोगी गुणस्थानके अन्तिम समयमें कार्मणशरीरको एक परमाणु अधिक करके तथा कार्मणशरीरके विस्रसोपचय पुंजको सब
अ. आ. प्रत्यो: ' सरीरा ' इति पाठ। * ता. प्रतो. 'चयपरमाणु ' इति पाठ: 1
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५, ६, ९१. )
पत्ते पसरीरदव्ववग्गणा
( ७१
माहि वड्डावियट्ठिदो * । ताधे पुब्विल्लट्ठाणादो संपहियद्वाणं परमाणुत्तरं होदि । पुणो पुल्लिक्खवगं मोत्तूण संपहियक्खवगस्त कम्मइयसरी रविस्सासुवचयपुंजे एगपरमाणुणा वढि अण्णमपुणरुतद्वाणं होदि । एवं सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तपरमाणुपोग्गले कम्मइयसरीरविस्सासुवचयपुंंजेहि वड्ढिदेसु तदो अण्णो जीवो पुव्वं व क्खविदकम्मंसिओ अजोगिचरिमसमए कम्मइयसरीरं पुव्वं व परमाणुत्तरं काऊण अच्छिदो । ताधे अनंतर हेट्टिमद्वाणादो संपहियद्वाणं परमाणुत्तरं होदि । एवं वड्ढावेदव्वं जाव जोगेण विना ओकड्डुक्कडुणाहि चेव जायमाणवुड्ढीए उक्क्स्सवुढित्ति ।
पुणो एदेहि छहि दव्वेहि जोगेणेगवारं छतु वि दव्वेसु वडिददव्वमेत्तं वड्ढि - दूर्ण द्विदो सरिसो । एवमसंखेज्जवारं वड्ढावेदव्वं जाव अजोगिचरिमसमयदव्वं सव्वुक्कस्सं जादं त्ति । तत्थ चरिमवियप्पं भणिस्सामा । तं जहा --
गुणिदक मंसियो सत्तमाए पुढवीए तेजा कम्मइयसरीराणि उक्कस्साणि काढूण पुणो कालं करिय दो-तिणिभवग्गहणाणि तिरिक्खे सुध्वज्जिय पुणो पुग्वकोडाउएसु मणुस्सेसु उबवण्णो । गब्भादि अवस्साणमंतो मुहुत्तब्भहियाणमुवरि सजो गिजिणो होदूण देसूणपुव्वकोड संजमगुणसे डिणिज्जरं काऊण अजोगिचरिमसमए द्विदस्स पत्तेयसरीरवग्गणा जीवोंसे अनन्तगुणे परमाणुओंके द्वारा बढाकर स्थित है उसके सब पिछले स्थानसे साम्प्रतिक स्थान एक परमाणु अधिक होता है ।
पुनः पूर्वोक्त क्षपकको छोड़कर साम्प्रतिक क्षपक के कार्मणशरीर के विस्रसोपचय पुंज में एक परमाणुकी वृद्धि करने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार कार्मणशरीरके विस्रसोपचय पुंज में सब जीवोंसे अनन्तगुणे परमाणुपुद्गलों के बढाने पर उस समय पहले के समान क्षतिकर्माशिक जो अन्य जीव अयोगी गुणस्थानके अन्तिम समय में कार्मणशरीरको पहले के समान एक परमाणु अधिक करके स्थित है उसके तब अनन्तर पिछले स्थानसे साम्प्रतिक स्थान एक परमाणु अधिक होता है । इस प्रकार योगके बिना अपकर्षण- उत्कर्षण के द्वारा ही जो वृद्धि होती है उससे उत्कृष्ट वृद्धिके होने तक वृद्धि करनी चाहिये ।
पुनः इन छह द्रव्यों के साथ, योगके द्वारा एक बार छहों द्रव्यों में बढाये हुये द्रव्यके बराबर वृद्धि करके स्थित हुआ जीव समान है । इस प्रकार अयोगी गुणस्थातके अन्तिम समय के द्रव्य के सर्वोत्कृष्ट होने तक असंख्यात बार वृद्धि करनी चाहिये । उसमें अन्तिम विकल्पको बतलाते हैं । यथा-
कोई एक गुणित कर्माशिक जीव सातवीं पृथिवीमें तैजस और कार्मण शरीरको उत्कृष्ट करके पुनः मरकर दो-तीन भवतक तिर्यंचों में उत्पन्न होकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । पुनः गर्भसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षका होनेके बाद सयोगी जिन होकर कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयम गुणश्रेणि निर्जरा करके अयोगी गुणस्थानके अन्तिम समय में
ता. प्रती ( वड्डावि ) वडिदो ' इति पाठ: । '- दव्वे ' आ. प्रतो 'दव्व' इति पाठः । 'याण (मु- ) वरि अ. अ. प्रत्योः
ॐ ता. प्रती - णादि ' इति पाठः । ता. अ. आ. प्रतिषु ' जादे' इति पाठ: 1 'याणवरि इति पाठ: ।
ता. प्रतो ता. प्रतौ
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं पुवुत्तपत्तेयसरीर वग्गणाए सह सरिसी होदि । संपहि एत्थ वड्ढी णस्थि; पत्तसव्वक्कस्सभावादो।
संपहि अजोगिदुचरिमचरिमसमए लब्भिस्सामो। तं जहा- गुणिद कम्मंसिओ सत्तमाए पुढवीए तेजा-कम्मइयसरीरवग्गणमक्कस्त करेमाणो दुचरिमगुणसेडिदवेण कम्मइय-तेजोरालियसरीराणं दुचारमगोपुच्छाहि य ऊणमुक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणं काढूण अजोगिदुचरिमसमए अच्छि दस्त चरिमस प्रयवग्गणाए सह दुचरिमसमयवग्गणा सरिसी होदि ।
पुणो चरिमसमय अजोगिवग्गणं मोत्तण दुचरिमसमयअजोगिखवगपत्तेयसरीरवग्गणा पुत्वविहाणेण वढावेदव्वा जावप्पणो उक्कस्सपत्तेयसरीरवगणपमाणं पत्ता ति । एवं तिचरिम-चदुचरिमादिसमएसु ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीराणं पुध पुध विस्ससुवचयपरमाण च वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव सजोगिपढमसमओ त्ति । संपहि एत्तो हेट्ठा ओदारेदं ण सक्कदे; खीणकसायचरिमसमए बादरणिगोदवग्गणाए उवलंभादो। तेण सत्तमाए पृढवीए चरिमसमयणेरइयदवमस्सिदण वडि भणिस्सामो। तं जहा-- गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सत्तमाए पुढवीएणेरइयचरिमसमए वट्टमाणस्स तेजाकम्मइयसरीराणं चत्तारिपुंजेहि पढमसनयसजोगिस्स तेजा कम्मइयसरीराणं चत्तारि पुंजा विसेसहीणा।पढमसमयसजोगिस्सओरालिय सरीरपरमाणुपोग्गलपुंजादो रइय स्थित हुआ। उसके प्रत्येक शरीरकी वर्गणा पूर्वोक्त प्रत्येकशरीरको वर्गणाके समान होती है । अब यहाँ पर वृद्धि नहीं है; क्योंकि, इसने सर्वोत्कृष्टपनेको प्राप्त कर लिया है।
अब अयोगीके द्विचरम समयका आश्रय करके कथन करते हैं । यथा- जिस गुणितकर्माशिक जीवने सातवीं पृथिवीमें तैजसशरीर और कार्मणशरीरकी वर्गणाको उत्कृष्ट किया है और जो द्विचरम गुणश्रेणिद्रव्यसे तथा कार्मण, तैजस, और औदारिकशरीरकी द्विचरम गोपुच्छासे न्यून उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर वर्गणीको करके अयोगीके द्विचरम समयमें स्थित है उसके अन्तिम समयकी वर्गणाके साथ, द्विचरम समयकी वगंणा समान होती है।
पून: अयोगीके अन्तिम समयकी वर्गणाको छोडकर अयोगीके द्विचरम समयकी क्षपक प्रत्येकशरीर वर्गणा अपने उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर वर्गणाके प्रमाणको प्राप्त होने तक पूर्वोक्त विधिसे बढानी चाहिये। इस प्रकार त्रिचरम, चतःचरम आदि समयोंमें औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर तथा उनके पृथक्-पृथक् विस्रसोपचय परमाणु बढाकर उतारते हुये सयोगी गुणस्थानके प्रथम समय तक ले जाना चाहिये । अब इससे पीछे उतार कर ले जाना संभव नहीं है। क्योंकि क्षीणकषायके अन्तिम समयमें बादर निगोद वर्गणा उपलब्ध होती है, इसलिये सातवीं पृथिवीके अन्तिम समयवर्ती नारकीके द्रव्यका आश्रय करके वद्धिका कथन करते हैं। यथा--
गुणित कर्माशिक विधिसे आकर सातवीं पृथ्वीमें अन्तिम समयमें विद्यमान नारकीके तैजसशरीर और कार्मणशरीरके चार पुञ्जोंकी अपेक्षा प्रथम समयवर्ती सयोगी जिनके तैजसशरीर और कार्मणशरीरके चार पुज विशेष हीन होते हैं। प्रथम समयवर्ती सयोगी
*ता. प्रतो ' पुववृत्तसरीर-' इति पाठः। ता० अ० प्रत्योः '-कम्मइयवग्गणमुक्कस्सं इति पाठ: 1 *अ० प्रतो'-दवेगग' इति पाठ.168 ता० प्रतौ 'सजोगिचरिमपढम-' इति पाठ: आ० प्रतौ 'तेण सत्तमाए पुढवीए रइयचरिम-, दति पाठाता० प्रती '-सजोगिस्स तेजा-कम्मइय-ओरालिय-, इति पाठः।
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५, ६, ९१. )
धगद्दारे पत्तेयसरी रदव्ववग्गणा
( ७३
चरिमसमए वे उव्वियपरमाणुपोग्गलपुंजो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सेढीए असंखेज्जदिभागो । तं कथं परिच्छिज्जदि त्ति वृत्ते बाहिरवग्गणाए पंचण्णं सरीराणं वृत्तपदे सप्पा बहुआदो सुत्तादो । तं जहा- सव्वत्थोवं ओरालियसरीरस्स पदेसगं । वे उव्वियसरीरस्स पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जदिभागो । आहारसरीरस्स पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जदिभागो । तेयासरीरस्स पदेसग्गमणंतगुणं । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि * अनंतगुणो सिद्धाणमणंतिम भागो । कम्मइयसरीरस्स पदेसग्गमणंतगुणं । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो । एवे गुणगारा कुदो सिद्धा ? अविरुद्धारवणादो |
पढमसमयसजोगिस्स ओरालिय सरीरविस्सासुवचयपुंजादो चरिमसमयणेरइयस्स वे उब्विय सरोरविस्सा सुवचयपुंजो असंखेज्जगुणो । कुदो एदं णव्वदे ? बाहिरवग्गणाए पंचणं सरीराणं विस्सासुवचयस्स भणिदप्पाबहुगसुत्तादो । तं जहा - ओरालियस रीरस्स जहण्णस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ थोवो । तस्सेव जहण्णयस्स जिनके औदारिकशरीर परमाणु पुद्गलपुञ्जसे नारकीके अन्तिम समय में वैक्रियिक परमाणुपुद्गल पुञ्ज असंख्यातगुणा होता है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग गुणकार है ।
शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- बाह्य वर्गणा अनुयोगद्वार में पाँच शरीरोंके कहे गए प्रदेश अल्पबहुत्व सूत्र जाना जाता है यथा - औदारिकशरीरके प्रदेशाग्र सबसे स्तोक हैं । इनसे वैक्रियिकशरीर के प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग गुणकार है। इनसे आहारकशरीरके प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग गुणकार है । इनसे तैजसशरीरके प्रदेशाग्र अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धों का अनन्तवां भाग गुणकार हैं । इनसे कार्मणशरीर के प्रदेशाग्र अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंका अनन्तवां भाग गुणकार है ।
शंका -- ये गुणकार किस प्रमाणसे सिद्ध हैं ?
समाधान --- अविरुद्ध आचार्योंके वचनसे सिद्ध हैं ।
प्रथम समयवर्ती सयोगी जिनके औदारिकशरीर के विस्रसोपचय पुञ्जसे अन्तिम समयवर्ती नारकी के वैक्रियिकशरीरका विस्रसोपचय पुञ्ज असंख्यातगुणा है ।
शंका -- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- बाह्य वर्गणा अनुयोगद्वार में पाँच शरीरोंके विस्र सोपचयके कहे गए अल्पबहुत्व सूत्र से जाना जाता है- यथा - जघन्य औदारिकशरीरका जघन्य पदमें जघन्य विस्रसोपचय सबसे
ता० प्रती ' भवसिद्धिएहि ' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
७४ ) उक्कस्सपदे उक्कस्सओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्ण, पदे जहणो विस्सामुदचओ अनंतगुणो तस्सेव उक्कस्सयस उक्कस्सपदे उवकस्सओ स्स सुवचओ अनंतगुणो | वे उब्वियसरीरस्स जहण्णयस्स जहणणपत्रे जहण्णओ विस्सुवचओ अगुण । तस्सेव जहण्णयस्स उक्कस्सपदे उक्कस्सओ विस्ससुत्रचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्क्स्सस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्कस्सयस्स उक्कस्सपदे उक्कस्सओ विस्तासुवचओ अनंतगुणो । आहारसरीरस्स जहण्णयस्स जहण्णपदे जहणओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव जहण्णयस्स उक्कस्पदे उक्कस्सओ विस्तासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्णपदे जहणओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्कस्सयस्त उक्कस्सपदे उवकस्सओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । तेयासरीरस्त जहण्णयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव जहण्णयस्स उक्कस्तपदे उवकस्सओ विसासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्कस्सयस्स उक्कस्तपदे उक्कस्सओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । कम्मइसरीरस्स जहण्णयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव जहण्णयस्स उक्कसपदे उक्कस्सओ विस्सा सुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्कस्सस्स उक्कस्सपदे उक्कस्सओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । गुणगारो सव्वत्थ सव्वजीवेहि अनंतगुणो । एदमप्पाबहुगं मुक्कजीवाणं ण जीवसहियाणं; स्तोक है । उसी जघन्यका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके उत्कृष्टका जघन्य पद में जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके उत्कृष्टका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है। वैक्रियिकशरीरके जघन्यका जघन्य पदमें जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसी के जघन्त्रका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके उत्कृष्टका जघन्य पदमें जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके उत्कृष्टका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । आहारकशरीर के जघन्यका जघन्य पद में जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके जघन्यका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके उत्कृष्टका जघन्य पदमें जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके उत्कृष्टका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । तैजसशरीरके जघन्यका जघन्य पदमें जघन्य विस्रसोवजय अनन्तगुणा है । उसीके जघन्यका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुगा है । उसीके उत्कृप्टका जघन्य - पदमें जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके उत्कृष्टका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्र सोपचय अनन्तगुणा है । कार्मणशरीरके जघन्यका जघन्य पदमें जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके जघन्यका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके उत्कृष्टका जघन्य पदमें जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके उत्कृष्टका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्र सोपचय अनन्तगुणा है। गुणकार सर्वत्र सब जीवोंसे अनन्तगुणा है । यह अल्पबहुत्व जो जीवसे रहित होते हैं उनका होता है । जो जीवोंसे युक्त होते हैं उनका नहीं होता, अन्यथा * ता० आ० प्रत्यो: ' तेयासरीरस्स जहण्णयस्स उक्कस्सपदे' इति पाठ: ।
(
५,
६, ९१.
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५, ६, ९१.) बंधणाणुयोगद्दारे पत्ते यसरीरदव्ववग्गणा
( ७५ विस्सासुवचयपहाणुक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणादो विस्सासुवचयपहाण जहण्णबादरणिगोदवग्गणाए अणंतगुणहीणत्तप्पसंगादो।
___जीवसहियाणं पुण अप्पाबहुगं उच्चदे-सव्वत्थोवो जहण्णओ ओरालियसरीरस्स विस्सासुवचओ । तस्सेव उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगणो । को गुणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। वेउवियसरीरस्स सव्वम्हि पदेसपिडे सव्वजहण्णओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सेढीए असंखेज्जदिभागो। तस्सेव उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो। को गुणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जदि. भागो । आहारसरीरस्स सम्वम्हि पदेसपिंडे सव्वजहण्णओ विस्सासुवचओ असंखेज्ज. गुणो। को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जदिभागो। तस्सेव उक्कस्सओ विस्तासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तेजइयसरीरस्स सव्वम्हि पदेसपिंडे सव्वजहण्णो विस्सासुवचओ अणंतगुणो। को गुणगारो । अभवसिद्धिएहि अणंतगगो सिद्धाणमणंतभागमेत्तगुणगारो।तस्सेव उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कम्मइयसरीरम्हि पदेसपिडे जहण्णओ विस्सासुवचओ अणंतगणो। को गणगारो ? तेजइयगणगारो । तस्सेव उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगणो। को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेन्जदिभागो। तेण कारणेण पढमसमयसजोगिस्स ओरालियादिछप्पुंजदव्वेण विस्रसोपचयप्रधान उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणासे विस्रसोपचयप्रधान जघन्य बादर निगोद वर्गणाके अनन्तगुणे हीन होने का प्रसंग आता है।
जो जीवोंसे युक्त हैं उनका अल्पबहुत्व आगे कहते हैं-औदारिकशरीरका जघन्य विस्रसोपचय सबसे स्तोक है । उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है। वैक्रियिकशरीरके सम्पूर्ण प्रदेशपिण्डमें सबसे जघन्य विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है? जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग गुणकार है । उसी का उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है। आहारकशरीरके सम्पूर्ण प्रदेशपिण्डमें सबसे जघन्य विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग गुणकार है। उसीका उत्कृष्ट विस्र सोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है । तैजसशरीरके सम्पूर्ण प्रदेशपिण्ड में सबसे जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंका अनन्तवां भाग गुणकार है । उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है। कार्मणशरीरके प्रदेशपिण्ड में जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? तैजसशरीर गुणकार है। उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है । इस कारगसे प्रथम समयवर्ती सयोगी
जिनके औदारिक आदि छह पुञ्ज द्रव्यके साथ वैक्रियिक आदि छह पुञ्जका द्रव्य समान है । Jain Education internati० आ० प्रत्यो। '-पहाणं' इति पाठः1.
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड समाणवे उब्वियादिछप्पुंजदव्यं । समतपुढविचरिरमसमयणेरइयं घेत्तूण पुणो अपणो ऊगीकददव्वमेत्थतणछप्पुंजेसु पुध पुध वड्ढावेदव्वं ।
संपहि अण्णण जीवेण वे उब्वियसरीरविस्सासुवचयपुंजे परमाणुत्तरे कदे सजोगिपढमसमय उक्कस्लदव्वस्सुवरि परमाणुत्तरं होदूण अण्णमपुणरुत्तट्ठाणमुप्पज्जदि । एवमेगेगपरमाणुत्तरकमेण सधजीवेहि अणंतगणमेत्ता विस्सासुवचयपरमाण वेउविवयसरीरविस्ससुवचयपुंजम्मि जाव वड्ढिदा त्ति । तदो अण्गो जीवो वेउविवयसरीरं परमाणुत्तरं कादूण तस्सेव विस्सासुवचयपुंज सव्वजोवेहि अणंतगुणमेतविस्सासुवचएण अब्भहियं काऊण दिदो। ताधे पुवप्पण्णट्टाणादो संपहियद्वाणं परमाणुत्तरं होदि । कारणं सुगमं । अणेण विहाणेण वेउवियसरीरदोपुंजा वड्ढावेदव्वा जावप्पणो उक्कस्सदत्वपमाणं पत्ता त्ति । ___तदो अण्णो जीवो वेउब्बियसरीरं सगविस्सासोवचएण सह उक्कस्सं करिय पुणो तेजासरीरविस्ससुवचयपुंजं परमाणुत्तर कादर्णाच्छदो । ताधे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि। एवं परमाणुत्तरकमेग ताव वड्ढावेदव्वं जाव सव्वजीवेहि अगंतगुणमेत्ता विस्सासुवचयपरमाणू तेजासरीरविस्ससुवचयपुंजम्मि वडिदा ति । तदो अण्णो जीवो पुणिरुद्ध. तेजासरीरं परमाणुत्तरं कादश तस्सेव विस्ससोवचयपुंज सब्रजोवेहि अणंतगुणमेत्तविस्ससोवचयेण अब्भहियं कादूणच्छिदो।ताधे तं ठाणमणंतरहेट्ठिमट्ठाणादो परमाणुत्तरं सातवीं पृथ्वीके अन्तिम समयवर्ती नारकीको ग्रहण करके पुनः अपना अपना कम किया गया द्रव्य यहाँके छह पुञ्जोंमें पृथक्-पृथक् बढाना चाहिए ।
___ अब अन्य जीवके द्वारा वैक्रियिकशरीरके विस्रसोपचय पुजमें एक परमाणु अधिक करनेपर सयोगी जिनके प्रथम समयके उत्कृष्ट द्रव्यके ऊपर एक परमाणु अधिक होकर अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे वैक्रियिकशरीरके विस्रसोपचय पुञ्जमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणु होने तक बढाने चाहिए। अनन्तर वैक्रियिकशरीरको एक परमाणु अधिक करके तथा उसीके विस्रसोपचय पुञ्जको सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणुओंसे अधिक करके स्थित हुए अन्य जीवके उस समय पहले उत्पन्न हुए स्थानसे साम्प्रतिक स्थान एक परमाणु अधिक होता है। कारण सुगम है। इस प्रकार उक्त विधिसे अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्रमाणको प्राप्त होने तक वैकियिकशरीरके दो पुञ्ज बढाने चाहिए ।
___ अनन्तर अपने विस्रसोपचयके साथ वैक्रियिकशरीरके द्रव्यको उत्कृष्ट करके पुन: तैजसशरीरके विस्रसोपचय पुंजको एक परमाणु अधिक करके स्थित हुए एक अन्य जीवके उस समय अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार तेजसशरीरके विस्रसोपचय पुञ्जमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्र सोपचय परमाणुओंकी वृद्धि होने तक एक एक परमाणुकी उत्तरोत्तर वृद्धि करते जाना चाहिए । अनन्तर पूर्व में विवक्षित हुए तैजसशरीरको एक परमाणु अधिक करके तथा उसीके विस्रसोपचय पुञ्जको सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणुओंसे अधिक करके स्थित हुए जीवके प्राप्त हुआ यह स्थान अनन्तर पिछले स्थानसे एक परमाणु अधिक होता है । इस प्रकार तैजसशरीरके दो पुञ्जोंमें तब तक वृद्धि करते जाना
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५, ६, ९१. )
योगद्वारे पत्तेयसरी रदनवग्गणा
( ७७
होदि । एवं ताव तेजासरीरदोपुंजा वढावेदव्वा जाव उक्कस्सा जादा ति । संहि अण्णो णेरइओ वे उब्विय-तेजासरीराणि उक्कस्साणि काऊण पुणो कम्म इयसरीरविस्ससुवचयपुंजं पदेसुत्तरं काऊणच्छिदो ताधे अण्णमपुनरुत्तद्वाणं होदि । एवमे गंगपदेसुत्तरमेण ताव वड्ड।वेदव्वं जाव सव्वेहि जीवेहि अनंतगुणमेत्ता विस्सासुवचयपरमाणू कम्मइयसरी रविस्ससुवचयपुंजम्मि वडिदा त्ति । तदो अण्णो जीवो* पुव्वणिरुद्ध कम्मइयसरीरं परमाणुत्तरं काढूण तस्सेव विस्सासुवचयपुंजं सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तविस्स सुवचयेण अमहियं कादूणच्छिदो । ताधे एदं द्वाणमणंतर हे द्विमद्वाणाद परमाणुत्तरं होदि । पुणो अगेण विहाणेण कम्मइयसरीरदोपुंजा उक्कस्सा काव्वा जाव गुणिदकम्मतियणा रग चरिमसमय सव्वुक्कस्तदव्वे त्ति । वे उव्वियसरीरविस्सुवचहितो आहारसरीरस्स विस्तसुवचओ असंखेज्जगुणो । तेण पमत्तसंजदम्मि आहार-तेजा-कम्मइयसरीराणं छप्पुंजे घेत्तूण पत्तेयसरीरवग्गणा एगजीवविसया किण्ण परुविदा ? ण, तेजा - कम्मइयसरीराणं चरिमसमयणेरइयं मोत्तृण अण्णत्य उक्कस्सदव्वाभावादो । जत्थ तेजा - कम्मइयसरीराणि जहण्णाणि होंति तत्थ पत्तेयसरीवग्गणा सव्वजहण्णा होदि । जत्थ एदेसिमुक्कस्सदव्वाणि लब्भंति तत्थ पत्तेयसरीरवग्गणा उक्कस्सा होदि । ण च मणुस्सेसु पमत्तसंजदेसु पत्तेयसरीरवग्गणा उक्कस्सा होदि; चाहिए जब तक ये उत्कृष्टपनेको नहीं प्राप्त हो जाते ।
पुनः एक ऐसा नारकी लो जो वैक्रियिकशरीर और तैजसशरीरको उत्कृष्ट करके पुनः कार्मणशरीर के विस्रसोपचय पुञ्ज में एक परमाणु अधिक करके स्थित है । तब अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकार एक एक परमाणुकी तब तक वृद्धि करते जाना चाहिए जब तक कार्मणशरीर के विस्रसोपचय पुञ्ज में सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि नहीं हो जाती । अनन्तर एक ऐसा अन्य जीव लो जो पूर्व निरुद्ध कार्मणशरीर में एक परमाणु अधिक करके पुनः उसीके विस्रसोपचय पुञ्जको सब जीवोंसे अनन्तगुणं विस्रसोपचय परमाणुओंसे अधिक करके स्थित है । तब यह स्थान अनन्तर पिछले स्थानसे एक परमाणु अधिक होता । पुनः इस विधि से गुणित कर्माशिक नारकी जीवके अन्तिम समय में सर्वोत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होने तक कार्मणशरीरके दोनों पुञ्जोंको उत्कृष्ट करना चाहिए ।
शंका-- वैक्रियिकशरीर के विस्रसोपचयसे आहारकशरीरका विस्रसोपचय असंख्यात - गुणा है, इसलिए प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक, तैजस और कार्मणशरीरके छह पुञ्ज ग्रहण करके प्रत्येकशरीर वर्गणा एक जीव सम्बन्धी क्यों नहीं कही ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि, अन्तिम समयवर्ती नारकीको छोड़कर तैजस और कार्मणशरीरका अन्यत्र उत्कृष्ट द्रव्य उपलब्ध नहीं होता। जहां पर तैजस और कार्मणशरीर जघन्य होते वहां पर प्रत्येकशरीरवर्गणा सबसे जघन्य होती है और जहां पर इनके उत्कृष्ट द्रव्य उपलब्ध होते हैं वहाँ पर प्रत्येकशरीर वर्गणा उत्कृष्ट होती है । परन्तु प्रमत्तसंयत मनुष्यों के
* ता० आ० प्रत्यो: ' अण्णोपणे ठइओ' इति पाठ: । ॐ ता० अ० आ० प्रतिषु 'सभ्वएहि ' इति पाठ 1 अ० आ० प्रत्योः ' जीव इति पाठ: 1
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७८ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
६, ९१.
( ५, गुणसे जिज्जराए अधट्टिदिगलणाएं च गलिदतेजा - कम्मइयदव्वत्तादो । च गलिदतेजा-कम्मइयदव्वेहितो आहारसरीरदव्ववग्गणाए बहुत्तमत्थि; तस्स तदतिमभागादो। संपहि एत्थ कम्मट्ठिदिकालसंचिदो अट्ठविहकम्मपदेस कलाओ कम्मइयसरीरं णाम । छावद्विसागरोवमसंचिदणोकम्मपदेसकलाओ तेजासरीरं नाम तेत्तीससागरोवमसंचिद-णोकम्मपदेसकलाओ वेडव्वियसरीरं नाम खुद्दाभवग्गहगप्पहूडि जाव तिणिपलिदोवमसंचिदपदेसकलाओ ओरालियसरीरं णाम । अंतोमहत्तसंचिदपदेसकलाओ आहारसरीरं णाम । तेण णेरइयचरिमसमए चैव उक्कस्ससामित्तं दादव्वं ।
प्रत्येकशरीर वर्गणा उत्कृष्ट नहीं होती; क्योंकि, उनके गुणश्रेणि निर्जराके द्वारा और अधःस्थितिगलनाके द्वारा तैजस और कार्मणशरीरका द्रव्य गलित हो जाता है । यदि कहा जाय कि गलित हुए तेजस और कार्मगशरीर के द्रव्यसे आहारकशरीरकी द्रव्यवर्गणायें बहुत होती हैं सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, यह उनके अनन्तवें भागप्रमाण होता है । अतः प्रमत्तसंत गुणस्थान में प्रत्येक शरीर वर्गणा उत्कृष्ट नहीं कही ।
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यहाँ पर कर्मस्थिति कालके भीतर संचित हुए आठ प्रकारका कर्मप्रदेश समुदायकी कार्मणशरीर संज्ञा है । छयासठ सागर कालके भीतर संचित हुए नोकर्मप्रदेश समुदायकी तैजसशरीर संज्ञा है । तेतीस सागर कालके भीतर संचित हुए नोकर्मप्रदेश समुदायको वैक्रियिकशरीर संज्ञा है । क्षुल्लकभवग्रहण कालसे लेकर तीन पल्य कालके भीतर संचित हुए नोकर्मप्रदेश समुदायकी औदारिकशरीर संज्ञा है और अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर संचित हुए नोकर्मप्रदेश समुदायकी आहारकशरीर संज्ञा है, इसलिए नारकी जीवके अन्तिम समय में ही उत्कृष्ट स्वामित्व देना चाहिए ।
विशेषार्थ -- यहां पर प्रत्येकशरीर द्रव्य वर्गणाका विचार करते हुए वह एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट किस जीवके होती है इस बातका विस्तारसे निरूपण किया गया है । जिन शरीरोंका स्वामी एक ही जीव होता है और उनके आश्रयसे अन्य जीव नहीं उपलब्ध होते उन शरीरोंके समुदायका नाम प्रत्येकशरीर द्रव्य वगणा है । आगम में ऐसे आठ प्रकार के जीव बतलाये हैं जिनके शरीरोंके आश्रयसे अन्य जीव नहीं रहते । वे आठ प्रकारके जीव ये हैं- केवली जिन, देव, नारकी, आहारकशरीर, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक। यहां सर्व प्रथम यह देखना है कि इन जीवोंमें जघन्य प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गण का स्वामी कौन जीव है और उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणाका स्वामी कौन जोव है जीव दो प्रकार के होते हैं- एक क्षपितकर्माशिक और दूसरे गुणितकर्माशिक । जो क्षपितकर्माशिक जीव होते हैं उनके कर्म वर्गणायें उत्तरोत्तर हृस्व होती जाती हैं और अयोगी के अंतिम समय में वे सबसे न्यून होती हैं, इसलिये अयोगी जिनके अन्तिम समय में प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा सबसे जघन्य होती है । यहां इस वर्गणासे औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर तथा इनके विस्रसोपचय इन छह पुञ्जों का ग्रहण होता है । गुणित कर्माशिक जीव वे कहलाते हैं जिनके कर्मवर्गणायें उत्तरोत्तर महापरिणामवाली होती जाती हैं और तेतीस सागरकी आयुवाले नारकी जीवके अन्तिम समय में वे सबसे उत्कृष्ट होती हैं, इसलिये नारकी जीवके अन्तिम समय में
ता० आ० प्रत्यो: ' अवद्विदिगलणाए' इति पाठ: ]
ता० प्रती च गलिदतेजाकरमइयदव्वत्तादो 1 ण इति पाठो नोपलभ्यते ।
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( ७९
५, ६, ९१. )
बंधाणुयोगद्दारे पत्तेयसरी रदव्ववग्गणा
संपहि एगजीवमस्दूिण णेरइयचरिमसमए वड्ढी णत्थि पत्तुक्कस्सभावादो । बादरपुढ विकाइयपज्जत्तवेजीवे घेत्तूण लभिस्सामो। तं जहा- गुणिदघोलमाणलक्खणेनागदा वेबादरपुढविकाइयपज्जत्तजीवा अण्णोणेण संबद्धसरीरा णारगुक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए पावकं कदअद्धद्धसंचया चरिमसमयणेरइ यस्स वेडव्विय-तेजा-कम्मइयसरीरेहि सह सरिसा । जदि वि वे उव्वियसरीरादो ओरालियसरीरमसंखेज्जगुणहोणं तो वि सरिसत्तं ण विरुज्झदे; तेजा - कम्मइयसरीरेसु वे उब्वियसरीरस्स
प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा सबसे उत्कृष्ट होती हैं। यहां इस वर्गणा से वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर तथा इनके विस्रसोपचय इन छह पुञ्जोंका ग्रहण होता है । मध्य में इस वर्गणाके अनेक विकल्प हैं जिनका निर्देश मूलमें किया ही है । यहां जघन्य वर्गणा, एक परमाणु अधिक जघन्य वर्गणा, दो परमाणु अधिक जवन्य वर्गणा इत्यादि क्रमसे वृद्धि करते हुए उत्कृष्ट वर्गणा लाने की विधि जिस प्रकार मूलमें बतलाई गई है उस प्रकार उसे जान लेना चाहिए । पहले अन्तिम समयवर्ती अयोगी जिनके ही नाना जीवोंका आलम्बन लेकर जघन्य वर्गणा में परमाणुओं की वृद्धि की गई है। इसके बाद उपान्त्य समयवर्ती अयोगी जिनका आश्रय करके वृद्धि कही गई है और इस प्रकार पीछे लौटकर प्रथम समयवर्ती सयोगी जिन तक आकर वृद्धिका क्रम दिखलाया गया है । इसके बाद देव और देवोंके बाद नारकी जीवोंको स्वीकार करके प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा अपने उत्कृष्ट विकल्प तक उत्पन्न की गई है । प्रथम समयवर्ती सयोगी जिनके बाद आहारकशरीर, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, और वायुकायिक, जीवोंका ग्रहण इसलिए नहीं किया, क्योंकि, एक जीवकी अपेक्षा इनके जो प्रत्येकशरीर द्रव्यववर्गणा होती है उसका ग्रहण मध्यम विकल्पों में आ जाता है । यहां जघन्य वर्गणासे उत्कृष्ट वर्गणा लाते समय प्रत्येक स्थल पर गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा बतलाया गया है सो यह कथन सम्भव सत्यकी अपेक्षासे किया गया जानना चाहिए; क्योंकि प्रत्येक जीवके औदारिकशरीय आदि जघन्य वर्गणासे अपनी औदारिकशरीर आदि उत्कृष्ट वर्गणा व्यक्तरूपसे सब जीवोंसे अनन्तगुणे परमाणुओंके समुच्चयरूप नहीं होती । कारण कि औदारिकशरीर आदि अपनी जघन्य वर्गणासे उत्कृष्ट वर्गणाका गुणकार अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण ही बतलाया है । इस प्रकार एक जीवको अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ठ प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा के स्वामीका विचार किया ।
अब एक जीवका अवलम्बन लेकर नारकी के अन्तिम समय में वृद्धि नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्टपनेको प्राप्त हो गया है अतः बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त दो जीवोंका आलम्बन लेकर प्रत्येकशरीय द्रव्यवर्गणाको प्राप्त करते हैं । यथा-यहां गुणितघोलमान विधिसे आये हुए ऐसे दो बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव लो जिनके शरीर परस्परमें सम्बद्ध हैं और जिनमेंसे प्रत्येकके प्रत्येकशरीर वर्गणाका संचय नारकी के उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर वर्गणा के संचयसे आधा आधा है । अतएव इन दोनों जीवों के प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणाका संचय अंतिम समयवर्ती नारकी जीवके वैक्रियिक, तैजस और कार्मणशरीर के संचयके समान होता है । यद्यपि वैक्रियिकशरीरसे औदारिकशरीर असंख्यातगुणा हीन होता है तो भी इन दोनों संचयोंके सदृश होने में कोई विरोध नहीं आता ; क्योंकि तैजस और कार्मणशरीरोंके रहते हुए वैक्रियिकशरीर के असंख्यातवें भागमात्र ओदारिकशरीरका
ॐ अ० प्रतौ - णागद * अ० आ० प्रत्योः - णरइय' इति पाठः ।
आ० प्रतौ - णागदे, इति पाठ: 1
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८० )
छत्रखंडागमे वग्गणा - खंडं
५, ६, ९१.
असंखंज्जदिभागमेत्तद्दव्वु वलंभादो । संपहि दोसु जीवेसु ट्ठियओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीराणं छप्पुंजा पुव्वविहाणेण वड्ढावेयव्त्रा जाव दोष्णं जीवाणं पाओग्गउक्कस्सदव्वं पत्ता त्ति । पुणो तिण्णिबादरपुढ विकाइयपज्जत्तजीवा अण्णोषण संबद्धसरीरा दोष्णं बादरपुढ विपज्जत्त जीवाणमुक्कस्सदव्त्रस्स कयतिभागसंच्या एदेहि दोहि वि सरिसा होंति । पुणो ते मोत्तूण इमे घेतूण पुर्व्वाविहाणेण वड्ढावेदव्वा जाव अप्पप्पणो उक्कस्पमाणं पत्ता त्ति । पुणो एदेसि तिष्णं दव्त्राणं केसि दव्वं सरिसं त्ति वृत्ते वुच्चदे । तं जहा- चदुष्णं बादरपुढविकाइयजीवाणं तिष्णं बादरपुढ विकाइयउक्करसदव्वस्स चदुब्भागसंचयाणं एगबंधणबद्धाणं दव्वं सरिसं होदि । एदेसि पि दव्वं तेणेव कमेण वड्ढा वेदव्वं जाव चदुष्णं जीवाणमुक्कस्सदव्वं पत्तं त्ति । एवं पंच-छ सत्तट्ठ- नव-दसtags जाव तप्पा ओग्गपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तबादरपुढविकाइयपज्जत्तजीवा त्ति दव्वं । पुणो एदेसिमोरालिय-तेजा - कम्मइयसरीराणि कमेण वड्डाविय पुणो एगबंधणबद्ध बाद रते उक्काइयपज्जत्तजीवा doaसंचयेण एगबंधणबद्ध पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तबादरपुढविकाइयपज्जत्तजीवे हि सरिसा घेत्तव्वा । पुणो एदे घेत्तूण पुव्वविहाणेण एदेसिमोरालिय- तेजा कम्म इयसरीराणि परिवाडीए वड्डाविय पुणो
द्रव्य उपलब्ध होता है। अब इन दोनों जीवोंमें स्थित औदारिक, तेजस और कार्मणशरीरके छह पुञ्जको पूर्वोक्त विधिसे तब तक बढाना चाहिए जब तक वे दो जीवोंके योग्य उत्कृष्टपनेको नहीं प्राप्त होते । पुनः बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त तीन ऐसे जीव लो जो परस्परमें शरीरसे संबद्ध हों और जिनमें से प्रत्येकका प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा संचय दो बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवों के उत्कृष्ट संचय के तीसरे भागप्रमाण हो । इसलिए इनका संचय उक्त दो जीवोंके संचयके समान होता है । पुनः उन पूर्वोक्त जीवोंको छोड़कर और इनका अवलम्बन लेकर पूर्वोक्त विधिसे अपने उत्कृष्ट प्रमाणके प्राप्त होने तक द्रव्यकी वृद्धि करनी चाहिए । पुनः इन तीनोंका द्रव्य किनके द्रव्यके समान होता है ऐसा प्रश्न करने पर उत्तर देते हैं । यथा - ऐसे चार बादर पृथिवीकायिक जीव लो जो एक बन्धनबद्ध हैं और जिनमें से प्रत्येकको तीन बादर पृथिवीकायिक जीवोंके उत्कृष्ट सचयके चौथे भागप्रमाण द्रव्यका संचय प्राप्त हुआ है, अतएव एन चारोंका संचय उक्त तीनों के संचयके तुल्य है । इनके भी द्रव्यको उसी क्रमसे बढाना चाहिए जिससे इन चारों जीवोंका द्रव्य उत्कृष्टपनेको प्राप्त हो जाय । इस प्रकार पाँच, छह, सात, आठ, नौ और दससे लेकर तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके होने तक ले जाना चाहिए । पुनः इनके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरोंको क्रमसे बढाकर पुनः एक बन्धनबद्ध इतने बादर तेजकायिक पर्याप्त जीव लेने चाहिए जो द्रव्यसंचयकी अपेक्षा एक बन्धनबद्ध पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके समान हों। पुनः इनका आश्रय करके पूर्वोक्त विधिसे इनके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरोंको आनुपूर्वी से बढाकर पुनः एक जीवको अधिक करते हुए जब तक एक बन्धनबद्ध बादर
XxX ता० प्रती - मेत्तदव्त्र - आप्रतौ - मित्ततद्दन्व - इति पाठः ।
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५, ६, ९१.) बंधणाणुयोगद्दारे पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा
( ८१ काऊण णेदव्वं जाव बादरतेउक्काइयपज्जत्तजीवा आवलियवग्गादो असंखेज्जगणमेता कमेण वड्डाविय एगबंधणब द्वा जादा ति । अथवा तप्पाओग्गअसंखेज्जजीवा एगबंधणबद्धा घेत्तवा । कुदो ? बादरते उक्काइयपज्जत्तापज्जताणं देवकदच्छुपादिसु एगागारे एगबंधणबद्धं पडि विरोहाभावादो। ते कत्थ लभंति? वल्लरिदाहे वा देवकदच्छुए वा महावणदाहे वा लभंति । पुणो एदेसिमोरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरेसु पत्तेयं वट्टाविदेसु पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा उक्कस्सा होदि । जहण्णादो उक्कस्ता असं. ज्जगुणा । को गुणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो।
पुढवि-आउ-ते उ-वाउकाइया देव-णेरइया आहारसरीरा पमत्तसंजना सजोगि-अजोगिकेवलिणो च पत्तेयसरीरा वुच्चंति; एदेसि णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो। विग्गहगदीए वट्टमाणा बादर-सुहमणिगोदजीवा पत्तेयसरीरा ण होंति ; णिगोदणाम-कम्मो. दयसहगदत्तेण विग्गहगदीए वि एगबंधणबद्धाणंतजीवसमूहत्तादो। जदि विग्गहगदीए वट्टमाणासेस जीवा पत्तेयसरीरा होंति तो पत्तेयवग्गणाओ अणंताओ होज्ज। ण च एवं, असंखेज्ज लोगमेता होंति त्ति अविरुद्धाइरियवयणेण अवगदत्तादो। विग्गहगदीए
तेजस्कायिक पर्याप्त जीव आवलिवर्गसे असंख्यातगुणे नहीं हो जाते तब तक इनकी संख्या और उसी क्रमसे द्रव्यको बढाते हुए ले जाना चाहिए। अथवा एक बन्धनबद्ध तत्प्रायोग्य असंख्यात जीव लेने चाहिए; क्योंकि, देवकृत झाडियों में लगी हई अग्नि में बादर तेज कायिक पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके एक स्थानमें एक बन्धनबद्ध होने में कोई विरोध नहीं आता।
शंका-एक बन्धनबद्ध वे जीव कहाँ उपलब्ध होते हैं ?
समाधान- लताओंका दाह होते समय, देवकृत झाडियोंमें या महावनका दाह होते समय एक बन्धनबद्ध उक्त जीव उपलब्ध होते हैं ।
पुनः इनके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरोंके पृथक् पृथक् बढाने पर प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा उत्कृष्ट होती है ! यहां जघन्य वर्गणासे उत्कृष्ट वर्गणा असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है।
पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, देव, नारकी, आहारकशरीरी,प्रमत्तसंयत, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये जीव प्रत्येकशरीरवाले होते हैं, क्योंकि, इनका निगोद जीवोंके साथ सम्बन्ध नहीं होता । विग्रहगतिमें विद्यमान बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव प्रत्येकशरीरवाले नहीं होते हैं, क्योंकि, निगोद नामकर्मके उदयके साथ गमन होनेके कारण विग्रहगतिमें भी एक बन्धनबद्ध अनंत जीवोंका समूह पाया जाता है । यदि विग्रहगतिमें वर्तमान अशेष जीव प्रत्येकशरीर होते हैं ऐसा माना जाय तो प्रत्येक वर्गणायें अनन्त हो जावें । परन्तु ऐसा है नहीं; क्योंकि, वे असंख्यात लोक प्रमाण होती है ऐसा अविरुद्धभाषी आचार्योंके वचनोंसे
ता० प्रती 'काऊण पुणो णेदव्वं ' इति पाठः । ४ता० प्रती '-क्काइयपज्जत्ताणं व कद-' इति पाठः। *ता० प्रती 'वद्रमाणा सेस-' इति पाठ:1
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८२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ९१. सरीरणामकम्मोदयाभावादो ण पत्तेयसरीरत्तं ण साहारणसरीरत्तं। तदो ते पत्तेयसरीरबादर-सुहुमणिगोदवग्गणासु ण कत्थ विपदंति ति वृत्त वच्चदे- ण एस दोसो; विग्गहगदीए बादर-सुहुमणिगोदणामकम्माणमुदयदसणेण तत्थ वि बादर-सहमणिगोद. वववग्गणाणमुवलंभादो। एदेहितो वतिरित्ता जीवा गहिदसरीरा अगहिदसरीरा वा पत्तेयसरीरवग्गणा होति । तदो पत्तेयस रोरा असंखेज्जलोगमेत्ता होंति त्ति सिद्धं । ते च एगबंधणबद्धा असंखेज्जलोगमेत्ता होंति । कुदो एवं णवदित्ति वुत्ते ईसिप्पन्भाराए पुढवीए बादरपुढविकाइयजीवा असंखेज्जलोगमेत्ता होदूण सव्वत्थोवा । एक्कम्हि उदगबिदुम्हि आउकाइया जीवा असंखेज्जगुणा। एक्कम्हि इंगाले तेउक्काइया जीवा असंखेज्जगुणा एक्कम्हि जलबुब्बुदे वाउक्काइया जीवा असंखेज्जगुणात्ति अप्पाबहुगसत्तादो नव्वदे। तदो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तजीवेहि एगबंधणबद्धेहि उक्कस्सिया एया पत्तेयसरीरवग्गणा होदि ति ण घडदे ? ण एस दोसो, ईसिप्पन्भारसिलेग-जल. बिद्इंगाल-जलबब्बदेस पादेक्कमसंखेज्जलोगमेत्तजीवेस संतेस वि तत्थ तेउवकाइयपज्जत्तमेत्ताणं चेव जीवाणमेगबंधणबद्धाणमवलंभादो। एगबंधणबद्धा एत्तिया चेव
जाना जाता है।
शंका-- विग्रहगतिमें शरीर नामकर्मका उदय नहीं होता, इसलिए वहां न तो प्रत्येक शरीरपना प्राप्त होता है और न साधारणशरीरपना ही प्राप्त होता है। इसलिये वे प्रत्येकशरीर, बादर और सूक्ष्म निगोद वर्गणाओंमें से किन्ही में भी अन्तर्भत नहीं होती हैं ?
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, विग्रहगतिमें बादर और सूक्ष्म निगोद नामकर्मोका उदय दिखाई देता है इसलिए वहां पर भी बादर और सूक्ष्म निगोद द्रव्यवर्गणायें उपलब्ध होती हैं। और इनसे अतिरिक्त जिन्होंने शरीरोंको ग्रहण कर लिया है या नहीं ग्रहण किया है वे सब जीव प्रत्येकशरीर वर्गणावाले होते हैं ।
इसलिए प्रत्येकशरीर वर्गणायें असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं यह सिद्ध होता है ।
शंका-- एक बन्धनबद्ध वे जीव असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। यदि कहो कि यह बात किस प्रमाणसे जानी जाती है तो इसका समाधान यह है कि ईषत्प्राग्भार पृथिवीमें बादर पथिवीकायिक जीव असंख्यात लोकप्रमाण होते हुए भी सबसे स्तोक होते हैं। इनसे एक जलबिन्दुमें जलकायिक जीव असंख्यातगुणे होते हैं। इनसे एक अंगारेमें अग्निकायिक जीव असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे एक जलके बुलबुलेमें वायुकायिक जीव असंख्यागुण होते हैं। इस प्रकार इस अल्पबहुत्व सूत्रसे यह बात जानी जाती है। इसलिए पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण एक बन्धनबद्ध जीवोंके अवलम्बनसे एक उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर वर्गणा होती है यह बात घटित नहीं होती ?
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ईषत्प्राग्भार शिलामें, एक जलबिन्दुमें, एक अंगारे में और जलके एक बुलबुले में अलग अलग असंख्यात लोकप्रमाण जीवोंके होने पर भी वहां मात्र तेजस्कायिक पर्याप्त जीव ही एक बन्धनबद्ध उपलब्ध होते हैं ।
७ ता० प्रती । (त्ति- ) वृत्ते ' इति पाठः 1 * ता० प्रती — इसिप्पभाराए ' इति पाठः !
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५, ६, ९२.) बंधणाणुयोगद्दारे पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा ( ८३ होति अहिया ण होंति ति कधं णव्वदे ? अविरुद्वाइरियवयणादो । ते च तेउक्काइएसु चेव बहुआ लब्भंति ण अण्णत्य। तेण वल्लरिवाहादिसु एगिगालो चेव पहाणीकओ । तत्थ गुणिदकम्मंसिया सुटु जदि बहुआ होंति तो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव, अवसेसा सव्वे अगुणिदकम्मंसिया । एसा सत्तारसमीरी वग्गणा १७ अग्गेज्झा सभेयणत्तादो।। पत्तयसरीरदव्ववग्गणाणमुवरि धवसुण्णदखवग्गणा णाम। ९२ ।
उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए एगरूवे पक्खित्ते बिदियधुवसुण्णदव्ववग्गणाए सव्वजहणिया धुवसुण्ण दव्ववग्गणा होदि । तदो रूवुत्तरकमेण परिवाडीए सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तधवसुण्णदव्ववग्गणासु गदासु उक्कस्सिया धुवसुण्णदव्ववग्गणा
शंका- एक बन्धनबद्ध इतने ही जीव उपलब्ध होते हैं अधिक नहीं होते हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- अविरुद्ध आचार्योंके वचनोंसे जाना जाता है।
और वे तैजसकायिकोंमें ही बहुत उपलब्ध होते हैं अन्यत्र नहीं उपलब्ध होते, इसलिए लता दाह आदिमें एक अंगारा ही प्रधान किया है । वहां गुणितकौशिक जीव यदि बहुत होते हैं तो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं । बाकीके सब गुणितकौशिक नहीं होते।
यह सत्रहवीं वर्गणा है।
विशेषार्थ- पहले एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणा कह आये हैं। यहां एक बन्धनबद्ध नाना जीवोंकी अपेक्षा यह वर्गणा बतलाई गई है। जिनका शरीर पृथक पृथक् अर्थात् प्रत्येक होकर भी परस्पर जुडा हुआ होता है वे एक बन्धनबद्ध जीव माने गये हैं । ऐसे पृथिवीकायिक जीव पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हो सकते हैं और अग्निकायिक जीव इनसे भी अधिक हो सकते हैं जो एक पिण्डमें बद्धनबद्ध रहते हैं और इससे इन सबको मिलकर एक प्रत्येकवर्गणा बनती है । साधारण शरीरसे इस प्रत्येक शरीरमें बहुत अन्तर होता है। वहां शरीर एक ही होता है किन्तु यहां सबके अलग अलग शरीर होते हैं। मात्र प्रत्येकशरीर एक दूसरेसे सम्बद्ध रहते हैं और इसीसे इन्हें एक बन्धनबद्ध मानकर इनकी एक वर्गणा मानी गई है । एक तेजस्कायिक जीवके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर तथा इनके विस्रसोपचयोंका जितना उत्कृष्ट संचय हो सकता हो उसे असंख्यातगुणित आवलिवर्गसे गुणित करनेपर या तत्प्रायोग्य असंख्यातसे गुणित करनेपर उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणाका प्रमाण आता है। यहां अन्तिम समयवर्ती नारकीके उत्कृष्ट संचयसे आगे की प्रक्रिया द्वारा इसी वर्गणाके उत्पन्न करने की विधि कही गई है। यह नाना प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणारूप होकर भी एक बन्धनबद्ध होनेसे एक प्रत्येकशरीर द्रव्य वर्गणा मानी गई है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणाओंके ऊपर ध्रवशन्य वर्गणा है ।। ९२ ॥
उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर वर्गणामें एक अंकके मिलाने पर दूसरी त्रुवशून्य वर्गणा सम्बन्धी सबसे जघन्य ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा होती है । अनन्तर एक एक अधिकके क्रमसे आनुपूर्वीसे सब जीवोंसे अनन्तगुणी ध्रुवशून्य वर्गणाओंके जाने पर उत्कृष्ट ध्रुवशून्यवर्गणा उत्पन्न होती है।
अ० आo प्रत्योः 'सत्तरसमी ' इति पाठः I &Personal use Only
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८४)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५. ६ ९३. उप्पज्जदि । सा च जहण्णादो अणंतगणा । को गणगारो ? सव्वजीवाणमसंखेज्जदिभागो। तं जहा- सधजीवसि असंखेज्जलोगमेत्तसरीरेहि ओवट्टिय आवलियाए असंखेज्जदिभागेण असंखेज्जलोगेहि एगजीवोरालिय-तेजा-कम्मइयदत्वेण च गणिय रूवे अवणिदे उक्कस्सधुवसुण्णदव्ववग्गणा होदि । पुणो इममुक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए रूवाहियाए अवहिरिदे सव्वजीवरासिरस असंखेज्जदिभागो आगच्छदि ति पुव्वमणिदगुणगारो चेव होदि ति घेतव्वं । एसा अट्ठारसमो वग्गणा १८ एयंतवाइदिद्विस्स व्व सव्वकालं सुण्णभावेणवद्विदा । धुवसण्णदव्ववग्गणाणमवरि बादरणिगोददव्ववग्गणा णाम ।९३।
उक्कस्सधवसुण्णदव्ववग्गणाए एगरूवे पक्खित्तै सवजहणिया बादरणिगोददव्ववग्गणा होदि । सा कत्थ दिस्सदि ? खीणकसायचरिमसमए। किविहे खोणकसाए होदि ति वृत्ते वुच्चदे- जो जीवो खविदकम्मसियलक्खणेणागंतूण पुवकोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो । तदो गम्भादिअट्ठवस्साणमंतोमहुत्तब्भहियाणमवरि सम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तूण पुणो कम्मरस उक्फस्सगुणसे डिणिज्जरं देसूणपुवकोडि कादूण अंतोमहुत्तावसेसे सिज्झदव्वए त्ति खवगसेढिमारूढो। तदो खवगसेडिम्म सन्चुक्कस्स
वह जघन्य वर्गणासे अनन्त गुणी है। गुणकार क्या है ? सब जीवोंका असख्यातवां भागप्रमाण गुणकार है। यथा- सब जीवराशिको असंख्यात लोकप्रमाण शरीरोंसे भाजित कर पुनः आवलीके असंख्यातवें भागसे, असंख्यात लोकोंसे और एक जीवके औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरके द्रव्यसे गुणित कर जो लब्ध आवे उसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ट ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा होती है। पुनः इसे एक अधिक उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गगासे भाजित करने पर सब जीवराशिका असंख्यातवां भाग आता है। इसलिए पहले कहा गया गुणकार ही होता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए। यह अठारवीं वर्गणा है १८ । एकान्तवादी दृष्टिके समान यह सदा काल शून्यरूपसे अवस्थित है।
ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणाओंके ऊपर बादरनिगोद द्रव्यवर्गणा है ॥९३ ॥
उत्कृष्ट ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणामें एक अंकके मिलाने पर सबसे जघन्य बादर निगोद द्रव्यवर्गणा होती है।
शंका-- वह कहां दिखाई देती है ? समाधान-- क्षीणकषायके अन्तिम समयमें ।
किस प्रकारके क्षीणकषायमें होती है ऐसा प्रश्न करने पर उत्तर देते हैं- जो जीव क्षपित कर्माशिक विधिसे आकर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। अनन्तर गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तका होने पर सम्यक्त्व और संयमको युगपत् ग्रहण करके पुन: कुछ कम पूर्वकोटि काल तक कर्मकी उत्कृष्ट गुणश्रेणि निर्जरा करके सिद्ध होने के लिए अन्तर्मुहूर्त काल अवशेष रहने पर क्षपकश्रेणि पर आरोहण किया । अनन्तर क्षपकश्रेणिमें सबसे उत्कृष्ट विशुद्धि के
४ अ० का० प्रत्योः '-सेव्व ' इति पाठः ]
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( ८५
५, ६, ९३. ) बंधणाणुयोगद्दारे बादरनिगोददव्ववग्गणा विसोहीए कम्मणिज्जरं करेमाणस्स खीणकसायस्स पढमसमए अणंता बादरणिगोद. जीवा मरति । बिदियसमए विसेसाहिया जीवा मरंति । केत्तियमेतेण विसेसाहिया? पढमसमए मदजीवपमाणमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडेदूण तत्थ एगखंडमेत्तेण । एवं तदियसमयादिसु विसेसाहिया विसेसाहिया मरंति जाव खोणकसायद्धाए पढमसमयप्पहडि आवलियपुधत्तं गदं ति। तेण परं संखेज्जदिभागब्भहिया संखेज्जदिभागभहिया मरंति जाव खीणकसायद्धाए आवलियाए असंखेज्जदिभागो सेसो ति । तदो उरिमाणंतरसमए असंखेज्जगणा मरंति । एवमसंखेज्जगुणा असंखेज्जगणा भरंति जाब खीणकप्तायचरिमसमओ त्ति । गुणगारो पुण सव्वत्य पलिदोवमस्स असं. खेज्जदिभागो। विसेसाहियमरणचरिमससए मदजीवे तप्पाओग्गेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गणिदे गुणसेडिमरणपढमसमए मदजीवपमाणं होदि त्ति घेत्तव्वं । एवमरि पि जाणिदूण वत्तव्वं जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति । एसो गुणगारो समयं पडि मरंतजीवाणमेव परूवेदव्वो, ण पुलवियाणं । तं कधं णव्वदे ? खीणकसायचरिमसमए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तणिगोदाणं ति उवरि भण्णमाणचूलियासुत्तादो। के णिगोदा णाम ? पुलवियाओ णिगोदा ति भणंति ।
द्वारा कर्मनिर्जरा करके क्षीणकषाय हुए इस जीवके प्रथम समयमें अनन्त बादर निगोद जीव मरते हैं। दूसरे समयमें विशेष अधिक जीव मरते हैं। कितने विशेष अधिक जीव मरते हैं ? प्रथम समयमें मरे हुए जीवोंके प्रमाणमें आवलीके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतने विशेष अधिक जीव मरते हैं। इसी प्रकार तीसरे आदि समयोंमें विशेष अधिक विशेष अधिक जीव मरते हैं। यह क्रम क्षीणकषायके प्रथम समयसे लेकर आवलिपृथक्त्व काल तक चाल रहता है। इसके आगे संख्यातवां भाग अधिक संख्यातवां भाग अधिक मरते हैं। और यह क्रम क्षीणकषायके काल में आवलिका असंख्यातवां भाग काल शेष रहने तक चालू रहता है। इसके आगेके लगे हुए समयमें असंख्यातगुण जीव मरते हैं। इस प्रकार क्षीणकषायके अन्तिम समय तक असंख्यातगणे जीव मरते हैं। गणकार सर्वत्र पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषाधिक मरनेके अन्तिम समयमें मरनेवाले जीवोंके प्रमाणको
पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर गुणश्रेणि क्रमसे मरनेके प्रथम समयमें मरे हुए जीवोंका प्रमाण होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार आगे भी क्षीणकषायके अन्तिम समय तक जानकर कथन करना चाहिए। यह गुणकार प्रत्येक समय में मरनेवाले जीवोंका ही कहना चाहिए, पुलवी जीवोंका नहीं।
शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- आगे कहे जानेवाले चूलिकाके 'खींगकसायचरिमसमए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तणिगोदाणं' इस सूत्रसे जाना जाता है।
शंका-- निगोद किन्हें कहते हैं ? समाधान-- पुलवियोंको निगोद कहते हैं।
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८६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६. ९३. संपहि पुलवियाणं एत्थ सरूवपरूवणं कस्सामो। तं जहा - खंधो अंडरं आवासो पुलविया णिगोदसरीरमिदि पंच होति । तत्थ बादरणिगोदाणमासयभदो* बहुएहि वक्खारएहि सहियो वलंतवाणियकच्छ उडसमाणो मलय-थहल्लयादिववएसहरो खंधो णाम। ते च खंधा असंखेज्जलोगमेत्ता; बादरणिगोदपदिदिदाणमसंखेज्जलोगमेत्तसंखुव. लंभादो । तेसि खंधाणं ववएसहरो तेसिक भवाणमवयवा वलंजुअकच्छउडपुव्वावरभागसमाणा अंडरंणाम । अंडरस्स अंतोट्टियो कच्छ उडंडरतोट्टियवक्खारसमाणो आवासो णाम। अंडराणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि । एक्केक्कम्हि अंडरे असंखेज्जलोगमेत्ता आवासा होति । आवासमंतरे संदिदाओ कच्छ उडंडरवक्खारंतोट्ठियपिसिवियाहि समाणाओ पुलवियाओ णाम । एक्केक्कम्हि आवासे ताओ असंखेज्जलोगमेत्ताओ होति । एक्के. क्कम्हि एक्केक्किस्से पुलवियाए असंखेज्जलोगमेताणि णिगोदसरीराणि ओरालियतेजा-कम्मइयपोग्गलोवायाणकारणाणि कच्छउडंडरवक्खारपुलवियाए अंतोट्टिददव्यसमाणाणि पुध पुध अणंताणतेहि णिगोदजीवे हि आउण्णाणि होति । तिलोग-भरहजणवय-गाम-पुरसमाणाणि खंधंडरावासपुलविसरीराणि त्ति वा घेत्तन्वं ।
पुणो एत्थ खीणकसायसरीरं खंधो णाम; असंखेज्जलोगमेत्तअंडराणमाधारभावादो। तत्थ अंडरंतोट्ठियअणंतागंतजीवेसु सुक्कज्झाणेण पडियसमयमसंखेज्जगुणाए
अब यहाँ पर पुलवियोंके स्वरूपका कथन करते हैं। यथा- स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवी और निगोदशरीर य पाँच होते हैं। उनमें से जो बादर निगोदोंका आश्रयभूत है, बहुत वक्खारोंसे युक्त है तथा वलजंतवाणिय कच्छउड समान है ऐसे मूली, थूअर और आर्द्रक आदि
रण करनेवाला स्कन्ध कहलाता हैं। वे स्कन्ध असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं, क्योंकि. बादर निगोद प्रतिष्ठित जीव असंख्यात लोकप्रमाण पाये जाते हैं । जो उन स्कन्धोंके अवयव है और जो वलंजुअकच्छउडके पूर्वापर भागके समान हैं उन्हें अण्डर कहते है। जो अण्डरके भीतर स्थित हैं तथा कच्छ उडअण्डरके भीतर स्थित वक्खारके समान हैं उन्हें आवास कहते हैं। अण्डर असख्यात लोकप्रमाण होते हैं। तथा एक एक अण्डरमें असंख्यात लोकप्रमाण आवास होते हैं । जो आवासके भीतर स्थित हैं और जो कच्छ उडअण्डरवक्खारके भीतर स्थित पिशवियोंके समान हैं उन्हें पुलवि कहते हैं। एक एक आवासमें वे असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं। तथा एक एक आवासको अलग अलग एक एक पुलविमें असंख्यात लोकप्रमाण निगोद शरीर होते हैं जो कि औदारिक, तैजस और कार्मण पुदगलोंके उपादान कारण होते हैं और जो कच्छ उड अण्डरवक्खारपुलविके भीतर स्थित द्रव्योंके समान अलग अलग अनन्तानन्त निगोद जीवोंसे आपूर्ण होते हैं । अथवा तीन लोक, भरत, जनपद, ग्राम और पुरके समान स्कन्ध, अण्डर, आवास, पुलवि और शरीर होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए ।
पुनः यहाँ पर क्षीणकषाय जीवके शरीरकी स्कन्ध संज्ञा है; क्योंकि, वह असंख्यात लोकप्रमाण अण्डरोंका आधारभूत है । वहाँ अण्डरोंके भीतर स्थित हुए अनंतानंत जीवोंमेंसे शुक्ल
* ता० प्रती '-मास ( म ) य भूदो । अ० आ० प्रत्योः '-मासमयभूदो , इति पाठः । .ता० प्रती '-लोगमेत्तववएसहरा तेसि ' इति पाठः ।
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५, ६, ९३.) बंधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा
(८७ सेडीए मदेसु खीणकसायचरिमसमए मरमागजीवा अर्णता होति । होता वि हेट्ठा दुचरिमसमएसु मदजीवेहितो असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो। खीणकसायचरिमसमयपुलवियाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ ति सुत्ते भणिदं । जदि पुन्वत्तरगणगारो पुलवियाणं होदि तो एदं ण घडदे; दुचरिम. समए मदजीवपुलवियासु आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तासु पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागेण गणिदासु खीणकसायचरिमसमए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तपुलवोणमुवलंभादो। एक्केक्कम्हि खंधे अंडराणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि । तत्थ एक्केक्कम्हि अंडरे आवासा असंखेज्जलोगमेत्ता। तत्थ एक्केक्कम्हि आवासे पुलवियाओ असंखेज्जलोगमेत्ताओ ति पुवं परूविदं। तेण खोणकसायचरिमसमए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेताओ पुलवियाओ अस्थि त्ति ण घडदे। ण च तत्थतणपुलवियाणमसंखेज्जा भागा खीणकसायट्ठाणे णट्टा त्ति वोत्तुं जुत्तं; सगसरीरट्टियणिगोदजीवे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण खंडिय तत्थ एगखंडम्मि पढें पुलवियाणमसंखेज्जाणं भागाणं विणासवि. रोहादो। ण च चरिमसमए मदजीवा दुरिमादिसमएसु मदजीवाणमसंखज्जदिभागो; गुणसेडिमरणपरूवणाए सह विरोहादो? एस्थ परिहारो वुच्चदे- खीणकसायसरीरे उक्कस्सेण जहण्णेण विपुलवियाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ चेव ध्यानके द्वारा प्रति समय असख्यातगुणे श्रेणि रूपसे जीवोंके मरने पर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें मरनेवाले जीव अनन्त होते हैं। इतने होते हुए भी पहले द्विचरम समय में मरनेवाले जीवोंसे असंख्यातगुणे होते हैं। गुणकार क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार है।
शंका-- क्षीणकषायके अन्तिम समयमें पुलवियाँ आवलिके असख्यातवें भागप्रमाण होती हैं ऐसा सूत्रमें कहा गया है। यदि पूर्वोक्त गुणकार पुलवियोंका होता है तो यह कथन घटित नही होता, क्योंकि, द्विचरम समय में मृत जीवोंकी आवलिके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियोंको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियाँ उपलब्ध होती हैं। एक एक स्कन्धमें अण्डर असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। तथा एक एक अण्डरमें आवास असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं और एक एक आवासमें पुलवियाँ असंख्यात लोकमात्र होती हैं इस प्रकार पहले कह आये हैं। इसलिए क्षीणकषायके अन्तिम समयमें आवलिके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियाँ हैं यह वचन घटित नहीं होता है । वहाँकी पुलवियोंका असंख्यात बहुभाग क्षीणकषाय गुणस्थानमें नष्ट हो गया है यह कहना युक्त नहीं है। क्योंकि, अपने शरीरमें स्थित निगोद जीवोंको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित कर वहाँ लब्ध एक भागके नष्ट होनेपर पुलवियोंके असंख्यात बहुभागका विनाश मानने में विरोध आता है। अन्तिम समयमें मरे हुए जीव द्विचरम आदि समयोमें मरे हुए जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इस कथनका गुणश्रेणि क्रमसे मरण प्ररूपणाके साथ विरोध आता है।
__समाधान-- यहाँ इस शंकाका समाधान करते हैं। क्षीणकषाय जीवके शरीरमें उत्कृष्ट ४ ता० प्रती । उक्कस्सेण जहण्णा (ण) कि' अ० प्रती उक्कस्साण जहण्णाण वि' आ० प्रती । उक्कस्सेण जहण्णाणं वि ' इति पाठः।
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छवखंडागमे वग्गणा - खंड
८८ ) होंति । एगबंधणबद्धाओ* असंखेज्जलोगमेत्ताओ कत्थ वि णत्थि । जहण्णाहियारादो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ चेव पुलवियाओ होंति त्ति घेत्तव्वं । ण च पुव्वतवयणेण सह विरोहो, खोणकतायं मोत्तूण अण्णखंधे अवलबिय तत्थ परूविदतादो। ण च सव्वखंधेसु पुलवियाओ असंखेज्जलोगमेत्ताओ चैव अस्थि त्ति नियमो; नियमाय सुत्तवक्खाजस्णुवलंभादो
( ५,
।
पहिलवाओ सिदूण केहि वि आइरिएहि निगोदाणं मरणक्कमो परुविदो तं वत्तइस्साम । तं जहा - खीणकसायपढमसमए मरतपुलवियाओ थोवाओ। विदिय. समए मरंत पुलवियाओ विसेसाहियाओ । तदियसमए विसेसाहियाओ । एवं विसे. साहिया विसेसाहिया जाव आवलिपुधत्तं त्ति । विसेसो पुण आवलियाए असंखेज्जदिभागपडिभागो | तेण परं संखेज्जभागन्भहियाओ जाव विसेसाहियमरणचरिमसमओ ति । तदो गुणसेडिमरणपढमसमए संखेज्जगुणाओ मरति । एवं संखेज्जगुणाओ संखेगुणाओ मरंति जाव खीणकसायकालस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागो सेसोत्ति ते परमसंखेज्जगुणाओ असंखेज्जगुणाओ मरंति जाव खीणकसायचरिमसमओ गुणगारेण पुण असंखेज्जगुणमरणम्हि सव्वत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागेण और जघन्य पुलवियाँ आवलिके असख्यातवें भागमात्र ही होती हैं । एक बन्धनबद्ध पुलवियाँ असंख्यात लोकमात्र कहीं भी नहीं होतीं । यहाँ जघन्यका अधिकार होनेसे आवलिके असंख्यातवें भागमात्र ही पुलवियाँ होतीं हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। पूर्वोक्त वचनके साथ विरोध आता है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, क्षीणकषायको छोड़कर अन्य स्कन्धका अवलम्बन लेकर वहाँ कथन किया है । और सब स्कन्धों में पुलवियाँ असंख्यात लोकमात्र ही होती है ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, इस प्रकारके नियमको करनेवाले सूत्रका व्याख्यान उपलब्ध नहीं होता ।
६, ९३.
अब पुलवियों का अवलम्बन लेकर कितने ही आचार्य निगोद जीवोंके मरण क्रमका कथन करते है उसे बतलाते हैं । यथा क्षीणकषायके प्रथम समय में भरनेवाली पुलवियाँ स्तोक हैं । दूसरे समय में भरनेवाली पुलवियाँ विशेष अधिक हैं। तीसरे समय में विशेष अधिक हैं । इस प्रकार आवलि पृथक्त्व काल जाने तक विशेष अधिक विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागका प्रतिभाग स्वरुप है । इससे आग विशेषाधिकके क्रमसे मरण करने के अन्तिम समय तक संख्यातवें भाग अधिक हैं । अनन्तर गुणश्रेणि रूपसे मरण करने के प्रथम समय में संख्यातगुणी मरणको प्राप्त होती हैं । इस प्रकार क्षीणकषायके कालमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल शेष रहने तक संख्यातगुणी संख्यातगुणी मरणको प्राप्त होती हैं । इससे आगे क्षीणकषायके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी मरणको प्राप्त होती हैं । जहाँ असंख्यातगुणी पुलवियोंका मरण कहा है वहाँ गुणकार आवलिका असंख्यातवां भाग
ता०आ० प्रत्यो: ' एत्थ बंधणबद्धाओ ' इति पाठ: 1 ★ ता०प्रती 'णियभो, (नियमाय ) सुक्खा ( णा - ) णामणुवलंभादो' अ०आ०प्रत्यो: 'नियमो, णित्रमा यसुत्तवक्खाणमणुवलंभादो' इति पाठ: 1
1
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५, ६, ९२.) बंधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा ( ८९ होदव्वं ; अण्णहा खीणकसायचरिमसमए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेतपुलवियाणमणुवबत्तीदो । अणेण विहाणेण गंतूण खीणकसायचरिमसमए आवलियाए असंखेज्ज. दिभागमेत्तपुलवियाओ मदावसिट्टाओ ; हेट्टा दुचरिमादिसमएसु णटुपुलवियाहितो असंखेज्जगुणाओ उव्वरंति ; गणसेडिमरणगहाणववत्तीदो । एसो पुलवियाणमावलि. याए असंखेज्जदिभागो गणगारो जो पढिदो सो ण घडदे; खीणकसायचरिमसमए णटुपुलवियाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपमाणत्तप्पसंगादो । कुदो? जहण्णपरित्तासंखेज्जं विरलिय आवलियाए असंखेज्जदिभागं रूवं पडि दादूण अण्णोण्णण गुणिदे वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपमाणप्पत्तीदो।
किमट्ठभेदे एत्थ मरंति? ज्झाणेण णिगोदजीवप्पत्तिट्टिदिकारणणिरोहादो। ज्झाणेण अणंताणंतजीवरासिणिहताणं कथं णिवई ? अप्पमादादो । को अप्पमादो ? पंच महव्वयाणि पंच समदीयो तिणि गुत्तीओ हिस्सेसकसायाभावो च अप्पमादो णाम । हिंसा पाम पाण-पाणिवियोगो । तं करेंताणं कथहिंसालक्खणपंचमहव्वय
होना चाहिए, अन्यथा क्षीणकषायके अन्तिम समयमें आवलिके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियाँ उपलब्ध नहीं होतीं । इस विधिसे जाकर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जो आवलिके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियाँ मरनेसे अवशिष्ट रहती हैं वे पीछे द्विचरम आदि समयोंमें नष्ट हुई पुलवियोंसे असंख्यातगुणी शेष रहती हैं ! अन्यथा गुणश्रेणि मरण नहीं बन सकता । किन्तु यहाँ यह जो पुलवियोंका आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार कहा है वह घटित नहीं होता, क्योंकि, इस कयनसे क्षीण कवायके अन्तिम समयमें नष्ट हुई पुलवियाँ पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती हैं। कारण कि जघन्य परीतासंख्यातका विरलन कर और आवलिके असंख्यातवें भागको विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति देकर परस्पर गुणा करने पर भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाणकी उत्पत्ति होती है।
शंका-ये निगोद जीव यहाँ क्यों मरणको प्राप्त होते हैं ?
समाधान- क्योंकि, ध्यानसे निगोद जीवोंकी उत्पत्ति और उनकी स्थितिके कारणका निरोध हो जाता है।
शंका-ध्यानके द्वारा अनन्तानन्त जीवराशिका हनन करनेवाले जीवोंको निवृत्ति कैसे मिल सकती है ?
समाधान-अप्रमाद होनेसे । शंका-अप्रमाद किसे कहते हैं ?
समाधान-पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और समस्त कषायोंके अभावका नाम अप्रमाद है।
शंका- प्राण और प्राणियोंके नियोगका नाम हिंसा है । उसे करनेवाले जीवोंके अहिंसा लक्षण पाँच महाव्रत कैसे हो सकते हैं ?
प्रतिषु पदिदो इति पाठ 1 * अ-आ प्रत्योः ' णिवत्ती ' इति पाठ! 1
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९० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ९३.
संभवो ? ण, बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावादो । तं कुदो णव्वदे ? तदभावे वि अंत रंगहिंसादो चेव सित्थमच्छस्स बंधुवलंभादो । जेण विणा जं ण होदि चेव तं तस्स कारणं । तम्हा अंतरंगहिंसा चेव सुद्धणएण हिंसा ण बहिरंगा त्तिसिद्धं । ण च अंतरंगहिंसा एत्थ अस्थि ; कसायसंजमाणमभावादो । उत्तं च
जयदु मदु व जीवो अयदाचारस्य णिच्छओ बंधो । पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदीहि ॥ २ ॥ सरवासे दुपदंते जह दढकवचो ण भिज्जहि सरेहि । तह समिदीहि ण लिप्पइ साहू काएसु इरितो जत्थेव चरइ बालो परिहारहू वि चरइ तत्थेव ।
॥ ३ ॥
वज्झइ सो पुण बालो परिहारहू वि मुंचइ सो ।। ४ ।। स्वयं ह्यहिंसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत् । प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसकः ॥ ५ ॥ वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते शिव च न परोपमदंपरुषस्मृतेविद्यते । वधोपनयमभ्युपैति च पराननिघ्नन्नपि त्वयायमतिदुर्गमः प्रशमहेतुरुद्योतितः | ६ ||
समाधान-- नहीं; क्योंकि, बहिरंग हिंसा आस्रवरूप नहीं होती ।
शंका -- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- क्योंकि, बहिरंग हिंसाका अभाव होनेपर भी केवल अन्तरङ्ग हिंसा से सिक्थ मत्स्य के बन्धकी उपलब्धि होती है ।
जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है, इसलिए शुद्धनयसे अन्तरंग हिंसा ही हिंसा है, बहिरंग नहीं; यह बात सिद्ध होती है । यहाँ अन्तरंग हिंसा नहीं है; क्योंकि, कषाय और असंयमका अभाव है । कहा भी है-
चाहे जीव जिओ चाहे मरो, अयत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले जीवके नियमसे बन्ध होता है, किन्तु जो जीव समितिपूर्वक प्रवृत्ति करता है उसके हिंसा हो जाने मात्रसे बन्ध नहीं होता || २ ||
सरोंकी वर्षा होने पर जिस प्रकार दृढ कवचवाला व्यक्ति सरोंसे नही भिदता है उसी प्रकार षट्कायिक जीवोंके मध्य में समितिपूर्वक गमन करनेवाला साधु पापसे लिप्त नहीं होता है ॥ ३ ॥
जहाँ पर अज्ञानी भ्रमण करता है वहीं पर हिंसा के परिहारकी विधिको जाननेवाला भी भ्रमण करता है, परन्तु वह अज्ञानी पापसे बँधता है और परिहार विधिका जानकर उससे मुक्त होता है ॥ ४ ॥
अहिंसा स्वयं होती है और हिंसा भी स्वयं ही होती है । यहाँ ये दोनों पराधीन नहीं हैं। जो प्रमादहीन है वह अहिंसक है किन्तु जो प्रमादयुक्त है वह सदैव हिंसक है ॥ ५ ॥ कोई प्राणी दूसरेको प्राणोंसे वियुक्त करता है फिर भी वह बंध से संयुक्त नहीं होता ।
मूलाचा० ५ १३१ ।
मलाचा० ५ १३२ ।
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बंधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा
( ९१
संपाहि खोणकसायपढमसमयप्पडि ताव बादरणिगोदजीवा उप्पज्जंति जाव तेसि चेव जहणाउवकालो सेसो ति । तेण परं ण उप्पज्जति । कुदो ? उप्पण्णाणं जीवणीयकालाभावादो। तेण कारणेण बादरणिगोदजीवा एत्तो पहुडि जाव खोणकसायचरिमसमओ ति ताव सुद्धा मरंति चेव ।
संपहि खीणकसायचरिमसमए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवियासु* पुध पुध असंखेज्जलोगमेत्तणिगोदसरीरेहि आउण्णासु द्विदिअणंताणंतजीवाणं अणेताणंतविस्तासुवचयसहियकम्म-णोकम्मसंघाओ सव्वजहणिया बादरणिगोददव्ववग्गणा होदि ।
____ संपहि एदिस्से बादरणिगोददव्ववग्गणाए ढाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-- एत्थ ताव अणंताणंतजीवाणं ओरालियसरीरपरमाणपुंजं विस्सासुवचएहि सह पुध द्वविय पुणो तेसि चेव सवेसि जीवाणं सविस्सासुवचय-तेजासरीरपरमाणपंजं विस्सासुवचएहि सह कम्मइयसरीरपरमाणुपुंजं च पुध gविय एदेसि छण्णं पुंजाणमुवरि परमाण वड्डाविय ढाणप्पत्ती वुच्चदे--- तथा परोपघातसे जिसकी स्मृति कठोर हो गई है, अर्थात् जो परोपघातका विचार करता है उसका कल्याण नहीं होता। तथा कोई दूसरे जीवोंको नहीं मारता हुआ भी हिंसकपनेको प्राप्त होता है। इस प्रकार हे जिन ! तुमने यह अतिगहन प्रशमका हेतु प्रकाशित किया है, अर्थात् शान्ति का मार्ग बतलाया है ।। ६ ।।
क्षीणकषायके प्रथम समयसे लेकर बादर निगोद जीव तब तक उत्पन्न होते हैं जब तक क्षीणकषायके काल में उनका जघन्य आयुका काल शेष रहता है। इसके बाद नहीं उत्पन्न होते; क्योंकि, उत्पन्न होने पर उनके जीवित रहनेका काल नहीं रहता, इसलिए बादर निगोद जीव यहांसे क्षीणकषायके अन्तिम समय तक केवल मरते ही हैं।
यहां क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियां हैं जो कि पृथक् पृथक् असंख्यात लोकप्रमाण निगोद शरीरोंसे आपूर्ण हैं उनमें स्थित अनन्तानन्त निगोद जीवोंके जो अनन्तानन्त विस्रसोपचयसे युक्त कर्म और नोकर्म संघात है वह सबसे जघन्य बादर निगोद द्रव्यवर्गणा है।
__ अब इस बादर निगोद द्रव्यवर्गणाके स्थानोंका कथन करते हैं । यथा- यहां अनन्तानन्त जीवोंके अपने विस्रसोपचयके साथ औदारिकशरीर परमाणुपुंजको पृथक् स्थापित करके पुनः उन्हीं सब जीवोंके अपने विस्रसोपचय सहित तैजसशरीर परमाणु- पुञ्जको और अपने विस्रसोपचय सहित कार्मणशरीर परमाणुपुञ्जको पृथक् स्थापित कर इन छह पुञ्जोंके ऊपर परमाणुओंकी वृद्धि कर स्थानोंकी उत्पत्तिका कथन करते है--
४ ता० प्रती जीवणियमकालाभावादो' इति पाठः। प्रतिषु ' सुवा' इति पाठः ।
* ता० प्रती ' असंखे०भागमेत्ता पुलवियासु ' इति पाठः । अ. का. प्रत्यो: '-सहिदा कम्मणो
कम्मसंघाओ ' इति पाठः 1. प्रतिषु ' सव्वेहि ' इति पाठः। ता० प्रती 'ट्ठाविय' इति पाठः ।
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९२ )
arastra वग्गणा-खंड
( ५, ६, ९३.
अण्णो जीवो खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण एगविस्तसुवचएण ओरालियसरीरपुंज मन्महियं काऊण खीणकसायचरिमसमए द्विदो । एवमण्णम पुनरुत्तट्ठाण होदि; अनंतर हेट्ठिमट्ठाणादो एत्य परमाणुत्तरत्तुवलंभ/दो । पुणो अण्णो जीवो खविदकम्मं सियलक्खणे णागतूण खोणकसायचरिमसमए दोहि विस्ससुवचयपरमाणू हि ओरालियस रविस्स सुवचयपुंज मन्भहियं काऊणच्छिदो तदो तमण्णं तदियमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो तीहि विस्तसुवचय परमाणूहि ओरालियसरीरविस्स सुवचयपुंजमभहियं काऊण खीणकसायचरिमसमए अच्छिदो ताधे चउत्थमपुणरुत्तट्ठाणमुपज्जदि । पुणो चदुहि विस्ससुवचएहि परमाणूहि ओरालियसरी रविस्स सुवचयपुंजमब्भ हियं काऊ अण्णो जीवो खोणकसायचरिमसमयम्हि द्विदो ताधे पंचमम पुणरुत्तद्वाणमुप्पज्जदि । एवमेगेगपरमाणुत्तरकमेण ताव द्वाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव खीणकसायच - रिमसमयहि सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्ता ओरालियविस्ससुवचयपरमाणू वड्डिदा ति । पुणो अण्णो जीवो खविदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण जहण्णदव्वस्सुवरि एगोरालियपरमाणुमोरालिय सरीरपुंजहि वड्डाविय पुणो ओरालियसरीर विस्ससुवचयपरमाणुपमाणविस्सुवचयंपुंजं वड्डाविय खोणकसायचरिमसमए द्विदो ताधे अण्णमपुण
एक अन्य जीव लो जो क्षपित कर्माशिक विधिसे आकर एक विस्रसोपचय परमाणु से औदारिकशरीर के पुञ्जको अधिक करके क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित है तो इसके यह अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है; क्योंकि, अनन्तर पूर्व के स्थान से यहां एक परमाणु अधिक उपलब्ध होता है । पुनः एक अन्य जीव लो जो क्षपित कर्माशिक विधिसे आकर क्षीणकषायके अन्तिम समय में दो विस्रसोपचय परमाणुओंसे औदारिकशरोर विस्रसोपचय पुञ्जको अधिक करके स्थित है तब उसके यह अन्य तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । पुनः एक अन्य जीव तीन विस्रसोपचय परमाणुओं से औदारिकशरीर विस्र सोपचय पुञ्जको अधिक करके क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित है उसके तब चौथा अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है । पुनः चार विस्रसोपचय परमाणुओं से औदारिकशरीर विस्रसोपचय पुञ्जको अधिक करके जो अन्य जीव क्षीणकषाय के अन्तिम समय में स्थित है उसके तब पाँचवां अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक परमाणुको बढाते हुए क्षीणकषायके अन्तिम समय में सब जीवोंसे अनन्तगुणे औदारिकशरीर विस्रसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि होने तक स्थान उत्पन्न करने चाहिए ।
पुनः एक अन्य जीव लो जो क्षपित कर्माशिक विधिसे आकर जघन्य द्रव्यके ऊपर औदारिकशरीर पुञ्ज में एक औदारिकशरीर परमाणुको बढाकर पुनः औदारिकशरीर विस्रसोपचय परमाणुप्रमाण विस्रसोपचयपुञ्जको बढाकर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित है उसके तब अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है; क्योंकि, जीवोंसे अनन्तगुणे औदारिकशरीर
ता० प्रती ' सव्वजीवेहि अनंतगुणमेता । ओरालियविस्सुवचयपरमाणुभोरा लि सरीरपुंजन्हि 'इति पाठ 1 क० प्रती ' पुणो ओरालियसरी रविस्सुवचयपुंजम्हि पुण्ववड्ढाविदो ओरालियसरी रविस्ससुव - परमाणुपमा विस्सुवचयपुंजम्मि वड्डाविय आ० का० प्रत्योः पुणो ओगलियसरी रविस्ससुवचयपरमाणुपमा विस्सुवचयपुंजम्मि पुव्वं वड्डाविदो ओरालिय० वड्डाविय' इति पाठः ।
"
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बधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा रुत्तट्ठाणं होदि । कुदो ? अणंतरहेझिमट्ठाणोरालियविस्ससुवचयपुंजादो एदस्स ट्ठाणस्स ओरालियसरीरविस्ससुवचयपुंजो सरिसो होदूण एत्थतणओरालियसरीर पुंजस्स परमाणुत्तरत्तुवलं भादो।
पुणो एदस्सुवरि एगोरालियविस्ससुवचयपरमाणम्हि वडिदे अण्णमपुणरुतढाणं होदि । दोसु विस्पसुवचयपरमाणुसु वडिदेसु अण्णमपुणरुत्तद्वाणं होदि। तिसु विस्ससुवचयपरमाणुसु वडिदेसु अण्णमपुणरुत्तढाणं होदि । एवमेगुत्तरवड्डोए ताव वडिवेदव्वं जाव सध्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तविस्ससुवचयपरमाणू वडिदा ति । एवं वड्डादूच्छिदे तो अण्णो जीवो ओघजहण्णदव्वं दोओरालियपरमाणुहि दोवारं वडिद - विस्ससुवचयेहि य अब्भहियं काऊण खीणकसायचारमसमए द्विदो ताधे अण्णमपुणरुत्तट्टाणं होदि । एवमेदेण कमेण ताव वडावेदव्वं जाव अभवसिद्धिएहि अणंतगणासिद्धाणमणंतभागमेत्ता ओरालियसरीरपरमाण सव्वजीवेहि अणतगुणमेत्ता तेसि विस्ससुवचयपरमाण च वड्डिदा त्ति । वड्ढेता वि केवडिया इदि पुच्छिदे एयबादरणिगोदजीवम्मि जत्तियविस्ससुवचयसहियओरालियसरीरपरमाण अस्थि तत्तियमेत्ता।
कधमेगो जीवो दोण्णं जीवाण सविस्सासोरालियसरीरपुंजस्त आहारो होज्ज? ण, एक्कम्हि वि जीवे असंखेज्जाणंख विद कम्मंसियजीवाणमोरालियसरीरदत्ववलंभादो। अनन्तर पूर्वके स्थानके औदारिक विस्रसोपचय पुजके साथ इस स्थानका औदारिकशरीर विस्रसोपचय पुञ्ज समान होकर यहांके औदारिकशरीर पुजमें एक परमाणु अधिक उपलब्ध होता है।
पुन: इसके ऊपर एक औदारिक विस्रसोपचय परमाणुके बढने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । दो विस्रसोपचय परमाणुओंके बढ़ने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। तीन विस्रसोपचय परमाणुओंके बढ़ने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि होने तक उत्तरोत्तर एक एक परमाणुको बढाते जाना चाहिए। इस प्रकार बढाकर स्थित होने पर अनन्तर एक अन्य जीव लो जो ओघ जघन्य द्रव्यको दो औदारिक परमाणुओंसे और दो बार बढाए हुए विस्रसोपचयोंसे अधिक करके क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित है तब अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार इस क्रमसे तब तक बढाते जाना चाहिए जब जाकर अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागमात्र औदारिकशरीर परमाणुओंको और सब जीवोंसे अनन्तगुणे उन्हीं के विस्रसोपचय परमाणओंकी वद्धि हो जाती है। बढाते हए भी कितनी बार बढावे ऐसा प्रश्त करने पर कहते हैं कि एक बादर निगोद जीवके जितने विस्रसोपचयके साथ औदारिकशरीर परमाण हैं उतनी बार बढावे ।
शंका-एक जीव दो जीवोंके विस्रसोपचयसहित औदारिकशरीर पुञ्जका आधार कैसे हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, एक ही जीवमें असंख्यात क्षपित कर्माशिक जीवोंका औदारिकशरीर द्रव्य उपलब्ध होता है ।
४ता० प्रती जीवे असंखेज्जगणं खविद- ' इति पाठः ।
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९४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६. ९३. जदि एक्कम्हि जीवे असंखेज्जाणं जीवाणं दव्वं संभवदि तो बादरणिगोदजहण्णवग्गणाए अणंतजीवाणं ओरालियसरीरदोपुंजेसु एगजीवओरालियसरीरदोजा णिच्छएण संभवंति त्ति पुणो किण्ण घेप्पदे ? ण । पुणो अण्णो जीवो पुवं वडिपदव्वेण ओरालियसरीरमब्भहियं काऊण पुणो तेजइयसरीरविस्तासुवचयपुंजे एगपरमाणुणा वड्डा. विदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि ; अणंतरहेट्ठिमट्ठाणं पेक्खिय एत्थ परमाणुत्तरत्तुवलंभादो। पुणो पुग्विल्लट्ठाणम्हि बेतेजइयविस्सासुवचयपरमाणुपोग्गलेसु वडिदेसु अगमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । तिसु तेजइयविस्सासुवचयपरमाणुपोग्गलेसु वडिदेसु अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवमेगादिएगत्तरकमेण ताव वढावेदव्वं जाव सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्ता तेजइयसरीरविस्सासुवचयपरमाणुड्डि त्ति ।।
तदो अण्णो जीवो ओरालियसरीरदोपुंजेसु एगजीवोरालियसरीरदोपुंजे वड्डा. विय तेजासरीरमेगतेजापरमाणणा अब्भहियं काऊण एगतेजासरीरपरमाणुणा संबंधपाओग्गअणंतपरमाणू पुव्वं व बट्टाविदमेत्ते तेजइयविस्तासुवचएसु वड्डाविय खीणकसायचरिमसमए ट्ठिदो ताधे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कारणं सुगमं । तदो अण्णो जीवो तेजासरीरमेगविस्तासुवचयपरमाणुणा अब्भहियं कादूच्छिदो ताधे अण्णम
शंका-- यदि एक जीवमें असंख्यात जीवोंका द्रव्य सम्भव है तो बादर निगोद जघन्य वर्गणा सम्बन्धी अनन्त जीवोंके औदारिकशरीर सम्बन्धी दो पुञ्जोंमें एक जीव संबंधी औदारिकशरीरके दो पुञ्ज निश्चयसे सम्भव हैं ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ?
समाधान-- नहीं ग्रहण करते ।
पुनः एक अन्य जीव लो जो पहले बढाए हुए द्रव्य के साथ औदारिकशरीरको अधिक करके पुनः तैजसशरीरके विस्रसोपचय पुञ्जमें एक परमाणुको बढाकर स्थित है तब उसके अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि, अनन्तर पूर्वके स्थानको देखते हुए यहां एक परमाणु अधिक उपलब्ध होता है । पुनः पूर्वोक्त स्थान में दो तैजसशरीर विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढाने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। तीन तैजसशरीर विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढाने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार एकसे लेकर उत्तरोत्तर एक एक परमाणु तब तक बढाना चाहिए जब जाकर सब जीवोंसे अनन्तगुणे तैजसशरीर विस्रसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि हो लेती है।
___अनन्तर एक अन्य जीव लो जो औदारिकशरीरके दो पुञ्जोंमें एक जीव सम्बन्धी औदारिकशरीरके दो पुञ्ज बढाकर, तैजसशरीरको एक तैजस परमाणुसे अधिक करके तथा एक तैजसशरीरके परमाणुसे सम्बन्ध रखने योग्य और पहलेके समान बढाये हुए अनन्त परमाणुप्रमाण तैजसशरीर विस्रसोपचयोंको बढाकर क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित है तब उसके अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। कारण सुगम है। अनन्तर एक अन्य जीव लो जो तैजसशरीरको एक विस्रसोपचय परमाणु अधिक करके स्थित है उसके तब अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है।
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५, ६, ९३. ) बंधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा
( ९५ पुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो बेविस्सासुवचयपरमाणुपोग्गलेसु वड्डिदेसु अण्णमपुणरत्तद्वाणं होदि । तिसु विस्सासुवचयपरमाणुपोग्गलेसु वड्डिदेसु अण्णमपुणरुत्तट्टाणं होदि । एव. मेगुत्तरकमेण ताव वड्ढावेदव्वं जाव सव्वजोवेहि अणंतगुणा एगतेजइयपरमाणुसंबंधपाओग्गमेत्ता वड्दिा त्ति । तदो अण्णो जीवो बेहि तेजापरमाणहि तेजासरीरमब्भहिय काऊण दोणितेजासरीरपरमाणुपाओग्गविस्तासुवचयहि तेजासरीर विस्सासुवचयपुंजमन्भहियं काऊण खोणकसायचरिमसमए द्विदो ताधे अण्णमपुण रुत्तट्ठाणं होदि । एदेण कमेण णेदव्वं जाव तेजासरीरपुंजम्मि अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तेजासरीरपरमाणू सव्वजोवेहि अणंतगणमेत्ता विस्सासुवचयपरमाणू च वड्डिदा त्ति । वड्ढेता वि हु केत्तिया त्ति भणिदे एगबादरणिगोदस्स तेजइयसरीरम्मि जत्तिया परमाण विस्सासुवचयसहिया अस्थि तत्तियमेत्ता।
पुणो अण्णो जीवो एवं वडिदोरालियतेजासरीरो कम्मइयविस्तासुवचयपुंजम्मि एगपरमाणुमहियं काऊण चरिमसमयखीणकसाई जादो ताधे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो दोसु कम्मइयविस्सासुवचयपोग्गलेसु वडिदेसु तदियपुणरुत्तट्ठाणं होदि । तिसु विस्सासुवचयपोग्गलेसु वड्डिदेसु च उत्थमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवमेगुत्तरकमेण सव्वजोवेहि अणंतगणमेत्ता कम्मइयविस्सासुवचयपरमाणू वड्ढावेदव्वा। एवं जाणिऊण यव्वं जाव कम्मइयसरीरपुंजम्मि अभवसिद्धिएहि अणंतगणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता पुनः दो विस्र सोपचय परमाणु पुद्गलोंकी वृद्धि होने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। तीन विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंको वृद्धि होने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार एक तेजसशरीर परमाणुसे सम्बन्ध योग्य सब जीवोंसे अनन्तगुणे परमाणुओंकी वृद्धि होने तक उत्तरोत्तर एक एक परमाण बढाना चाहिए। अनन्तर एक अन्य जीव लो जो दो तैजस परमाणुओंसे तैजसशरीरको अधिक करके दो तैजसशरीर परमाणुओंके योग्य विस्रसोपचय परमाणुओंसे तैजसशरीर विस्रसोपचय पुञ्जको अधिक करके क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित है तब उसके अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। इस क्रमसे तैजसशरीर पुञ्जमें अभव्योंसे अनन्तगणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र तैजसशरीर परमाणुओंकी तथा सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि होने तक ले जाना चाहिए। वृद्धि होते हुए भी कितने परमाणु वृद्धिको प्राप्त होते हैं ऐसा प्रश्न करने पर उत्तर देते हैं कि एक बादर निगोद जीवके तैजसशरीरमें विस्रसोपचयसहित जितने परमाणु होते हैं उतने परमाणु वृद्धिको प्राप्त होते हैं ।
पुनः एक अन्य जीव लो जिसने इस प्रकार औदारिकशरीर और तेजसशरीरकी वृद्धि की है तथा जो कामणशरीर विस्रसोपचय पुञ्जमें एक परमाणु अधिक करके अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषायी हुआ है उसके तब अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । पुनः दो कार्मण विस्रसोपचय पुद्गलोंकी वृद्धि होने पर तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। तीन विस्रसोपचय पुद्गलोंकी वृद्धि होने पर चौथा अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार एकोत्तरके क्रमसे सब जीवोंसे अनन्तगुणे कार्मण विस्रसोपचय परमाणु बढाने चाहिए। इस प्रकार जानकर कार्मणशरीर पुजमें अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र कार्मणशरीर परमाणुओंकी तथा सब जीवोंसे
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छत्रखंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६. ९३. कम्मइयपरमाण सधजीवेहि अणंतगुणमेत्ता विस्सासुवचयपरमाण च वडिदा ति । होता वि केत्तिया ति भणिदे एगजीवम्मि जत्तिया कम्मपरमाण कम्मइयविस्सासुव. चयपरमाणपोग्गला च अस्थि तत्तियमेत्ता।
तदो अण्णो जीवो पुत्वविहाणेण आगंतूण खोणकसाय वरिम समए जहण्णबादरगिगोदवग्गणाए उवरि एगजीवमहियं काऊणच्छिदो। संपहि एवं टाणं पुणरुत्तं होदि; पुश्विल्लअणंतरहेट्ठिमट्ठाणस्स ओरालिय-तेजा-कम्मइयाणं पुंजेहितो एत्थतण तेसि छ'. जाणं सरिसत्तवलंभादो । पुदिवल्लजोवेहितो संपहियवग्गणाए एगो जीवो अहियो त्ति ट्ठाणमिदमपुण रुतमिदि किण्ण वुच्चदे?ण; जीवस्स बंधणिज्जववएसाभावादो। पोग्गलो हि* बंधणिज्जं णाम। ण च जीवो पोग्गलो; अमुत्तस्स मुत्तभावविरोहादो ।
पुणो अण्णो जीवो संपहियबादरणिगोदवग्गणाए उरि एगमोरालियसरीरविस्सा. सुवचयपरमाणुं बड्डावियर खीणकसायचरिमसमए अच्छिदो ताधे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । बिदियपरमाणुम्हि वडिदे बिदियमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । तिसु विस्सासुवचयपरमाणुपोग्गलेसु वड्डिदेसु तदियमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । चदुसु विस्सासुवचयपरमाणुपोगलेसु वडिदेसु चउत्थमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं यन्वं जाव सध्वजीवेहि अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि होने तक ले जाना चाहिए । वृद्धिको प्राप्त होते हुए कितने वृद्धिको प्राप्त होते हैं ऐसा प्रश्न करने पर कहते हैं कि एक जीवमें जितने कर्मपरमाणु और कार्मगशरीर विस्रसोपचय परमाणु पुद्गल होते है उतने परमाणु वृद्धिको प्राप्त होते हैं।
अनन्तर एक अन्य जीव लो जो पूर्व विधिसे आकर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य बादर निगोद वर्गणाके ऊपर एक जीवको अधिक करके स्थित है। तब यह स्थान पुनरुक्त है, क्योंकि, पहलेके अनन्तर पिछले स्थानके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरोंके पुञ्जसे यहांके उनके छह पुञ्ज सदृश उपलब्ध होते हैं।
शंका-- पहलेके जीवोंसे सांप्रतिक वर्गणा सम्बन्धी एक जीव अधिक है इसलिए इस स्थानको अपुनरुक्त क्यों नहीं कहते ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, जीवकी बंधनीय संज्ञा नहीं है। पुद्गलोंकी ही बंधनीय संज्ञा है। परंतु जीव पुद्गल नहीं हो सकता, क्योंकि, अमूर्तको मूर्तरूप होने में विरोध आता है।
पुनः एक अन्य जीव लो जो साम्प्रतिक बादर निगोद वर्गणाके ऊपर एक औदारिकशरीर विस्रसोपचय परमाणुको बढाकर क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित है तब अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । दूसरे परमाणुको वृद्धि होने पर दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। तीन विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंकी वृद्धि होने पर तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। चार विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंकी वृद्धि होने पर चौथा अपुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार सब * अ०आ०का० प्रतिषु 'पोग्गले हि ' इति पाठः । ४ अ० आ० प्रत्योः 'परमाणु हि वड्डाविय ' का० प्रती 'परमाणुम्हिवड्डाविय ' इति पाठः ।
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५, ६, ९३.) बंधणाणुयोगद्दारे बादरणि गोददव्ववग्गणा ( ९७ अणंतगणमेत्ता ओरालियविस्तासुवचयरमाणपोग्गला वडिदा त्ति । होता विते केत्तियमेत्ता त्ति वुत्ते एगोरालियपरमाणुविस्सासुवचयमेत्ता । एवं वड्दूिण टिट्ठाणादो एगओरालियपरमाणुस्स विस्सासुवचयं वड्डिदूण द्विदचरिमसमयखीणकसायट्ठाणमपुणरुत्त. ढाणं होदि। कारगं सुगमं । एवमणेण विहाणेण ओरालियसरीरवेपुंजा ताव वड्ढावे. दव्वा जाव सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्तविस्सासुवचयपरमाण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता ओरालियपरमाण च वढिदा ति। होता वि ते केतिया त्ति भणिदे एगबादरणिगोदजीवस्स ओरालियसरीरम्हि जत्तिया ओरालियपरमाण तेसि विस्सासुवचयपरमाणू च अस्थि तत्तियमेत्ता । एवं तेजासरीरपुंजो कम्मइयसरीरपुंजो च सविस्सासुवचओ परिवाडीए वड्ढावेदव्वो जावेगबादरणिगोदजीवेण संचिदतेजाकम्मइयसरीराणं चदुपुंजपमाणं पत्तं ति। एवं वद्भिदण द्विदो च पुणो अण्णो जीवो खीणकसायचरिमसमयजहण्णबादरणिगोदवग्गणं बेहि बादरणिगोदजीवेहि अब्भहियं काढूण खीणकसायचरिमसमए ट्ठिदो च सरिसो; पुग्विल्ल द्वाणम्मि कमेण वडिदूण टिददव्वस्स एत्थतणदोजीवेसु उवलंभादो।
पुग्विल्लजीवं मोत्तण इमं घंतूण एदस्सुवरि पुव्वं व अण्णेगो जीवो वड्ढावेदव्वो। विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंकी वृद्धि होने तक ले जाना चाहिए । होते हुए भी वे कितने होते हैं ऐसा प्रश्न करने पर कहते हैं कि एक औदारिकशरीर परमाणुके विस्रसोपचयमात्र होते हैं । इस प्रकार बढाकर स्थित हुए स्थानसे एक औदारिक परमाणुके विस्रसोपचयको बढाकर स्थित हुआ अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय स्थान अपुनरुक्त स्थान होता है। कारण सुगम है। इस प्रकार इस विधिसे औदारिकशरीरके दो पुञ्ज तब तक बढाने चाहिए जब तक सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणु तथा अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्वोंके अनन्तवें भागप्रमाण औदारिकशरीर सम्बन्धी परमाणु वृद्धिको नहीं प्राप्त हो जाते। ऐसा होते हुए भी वे कितने होते हैं ऐसा प्रश्न करने पर कहते हैं कि एक बादर निगोद जीवके औदारिकशरीरमें जितने औदारिकशरीरके परमाणु और उसके विस्रसोपचय परमाणू होते हैं तन्मात्र होते हैं। इसी प्रकार एक बादर निगोद जीवके द्वारा सचित हुए तैजसशरीर और कार्मणशरीरके चार पुञ्जप्रमाण द्रव्यके प्राप्त होने तक अपने अपने विस्रसोपचयके साथ तैजसशरीर पुञ्जको और कार्मणशरीर पुञ्जको आनुपूर्वी क्रमसे बढाना चाहिए । इस प्रकार बढाकर स्थित हुआ जीव तथा क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य बाद रनिगोद वर्गणाके दो बादर निगोद जीवोंसे अधिक करके क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित हुआ अन्य जीव समान है, क्योंकि, पूर्वोक्त स्थानमें क्रमसे बढाकर स्थित हुआ द्रव्य यहाँ के दो जीवोंमें उपलब्ध होता है।
पहलेके जीवको छोड़कर तथा इसे ग्रहण कर इसके ऊपर पहले के समान एक अन्य' जीव बढाना चाहिए । इस प्रकार स्थान और शास्त्रके अविरोधसे उत्तरोत्तर एक एक जीवको बढाते ४ ता० प्रती ' च विस्सासुवचओ परिवाडीए ' आ० प्रती — विस्सासुवचय उवरि वादीए ' इति पाठः 1 ता० प्रती · टुिदो चरिमसा ( च सरिसो), पुविल्ल-अ० प्रती 'ट्रिदो चरिमसाहि पूव्विल्ल- । अ० का. प्रत्यो: ' टिदो चरिम पुग्विल्ल-' इति पाठः।
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९८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५. ६. ९३. एवमेगेगुत्तरकमेण ढाणसमयाविरोहेण अणंताणंतकम्म-णोकम्मपरमाणुपोग्गलेहि जडिदसव्वजीवपदेसा जीवा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वड्ढावेदव्वा । एवं वड्डाविय पुणो एत्थतणअणंतजीवाणमोरालिय-तेजा-कम्मइयसरीराणं छ पुंजा कमेण वड्डावेदव्या जावप्पणो सव्वुक्कसपमाणं पत्ता त्ति । एदिस्से चरिमसमयखीणकसायस्स उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणाए को सामी ? जीवो गणिदकम्मसियो सवक्कस्ससरीरोगाहणाए वट्टमाणो चरिमसमयखीणकसाओ सामी। एत्थ उक्कस्तवग्गणाए वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ चेव पुलवियाओ। असंखेज्जलोगमेत्ताओ णस्थि । कुदो? साभावियादो। कत्थ पुण असंखेज्जलोगमेत्तपुलवियाओ? मूलय महामच्छथहल्लयादिसु। एक्क्क पुलवियाए असंखेज्जलोगमेत्ताणि* णिगोदसरीराणि एक्केक्कणिगोदसरीरे अणंताणंता णिगोदजीवा अस्थि । पुणो तेसु जीवेसु आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव गणिदकम्मंसिया। अवसेसा पुण सव्वे गुणिदघोलमाणा चेव । एवं वढिदूणच्छिद खीणकसायचरिमसमए वड्ढी पत्थि । कुदो? तत्थतणजीवाणं तेसिमोरालिय-तेजा-कम्मइयसरीराणं च सव्वुक्कस्सभाववलंभादो।
एसा खीणकसायस्स चरिमसमए वट्टमाणस्स उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणा खीणहुए अनन्तानन्त कर्म और नोकर्म परमाणु पुद्गलोंसे व्याप्त सब जीव प्रदेश हैं जिनके ऐसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव बढाने चाहिए। इस प्रकार बढाकर पुन: यहांके अनन्त जीवोंके औदारिक, तेजस और कार्मण शरीरोंके क्रमसे छह पुञ्च अपने सर्वोत्कृष्ट प्रमाणको प्राप्त होने तक बढाने चाहिए।
शंका -अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय जीवके यह जो उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणा होती है इसका स्वामी कौन जीव है ?
___समाधान- जो गुणित कर्माशिक है और सबसे उत्कृष्ट शरीर अवगाहनासे युक्त है ऐसा अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय जीव उक्त उत्कृष्ट वर्गणाका स्वामी है।
यहाँ पर उत्कृष्ट वर्गणाकी पुलवियाँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होती हैं, असंख्यात लोकप्रमाण नहीं होती; क्योंकि, ऐसा स्वभाव है।
शंका-असंख्यात लोकप्रमाण पुलवियाँ कहाँ पर होती है ? समाधान-मूली, महामत्स्य, थहर और लतादिकायें होती हैं।
एक एक पुलवीमें असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीर होते हैं और एक एक निगोद शरीरमें अनन्तानन्त निगोद जीव होते हैं। परन्तु उन जीवोंमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव गुणितकांशिक होते हैं तथा बाकीके सब जीव गुणितघोलमान होते हैं। ___ इस प्रकार बढाकर स्थित हुए क्षीणकषायके अन्तिम समयमें और वृद्धि नहीं होती; क्योंकि, वहाँ स्थित हुए जीवोंके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर सर्वोत्कृष्ट भावको प्राप्त हो गये हैं।
यह अन्तिम समयवर्ती क्षोणकषायके उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणा क्षीणकषायके साथ ता० प्रती 'जणिदसव्वजीवपदेसा' इति पाठः। 4 अ० आ० का० प्रतिष 'कथं पुण ' इति पाठः। ता. प्रतौ 'एक्केक्कपुलवियासु संखेज्जलोगमेत्ताणि ' इति पाठ.1 ता. का० प्रत्योः 'वडिदूण ट्रिद-' इति पाठः ।
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५, ६, ९३.) बंधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा कसाएण सह घेत्तव्वा; एगबंधणबद्धत्तादो। खीणकसाओ अणिगोदो कधं बादरणिगोदो होदि ? ण, पाधण्णपदेण तस्स वि बादरणिगोदवग्गणाभावेण विरोहामावादो। एदमेगं फड्डयं होंदि ।
____ संपहि बिदियफड्डयपरूवणं कस्सामो। तं जहा - अण्णो जीवो सवपयतेण खविदकम्मंसियलक्खणं काऊण सव्वजहण्णोरालियसरीरोगाहणाए खीणकसायदुचरि. मसमए अच्छिदो। एवमच्छिदस्त आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवियाओ एक्केक्किस्से पुलवियाए असंखेज्जलोगमेत्ताणि णिगोदसरीराणि होति । एत्थ संपहि खवि. दकम्मंसियलक्खणेणागदजीवा आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव अत्थि। अवसेसा पुण सव्वे खविदघोलमाणा चेव । कुदो ? खविदकिरियाए एक्कम्हि समए सुट्ठ जदि जीवा बहुआ होंति तो आवलियाए असंखेज्जदिभागमत्ता चेव होंति त्ति णियमुवलंभादो । एदेसिमणंताणं जीवाणमोरालिय-तेजा-कम्मइयपरमाणुपोग्गले तेसिमगंतागंतविस्सासुवचयपरमाणुपोग्गले च घेत्तण बिदियफड्डयस्स आदी होदि । कुदो ? पढमफड्डयं पेक्खिदूण अणंताणि हाणाणि अरिदूणुप्पण्णत्तादो।
एत्थ दोषणं फडुयाणमंतरपमाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा- खीणकसायचरिमसमयसम्वजहणबादरणिगोदवग्गणजोवेहितो तस्सेव चरिमसमयउक्कस्सबादरणिगोदवग्गणा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवेहि अब्भहिया। कुदो एवं णव्वदे? ग्रहण करनी चाहिये, क्योंकि, वह एक बन्धनबद्ध है।
शंका- क्षीणकषाय जीव निगोदपर्यायरूप नहीं है, इसलिए वह बादर निगोद कैसे हो सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, प्राधान्यपदकी अपेक्षा उसे भी बादर निगोद वर्गणा होने में कोई विरोध नहीं आता ।
यह एक स्पर्धक है।
अब दूसरे स्पर्धकका कथन करते हैं यथा--अन्य जीव सब प्रकारके प्रयत्नसे क्षपित कर्माशिक विधिको करके सबसे जवन्य औदारिक शरीरको अवगाहना द्वारा क्षीणकषायके द्विचरम समय में स्थित हुआ । इस प्रकार स्थित हुए इस जीवके आवलिके असंख्यातवें भाग मात्र पुलवियाँ होती हैं । एक एक पुलविमें असंख्यात लोकप्रमाण निगोद शरीर होते हैं। यहाँ क्षपित कर्माशिक विधिसे आए हुए जीव आवलिके असख्यातवें भाग मात्र ही होते हैं, बाकीके सब जीव क्षपित घोलमान ही होते हैं; क्योंकि, एक समयमें क्षपित क्रिया करनेवाले यदि बहुत जीव होते हैं तो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं, इस प्रकारका नियम पाया जाता है। इन अनन्त जीवोंके औदारिक, तैजस और कार्मण परमाणु पुद्गलोंको तथा उनके अनन्तानन्त विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंको ग्रहण करके स्पर्धकका प्रारम्भ होता है; क्योंकि, प्रथम स्पर्धकको देखते हुए अनन्त स्थानोंके अन्तरालसे इसकी उत्पत्ति हुई है ।।
___ यहाँ दोनों स्पर्धकोंके अन्तरप्रमाणका कथन करते हैं यथा-क्षीणकषायके अन्तिम समयमै सबसे जघन्य बादर निगोद वर्गणाके जीवोंसे उसीके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट बादर निगोद
वर्गणाके जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक होते हैं।
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१०० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५. ६ ९३. अविरुद्धाइरियवयणादो। पुणो एदे जीवे अणंताणंतकम्मणोकम्मपोग्गलेहि उचिये अवणिय पुध टुविदे अवणिदसे पो जहण्गबादरणिगोदवग्गणापमाणं होदि । पुणो खीणकसायचरिमसमयजहण्णबादरणिगोददव्वग्गणजीवेहितो तस्सेव दुचरिमसमयजहण्ण-- बादरणिगोदवग्गणजीवा विसेसाहिया। केत्तियमलेग? खीणकसायवरिमसमयजहण्णबादरणिगोदवग्गणजीवेसु अणंताणतेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खडिदेसु एयखंडमेत्तेण। तम्मि एगखंडे बिदियफड्डयादो अवणिदे उभयत्थ सेसजीवपमाणं सरिसं होदि । संपहि चरिमसमए अवणिदजीवेहितो दुचरिमसमए अवणिदजीवा अणंतगणा। कुदो ? चरिमवग्गणजीवाणमसंखेज्जदिभागे दुचरिमविसेसे सव्वजीवरासिस्स अणंत. पढमवग्गमलवलंभादो । जेण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेत्तजीवसहिदचरिमविसेसादो दुचरिमसमयत्थखीणकसायविसेसो अणंतगणो तेण तत्थ विसेसे असखेज्जलोग - मेत्तसरीराणि । एककेक्कम्हि सरीरे टिदअणताणंतजीवा अत्थि। एदेसु चरिमविसेस - जीवेसु अवणिदेसु जं सेसं तमणताणि सव्वजोवरासिपढ़मवग्गमलाणि होदि । एत्तियमंतरिय उप्पण्णत्तादो बिदियं फड्डयं जादं । जदि अंतरं णस्थि तो एगं चेव* फड्डयं होज्ज; कमवडिदंसगादो। एवं फड्डयंतरं जीवाणं चेव ण बादरणिगोदढाणाणं ; तेसि
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-अविरुद्वभाषी आचार्यों के वचनसे जाना जाता है।
पुनः अनन्तानन्त कर्म और नोकर्म पुद्गलोंसे उपचित हुए इन जीवोंको अलग करके पृथक् स्थापित करनेपर अलग करनेसे जो शष बचता है वह जघन्य बादर निगोद वर्गणाका प्रमाण होता है ।
पुनः क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य बादरनिगोद द्रव्यवर्गणाके जीवोंसे उसीके द्विचरम समयमें जघन्य बादर निगोद द्रव्यवर्गणाके जीव विशेष अधिक होते हैं । कितने विशेष अधिक होते हैं ? क्षीण कषायके अन्तिम समयमें जवन्य बादर निगोद वर्गणाके अनन्तानन्तजीवोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतने विशेष अधिक होते हैं । इस एक भागको दूसरे स्पर्धक मेंसे घटा देनेपर उभयत्र शेष जीवोंका प्रमाण समान होता है । यहाँ चरम समयमें घटाए हुए जीवोंके द्विच रम समयमें घटाये हुए जीव अनन्तगुणे होते है; क्योंकि, चरम वर्गणाके जीवोंसे असंख्यातवें भागप्रमाण द्विचरम विशष में सब जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमल उपलब्ध होते हैं । यतः पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंसे युक्त अन्तिम विशेषसे द्विचरमसमय सम्बन्धी क्षीणकषायका विशेष अनन्तगणा होता है, इसलिए उस विशेषमें असंख्यात लोकमात्र शरीर होते हैं। तथा एक एक शरीर में अनन्तानन्त जीव स्थित होते हैं। इनमें से चरमविशेष जीवोंके घटा देनेपर जो शेष रहता है वह सब जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमल प्रमाण होता है । इसने अन्तरसे उत्पन्न होने के कारण द्वितीय स्पर्धक हुआ है । यदि अन्तर नहीं मानें तो एक ही स्पर्धक होवे, क्योंकि, क्रमवृद्धि देखी जाती है । यह स्पर्द्धकों का अन्तर जीवोंका ही होता है, बादर निगोद स्थानोंका नहीं, क्योंकि, जघन्य स्थानसे लेकर
अ० आ० का0 प्रतिषु — पमाणसरिसं' इति पाठ:1 * ता० अ० प्रत्योः ‘एवं चेव ' इति पाठः ।
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५, ६, ९३.)
बंधणाणुयोगद्दारे बादरणि गोददव्ववग्गणा जहण्णढाणप्पहुडि जावुक्कस्स ठाणे ति णिरंतरं वडिदाणमेगं फद्दयं मोतूण फद्दयंतर. भावादो । भावे वा धवसुण्णवग्गणाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ बहुवीयो वा होति । ण च एदं; तहाणुवलंभादो। तम्हा दुचरिमजहण्णवग्गणा चरिमुक्कस्सवग्गणादो असंखेज्जगणहीणात्ति तत्थ चेवेदिस्से अंतब्भावो* वत्तव्वो।
संपहि खीणकसायचरिमखवगं मोत्तण इमं खीणकसायदुचरिमसमयखवगं घेत्तूण पुणो एत्थतणसव्वजीवाणमोरालिय-तेजा-कम्मइयसरीराणं छप्पुंजे पुध पुध टुविय ढाणपरूवर्ण सेचीयवक्खाणाइरियपरूविदं वत्तइस्सामो। तं जहा-अण्णो जीवो खविदकम्मंसियलक्खणेण आगंतूण खीणकसायदुचरिमसमए एगेगोरालियसरीरविस्ससुवचयपरमाणुणा अब्भहिय कादूण अच्छिदो ताधे अण्णमपुणरुत्तढाणं होदि । बेविस्ससुवचयपरमाणुपोग्गलेसु वडिदेसु बिदियमपुणरुत्तट्टाणं होदि । तिसु विस्ससुवचयपरमाणपोग्गलेसु वडिदेसु तदियमपुणरुत्तद्वाणं होदि । चदुसु विस्ससुवचयपरमाणुपोग्गलेसु वढिदेसु चउत्थमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं पढमफड्डयम्हि वड्ढाविदकममवहारिय वडढावेदव्वं जाव सव्वजहण्णोरालियसरीरपरमाण अप्पणो उक्कस्सविस्ससुवचयपमाणं पत्ता त्ति । पुणो सवजहण्णतेजासरीरपरमाणूणं विस्ससुवचया एवं चेव वड्ढा. वेदव्चा जाव अप्पणो उक्कस्सविस्ससुवचयपमाणं पत्ता त्ति । पुणो जहण्णकम्मइयउत्कृष्ट स्थान तक निरन्तर वृद्धिको प्राप्त हुए उनका एक स्पर्धकको छोड़कर स्पर्द्ध कान्तर नहीं होता। यदि दूसरे स्पर्धकका सद्भाव माना जाय तो ध्रुवशून्यवर्गणायें आवलिके असख्यातवें भागप्रमाण या बहुत प्राप्त होती हैं । परन्तु ऐसा है नहीं; क्योंकि, इस प्रकारकी उपलब्धि नहीं होती। इसलिए द्विचरम जघन्य वर्गणा अन्तिम उत्कृष्ट वर्गणासे असंख्यातगुणी हीन होती है। अत: उसी में इसका अन्तर्भाव कहना चाहिए ।
अब क्षीणकषायके अन्तिम समयवर्ती क्षपकको छोडकर क्षीणकषायके द्विचरम समयवर्ती इस क्षपकको ग्रहण करके पुन: यहां रहनेवाले सब जीवोंके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरोंके छह पुञ्जोंको पृथक् पृथक् स्थापित करके सेवीय व्याख्यानाचार्य के द्वारा कही गई स्थानप्ररूपणाको बतलाते है यथा--
कोई एक अन्य जीव क्षपित कर्माशिक विधिसे आकर क्षीणकषायके द्विचरम समयम एक एक औदारिकशरीरके विस्रसोपचय परमाणुसे अधिक करके स्थित हुआ तब अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । दोन विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढाने पर दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । तीन विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढाने पर तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । चार विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढाने पर चौथा अपुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार प्रथम स्पर्धकमें बढाते हुए क्रमको ध्यानमें रखकर सबसे जघन्य औदारिकशरीर परमाणुओंके अपने उत्कृष्ट विस्रसोपचयके प्रमाणको प्राप्त होने तक बढाना चाहिए । पुन: सबसे जघन्य तैजसशरीर परमाणुओंके विस्रसोपचय अपने उत्कृष्ट विस्रसोपचयके प्रमाणको प्राप्त होने तक इसी प्रकार बढाने चाहिए । पुन: जघन्य कार्मणशरीर परमाणुओंके जघन्य विस्रसोपचय अपने
४ अ० प्रती · बहुविहो वा' इति पाठः। मुद्रित प्रती 'अणंतगुणहीणा ' इति पाठः । *अ० प्रतो । चेवेदिस्से दु अंतब्भावो ' इति पाठ:]
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१०२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ९३. सरीरपरमाणूणं जहण्णविस्ससुवचया एवं चेव वड्ढावेदव्या जावप्पणो उवकस्सविस्ससुवचयपमाणं पत्ता त्ति । एवं बड्ढाविदे खीणकसायदुचरिमसमयख विदकम्मंसियखविदघोलमाणलक्खणेणागदसव्वजीवाणं ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीराणि विस्ससुवचएहि उक्कस्सभावं गदाणि ।
पुणो विस्ससुवचयएसु वड्ढी णस्थि त्ति अण्णो जीवो विस्ससुवचयसहिदेगोरालियपरमाणुणा पुत्वत्तोरालियसरीरमभहियं काऊण अच्छिदो ताधे सव्वजोवेहि अगंतगुणमेत्तट्टाणाणि अंतरिदूणेदं ढाणमुप्पज्जदि । पुणो णिरंतरमिच्छामो ति एगपरमाणुविस्ससुवचयपमाणेण पुव्वुत्तोरालियसरीरपुंजादो परिहोणेण पविल्लविस्ससुवचयसहिदएगपरमाणुणा वड्डाविदे गिरंतरं होदूण अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि। चरिमफड्डयसमुप्पण्णढाणाणि पेक्खिदूण पुण पुणरुतं । पुणो एगविस्ससुवचयपरमाणुम्हि वड्डिदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । दोसु परमाणुस वढिदेसु बिदियमपुणरुत्तट्ठाण होदि। एवं वड्ढावेदव्वं जाव अप्पप्पणो पुव्वमणीकदा सव्वजोवेहि अणंतगुणमेत्ता विस्ससुवचयपरमाण ओरालियसरीरविस्ससुवचयएसु वढिदा ति । पुणो पच्छा वड्डिदपरमाणू विस्ससुवचएहि उक्कस्सो कायदो। एवं कदे एत्तियाणि चेव अपुणरुत्तढाणाणि लद्धाणि होति । पुणो एदेण कमेण रिस्ससुवचयसहिदमेगेगमोरालियपरमाणुं पवेसिय०२ वड्ढावेदव्वं जाव ओरालियसरीरपुंजम्मि उक्कस्सविस्ससुवचयसहिया अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता परमाणू वढिदा त्ति । उत्कृष्ट विस्रसोपचयके प्रमाणको प्राप्त होने तक बढाना चाहिए । इस प्रकार बढाने पर क्षीणकषायके द्विचरम समय सम्बन्धी क्षपित कर्माशिक और क्षपित घोलमान विधिसे आये हुए सब जीवोंके औदारिक, तेजस और कार्मणशरीर अपने विस्रसोपचय रूपसे वृद्धिको प्राप्त होते हैं।
पुनः विस्रसोपचयोंमें वृद्धि नहीं होती, इसलिए एक अन्य जीव लो जो विस्रसोपचयके साथ औदारिकशरीरके एक परमाणुसे पूर्वोक्त औदारिकशरीरको अधिक करके स्थित है तब सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थानोंका अन्तर देकर यह स्थान उत्पन्न होता है। पुनः निरन्तर स्थान लाना चाहते हैं इसलिए पूर्वोक्त औदारिकशरीर पुजमेंसे एक परमाणु विस्रसोपचय प्रमाणसे होन पूर्वोक्त विस्रसोपचय सहित एक परमाणुकी वृद्धि करने पर निरन्तर रूपसे अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। किन्तु अन्तिम स्पर्धक में उत्पन्न हुए स्थानोंको देखते हुए वह पुनरुक्त होता है । पुनः एक विस्रसोपचय परमाणुकी वृद्धि होने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। दो परमाणुओंको वृद्धि होने पर दूसरा अपुनरुक्त रथ न होता है। इस प्रकार अपने अपने पहले कम किए गए सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणुओंके औदारिकशरीर विस्रसोपचयोंमें बढ़ने तक बढाते जाना चाहिए । पुनः पीछे बढाए हुए परमाणुओंको विस्रसोपचयोंसे उत्कष्ट करना चाहिए। ऐसा करने पर इतने ही अपुनरुक्त स्थान उपलब्ध होते हैं। पून: इस क्रमसे औदारिकशरीर पुजमें उत्कष्ट विस्रसोपचयके साथ अभव्योंसे अनन्तगण और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र परमाणुओंकी वृद्धि होने तक विनसोपच सहित एक एक औदारिक शरीर Fता० प्रती · एगपरमाणुणा वड्डिह वड्डविदे ' इति पाठः ।
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५, ६, ९३.) बंधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा
(१०३ एवं जाणिदूण छप्पि पुंजा परिवाडीए वड्ढावेदव्वा जाव चरिमसमयफड्डय जीवाणमुक्कस्सट्टाणपमाणं दुचरिमफड्डयजीवाणं छप्पुंजा पत्ता त्ति । पुणो एदस्स परमाणुत्तरकमेण ओरालियसरीरपुंजस्सुवरि अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता परमाण सविस्तसुवचयसहिदा अपुणरुत्तट्टाणप्पत्तिणिमित्ता वड्ढावेदव्वा । वड्ढंता वि केतिया इदि वृत्ते एगबादरणिगोदजीवस्स जत्तिया विस्ससुवचयसहिदोरालियपरमाण संभवंति तत्तियमेत्ता ।
तदो अण्णो जीवो पुत्वत्तोरालियसरीरदब्वमेत्तेगोरालियसरीरमब्भहियं काऊण पुणो विस्ससुवचयसहिदेगपरमाणुणा तेजासरीर*मभहियं काऊणच्छिदो ताधे सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तटाणाणि अंतरिदूण अण्णमपुणरुत्तद्वाणं होदि । पुणो णिरंतरमिच्छामो त्ति इममागदपरमाणुं पण्णाए पुध ट्रविय पुणो एदस्स जत्तिया विस्ससुवचयपरमाणू अस्थि तत्तियमेतविस्ससुवचयएहि ऊणतेजइयसरीरपुंजम्मि पुवमणिदपरमाणुम्हि वढिदे गिरतरं होदूण अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो एगविस्ससुवचयपरमाणुम्हि वढिदे अण्णेगमपुणरुत्तट्टाणं होदि । दोसु विस्तसुवचयपरमाणुसु वढिदेसु बिदियमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । तिसु विस्ससुवचयपरमाणुसु वढिदेसु तदियमपुणरत्तटाणं होदि । एवं जाव सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्तविस्ससुवचयपरमाणुपोग्गलेसु बड्ढिदेसु एत्तियाणि चेव अपुणरुत्तट्टाणाणि लद्धाणि होति । पुणो एवं वड्ढावेदव्वं जाव परमाणुको प्रवेश कराकर बढाना चाहिए । इस प्रकार जानकर छहों पुञ्ज अन्तिम समयवर्ती स्पर्धक जीवोंके उत्कृष्ट स्थान प्रमाणको द्विचरम समय सम्बन्धी स्पर्धक जीवोंके छह पुञ्ज प्राप्त होने तक आनुपूर्वी क्रमसे बढाना चाहिए। पुन: इस औदारिकशरीरके पुञ्जके ऊपर एक परमाणु अधिकके क्रमसे अपने विस्रसोपचयसहित अपुनरुक्त स्थानोंको उत्पन्न करने के लिए अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण परमाणु बढाने चाहिए। बढाते हुए कितने बढाने चाहिर ऐसा पूछने पर कहते हैं कि एक बादर निगोद जीवके विस्रसोपचयसहित जितने औदारिक परमाणु सम्भव हैं उतने बढाने चाहिए।
अनन्तर एक अन्य जीव लीजिए जो पुर्वोक्त औदारिक शरीरके द्रव्यमात्र एक औदारिकशरीरको अधिक करके तथा विस्र सोपचय सहित एक परमाणुके द्वारा तैजसशरीरको अधिक करके अवस्थित है तब सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थानोंका अन्तर देकर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । पुन: निरन्तर स्थान चाहते हैं इसलिए इस आयें हुए परमाणुको बुद्धि के द्वारा पृथक् स्थापित करके पुनः इसके जितने विस्रसोपचय परमाणु हैं उतने विस्रसोपचयोंसे रहित तेजसशरीरके पुञ्जमें पहले अलग किये गये परमाणुके बढाने पर निरन्तर होकर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । पुनः एक विस्रसोपचय परमाणुके बढने पर अन्य एक अपुनरुक्त स्थान होता है। दो विस्रसोपचय परमाणुओंके बढ़ने पर दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। तीन विस्रसोपचय परमाणुओंके बढ़ने पर तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढ़ने पर इतने ही अपुनरुक्त स्थान लब्ध होते हैं। म० प्रती ' चरिमसमयफाइडय ' इति पाठ | * ता. प्रतो -परमाणुते जासरीर- इति पाठ: 1
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१०४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ९३. अभवसिद्धिएहि अणंतगणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तेजापरमाण सव्वजीवेहि अणंत-- गुणमेत्ता तेजाविस्तासुवचयपरमाणू च वड्ढिदा ति। वड्ढंता वि केत्तिया त्ति वुत्ते एगबादरणिगोदस्स जीवस्स तेजासरीरम्हि जत्तिया विस्सासुवचयसंजुत्ता परमाणू अस्थि तेत्तियमेत्ता।
पुणो अण्णो जीवो पुव विहाणेणागंतूण खीणक सायदुचिरमसमए ओरालियतेजासरीराणि पुवुत्तवढिवदव्वेण अहियाणि काऊग पुणो कम्मइयसरीरं विस्सासुवचयसंजुत्तेगकम्मपरमाणुणा अमहियं कादूच्छिदो ताधे सधजीवेहि अणंतगुणमेत्तट्ठाणाणि अंतरिदूण अण्णद्वाण मप्पज्जदि । पुणो गिरंतरमिच्छामो ति इममागदविस्सासुवचयसहिदपरमाणुं पण्णाए पुध द्वविय एगपरमाणु विस्सासुवचयपमाणेण परिहोणकम्मइयसरीरपुंजम्मि पुवमणिद परमाणुम्हि पक्खित्ते परमाणुत्तरं होदूण अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो एगकम्मइयविस्सासुवचयपरमाणुम्हि वढिदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि। दोसु* कम्मइयविस्सासुवचयपरमाणुपोग्गलेस वड्ढिदेमु बिदियमपुणरुत्तट्टाणं होदि । एवं यव्वं जाव सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्ता विस्तासुवचयपरमाणू वड्ढिदा त्ति । ताधे एत्तियाणि चेव अपुणरुत्तट्ठाणाणि लद्धाणि होति । पुणो एवमेगेग
पुन: इस प्रकार अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण तैजसशरीरके परमाण
और सब जीवोंसे अनन्तगुणे तैजसशरीरके विस्रसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि होने तक बढाते जाने चाहिए । इस प्रकार बढाते हुए वे कितने हैं ऐसा पूछने पर कहते हैं कि एक बादर निगोद जीवके तैजसशरीरमें जितने विस्रसोपचय सहित परमाणु हैं वे उतने हैं।
पुनः एक अन्य जीव लीजिए जो पूर्वोक्त विधिसे आकर क्षीणकषायके द्विचरम समय में औदारिक और तैजसशरीरको पूर्वोक्त बढ हुए द्रव्यसे अधिक करके तथा कार्मणशरोर को विस्रसोपचय सहित एक कर्मपरमाणुसे अधिक करके स्थित है तब सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थानोंका अन्तर देकर अन्य स्थान उत्पन्न होता है। पुनः निरन्तर स्थान चाहते हैं इसलिए इस आये हुए विस्रसोपचय सहित एक परमाणुको बुद्धिसे अलग स्थापित करके एक परमाणु विस्रसोपचयक प्रमाणसे हीन कार्मणशरीरके पुञ्जमें पहले निकले हुए परमाणुके मिलाने पर एक परमाणु अधिक होकर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। पुनः एक कार्मण विस्रसोपचय परमाणुके बढ़ने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। दो कार्मण विस्र सोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढाने पर दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार सब जीवोंसे अनन्त गुण विस्रसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि होने तक ले जाना चाहिए । तब इतने ही अपुनरुक्त स्थान लब्ध होते हैं । पुनः इस प्रकार एक एक विस्रसोपचयसहित कर्मपरमाणुका पुनः पुनः प्रवेश
0 ता० प्रतौ ‘जीवो वि पुव-' इति पाठ:1 . अ० का० प्रत्योः 'अप्पट्ठाण-' इति पाठः ।
ता० आ० का० प्रतिषु 'पुत्ववणिद-' इति पाठः। *ता० प्रती 'परमाणुत्तरं होदूण अण्ण
___मपुणरुत्तट्ठाण होदि ] दोसु ' इति पाठः ।
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५, ६, ९३. ) बधणाणुयोगद्दारे दव्वबंधपरूवणा
( १०५ विस्सासुवचयसहिदकम्मपरमाणुं पवेसिय ५०२ णेयव्वं जाव कम्मइयसरीरघुजम्मि अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेता कप्मपरमाणू विस्तासुवचयसहिदा वड्दिा त्ति । पुणो एदे वड्डिदपरमाणु केत्तिया? एगबादरणिगोदजीवस्स कम्मइयसरीरम्मि जत्तिया विस्सासुवचयसहियकम्मपरमाण अस्थि तत्तियमेत्ता । एवं वद्भिदणच्छिदे पुणो अण्णो जीवो खविदकम्मसियलक्खणंण आगंतूण खीणकसायदुचरिमसमए बादरणिगोदजीवेण अब्भहियं काऊणच्छिदो ताधे पुणरुत्तट्टाणं होदि; पुव्वंकमेण वड्डाविदपरमाणूणमेत्थ एगजीवम्मि उवलंभादो। पुणो एदस्सुवरि एगपरमाणुम्हि वड्डिदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं पुव्वं व वड्ढावदेव्वं जाव अण्णेगजीवस्त ओरालियतेजा- कम्मइयसरीरपरमाण सविस्सासुवचया पविट्टा त्तिातदो पुवविहाणे बिदियो जीवो पवेसियव्वो। एवमेदेण कमेण पलिदोवमस्स असंखेदिभागमेत्ता जीवा परिवाडीए पवेसियव्वो। णवरि खोणकसायचरिमसमए पविट्ठजीवेहितो दुचरिमसमए पविद्धजीवा विसेसाहिया होति । कुदो? चरिम-दुचरिमजीवविसेसाणमेत्थ सणादो। केत्तियमेतो विसेसो? चरिमसमयविसेसस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो।एदेसु जीवेसुपरमाणुत्तरकमेण अण्णाणि वि अपुणरुत्तढाणाणि छप्पुंजे अस्सिदूण उप्पादेदव्वाणि जावप्पणो उक्कस्सत्तं पत्ताणि ति । एवं चिराणजीवपरमाणुपोग्गलेसु संपहि पविट्ठजीवपरमाणपोग्गलेसु च वडिदेसु दुचरिमसमयबादरणिगोदवग्गणा उक्कस्सा होदि । पुणो एत्थ आवलियाए कराकर कार्मणशरीरके पुञ्ज में अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र विस्रसोप - चयसहित कर्मपरमाणुओंकी वृद्धि होने तक ले जाना चाहिए । पुनः ये बढे हुए परमाणु कितने है? एक बादर निगोद जीवके कार्मणशरीरमें जितने विस्रसोपचयसहित कर्मपरमाणु हैं उतने हैं। इस प्रकार बढाकर स्थित होनेपर पुनः अन्य जीव क्षपितकौशिकविधिसे आकर क्षीणकषायके द्विचरम समयमें बादर निगोद जीवसे अधिक कर स्थित है तब पुनरुक्त स्थान होता है। क्योंकि, पूर्व क्रमसे बढाये हुए परमाणु यहाँ एक जीवमें उपलब्ध होते हैं । पुनः इसके ऊपर एक परमाणु के बढ़ने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता हैं। इस प्रकार अन्य एक जीवके औदारिक तेजस और कार्मणशरीरके परमाणु अपने विस्रसोपचयसहित प्रविष्ट होने तक पहलेके समान बढाना चाहिए । अनन्तर पूर्व विधिसे दूसरा जीव प्रविष्ट करना चाहिए । इस प्रकार इस क्रमसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव क्रमसे प्रविष्ट कराने चाहिए। इतनी विशेषता है कि क्षीण. कषायके अन्तिम समय में प्रविष्ट हुए जीवोंसे द्विचरम समयमें प्रविष्ट हुए जीव विशेष अधिक होते हैं, क्योंकि, चरम और द्विचरम सम्बन्धी जीवोंका विशेष यहाँ दिखाई देता है।विशेषका प्रमाण क्या है? अन्तिम समय में जितना विशेष होता है उसका असख्यातवाँ भाग यहाँ विशषका प्रमाण है । इन जीवोंमें एक परमाणु अधिकके क्रमसे अपने उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक छह पुजोंका आश्रय लेकर अन्य भी अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न करने चाहिए । इस प्रकार जीवके पुराने परमाणु पुद्गलों में तत्काल प्रविष्ट हुए जीव परमाणु पुद्गलोंके बढाने पर विचरम
8 ताoप्रतो 'पुव्वकमेण इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, ९३.
असंखेज्जदिभागमेत्तगुलवियाओ । एक्केक्किस्से पुलवियाए असंखेज्जलोगमेत्तबादरfoगोदसरीराणि । एक्केक्कम्हि सरीरे अनंताणंतजीवा च संभवंति । पुणो एसि जीवाणं मज्झे आवलियाए असंखेज्जदिभागमेता चेव गुणिदकम्मं सियजीवा। अवसेसा अनंता सव्वे जीवा गुणिदघोलमाणा । एत्थ खविदकम्मंसिओ खविदघोलमाणो वा एगो वि णत्थि ; उक्कस्सदव्वम्हि तेसिमत्थित्तविरोहादो । एवमेत्तियमेत्तदव्वं घेत्तूण बिदियं जीवफड्डुयमुक्कस्सं होदि ।
संपहि तदियं फडुयं वृच्चदे । तं जहा- एगो जीवो सव्वपयत्तेण ओरालियतेजाकम्मइयसरीराणं खविदकम्मंसियलक्वणं काऊण खोणकसायतिचरिमसमए अच्छिदो ताधे जीवेहि अंतरिण अण्णस्स तदियजीवफडुपस्स आदी होदि । संपहि एत्थंतरपमाणपरूवणं कस्सामी । तं जहा- दुचरिमसमयखीणकसायजहण्णबादरणिगोदवग्गणादो तस्सेव उक्कस्सदव्ववग्गणा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तो विसेसो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपमाणजीवमेत्तो । पुणो एत्थ अधियजीवमेत्ते अवणिय पुध द्वविदे जं सेसं तं दुरिमजहण्णवग्गणपमाणं होदि । पुणो एदम्हादो खोणकसायतिचरिमसमयवग्गणाए विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? दुचरिमजहण्णवग्गणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ एगखंडम्मि जत्तिया जीवा अत्थि
१०६ )
समयकी बादरनिगोदवर्गणा उत्कृष्ट होती है । पुनः यहां आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियां हैं । एक एक पुलविमें असंख्यात लोकप्रमाण बादर निगोद शरीर हैं और एक एक शरीरमें अनन्तानन्त जीव सम्भव हैं। पुनः इन जीवों में गुणितकर्माशिक जीव आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही हैं । बाकीके अनन्त सब जीव गुणितघोलमान हैं । यहाँ क्षपितकर्माशिक और क्षपितघोलमान एक भी जीव नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट द्रव्य में उनका अस्तित्व होने में विरोध है । इस प्रकार मात्र इतने द्रव्यको ग्रहण कर दूसरा जीव स्पर्धक उत्कृष्ट होता है ।
अब तीसरे स्पर्धकका कथन करते हैं । यथा- एक जीव सब प्रकारके प्रयत्नसे औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरको क्षपितकर्माशिकरूप करके क्षीणकषायके त्रिचरम समय में अवस्थित है तब जीवोंसे अन्तर होकर अन्य तृतीय जीव स्पर्वककी आदि होती है । अब यहां अन्तर के प्रमाणका कथन करते हैं। यथा-द्विचरम समय में क्षीणकषायकी जघन्य बादरनिगोदवर्गणासे उसकी उत्कृष्ट द्रव्यवर्गणा विशेष अधिक होती है। विशेषका प्रमाण क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंकी जितनी संख्या है वह विशेषका प्रमाण है । पुनः यहां अधिक जीवों प्रमाणको निकाल कर पृथक् स्थापित कर जो शेष रहे वह द्विचरम समयकी जघन्य वर्गणाका प्रमाण होता है । पुनः इससे क्षीणकषायकी त्रिचरम समयकी वर्गणा में जीव विशेष अधिक होते हैं । कितने अधिक होते हैं ? द्विचरम समयकी जघन्य वर्गणाको पल्य के असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर वहां एक खण्ड में जितने जीव होते हैं, उतने अधिक होते हैं । वहां
०ता० प्रती 'सब्बे जीवा, गुणिदत्रोलमागो' आ० प्रती 'सवे गुणिदघोलमाणो' इति पाठ: ।
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५, ६, ९३. )
बंधणाणुयोगद्दारे दव्वबंधपरूवणा
( १०७
तत्तियमेत्तेण । केत्तिया पुण तत्थ जीवा अस्थि ? अणंता । कुदो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण अणंतेसु जीवेसु भागे हिदेसु तत्थ अणंताणं चेव जीवाणमुवलंभादो। एत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमाग मेत्तेसुदुचरिमवग्गणउक्कस्सविसेसजीवेसु अवणिदेसु सेसअणंतजीवा फड्डयंतरं होदि । असंखेज्जलोममेत्ताणि जिगोदसरीराणि । एक्के कम्हि णिगोदसरीरे अगतागंता जीवा च उत्थअंतरे अस्थि । एत्तियमंतरिदूण तदिफड्डयस्स आदी होदि । पुणो एत्थ पुत्वविहाणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवाणमोरालिय-तेजा-कम्मइयपरमाणुपोगला अणंताणंतविस्तासुवचयहि सह वड्डावेदव्वा । एवं वडिदे तदियफड्डयमुक्कस्संतरं होदि । एवं च उत्थ-पंचम-छट्ठ-सत्तमअट्ठमणवम-दसमादिफड्डयाणमंतरपमाणं विस्सासुवचयपरमाणणं जीवाणु च पवेसणविहाणं जाणिदूण ओदारेदव्वं जाव असंखेज्जगुणसेडिमरणपढमसमयो ति। एवं वड्डिदू - णच्छिदे तदो अण्णो जीवो खविदकम्मसियलक्खणेणागंतूण विसेसाहियमरणचरिमसमए अच्छिदो । ताधे जीवेहि अंतरिदूण अण्णं फड्डयमुप्पज्ददि । पुणो एत्य अंतरपमागपरूवणं कस्सामो। तं जहा-गुणसेडिमरणपढमसमयजहण्णफड्डयादो तस्सेव उक्कसफड्डयं. विसेसाहियं । विसेसो पुण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता जीवा । आलियाए असंखेज्जदिभागमेतकड्डएसु वड्डिदसव्वे जीवा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव होंति ति कुदो णव्वदे? अविरुद्धाइरियवयणादो। तेणेत्थ विसेसे एगणिगोदकितने जीव हैं? अनन्त जीव है, क्योंकि, पल्यके असंख्यातवें भागका अनन्त जीवों में भाग देने पर वहां अनन्त जीव उपलब्ध होते हैं। यहाँ पर पल्यके असख्यातवें भागमात्र द्विचरम वर्गणाके उत्कृष्ट विशेष जीवों के निकाल देने पर शेष अनन्त जीव प्रमाण स्पर्धकका अन्तर होता है । निगोद शरीर असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं और एक एक निगोद शरीरमें अनन्तानन्त जीव चौथे अन्तरमें होते हैं । इतना अन्तर देकर तीसरे स्पर्धककी आदि होती है । पुनः यहाँ पूर्व विधिके अनुसार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंके औदारिक, तेजस और कार्मणशरीरके परमाणु पुद्गल अनन्तानन्त विनसोपचयोंके साथ बढाने चाहिए। इस प्रकार बढाने पर तीसरे स्पर्धकका उत्कृष्ट अन्तर होता है । इस प्रकार चौथे, पांचवें, छठे, सातवें, आठवें, नौवें और दसवें आदि स्पर्धकों के अन्तर प्रमाणको तथा विस्रसोपचयसहित परमाण और जीवोंकी प्रवेशविधिको जानकर असंख्यात गुणश्रेणि मरणके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए। इस प्रकार बढाकर स्थित होने पर तब अन्य जीव क्षपितकर्माशिक विधिसे आकर विशेषाधिक मरणके अन्तिम समयमें स्थित है तब जीवोंसे अन्तर होकर अन्य स्पर्धक उत्पन्न होता है । पुनः यहां अन्तर प्रमाणका कथन करते हैं । यथा-गुणश्रेणिमरणके प्रथम समयके जघन्य स्पर्धकसे उसीका उत्कृष्ट स्पर्धक विशेष अधिक है। विशेष पल्यके असंख्यातवें भागमात्र जीव प्रमाण है।
शंका-आवलिके असंख्यातवें भागमात्र स्पर्धकोंमें बढे हुए सब जीव पल्यके असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है?
समाधान-अविरुद्ध आचार्योंके वचनसे जाना जाता है। इसलिए यहां पर विशेष में एक निगोद शरीर भी नहीं है। इस अधिक द्रव्यको अलग
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१०८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ९३.
सरीरं वि णत्थि । एदमधियदव्वमवणिय पुध दुवेयव्वं । असंखेज्जगुणसे डिमरणपढमसमयजहण्णफडुयादो विसेसाहियमरणचरिमसमयजहण्णफड्डुयं विसेसाहियं । केत्तियमेण ? गुणसेडिमरणपढमसमयजहण्णफडुयं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडदेगखंडमेत्तेण । एदम्हादो पुव्विल्लपलिदोवमस्त असंखेज्जदिभागमेत्तजीवेसु अवणिदेसु जं सेसं तं फड्डुयंतरं होदि । तत्थ अंतरे असंखेज्जलोग मेत्तणिगोदसरीराणि । एक्केक्कम्हि णिगोदसरीरे अनंताणंता जीवा च अस्थि । पुणो एत्तियमेत्तमंतरिण विसेसाहियमरणचरिमसमयजहण्णफडुयस्स आदी होदि ।
पुणो एत्थतणछपुंजा पुग्विल्लछप्पुंजे हितो असंखेज्जगुगहीणा त्ति कट्टु परमाणुतरकमेण वढावेदव्वा जाव गुणसेडिमरणपढमसमए फडुयस्स उक्कसपमाणं पत्ता त्ति । पुणो एवस्सुवरि एगोरालियविस्सासुवचयपरमाणुम्हि वड्डिदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । दोसु परमाणुपोग्गलेसु वडिदेसु तदियमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवमेगुत्तरकमेण ताव वडावेयव्वं जाव खविदकम्मं सियलक्खणेण । गदजीवेगपरमाणुस्स विस्सासुवचयपुंजस्स पमाणं वडिदे ति । एवं वडिदूणच्छिदे तदो अण्णो जीवो पुव्वविहाणेणागंतूज विस्सासुवचयसंजुत्तेगपरमाणुणा ओरालियसरीरमन्महियं काऊण विसेसाहियमरण - चरमसमए अच्छिदो ताधे सांतरद्वाणमण्णमुप्पज्जदि । पुणो निरंतरद्वाणे इच्छिज्जमाण करके पृथक् स्थापित करना चाहिए । असंख्यात गुणश्रेणिमरणके प्रथम समय के जघन्य स्पर्धक से विशेष अधिक मरणके अन्तिम समयका जघन्य स्पर्धक विशेष अधिक है । कितना अधिक है ? गुणश्रेणि मरण के प्रथम समय के जघन्य स्पर्धकको पल्यके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर जो एक खण्ड लब्ध आवे उतना अधिक हैं। इसमें से पहले के पल्यके असंख्यातवें भागमात्र जीवों अलग कर देने पर जो शेष रहता है वह स्पर्धकका अन्तर होता है । उस अन्तरम असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीर होते हैं और एक एक निगोदशरीर में अनन्तानन्त जीव होते हैं । पुनः इतना मात्र अन्तर देकर विशेष अधिक मरणके अन्तिम समयके जघन्य स्पर्धक की आदि होती है ।
पुनः यहां छह पुञ्ज पहले के छह पुञ्जोंसे असंख्यातगुणे हीन होते हैं ऐसा समझ कर गुणश्रेणिमरणके प्रथम समय में उत्कृष्ट प्रमाणके प्राप्त होने तक एक परमाणु अधिकके क्रम से बढ़ाना चाहिए । पुनः इसके ऊपर एक औदारिकशरीर विस्रसोपचय परमाणु बढ़ने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । दो परमाणु पुद्गलोंके बढ़ने पर तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार क्षपित कर्माशिक विधिसे आये हुए जीवके एक परमाणुके विस्रसोपचय पुञ्जके प्रमाण तक वृद्धि होने तक एक अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढाकर स्थित होने पर तब अन्य जीव पूर्व विधिसे आकर विस्रसोपचयसहित एक परमाणुसे औदारिकशरीरको अधिक करके विशेष अधिक मरणके अन्तिम समयमें स्थित है तब अन्य सान्तर स्थान उत्पन्न होता है ! पुनः निरन्तर अध्वान इच्छित होने पर एक परमाणु विस्रसोपचय प्रमाणसे न्यून अवस्थाम विसोपचयसंयुक्त एक परमाणुकी वृद्धि होने पर निरन्तर होकर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता
ता तो जीवेरमास्य' इति पाठ: 1
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बंधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा ( १०९ एगपरमाणुविस्तासुवचयपमाणेणणावत्थाए विस्तासुवचयसंजत्तेगपरमाणुम्हि वडिदे णिरंतरं होदूण अण्णमपुणरुत्तट्टाणं होदि । पुणो अण्णेगोरालियविस्तासुवचयपरमाणुम्हि वडिदे अण्णमपुणरुत्तढाणं होदि । एवमेगेगविस्तासुवचयपरमाण वडावेदव्या जाव सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्ता विस्सासुवचयपरमाण वढिदा ति । एवं वढिदे एत्तियगि चेव अपुणरुत्तढाणाणि सेचीयादो लद्धाणि होति । एवमण विहाणेण विस्पासुव वयसहियएगेगपरमाण वड्ढावेदव्या जाव एगबादरणिगोदजीवस्स ओरालियसरीरम्हि जत्तिया ओरालियसरीरविस्सासुवचयसहियपरमाण अस्थि तत्तियमेत्ता वड्डिदा त्ति। एवं वढिदे पुणो तेजा-कम्मइयपरमाण विस्तासुवचयसहिया वड्ढावेददा। पुणो पुवविहाणेणेगो जोवो पवेसियम्वो। एवं जाव पलिदोवमस्त असंखेजदिभागमेता जीवा वड्ढावेदश्वा । पणो सवेसि जीवाणं परमाणपोग्गलेसु विस्सासुवचय० परमाणुपोग्गलेसु बढिदेसु विसेसाहियमरणचरिमसमय उक्कस्सफड्डयं । पुणो एत्थ आव. लियाए असंखेज्जदिमागमेत्तपुलवियाओ एक्केक्कपुलवियाए असंखेज्जलोगमेत्तणिगोदसरीराणि । एक्केम्मि णिगोदसरीरे अणंताणंतजीवा । एक्केक्कस्स जीवस्स ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरपरमाण ( सविस्सासुवचय ) सव्वजोवेहि अणंतगुणमेता अस्थि । एत्तियमेतदव्वं घेतग विसेसाहियमरणचरिमसमयफड्डयं होदि । एवमोदारिदे आवलियाए असंखेज्जदिभागमैतफड्डयाणि लद्धाणि होति । संपहि एत्तो हेट्ठा ओदारिज्जमाणे एगं चेव फड्डयं होदि । कुदो ? विसे साहियमरणर्चारमफड्डएण सह सयंभूरमणदीवस्त सयंपहगिंदस्स है । पुनः अन्य एक औदारिकशरीर विस्रसोपचय परमाणुकी वृद्धि होने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार सब जीवोंसे अनन्तगुणे क्सिसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि होने पर एक एक विस्रसोपचय परमाणु बढाना चाहिए । इस प्रकार वृद्धि होने पर से चीयरूपसे इतने ही अपूनरुक्त स्थान लब्ध होते हैं। इस प्रकार एक बादर निगोद जीवके औदारिकशरीरमें जितने औदारिकशरीरके विस्रसोपचयसहित परमाणु हैं उतने मात्र वृद्धि होने तक विस्रसोपचयसहित एक एक परमाणु बढाना चाहिए। इस प्रकार वृद्धि होने पर पुन: तैजसशरीर और कार्मणशरीरके परमाणु विस्रसोपचयसहित बढाने चाहिए । पुनः पूर्व विधिसे एक जीवका प्रवेश कराना चाहिए । इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भागमात्र जीव बढाने चाहिए, पुनः सब जीवोंके परमाणु पुद्गलों के विनसोपच पसहित बढ़ने पर विशेष अधिक मरणके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्पर्धक होता है । पुन: यहां आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियां हैं । एक एक पुलविमें असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीर हैं । एक एक निगोदशरीर में असन्तानन्त जीव हैं और एक एक जीवके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरके परमाणु विस्र सोपचयसहित सब जीवोंसे अनन्तगुणे हैं । इतने मात्र द्रव्यको ग्रहण कर विशेष अधिक मरण के अन्तिम समयका स्पर्धक होता है । इस प्रकार उतारने पर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्धक लब्ध होते हैं । अब इससे नीचे उतारने पर एक ही स्पर्धक होता है, क्योंकि, विशेष अधिक मरणके अन्तिम स्पर्धकके साथ स्वयंभूरमण द्वीपके स्वयंप्रभ नगेन्द्र की बाह्य दिशामें कर्मभूमिके प्रतिभागमें मूल, थूवर और
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११०.)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, ९३.
बाहिर दिसाए कम्मभूमिपडिभागम्मि मलयथहल्लयादिसु सरिसबादरणिगोदवग्गणाए होणाए अहियाए च उवलंभादो । पुणो एदीए सरिसवग्गणं घेतूण तत्थ मूलयथूहल्लयादिसु एगोरालियविस्सासुवचयपरमाणम्हि वडिदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । दोसु वद्भिदेसु बिदियमपुणरुत्तट्टाणं होदि । एवमणंताणतेसु विस्सासुवचयपरमाणुपुग्गलेसु वडिदेसु पुत्वविहाणेण तदो एगोरालियपरमाण सविस्तासुवचय० वड्ढावेदवो । एवं ताव वड्ढावेदव्वं जाव विस्तासुवचयसहिदा ओरालियसरीरपरमाणू अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता त्ति । पुणो एदेणेव कमेण अणंताणतविस्सासुवचयसहिदा अभवसिद्धिएहि अणंतगणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तेजापरमाण वड्ढावेदव्वा । पुणो पुवविहाणेण कम्मइयसरीरपुंजम्हि सव्वजीवेहि अणंत गुणमेविस्तासुवचयसहिया अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता कम्मपरमाणू वड्ढावेदव्वा। पुणो पुत्वविहाणेण एगो जीवो पवेसियव्वो। पुणो तस्सेव ओरालिय-तेजा कम्मइयसरीराणि वड्ढावेदव्वाणि । एवं वड्ढाविज्जमाणे अणंताणतबादरणिगोदजीवेसु पविठेसु एगणिगोदसाधारणसरीरं पविसदि । असंखेज्जलोगमेत्तसरीरेसु पविट्ठेसु एगा पुलविया पविसदि । पुणो विस्सासुवचयसहियअभवसिद्धिएहि अणंतगण-सिद्धाणमणंतभागमेत्तोरालिय-तेजा-कम्मइयपरमाणुपोग्गलेस वढिदेस एगो जीवो पविसदि । एवमणंताणंतजीवेस पविठ्ठस एगं साधारणसरीरं पविसदि । एवमसंखेज्जलोगणिगोदलता आदिकमें सदृश बादरनिगोदवर्गणा हीन और अधिक उपलब्ध होती है । पुनः इसके सदृश वर्गणाको ग्रहण कर वहां मल, थवर और आर्द्रक आदिकमें एक औदारिक विस्रसोपचय परमाणु बढ़ने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। दो परमाणुओंके बढ़ने पर दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार अनन्तानन्त विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढ़ने पर पूर्व विधिसे अनन्तर एक औदारिक परमाणु विस्रसोपचयसहित बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार विस्रसोपचयसहित औदारिकशरीर परमाणु अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र होने तक बढ़ाने चाहिए। पुनः इसी क्रमसे अनन्तानन्त विस्रसोपचयसहित अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र तेजसशरीर परमाणु बढ़ाने चाहिए । पुनः पूर्व विधिसे कार्म शरीर पुञ्ज में सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचयसहित अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र कर्मपरमाणु बढ़ाने चाहिए। इस प्रकार पूर्व विधिसे एक जीव प्रविष्ट कराना चाहिए । पुनः उसीके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर बढ़ाने चाहिए । इस प्रकार बढ़ाने पर अनन्तानन्त बादर निगोद जीवोंके प्रविष्ट होने पर एक निगोद साधारणशरीर प्रविष्ट होता है । असंख्यात लोकमात्र शरीरों के प्रविष्ट होने पर एक पुलवी प्रविष्ट होती है । पुनः विस्रसोपचय सहित अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर परमाणु पुद्गलोंके बढ़ाने पर एक जीव प्रविष्ट होता है । इस प्रकार अनन्तानन्त जीवोंके प्रविष्ट होने पर एक साधारणशरीर प्रविष्ट होता है । इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण निगोद
४ अ. का. प्रत्योः 'ओरालि यसरीपरमाणू अभवमिद्धिएहि अणतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तेजापरमाग इति । ।
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बंधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा (१११ सरीरेसु पविठेसु विदिया पुलविया पविसदिएवं तदिय-चउत्थ-पंचमादि जाव जगसेडीए असंखेज्जदिभागमेतपुलवियासु वडिदासु कम्मभूमिपडिभागसयंभरमणदीवस्स मूलयसरीरे जगसेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवियाओ एगबंधणबद्धाओ घेत्तूण उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणा होदि । जहण्णादो पुण उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणा असंखज्जगुणा । को गुणगारो? जगसेडीए असंखेज्जदिभागो । के वि आइरिया गुणगारो पुण
आवलियाए असंखेज्जदिभागो होदि ति भणंति, तण्ण घडदे । कुदो? बादरणिगो. दवग्गणाए उक्कस्सियाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तो णिगोदाणं त्ति एदेण चलियासुत्तेण सह विरोहादो । ण च सुत्तविरुद्धमाइरियवयणं पमाणं होदि; अइप्पसंगादो । णिगोदसद्दो पुलवियाणं वाचओ त्ति घेतण एसा परूवणा परूविदा । संपहि बावरणिगोदवग्गणाए जहणियाए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो णिगोदाणं ति एदस्स चलियासुत्तस्स के वि आइरिया वक्खाणमेवं कुणंति । जहा-णिगोदाणमिदि वृत्ते घणावलियाए असंखेन्जविभागो गणगारो होदि त्ति घेत्तव्वो। पत्तेयसरीरउक्कस्सवग्गणं घणावलियाए असंखेज्जदिभागेण गणिदे जहणिया बादरणिगोदवग्गणाए होदि त्ति भणिदं होदि? एदं वक्खाणं ण घडदे सहमणिगोदवग्गणा जहणियाए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेतो णिगोदाणं इदि एत्थ वि घणावलियाए असंखज्जदिभागेण उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणाए गुणिदाए जहण्णसुहमणिगोदवग्गशरीरोंके प्रविष्ट होने पर दूसरी पुलवी प्रविष्ट होती है। इस प्रकार तीसरी, चौथी और पाँचवीं आदिसे लेकर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंकी वृद्धि होने पर कर्मभूमि प्रतिभाग स्वयंभूरमण द्वीपकी मूलीके शरीर में एक बन्धनबद्ध जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंको ग्रहण कर उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा होती है। अपनी जघन्यसे उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा असंख्यातगुणी है। गुणकार क्या है? जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । कितने ही आचार्य गुणकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है ऐसा कहते हैं परन्तु वह घटित नहीं होता क्योंकि, उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणामें निगोदोंका (पुलवियोंका) प्रमाण जगश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र है इस चुलिकासूत्रके साथ विरोध आता हैं । और सूत्रविरुद्ध आचार्योंका वचन प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होने पर अतिप्रसंग दोष आता है । निगोद शब्द पुलवियों का वाचक है ऐसा ग्रहण करके यह प्ररूपणा की गई है। अब 'बादरणिगोदवगणाए जहणियार आवलियाए असंखज्जदिभागमेत्तो णिगोदाणं' इस चूलिकासूत्रका कितने ही आचार्य इस प्रकार व्याख्यान करते हैं। यथा-"णिगोदाणं' ऐसा कहने पर उसका अर्थ 'निगोद जीव' लेते है, पुलवियां नहीं । 'आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो' ऐसा कहने पर घनावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार होता है ऐसा ग्रहण करते हैं । प्रत्येकशरीर उत्कृष्ट वर्गणाको घनावलिके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर जघन्य बादरनिगोदवर्गणा होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । किन्तु यह व्याख्यान घटित नहीं होता, क्योंकि, 'सुहमणिगोदवग्गणाए जहणियाए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेतो जिगोदाणं' यहां भी घनावलिके असंख्यातवें भागसे उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणाके गुणित करने पर जघन्य
ॐ अ-आ- प्रत्योः 'घणावलिए' इति पाठ ।
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११२ )
( ५, ६, ९४.
पत्सिंगादो | ण च एवं; अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो गुणगारो त्ति आइरियपरंपरागबुवदेसबलेण सिद्धत्तादो | अथवा आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो fuगोदाणं इदि एत्थतणणिगोदसद्दो अंडराणमावास्याणं वा वाचओ त्ति घेत्तव्वो; उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणाए असंखेज्जलोगमेत्तपुलवियाओ एगबंधणबद्धाओ अस्थि त्ति वक्खाणण्णहाणुववत्तोदो । ण च रस रुहिर- मांससरूवंडराणं खंधावयवाणं तत्तो पुधभावेण अवद्वाणमत्थि जेणेगक्खंधे अणेगबंधणबद्धाणमसंखेज्जलोगमेत्तपुलवियाण संभवो होज्ज तेणेसो चेवत्थो पहाणो त्ति घेत्तव्वो । एदम्मि अत्थे घेपमाणे अकसायगुणसे डिमरणद्वार वृत्तगुणगारो ण विरुज्झमदे; असं वेज्जगुणकमेण मदावसिट्टीआवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तणिगोदेसु वि असंखेज्जलोगमेत्तपुलवियाणमुव - भादो । एवमेसा एगूणवीसदिमा वग्गणा परूविदा ।। १६ ।। बादरणिगोददव्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णदव्ववग्गणा णामं । ६४
उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणाए उवरि एगरूवे पविखत्ते तदियाए ध्रुव सुष्णवग्गणाए सव्वजहणिया धुवसुण्णवग्गणा होदि । पुणो एदिस्से उवरि पदेसुत्तरकमेण सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तमद्वाणं गंतूण तदियधुवसुण्णवग्गणाए सव्वुक्कस्सवग्गणा होदि ।
लक्खंडागमे वग्गणा-खंड
सूक्ष्मनि गोदवर्गणाकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि गुणकार अङ्कल के असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा आचार्य परम्परासे आये हुए उपदेशके बलसे सिद्ध है अथवा 'आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो णिगोदाणं' इस प्रकार यहां पर निगोद शब्द अण्डरों और आवासकों का वाचक लेना चाहिए, क्योंकि, ऐसा ग्रहण किये बिना उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा में एक बन्धनबद्ध असंख्यात लोकमात्र पुलवियाँ पाई जाती हैं यह व्याख्यान नहीं बन सकती है । और स्कन्धों के अवयवस्वरूप रस, रुधिर तथा मांसरूप अण्डरोंका उससे पृथक् रूपसे अवस्थान पाया नहीं जाता जिससे एक स्कन्ध में अनेक बन्धनबद्ध असंख्यात लोकप्रमाण पुलवियों की सम्भावना होवे; इसलिए यही अर्थ प्रधान है ऐसा ग्रहणा करना चाहिए। इस अर्थ के ग्रहण करने पर अकषाय गुणश्रेणि मरण कालका उक्त गुणकार विरोधको नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, असं - ख्यात गुणित क्रम से मृत जीवोंसे अवशिष्ट रहे आनलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निगोदों में भी असंख्यात लोकप्रमाण पुलवियां उपलब्ध होती हैं । इस प्रकार यह उन्नीसवीं वर्गणा कही गई है । बादरनिगोदवर्गणाओंके ऊपर ध्रुवशून्यद्रव्यवर्गणा होती है ॥ ६४ ॥
उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणामें एक अंकके मिलाने पर तीसरी ध्रुवशून्यवर्गणाकी सबसे जघन्य ध्रुवशून्यवर्गणा होती है । पुनः इसके ऊपर प्रदेश अधिक के कनसे सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थान जाकर तीसरी ध्रुवशून्यवर्गणाकी सबसे उत्कृष्ट वर्गणा होती है । अपनी जघन्य से
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( ता० प्रती 'मधा (दा) व सिट्ठ' अ० आ० प्रत्योः मधावसिद्ध इति पाठ 1 ता० प्रतो 'वग्गणा ( णभुवरि ध्रुवसुण्णदव्ववग्गणा ) णाम' अ० का० प्रत्मोः 'वग्गणागमुवरि धुवसुण्ण णाम' आ० प्रतौ 'वग्गणाणमुवरि ध्रुवसुण्णवग्गणा णाम इति पाठः ।
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५, ६, ९५.)
बंधणाणुयोगद्दारे सुहुमणिगोददव्व वग्गणा
( ११३
सगजहण्णादो सगुक्कस्सवग्गणा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? अंगुलस्स असंखेज्जविभागो। उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ पुलवियाओ। जहगसुहमणिगोदवग्गणाए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत पुलवियाओ । तदो उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणादो हेटा सुहमणिगोदजहण्णवग्गणाए अंतरेण विणा होदव मिदि ? एत्थ परिहारो वच्चदे-बादरणिगोद उक्स्स वग्गणाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत पुलवियासु द्विवजीवेहितो सुहमणिगोदजहण्णवग्गणाए आवलियाए असं. खेज्जदिभागमेत्त पुलवियासु द्विदजीवा असंखेज्जगणा । कुदो ? बादरणिगोदवग्गणा' सरीरेहितो सुहमणिगोदवग्गणासरीराणमंगलस्स* असंखेज्जदिभागमेत्तगणगारुवलंभादो तत्थतणजीवेहितो एत्थतणजीवाणं गुणगारस्स अंगुलस्स असंखेज्जदिभाग-- मेतत्तुवलंभादो वा । ण च एत्थ बाहयमस्थि साहयंत पुण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेतगुणगारस्त अण्णहाणुववत्तीदो। एवमेसा वीसदिमा वग्गणा २० परूविदा। धुवसुण्णदव्ववग्गणाणमुवरि सुहमणिगोदवग्गणा णाम ॥ ९५ ॥
उक्कस्सधुवसुण्णदव्ववग्गणाए उवरि एगरूवे पक्खित्ते सव्वजहणिया सुहमणिगोददव्ववग्गणा णाम होदि । सा पुण जले वा थले वा आगासे वा दिस्सदि; उत्कृष्ट वर्गणा असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है? अडुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
शका-उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणामें जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियां होती हैं। जवन्य सूक्ष्पनिगोदवर्गणामें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियां होती हैं । इसलिए उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणासे नीचे सूक्ष्म निगोद जघन्य वर्गणा अन्तरके बिना होनी चाहिए?
समाधान-यहां उक्त शंकाका परिहार करते हैं-- बादर निगोद उत्कृष्ट वर्गणाकी जगश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियोंमें स्थित जीवोंसे सूक्ष्म निगोद जघन्य वर्गणाको आवलिके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियोंमें स्थित जीव असंख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि बादर निगोदवर्गणाके शरीरोंसे सक्षम निगोदवर्गणाके शरीरोंका गणकार अङ-लके असंख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है । अथवा वहां रहनेवाले जीवोंसे यहां रहनेवाले जीवोंका गुणकार अडुलके असंख्यातवें भागप्रमाण उपलब्ध होता है । और यहां इसका कोई बाधक भी नहीं है, किन्तु साधक ही है, अन्यथा अडुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार नहीं बन सकता है । इस प्रकार यह बीसवीं वर्गणा कही। ध्रुवशन्यद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर सूक्ष्मनिगोदवर्गणा होती है ।। ९५ ।।
उत्कृष्ट ध्रुनशून्यवर्गणामे एक अंकके मिलाने पर सूक्ष्म निघोदद्रव्यवर्गणा होती है। वह जल में, स्थल में और आकाशमें सर्वत्र दिखलाई देती है, क्योंकि बादरनिगोदवर्गणाके समान
* अ0 प्रतो 'अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो 1 उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणादो हेट्टा' इति पाठः । * अ० प्रती 'सेडीए असंखेज्जदिभागमेतपुलवियासु हुदजीवेहितो सुहुमणिगोदवग्गणासरीराणभंगुसलस्स
इति पाठ ।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड बादरणिगोदवग्गणाए व एदिस्से देसणियमाभावादो। वरि एसा सवजहणिया सुहमणिगोदवग्गणा खविदकम्मंसियलक्खणेण खविदघोलमाणलक्खणेण च आगदाणं चेव सहमणिगोदजीवाणं होदि ण अण्णेसि; तत्थ दव्वस्स जहणत्तविरोहादो । एत्थ वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपलवियाओ। एक्के किस्से पुलवियाए असंखेज्जलोगमेत्तणिगोदसरीराणि । एक्केक्कम्हि णिगोदसरीरे अणंताणंतजीवा अत्यि । तेसु जीवेसु खविदकम्मसियलक्खणेणागदजीवा आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ता चेव । अवसेसा सवे खविदघोलभाणा । एदेसिमणंताणतजीवाणमोरालिय-तेजा-कम्मइयसरीराणं कम्मणोकम्मविस्तासवचयपरमाणपोग्गले घेतण सव्वजहणिया सहमणिगोदवग्गण। होदि ।
___ संपहि एविस्से परूवर्ण कस्समो । तं जहा-ओरालियसरीरम्हि एगविस्सासुवचयपरमाणुम्हि वडिदे बिदियमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवमेगेगविस्तासुवचयपरमाणू वड्ढावेदव्वा जाव सव्वजोवेहि अणंतगुणमेत्तट्ठाणाणि लक्ष्ण सधजीवाणमोरालियसरीराणि विस्सासुवचयेण उक्कस्साणि जादाणि त्ति । पुणो तेसि चेव जीवाणं तेजा. सरीराणमुवरि एगेगविस्सासुवचयपरमाण वड्ढावेदव्वा जाव सम्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तढाणाणि लद्धण विस्सासवचएण तेसि जीवाणं तेजासरीराणि उक्कस्साणि जादाणि त्ति । पुणो तेसिं चेव जीणं कम्मइयसरीरेसु एगेगविस्सासवचयपरमाणू वड्ढावेदव्वा जाव सव्वजोवेहि अणंतगुणमेतढाणाणि लधुण विस्सासुवचएण तेसि कम्मइयसरीराणि उक्कस्साणि जादाणि ति । तदो अण्णस्त जीवस्स एदेसिमोरालियसरीराणमुवरि विस्सासुवचएण सह वढिदेगपरमाणुस्स सव्वजोवेहि अणंतगुणमेत्त - इसका देशनियम नहीं है। इतनी विशेषता है कि यह सबसे जघन्य सूक्ष्म निगोदवर्गणा क्षपित कर्माशिकविधिसे और क्षपितघोलमानविधिसे आये हुए सूक्ष्म निगोद जीवोंके ही होती हैं, अन्यके नहीं, क्योंकि, वहां जघन्य द्रव्यके होने में विरोध है । यहां भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियाँ होती हैं एक एक पुलविमें असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीर होते हैं और एक एक निगोदशरीरमें अनन्तानन्त जाव होते हैं। उन जीवों में क्षपितकांशिक लक्षणपे आये हुए जीव आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं । शेष सब जीव क्षपितघोलमान होते हैं । इन अनन्तानन्त जीवोंके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरोंके कर्म, नोकर्म और विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंको ग्रहण कर सबसे जघन्य सूक्ष्मनिगोदवर्गणा होती है।
अब इसका कथन करते हैं । यथा-औदारिकशरीरमें एक विस्रसोपचय परमाण के बढ़ने पर दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थान प्राप्त कर सब जीवोंके औदारिकशरीर विस्रसोपचयके द्वारा उत्कृष्ट होने तक एक एक विस्रसोपचय परमाणु बढ़ाना चाहिए । पुनः उन्हीं जीवोंके तैजसशरीरोंके ऊपर सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थान प्राप्त कर विस्रसोपचयके द्वारा उन जीवोंके तैजसशरीर उत्कृष्ट होने तक एक एक विस्रसोपचय परमाणु बढ़ाना चाहिए । पुनः उन्हीं जीवोंके कार्मणशरीरोंके ऊपर सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थान प्राप्त कर विस्रसोपचयके द्वारा उनके कार्मणशरीरोंके उत्कृष्ट होने तक एक एक विस्रसोपचय परमाणु बढ़ाना चाहिए । अनन्तर इन औदारिकशरीरों के ऊपर विस्रसोपचयके
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५, ६, ९५. ) बंधणाणुयोगद्दारे सुहुमणिगोददव्ववग्गणा ( ११५ टाणाणि अंतरिदूणेदमण्णं द्वाण मप्पज्जदि। पुणो णिरंतरमिच्छामो ति इमं विस्सासुवचयसहिदएगोरालियपरमाणं पण्णाए पुध दृविय पुणो एगपरमाणुविस्सासुवचयमेतेण परिहीणपुग्विल्लोरालियसरीरपुंजम्हि पुवमणिदपरमाणुम्हि पक्खित्ते एगपरमाणुत्तरं होदूण अण्णमपुणरुत्तट्टाणं होदि । पुणो एगविस्तासुवचयपरमाणुम्हि वड्डिदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । बिदियविस्सा० बिदियमपुण । तदियविस्सासु० तदियमपु. गरुत्तट्टाणं होदि । एवमेगेगुत्तरकमेण सधजीवेहि अणंतगुणमेत्तओरालियसरीरविस्सासुवचयपरमाणुपोग्गलेसु वडिदेसु एत्तियाणि चेव अपुणरुत्तढाणाणि लग्भंति । एवं बादरणिगोदवग्गणवडावणविहाणेण ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरेसु विस्सासुवचयसहिदअभवसिद्धिएहि अणंतगण सिद्धाणमणंतभागमेत्तपरमाणुपोग्गलेसू वडिदेसु एगो सुहमणिगोदजीवो पवेसियव्वो। एवं बादरणिगोदवग्गणवड्ढाविदविहाणेण अणंताणंतसुहमणिगोदजीवेसु पविठेसु एगंसाहारणणिगोदसरीरं पविसदि। एवपसंखेज्जलोग. मेत्तणिगोदसरोरेसु पविट्ठे सु एगा पुलविया पविदि । एवं आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवियासु वडिदासु जले थले वा सुहमणिगोदवग्गणा सत्थाणुक्कस्सा होदि। पुणो एदीए सुहमणिगोदवग्गणाए सह महामच्छसरीरे सुहुणिगोदवग्गणा सरिसा लग्भदि । पुणो पुग्विल्लसुहमणिगोदवग्गणं मोत्तूण एदीए सरिसमहामच्छसरीरसुहुमसाथ बढे हुए एक परमाणुसे युक्त अन्य जीवके सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थानोंका अन्तर देकर यह अन्य स्थान उत्पन्न होता है । पुन: निरन्तर स्थान इच्छित हैं इसलिए इस विस्रसोपचयसहित एक औदारिक परमाणुको बुद्धि के द्वारा पृथक् स्थापित करके पुनः एक परमाणु विस्रसोपचयमात्रसे हीन पहलेके औदारिकशरीर पुञ्जमें पहले निकाले हुए परमाणुके मिला देने पर एक परमाणु अधिक होकर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । पुनः एक विस्रसोपचय परमाणुकी वृद्धि होने पर अन्य अपुनरुक्त होता है । दूसरे विस्रसोपचय परमाणुके बढ़ने पर दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । तीसरे विस्रसोपचय परमाणु के बढ़ने पर तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार एक एक परणाणु अधिकके क्रमसे सब जोवोंसे अनन्तगुणे औदरिकशरीर विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलों के बढ़ने पर इतने ही अपुनरुक्त स्थान होते हैं। इस प्रकार बादर निगोद वर्गणाकी बढाने की विधिके अनुसार औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरोंके विस्रसोपचयसहित अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र परमाणु पुद्गलोंके बढ़ने पर एक सूक्ष्म निगोद जीवको प्रविष्ट करना चाहिए। इस प्रकार बादरनिगोदवर्गणाके बढानेकी विधिके अनुसार अनन्तानन्त सूक्ष्म निगोद जीवोंके प्रविष्ट होने पर एक साधारण निगोदशरीर प्रविष्ट होता है । इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीरोंके प्रविष्ट होने पर एक पुलवी प्रविष्ट होती है । इस प्रकार आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंके बढ़ने पर जलम व स्थल में सूक्ष्म निगोदवर्गणा स्वस्थान उत्कृष्ट होती है। पुन: इस सूक्ष्म निगोदवर्गणाके साथ महा मत्स्यके शरीरमें सूक्ष्म निगोदवर्गणा समान लब्ध होती है । पुन: पहलेकी सूक्ष्म निगोद
*ता० प्रती -मण्णहा ट्ठाण-' इति पाठः। ता. आ० का० प्रतिष पक्खित्तेपरमाणतरं इति पाठः । ता० प्रती एवं ( गं ) साहारण-' अ. का. प्रत्यो: ' एवं साहारण- इति पाठः । ० ता० आ० का० प्रतिषु 'जले वा ' इति पाठः ।
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११६ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
(५, ६, ९६.
णिगोदवग्गणं घेत्तूण पुणो एदिस्से उवरि पुव्वविहाणेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवियासु वडिदासु महामच्छसरीरे छण्णं जीवणिकायाणमेगबंधणबद्धाणं संघादे उक्कस्सिया सुहुमणिगोदवग्गणा दिस्सदि । संपहि एत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवियाओ । एक्केक्किस्से पुलवियाए असंखेज्जलोग मेत्तणिगोदसरीरे अणंताणंता जीवा च अत्थि । संपहि एत्थ गुणिदकम्मं सियलक्खणेणागदजीवा आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव होंति । सेससव्वजीवा गुणिदघोलमाणा । कुदो साभावियादो । संपहि जहण्णसुहुमणिगोदवग्गणप्पहूडि जाव सुहुमणिगोदुक्कस्सवग्गणे ति ताव सव्वजीवेहि अनंत गुणमेत्तनिरंतरद्वाणाणि लक्षूण एगं चेव फड्डुयं होबि; अंतराभावादी संपहि । एत्थतणासेसजीवाणमोरालिय-तेजा- कम्मइयसरीरकस्मणोकम्म विस्सासुवचयसहिद सव्वपरमाणूं घेत्तूण सुहुमणिगोद उक्कस्वग्गणा होदि । जहण्णादो उक्कस्सा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एवमेसा एक्कवीसदिमा वग्गणा । २१ । परूविदा |
सहमणिगो ददश्ववग्गणाणमुवरि धुवसुण्णदव्ववग्गणा णाम ।। ९६ ॥ उक्क सहमणिगोददव्ववग्गणाए उवरि एगरूवे पक्खित्ते चउत्थीए धुवसुण्णवग्गणाए सव्वजहण्णवग्गणा होदि । तदो रूवुत्तरकमेण सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तद्वाणं
वर्गणाको छोडकर इसके समान महामत्स्यके शरीरकी सूक्ष्मनिगोदवर्गणाको ग्रहण कर पुनः इसके ऊपर पूर्व विधि के अनुसार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंकी वृद्धि होने पर महामत्स्यके शरीर में एक बन्धनबद्ध छह जीव निकायोंके संघात में उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणा दिखलाई देती है । यहां आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियां हैं और एक एक पुलवि असंख्यात लोकप्रमाण निगोद शरीर में अनन्तानन्त जीव हैं। यहां गुणित कर्माशिक लक्षणसे आये हुए जीव आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाग ही होते हैं शेष सब जीव गुणित घोलमान होते हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । अब जघन्य सूक्ष्मनिगोदवर्गणासे लेकर उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणा पर्यन्त सब जीवोंसे अनन्तगुणे निरन्तर स्थान प्राप्त होकर एक ही स्पर्धक होता है, क्योंकि, मध्य में कोई अन्तर नहीं है । अब यहांके समस्त जीवोंके औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर के कर्म और नोकर्म विस्रसोपचयसहित सब परमाणुओंको ग्रहण करके उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणा होती है । यहां जघन्य वर्गणासे उत्कृष्ट वर्गणा असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? पल्यका असंख्यातवां भाग गुणकार है । इस प्रकार यह इक्कीसवीं बर्गणा कही ।
सूक्ष्म निगोदद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर ध्रुवशून्यद्रव्यवर्गणा होती है ।। ९६ ॥
उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदद्रव्यवर्गणामें एक अङक के मिलाने पर चौथी ध्रुवशून्य वर्गणाकी सबसे जघन्य वर्गणा होती है । अनन्तर एक अधिकके क्रमसे सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थान
ता० ' - सरीरणोकम्म-' इति पाठ: 1
अ आ प्रत्यो: 'गुणमेत्तमद्वाणं' इति पाठ: 1
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५, ६, ९७. ) बंधणाणुयोगद्दारे महाखंधदव्ववग्गणा गंतूण धुवसुण्णदव्ववरगणा उक्कस्सा होदि । जहण्णादो उक्कस्सा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ जगसेडोओ । एवमेसा बावीसदिमा २२ वग्गणा परूविदा ।
धुवसुण्णवग्गणाणमुवरि महाखंधदव्ववग्गणा जामा ९७ ।। उक्कस्सधुवसुण्णदव्ववग्गणाए उवरि एगरूवे पक्खित्ते सव्वजहणिया महाखंधदव्ववग्गणा होदि । तदो रूवुत्तरकमेण सव्वजोवेहि अणंतगुणमेत्तमद्धाणं गंतूण उक्कस्सिया महाखंधदव्ववग्गणा होदि । जहण्णादो उक्कस्सा विसेसाहिया । केत्तियमेतो विसेसो ? सव्वजहण्णमहाखंधवग्गणाए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण अवहिरिदाए जं भागं लद्धं तत्तियमेतो विसेसो । एत्थववज्जतीओ गाहाओ। तं जहा--
अणुसंखासंखेज्जा तधणंता वग्गणा अगेज्झाओ। आहार-तेज-भासा-मण-कम्मइय-धवक्खंधा ।। ७ ।। सांतरणिरंतरेदरसुण्णा पत्तेयदेह धवसण्णा । बादरणिगोदसुण्णा सुहुमा सुण्णा महाखंधो ।। ८ ।। अणु संखा संखगुणा परित्तवग्गणमसंखलोगगुणं । गुणगारो पंचण्णं अग्गहणाणं अभव्वणंतगुणो* ॥ ९ ॥ आहारतेजभासा मणेण कम्मेण वग्गणाण भवे ।।
उक्कस्सस्स विसेसो अभव्वजीवेहि अधियो दु ॥ १० ॥ जाकर उत्कृष्ट ध्रुवशून्यद्रव्यनर्गणा होती है । यह जघन्यसे उत्कृष्ट असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो कि असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण है। इस प्रकार यह बाईसवीं वर्गणा कही।
धूवशन्यवर्गणाओंके ऊपर महास्कन्धद्रव्यवर्गणा होती है ॥ ९७ ॥
उत्कृष्ट ध्रुवशून्यद्रव्यवर्गणामें एक अङकके मिलाने पर सबसे जघन्य महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा होती है। अनन्तर एक अधिकके क्रमसे सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थान जाकर उत्कृष्ट महास्कन्धद्रव्य वर्गणा होती है । यह जघन्यसे उत्कृष्ट विशेष अधिक है । विशेषका प्रमाण कितना है ? सबसे जघन्य महास्कन्ध वर्गणामें पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना विशेषका प्रमाण है । यहां उपयोगी पड़ने वाली गाथायें । यथा---
अणुवर्गणा, संख्याताणुवर्गणा, असंख्याताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, तैजसवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, कार्मणवर्गणा, ध्रुवस्कन्धवर्गणा, सान्तरनिरन्तरवर्गणा, शून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा ध्रुवशून्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, शून्यवर्गणा, सूक्ष्म निगोदवर्गणा, शून्यवर्गणा और महास्कन्धवर्गणा ।। ७-८ ।। इनमें अणुवर्गणा एक है। संख्याताणुवर्गणा संख्यातगुणी है । असंख्याताणुवर्गणा असंख्यातलोकगुणी है । अनन्ताणुवर्गणासहित पाँच अग्राह्यवर्गणाओंका गुणकार अभव्योंसे अनन्तगुणा है ॥ ९ ॥ आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणामें अभव्योंसे अनन्तागुणे जीवोंका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना जघन्यसे उत्कृष्ट
अ० प्रती वग्गणा असंखेज्जा' इति पाठ: *अ. का. प्रत्यो। 'अग्गहणाणामभवमणंतगणो। इति पाठः]
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११८ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
ध्रुवखंधसांतराणं ध्रुवसुण्णस्स य हवेज्ज गुणगारो । to गुण जहष्णियादो दु उक्कस्से ॥। ११ ॥ पल्लासंखेज्जदिमो भागो पत्ते यदेहगुणगारो ।
अनंता लोग लणिगोदे पुणो वोच्छं ।। १२ ।। सेडिअसंखेज्जदिमो भागो सुण्णस्स अंगुलस्सेव । पलिदोवमस्स हुमे पदरस्स गुणो दु सुण्णस्स ।। १३ ।। देसि गुणगारो जहष्णियादो दु जागा उक्कस्से । साहिमिह महखंधेऽसंखेज्जदिमो दु पल्लस्स ॥ १४ ॥ एसा एगसेडिवग्गणपरूवणा कदा |
संपहि णाणासे डिवग्गणपरूवणं वत्तइस्लामो । तं जहा परमाणुपोग्गलवग्गणहुडि जाव सांतरणिरंतर वग्गणाए उक्कस्तवग्गणेत्ति ताव एदासि वग्गणाणं सरिसधणियवग्गणाओ अनंतपोग्गलवग्गमूलमेत्तीओ होंति । पुणो पत्तेयसरीरदव्ववग्गणाओ जहणियाओ खविदकम्मं सियलक्खणेणागदअजोगिचरिमसमए वट्टमाणकाले चत्तारि होंति । उक्कस्सियाओ गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागदअजो गिचरिमसमए दोण्णि होंति । मज्झिमाओ अट्ठ लब्धंति । सव्वक्कस्सियाओ पुण पयत्तेसरीरवग्गणाओ वल्लरिदाहे महावणदाहे देवकदच्छुए वा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ लब्भंति । घट्टमाणकाले अजहरणअणुक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाओ असंखेज्जलोगमेत्तीओ लब्भंति । बादरलाने के लिए विशेषका प्रमाण है ।। १० । ध्रुवस्कन्धवर्गणा, सान्तरनिरन्तरवर्गणा और प्रथम ध्रुवशून्यवर्गणा में अपने जघन्यसे उत्कृष्टका प्रमाण लानेके लिए गुणकारका प्रमाण सब जीवों से अनन्तगुणा है ।। ११ ।। प्रत्येकशरीरवर्गणाका गुणकार पल्यका असंख्यातवां भाग है । दूसरी ध्रुवशून्य वर्गणा में गुणकार अनन्त लोक है । स्थूलनिगोद वर्गणाका गुणकार आगे कहते हैं ।। १२ ।। इसका गुणकार जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग है । तीसरी शून्यवर्मणाका गुणकार अङ्गुलका असंख्यातवां भाग है। सूक्ष्मनिगोदवर्गणा में गुणकार पल्यका असंख्यातवां भाग है । चौथी शून्यवर्गणाका गुणकार जगप्रतरका असंख्यातवां भाग है ।। १३ ।। इन सब वर्गणाओंके ये गुणकार अपने जघन्यसे उत्कृष्ट भेद लानेके लिए जानने चाहिए। तथा महास्कन्ध में अपने जघन्यसे अपना उत्कृष्ट पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक है ।। १४ ।।
( ५, ६, ९७
इस प्रकार यह एकश्रेणिवर्गणाकी प्ररूपणा की ।
अब नानाश्रेणिaण की प्ररूपणा करते हैं । यथा- परमाणु पुद्गल वर्गणासे लेकर सान्तर निरन्तरवर्गणाकी उत्कृष्ट वर्गणा तक इन वर्गणाओंकी सदृशधनवाली वर्गणायें अनन्त पुद्गल वर्गमूलमात्र होती हैं । पुनः जघन्य प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणायें क्षपितकर्माशिक लक्षणसे आय हुए योगी अन्तिम समय में वर्तमान कालमें चार होती हैं। तथा उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणायें गुणित कर्माशिक लक्षणसे आये हुए अयोगिकेवली के अन्तिम समय में दो होती हैं । मध्यम प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणायें आठ प्राप्त होती हैं । सर्वोत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाय बल्लरीदाह के समय, महावनदाह के समय या देवकृत झाडी में पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाग प्राप्त होती हैं। वर्तमान कालमें अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रत्येकशरीर वर्गणायें असंख्यात लोकप्रमाण
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५, ६, ९७. )
बंधणाणुयोगद्दारे णाणासेडिवग्गणपरूवणा
( ११९
णिगोदवग्गणाओ खीणकसायचरिमसमए जहणियाओ चत्तारि उक्कस्सियाओ दोणि मज्झिमाओ अट्ठ लब्भंति । ओघुक्कस्सियाओ पुण मलयथहल्लयादिसु पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ लभंति । सव्वक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाओ सरिसधणियाओ पलिदोव मस्स असंखेजदिभागमेत्तीयो । बादरणिगोदवग्गणाओ सव्वुक्कस्सियाओ जगपदरस् सअसंखेज्जविभागमेताओ होति त्ति जं भगिदं तमुवरि भण्णमाणजवमज्झपरूवणाए सह विरुज्झदे, तत्थ पत्तेयबादरसुहमणिगोदवग्गणाओ सरिसधणियाओ जहण्णण उक्कस्सेण य आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ चेव सव्वत्थ होंति त्ति परूविदत्तादो । एत्थ उवदेसं लदधुण णिण्णओ कायवो।
महामच्छा सयंभूरमणसमद्दे वट्टमाणकाले जेण पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता दीसंति तेणक्कस्सबादरणिगोनवग्गणाए सरिसधणियवग्गणाओ पदरस्स असंखेजदिभागमेताओ होति ति? ण, सम्वमहामच्छे सु उकास्सबादरणिगोदवग्गणा होदि त्ति णियमाभावादो पदरस्त असंखेज्जदिभागमेत्तगणिदकम्मंसियाणमभावादो च । गुणिद. कम्मंसिया एगसमयम्हि उक्कस्सेण जेणावलियाए असंखेज्जदिमागमेत्ता चेव तेण सरिसधणियवग्गणाओ उक्कस्सट्टाणे आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ चेवे त्ति घेत्तव्वं । अभवसिद्धियपाओग्गजहणटाणे वि खविदकम्मंसियलक्खणेणागदजीवा
प्राप्त होती हैं । बादरनिगोदवर्गणायें क्षीणकषायके अन्तिम समय में जघन्य चार, उत्कृष्ट दो और मध्यम आठ प्राप्त होती हैं । ओघ उत्कृष्ट बादर निगोदवर्गणाएं मलक, थूवर और लता आदिकमें जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती हैं । सदृश धनवाली सबसे उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर वर्गणायें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। सबसे उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणायें जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं ऐसा जो कहा है वह आगे कही जानेवाली यवमध्यप्ररूपणाके साथ विरोधको प्राप्त होता है, क्योंकि, वहां पर प्रत्येकशरीरवर्गणायें, बादरनिगोदवर्गणायें और सूक्ष्म निगोदवर्गणायें सर्वत्र जघन्य और उत्कृष्ट आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होती हैं ऐसा कथन किया है सो इस विषय में उपदेशको प्राप्त करके निर्णय करना चाहिए ।
__ शंका-- स्वयंभरमण समुद्र में वर्तमान काल में यतः जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण महामत्स्य दिखलाई देते हैं, अतः उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणाकी सदृश धनवाली वर्गणायें जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है ?
___ समाधान-नहीं, क्योंकि, सब महामत्स्योंमें उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा होती है ऐसा नियम नहीं है तथा जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणितकौशिक जीवोंका अभाव है, इसलिए भी जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाग उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणायें नहीं हो सकतीं। यतः एक समयमें गुणितकौशिक जीव उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं अत: उत्कृष्ट सदृश धनवाली वर्गणायें आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण ही होती हैं ऐसा यहां ग्रहण करना चाहए।
अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थान में भी क्षपितकर्माशिक लक्षणसे आये हुए जीव आवलिके ...
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१२० )
छवखंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, ९८.
आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव । तदो जवमज्ज्ञपरूवणाए भणिदुवदेसो पहाणो तिघेत्तव्वो । अजहण्णमणुक्कस्स बादरणिगोदवग्गणाओ वट्टमाणकाले असंखेज्जलोगमेत्ताओ लब्भंति । सव्वजहण्णा सुहुमणिगोदसरिसधणियवग्गणाओ जले थले आगा वा आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ होंति । उक्कस्सियाओ पुण सरिसधणियसुहुमfuगोदवग्गणाओ वट्टमाणकाले आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ होंतीओ महामच्छसरीरेषु दिस्सति । अजहण्णमणुक्कस्स सुमणिगोदवग्गणाओ वट्टमाणकाले असंखेज्जलोग मेत्तीयो होंति । महाखंधदव्ववग्गणा पुण वट्टमाणकाले एया चेव महासंधो णाम । भवणविमाणट्ठपुढविमेरुकुलसे लादीणमेगीभावो महाखंधो । असंखेज्जजोयणाणि अंतरिण द्विदाणं कथमेयतं ? ण, एयबंधणबद्धसुहुमेहि पोग्गलक्खंधेहि समवेदाणमंतराभावादो । एसा णाणासेडीए परूवणा कदा । एवं वग्गणापरूवणा समत्ता ( १ ) वग्गणाणिरुवणिदाए इमा एयपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम किं भेदेण किं संघादेण किं भेदसंवादेण ।। ९८ ।।
एवं पुच्छासुतं । एत्थ 8 परमाणुग्गहणं कायव्वं; परमसुहुमत्ताविणाभाविएयपदेसियगहणेणेव तस्स सिद्धीदो ? ण एस दोसो; जेण सव्वाओ वग्गणाओ असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं । इसलिए यवमध्यप्ररूपणा में कहा गया उपदेश प्रधान है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । अजघन्य अनुत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणाऐं वर्तमान काल में असंख्यात लोकप्रमाण उपलब्ध होती हैं । सबसे जघन्य सूक्ष्मनिगोद सदृश धनवाली वर्गणाए जल, स्थल और आकाशमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। परन्तु उत्कृष्ट सदृश धनवाली सूक्ष्मनिगोदवर्गणाऐं वर्तमान कालमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हुई महामत्स्य के शरीर में दिखलाई देती हैं । अजघन्य अनुत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणाऐं वर्तमान काल में असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं । परन्तु महास्कन्ध वर्गणा वर्तमान कालमें एक ही महास्कन्ध नामवाली होती है ।
शंका- असंख्यात योजनोंका अन्तर देकर स्थित हुए पुद्गलोंका एकत्व कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि एकबन्धनबद्ध सूक्ष्म पुद्गलस्कन्धोंसे समवेत पुद्गलोंका अन्तर नहीं पाया जाता ।
यह नानाश्रेणिकी अपेक्षा प्ररूपणा की । इस प्रकार वर्गणाप्ररूपणा समाप्त हुई ।
वर्गणानिरूपणाको अपेक्षा एकप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघातसे होती है या क्या भेद - संघात से होती है ।। ९८ ।। यह पृच्छासूत्र है।
शंका- यहाँ परमाणु पदका ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि परम सूक्ष्मत्व के अविनाभावी एकप्रदेशी पदके ग्रहणसे ही उसकी सिद्धि हो जाती है ?
-
ता० प्रती होंति (ती) अ० आ० का० प्रतिषुः 'होति' इति पाठः । ता० प्रती 'एत्थ तण ( एत्थ ताव ण) परमाणु- अ० आ० का० प्रतिषु एत्थतण परमाणु-' इति पाठ: ।
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५, ६, १०१. )
बंधाणुयोगद्दारे वग्गणणिरुवणा
परमाणुपले हितो चेवृप्पण्णाओ तेण सव्वास वग्गणाणं परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा ति सण्णा । तिस्से वग्गणाए एयादिपदेसा जेण विसेसणं तेण दोष्णं पि गहणं कायव्वमिदि । खंधाणं विहडणं भेदो गाम । परमाणुपोग्गलसमुदयसमागमो संघादो णाम । भेदं गंतूण पुणो समागमो भेदसंघादो नाम । संपहि एसा एयपदेसियपरमाणुपोग्गल - दव्ववग्गणा किं भेदेण उप्पज्जदि आहो संघादेण किं वा भेदसंघादेणे त्ति पुच्छा कदा होदि । तणिच्छयजणणटुमुत्तरसुत्तं भणदि --
उवरिल्लीणं दव्वाणं भेदेण ।। ९९ ॥
दुपदे सियादि उपरिमवग्गणाणं भेदेणेव एयपदेसिया वग्गणा होदि; सुहुमस्स थूलभेदादो चेव उत्पत्तिदंसणादो । संघादेण भेदसंघादेण वा एयपदे सियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा ण होदि; एवम्हादो हेट्ठा वग्गणाणमभावादो ।
इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम किं भेदेण किं संघादेण किं भेदसंघादेण ॥ १०० ॥
( १२१
सुमं ।
उवरिल्लीणं वाणं भेदेण हेट्ठिल्लीणं दव्वाणं संघादेण सत्याणेण भेदसंघादेण ।। १०१ ॥
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यतः सब वर्गणायें परमाणु पुद्गलोंसे ही उत्पन्न हुई हैं, अतः सब वर्गणाओं की परमाणु पुद्गलद्रव्यवर्गणा यह संज्ञा है । तथा उस वर्गणा एकादि प्रदेश यतः विशेषण हैं. अतः एकप्रदेशी और परमाणुपुद्गल इन दोनों पदोंका ग्रहण करना चाहिए ।
स्कन्धों का विभाग होना भेद है । परमाणुपुद्गलोंका समुदाय समागम होना संघात है । भेदको प्राप्त होकर पुनः समागम होना भेदसंघात है । यह एकप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे उत्पन्न होती है या संघातसे उत्पन्न होती है या क्या भेद-संघातसे उत्पन्न होती है, इस प्रकार इस सूत्र द्वारा पृच्छा की गई है । अब उसका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंऊपर के द्रव्योंके भेदसे उत्पन्न होती है ॥ ९९ ॥
द्विप्रदेशी आदि उपरिम वर्गणाओंके भेदसे ही एकप्रदेशी वर्गणा होती है, क्योंकि, सूक्ष्मकी स्थूलके भेदसे ही उत्पत्ति देखी जाती है । संघातसे और भेद- संघातसे एकप्रदेशी परमाणु पुद्गलद्रव्यवर्गणा नहीं होती है, क्योंकि, इससे नीचे अन्य वर्गणाओंका अभाव है ।
यह द्विप्रदेशी परमाणुपुद् गलद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघातसे होती है या क्या भेद-संघातसे होती है ॥ १०० ॥
सुगम है ।
ऊपरके द्रव्योंके भेदसे और नीचेके द्रव्योंके संघातसे तथा स्वस्थानमें भेदसंघातसे होती है ।। १०१ ॥
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१२२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ... जेण एयपदेसियपरमाणुपोग्गलाणं दोण्हं समृदयसमागमेण दुपदेसियवग्गणा होदि तेणेसा हेटिल्लीणं संघादेण होदि । उवरिल्लीणं भेदेण वि होदि । तं जहातिपदेसियवग्गणाए एगपरमाणुपोग्गले विरोहिगणपादुब्भावेण भेदं गदे दुपदेसि यदव्व. वग्गणा होदि । चदुपदेसियखंधादो दोसु परमाणुपोग्गलेसु विरोहिगुणपादुब्भावेण भेदं गदेसु दुपदेसियवग्गणा होदि । पंचपदेसियखंधादो तिसु परमाणपोग्गलेसु भेदं गदेसु दुपदेसियवग्गणा होदि । एवमुवरिमसनवग्गणाणं भेदेग दुपदेसियवग्गणाए उप्पत्ती
वत्तव्वा । तिपदेसियादिवग्गणाणं भेदेण दुपदेसियवग्गणा उप्पज्जदि त्ति कट्ट उवरि •ल्लीणं दवाणं भेदेण ति भणिदं। एयपदेसियवग्गणाणं दोण्णं समुदयसमागमेणेव दुपदेसियवग्गणा समुप्पज्जदि त्ति हेढिल्लोणं दवाणं संघादेणे त्ति भणिदं। दुपदेसियबेखंधा भेदं गंतूण जदा पुश्व संबद्धपरमाणुणा अण्णेण वा समागममागदा होंति तदा दुपदेसियवग्गणा सत्थाणेण भेदसंघादेण उप्पण्णे ति भण्णदि। दुपदेसि यवग्गणा भेद गदा संती एयपदेसियवग्गणा होदि। पुणो ताणं दोण्णं परमाणूणं समुदयसमागमेण उप्पणा दुपदेसियवग्गणा हेदिल्लीणं दवाणं संघादेण समुप्पणे ति सस्थाणेण भेदसंघादेण दुपदेसियवग्गणाए उप्पत्ती होदि त्ति जं भणिदं तण्ण घडदे ? एत्थ परिहारो वुच्चदे । तं जहा- अवयवविभागो उप्पण्णो संतो अवयवसंजोगविणासं कुणदि णाणुप्पण्णो, णिरहेउअस्स कज्जस्स उप्पत्तिविरोहादो । तदो अवयवविभा
यतः दो एकप्रदेशी परमाणुपुद्गलोंके समुदयसमागमसे द्विप्रदेशो वर्गणा होती है, इसलिए यह नीचे की वर्गणाओंके संघातसे होती है । ऊपरकी वर्गगाओंके भेदसे भी होती है । यथा-त्रिप्रदेशी वर्गणामें एक परमाणु पुद्गलके विरोधी गुणके उत्पन्न होनेसे भेदको प्राप्त होने पर द्विप्रदेशी द्रव्यवर्गणा उत्पन्न होती है । चार प्रदेशी स्कन्धसे दो परमाणु पुद्गलोंके विरोधी गुणके उत्पन्न होनेसे भेदको प्राप्त होनेपर द्विप्रदेशी वर्गणा उत्पन्न होती है । पञ्चप्रदेशी स्कन्ध से तीन परमाणु पुद्गलोंके भेदको प्राप्त होनेपर द्विप्रदेशी वर्गणा उत्पन्न होती है । इस प्रकार उपरिम सब वर्गणाओंके भेदसे द्विप्रदेशी वर्गणाकी उत्पत्ति कहनी चाहिए । त्रिप्रदेशी आदि वर्गणाओंके भेदसे द्विप्रदेशी वर्गणाकी उत्पत्ति होती है ऐसा समझकर 'ऊपरके द्रव्योंके भेदसे ' यह वचन कहा है । एकप्रदेशी दो वर्गणाओंके समुदयसमागमसे द्विप्रदेशी वर्गणा उत्पन्न होती है इसलिए 'नीचेके द्रव्योंके संघातसे' यह वचन कहा है । द्विप्रदेशी दो स्कन्ध भेदको प्राप्त होकर जब पूर्व सम्बद्ध परमाणुके साथ या अन्य परमाणु के साथ समागमको प्राप्त होते हैं तब द्विप्रदेशी वर्गणा स्वस्थानमें भेद-सघातसे उत्पन्न होती है ऐसा कहा है।
शंका- द्विप्रदेशी वर्गणा भेदको प्राप्त होकर एकप्रदेशी वर्गणा होती है । पुनः उन दो परमाणओंके समुदयसमागमसे उत्पन्न हुई द्विप्रदेशी वर्गणा नीचेके द्रव्योंके संघातसे उत्पन्न हुई है इसलिए स्वस्थान में भेद-संघातसे द्विप्रदेशी वर्गणा उत्पन्न होती है ऐसा जो कहा है वह नहीं बनता है ?
समाधान-यहां इस शंकाका परिहार करते हैं । यथा-- अवयवोंका विभाग उत्पन्न होकर वह अवयवोंके संयोगका विनाश करता है, अनुत्पन्न होकर नहीं, क्योंकि, अहेतुक
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५, ६, १०१ )
योगद्दारे वग्गणाणिपरूवणा
( १२३
गुप्पण्णसमए चेव संजोगविणासेण होदव्वं; विरोहिगुणुप्पत्तीए संतीए संजोगल्स अवद्वाण विरोहादो । ण च अवयवसंजोगविणासकाले एयपदेसियवग्गणाए उत्पत्ती अत्थि; विणासुप्पत्तीण मेग दव्व विसयाणमक्कमेण वृत्तिविरोहादो । अविरोहे वा जो विणासो सा चैव वप्पत्ती, जा वुप्पत्ती सो चेव विणासो त्तिविणासुप्पत्तिववहाराणं संकरो होज्ज । ण च एवं; असंकिण्णववहारुवलंभादो । तदो विभागसमए परमावग्गणाए ण उत्पादो दुपदेसियवग्गणाए भेदो चेवे त्ति सिद्धो । पुणो एदेसि भेदाणं संघादेण समागत्रेण दुपदेसियवग्गणा उप्पज्जदि ति सत्थाणेण भेदसंघादेण जा दुपदेसियवग्गणाए समुप्पत्ती सा पुव्विल्लभंगेसु णांत भावं गच्छदित्ति सिद्धं । अथवा दुपदेसियवग्गणाए दोसु खंधेसु भेदं गच्छंतसमए चेव अण्णोष्णेन समागम गंण कमेण दुपदेसियवग्गणाओ उप्पज्जंति त्ति भेदसंघादेणुप्पत्ती वत्तव्वा । एदमत्थपदमुवरि सव्वत्थ वत्तव्वं ।
सत्त०
तिपदेसिय परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा चदु० पंच० छ० अट्ठ० णव० दस० संखेज्ज० असंखेज्ज० परित्त० अपरित्त०
कार्यकी उत्पति होने मे विरोध है, इसलिए अवयवोंके विभागके उत्पन्न होने के समय ही संयोग का विनाश होना चाहिए, क्योंकि, विरोधी गुणकी उत्पत्ति होने पर संयोगका अवस्थान होनेम विरोध है । यदि कहा जाय कि अवयवोंके संयोग के विनाशके समय ही एकप्रदेशी वर्गणाकी उत्पत्ति होती है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, एक द्रव्यको विषय करनेवाले विनाश और उत्पत्तिकी युगपत् वृत्ति होने में विरोध है । यदि विरोध नहीं माना जाता है तो जो विनाश है वही उत्पत्ति हो जायगी और जो उत्पत्ति है वह विनाश हो जायगा, इसलिए विनाश और उत्पत्तिके व्यवहारमें संकर हो जायेगा । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, इन दोनों का सांक दोष से रहित होकर व्यवहार उपलब्ध होता है, इसलिए विभाग के समय में परमाणु वर्गणाकी उत्पत्ति नहीं होती, उस समय द्विप्रदेशी वर्गणाका भेद ही होता है यह बात सिद्ध हुई । पुनः इन भेदोंके प्राप्त हुए संघात से द्विप्रदेशी वर्गणा उत्पन्न होती है, इसलिए स्वस्थान में भेदसंघात से जो द्विप्रदेशी वर्गणाकी उत्पत्ति हुई है वह पहले के भंगों में अन्तर्भावको नहीं प्राप्त होती है यह सिद्ध | अथवा द्विप्रदेशी वर्गणा के दो स्कन्ध भेदको प्राप्त होनेके समय में ही परस्पर में नागमको प्राप्त होकर क्रमसे द्विप्रदेशी वर्गणायें उत्पन्न होती हैं, इसलिए भेद - संघात से उत्पत्ति कहनी चाहिए | यह अर्थपद आगे सर्वत्र कहना चाहिए ।
त्रिप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा, चारप्रदेशी, पांचप्रदेशी, छहप्रदेशी, सातप्रदेशी, आठप्रदेशी, नौप्रदेशी, दसप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी, परीत
Q ता० प्रती - गुणुप्पत्तीए संजोगस्स' इति पाठ: । ता० प्रतो' अव (यव) ठ्ठाण - ' अ० आ० का० प्रतिषु ' अवयवट्ठाण -' इति पाठ: [ म० प्रतिपाठोऽयम् [ प्रतिषु णांतयब्भावं ' इति पाठः ।
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१२४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १०२ अणंत० अणंताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम कि भेदेण किं संघादेण किं भेवसंघादेण ॥ १०२॥
सुगममेदं पुच्छासुतं ।।
उवरिल्लीणं दवाणं भेदेण हेछिल्लोणं दवाणं संघादेण : सत्थाणेण भेवसंघादेण ॥ १०३॥
एदं पि सुत्तं सुगम, पुव्वं परविदत्तादो। हेदिल्लवरिल्लवग्गणाणं भेदसंघादेण अप्पिदवग्गणाणमुप्पत्ती किण्ण वुच्चदे; भेदकाले विणासं मोत्तूण उप्पत्तीए अभावं पडि विसेसाभावादो? ण; तत्थ एवंविधणयाभावादो। अथवा भेदसंघादस्स एवमत्थो वत्तव्वो । तं जहा-भेदसंघादाणं दोगणं संजोगो सत्थाणं णाम; तम्हि णिरुद्ध उवरिल्लीणं हेढिल्लोणं अप्पिदाणं च दव्वाणं भेदपुरंगमसंघादेण: अप्पिदवग्गणुप्पत्तिदंसणादो। सत्थाणेण भेदसंघादेण उप्पत्ती वच्चदे । सव्वो वि परमाणुसंघादो भेदपुरंगमो चेव ति सव्वासि वग्गणाणं भेदसंचादेणेव उप्पत्ती किण्ण वुच्चदे? ण एस दोसो; भेदाणंतरं जो संघादो सो भेदसंघादो णाम ण अंतरिदो; अव्ववत्था
प्रदेशी, अपरीतप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघातसे होती है या क्या भेद-संघातसे होती है ।।१०२॥
यह पृच्छासूत्र सुगम है।
ऊपरके द्रव्योंके भेदसे नीचेके द्रव्योंके संघातसे और स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे होती है ॥ १०३ ॥
यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, पहले व्याख्यान कर आये हैं।
शंका-नीचे की और ऊपरकी वर्गणाओंके भेद-संघातसे विवक्षित वर्गणाओंकी उत्पत्ति क्यों नहीं कहते, क्योंकि, भेदके समय विनाशको छोड़कर उत्पत्तिके अभावके प्रति कोई विशेषता नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, वहां पर इस प्रकारके नयका अभाव है। अथवा भेद-संघातका इस प्रकारका अर्थ कहना चाहिए । यथा-भेद और संघात दोनोंका संयोग स्वस्थान कहलाता है । उसके विवक्षित होने पर ऊपरके, नीचेके और विवक्षित द्रव्योंके भेदपूर्वक संघातसे विवक्षित वर्गणाकी उत्पत्ति देखी जाती है । इसे स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे उत्पत्ति कहते है।
शंका-सभी परमाणुसंघात भेदपूर्वक ही होता है, इसलिए सभी वर्गणाओंकी उत्पत्ति भेद-संघातसे ही क्यों नहीं कहते ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भेदसे अनन्तर जो सघात होता है उसे भेद-संघात कहते हैं । जो अन्तरसे होता है उसकी यह संज्ञा नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर
ता. प्रतो ' भेदपुरंगमत्तादो संघादेण · इति पाठः 1
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५, ६, १०७. ) बंधणाणियोगद्दारे वग्गणाणिरूवणा
( १२५ प्पसंगादो तम्हा ण सव्ववग्गणाणं भेदसंघादेणुप्पत्ती ।
आहार० अगहण० तेया० अगहण० भासा० अगहण० मण अगहण० कम्मइय० धुवक्खंधवववग्गणा णाम किं भेदेण किं संघादेण कि भेदसंघादेण ॥ १०४ ॥
सुगमं ।
उवरिल्लीणं दवाणं भेदेण हेविल्लीणं दवाणं संघावण सत्थाणेण भेदसंघादेण ॥ १०५ ॥
सुगमं ।
धुवखंधवव्ववग्गणाणमुवरि सांतरणिरंतरदव्ववग्गणा णाम कि भेदेण कि संघादेण कि भेदसंघादेण । ।१०६ ॥
सुगमं।
सत्थाणण भेवसंघादेण ॥ १०७ ॥ तं जहा- ण पत्तेयबादरसुहमणिगोदवग्गणा भेदेण होदि; सचित्तवग्गणाण
अव्यवस्थाका प्रसंग आता है । इसलिए सब वर्गणाओंकी उत्पत्ति भेद-संघातसे नहीं होती।
__ आहारद्रव्यवर्गणा, अग्रहणद्रव्यवर्गणा, तैजस द्रव्यवर्गणा, अग्रहणद्रव्यवर्गणा, भाषाद्रव्यवर्गणा, अग्रहणद्रव्यवर्गणा, मनोद्रव्यवर्गणा, अग्रहणद्रव्यवर्गणा, कार्मणद्रव्यवर्गणा और ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघातसे होती है या क्या भेद-संघातसे होती है । १०४ ।।
___ सुगम है।
ऊपरके द्रव्योंके भेदसे, नीचेके द्रव्योंके संघातसे और स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे होती है ॥ १०५ ॥
सुगम है ।
ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर सान्तरनिरन्तरद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघातसे होती है या क्या भेद-संघातसे होती है ॥ १०६ ॥
सुगम है। स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे होती है ।। १०७ ॥ यथा-प्रत्येकशरीर, बादरनिगोद और सूक्ष्मनिगोद वर्गणाओंके भेदसे यह वर्गणा नहीं
* ता० प्रतो 'अव्वत्थाप्पसंगादो' इति पाठ.
1 ता० प्रती '-णिगोदवग्गणा ( णं ) भेदेण' अ० प्रती 'णिगोदवग्गणाणभेदेण' आ० प्रती 'णिगोदाणं बग्गणाणं भेदेण इति पाठ।।
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१२६ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
(५, ६, १०७.
मचित्तवग्गणसरूवेण परिणामविरोहादो। ण च सचित्तवग्गणाए कम्म-णोकम्मक्खंधेसु तत्तो विष्कट्टिय सांतरणिरंतरवग्गणाणमायारेण परिणदेसु तब्भेदेणेवेदिस्से समुप्पत्ती; तत्तो विष्फट्टसमए चैव ताहितो पुधभूदखंधाणं सचित्तवग्गणभावविरोहादो । ण महाखंधभेदेणेदिस्से समुप्पत्ती; महाखंधादो विप्फट्ट खंधाणं महाखंधभेदेहितो पुधभूदाणं महाखंधववएसाभावेण तेसि तब्भेदत्ताणुववत्तदो । एदम्मि गए अवलंबिज्जमाणे उवरिल्लीणं वग्गणाणं भेदेण वि होदि त्ति परूविदं । दव्वंद्वियगए पुण अवलंबिज्जमाणे उवरिल्लीणं भेदेण वि होदि । धुवक्खंधादीणं संघादेण सांतर निरंतर वग्गणा न होदि ; दवयिणावलंबनादो । सांतरणिरंतर वग्गणा एक्का चेव; तिस्से आयारेण धुवक्खंधवग्गणादीणमणंतरं चैव परिणामाभावादो । पज्जवट्टियणए पुण अवलंबिज्जमाणे हेल्ली संघादेण वि होदि; उक्कस्पधुववबंधवग्गगाए एगादिपरमाणुसमागमे सांतरणिरंतर वग्गणाए समुपत्त पडि विरोहाभावादो। ण विवरीयकप्पणा; सचित्तवग्गणद्वाणाणमणुपत्तिप्पसंगादो । सांतरणिरंतरवग्गणाए परिणामंतरावत्ती णत्थि त्तिण वोत्तुं जुत्तं ; धुवसुण्णवग्गणागमाणं तियप्पसंगादो। ण सत्थाणे चेव परिणामो वि; जहण्णवग्गणादो परमाणुत्तरवग्गणाए उष्पत्तिविरोहादो सांतरणिरंतरवग्गणाए अभाव - होती, क्योंकि, सचित्तवर्गणाओंका अचित्तवर्गणारूपसे परिणमन होने में विरोध है । यदि कहा जाय कि सचित्तवर्गणाके कर्म और नोकर्मस्कन्धोंके उससे अलग होकर सान्तर निरन्तर वर्गणारूपसे परिणत होनेपर उनके भेदसे इस वर्गणाकी उत्पत्ति होती है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उनसे अलग होने के समय ही उनसे अलग हुए स्कन्धोंको सचित्त वर्गणा विरोध आता है । महास्कन्धके भेदसे इस वर्गणाकी उत्पत्ति होती है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, महास्कन्धसे अलग हुए स्कन्ध यतः महास्कन्ध के भेदसे अलग हुए हैं, अत: उनकी महास्कन्ध संज्ञा नहीं हो सकती और इसलिए उनका उससे भेद नहीं बन सकता । इस नयका अवलम्बन करने पर ऊपरकी वर्गणाओंके भेदसे यह वर्गणा नहीं होती है यह कहा गया है । परन्तु द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर ऊपरकी वर्गणाओंके भेदसे भी यह वर्गणा होती है । ध्रुवस्कन्ध आदिकके संघात से सान्तर निरन्तर वर्गणा नहीं होती है, क्योंकि, यहां द्रव्याधिक नयका अवलम्बन लिया गया है । सान्तरनिरन्तर वर्गणा एक ही है, उस रूपसे ध्रुवस्कन्ध वर्गणा आदिका अनन्तर ही परिणामका अभाव है । परन्तु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लेने पर नीचेकी वर्गणाओंके संघात से भी यह वर्गणा होती है, क्योंकि, उत्कृष्ट ध्रुवस्कन्धवर्गणामें एक आदि परमाणुका समागम होनेपर सान्तरनिरन्तर वर्गणाकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं है । यह विपरीत कल्पना भी नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर सचित्तवर्गणास्थानोंकी अनुत्पत्तिका प्रसंग आता है । सान्तरनिरन्तरवर्गणा का दूसरे प्रकारसे परिणमन नहीं होता है यह कहना भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि, ऐसा होनेपर ध्रुवशून्यवर्गणाओंके अनन्त होनेका प्रसंग आता है । केवल स्वस्थानमें ही परिणमन होता है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, जघन्य वर्गणासे एक परमाणुअधिक वर्गणाकी उत्पत्ति होने में विरोध आता हैं, दूसरे ०ता० आ० का० प्रतिषु '-क्खंधादीणं सांतर -' इति पाठ: 1
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५, ६, १०९ )
बंधाणुयोगद्दारे वग्गणाणिपरूवणा
( १२७
पसंगादो च । तम्हा सत्थाणेण भेदसंघादेणेव होदित्ति घेत्तव्वं । अथवा उवरिम - वग्गणाओ विष्फट्टाओ धुवखंदादिसरूवेणेव णिवदंति; साहावियादो । धुवखंदादिविग्गणाओ सत्थाणे चेव समागमंति उवरिमवग्गणाहि वा; साहावियादो । सांतरणिरंतरवग्गणा पुण सत्थाणे चेव भेदेण संघादेण तदुभयेण वा परिणमदित्ति जाणावणट्ठ भेदसंघादेणे त्ति परुविदं ।
उवरिल्लोणं दव्वाणं भेदेण
हेट्ठिल्लीणं दव्वाणं संघादेण
सत्थाणेण भेदसंघादेण ॥ १०८ ॥
सुविसुत्थपोत्थ एसो पाठो । एदस्स सुत्तस्स जहा धुवखंधवग्गजाए तिहि पयारेहि उप्पत्ती परुविदा तहा एत्थ वि परूवेदव्वा; विसेसाभावादो । कथं सचित्तवग्गणा महाखंधवग्गणा वा सांतरणिरंतरवग्गणसरूवेण परिणमइ ? ण, तरभेदेण आगदवखंधाणं सांतरणिरंतरवग्गणायारेण परिणामुवलंभादो ।
सांतरणिरंतर दव्ववग्गणाणमुवरि पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा णाम किं भेदेण किं संघादेण किं भेदसंघादेण ।। १०९ ।।
सान्तरनिरन्तर वर्गणाका अभाव भी प्राप्त होता है, इसलिए स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघात से ही यह वर्गणा होती है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । अथवा ऊपरकी वर्गणायें टूट कर ध्रुवस्कन्ध आदि रूपसे ही उनका पतन होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । तथा ध्रुवस्कन्ध आदि नीचेकी वर्गणायें स्वस्थान में ही समागमको प्राप्त होती हैं, अथवा ऊपरकी वर्गणाओंके साथ समागमको प्राप्त होती हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । परन्तु सान्तर निरन्तरवर्गणा स्वस्थान में ही भेदसे, संघातसे या तदुभयसे परिणमन करती है इस बातका ज्ञान कराने के लिए ' भेदसंघातसे ' ऐसा कहा '
ऊपर के द्रव्योंके भेदसे, नीचेके द्रव्योंके संघातसे ओर स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघात से होती है ॥ १०८ ॥
कितनी ही सूत्र पोथियों में यह पाठ है । इस सूत्रकी व्याख्या करते समय जिस प्रकार ध्रुवस्कन्ध वर्गणाकी तीन प्रकारसे उत्पत्ति कही है उसी प्रकार यहां भी कहनी चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है ।
शंका- सचित्तवर्गणा या महास्कन्धवर्गणा सान्तर निरन्तर वर्गणारूपसे कैसे परिणमन करती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, उनके भेद द्वारा आये हुए स्कन्धोंक। सान्तर निरन्तर वर्गणारूपसे परिणमन पाया जाता है ।
सान्तर निरन्तरद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघातसे होती है या क्या भेद-संघातसे होती है ॥ १०९ ॥
* ता० प्रती 'सुत्तपोत ( त्थ ) एसु ' अ० आ० का० प्रतिषु 'सुत्तपोत्तएसु' इति पाठ: 1 Q अ आ प्रत्यो 'पादो' इति पाठ: ।
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१२८ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
सुगमं ।
सत्थाणेण भेदसंघादेण ॥ ११० ॥
परमाणुवग्गणमादि काढूण जाव सांतरणिरंतर उक्कस्वग्गणे ति ताव एदासि वग्गणाणं समुदयसमागमेन पत्तेयसरीरवग्गणा ण समुप्पज्जदि । कुदो ? उक्कस्सातरणिरंतरवग्गणाण सरूवं मोत्तूण रूवाहियादिउवरिमवग्गणसरूवेण परिणमणसत्तीए अभावादो । आहार-तेजा- कम्मइयपरमाणुपोग्गल + वखंधेसु जोग कसायवसेण पत्तेयवग्गणाए बंधमागदेसु अण्णापत्तेयसरीरवग्गणा उप्पज्जदि त्ति हेट्ठिल्लाणं दव्वाणं संघादेण पत्तेयसरीरवग्गणाए उत्पत्ती किष्ण भण्णदे ? ण, पत्तेयसरीरवग्गणसमागमेण विणा द्विमवग्गणाणं चेव समुदयसमागमेण समुत्पज्जमाणपत्तेयसरीरवग्गणाणुवलंभादो । किं च जोगवसेण एगबंधणबद्धओरालिय-तेजा-कम्मइयपरमाणुपोग्गलक्खंधा अनंतात विस्सासुवचएहि उवचिदा । ण ते सव्वे सांतरणिरंतरादिहेट्ठिमवग्गणासु कत्थ विसरिसधणिया होंति; पत्तेयवग्गणाए असंखेज्जदिभागत्तादो । ण ते पत्तेयसरी रजहण्णवग्गणाए सह सरिसा होंति; तदसंखे ० भागत्तादो। ण ते पुध वग्गणासण्णं लहंति; जीवादो पुधभूदकाले तेसिमेगबंधाभावादो । तम्हा हेट्ठिल्लीणं दव्वाण यह सूत्र सुगम है ।
स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे होती है ।। ११० ।।
परमाणुवर्गणासे लेकर सान्तरनिरन्तर उत्कृष्ट वर्गणा तक इन वर्गणाओंके समुदयसमागमसे प्रत्येकशरीरवर्गणा नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि, उत्कृष्ट सांतर निरन्तरवर्गणाओंका अपने स्वरूपको छोड़कर एक अधिक आदि उपरिम वर्गणारूपसे परिणमन करनेकी शक्तिका अभाव है ।
( ५, ६, ११०
शंका- आहारद्रव्यवर्गणा, तैजसशरीरद्रव्यवगंणा और कार्मणशरीरद्रव्यवर्गगाके पुद्गल - स्कन्धों योग और कषायके वशसे प्रत्येकवर्गणारूपसे बन्धको प्राप्त होनेपर उनसे अन्य प्रत्येक शरीरवर्गणाकी उत्पत्ति होती है, अतः नीचेके द्रव्योंके संघातसे प्रत्येक शरीरवर्गणाकी उत्पत्ति क्यों नहीं कही जातीं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि प्रत्येकशरीरवर्गणाके समागमके बिना केवल नीचेको वर्गणाओं के समुदय समागम से उत्पन्न होनेवाली प्रत्येकरीरवर्गणायें नहीं उपलब्ध होती । दूसरे, योग के वशसे एकबन्धनबद्ध औदारिक, तेजस और कार्मण परमाणु पुद्गलस्कन्ध अनन्तानन्त विस्रस्रोपचयोंसे उपचित होते हैं । परन्तु वे सब सान्तरनिरन्तर आदि नीचेकी वर्गणाओं में कही भी सदृशधनवाले नहीं होते, क्योंकि, वे प्रत्येकवर्गणाके असख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । वे प्रत्येकशरीर जघन्य वर्गणाके सदृश भी नहीं होते, क्योंकि, वे उसके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । वे अलग रूपसे वर्गणासंज्ञाको भी नहीं प्राप्त होते, क्योंकि, जीवसे अलग होने के काल में उनका
aro
6 ता० प्रतौ ण ( स ) मुप्पज्जदि अ० आ० का० प्रतिषु 'ण मुप्पज्जदि' इति पाठ: । प्रती ' -कम्मइयपोग्गल' इति पाठ: : म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु 'बंधमागदेसु अण्णपत्ते यसरी वगण ए इति पाठ: ।
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बंधणाणियोगद्दारे वग्गणाणिपरूवणा
( १२९ संघादेण ण पत्तेयसरीरवग्गणा उप्पज्जदि त्ति सिद्धं । उवरिल्लोणं दवाणं भेदेण विणा पत्तेयसरीरवगणा उप्पज्जदि, बादर-सुहमणिगोदवग्गणाणमोरालिय-तेजा-- कम्मइयवग्गणक्खंधेसु अधटिदिगलणाए गलिदेसु पत्तेयसरीरवग्गणं वोलेदूण हेट्ठा सांतरणिरंतरादिवग्गणसरूवेण सरिसधणियभावेण अवट्ठाणुवलंभादो । कथमेद नव्वदे ? सत्थाणेण भेदसंघादेणेव पत्तेयसरीरवग्गणा होदि ति सुत्तण्णहाणुववत्तीदो! भेवं गदविदियसमए पत्तेयवग्गणसरूवेग तेसि परिणामो अस्थि ति उवरिल्लीण दव्वाणं भेदेण पत्तेयसरीरवग्गणाए उत्पत्ती किण्ण बुच्चदे ? ण, उरिमवग्गणादो आगदपरमाणपोग्गलेहि चेव पत्तेयसरीरवग्गणणिप्पत्तीए अभावादो । बादर-सुहमणि. गोदवग्गणाहिंतो एगजीवपत्तेयसरीरेसुप्पण्णे संते उरिल्लोणं दवाणं भेदेण पत्तेयसरीरवववग्गणाए उप्पत्ती किण्ण बच्चदे? ण, उवरिल्लीणं वग्गणाणं भेदो गाम विणासो। ण च बादर-सुहमणिगोदवग्गणाणं मज्झे एया वग्गणा गट्ठा संती पत्तेयसरीरवग्गणासरूवेण परिणमदि; पत्तेयवग्गणाए आणंतियप्पसंगादो। ण च असं-- खेज्जलोगमेत्तजीवेहि एगा बादरणिगोदवग्गणा सुहमणिगोदवग्गणा वा णिप्पज्जदि; तव्वग्गणाणमाणंतियत्तप्पसंगादो विष्फट्टैगजीवस्स बादर-सुहमणिगोववग्गणाणमणंएक बन्धन नहीं होता । इसलिए नीचेकी वर्गणाओंके संघातसे प्रत्येकशरीरवर्गणा नहीं उत्पन्न होती है यह सिद्ध हुआ।
___ ऊररके द्रव्यों के भेदके बिना प्रत्येकशरीरवर्गणा उत्पन्न होती है, क्योंकि, बादरनिगोदवर्गणा और सूक्ष्म निगोदवर्गणाके औदारिक, तैजस और कार्मणवर्गणास्कन्धोंके अधःस्थितिगलनाके द्वारा गलित होने पर प्रत्येकशरीरवर्गणाको उल्लघन कर उनका नीचे सदृशधनरूप सान्तरनिरन्तर आदि वर्गणारूपसे अवस्थान उपलब्ध होता है।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे ही प्रत्येकशरीरवर्गणा होती है यह सूत्र अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है ।
शंका-भेदको प्राप्त होनेके दूसरे समयमें प्रत्येकशरीरवर्गणारूपसे उनका परिणमन होता है. इसलिए उपरिम द्रव्योंके भेदसे प्रत्येकशरीरवर्गणाका उत्पत्ति क्यों नहीं कहते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, उपरिम वर्गणासे आये हुए परमाणु पुद्गलोंसे ही प्रत्येकशरीरवर्गणाकी निष्पत्तिका अभाव है।
शका- बादरनिगोदवर्गणासे और सूक्ष्मनिगोदवर्गणासे एक जीवके प्रत्येकशरीरवालोंमें उत्पन्न होने पर ऊपरके द्रव्योंके भेदसे प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणाकी उत्पत्ति क्यों नहीं कहते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, ऊपरकी वर्गणाओंके भेदका नाम ही विनाश है और बादरनिगोद. वर्गणा तथा सूक्ष्म निगोदवर्गणामें से एक वर्गणा नष्ट होती हुई प्रत्येकशरीरवर्गणारूपसे नहीं परिणमती, क्योंकि ऐसा होने पर प्रत्येकशरोरवर्गणाएं अनन्त हो जायगी । यदि कहा जाय कि असंख्यात लोकप्रमाण जीवोंके द्वारा एक बादरनिगोदवर्गणा या सूक्ष्म निगोदवर्गणा उत्पन्न होती है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इस प्रकार उन वर्गणाओंके अनन्त होनेका प्रसंग आता है । तथा अलग हुए एक जीवके बादरनिगोदवर्गणाके और सूक्ष्म निगोद
* आ० प्रत्तो "भेदेण वि ण" इति पाठ ।
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१३०)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
तिमभागदव्वस्स तब्भेदत्ताणववत्तीदो वा । ण च महाखंधवग्गणा गट्ठा संती पत्तेयसरीरवग्गणसरूवेण परिणमदि; तिस्से सम्वकालं विणासाभावादो पत्तेयसरीरवग्गणाए आणंतियत्तप्पसंगादो णिच्चेयणस्स सचेयणभावेण परिणामविरोहादो वा। तदो पत्तेयसरीरवग्गणा उरिल्लोणं वग्गणाणं भेदेण संघादेण वा ण होदि ति सिद्धं। किंतु सत्थाणेण भेदसंघादेण होदि; पत्यवग्गणभेदाणं वग्गणाणं समुदयसमागमेण असमा. गमेण वा वग्गणुप्पत्तिदंसणादो।
पत्तेयसरीरवग्गणाए उवरि बादरणिगोदवव्वग्गणा णाम कि भेदेण कि संघादेण कि भेदसंघादेण ॥ १११ ॥
सुगमं।
सत्थाणेण भेदसंघादेण ।। ११२ ॥ हेडिल्लीणं ताव संघादेण बादरणिगोदवग्गणा ण होदि; णिच्चेयणाणं वग्गणाणं समुदयसमागमेण सचित्तवग्गणप्पत्तिविरोहादो असंखेज्जलोगमेत्तपत्तेयसरीरवग्गणाणं समुदयसमागमेण अणंतजीवगन्भेगबादरणिगोदवग्गणाए उप्पत्तिविरोहादो । ण च उरिमसचित्तवग्गणाए भेदेण होदि ; एगसुहमणिगोदवग्गणजीवाणमक्कमेण सव्वेसि पि
वर्गणाके अनन्तवें भागप्रमाण द्रव्यका उस रूपसे भेद भी नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि महास्कन्धवर्गणा नष्ट होती हुई प्रत्येकशरीरवर्गणारूपसे परिणमन करती है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, एक तो उसका सर्वकाल विनाश नहीं होता, दूसरे ऐसा मानने पर प्रत्येकशरीरवर्गणाके अनन्त होनेका प्रसंग आता है और तीसरे अचेतनका सचेतनरूपसे परिणमन होने में विरोध है, इसलिए प्रत्येकशरीरवर्गणा उपरिम वर्गणाओंके भेद या संघातसे नहीं उत्पन्न होती है यह सिद्ध हुआ। किन्तु स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे उत्पन्न होती है, क्योंकि, प्रत्येक वर्गणाके अवान्तर भेदरूप वर्गणाओंके समुदयसमागम या असमागमसे वर्गणाकी उत्पत्ति देखी जाती है।
प्रत्येकशरीरवर्गणाके ऊपर बादरनिगोदवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघा. तसे होती है या क्या भेद-संघातसे होती है ।। १११ ।।
यह सूत्र सुगम है। स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे होती है ।। ११२ ।।
नीचेकी वर्गणाओंके संधातसे तो बादरनिगोदवर्गणा उत्पन्न होती नहीं, क्योंकि, अचेतन वर्गणाओंके समुदयसमागमसे सचेतन वर्गणाओंकी उत्पत्ति होने में विरोध है । तथा असंख्यात लोकप्रमाण प्रत्येकशरीरवर्गणाओं के समृदयसमागमसे अनन्तजीवगर्भ एक बादरनिगोदवर्गणाकी उत्पत्ति होने में विरोध है । यह कहना उपरिम सचित्तवर्गणाके भेदसे यह वर्गणा होती है, ठीक नहीं है, क्योंकि, एक सूक्ष्म निगोंदवर्गणाके सब जीवोंका युगपत् बादरनिगोदवर्गणारूप
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५, ६, ११३. )
बंधणाणुयोगद्दारे वग्गणाणिरुवणा
( १३१
बादरणिगोदवग्गणसरूवेण परिणामविरोहादो सुहुमणिगोदेहितो आगंतूण बादरणिगोदेसु उप्पण्णेहि चेव जीवेहि आरद्धबादरणिगोदवग्गणाए अभावादो वा । कुदो एदं णव्वदे? उवरिल्लीणं भेदेण णत्थि ति वयणादो । महाखंधदव्ववग्गणाए भेदेण बादरणिगोदवग्गणा ण उप्पज्जदि; तिस्से विणासाभावादो अचित्तस्स सचित्तभावेण परिणामविरोहादो च । सत्थाणेण भेदसंघादेणेव बादरणिगोदवग्गणा होदि । सुहुमनिगोदेहितो पत्तेयसरीरेहितो चेव आगदेहि जीवेहि बादरणिगोदजीवेहिं च एगेगा बादरणिगोदवग्गणा णिप्पज्जदित्ति भणिदं होदि । बादरणिगोदेहितो जेण सुहुमणिगोदा असंखेज्जलोगगुणा तेण एगबादरणिगोदवग्गणा सुद्धेहि सुहुमणिगोदेहि चेव आरद्धेत्ति भणिदे को दोसो ? ण, एगसुहुमणिगोदवग्गणट्ठियजीवाणमणंतिमभागाणं चेव बादरणियोदेसु संचारुवलंभादो ।
बादरणिगोददव्वग्गणाणमुवरि सुहुमणिगोददन्ववग्गणा णाम किं भेदेण किं संघादेण किं भेदसंघादेण ॥ ११३ ॥
सुगमं ।
परिणमन होने में विरोध है । तथा जो जीव सूक्ष्म निगोदोंमेंसे आकर बादरनिगोदों में उत्पन्न होते हैं उनके द्वारा आरम्भ की गई बादरनिगोदवर्गणाका अभाव है |
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- उपरिम वर्गणाओंके भेदसे नहीं होती इस वचनसे जाना जाता है । महास्कन्धद्रव्यवर्गणा के भेदसे बादरनिगोदवर्गणा नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि, एक तो उसका विनाश नहीं होता। दूसरे अचित्तका सचित्तरूपसे परिणमन होने में विरोध है ।" इसलिए स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे ही बादरनिगोदवर्गणा होती है । सूक्ष्म निगोदमेंसे या प्रत्येकशरीरमेंसे आये हुए जीवोंके द्वारा और बादर निगोद जीवोंके द्वारा एक एक बादर निगोदवर्गणा निष्पन्न की जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका-यतः बादरनिगोदोंसे सूक्ष्मनिगोद असंख्यात लोकगुणे हैं, अतः एक बादरनिगोद वर्गणा शुद्ध सूक्ष्म निगोदों से आरम्भ होती है यदि ऐसा कहा जाय तो क्या दोष है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, एक सूक्ष्मनिगोंदवर्गणा में स्थित जीवोंके अनन्तवें भागमात्र जीवोंका ही बादर निगोदों में संचार देखा जाता है, अतः एक सूक्ष्मनिगोदवर्गणासे एक बादरनिगोदवर्गणाका आरम्भ नहीं हो सकता |
बादर निगोदद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर सूक्ष्मनिगोदद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघात से होती है या क्या भेद-संघात से होती है ।। ११३ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
Jain Education Intern ०ता० का० प्रत्योः च आगदेहि इति पाठ:Prsonal Use Only
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१३२)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड सत्थाणेण भेदसंघादेण ।। ११४ ॥
ण बादरणिगोदवग्गणाणं संघादेण एगसुहमणिगोदवग्गणा होदि; एगसुहुमणिगोदवग्गणजीवमेत्तबादरणिगोदजीवेहि चेव आरद्धसुहमणिगोदवग्गणाभावादो। तं पि कुदो णव्वदे? हेदिल्लीणं संघादेण ण उप्पज्जदि ति वयगादो । बादरणिगोदाणं सुहमणिगोदभावविरोहादो वा बादरणिगोदेहि सुहमणिगोदवग्गणा णारब्भदि । जदि सुहुमो ण बादरो अह बादरो ण सुहुमो त्ति तेण सुहुमणिगोदेहि चेव सुहुमगिगोददव्ववगणा आरब्भदि ति भणिदं होदि। ण च बादरणिगोदाणं पत्तेयसरीराणं वा सुहमणिगोदेसेसुप्पण्णाणं बादरणिगोदत्तं पत्तेयसरीरत्तं वा अस्थि विरुद्धपरिणामाणमक्कमेण वृत्तिविरोहादो। एसत्थो पहाणो पत्तेय-बादरणिगोदवग्गणासु वि वत्तव्यो । महाखंधभेदेण वि सुहमणिगोदवाणा ण होदि; पुवुत्तदोसप्पसंगादो। किंतु भेदसंघादेण होदि । सुहमणिगोदवियप्पवग्गणाणं भेदसंघादेण सुहमणिगोदवग्गणा उप्पज्जदि ति भणिदं होदि । एकिकस्से सुहमणिगोदवग्गणाए एगविस्सासुवचयपरमाणुम्हि वडिदे अण्णा वग्गणा होदि; एगपरमाणुणा अहियत्तुवलंभादो । एवमणिच्छिजमाणे पुव्वं परूविट्ठाणामभावो होज्ज । ण च एवं, तम्हा हेढिल्लोणं द्विदीणं दव्वाणं समुदय
स्वस्थानको अपेक्षा भेद-संघातसे होती है ॥ ११४ ।।।
बादरनिगोदवर्गणाओंके संघातसे एक सूक्ष्म निगोदवर्गणा नहीं होती, क्योंकि, एक सूक्ष्मनिगोदवर्गणा में जितने जीव हैं उतने बादर निगोद जीवों के द्वारा आरम्भ की गई सूक्ष्मनिगोदवर्गणाका अभाव है।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-नीचेकी वर्गणाओंके संघातसे नहीं होती इस वचनसे जाना जाता है।
अथवा बादर निगोदोंका सूक्ष्म निगोदरूपसे होने में विरोध है, इसलिए बादर निगोद सूक्ष्म । नगोदवर्गणाका आरम्भ नहीं करते । जब कि सूक्ष्म बादर नहीं है और बादर सूक्ष्म नहीं है, इसलिए सूक्ष्म निगोदोंके द्वारा ही सूक्ष्म निगोदद्रव्यवर्गणा आरम्भ की जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । बादर निगोद और प्रत्येकशरीर जीवोंके मर कर सूक्ष्म निगोदों में उत्पन्न होने पर उनका बादर निगोदपन और प्रत्येकशरीरपन नहीं रहता, क्योंकि, विरुद्ध परिणामोंकी युगपत वृत्ति होने में विरोध हैं। यहां यह अर्थ प्रधान है। इसे प्रत्येकशरीरवर्गणा और बादरनिगोदवर्गणा में भी कहना चाहिए। महास्कन्धके भेदसे भी सूक्ष्मनिगोदवर्गणा नहीं होती, क्योंकि, पुर्वोक्त दोषों का प्रसंग आता है। किन्तु भेद-संघातसे होती है । सूक्ष्म निगोदके अवान्तर भेदरूप वर्गणाओंके भेद-संघातसे सूक्ष्म निगोदवर्गणा उत्पन्न होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-एक सूक्ष्मनिगोदवर्गणामें एक विम्रसोपचय परमाणुके बढ़ने पर अन्य वर्गणा होती है, क्योंकि, वहां एक परमाणु अधिक देखा जाता है। ऐसा नहीं मानने पर पहले कहे गये स्थानोंका अभाव होता है । परन्तु ऐसा है नहीं, इसलिए नीचेकी स्थितिवाले द्रव्योंके समुदय
ता० प्रती ' -वग्गण भावदो ' इति पाठः । अ-आ-प्रत्योः ' एगवग्गणाभावादो ' इति पाठः ।
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५, ६, ११६ )
बंधणाणुयोगद्दारे वग्गणाणिरूवणा
समागमेण सुहमणिगोदवग्गणाए होदव्वमिदि । एत्थ परिहारो वच्चदे- जुत्तमेदं जदि पज्जवट्टियणओ अवलंबिदो होदि । द्वाणपरूवणाए पुण ण दोसो; पज्जवट्ठियणयावलंबणादो। एत्थ पुण दवट्टियणओ अवलंबिदो त्ति परमाणुरड्ढीए हाणीए वा ण वग्ग' णाए अण्णत्तं किंतु जीवाणं समागमेण भेदेण च सचित्तवग्गणप्पत्ती होदि । तेण हेट्टिल्लीणं दवाणं समागमेण सचित्तवग्गणाओ ण उप्पति त्ति भणिदं होदि।
सुहमणिगोदवग्गणाणमुवरि महाखंधदव्ववग्गणा णाम कि भेदेण किं संघादेण किं भेदसंघादेण ॥ ११५ ॥
सुगमं।
सत्थाणेण भेदसंघादेण ॥ ११६ ॥ हेट्रिमाणं संघादेण बिदियमहाखंधवग्गणा ण उप्पज्जदि; तिस्से सम्बद्धमेगवग्गणत्तादो। ण च एगादिपरमाणुपोग्गलेसु वड्डिदेसु अण्णा वग्गणा होदि; एववग्गणं मोत्तूण तत्थ बिदियवग्गणाणुवलंभादो। किंतु भेदसंघादेण होदि; पज्जवट्टियणयावलंबणादो . तं जहा- एगादिअणंतपरमाणुपोग्गलेसु महाखंधादो फट्टियगदेसु भेदेण अण्णा महाखंध
समागमसे सूक्ष्म निगोदवर्गणा होनी चाहिए ?
___ समाधान-इस शकाका समाधान करते हैं-पर्यायाथिक नयका यदि अवलम्बन लिया जाय तो यह कहना युक्त है । फिर भी स्थानप्ररूपणामें कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वहाँ पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लिया गया है । परन्तु यहाँ पर द्रव्याथिक नयका अवलम्बन लिया गया है, इसलिए परमाणुकी वृद्धि और हानिसे वर्गणामें अन्यपना नहीं आता, किन्तु जीवोंके समागम और भेदसे सचित्तवर्गणाकी उत्पत्ति होती है, इसलिए नीचे के द्रव्योंके समागमसे सचित्तवर्गणायें नहीं उत्पन्न होती यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंके ऊपर महास्कन्धद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघातसे होती है या क्या भेद-संघातसे होती है ॥ ११५ ॥
यह सूत्र सुगम है। स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे होती है ।। ११६ ॥
नीचेकी वर्गणाओंके संघातसे दूसरी महास्कन्धवर्गणा नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि, वह सर्वत्र एक वर्गणारूप है । एक आदि परमाणु पुद्गलोंके बढ़नेपर अन्य वर्गणा होती है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, एक वर्गणाको छोड़कर वहाँ दूसरी वर्गणा नहीं पाई जाती । किन्तु वह भेद-संघातसे होती है, क्योंकि, यहाँ पर पर्यायाथिक नयका अवलम्बन लिया गया है। यथा-~ महास्कन्धसे एक आदि अनन्त परमाणु पुद्गलोंके विलग होकर चले जानेपर भेदसे
आ० प्रती ' -अणंतपोग्गलेसु परमाणसु
४ ता० प्रती 'सव्वत्थ एग-' इति पाठ;] महाखंधादो' इति पाठः।
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१३४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, ११६.
दव्ववग्गणा होदि । तत्थेव एगादिअनंतेसु समागदेसु संघादेण अण्णा महाखंधदव्ववगणा होदि । अवकमेण उवचयावचयेहि वि भेदसंघादेण महाखंधदव्दवग्गणा होदि । एवं तीहि पयारेहि सव्वत्थ भेदसंघादस्स अत्थपरूवणा कायव्वा । उवरिमाणं भट्ठा अन्वग्गणुपत्ती भेदजणिदा णाम । हेट्टिमाणं वग्गणाणं समागमेण सरिसधणियसरूवेण अण्णवग्गणप्पत्ती संघादजा णाम । ण च एदाओ दो वि एत्थ अत्थि, वग्गगबहुत्ताभावादी । एत्रमेगसेडिवग्गणणिरुवणा समत्ता ।
संपहि णाणासेडिवग्गणाणिरूवणा एवं चैव कायव्या । का णाणासेडी णाम ? सरिसधणियाणं मुत्त/हलोलिसमाणपंतीयो णाणासेडि नाम ।
एवं वग्गणाणिरुवणेत्ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
चोद्दस अणुयोगद्दारेसु दोष्णमणुयोगद्दाराणं परूवणं काऊ सेसवारसणमणुयोगद्दारा सुत्तकारण किमट्ठे परूवणा ण कदा |ण ताव अजाणतेण ण कढा; चवीस अणुयोगद्दार सरूवमहाकम्मपय डिपा हुडपारयस्त भूदबलिभयवंतस्स तदपरिविरोहादो | ण विस्सरणालुएण होंतेण ण कदा; अप्पमत्तस्स तदसंभवादो
अन्य महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा होती है । उसीमें एक आदि अनन्त परमाणु पुद्गलों के आ जानेपर संघातसे अन्य महास्कन्ध वर्गणा होती है । तथा एक साथ उपचय और अपचय होनेसे भेदसंघातसे महास्कन्धद्रव्यवर्गणा होती है । इस प्रकार सर्वत्र तीन प्रकारसे भेद-संघातकी अर्थ प्ररूपणा करनी चाहिए । उपरिम वर्गणाओंके भेदसे नीचे अपूर्व वर्गणाकी उत्पत्ति भेद जनित कही जाती है और नीचेकी वर्गणाओंके समागम से सदृशधनरूपसे अन्य वर्गणाकी उत्पत्ति संघात कही जाती है । परन्तु ये दोनों यहाँ पर नहीं हैं, क्योंकि, यहाँ पर बहुत वर्गणाओंका अभाव है ।
इस प्रकार एकश्रेणिवर्गणानिरूपणा समाप्त हुई ।
नानाश्रेणिवर्गणा निरूपणा इसी प्रकार करनी चाहिए। शंका- नानाश्रेणि किसे कहते हैं ?
समाधान- सदृश धनवालोंकी मुक्ताफलोंकी पंक्तिके समान पंक्तिको नानाश्रेणि कहते हैं । इस प्रकार वर्गणानिरूपणा अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
शंका- सूत्रकारने चौदह अनुयोगद्वारों में से दो अनुयोगद्वारोंका कथन करके शेष बारह अनुयोगद्वारोंका कथन किस लिए नहीं किया है । अजानकार होनेसे नहीं किया है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, चौबीस अनुयोगद्वारस्वरूप महाकर्मप्रकृति प्राभृतके पारगामी भगवान् भूतबलिको उनका अजानकार मानने में विरोध है । विस्मरणशील होनेसे नहीं किया है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, अप्रमत्तका विस्मरणशील होना सम्भव नहीं है ।
आ० प्रती '
योगद्दारा
आ० प्रती ' सव्वत्थ भेदपरूवणा' इति पाठः । सुत्तकारेण इति पाठ: [
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५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा (१३५ त्ति? ग एस दोसो; पुव्वाइरियवक्खाणक्कमजाणावणठं0 तप्परूवणाकरणादो किमट्ठमणुयोगद्दारा णाम तम्हि चेव तत्थतणसयलत्थपरूवणं संखित्तवयणकलावेण कुणंति? वचिजोगासवदुवारेण ढुक्कमाणकम्मणिरोहट्ठ।
तम्हा दोण्णमणुयोगद्दाराणं पुचिल्लाणं परूवणा देसामासिय त्ति काऊण सेसबारसण्णमणुयोगहाराणं कस्सामो । तं जहा एगसेडिवग्गणाधवाधवाणगमेण परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा किं धवा किमद्धवा ? धुवा, अदीदाणागदवट्टमाणकालेसु एयपदेसिय परमाणुपोग्गलवग्मणविणासाभावादो । एवं संते एगपरमाणुस्स परमाणुभावेण सव्वद्धमवट्ठाणं पाव दि ति भणिदे ण एस दोसो; एक्कम्हि परमाणुम्हि विणठे वि असि तज्जादीणं परमाणणं संभवेण एयपदेसियवग्गणाए धुवत्तविरोहादो एगसेडिपरूवणाए जाणासेडिपरमाणणं कथं गहणं कीरदे? ण एस दोसो; एगणेव परमाणुणा एगसेडी* घेप्पदि ति णियमाभावादो । दुपदेसियवग्गणप्पहुडि जाव धुवखंधदव्ववग्गणे ति ताव एदाओ वग्गणाओ कि धुवाओ किमद्धवाओ? एत्थ पुव्वं व परू वणा कायव्वा; धुवत्तं पडि भेदाभावादो। सांतरणिरंतरदव्ववग्गणाओ जा.
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पूर्व आचार्योंके व्याख्यानके क्रमका ज्ञान कराने के लिए शेष बारह अनयोगद्वारोंका कथन नहीं किया है।
शंका-अनुयोगद्वार वहींपर उसके सकल अर्थका कथन संक्षिप्त वचनकलापके द्वारा किसलिए करते हैं ?
समाधान- वचनयोगरूप आस्रवके द्वारा प्राप्त होने वाले कर्मों का निरोध करने के लिए अनुयोगद्वार सकल अर्थका संक्षिप्त वचनकलापके द्वारा कथन करते हैं ।
इसलिए पूर्वोक्त दो अनुयोगद्वारोंका कथन देशामर्षक है ऐसा जान कर शेष बारह अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं। यथा-एकश्रेणीवर्गणा ध्रुवाध्रुवानुगमकी अपेक्षा परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणा क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? ध्रुव है, क्योंकि, अतीत, अनागत और वर्तमान कालमें एकप्रदेशी परमाणुपुद्गलवर्गणाका विनाश नहीं होता।
शंका-ऐसा होने पर एक परमाणुका परमाणुरूपसे सर्वदा अवस्थान प्राप्त होता है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि, एक परमाणु के नष्ट होनेपर भी तज्जातीय अन्य परमाणुओंके सम्भव होनेसे एकप्रदेशी वर्गणाके ध्रुव होने में कोई विरोध नहीं आता।
शंका-एकश्रेणिकी प्ररूपणामे नानाश्रेणिरूप परमाणुओंका ग्रहण कैसे करते हैं ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इसी परमाणुसे एकश्रेणिका ग्रहण होता है ऐसा कोई नियम नहीं है।
द्विप्रदेशी वर्गणासे लेकर ध्रुवस्कन्धवर्गणा तक ये वर्गणायें क्या ध्रुव हैं या क्या अध्रुव हैं ? यहां पहले के समान कथन करना चाहिए, क्योंकि, ध्रुवत्वके प्रति कोई भेद नहीं है । जो
ता०प्रतो '-घवखाणक्क मेजाणावणठंति पाठः। आoप्रती 'णामंहि चेव' इति पाठः ।
प्रतिष से सबादरसणि मणियोग-' इति पाठ ] * ता० प्रतौ 'एगएगसेडी' इति पाठ 1
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१३६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
असुण्णाओ ताओ असुण्णत्तणेण कि धवाओ किमदधवाओ? अधवाओ । कुदो ? असुण्णभावेण सव्वकालं तासिमवढाणाभावादो । एत्थ सरिसधणियक्खंधेसु सवेसु विणढेसु वग्गणाभावादो । एक्कम्हि वि खंधे संते वग्गणा अस्थि चेवे त्ति घेत्तत्वं । सुण्णाओ सुण्णत्तण किं धुवाओ कि धुवाओ ? अवधवाओ। कुदो ? सुण्णाओ णाम परमाणुविरहिदवग्गणाओ; तासि सुण्णभावेण अवट्ठाणाभावादो। हेट्ठिमवग्गणाओ संघादेण उवरिमवग्गणाओ भेदेण जं तेण कालेण सुण्णवग्गणमसुग्णं कुणति त्ति भगिदं होदि। सुण्णाओ वि असुण्णाओ वि वग्गणाओ वग्गणादेसेण धुवाओ। को वग्गणादेसो णाम ? वग्गणाणं संभवसामण्णं वग्गणादेसो णाम । तेण वग्गणादेसेण सव्वाओ सव्वकालमत्थि ति धुवाओ । पत्तैयसरीरवग्गणाओ जाओ भवसिद्धियपाओग्गाओ सजोगि-अजोगीसु लभमाणाओ ताओ सुण्णाओ वि असुग्णाओ वि । कुदो ? सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्तसजोगिअजोगिपाओग्गपत्तेयसरीरवग्गणटाणेसु वट्टमाणकाले संखेज्जाणं चेव जीवाणमवलंभादो। ण च संखेज्जेहि जीवेहि सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तपत्तयसरीरवग्गणढाणाणि वट्टमाणकाले आवरिज्जति ; विरोहादो। एत्थ जाओ सुण्णाओ ताओ सुग्णतणेण अर्धवाओ; सम्वकालमेदीए वग्गणाए सुण्णाए चेव होदवमिदि णियमाभावादो। जाओ असुण्णाओ ताओ वि असुष्णत
ण अद्धवाओ; तासिमेगसरूवेण अवट्ठाणाभावादो। सान्तरनिरन्तरद्रव्यवर्गणाएं अशन्यरूप हैं वे अशन्यरूपसे क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव हैं ? अध्रुव हैं, क्योंकि, अशून्यरूपसे उनका सदा काल अवस्थान नहीं रहता। सदृश धनवाले सब स्कन्धोके विनष्ट होनेपर वर्गणाका अभाव होता है । तथा एक भी स्कन्धके रहनेपर वर्गणा है ही ऐसा अर्थ यहां ग्रहण करना चाहिए । शून्य वर्गणाएं शून्यरूपसे क्या ध्रुब हैं या क्या अध्रुव हैं ? अध्रुव हैं, क्योंकि शून्यका अर्थ है परमाणुओंसे रहित वर्गणायें, किन्तु उनका शून्यरूपसे सदा अवस्थान नहीं रहता। नीचेकी वर्गणाऐं संघातसे और ऊपरकी वर्गणाएं भेदसे उस कालमें शून्यवर्गणाको अशून्यरूप करती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शून्य वर्गणाऐं और अशून्य वर्गणाऐं भी वर्गणादेशकी अपेक्षा ध्रुव हैं।।
शंका - वर्गणादेश किसे कहते हैं ? समाधान - वर्गणाओंके सम्भव सामान्यको वर्गणादेश कहते हैं।
उस वर्गणादेशकी अपेक्षा सब वर्गणाऐं सर्वदा हैं इसलिए ध्रुव हैं। जो भव्योंके योग्य प्रत्येकशरीरवर्गणाऐं सयोगी और अयोगी जीवोंके प्राप्त होती हैं वे शून्य रूप भी है और अशून्यरूप भी है क्योंकि, सब जीवोंसे अनन्तगुणे सयोगी-अयोगीप्रायोग्य प्रत्येक शरीर वर्गणास्थानोंमेंसे वर्तमान काल में संख्यात जीव ही उपलब्ध होते हैं। यह कहना कि संख्यात जीव वर्तमान कालमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे प्रत्येकशरीरवर्गणास्थानों को भर देंगें, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध आता है। यहां जो वर्गगायें शून्य है वे शून्यरूपसे अध्रुव है, क्योंकि, सर्वदा इस वर्गणाको शून्यरूप ही होनी चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । जो वर्गणाएं अशून्यस्वरूप है वे अशून्यरूपसे अध्रुव है क्योंकि उन वर्गणाओंका एकरूपसे अवस्थान नहीं रहता।
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५, ६, ११६. )
बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा
(१३७
एवं संभवं पडुच्च परविदं । वत्तिं पडुच्च पुण भण्णमाणे सजोगि-अजोगिपाओग्गपत्तेयसरीरवग्गणट्टाणेसु अणंताहि वगणाहि सुण्णभावेण अवद्विदाहि होदव्वं ; तिसु वि कालेसु सजोगि-अजोगीहि अच्छताणताणसंभवादो। अभवसिद्धियपाओग्गाओ जाओ पत्तेयसरीरवग्गणाओ सुण्णाओ ताओ सुण्णत्तर्णण अधुवाओ; सुण्णाणं पि वग्गणाणं उवरिमहेट्ठिमवग्गणाणं भेदसंघादेण पच्छा असुण्णत्तुवलंभादो । एदं पि संभवं पडुच्च परूविदं । वत्ति पडुच्च पुण गिहालिज्जमाणे सुण्णाओ* सुण्णत्तणेण अवट्टिदाओ अस्थि; पुढवि-आउ-तेउवाउकाइएहि देव-णेरइय-सजोगि-अजोगिजीवेहिय असखेज्जलोगमेत्तेहि सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तपत्तेयसरीरवग्गणट्टाणाणमावूरणे संभवाभावादो । असुण्णाओ असुग्णत्तणेण अर्धवाओ; पत्तेयसरीवग्गगदव्वाणं वडिहाणीहि विणा सम्वत्थमवट्ठाणाभावादो। वग्गणादेसेण पुग पत्तेयसरीरवग्गणाओ सव्वाओ धुवाओ होंति; सांतरगिरंतरवग्गणाणं व सव्वेसि पत्तेयसरीरवग्गगट्टाणाणं कम्हि वि काले सुण्णत्ताणवलंभादो।
बादरणिगोदवग्गणाओ जाओ भवसिद्धियपाओग्गाओ खीणकसायम्मि लम्भमाणाओ ताओ सण्णाओ सण्णत्तणेण अधुवाओ; सुण्णाणं सुण्णभावेण सव्वकालमवट्ठाणाभावादो । एदं संभवं पड्डच्च परूविदं । वत्ति पडुच्च पुण भण्णमाणे सुण्णाओ सुण्णत्तणेण धुवाओ अस्थि ; संखेज्जाणं खीणकसायाणं सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तखीण____ यह सम्भवकी अपेक्षा कहा है। परन्तु व्यक्तिकी अपेक्षा कथन करने पर सयोगी और अयोगीप्रायोग्य प्रत्येकशरीरवर्गणास्थानोंमेंसे अनन्त वर्गणायें शून्यरूपसे अवस्थित होनी चाहिए, क्योंकि, तीनों ही कालोंमें सयोगी और अयोगी जीवोंके द्वारा नहीं छुए गये अनन्त स्थान सम्भव हैं। तथा अभव्योंके योग्य जो प्रत्येकशरीरवर्गणायें शून्यरूप हैं वे शन्यरूपसे अध्रुव हैं, क्योंकि, शून्यरूप वर्गणाओं का भी उपरिम और अधस्तन वर्गणाओंके भेद-संघातसे बादमें अशून्यरूपसे अद्भाव पाया जाता है । यह भी सम्भवको अपेक्षा कहा है । परन्तु व्यक्ति की अपेक्षा देखने पर शन्य वर्गणायें शन्यरूपसे अवस्थित हैं. क्योंकि, पथिवीकायिक. जलकायिक. अग्निकायिक, वायुकायिक, देव, नारकी, सयोगी और अयोगी इन असंख्यात लोकप्रमाण सब जीवोंके द्वारा अनन्तगुणे प्रत्येकशरीरवर्गणास्थानोंका व्याप्त करना सम्भव नहीं है । अशून्य वर्गणायें अशून्यरूपसे अध्रुव हैं, क्योंकि, प्रत्येकशरीरवर्गणाद्रव्योंका वृद्धि और हानिके विना सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता है। परन्तु वर्गणादेशकी अपेक्षा सब प्रत्येकशरीर वर्गणायें ध्रुव है, क्योंकि, सान्तरनिरन्तरवर्गणाओंके समान सब प्रत्येकशरीवर्गणास्थानोंका किसी भी कालमें शून्यपना नहीं पाया जाता ।
बादरनिगोदवर्गणायें जो कि भन्थोंके योग्य क्षीणकषाय गुणस्थानमें उपलब्ध होती हैं वे शून्यरूप होकर शून्यरूपसे अध्रुव हैं, क्योंकि, शून्य वर्गणाओंका शून्यरूपसे सदा अवस्थान नहीं पाया जाता । यह सम्भवकी अपेक्षा कहा है । परन्तु व्यक्तिकी अपेक्षा कथन करने पर शून्य वर्गणायें शून्यरूपसे ध्रुव हैं, क्योंकि, संख्यात क्षीणकषाय जीवोंका सब जीवोंसे अनन्तगुण
४ ता० प्रती 'णिहालिउजमाणेण सुण्णाओ' इति पाठः ]
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छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, ११६
कसायपाओग्गबादरणिगोदट्ठाणेसु तिसु वि कालेसु वृत्तिविरोहादो । सुण्णाओ सुण्णत्तण अधुवाओ वि अस्थि; सुण्णाणं द्वाणाणं केसि पि कम्हि वि काले असुण्णत्तुवभादो | अण्णाओ असुण्णत्तणेण अद्धवाओ; खीणकसायपाओग्गबादर गिगोदवग्गणाणं सव्वकालमवद्वाणाभावादी । भावे वा ण कस्स विणिव्वई होज्ज; खीणकसायम्मि बादरणिगोदवग्गणाए संतीए केवलणाणुत्पत्तिविरोहादो । अभवसिद्धियपाओग्गाओ जाओ सुष्णाओ ताओ सुण्णत्तणेण अधुवाओ । कुदो ? सुण्णाणं पि उवरिमहेट्ठिमवग्गणाणं भेदसंघादेण कालंतरे असुण्णत्तुवलंभादो । एदं संभवं पडुच्च परूविदं । वत्ति पडुच्च पुण भण्णमाणे सुण्णाओ धुवाओ वि अत्थि । कुदो? असंखेज्जलोगमेत्तबादरणिगोदवग्गगाणं सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्त से चीयट्ठाणेसु अदोदकाले वि वृत्तिविरोहादो । तं जहा एक्कम्हि अदीदसमए जदि असंखेज्जलोगमेताणि बादरणिगोदट्टणाणि लम्भंति तो सव्विस्से अदीदद्धाए कि लभामो त्ति फलगुणिदिच्छाए पमा
वट्टिदाए अदीदकालादो असंखंज्जलोगगुणमेत्ताणि चेव बादरणिगोदवग्गणासु अण्णाणाणि होंति । अण्णाणि सव्वद्वाणाणि सुष्णाणि चेव । तेण सुष्णाओ सुण्णतणेण धुवाओ । विग्गहगदीए वट्टमाणा बादरणिगोदजीवा कि बादरणिगोदवग्गणासु पति आहो पत्तेयसरीरवग्गणासु त्ति ? न ताव पत्तेयसरीरवग्गणास् पदंति; णिगोदजीवाणं पत्तेपसरीरजीवत्तविरोहादो पत्तेयसरीरवग्गणाए असंखेज्जलोगपमाणत्तं
१३८ )
क्षीणकषायप्रायोग्य बादरनिगोदस्थानों में तीनों ही कालों में वृत्ति मानने में विरोध आता है तथा शून्य वर्गणायें शून्यरूपसे अध्रुव भी हैं, क्योंकि, कोई भी शून्य स्थान किसी भी समय अशून्यरूप होकर उपलब्ध होते हैं । अशून्य वर्गणायें अशून्यरूपसे अध्रुव हैं, क्योंकि, क्षीणकषाप्रायोग्य बादरनिगोदवर्गणाओंका सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता । यदि उनका अवस्थान होता है तो किसी भी जीवको मोक्ष नहीं हो सकता है, क्योंकि, क्षीणकषाय में बादरनिगोदवर्गणाके रहते हुए केवलज्ञानकी उत्पत्ति होने में विरोध है । अभव्योंके योग्य जो शून्य वर्गणा हैं वे शून्यरूपसे अध्रुव हैं, क्योंकि, शून्य वर्गणाओंका भी उपरिम और अधस्तन वर्गणाओंके भेद - संघातसे कालान्तर में अशून्यपना पाया जाता है । यह सम्भवकी अपेक्षा कहा है । परन्तु व्यक्तिकी अपेक्षा कथन करने पर शून्य वर्गणायें ध्रुव भी हैं, क्योंकि असंख्यात् लोकप्रमाण बादरनिगोदवर्गणाओंके सब जीवोंसे अनन्तगुणे सेचीयस्थानों में अतीत कालम भी वृत्ति होने में विरोध है । खुलासा इस प्रकार है- एक अतीत समयमें यदि असंख्यात लोकप्रमाण बादर निगोदस्थान पाये जाते हैं तो सब अतीत कालमें कितने प्राप्त होंगे इस प्रकार फलसे गुणित इच्छाको प्रमाणसे भाजित करनेपर अतीत कालसे असंख्यात लोकगुणे बादर निगोदवर्गणाओंमें अशून्यस्थान प्राप्त होते हैं । अन्य सब स्थान शून्य ही हैं । इसलिए शून्य वर्गणायें शून्यरूपसे ध्रुव है ।
शंका- विग्रहगति में विद्यमान बादर निगोद जीव क्या बादरनिगोदवगंणाओं में गर्भित हें या प्रत्येकशरीरवर्गणाओं में गर्भित हैं ? प्रत्येक शरीरवर्गणाओं में तो गर्भित हो नहीं सकते, क्योंकि, एक तो निगोद जीवोंको प्रत्येकशरीर जीव होंने में विरोध है, दूसरे प्रत्येक
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५, ६, ११६ )
बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा
( १३९
मोत्तूण आणंतियप्पसंगादो च। तदो बादरणिगोदवग्गणाए वट्टमाणकाले अणंताए होदवमिदि? " एस दोसो; विग्गहगदीए वि एगबंधणबद्धअणंताणंतबादरणिगोदजीवेहि एगबादरणिगोदवग्गणुप्पत्तीदो वट्टमाणकाले बादरणिगोदवग्गणाओ असंखेज्जलोगमेत्ताओ चेवे त्ति घेत्तव्वं सुग्णाओ सुण्णत्तणेण अर्धवाओ वि उरिमहेट्ठिमवग्गणाणं भेदसंघादेण सुण्णाणं पि कालंतरे असुण्णत्तुवलंभादो । असुण्णाओ असुण्णतणेण अर्धवाओ। कुदो ? वग्गणाणमेगसरूवेण सम्वद्धमवढाणाभावादो । वग्गणादेसेण पुण सव्वावो धुवाओ; अणंताणंतवग्गणाणं सव्वद्धमवलंभादो।
सुहमणिगोदवग्गणाओ सुण्णत्तर्णण अद्धवाओ सुण्णवग्गणाहि सव्वकालं सुण्णत्तणेणेव अच्छिदवमिदि णियमाभावादो। एदं संभवं पडुच्च परूविदं । वति पडुच्च पुण भण्णमाणे सुण्णाओ सुण्णत्तणेण धुवाओ वि अत्थि; वट्टमाणकाले असंखेज्जलोगमेत्तसुहमणिगोदवग्गणाहि अदीदकालेण वि सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तट्टणावूरणं पडि संभवाभावादो । कारणं बादरणिगोदाणं व वत्तन्वं । अद्धवाओ वि; उरिमहेट्ठिमवग्गणाणं भेदसंघादेण सुण्णाण पि कालंतरे असुण्णत्तुवलंभादो । असुणाओ सुहुमणिगोदवग्गणाओ असुण्णत्तणेण अधुवाओ। कुदो? सुहुमणिगोदवग्णाणमवट्टिदसरूवेण अवट्ठाणाभावादो ।
शरीरवर्गणाऐं असंख्यात लोकमात्र प्रमाणको छोड़कर अनन्त हो जायाँगी । इसलिए बादर निगोदवर्गणा वर्तमान कालमें अनन्त होनी चाहिए ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, विग्रहगतिमें भी एक बन्धनमें बाँधे हुए अनन्तानन्त बादरनिगोद जीवोंकी एक बादरनिगोदवर्गणा बन जाती है । इसलिए वर्तमान काल में बादरनिगोदवर्गणाऐं असंख्यात लोकप्रमाण ही होती हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
शून्य वर्गणाऐं शून्यरूपसे अध्रुव भी हैं, क्योंकि, उपरिम और अधस्तन वर्गणाओंके भेद-संघातसे शून्य वर्गणाऐं भी कालान्तरमें अशन्यरूप होकर उपलब्ध होती हैं । अन्य वर्गणाएं अशून्यरूपसे अध्रुव हैं, क्योंकि, वर्गणाओंका एकरूपसे सदा अवस्थान नही पाया जाता , वर्गणादेशको अपेक्षा तो सब वर्गणाएं ध्रुव हैं, क्योंकि, अनन्तानन्त वर्गणाएं सर्वदा उपलब्ध होती हैं।
सूक्ष्मनिगोदवर्गणाएं शून्यरूपसे अध्रुव हैं, क्योंकि, शून्य वर्गणाओंका सर्वदा शून्यरूपसे ही रहना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । यह सम्भवकी अपेक्षा कहा है । परन्तु व्यक्तिकी अपेक्षा कथन करने पर शून्य वर्गणाऐं शून्यरूपसे ध्रुव भी हैं क्योंकि, वर्तमान कालमें असंख्यात लोकप्रमाण सूक्ष्म निगोदवर्गणाओंके द्वारा पूरे अतीत कालमें भी सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थानोंका पूरा करना सम्भव नहीं है। कारण बादर निगोद जीवोंके समान कहना चाहिए। वे अध्रुव भी हैं, क्योंकि, उपरिम और अधस्तन वर्गणाओंके भेद सघातसे शून्य वर्गणाएं भी काला. न्तरमें अशून्यरूप होकर उपलब्ध होती हैं। अशून्य सूक्ष्म निगोदवर्गणाऐं अशून्यरूपसे अध्रुव हैं, क्योंकि, सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंका अवस्थितरूपसे अवस्थान नहीं पाया जाता।
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छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
(५, ६, ११६.
महाखंधदव्ववग्गणाओ सुण्णाओ सुण्णत्तणेण अधुवाओ; सुष्णाहि सुण्णभावेणेव अच्छिदव्वमिदि नियमाभावादो । एसो संभवणिद्देसो । वत्ति पडुच्च पुण भणमाणे सुण्णाओ धुवाओ वि अस्थि; अदीदकाले समयं पडि एक्केक्के महाखंध
समुपणे विसम्बम्हि अदीदकाले अदीदकालमेत्ताणि चेव असुण्णद्वाणाणि लक्षूण सव्वजीवेहि अनंत गुण मेत्त महाखंध से चीयट्टाणाणि; सुण्णभावेण अवद्वाणवलंभादो । अधुवाओ वि अस्थि ; भेदसंघादेण केण वि कालेण सुण्णाणं पि असुण्णत्तु-वल । अण्णाओ असुण्णत्तणेण अद्धुवाओ । कुदो ? महाखंधवग्गणाणमेगसरू - वेण सव्वकालमवट्टाणाभावादो । एवं चेव णाणासेडिधुवाधुवाणुगमो वि वत्तव्वो; विसेसाभावाद । एवं धुवाधुवाणुगमो त्ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
एग से डिवग्गणसांत रणिरंतरानुगमेण परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणप्पहूडि जाव धुवखंधदव्ववग्गणेति ताव एदाओ वग्गणाओ कि सांतराओ कि निरंतराओ कि सांतरनिरंतराओ ? निरंतराओ कुदो? अणंतरेण विणा मुत्ताहलोलि व्व अवट्ठाणादो। अचित्तअद्धुवखंधदव्ववग्गणाओ कि सांतराओ कि निरंतराओ कि सांतरणिरंतराओ ? सांतरणिरंतराओ, कत्थ वि निरंतरेण कत्थ वि सांतरेण वग्गणाणमवट्टाणुवलंभादो । पुणो तिस्से सांतरणिरंतर वग्गणाए आइरियाणमविरुद्धवदेसबलेण इमा परूवणा
१४० )
शून्यरूप महास्कन्धद्रव्यवर्गगायें शून्यरूपसे अध्रुव हैं, क्योंकि, शून्य वर्गगाओंको शून्य - रूप से ही रहना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । यह सम्भवको अपेक्षा निर्देश किया है परन्तु व्यक्तिकी अपेक्षा कथन करने पर शून्य वर्गणायें ध्रुव भी हैं, क्योंकि, अतीत कालके प्रत्येक समय में एक एक महास्कन्धस्थानके उत्पन्न होनेपर भी सब अतीत काल में अतीत कालमात्र ही अशून्यस्थान प्राप्त होकर शेष सब जीवोंसे अनन्तगुणे महास्कन्ध सेचोयस्थान होते हैं, क्योंकि, उनका शून्यरूपसे अवस्थान पाया जाता है । वे अध्रुव भी है, क्योंकि, भेद संघातके द्वारा किसी भी कालमें शून्य वर्गणायें भी अशून्यरूप होकर उपलब्ध होती है। अशून्य वर्गणा में अशून्यरूपसे अध्रुव है, क्योंकि, महास्कन्धवर्गणाओं का सर्वदा एकरूपसे अवस्थान नहीं पाया जाता । इसी प्रकार नानाश्रेणि ध्रुवा ध्रुवानुगमका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि, इससे उसमें कोई विशेषता नहीं है ।
इस प्रकार ध्रुवा ध्रुवानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
एकश्रेणिवर्गणासान्तरनिरन्तरानुगमको अपेक्षा परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा से लेकर ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणा तक क्या सान्त हैं, क्या निरन्तर हैं या क्या सान्तर-निरन्तर हैं ? निरन्तर हैं, क्योंकि, अन्तरके बिना मुक्ताफलों की पंक्ति के समान वे अवस्थित हैं । अचित्त अध्रुवकन्यद्रव्यवर्गणायें क्या सान्नर है, क्या निरन्तर है या क्या सान्तर - निरन्तर हैं ? सान्तरनिरन्तर हैं, क्योंकि, कहीं पर निरन्तररूपसे और कहीं पर सान्तरूपसे वे वर्गणायें उपलब्ध होती है । पुनः उस सान्तरनिरन्त वर्गणाकी आचार्योंके विरोधरहित उपदेश के
आ० प्रती 'सांतर
ता० प्रतौ' सांतरणिरंतराओ ( कि सांतरणिरंतर) सांतरणिरंतराओ
निरंतराओ सांतरणिरंतर सांतरणिरंतराओ ' इति पाठ: ।
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५, ६, ११६ )
बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा
( १४१
कोरदे । तं जहा - तत्थ जाति वग्गणाणं दोसु वि पासेसु सुण्णाओ मज्झे एक्का चेव वग्गणा असुण्णा तासि टुविदसलागाओ थोराओ । जासि दोसु वि पासेसु सुण्णाओ होदूण मज्झे गिरंतरं दोदो असुण्णवग्गणाओ होंति तासि टुविदसलागाओ अणंतगणाओ जाति दोसु* वि पासेसु पुण्णाओ होदूग मज्झे णिरंतरं तिणि तिष्णि असण्णवग्गणाओ होंति तासि टुविदसलागाओ अणंतगुणाओ। एवं चत्तारि चत्तारि पंच पंच छ छ सत्त सत्त अट्ठ अट्ठ णव णव दस दस संखेज्जाओ संखेज्जाओ असंखेज्जाओ असंखेज्जाओ णिरंतरवग्गणाओ । एदासिमुच्चिणिदूग्ण टुविदसलागाओ अणं रहेट्ठिमस. लागाहिंतो पुध पुध अणंतगुणाओ । तदो उभयपासेसु सण्णाओ होदूण मज्झे जाओ णिरंतरमणंताओ वग्गणाओ तासि टुविदसलागाओ अणंतगुणाओ। एवमणंताणंतवग्गगाणं टुविदसलागाओ अणंतरहेटिमहेट्ठिमसलागाहितो अणंतगुणक्कमेण अणंतरद्धाणं गच्छति । तदो उवरिमअणंताणं वग्गणाणं उभयदिप्तासु सुग्णाणं टुविदसलागाओ अणं. तरहेटिमहेटिमसलागाहितो असंखेज्जगणाओ असंखेज्जगणाओ होदूण गच्छंति जाव अणं तमद्धाणं गदं ति । तदो उरि संखेज्जगुणाओ संखेज्जगुणाओ होदूण विदसलागाओ णि. रंतर गच्छंति जाव अण्णं अणतमद्धाणं गदं ति । तेण परं संखेज दिभागब्भहियाओ
बलसे यह प्ररूपणा करते हैं । यथा-उनमें जिन वर्गणाओंके दोनों ही पार्श्वभागोंमें शून्य वर्गणायें हैं और मध्यमें एक ही वर्गणा अशून्यरूप है उनकी स्थापित की गई शलाकायें स्तोक हैं। जिन वर्गणाओं के दोनों पाश्वभागों में शून्य वर्गणायें हैं और मध्य में निरन्तर दो दो अशून्य वर्गणायें है उनकी स्थापित की गई शला कायें अनन्तगुणी हैं । जिन वर्गणाओंके दोनों ही पार्श्वभागोंमें शून्य वर्गणायें हैं और मध्य में निरन्तर तीन तीन अन्य वर्गणायें हैं उनकी स्थापित की गई शलाकायें अनन्तगुणी हैं । इस प्रकार चार चार, पाँच पांच, छह छह, सात सात, आठ आठ, नो नौ, दस दस, संख्यात संख्यात और असंख्यात असंख्यात जो निरन्तर वर्गणायें हैं उनकी अलग अलग करके स्थापित की गई शलाकायें अनन्तर अधस्तन शलकाओं से पृथक् पृथक् अनन्तगुणो हैं। अनन्तर दोनों पार्श्वभागोंमें शन्य वर्गणायें होकर मध्यमें जो निरन्तर अनन्त वर्गणायें हैं उनकी स्थापित की गई शलाकायें अनन्तगुणी हैं । इसी प्रकार अनन्तानन्त वर्गणाओंकी स्थापित की गई शलकायें अनन्तर अधस्तन अधस्तन शलाकाओंसे अनन्तगुणित क्रमसे अनन्तर स्थानकों जाती हैं। तदनन्तर उरिम अनन्त वर्गणाओंको दोनों दिशाओं में शून्य वर्गणाओंकी स्थापित की गई शलाकायें अनन्तर अधस्तन अधस्तन शलाकाओंसे असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी होकर अनन्त स्थानोंके व्यतीत होनेतक जाती हैं । तदनन्तर आगे स्थापित की गई शलाकायें संख्यातगुणी संख्यातगणी होकर अन्य अनन्त स्थानोंके व्यतीत होने
७ ता०प्रतो 'तत्थ ला ( जा ) सि अ० का प्रत्यो: 'तत्थ जासि' इति पाठः । *म० प्रतिपाठोऽयम | अ० का० प्रत्योः 'णिरतरं सांतरणिरंतरं दोद्दो-' इति पाठ:] *ता० प्रतो 'अणुतगुणाओ ता (जा) सिं दोस अ० का० प्रत्यो: ' अणंतगणाओ तासि दोसु ' इति पाठः। 8 ता० प्रती 'जाव अणंतअद्धाणं' इति पाठ।: अ आ प्रत्यो: 'संखेज्जदि' इति पाठ।।
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१४२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड संखेज्जदिभागभहियाओ होदण णिरतरं गच्छंति जाव अण्णमणंतमद्धाणं गदं त्ति। तेण परमसंखेज्जविभागभहियाओ असंखेज्जदिभागब्भहियाओ होदूण णिरंतरं गच्छंति जाव अणंतमद्धाणं गदं ति । तेण परमगंतभागभहियाओ अणंतभागभहियाओ होदूण णिरंतरं गच्छंति जाब एदाओ अणंतमद्धाणं गदं ति तेण परमणंतभागहीणाओ अणंतभागहीणाओ होदण णिरंतरं गच्छति जाव अण्णं अणंतमद्धाणं गदं ति । तेण परमसंखेज्जदिभागहीणाओ असंखेज्जदिभागहीणाओ होदूग गिरंतरं गच्छंति जाव अण्णमणंतमद्धाणं गदंति। तेण परं संखेज्जदिभागहोणाओ संखेज्जविभागहीणाओहोदूण णिरंतरं गच्छंति जाव अण्णमणंतमद्धाणं गदं ति । तेण परं संखेज्जगुणहीणाओ संखेज्जगुणहोणाओ होदण जिरंतरं गच्छंति जाव अण्णमणतमद्धाणं गदं ति । सेण परमसंखज्जगुणहीणाओ असंखेज्जगुणहीणाओ होदूण गच्छंति जाव अण्णं अणंतमद्धाणं तेण परमणंतणगणहीणाओ अणंतगुणहीणाओ होदूण गिरन्तरं गच्छंति जाव अण्णमणंतमद्धाणं गदं ति । एवमसुण्णवग्गणाणमेगादिएगत्तराणं उभयपाससुग्णागं जाओ टुरिदसलागाओ ताओ छविहाए वड्ढीए छविहाए हाणीए च अवट्ठाणं कुणंति त्ति घेत्तव्वं । पत्तेयसरीरक्खंधदव्ववग्गणाओ भवसिद्धियपाओग्गाओ जाओ सजोगि-अजोगीसु लब्भमाणाओ ताओ सांतराओ चेव । कुदो? सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तट्ठाणेसु केवलिपाओग्गेसु संखेज्जाणं केवलोणं गिरं रमवट्ठाणविरोहादो । तम्हा
तक जाती हैं। उससे आगे अन्य अनन्त स्थानोंके व्यतीत होने तक संख्यातभाग अधिक संख्यात भाग अधिक होकर निरन्तर शलाकाऐं जाती हैं। उससे आगे अनन्त स्थानोंके व्यतीत होने तक असंख्यातवेंभाग अधिक असंख्यातवेंभाग अधिक होकर निरन्तर शलाकाएं जाती हैं, उससे आगे अनन्त स्थानोंके जाने तक अनन्तवें भाग अधिक अनन्तवेंभाग अधिक होकर निरन्तर जाती हैं। उससे आगे अन्य अनन्त अध्वानके व्यतीत होनेतक अनन्तवेंभाग हीन अनन्तवेंभाग हीन होकर निरन्तर जाती है। उससे आगे अन्य अनन्त अध्वानके व्यतीत होनेतक असख्यातवें भाग हीन असंख्यातवें भाग हीन होकर निरन्तर जाती हैं। उससे आग अन्य अनन्त अध्वानके व्यतीत होने तक संख्यातवें भाग हीन संख्यातवें भाग हीन होकर निरन्तर जाती हैं। उससे आगे अन्य अनन्त अध्वानके व्यतीत होने तक संख्यातगुणी हीन संख्यातगुणी हीन होकर निरन्तर जाती है। उससे आगे अन्य अनन्त अध्वानके व्यतीत होने तक असंख्यातगुणी हीन असंख्यातगुणी हीन होकर निरन्तर जाती है । उससे आगे अन्य अनन्त अध्वानके व्यतीत होने तक अनन्तगुणी हीन अनन्तगुणी हीन होकर निरन्तर जाती है । इस प्रकार एकादि एकोत्तर अशून्य वर्गणाओंके उभय पार्श्वमें शून्य वर्गणा
ओंकी जो स्थापित की गई शलाकायें हैं वे छह प्रकार की वृद्धि और छह प्रकारको हानिके द्वारा अवस्थान करती हैं ऐसा अर्थ यहाँ ग्रहण करना चाहिए। भव्योंके योग्य जो प्रत्येक शरीरस्कन्धद्रव्यवर्गणायें सयोगी और अयोगी गुणस्थान में लभ्यमान हैं वे सान्तर ही हैं, क्योंकि, सब जीवोंसे अनन्तगुणे केलिप्रायोग्य स्थानों में संख्यात केवलियोंके निरन्तर रहने में विरोध है । इसलिए वर्तमान कालमें विवक्षित स्थान सान्तर ही हैं। अतीन काल में भी केवलियोंके द्वारा
ता० प्रती जाव अणंत ( मणंत) मद्धाणं इति. पाठ:
1 आ० प्रतौ 'जाब अणंतमद्वाणंति पाठ.।
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(१४३
५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा वट्टमाणकाले अप्पिदट्ठाणाणि सांतराणि चेव । अदीदकाले वि केवलोहि फोसिदपत्ते यसरीरवग्गणदाणाणि सांतराणि चेव । कुदो? सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तकेवलिपा
ओग्गपतेयसरीरहाणेसु सिद्धेहितो असंखेज्जगुणमेत्ताणमेवट्ठाणाणं* फासुवलंभादो। तं जहा-एक्कस्स सिद्धस्स जदि देसूणपुवकोडिमेत्ताणि* चेव पत्तेयसरीरट्राणाणि लभंति तो सवेसि सिद्धाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सिद्धेहितो असंखेज्जगणमेत्ताणि चेव जीवफोसिदढाणाणि लब्भंति । एवं पि च णत्थि; सन्वेसि पुवकोडिमेत्ताउअभावादो । सन्वेसिमपुणरत्तट्टाणाणि चेव होंति त्ति णियमाभावादो च।
पस्समाणे वि सांतराओ। को पस्समाणकालो णाम? एस कालो। कथं तत्थ सांतराओ वच्चदे? सव्वकालमदीदद्धा सव्वजीवरासीए अणंतिमभागो; अण्णहा संसारिजीवाणमभावप्पसंगादो । सव्वकालमदीदकालस्स सिद्धा असंखेज्जदिभागो चेव; छम्मास. मंतरिय णिन्वइगमणणियमादो । एक्केक्कस्स सिद्धस्स देसूणपुव्व कोडिमेत्ताणि चेव पत्तेबसरीरवाणाणि उक्कस्सेण लमंति; के बलिविहारकालस्स देसूण पुत्रकोडिमेत्तस्सेव उवलंभादो। तम्हा पस्समाणेहि सांतराओ चेवेत्ति घेत्तव्वं । सेचीयाए पुण सव्वट्ठाणाणि णिरंतराणि । एदं चेव द्वाणं जीवसहिदं होदि एदाणि ण होंति चेवे ति णियमास्पर्श किये गये प्रत्येकशरीरवर्गणास्थान सान्तर ही हैं, क्योंकि, सब जीवोंसे अनन्तगुणे केवलिप्रायोग्य प्रत्येकशरीरस्थानों में मात्र सिद्धोंसे असंख्यातगुणे स्थानोंका स्पर्श उपलब्ध होता है । यथा-एक सिद्धके यदि पूर्व कोटिमात्र प्रत्येकारीरस्थान उपलब्ध होते हैं तो सब सिद्धोंके कितने प्राप्त होंगे इस प्रकार फल गुणित इच्छामें प्रमाणका भाग देने पर सिद्धोंसे असंख्यातगुणे स्थान ही जीवों के द्वारा स्पर्श किये गये पाये जाते है पर यह भी नहीं है, क्योंकि, एक तो सबके एक पूर्वकोटिप्रमाण आयु नहीं पाई जाती, दूसरे सब जीवों के अपुनरुक्त स्थान ही होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है।
दृश्यमान ( वर्तमान ) कालमें भी सान्तर है। शंका दृश्यमान काल किसे कहते है ? समाधान-यह अर्थात् वर्तमान कालको दृश्यमान काल कहते हैं। शका- इसमें वर्गणायें सान्तर कसे कही जाती हैं ?
समाधान-सर्वदा अतीत काल सब जीव राशिके अनन्तवें भागप्रमाण रहता है, अन्यथा सब जीवों के अभाव होने का प्रसंग आता है।
सिद्ध जीव सर्वदा अतीत कालके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं, क्योंकि, छह महीने के अन्तरसे मोक्ष जानेका नियम है । तथा एक एक सिद्ध जीवके उत्कृष्टसे कुछ कम एक एक पूर्वकोटि कालमात्र प्रत्येकशरीरस्थान प्राप्त होते है, क्योंकि, केवलीका विहार काल कुछ कम एक पूर्वकोटि मात्र ही उपलब्ध होता है । इसलिए पश्यमान काल में वर्गणायें सान्तर ही होती है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । परन्तु सेचीयकी अपेक्षा सब स्थान निरन्तर होते हैं, क्योंकि, यह स्थान ही जीवसहित होता है और ये स्थान जीवसहित नहीं होते है ऐसा कोई
* ता० प्रती ·-मेत्ताणमवढाणाणं ' इति पाठः ] * ता० प्रती — जदि पुवकोडिमेत्ताणि ' इति पाठः ।
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१४४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
भावादो। अभवसिद्धियपाओग्गाओ जाओ पुढवियादिचत्तारिकाएसु लम्भमाणाओ ताओ वट्टमाणकाले सांतराओ । कुदो? वट्टमाणकाले पत्तेयसरीरवग्गणाओ उक्कस्सेण असंखेज्जलोगमेतीओ चेव होंति ति णियमादो। विगहगदीए वट्ट माणा अणंता जीवा पत्तेयसरीरवग्गणाए अंतो णिवदंति त्ति पत्तेयसरीरवग्गणा* अणंता त्ति किण्ण घेप्पदे? ण; णिगोदणामकम्मोदएण बादरणिगोदत्तं सुहमणिगोदत्तं च पत्ताणं पत्तेयसरीरवग्गणत्तविरोहादो। विग्गहगदीए वट्टमाणाणं अशुदिाणपत्तेयसरीरणामकम्माणं कथं पत्तेयसरीरत्तमिदि चे? ण एस दोसो; पत्तेयसरीरोदयस्स तंतत्ताभावादो। भावे वा खीणकसाओ वि पत्तेयसरीरवग्गणा होज्ज; तदुदयसंतं पडि विसेसाभावादो। तदो बादर-सुहमणिगोदेहि असंबद्धजीवा पत्तेयसरीवग्गणा त्ति घेतव्वा । ण च बादरसुहुमणिगोदाणं विग्गहगदीए वि विच्छिण्णेगजीवो उवलब्भदे; तत्थ वि एगबंधणबद्धअ. गंतजीवोलंभादो। तत्थ एगजीवे संते को दोस्रो चे?ण; बादर-सहमणिगोदवग्गणाणमाणंतियप्पसंगादो। एदं पिणस्थि; असंखेज्जलोगमेत्ताओ चेव होंति त्ति गुरूव देसादो। नियम नहीं है । अभव्योंके योग्य जो पृथिवीकायिक आदि चार स्थावर कायिकोमें प्राप्त होनेवाली वर्गणायें हैं वे वर्तमानकालमें सान्तर हैं, क्योंकि, वर्तमानकाल में प्रत्येकशरीरवर्गणाय उत्कृष्टरूपसे असंख्यात लोकप्रमाण ही होती हैं ऐसा नियम है।
शंका-विग्रहगतिमें विद्यमान अनन्त जीव प्रत्येकशरीरवर्गणाके भीतर गभित होते हैं, इसलिए प्रत्येकशरीरवर्गणायें अनन्त होती हैं ऐसा क्यों नहीं ग्रहण करते ?
समाधान नहीं, क्योंकि, निगोद नामकर्मके उदयसे बादर निगोद और सूक्ष्म निगोदपनेको प्राप्त हए जीवोंके प्रत्येकशरीरवर्गणाओंके होने में विरोध है।
शंका-विग्रहगतिमें विद्यमान जीवोंके प्रत्येक शरीर नामकर्मका उदय न होने पर ने प्रत्येकशरीर कैसे हो सकते हैं ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रत्येकशरीरके उदयकी अधीनताका अभाव है । यदि उदयकी अधीनता मानी जाय तो क्षीणकषाय भी प्रत्येकशरीरवर्गणा हो जावे, क्योंकि, उसके उदय और सत्त्वके प्रति वहां कोई विशेषता नहीं है। इसलिए बादर निगोद और सूक्ष्मनिगोदोंसे असम्बद्ध जीव प्रत्येकशरीरवर्गणा होते हैं ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । यदि कहा जाय कि विग्रहगतिमें भी बादरनिगोद और सूक्ष्म निगोदका स्वतंत्ररूपसे एक जीव पाया जाता है सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वहां पर भी एक बन्धन में बाँधे हुए अनन्त जीव पाये जाते हैं।
शंका-वहां एक जीवके रहने में क्या दोष है?
समाधान-नही, क्योंकि, ऐसा मानने पर बादरनिगोद और सूक्ष्म निगोदवर्गणाओंको अनन्तपने का प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वे असंख्यात लोकप्रमाण ही होती हैं ऐसा गुरुका उपदेश है।
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* अ० प्रती 'पत्तेयमगरवगण
: ता. प्रत्तो जीवा पत्तेयसरीरवम्गणा' इति पाठ।। होज्ज' इति पाठः 1
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५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा (१४५ ण च असंखेज्जलोगमेत्तपत्तेयसरीरवग्गणाहि सव्वजोवेहि अणंतगुणमेत्तद्वाणाणि वट्टमाणकाले आवरिज्जंति; विरोहादो । अदीदकाले वि सांतराणि चेव; अदीदकालादो असंखेज्जगुणेहि अदीदकालप्पण्णपत्तेयसरीरदाणेहि जीवेहि सव्वट्ठाणावरणविरोहादो। पस्समाणाए वि ण गिरंतराओ; सव्वदा अदीदकालस्स सम्वजीवरासीदो अणंतगुणहीणत्तुवलंभादो । सेचीयादो पुण सव्ववग्गणाओ गिरंतराओ; एसा चेव संभवदि त्ति णियमाभावादो।
बादरगिगोदवग्गणाओ भवसिद्धियपाओग्गाओ जाओ खीणकसायकालम्हि लब्भमाणियाओ ताओ वट्टमाणकाले सांतराओ; सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्तबादरणिगोदवग्गणाणं खीणकसायपाओग्गाणं संखेज्जेहि जोवेहि आवरणविरोहादो । अदीदकाले फुसणेण सांतराओ; अंतोमहत्तगुणिदसिद्धरासिमेतट्टाणाणं चेव तीदे काले फोसणवलभादो। एवं पस्समाणफोसणं पि वत्तव्वं; विसेसाभावादो। सेचीयादो पुण गिरंतराओ। अभवसिद्धियपाओग्गाओ* जाओ मलयथहल्लयादिविसयाओ बादरणिगोदवग्गणाओ ताओ वट्टमाणकाले सांतराओ। कुदो ? असंखेज्जलोगमेत्तबादरणिगोदवगणाहि सन्धजीवेहि अणंतगणमेत्तसम्बट्टाणावरणसंभवाभावादो । अदीदे
__यह कहना कि असख्यात लोकप्रमाण प्रत्येकशरीरवर्गणायें सब जीवोंसे अनन्तगुण स्थानोंको वर्तमान काल में पूरा करती हैं, ठोक नहीं है, क्योंकि, ऐसा होने में विरोध आता है । वे अतीत काल में भी सान्तर ही हैं, क्योंकि, अतीत कालसे असंख्यातगुणे अतीत काल में उत्पन्न हुए प्रत्येकशरीरस्थानरूप जीवोंके द्वारा सब स्थानोंके पूरा होने में विरोध है । दृश्यमान कालमें भी वे निरन्तर नहीं हैं, क्योंकि, सर्वदा अतीत काल सब जीवराशिसे अनन्तगुणा हीन पाया जाता है । परन्तु से चीयकी अपेक्षा सब वर्गणायें निरन्तर है, क्योंकि, इस अपेक्षासे यही सम्भव है ऐसा कोई नियम नहीं है । अर्थात् सेचीयकी अपेक्षा कोई भी वर्गणा सदा सम्भव हो सकती है। इसलिए सब वर्गणाओंको निरन्तर कहा है।
भव्योंके योग्य जो बादरनिगोदवर्गणायें क्षीणकषायके काल में लभ्यमान हैं वे वर्तमान काल में सान्तर है, क्योंकि, सब जीवोंसे अनन्तगुणी क्षीणकषायके योग्य बादरनिगोदवर्गणाओंका संख्यात जीवोंके द्वारा पूरा करने में विरोध है । अतीतकालमें स्पर्शनकी अपेक्षा सान्तर है, क्योंकि, अन्तर्मुहुर्तगुणित सिद्धराशिप्रमाण स्थानोंका ही अतीत कालये स्पर्शन उपलब्ध होता है । इसी प्रकार पश्यमान स्पर्शन भी कहना चाहिए, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। सेचीयकी अपेक्षा तो निरन्तर हैं । मली, थवर और आर्द्रक आदिमें रहनेवाली अभव्योंके योग्य जो बादरनिगोदवर्गणायें हैं वे वर्तमान काल में सान्तर हैं, क्योंकि, असंख्यात लोकप्रमाण बादर निगोदवर्गणाओंके द्वारा सब जीवोंसे अनन्तगुणे सब स्थानोंका पूरा करना सम्भव नहीं है। अतीत कालमें भी बादर
ता० प्रती 'सांतराओ. ( सब जीवेहि आणंतगणमेतबादरणिगोदवग्गणाओ भवसिद्धियपाओग्गाओ खीणकसायकालम्मि लब्भमाणियाओ ताओ वट्टमाणकाले सांतराओ ) सव्वजीवेहि। * अ. का. प्रत्यो। 'अभवसिद्धियपाओग्गाओ' इतिपाठः ।
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१४६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ११६
वि काले बादरणिगोदवग्गणदाणाणि सांतराणि चेव। कुदो ? असंखेज्जलोगगणिदअदीदकालमे ताणं चेव टागाणं तत्थ जीवसहिदाणमुवलं मादो। ण च एवं; सरिसधणियाणं पि वग्गणाणं संमवादो। जदि वि अदीदकालेण गणिदसधजीवरासिमेत्ताणि बादरणिगोदढाणाणि अदीदकाले उप्पण्णणि होंति तो सबढाणाणि आपूरिज्जति* ; अदीदकालादो वि सव्वजोवरासीदो वि विस्तासुवचयाणमेगपरमाणुविसयाणमणंतगुणत्तादो। पस्तमाणाए वि सांतराओ; अदीदकालं मोत्तण एत्थ सांतरणिरंतरपरू - वणाए भविस्सकाले दि संववहाराभावादो। भावे वा तस्स अदीदकाले अंतब्भावो होज्ज; अण्णहा जीवसहिदत्ताणववत्तीदो। ण च एगजीवेण एगा बादरणिगोदवग्गणा णिप्पज्जदि जेण सव्वबादरणिगोदेहि सव्वट्ठाणाणि तीदाणागदकालेसु आपूरिज्जंति ; जहणियाए बादरनिगोदवग्गणाए उक्स्स पतेयतरीरवग्गणादो हेडा पादप्यसंगादो । सेचीयादो पुण सम्वट्टाणाणि गिरंतराणि ।।
सुहमणिगोदवग्गणाओ वट्टमाणकाले सांतराओ; असखेज्जलोगमेत सुहमणिगोदव. ग्गणाणं सव्वजोवेहि अणंतगणमेत्तसेचोयट्ठाणावरणसत्तीए अभावादो । अदीदकाले वि सेचीयट्ठाणाणि सांतराणि चेव; असंखेज्जलोगगुणिद अदीदकाल मेतसुहमणिगोदट्ठाणेहि अदीदकालुप्पण्णेहि सम्वट्ठाणावरणविरोहादो । भविस्सकाले वि सांतराणि निगोदवर्गणास्थान सान्तर ही है, क्योंकि, असंख्यात लोकगुणित अतीत कालप्रमाण स्थान ही अतीत कालमें जीवों सहित उपलब्ध होते हैं । परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, सदृश धनवाली भी वर्गणायें सम्भव हैं। यद्यपि अतीत कालसे गुणित सब जीवराशिप्रमाण बादरनिगोद स्थान अतीत काल में उत्पन्न होते हैं तो भी सब स्थान व्याप्त कर लिये जाते हैं, क्योंकि, अतीत कालसे भी और सब जीवराशिसे भी एक परमाणुविषयक विनसोपचय अनन्तगुणे होते हैं । पश्यमान कालमें भी सान्तर हैं, क्योंकि, अतीत कालको छोडकर यहां पर सान्तरनिरन्तर प्ररूपणाका भविष्य काल में भी व्यवहार नहीं होता। यदि होता है तो उसका अतोत काल में अन्तर्भाव हो जाता है, अन्यथा वे स्थान जीव सहित नहीं बन सकते । और एक जोव के द्वारा एक बादरनिगोदवर्गणा नहीं उत्पन्न होती है जिससे सब बादर निगोदों के द्वारा सब स्थान अतीत और अनागत काल में व्याप्त किये जावें, क्योंकि, ऐसा मानने पर जवन्य बादर निगोदवर्गणाके उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणासे नीचे होने का प्रसंग आता है। परन्तु सेचोयकी अपेक्षा सब स्थान निरन्तर हैं।
सूक्ष्म निगोदवर्मणायें वर्तमान काल में सान्तर हैं, क्योंकि, असंख्यात लोकप्रमाण सूक्ष्म निगोदवर्गणाओंमें सब जीवोंसे अन्तगुणे से चीयस्थानोंके पूरा करनेकी शक्ति का अभाव है । अतीत कालमें भी सेचीयस्थान सान्तर ही हैं, क्योंकि, अतीत कालमें उत्पन्न हुए असंख्यात लोकगुगित अतीतकालप्रमाण सूक्ष्म निगोदस्थानोंके द्वारा सब स्थानोंके पूरा करने में विरोध है । बादरनिगोदवर्गणाके प्रसंगसे जो क्रम कह आये हैं उसी क्रमसे ये भविष्य कालमें भी सान्तर
* आ० प्रतौ ' सबढाणाणमरिज्जति' इति पाठः ।
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५, ६, ११६)
बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा
( १४७
बादरणिगोदवग्गणाए भणिदकमेण । अथवा भविस्सकाले ण तेसि जीवसहिदत्तमस्थि । भावे वा ण सो* भविस्सकालो; वट्टमाणादीदकालेसु तस्संतब्भावादो । सेचीयादो पुण णिरंतराणि ।
महाखंधदव्ववग्गणा सांतरा; वट्टमाणकाले एयत्तादो। ण च सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्तमहाखंधढाणाणि एक्कवरगणाए आवरिज्जंति; विरोहादो। अदीदे वि काले महाखंधसेचीयढाणाणि सांतराणि चेव; अदीदकालमत्ताणमुक्कस्सेण भूदकालसमुप्पप्रणट्टाणाणं सव्वजोवेहि अणंतगुणमेत्तसेचीयट्टाणावरणसत्तीए अभावादो। भविस्सकाले वि सांतराणि चेव । सेचीयादो पुण णिरंतराणि । णाणासेडीए वि एवं चेव सांतरणिरंतरपरूवणा कायवा; विसेसाहियाभावादो। एवं सांतरणिरंतराणुगमो त्ति समत्तमणयोगद्दारं।
एगसेडिवग्गणाए ओजजुम्माणुगमं वत्तइस्सामो। तं जहा-ओजो दुविहो-कलि. ओजो तेजोजो चेदि । जम्मं दुविहं-कदजुम्मं बादरजुम्मं चेदि । जं चदुहि अवहिरिज्ज. माणमेगं एदि सो कलिओजोचदुहि अवहिरिज्जमाणे जत्थ तिण्णि एंनि सो तेजोजो। जत्थ चत्तारि एंति तं कदजुम्म। जत्थ दो एंति तं बादरजम्मं । एदेण अटुपदेण परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा कलिओजो, एगत्तादो । संखेज्जपदेसियदव्ववग्गणा हैं । अथवा भविश्यकाल में जोवसहित नहीं हैं। यदि भविष्यकाल में भी उन्हें जीव सहित माना जाता है तो वह भविष्य काल नहीं है, क्योंकि, उसका वर्तमान और अतीतकाल में अन्तर्भाव हो जाता है । परन्तु सेचीयकी अपेक्षा निरन्तर हैं।
___ महास्कन्धद्रव्यवर्गणा सान्तर है, क्योंकि, वर्तमानकालमें वह एक है। एक वर्गणाके द्वारा सब जीवोंसे अनन्न गुणे महास्कन्धस्थान पूरे जाते हैं यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है । अतीतकाल में भो महास्कन्ध से चीयस्थान सान्तर ही हैं, क्योंकि, उत्कृष्टसे भूतकालमें उत्पन्न हुए अतीत काल मात्र स्थानोंके द्वारा सब जीवोंसे अनन्तगुणे सेचीय स्थानोंके पूरे करने की शक्ति का अभाव है । भविष्यकाल में भी सान्तर ही हैं। परन्तु सेचीयकी अपेक्षा निरन्तर हैं। नानाश्रेणिकी अपेक्षा भी इसी प्रकार सान्तरनिरन्तरप्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
इस प्रकार सान्तर-निरन्तरानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
अब एकश्रेणिवर्गणाको अपेक्षा ओज-युग्मानुगमको बतलाते हैं । यथा-ओज दो प्रकारका है-कलि ओज और तेजोज । युग्म दो प्रकार का है-कृतयुग्म और बादरयुग्म । चार का भाग देने पर जिसमें एक शेष रहता है वह कलिओज है । चारका भाग देने पर जहां तीन शेष रहते हैं वह तेजोज है । जहां चार आते हैं वह कृतयुग्म है और जहां दो आते हैं वह बादरयुग्म है । इस अर्थपदके अनुसार परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा कलिओज है, क्योंकि, इस वर्गणाका प्रमाण एक है । जघन्य संख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणा बादरयुग्म है, क्योंकि, इस वर्गणाका
* ता० प्रतो ‘णत्थि सो इति पाठः। ता० प्रतौ '-मेग एदिस्से काले ( एदि सो कलि ) ओजो' अ० प्रती -मेगं रादि सो कलिओजो' इति पाठः1
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१४८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड जहणिया बादरजुम्मं; दुसंखत्तादो । उक्कस्सिया तेजोजो; रूवूणकदजम्मपमाणतादो । संखेज्जपदेसियसव्ववग्गणसलागाओ बादरजम् ; दुरूवुकदजुम्मपमाणत्तादो वग्गणाओ पुण च उढाणपदिवाओ । असंखेज्जपदेसियदव्यवग्गणाओ जहणिया कदजुम्मं जहण्णपरितापंखेज्जपमाणतादो । उकस्सिया तेजोजो; रूवणकदजुम्मपमाणत्तादो । असंखेज्जपदेसियवग्गणसलागाओ कदजम्मं; जहणपरित्तासंखेज्जेण ऊणजहण्णपरित्ताणंतपमाणत्तादो । वम्गणाओ पुण चउट्ठाणपदिदाओ । एवं सव्वाओ वग्गणाओ णेदवाओ। णवरि महाखंधदब्धवग्गणा जहणिया कदजुम्मं । उक्कस्सिया वि कवजुम्मं । महाखंधवग्गगसलागाओ कलिओजो वग्गणाओ पुण चउढाणपदिदाओ।
__णाणासेडिओजजम्माणगमेण परमाणपोग्गलदव्ववग्गणा किमोजो कि जम्म? जहणिया कदजुम्मं । उक्कस्सिया वि कदजुम्म । कुदो ? एदं णव्वदे? आइरियपरं. परागदसुत्ताविरुद्धगुरूवदेसादो । अजहण्णअणुक्कस्सियाए चत्तारि वियप्पा । एवं
यव्वं जाव धुवखंधदक्वग्गणे ति । उवरिमसेसवग्गणासु जहग्णिया कलिओजो; एगत्तादो। उक्कस्सिया तेजोजो । मज्झिमाए चत्तारि वियप्पा। णवरि महाखंधदव्ववग्गणाए जाणासेडी पत्थि; सम्वकालं सरिसधणियबहुवग्गणाभावादो । एवं ओजजम्माणुगमो त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । प्रमाण दो है । उत्कृष्ट संख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणा तेजोज है, क्योंकि, वह एक कम कृतयुग्मप्रमाण है। संख्यातप्रदेशी सब वर्गणाशलकायें बादरयुग्म है, क्योंकि, वे दो कम कृतयुग्मप्रमाण हैं । परन्तु वर्गणायें चतुःस्थानपतित हैं। जघन्य असंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणा कृतयुग्म है, क्योंकि, वह जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण है । उत्कृष्ट असंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणा तेजोज है, क्योंकि, वह एक कम कृतयुग्मप्रमाण है। असंख्यातप्रदेशो वर्गणाशलाकायें कृतयुग्म है, क्योंकि, वे जघन्य परीतसंख्यात कम जघन्य परोतानन्तप्रमाण हैं । परन्तु वर्गणायें चतुःस्थानपतित हैं । इसी प्रकार सब वर्गगाओंके विषय में जानना चाहिए । इतनी विशषता हैं कि जवन्य महास्कन्धद्रव्यवर्गणा कृतयुग्म है तथा उत्कृष्ट महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा भी कृतयुग्म है महास्कन्धवर्गण, शलाकायें कलिओजरूप हैं। परन्तु वर्गणायें चतु:स्थानपतित हैं।
नानाश्रेणिओजयुग्मानुगमकी अपेक्षा परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा क्य ओजरूप है या क्या युग्मरूप है ? जघन्य कृतयुग्मरूप है तथा उत्कृष्ट भी कृतयुग्मरूप है ।
शका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-अचार्य परम्परासे हुए सूत्राविरुद्ध गुरुके उपदेशसे जाना जाता है ।
अजघन्य-अनुत्कृष्ट वर्गणाके चार भेद हैं। इस प्रकार ध्रुवस्कन्ध द्रव्यर्गणा तक जानना चाहिए। उपरिम शेष वर्गणाओंमें जघन्य वर्गणा कलिओजरूप है, क्योंकि, वह एक है। उत्कृष्ट वर्गणा तेजोजरूप हैं और मध्यकी वर्गणायें चारों प्रकारकी हैं। इतनी विशेषता है कि महास्कन्धद्रव्यवर्गणाकी नानाश्रेणि नहीं है, क्योंकि, सर्वदा सदृश धनवाली बहुत वर्गणाओंका अभाव है।
इसप्रकार ओजयुग्मानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
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५, ६, ११६. )
बधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा
( १४९
एगसेडिवग्गणवेत्ताणगमेण परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा संखेज्जपदेसियदव्ववग्गणाओ च केवडि खेते? लोगस्त असंखेज्ज विभागे । असंखेज्जपदेसियदव्ववग्गणपहुडि जाव सुहमणिगोदवग्गणे ति ताव एदासि वग्गणाणमेया सेडो केवटि खेत्ते ? सबलोगे । जले वा थले वा आगासे वा सुहमणिगोदवग्गणादिसव्ववग्गणाओ संभवंति ति तेसि सवलोगो होदु णाम ण पत्तेयसरीरबावरणिगोदवग्गणाणं; तेसि अट्र पुढवीयो भवणविमाणाणि च अस्सिदूण चेव अवट्ठाणादो? ण, सुहमपुढविआउतेउवाउकाइयाणं पत्तेयसरीराणं सव्वलोगम्हि अवट्ठाणं पडि विरोहाभावादो मारणंतियपदेण उववादेण सबलोगमेतखेत्तुवलंभादो च । महाखंधदव्ववग्गणा केवडि खेते ? लोगे देसूणे ।
णाणासेडिखेतागगमेण परमाणपोग्गलदव्यवग्गणा केवडि खेत्ते ? सम्वलोगे। कुदो ? आणंतियादो । एवं णेयव्वं जाव सांतरणिरंतरवग्गणे ति । पत्तयसरोरबादरसुहमवग्गणाओ केवडि खेत्ते? सव्वलोगे; असखेज्जलोगपमाणत्तादो। महाखंधदधवग्गणा केवडि खेते? लोगे देसूर्ण । एवं खेत्ताणुगमो त्ति समत्तमणुओगद्दारं।
एगसेडिवग्गणफोसणाणुगमेण परमाणपोग्गलदव्ववग्गणाए संखेज्जपदेसियवस्व
एकश्रेणिवर्गणाक्षेत्रानुगमकी अपेक्षा परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाओं और संख्यातप्रदेशी द्रव्य वर्गणाओंका कितना क्षत्र है? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । असंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणासे लेकर सूक्ष्मनिगोदवर्गणा तक इन वर्गणाओंकी एक श्रेणिका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है।
शका-जल में, स्थल में और आकाश में सूक्ष्म निगोदवर्गणा आदि सब वर्गणायें सम्भव हैं इसलिए उनका सब लोकप्रमाण क्षेत्र होओ, परन्तु प्रत्येकशरीरबादरनिगोदबर्गणाओंका सब लोकप्रमाण क्षेत्र नहीं हो सकता, क्योंकि, वे आठ पृथिवियों और भवनविमानोंका आश्रय लेकर ही अवस्थित है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, एक तो प्रत्येकशरीरवाले सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक और सूक्ष्म वायुकायिक जीवोंका सब लोकमें अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं आता। दूसरे प्रत्येकशरीरवाले जीवोंका मारणान्तिकपद और उपपादकी अपेक्षा सब लोकप्रमाण क्षेत्र पाया जाता।
महास्कन्धद्रव्यवर्गणाका कितना क्षेत्र है? कुछ कम सब लोक क्षेत्र है।
नानाश्रेणिक्षेत्रानुगमकी अपेक्षा परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणा कितना क्षेत्र है ? सब लोकप्रमाण क्षेत्र है, क्योंकि, उसका प्रमाण अनन्त हैं । इसीप्रकार सान्तर-निरन्तरवर्गणा तक ले जाना चाहिए । प्रत्येकशरीर, बादर और सूक्ष्म वर्गणाओंका कितना क्षेत्र है ? सब लोकप्रमाण क्षेत्र है, क्योंकि, वे असंख्यात लोकप्रमाण है । महास्कन्धद्रव्यवर्गणाका कितना क्षेत्र है ? कुछ कम लोकप्रमाण है।
इस प्रकार क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वारा समाप्त हुआ।
एकश्रेणिवर्गणास्पर्शनानुगमकी अपेक्षा परवाणपुद्गलद्रव्यवर्गणाओं और संख्यातप्रदेशी..
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१५० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड वग्गणाहिं च केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा । असंखेज्जपदेसियदव्ववग्गणप्पहुडि जाव सुहमणिगोदवग्गणे ति ताव एदासि वग्गजाणमेगसेडीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? अदीदवट्टमाणेण सव्वलोगो । महाखंधदन्ववग्गणाए केवडियं खेत्तं फोसिदं? वट्टमाणेण: लोगो देसूणो । अदीदेण सव्वलोगो। एवं णाणासेडिफोसणं परवेयव्वं । णवरि परमाणपोग्गलदव्ववग्गणप्पहुडि जाव सुहुमणिगोदवग्गणे ति ताव एदाहि वग्गणाहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो। महाखंधदव्ववग्गणाए केवडियं खेत्तं फोसिद? लोगो देसूणो सव्वलोगो वा । एवं फोसणाणुगमो त्ति समत्तमयोगद्दारं ।
___ एगसेडिकालाणुगमेण परमाणपोग्गलदव्ववग्गणा केवचिरं कालादो होदि ? वग्गणादेसेण सव्वद्धा । दुपदेसियवग्गणप्पहुडि जाव धुवखंधदव्ववग्गणे त्ति ताव पत्तय पत्तेयं एवं चेव सव्वत्थ वत्तव्वा । अचित्तअवखंधदव्ववग्गणा केवचिरं कालादो होदि? जहण्णण एगसमयं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवं णयां जाव महाखंधदव्ववग्गणे त्ति । पत्तैयसरीर बादरणिगोद-सुहमणिगोदवग्गणाणमोरालिय-तेजा-कम्मइयपरमाणुपोग्गलेहि तेसि विस्तासुवचयपोग्गलेहि य भेदसंघादं
द्रव्यवर्गणाओंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । असंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणासे लेकर सूक्ष्म निगोद द्रव्यवर्गणा तक इन वर्गणाओंकी श्रेणिने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालमें सब लोकका स्पर्शन किया है । महास्कन्धद्रव्यवर्गणाने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमानमें कुछ कम लोकप्रमाण क्षेत्रका और अतीत काल में सब लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार नानाश्रेणिका स्पर्शन कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि परमाणुयुद्गलद्रव्यवर्गणासे लेकर सूक्ष्म निगोदवर्गणा तक इन वर्गणाओंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । महास्कन्ध द्रव्यवर्गणाने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? कुछ कम लोकप्रमाण क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्शन किया।
इस प्रकार स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। एकश्रेणिकालानुगमकी अपेक्षा परमाणुपुदगलद्रव्यवर्गणाका कितना काल है? वर्गणादेशकी अपेक्षा सब काल है । द्विप्रदेशी वर्गणासे लेकर ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणा तक प्रत्येक वर्गणाका सर्वत्र इसी प्रकार काल कहना चाहिए। अचित्त ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणाका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । इसी प्रकार महास्कन्धद्रव्यवर्गणा तक जानना चाहिए । प्रत्येकशरीर, बादरनिगोद और सूक्ष्मनिगोद वर्गणाओं के औदारिकशरीर, तेजसशरीर और कार्मणशरीरोंके पुद्गलों द्वारा तथा उनके विस्रसोपचयों
अ. का. प्रत्योः · महाखधदव्यवग्गणाए केवडियं खेत फोसिदं, अदीदवद्रमाणेण सव्वलोगो महाखंधदव्ववग्गणाए केवडियं खेत्त फ्रोसिदं वद्रमाणेण ' इति पाठः।
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५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा ( १५१ गच्छमाणजीवेहि य पडिसमयमवचयावचयभावं गच्छमाणाणं सरिसधणियाणं वग्गणाणमावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणमसंखेज्जलोगपोग्गलपरियट्टमेत्तकालवढाणं ण जज्जदे। ण च असंखेज्जलोगमेत्तसरिसधणियवग्गगाओ अस्थि3 जवमझपरूवणाए सह विरोहादो ति । तम्हा एदेसिमेगसेडिवग्गणाणं कालो जाणिय वत्तव्यो । एत्तियकालो ति ण वयं वोत्तुं समत्था; अलद्धवदेसत्तादो । लद्धवदेसे वि वा धुवलंभादो । अथवा णेपो द्वाणणिबंधणवग्गणाणमुक्कस्सकालो किंतु जीवणिबंधणाणं । ण च एदासि सेचीयभावेण अणंतकाले परूविज्जमाणे विरोहो अत्थि; तण्णिबंधणाणुवलंभादो । अहवा आगमो अतक्कगोयरो ति पुग्विल्लकालो चेव घेत्तन्वो । एवं णाणासेडिकालाणुगमो वि वत्तव्यो । णवरि परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणप्पहुडि जाव महाखंधदम्ववग्गणे ति ताव वग्गणादेसेण सम्बद्धा । एवं कालाणुगमो त्ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
एगसे डिवग्गणअतराणगमेण परमाणपोग्गलदस्वयगणाए अंतरं केवचिरं कालादो होदि? पत्थि अंतरं णिरंतरं । एवं दुपदेसियवग्गणप्पहुडि जावधुवखंधदनवग्गणे ति ताव णस्थि अंतरमिदि पत्तेयं पत्तेयं परूवेदव्वं । अचित्तअद्धवक्खंधदव्ववग्गणाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? जहणे ग एगसमये ; उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा
द्वारा भेद-संघातको प्राप्त होने वाले जीवों के द्वारा प्रत्येक समय में उपचा और अपवयभावका प्राप्त होंनेवाली ओर सदृश धर वाली आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण वगणाओं का असंख्यात लोक पुद्गलपरिवर्तन काल तक अवस्थान नहीं बन सकता है। असंख्यात लोकप्रमाण सदृश धनवाली वर्गणायें हैं यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इस कथनका यवमध्यप्ररूपणाके साथ विरोध आता है। इसलिए इन एकश्रेणिवाणओंका काल जानकर कहना चाहिए । इतना काल है यह बात हम कहने के लिए समर्थ नहीं हैं, क्योंकि, इस विषय का कोई उपदेश नहीं पाया जाता । उपदेशके प्राप्त होनेपर भी ध्रुव प्राप्ति है। अथवा यह स्थान निबन्धन वर्गणाओंका उत्कृष्ट काल नहीं है किन्तु जीवनिबन्धन वर्गणाओं का उत्कृष्ट काल है । इनका से चीयरूपसे अनन्त काल कहनेपर विरोध आता है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, उसका कोई कारण उपलब्ध नहीं होता अथवा आगम तर्क का विषय नहीं है, इसलिये पहलेका ही काल ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार नानाश्रेणि कालानुगमकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणासे लेकर महास्कन्धद्रव्यवर्गणा तक वर्गणादेशको अपेक्षा सर्वदा काल है।
इस प्रकार कालानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। एकश्रेणिवर्गणाअन्तरानुगमकी अपेक्षा परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाका अन्तरकाल कितना है? अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । इसी प्रकार द्विप्रदेशो वर्गणासे लेकर ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणा तक प्रत्येक वर्गणाका अन्तर नहीं है ऐसा प्रत्येकवर्गणाकी अपेक्षा कथन करना चाहिए । अचित्तअध्रु.
वस्कन्ध द्रध्यवर्गणाका अन्तरकाल कितना है? जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ११६
पोग्गलपरियट्टा। पतेयसरीर-बादरणिगोद-सुहमणिगोदवग्गणाणमंतर केवचिरं कालादो होदि? जहण्णेणेगसमओ, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवं सेचीयं पड्डच्च परूविदं । अत्थदो पुण केसिंचि सचित्तअद्धवक्खंधवग्गणट्ठाणाणमंतराभावेण होदव्वं; अण्णहा अदीदकाले सव्वट्ठाणेसु जीवसंभवप्पसंगादो । ण च एवं; असंखेज्जलोगगुणिदअदीदकालमेत्तट्ठाणाणं पगरिसेणुप्पण्णाणं सव्वट्ठाणावरणविरोहादो। एवं महाखंधदव्ववग्गणाए वि वत्तव्वं । णाणासेडिवग्गणंतराणगमो एवं चेव वत्तव्वो। णवरि अचित्तअद्धवक्खंधदव्ववग्गणाणं पत्थि अंतर जिरंतरं । सचित्तअद्धवक्खंधवग्गणाणं पि णत्थि अंतरं; सेचीयतणेण सव्वासिमस्थितुवलंभादो। एवं महाखंधदव्ववग्गणाए वि वत्तव्वं । एवमंतराणुगमो त्ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
- एगसेडिवग्गणभावाणगमेण परमाणपोग्गलववग्गणाए को भावो? ओदइओ पारिणामिओ वा । जे ण जीवेण कदाचि वि परिणमिदा परिणामिदा वि संता जे विणट्ठोदइयभावा तेसि भावो पारिणामिओ। जे पुण अविणोदइयभावा परमाणू तेसिमोदइओ भावो चेव । एवं दुपदेसियवग्गणपडि जाव महाखंधददवग्गणे त्ति वत्तव्वं । एसा परूवणा एगपरमाणु पडच्च परूविदा। खंधं पडुच्च भण्णमाणे दुपदेसि. यादिवग्गणाणं ओदइयो पारिणामिओ ओदइयपारिणामिओ च तिविहो भावो होदि ।
-
अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । प्रत्येकशरीर बादरनिगोद और सूक्ष्मनिगोद वर्गणाओंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । यह सेचीयकी अपेक्षा कथन किया है। वास्तवमें तो किन्हीं सचित्तअध्रुवस्कन्धवर्गणास्थानोंको अन्तरसे रहित होना चाहिए, अन्यथा अतीत कालमें सब स्थानोंमें जीवोंकी सम्भावना प्राप्त होती है। परन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि, उत्कृष्ट रूपसे उत्पन्न हुए असंख्यात लोकगणित अतीत कालप्रमाण स्थान सब स्थानों को पूरा करते हैं ऐसा होने में विरोध है । इसीप्रकार महास्कन्धद्रव्यवर्गणाके विषय में भी कहना चाहिए । नानाश्रेणिवर्गणाअन्तरानुगमकी अपेक्षा इसी प्रकार कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अचित्तअध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणाओंका अन्तरकाल नहीं है वे निरन्तर है । सचित्त अध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणाओंका भी अन्तरकाल नहीं है, क्योंकि, सेचीयपनेकी अपेक्षा सबका अस्तित्व पाया जाता है । इसीप्रकार महास्कन्धद्रव्य वर्गणाके विषय में भी कहना चाहिए ।
इस प्रकार अन्तरानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। एकश्रेणिवर्गणाभावानुगमकी अपेक्षा परमाणुपुद्गलद्रव्य वर्गणाका क्या भाव है ? औदयिक व पारिणामिक भाव है। जिस जीवके द्वारा कभी भी परिणमन नहीं किये गये और परिणमाये गये भी जो औदयिक भावके नाशको प्राप्त हुए हैं उनका परिणामिक भाव है । परन्तु जिन परमाणुओंका औदयिक भाव नष्ट नहीं हुआ है उनका औदयिक भाव ही है । इस प्रकार द्विप्रदेशी वर्गणासे लेकर महास्कन्धद्रव्यवर्गणा तक कहना चाहिए। यह प्ररूपणा एक परमाणुकी अपेक्षासे की है । स्कन्धकी अपेक्षा कथन करनेपर द्विप्रदेशी आदि वर्गणाओंका औदयिक भाव
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५, ६, ११६ ) बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा (१५३ सचित्तवग्गणाणं पुण भावो मिस्सो चेव; तत्थ सुद्धगभावाणुवलंभावो । णाणासेढिवग्गणभावो एवं चेव भाणिदवो । ओदइयभावेण पोग्गलाणमवट्टाणं पुण उक्कस्सेण असंखज्जलोगमेत्तकालपमाणं होदि । एवं भावाणुगमो ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
_एगसेडिवग्गण उवणयणाणुगमेण परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा एया चेव । संखेज्जपदेसियदव्ववग्गणाओ रूवणुक्कस्ससंखेज्जमेत्ताओ। असंखेज्जपदेसियदव्ववग्गणाओ असंखेज्जाओ। जहणणपरित्ताणंतादो जहण्णपरित्तासंखेज्जे सोहिदे सुद्धसेसमेत्ताओ ति भणिदं होदि। आहारवग्गणाए हेटा अणंतपदेसियअगहणवग्गणा अणंताओ। जहण्णआहारवग्गणादो जहण्णपरित्ताणते सोहिदे सुद्धसेसम्मि जत्तियाणि रूवाणि तत्तियमेत्ताओ त्ति घेतव्वं । अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाओ सिद्धाणमणंतभागमेताओ त्ति भणिदं होदि । एवं यन्वं जाव कम्मइयवग्गणे ति । धुवखंधदव्ववग्गणाओ अणंताओ । जहण्णधुवक्खंधवग्गणाए जहाणसांतरणिरंतरवग्गणाए सोहिदाए जं सेसं तत्तियमेत्ताओ लि घेत्तव्वं । एवमप्पिदजहण्णवग्गणमवरिमवग्गणजहण्णवग्गणाए सोहिय सुद्धसेसेण वग्गणउवणयो परवेदव्वो जाव महाखंधदव्ववग्गणे ति । एवं जाणासेडिवग्गणाउवणयणाणुगमो वत्तव्वो; विसेसाभावादो । एवं वग्गणुवणयणस्स अत्थं के वि आइरिया भणंति । एसो अत्थो ण घडदे । कुदो ? वग्गणपारिणामिक भाव और औदयिक-पारिणामिक भाव इस प्रकार तीन प्रकारका भाव होता है । परन्तु सचित्तवर्गणाओंका भाव मिश्र ही होता है, क्योंकि, उनमें शुद्ध एक भाव नहीं उपलब्ध होता । नानाश्रेणिवर्गणाओंका भाव इसी प्रकार कहना चाहिए। परन्तु औदयिकभावके साथ पुद्गलोंका अवस्थान उत्कृष्ट से असंख्यात लोककालप्रमाण होता है।
- इस प्रकार भावानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। एकश्रेणिवर्गणाउपनयनानुगमकी अपेक्षा परमाणुपुद्गलद्र व्यवर्गणा एक ही है । संख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणायें एक कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण है । असंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणार्य असंख्यात हैं । जघन्य परीतानन्तमेंसे जघन्य परीतासंख्यातके कम करने पर जितना शेष रहे उतनी हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । आहारवर्गणासे पूर्व अनन्तप्रदेशी अग्रहणवर्गणायें अनन्त हैं । जघन्य आहारवर्गणामसे जघन्य परीतानन्तके कम कर देनेपर शेषमें जो संख्या प्राप्त हो उतनी हैं ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए। वे अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस प्रकार कार्मणवर्गणा तक जानना चाहिए। ध्रवस्कन्धद्रव्यवर्गणायें अनन्त हैं। जघन्य सान्तरनिरन्तरवर्गणामेंसे जघन्य ध्रवस्कन्धवर्गणाके घटा देने पर जो शेष रहे उतनी है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार विवक्षित जघन्य वर्गणाको आगेकी वर्गणाकी जघन्य वर्गणामेंसे घटा देने पर जो शेष रहे उतना वर्गणाका उपनय कहना चाहिए और यह कहना महास्कन्धवर्गणातक करना चाहिए । इसी प्रकार नाना श्रेणिवर्गणा उपयनानुगमका कथन करना चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं हैं। इस प्रकार कितने ही आचार्य वर्गणा उपनयनका अर्थ कहते हैं, परन्तु यह अर्थ घटित नहीं होता, 8 म0 प्रतो ' वग्गणाए चेव' का० प्रती ' वग्गणाए एया चेव ' इति पाठः ।
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१५४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ११६
परिमाणाणुगमे भणिस्तमाणतादो । ण च एक्को चेव अत्थो दो वारं उच्चदे; पुणरुत्तदोसप्पसंगादो। तम्हा* वग्गणुवणयपरूवणा एवं कायवा । तं जहा उक्कस्समहाखंधदव्ववग्गणं घेतूण पुणो उक्कस्समहाखंधदग्ववगणप्पहुडि तत्थतणएगेगरूवे वग्गणं पडि हेट्ठा दिज्जमाणे जाव परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणं ताव गंतूण समप्पदि । एवं महाखंधुवरिमवग्गणप्पहुडि सेसहेट्टिमवग्गणाणं पदेसे घेतण पतेयं पत्तेयं वग्गणवणयणं वत्तव्वं जाव परमाणपोग्गलदव्ववग्गणे त्ति । किफलो उवणयणाणगमो ? सव्ववग्गणाओ पिरंतरं रूवाहियकमेण गदाओ ति जाणावणफलो । एवं वग्गणउवणयणाणुगमो ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
एगसेडिवग्गणपरिमाणाणुगमेण परमाणुपोग्गलहव्ववग्गणा एया चेव। संखेज्जपदेसियदव्ववग्गणाओ रूवणुक्कस्ससंखेज्जमेत्ताओ । असंखेज्जपदेसियदव्ववग्गणाओ असंखेज्जाओ होताओ वि जहण्णपरित्तासंखेज्जेणणजहणपरित्ताणंतमेत्ताओ आहारवग्ग. गाए हेटिमअणंतपदेसियदव्यवग्गणाओ अणंताओ होताओ वि जहण्णपरित्ताणतेणणजहण्णाहारदव्ववग्गणमेत्ताओ। अभवसिद्धिएहि अणंतगणाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ त्ति भणिदं होदि । एवं यव्वं जाव कम्मइयवग्गणे ति । पुणो धुवखंधदम्ववग्गणप्पहुडि अप्पिदजहण्णवग्गणमवरिमाणंतरजहण्णवग्गणाए सोहिय सुद्धसेसम्मि जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाओ वग्गणाओ होंति ति पत्तेयं पत्तेयं वग्गणक्योंकि, वर्गणापरिमाणानुगममें इसका कथन करेंगे। एक ही अर्थ दो बार कहा जा सकता है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा होने पर पुनरुक्तदोषका प्रसंग आता है । इसलिए वर्गणा उपनयन प्ररूपणा इस प्रकार करनी चाहिए । यथा-उत्कृष्ट महास्कन्धद्रव्यवर्गणाको ग्रहण कर पुनः उत्कृष्ट महास्कन्धद्रव्यवर्गणासे लेकर उसमें से एक एक अकको प्रत्येकवर्गणाके प्रति नीचे देने पर परमाणुपुदगलद्रव्यवर्गणा तक जाकर वह समाप्त हो जाती है । इसीप्रकार महास्कन्ध उपरिम वर्गणासे लेकर नीचेकी शेष वर्गणाओंके प्रदेशोंको ग्रहणकर परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा तक अलग अलग प्रत्येक वर्गणाका उपनयन कहना चाहिए । उयनयनानुगमका क्या फल है ? सब वर्गणायें निरन्तर एक अधिकके क्रमसे गईं हैं यह जताना इसका फल है ।
इस प्रकार वर्गणाउपनयनानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । एक श्रेणिवर्गणापरिमाणानुगमकी अपेक्षा परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा एक ही है । संख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणायें एक कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण हैं । असंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणायें असंख्यात होकर भी जघन्य परीतासंख्यात कम जघन्य परीतानन्तप्रमाण है । आहारवर्गणासे पूर्व अनन्तप्रदेशी द्रव्यवर्गणायें अनन्त होती हुई भी जघन्य परीतानन्त कम जघन्य आहारद्रव्यवर्गणाप्रमाण हैं। ये अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसी प्रकार कार्मणवर्गणा तक जानना चाहिए । पुनः ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणासे लेकर विवक्षित जघन्य वर्गणाको आगेकी अनन्तर जघन्य वर्गणा मेंसे घटाकर शेष में जितनी संख्या हो उतनी वर्गणायें होती हैं । इस प्रकार महास्कन्धद्रव्य
अ० प्रती -परिणामाणुगमे' इति पाठः । *प्रतिष 'तम्हा' इति स्थाने 'तं जहा इति पाठः ।
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बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा
( १५५
पमाणपरूवणा कायया जाव महाखंधदव्ववग्गणे ति । णवरि धुवक्खंधदव्ववग्गणप्पहुडि उवरि सम्वत्थ सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्ताओ एगसेडिवग्गणाओ होति ।
___ संपहि जाणासेडिवग्गणपरिमाणाणगमेण परमाणपोग्गलदव्ववग्गणा सरिसधणियवग्गणाहि जहण्णपदे वि उक्कस्तपदे वि केवडिया? अणंता । णाणासेडिजहण्ण. परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणादो सरिसणिएहि उक्कस्सपरमाण*पोग्गलदव्ववग्गणा विसेसाहिया। विसेसो पुणो अणंताणि पोग्गलपढमवग्गमलाणि । दुपदेसियदव्ववग्गणा सरिसधणिएहि जहणिया उक्कस्सिया वि अणंता। जहण्णादो पुण उक्कस्सिया विसेसाहिया: । केत्तियमेत्तो विसेसो ? अणंताणि पोग्गलपढमवग्गमूलाणि । एवं तिपदेसियवग्गणप्पहुडि एक्केक्कवग्गणं घेत्तूण णेयव्वं जाव उक्कस्सधुवक्खंधदव्ववग्गणे ति । पुणो तिस्से उवरि पढमिल्लियाए अचित्तअद्धवक्खंधदव्ववग्गणाए सरिसधणियवग्गणाओ सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अस्थि तो एक्का वा दो वा तिणि वा एवं जाव उक्कस्सेण अणंताओ सरिसधणियवग्गणाओ होति । एवं विदियसांतरणिरंतरवग्गणप्पहुडि पत्तेयं पत्तेयं भणेदूण यन्वं जाव सांतरणिरंतरउक्कस्सदव्ववग्गणे त्ति । जहण्णादो पुण उक्कस्सा अणंतगुणा । को गुणगारो ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो। वर्गणाके प्राप्त होने तक अलग अलग प्रत्येक वर्गणाके प्रमाणका कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणासे लेकर आगे सर्वत्र एकश्रेणिवर्गणायें सब जीवोंसे अनन्तगुणी होती हैं।
अब नानाश्रेणिवर्गणापरिमाणानुगमकी अपेक्षा परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा सदृश धननाली वर्गणारूपसे जघन्यपदकी अपेक्षा भी और उत्कृष्टपदकी अपेक्षा भी कितनी हैं? अनन्त हैं। नानाश्रेणि जघन्य परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणासे सदृश धनवाली उत्कृष्ट परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणायें विशेष अधिक हैं। विशेष पुद्गलोंके अनन्त प्रथम वर्गमलप्रमाण है। द्विप्रदेशीद्रव्यवर्गणा सदृश धनकी अपेक्षा जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अनन्त है। परन्तु जघन्यसे उत्कृष्ट विशेष अधिक है। विशेष का प्रमाण कितना है ? पुद्गलोंके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । इस प्रकार त्रिप्रदेशी वगणासे लेकर एक एक वर्गणाको ग्रहण कर उत्कृष्ट ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणा तक ले जाना चाहिए । पुनः उसके ऊपर प्रथम अचित अध्रुवस्कन्ध द्रव्यवर्गणाको सदृश धन-- वाली वर्गणायें कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। यदि है तो एक है, दों है, तीन है इसप्रकार उत्कृष्टरूपसे सदृश धनवाली वर्गणायें अनन्त है । इस प्रकार दूसरी सांतर-निरन्तरवर्गणासे लेकर अलग अलग प्रत्येक वर्गणाका कथन कर उत्कृष्ट सान्त रनिरन्तरद्रव्यवर्गणा तक लेजाना चाहिए । परन्तु वहां जघन्यसे उत्कृष्ट वर्गणा अनन्तगुणी है। गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है। ४ ता०प्रती - वग्गणाए (ओ) होंति 'अ. का. प्रत्योः वग्गणाए होंति इति पाठः।
ता प्रती० - धणि एहि परमाणु ' इति पाठः।*ता प्रती० 'जहण्णादो उक्कस्सिया पूण विसेसाहिया ' इति पाठ ।
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१५६)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड चदुसु धुवसुण्णदव्ववग्गणासु पोग्गला णस्थि । कुदो ? साभावियादो। पुणो अजोगिचरिमसमए पढमिल्लियाए पत्तेयसरीरदब्यवग्गणाए दव्वं सिया अस्थि सिया पत्थि । जदि अस्थि तो एक्को वा दो वा तिणि वा जा उक्कस्सेण खविदकम्मंसिय. लक्खणेणागदा चत्तारि होति । बिदियाए वग्गणाए वग्गणाओ सिया अस्थि सिया पत्थि । जदि अस्थि तो एक्को वा दो वा तिणि वा उक्कस्सेण चत्तारि होति । एवमेदेणविहाणण अणंतासु वग्गणासु गदासु तदो परदो जा अणंतरवग्गणा तिस्से दवाणि सिया अस्थि सिया त्थि । जदि अत्थि तो एक्को वा दो वा तिणि वा उक्कस्सेण पंच सरिसणियजीवा होति । एवमेदाओ वि अणंताओ वग्गणाओ गदाओ। तदो परदो जा अणंतरवग्गणा तिस्से वग्गणाओ सिया अस्थि सिया पत्थि । जदि अस्थि तो एक्को वा दो वा तिणि वा जा उक्कस्सेण सरिसणिया छजीवा लब्मति । पुणो एदेण कमेण एदाओ अणंताओ वग्गणाओ गदाओ। तदो परदो जा अणंतरवग्गणा तिस्से वग्गणाए वग्गणाओ सिया अस्थि सिया णथि । जदि अत्थि तो एक्को वा दो वा तिणि वा जा उक्कस्सेण सरिसधणिया सत्तजीवा लब्भंति । पुणो एदाओ कि अणंताओ वग्गणाओ गदाओ। तदो परदो जा अणंतरवम्गणा तिस्से वग्गणाए सिया अस्थि सिया णत्थि । जति अस्थि तो एक्को का दो वा तिणि वा जा उक्कस्सेण अट्ट सरिसणियजीवा होंति । पुणो एदेणेव कमेण अणंताओ वग्गणाओ मवाओ। तदो परदो जा अणंतरवग्गणा तिस्से वग्गणाए सिया अस्थि सिया पत्थि । जदि अत्थि तो एको वा दो वा तिगि वा जा
चार ध्रुवशून्यवर्गणाओंमें पुद्गल नहीं हैं. क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । पुनः अयोगकेवलीके अन्तिम समय में प्राप्त होनेवाली प्रथम प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा द्रव्य कदाचित् है और कदाचित नहीं है। यदि है तो एक है, दो है और तीन है, इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे क्षपितकर्माशिक लक्षणसे आये हुए चार होते हैं। दूसरी वर्गणाकी वर्गणायें कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं । यदि हैं तो एक है, दो है, तीन हैं, इसप्रकार उत्कृष्टरूपसे चार हैं। इसप्रकार इस विधिसे अनन्त वर्गणाओंके जानेपर उससे आगे जो अनन्तर वर्गणा है उसके द्रव्य कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो एक है, दो हैं, तीन हैं, इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे सदृश धनवाले पाँच जीव होते हैं । इस प्रकार ये भी अनन्न वर्गणायें व्यतीत हो जाती है। उससे आगे जो अनन्तर वर्गणा है उसकी वर्गणायें कदाचित हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो एक है, दो हैं, तीन है, इसप्रकार उत्कृष्ट रूपसे सदश धनवाले छह जोव प्राप्त होते हैं । पुनः इस कपसे ये अनन्त वर्गणाये गत हो जाता है । पुनः उससे आगे जो अनन्तर वर्गणा है उस वर्गणाकी वर्गणायें कदाचित् है और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो एक है, दो हैं, तीन हैं, इस प्रकार सदृश धनताले सात जीव प्राप्त होते हैं। पुनः ये भी अनन्त वर्गणायें गत हो जाती हैं। पुनः उससे आगे जो अनन्तर वर्गणा है उस वर्गणाकी वर्गणायें कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं है । यदि हैं तो एक है, दो हैं, तीन हैं, इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे आठ सदृश धनवाले जीव प्राप्त होते हैं। पुनः इसी क्रमसे अनन्त वर्गणाय गत हो जाती है । उससे आगे जो अनन्तर वर्गगा है उस वर्ग गाकी वर्गगायें कदाचि । है और ..
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५, ६, ११६. )
बंघणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा
( १५७
उक्कस्सेण सत्त सरिसधणिया जीवा होंति । एवमेदाओ वि अनंताओ वग्गणाओ गदाओ । तो परदो जा अणंतरवग्गणा तिस्से वग्गणाए सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तो एक्को वा दो वा तिष्णि वा जा उक्कस्सेण छ जीवा सरिसधणिया होंति । पुणो एदाओ वि अनंताओ वग्गणाओ गदाओ । तदो परदो जा अणंतरवग्गणा तिस्से सरिसधणियवग्गणाओ सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तो एक्को वा दो वा तिष्णि वा जा उक्कस्सेण पंच सरिसधणिया जीवा होंति । पुणो एवाओ वि अनंताओ वग्गणाओ गदाओ । तदो परदो जा अणंतरवग्गणा तिस्से सरिसधणियवग्गणाओ सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अस्थि तो एक्को वा दो वा तिणि वा जा उक्कस्सेण चत्तारि सरिसधणियजीवा होंति । पुणो एदाओ वि अनंताओ वग्गणाओ गदाओ । तदो परदो जा अणंतरवग्गणा तिस्से सरिसधणियवग्गणाओ सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तो एक्को वा दो वा तिणि वा जा उक्कस्सेण तिग्णिसरिसधणियजीवा लम्भंति । पुणो एवाओ वि अनंताओ वग्गणाजो गदाउो । तदो परदो जा अनंत रवग्गणा तिस्से दव्वाणि सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तो उक्कस्सेग सरिसधनिया दो जीवा होंति । तदो परदो जाओ अनंताओ वग्गणाओ तासिमेसेत्र कमो वत्तव्वो जाव भवसिद्धियपाओग्गवन्गणाणं दुचरिमवग्गणे त्ति । पुणो भवसिद्धियचरिमवग्गणाए वग्गणाओ सिया अत्थिसिया गत्थि । जदि अस्थि तो जहण्णेण एक्को उक्कस्सेण दो सरिसधणियकदाचित् नहीं हैं । यदि है तो एक है, दो हैं, तीन हैं, इसप्रकार उत्कृष्टरूपसे सदृश धनवाले सात जीव हैं । इसप्रकार ये भी अनन्त वर्गणायें गत हो जाती हैं। पुनः उससे आगे जो अनन्तर वर्गणा है उस वर्गणाकी वर्गणायें कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं । यदि हैं तो एक है, दो हैं, तीन हैं, इसप्रकार उत्कृष्टरूपसे धनवाले छह जीव हैं। पुनः ये भी अनन्त वर्गणायें गत हो जाती हैं । तदनन्तर उससे आगे जो अनन्तर वर्गणा है उसकी सदृश घनवाली वर्गणायें कदाचित् है और कदाचित् नहीं । यदि हैं तो एक है, दो हैं, तीन हैं, इसप्रकार उत्कृष्टरूपसे सदृश धनवाले पाँच जीव हैं। पुनः ये भी अनन्त वर्गणायें गत हो जाती है । पुनः उससे आगे जो अनन्तर वर्गणा है उसकी सदृश धनवाली वर्गणायें कदाचित् है और कदाचित् नहीं है । यदि है तो एक है, दो है, तीन है, इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे सदृश धनवाली जीव चार है । पुनः ये भी अनन्त वर्गणायें गत हो जाती है। उससे आगं जो अनन्तर वर्गण है उसकी सदृश धनवाली वर्गणायें कदाचित् है और कदाचित् नहीं है । यदि है तो एक है, दो है, तीन है, इस प्रकार सदृश धनवाले तीन जीव प्राप्त होते है । पुनः ये भी अनन्तर वर्गणायें गत हो जाती है । उससे आगे जो अनन्तर वर्गणा है उसके द्रव्य कदाचित् है और कदाचित् नहीं है । यदि है तो उत्कृष्टरूपसे सदृश धनवाले दो जीव होते है । उससे आगे जो अनन्त वर्गणायें है उनका भव्यों के वर्गणाओंका द्विचरम वर्गणाके प्राप्त होने तक यहो योग्य अन्तिम वर्गणाकी वर्गणायें जघन्य से एक है और उत्कृष्ट
तो
क्रम कहना चाहिए । और कदाचित् नहीं है
पुनः
।
योग्य
भव्यों के
यदि है
कदाचित् है
रूप से सदश
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१५८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ११६.
जीवा होंति । एवमेसा जवमज्झपरूवणा भवसिद्धियट्टाणेसु सेचीय आइरियउवदेसेण परुविदा |
तदो जा अनंतरा अभवसिद्धियपाओग्गवग्गणा तिस्से वग्गणाए सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तो एक्को वा दो वा जा उक्कस्सेण आवलियाए असं - खेज्जदिभागमेत्ताओ सरिसधणियवग्गणाओ होंति । एवमेदेण पमाणेण अनंतासु वग्गणासु गदासु तदो परदो जा अणंतरवग्गणा तिस्से वग्गणाए सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तो एक्को वा दो वा जा उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ सरिसधणियवग्गणाओ होंति । वरि पुव्ववग्गणाहितो विसेसाहियाओ एगवग्गणाए । पुणो एटेण विहाणेण अनंताओ वग्गणाओ गच्छति । पुणो जा अणंतरउवरिमवग्गणा सा हेहिमवग्गणादो विसेसाहिया एगवग्गणाए । एवं भवसिद्धियवग्गणाणं उत्तविहाणेण णेयव्वं जाव जवमज्झे त्ति । पुणो जवमज्झवग्गणाए वग्गणाओ सिया अत्थि सिया गत्थि । जदि अत्थि तो एक्को वा दो वा तिष्णि वा जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्ज विभागमेत्ताओ होंति । पुणो एदाओ वि अनंताओ वग्गणाओ गदाओ । तदो परदो अणंतरवग्गणा तिस्से वग्गणाए सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तो एक्को वा दो वा तिणि वा जा उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तवग्गणाओ होण पुत्रवग्गणाहितो विसेसहीणाओ त्ति । पुणो एदाओ वि अनंताओ वग्गणाओ गदाओ । तदो परदो जा अनंतर वग्गणा धनवाले दो जीव है । इस प्रकार भव्यप्रायोग्य स्थानों में यह यवमध्यप्ररूपणा सेचीय आचाके उपदेशसे कही है ।
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इसके बाद जो अनन्तर अभव्यप्रायोग्य वर्गणा है उस वर्गणाकी वर्गणायें कदाचित् हैं और कदाचित नहीं हैं । यदि है तो एक है, दो हैं इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे सदृश धनवाली वर्गणायें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इस प्रकार इस प्रमाणसे अनन्त वर्गणाओंके जाने पर उससे आगे जो अनन्तर वर्गणा है उस वर्गणाकी वर्गणायें कदाचित् है और कदाचित् नहीं हैं । यदि हैं तो एक है, दो हैं, इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे सदृश धनवाली आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण वर्गणायें है । इतनी विशेषता है कि एक वर्गणा में पूर्ववर्गणासे विशेष अधिक है । पुन: इस विधि से अनन्त वगणायें जाती है । पुनः जो अनन्तर उपरिम वर्गणा है वह अधस्तन वर्गणासे एक वर्गणा में विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार यवमध्य के प्राप्त होने तक भव्य प्रायोग्य वर्गणाओंको उक्त विधिसे ले जाना चाहिए । पुनः यवमध्यवर्गणाकी वर्गंणायें कदाचित है और कदाचित् नहीं है । यदि है तो एक है, दो हैं, तीन हैं, इस प्रकार उत्कृष्टरूप से
आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं 1 पुनः ये भी अनन्त वर्गणायें गत हो
जाती हैं । उससे आगे जो अनन्तर वर्गणा है उस वर्गणाकी वर्गणायें कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं है । यदि हैं तो एक है, दो हैं तीन हैं इसप्रकार उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर भी पूर्वकी वर्गणासे विशेष होन हैं । पुनः ये भी अनन्त वर्गणायें गत हो जाती हैं । उससे आगे जो अनन्तर वर्गणा हैं उसकी आवलिके असंख्यातवें
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बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा (१५९ तिस्से वग्गणाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता होदूण पुव्ववग्गणाहितो विसेसहीणाओ । एवं यव्वं जा उक्कसपत्तेयसरीरदव्ववग्गणे ति। उक्कस्सपत्तेयसरीरदव्ववग्गणाए वग्गणाओ सिया अस्थि सिया पत्थि । जदि अस्थि तो एक्को वा दो वा जा उक्कस्सेण वल्लरिदाहादिसु आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ सरिसधणियवग्गणाओ वट्टमाणकाले लन्भंति । अदीदकाले वि एक्के किस्से वग्गणाए सरिसधणियवग्गणाओ एत्तियाओ चेव होंति ; एत्तो अहियाणमेत्थ संभवाभावादो । जधा पत्तेयसरीरवग्गणा परू विदा तधा बादरणिगोदवग्गणा वि परूवेदव्वा । जल-थल-आगा. सादिसु सव्वजहणियाए सुहमणिगोदवग्गणाए वग्गणाओ सिया अस्थि सिया णस्थि । जदि अस्थि तो एक्को वा दो वा तिणि वा जा उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभाग मेताओ सरिसणियसहमणिगोदवग्गणाओ वट्टमाणकाले होति । एबमभवसिद्धियपाओग्गपत्तेयसरीरवग्गणाणं उत्तरिहाणेण यवं जाव जवमझे ति । पुणो जवमझे वि आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तसरिसधणियवग्गणाओ होति । पुणो पत्तेयसरीरवग्गणाविहाणेण उवरि यवं जाव उक्कस्ससुहमणिगोदवग्गणे त्ति । पत्तेयसरीर-बादर-सुहमणिगोदवग्गणासु वडिहाणीणं पमाणमेगा चेव वग्गणा; वड्ढीए अभावसंभवे एगवग्गणवड्ढीए विरोहाभावादो । अदीदकाले पत्तेयसरीर-बादर-सुहमणिगोदवग्गणाओ सरिसधणियाओ अणंताओ किण्ण लभंति? ण, एक्कम्हि काले
भागप्रमाण वर्गणायें होकर भी पूर्ववर्गणासे बिशेष हीन है। इस प्रकार उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणाके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर द्रव्यवर्गणाकी वर्गणायें कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो एक है, दो हैं, तीन हैं, इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे बल्लरी दाह आदिमें आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण सदृश धनवाली वर्गणायें वर्तमान कालमें प्राप्त होती हैं। अतीत काल में भी एक एक वर्गणाकी सदृश धनवाली वर्गणायें इतनी ही होती हैं, क्योंकि, इनसे अधिक यहां पर सम्भव नहीं है। जिस प्रकार प्रत्येकशरीरवर्गणाका कथन किया है उस प्रकार बादरनिगोदवर्गणाका भी कथन करना चाहिए। जल, स्थल और आकाश आदिकमें सबसे जघन्य सूक्ष्म निगोदवर्गणाकी वर्गणायें कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं । यदि हैं तो एक है, दो है, तीन हैं, इसप्रकार उन्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण सदृश धनवाली सूक्ष्म निगोदवर्गणायें वर्तमान कालमें हैं। इस प्रकार अभव्यप्रायोग्य प्रत्येकशरीरवर्गणाओंको उक्तविधिसे यवमध्यके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । पुन: यवमध्यमें भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण सदृश धनवालो वर्गणायें हैं । पुनः प्रत्येकशरीरवर्गणाकी विधिसे उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोद वर्गणाके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । प्रत्येकशरीर, बादरनिगोद और सूक्ष्मनिगोद वर्गणाओंमें वृद्धि और हानिका प्रमाण एक ही वर्गणा है, क्योंकि, वृद्धिका अभाव सम्भव होने पर एक वृद्धि होने में कोई विरोध नहीं आता।
शंका- अतीत कालमें प्रत्येकशरीर, बादरनिगोद और सूक्ष्मनिगोद वर्गणायें सदृश धनवाली अनन्त क्यों नहीं प्राप्त होती हैं ? ..
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१६०)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
समाणभावेण अच्छिदाओ वग्गणाओ सरिसधणियाओ णाम । ण च एक्कम्हि काले एक्किस्सेव वग्गणाए अणंताणं सरिसधणियाणं संभवो अत्थि; आवलियाए असंखेज्ज विभागमेत्ताओ चेव संभवंति त्ति परमगरूवदेसादो । सवजहणियाए महाखंधदम्ववग्गणाए सरिसधणियवग्गणा णियमा णत्थि; अदीदाणागदवट्टमाणकालेसु एक्कम्हि समए एगा चेव महाखंधदव्ववग्गणा होदि ति णियमादो। एवं णेयव्वं जाव उक्कस्समहाखंधदव्ववग्गणे ति । एवं वग्गणपरिमाणाणुगमो ति समत्तमणुयोगद्दारं।
एगसेडि भागाभागाणुगमेण परमाणुपोग्गलदम्यवग्गणा सम्बवग्गणाणं केवडियो भागो? अणंतिमभागो। तं जहा परमाणपोग्गलदव्यवग्गणा णाम एगो परमाणू । तेण सव्ववग्गणदव्वे भागे हिदे जं भागलद्धं* तं विरलेदूण सव्ववग्गणदव्वं समखंडं कादण दिणे एक्केक्कस्स परमाणुपमाणं चेददि । तत्थ एगरूवधरिदं परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम । तदो सिद्धं सा सव्ववग्गणाणमतिमभागो त्ति । संखेज्जपदेसियवग्गणप्पहुडि जाव पत्तेयसरीरवग्गणे ति ताव एदासि एगसेडिवग्गणसलागाओसव्ववग्गणसलागाणमणंतिमभागो त्ति एवं चेव वत्तव्वं । तदो पत्तेयसरीरवग्गणाए उवरिमधुवसुण्णवग्गणाओ सव्ववग्गणाणं केवडियो भागो ? असंखेज्जदिभागो ।
समाधान- नहीं, क्योंकि, एक कालमें समान भावसे अवस्थित वर्गणायें ही सदृश धनवाली कहलाती हैं । परन्तु एक कालमें एक ही वर्गणाकी अनन्त सदश धनवाली वर्गणायें सम्भव नहीं, क्योंकि, आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही वर्गणायें होती हैं ऐसा परमगुरुका उपदेश है।
सबसे जघन्य महास्कन्धद्रव्यवर्गणाकी सदृश धनवाली वर्गणा नियमसे नहीं है, क्योंकि, अतीत, अनागत और वर्तमान काल में एक समय में एकही महास्कन्धद्रव्यवर्गणा होती है ऐसा नियम है। इस प्रकार उत्कृष्ट महास्कन्धद्रव्यवर्गणाके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए ।
- इस प्रकार वर्गणापरिमाणानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। एकश्रेणिभागाभागानगमकी अपेक्षा परमाणपुदगलद्रव्यवर्गणा सब वर्गणाओंके कितने भाग प्रमाण है? अनन वें भागप्रमाण हैं । यथा-परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा एक परमाणुरूप होती है । उसका सब वर्गणाओंके द्रव्य में भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसका विरलन कर और सब वर्गणाओंके द्रव्य के समान खण्ड करके प्रत्येक विरलनके प्रति देने पर एक एकके प्रति एक एक परमाणु प्राप्त होता है । वहां एक विरलनके प्रति प्राप्त द्रव्य परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा है । इसलिए सिद्ध है कि वह सब वर्गणाओंके अनन्तवें भागप्रमाण है । संख्यातप्रदेशी वर्गणासे लेकर प्रत्येकशरीरवर्गणा तक इनकी एकश्रेणिवर्गणाशलाकायें सब वर्गणाशलाकाओंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ऐसा यहां कहना चाहिए । अनन्तर प्रत्येकशरीरवर्गणासे उपरिम ध्रुवशून्यवर्गणायें सब वर्गणाओंके कितने भागप्रमाण हैं? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । यथा-ध्रुवशून्य वर्गणाकी
४ता० प्रती 'णियमाभावादो। एवं ' इति पाठ।।
*ता० प्रती ' भागं लद्धं ' इति पाठः ।
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बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा ( १६१ तं जहा - धुवसुण्णवग्गणाए चरिमवग्गणं सेडीए असंखेज्जविभागेण अंगलस्स असंखेज्जदिमागेण पलिदोमवस्स असंखेज्जदिभागेण जगपदरस्स असंखेज्जदिभागेण च गणिय पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण खंडिय जं लद्धं तत्थेव पक्खित्ते सव्ववग्गणपमाणं होदि । पुणो धवसुण्णवग्गणाए वग्गणसलागाहि भागे हिदे जं भागं लद्धं तस्स पमाणमसंखेज्जाणि जगपदराणि । एदेण सव्ववग्गणपमाणे भागे हि धुवसुण्णवग्गणपमाणं होदि । तदो धुवसुण्णवग्गणाओ सव्ववग्गणाणमसंखेज्जदिभागो त्ति सिद्धं । बादरणिगोदवग्गणाओ सव्ववग्गणाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो। कुदो ? बादरणिगोदवग्गणाहि सव्ववग्गणपमाणे भागे हिदे अंगुलस्स असंखेज्जदिभागण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण च गणिदजगपदरासंखेजदिभागस्स सादिरेयस्स उवलंभादो। वादरणिगोदवग्गणाए उरिमधवसुण्णवग्गणाओ सम्वेगसेडिवग्गणाणं केडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो। कुदो ? धुवसुण्णवग्गणाहि सव्ववग्गणापमाणे भागे हिदे पलिदोवमस्त असंखेज्जदिभागण गणिदजगपदरस्स असंखेज्जदिभागवलंभादो सुहमणिगोदवग्गणाओ सव्ववग्गणाणं केवडियो भागो ? असंखेज्जदि. भागो। कुदो ? सुहमणिगोदवग्गणाहि सव्ववग्गणापमाणे भागे हिदे पदरस्स असंखेज्जदिमागुवलंभादो । सुहमणिगोदवग्गणाए उवरिमधुवसुण्णदव्ववग्गणाओ सम्वग्गणाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जविभागो। कुदो ? सेसवग्गणाहि
अन्तिम वर्गणाको जगश्रेणिके असंख्यातवें भागसे, अंगुलके असंख्यातवें भागसे, पल्यके असंख्यातवें भागसे और जगप्रतरके असंख्यात भागसे गुणित करके और पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे उसी में मिला देने पर सब वर्गणाओंका प्रमाण होता है । पुनः ध्रुवशून्यवर्गणाकी वर्गणाशलाकाओंका भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसका प्रमाण असंख्यात जगप्रतर होता है । इसका सब वर्गणाओंके प्रमाण में भाग देनेपर ध्रुवशन्यवर्गणाका प्रमाण होता है । इसलिए ध्रुवशून्यवर्गणायें सब वर्गणाओंके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह सिद्ध होता है । बादरनिगोदवर्गणायें सब वर्गणाओंके कितने भागप्रमाण है? असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, बादरनिगोदवर्गणाओंका सब वर्गणाओं में भाग देने पर अंगुलके असंख्यातवें भागसे और पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणित साधिक जगप्रतरका असख्यातवां भाग उपलब्ध होता है । बादरनिगोदवर्गणासे आगेकी ध्रुवशून्यवर्गणायें सब एकश्रेणिवर्गणाओंके कितने भाग प्रमाण है ? असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, ध्रुवशून्यवर्गणाओंका सब वर्गणाओं के प्रमाणमें भाग देनेपर पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणित जगप्रतरका असख्यातवां भाग उपलब्ध होता है । सूक्ष्म निगोदवर्गणायें सब वर्गणाओंके कितने भागप्रमाण है? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, क्योंकि, सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंका सब वर्गणाओंके प्रमाणमें भाग देने पर जगप्रतरका असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है। सूक्ष्मनिगोदवर्गणासे आगेकी ध्रुवशून्यद्रव्यवर्गणायें सब वर्गणाओंके कितने भागप्रमाण है ? असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, शेष वर्गणाओंका सब वर्गणाओंके द्रव्यमें भाग देने पर
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१६२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
{ ५, ६, ११६
सव्ववग्गणदव्वे भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागवलंभादो। महाखंधदव्ववग्गणाओ सववग्गणाणं केवडियो भागो ? असंखेज्जदिभागो । कुदो ? महाखंधदव्ववग्गणाहि सव्ववग्गणपमाणे भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागुवलंभादो। चउत्थधुवसुण्णवग्गणाए चरिमवग्गणं पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागेण खंडिदे तत्थ एगखंडम्मि जत्तियाणि रूवाणि तत्तियमेत्ताओ महाखंधएगसेडिवम्गणाओ होंति त्ति गुरूवदेसादो वा।
जाणासेडिवग्गणभागाभागाणगमेण महाखंधणाणासेडिवग्गणाओ गाणासेडिसव्ववग्गणाणं केवडिओ भागो? अणंतिमभागो। कुदो? महाखंधदव्ववग्गणाए एगत्तादो। सुहमणिगोदणाणासेडिवग्गणाओ सव्वणाणसेडिवग्गणाणं केवडियो भागो? अगंतिमभागो। कुदो? वट्टमाणकाले असंखेज्जलोगमेत्तणाणासेडिसुहमणिगोदवग्गणाहिणाणासेडिसव्ववम्गणपमाणे भागे हिदे अणंतरूववलंभादो। एवं बादरणिगोदवग्गणाणं पत्ते. यसरीरवग्गणाणं पिवत्तव्वं; असंखेज्जलोगमेत्तवग्गणाणमत्थित्तणेण भेदाभावादो। सांतरणिरंतरणाणासेडिवग्गणाओ सववम्गणाणं केवडिओ भागो? अणंतिमभागो । एवं
यव्वं जाव असंखेज्जपदेसियवग्गणे त्ति । असंखेज्जपढेसियवग्गणाओ सव्ववग्गणाण केवडिओ भागो? असंखेज्जा भागा । संखेज्जपदेसियवग्गणाओ एयपदेसियवग्गणा च सव्ववग्गणाणं केवडिओ भागो? असंखेज्जदिभागो। कुदो? एकपसियवग्गणायामादो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उपलब्ध होता है । महास्कन्धद्रव्यवर्गणायें सब वर्गणाओंके कितने भागप्रमाण हैं ? असख्यातवें भागप्रमाण हैं, क्योंकि, महास्कन्ध द्रव्यवर्गणाओंका सब वर्गणाओंके प्रमाण भाग देने पर पल्यका असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है । अथवा चौथी ध्रुवशून्यवर्गणाकी अन्तिम वर्गणाको पल्यके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर वहां एक खण्डमें जितने अंक उपलब्ध होते हैं उतनी महास्कन्धएकश्रेणिवर्गणायें होती हैं ऐसा गुरुका उपदेश है।
नानाश्रेणिवर्गणाभागाभागानुगमकी अपेक्षा महास्कन्धनानाश्रेणिवर्गणायें नानाश्रेणि सब वर्गणाओंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं, क्योंकि, महास्कन्धद्रव्यवर्गणा एक है। सूक्ष्मनिगोदनानाश्रेणिवर्गणायें सब नानाश्रेणिवर्गणाओंके कितने भागप्रमाण हैं? अनन्तवे भागप्रमाण हैं, क्योंकि, वर्तमान काल में असख्यात लोकप्रमाण नानाश्रेणिसूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंका नानाश्रेणि सब नर्गणाओके प्रमाण में भाग देने पर अनन्त रूप उपलब्ध होते हैं । इसी प्रकार बादरनिगोदवर्गणाओं और प्रत्येकशरीरवर्गणाओंका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि, असंख्यात लोकप्रमाण वर्गणाओंके अस्तित्वकी अपेक्षा इनमें पूर्व वर्गणाओंसे कोई भेद नहीं है । सान्तरनिरन्तरनानाश्रेणिवर्गणायें सब वर्गणाओंके कितने भागप्रमाण है ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । इस प्रकार असंख्यातप्रदेशी वर्गणाके प्राप्त होने तक कथन करना चाहिए। असंख्यातप्रदेशी वर्गणायें सब वर्गणाओंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। संख्यातप्रदेशी वर्गणार्य और एकप्रदेशी वर्गणा सब वर्गणाओंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
म० प्रती 'महाखंधणाणासेडिसनवग्गणाणं' इति पाठः 1
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५, ६, ११६. )
बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा
( १६३
दुपदेसियवग्गणायामो विसेसहीणो। तस्स को पडिभागो? असंखंज्जा लोगा । एदेण कमेण भागहारस्स अद्भमेतं गंतूण दुगणहाणी होदि त्ति गुरूवदेसादो । एवं वग्गणाभागाभागाणुगमो त्ति समत्तमणयोगद्दारं ।
एगसेडिवग्गणअप्पाबहुगाणगमेण सव्वत्थोवा परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा । कुदो ? एगरूवत्तादो । संखेज्जपदेसियदव्यवग्गणा संखेज्जगुणा । को गुणगारो ? रूवणुक्क. स्ससंखेज्जयं । असंखेज्जपदेसियवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ। को गुणगारो ? सगरासिस्स संखेज्जदिभागभदअसंखेज्जा लोगा। को पडिभागो? संखेज्जपदेसियवग्गणाओ। आहारदव्ववग्गणाओ अणंतगुणाओ। को गुणगारो? सगरासिस्स असंखेज्ज' दिभागो। को पडिभागो? असंखेज्जपदेसियदव्ववग्गणाओ। अथवा गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंतगणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो । तेजादववग्गणाओ अगंतगणाओ। को गुणगारो ? सगरासिस्स अणंतिमभागो। तस्स को पडिभागो? आहारदव्ववग्गणाओ । भासादब्यवग्गणाओ अणंतगणाओ । मणदव्यवग्गणाओ अणंतगणाओ। कम्पइयदव्ववग्गणाओ अणंतगुणाओ । सव्वत्थ अप्पप्पणो हेट्ठिमएगसेडिसव्वघग्गणाहि* उवरिमएगसेडिसव्ववग्गणासु अवहिरिदासु गणगाररासी आगच्छति । असंखेज्जपदेसियदव्ववग्गणाए उवरि आहारवग्गणाए हेट्ठा अणंतपदेसियदव्ववग्गणाओ
क्योंकि, एकप्रदेशी वर्गणाके आयामसे द्विप्रदेशी वर्गणाका आयाम विशेष हीन है । उसका प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक उसका प्रतिभाग है । इस क्रमसे भागहारके अर्धभाग तक जाकर द्विगुणी हानि होती है ऐसा गुरुका उपदेश है।
इस प्रकार वर्गणाभागाभागानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
एकश्रेणिवर्गणाअल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा सबसे स्तोक है, क्योंकि, उसका प्रमाण एक है। उससे संख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणा संख्यातगुणी है। गुणकार क्या है एक कम उत्कृष्ट संख्यात गणकार है। उससे असंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है? अपनी राशि के संख्यातवें भागप्रमाण अर्थात् असंख्यात लोक गुणकार है। प्रतिभाग क्या है? संख्यातप्रदेशी वर्गणायें प्रतिभाग है। उससे आहारद्रव्यवर्गणायें अनन्तगुणी हैं । गुणकार क्या है? अपनी राशि का असंख्यातवां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है? असंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणायें प्रतिभाग है । अथवा गुणकार अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है । उससे तैजसशरीरद्रव्यवर्गणायें अनन्तगुणी हैं । गुणकार क्या है? अपनी राशिका अनन्तवां भाग गुणकार है । उसका प्रतिभाग क्या है? आहारद्रव्यवर्गणायें प्रतिभाग है । उससे भाषाद्रव्यवर्गणायें अनन्तगुणी हैं । उससे मनोद्रव्यवर्गणायें अनन्तगुणी हैं। उससे कार्मणद्रव्यवर्गणायें अनन्तगुणी हैं । सर्वत्र अपनी अपनी पिछली एकश्रेणिद्रव्यर्गणाओंका आगेकी एकश्रेणि सब वर्गणाओंमें भाग देने पर गुणकारराशि उत्पन्न होती है । असंख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणाके आगे और आहारशरीरद्रव्यवर्गणाके पूर्व अनन्तप्रदेशी
*म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिष -सेडिदव्ववग्गणाहि' इति पाठः ।
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१६४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ११६ अणंतगुणाओ। कुदो ? उवरि ट्रविदचत्तारिगणगारेहितो हेवा ट्रविदभागहारस्स अणंतगुणस्स आहारहेटिमअगहणदव्ववग्गणायामप्पायणटुं जहण्णपरित्ताणंतस्स टुविदगुणगारादो अणंतगुणहीणत्तवलंभादो। कुदो एवं णव्वदे ? गुरूवदेसादो । तेजइयस्स हेट्ठा आहारदव्ववग्गणाए उवरि बिदियअगहणदव्ववग्गणाओ अणंतगुणाओ। तेजइयस्स उवरि भासावग्गणाए हेट्ठा तदियअगहणदव्यवग्गणाए सव्वएगसेडिवग्गणाओ अणंतगणाओ। भासावग्गणाए उवरि मणस्स हेटा च उत्थअगहणदवववग्गणाए सव्वएग. सेडिवग्गणाओ अणंतगुणाओ। मणस्स उवरि कम्मइयस्स हेट्ठा पंचमअगहणदव्ववग्गणाए सव्वएगसेडिदव्ववग्गणाओ अणंतगणाओ। गणगारो सव्वत्थ अभवसिद्धिएहि अणंतगणो सिद्धाणंतिमभागमेत्तो। पुणो धुवक्खंधदव्ववग्गणाए सव्वएगसे डिवग्गणाओ अणंतगुणाओ। को गुणगारो ? सव्वजोवेहि अणंतगणो। तस्स को पडिभागो ? पंचमअगहणवग्गणाओ । अचित्तअर्धवखंधदव्ववग्गणाए सव्वएगसेडिवग्गणाओ अणंतगुणाओ। को गुणगारो ? सव्वजीवेहि अणंतगणो । सांतरणिरंतरवग्गणाए उवरि पत्तेयसरीरवग्गणाए हेट्ठा पढमधुवसुण्णवग्गणाए सव्वएगसेडिआगासपदेसवग्गणाओ अणंतगुणाओ। को गुणगारो ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो । पत्तेयसरीरवग्गणाए सव्वएगसेडिवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ। को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। द्रव्यवर्गणायें अनन्तगुणी हैं, क्योंकि, आगे स्थापित किये गये चार गुणकारोंसे पूर्व में स्थापित किया गया अनन्तगुणा भागहार आहारवर्गणासे पूर्व अग्रहणद्रव्यवर्गणाके आयामके उत्पन्न करने के लिए जघन्य परीतानन्तके स्थापित किये गये गुणकार से अनन्तगुणा हीन उपलब्ध होता है।
शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- गुरुके उपदेशसे जाना जाता है ।
तेजसशरीर से पूर्व और आहारद्रव्यवगंणाके आगे दूसरी अग्रहणद्रव्यवर्गणायें अनन्तगणी हैं। तैजसशरीरसे आगे और भाषावर्गणाके पूर्व तीसरी अग्रहणद्रव्यवर्गणाकी सब एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं। भाषावर्गणासे आगे और मनोवर्गणासे पूर्व चौथी अग्रहणद्रव्यवर्गणाकी सब एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं। मनोवर्गणाके आगे और कार्मणवर्गणाके पूर्व पांचवी अग्रहणद्रव्यवर्गणाकी सब एकश्रेणिद्रव्यवर्गणायें अनन्तगुणी हैं। गुणकार सर्वत्र अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है। पुनः ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणाकी सब एकश्रेणिवर्गणायें अनन्त गुणी हैं। गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है। उसका प्रतिभाग क्या है ? पांचवीं अग्रहणवर्गणायें प्रतिभाग है। अचित्तअध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणाकी सब एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं। गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गणकार है। सान्तर-निरन्तरवर्गणाके आगे और प्रत्येकशरीरवर्गणाके पूर्व प्रथम ध्रुवशन्यवर्गणाकी सब एकश्रेणिआकाशप्रदेशवर्गणायें अनन्स गुणी हैं। गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है। प्रत्येकशरीरवर्गणाकी सब एकश्रेणिवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। गणकार क्या है ? पल्यका असंख्यातवां भाग गुणकार है। उसका प्रतिभाग क्या है ? प्रथम
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५, ६, ११६. )
योगद्दारे से साणुयोगद्दारपरूवणा
( १६५
तस्स को पडिभागो ? पढमधुवसुण्णवग्गणाओ । पत्तेयसरीरवग्गणाए उवरि बादरनिगोदवग्गणाए हेट्ठा बिदियधुवसुण्णवग्गणाए सव्व एगसेडिआगासपदेस वग्गणाओ अनंतगुणाओ । को गुणगारो ? अनंता लोगा । तं जहा- एगबादरते उक्काइयवज्जतजीवं ट्ठविय पुणो एदस्स अभवसिद्धिएहि अनंतगुण- सिद्धाणमणंत भागमेत्तओरालियतेजा - कम्मइयपरमाणू सव्वजीवेहि अनंतगुणमेतसगसगविस्सासुवचएहि गुणिय एगट्ठ काढूण गुणगारे ट्ठविदे एगजीवस्स दव्वपमाणं होदि । पुणो एदस्त जीवस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे गुणगारे द्वविदे उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणा होदि । पुणो एवं बावरणिगोदजीवं दृविय एदस्स पस्से अभवसिद्धिएहि अनंतगुण- सिद्धाणमणंतमेत्तओरालिय-तेजा-कम्मइयपरमाणू सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तसगविस्तासुवचएहि गुणिदे एगट्ठीकदे गुणगारभावेण दुविदे एगजीवदव्वं होदि । पुणो एरिसा बादरणिगोदजीवा एगणिगोदसरीरम्हि सव्वजीवरासिस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता अस्थि त्ति काऊण असंखेज्जलोगोवट्टिदसव्व जीवरासिणा पुग्विल्लएगजीवदव्वे गुणिदे एगणिगोदसरीरवव्वं होदि । पुणो तम्मि असंखेज्जलोगेहि एगबादरणिगोदवग्गणसरीरेहि गुणिदे एगपुलवियाए दव्वं होदि । पुणो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवियसलागाहि गुणिदे सम्वजहण्णबादरणिगोदवग्गणा होदि । पुणो एत्थ एगवे अवणिदे उक्कस्सधुवसुण्णवग्गणपमाणं होदि । पुणो एदम्हि ध्रुवशून्य वर्गणा प्रतिभाग है । प्रत्येकशरीरवर्गणाके आगे और बादरनिगोदवर्गणा के पूर्व दूसरी ध्रुवशून्यवगणाकी सब एकश्रेणिआकाशप्रदेश वर्गगायें अनन्तगुणी हैं । गुणकार क्या है ? अनन्त लोक गुणकार है । यथा- एक बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवको स्थापित कर पुनः इसके अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर के परमाणुओंको सब जीवोंसे अनन्तगुणे अपने अपने विस्रसोपचयों से गुणित कर और एकत्र कर गुणकाररूप से स्थापित करने पर एक जीवका द्रव्यप्रमाण होता है । पुनः इसका पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार स्थापित करने पर उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणा होती है । पुनः एक बादरनिगोद जीवको स्थापित कर इसके पार्श्व में अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर परमाणुओंको सब जीवोंसे अनन्तगुणे अपने विस्रसोपचयोंसे गुणित कर और एकत्र कर गुणकाररूपसे स्थापित करनेपर एक जीवका द्रव्य होता है । पुन: इस प्रकार बादर निगोद जीव एक निगोदशरीर में सब जीवराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ऐसा समझ कर असंख्यात लोक से भाजित सब जीवराशिसे पहले के एक जीवद्रव्यके गुणित करने पर एक निगोदशरीरका द्रव्य होता है । पुनः उसे असंख्यात लोकप्रमाण एक बादरनिगोदवर्गणाशरीरोंसे गुणित करने पर एक पुलविका द्रव्य होता है । पुनः आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलविशलाकाओंसे गुणित करने पर सबसे जघन्य बादरनिगोदवर्गणा होती है । पुनः इसमें से एक अंकके कम कर देनेपर उत्कृष्ट ध्रुवशून्य वर्गणाका प्रमाण होता है । पुनः इसमें उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाका भाग देने पर ता० प्रती 'लोगे वड्ढि सव्व - अ० का० प्रत्योः ' - लोगोवद्विदे सव्व -' इति पाठ: 1
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए भागे हिदे कम्मणोकम्मविस्सासुवचयसहिय उवरिल्लपोगलपुंजादो हेटिमपोग्गलपुंजो सरिसो त्ति अवणिय उवरिल्लआवलियाए असंखेज्जविभागेण गुणिदअसंखेज्जलोगेहि हेढिल्लअसंखेज्जलोगेसु ओवट्टिदेसु असंखेज्जा लोगा लभंति । पुणो एदे असखेज्जे लोगे पुविल्लपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण गणिय एदेहि सव्वजीवरासिम्हि भागे हिदे अणंता लोगा आगच्छति । पुणो एदेहि सम्वुक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए गुणिवाए उक्कस्सधुवसुण्णवग्गणादो हेट्ठिमसव्वधुवसुण्णवग्गणाओ होति ।
एत्थ के वि आइरिया उक्कस्सपत्तयसरीरवग्गणादो उवरिमधुवसुण्णएगसेडी असंखेज्जगणा। गुणगारो वि घणावलियाए असंखेज्जदिभागो ति भणति तण्ण घडदे। कुदो ? संखेज्जेहि असंखेजेहि वा जोवेहि जहण्णबादरणिगोदवग्गणाणुप्पत्तीदो। आलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तपुलवियाहि विणा जहण्णबादरणिगोदवग्गणा ण उप्पज्जदि; बादरणिगोदवग्गणाए जहणियाए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता णिगोदाणं त्ति सुत्तणिद्दे सादो। एक्के क्किस्से पुलवियाए सरीरपमाणमसंखेज्जा लोगा। एक्केक्कम्हि सरीरे अणंता णिगोदजीवा अणंताणतकम्मणोकम्मपोग्गलभारवहिणो अस्थि, 'प्रत्येकमात्मदेशाः कवियवैरनन्तकैबंद्धाः' इति वचनात् । तम्हा अणंता लोगा गुणगारो त्ति एवं चेव घेत्तव्वं । उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए विस्सासुवचयगुणगारो
कर्म और नोकर्मके विस्रसोपचय सहित उपरिम पुद्गल पुञ्जमेंसे अधस्तन पुद्गलपुञ्ज सदृश है इसलिए निकाल कर उपरिम आवलिके असंख्यातवें भागसे गुणित असंख्यात लोकोंसे अधस्तन असंख्यात लोकों के भाजित करने पर असंख्यात लोक लब्ध आते हैं । पुनः इन असंख्यात लोकोंको पहले के पल्पके असंख्यातवें भागसे गुणित कर इनका सब जीवराशिमें भाग देने पर अनन्त लोक आते हैं । पुनः इनसे सर्वोत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाके गुणित करने पर उत्कृष्ट ध्रुवशून्यरूपसे अधस्तन सब ध्रुवशून्यवर्गणायें होती हैं ।
यहां पर कितने ही आचार्य उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवगणासे उपरिम ध्रवशन्यएकश्रेणि असंख्यातगुणी है और गुणकार भी धनावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा कहते हैं, परन्तु बह घटित नहीं होता, क्योंकि, संख्यात या असंख्यात जीवोंसे जघन्य बादरनिगोदवर्गणाकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण पुलवियोंके बिना जवन्य बादरनिगोदवर्गणा नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि, 'बादरणिगोदवम्गणाए जहण्णियाए आवलियाए असंखेज्ज. दिभागमेत्ता णिगोदाणं' ऐसा सूत्रका निर्देश है । एक एक पुलविमें सरीरोंके प्रमाण असंख्यात लोक हैं । एक एक शरीरमें अनन्तानन्त कर्म-नोकर्मपुद्गल भारसे युक्त अनन्त निगोद जीव हैं, क्योंकि, आत्माका प्रत्येक देश अनन्त कर्मपरमाणुओंसे बद्ध है ऐसा वचन है, इसलिए अनन्त लोक गुणकार है यह वचन ही ग्रहण करना चाहिए।
शंका-उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाके विस्रसोपचयका गुणकार चूंकि अनन्त है और
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० का० प्रत्योः
आगच्छदि
इति 478.shal Use Only
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५, ६, ११६. )
गद्दारे सेाणुयोगद्दारपरूवणा
( १६७
जेण अणंतो जहण्णबादरणिगोदवग्गणा च विस्सासुवचएण जहण्णा तेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो गुणगारो त्ति ण घडदे * ? ण; जहण्णपत्तेयसरीरवग्गणादो उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए अनंतगुणत्तप्प संगादो। ण च एवं गुणगारो वलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो चेव होदि त्ति गुरूवदेसेण अवगदत्तादो । जहण्णादो उक्कस्से विस्सासुवचए गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो त्ति कुदो णव्वदे ? पुव्वृत्तविस्सा सुवचयअप्पा बहुगादो । तं जहा- सव्वत्थोवो ओरालिय सरीरस्स सम्वपदेस पडे जहणओ विस्सासुवचओ । तस्सेव उक्कस्सओ विस्तासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । तदो वेउव्वियसरीरस्स सव्वपदेसपिंडे सव्वजहग्णओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्ज - दिभागो | तस्सेव उक्कस्सओ विस्तासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । आहारसरीरस्स सव्वम्हि पदेसपिंडे जहण्णओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जदिभागो । तस्सेव उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्त असंखंज्जदिभागो । तेजासरीरस्स सव्वहि पदेसपिडे जहण्णओ विस्तासुवचओ अनंतगुणो । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणतगुणो सिद्धाणमणंतभागो ।
जघन्य बादर्शनगोदवर्गणा विस्रसोपचयसे जघन्य है, अतः गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह घटित हो जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इस प्रकार जघन्य प्रत्येकशरीरवर्गणासे उत्कृष्ट प्रत्येकशरीय वर्गणा अनन्तगुणे प्राप्त होनेका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है ऐसा गुरुके उपदेशसे जाना जाता है |
शंका- जघन्यसे उत्कृष्ट विस्रसोपचयके प्राप्त होने में गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- पूर्वोक्त विस्रसोपचय अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । यथा - औदारिकशरीर के सब प्रदेश पिण्ड में जघन्य विस्रसोपचय सबसे थोडा है। उससे उसीका उत्कृष्ट विस्र सोपचय असंख्या गुणी | गुणकार क्या है ? पल्यका असंख्यातवां भाग गुणकार है । उससे वैक्रियिकशरीर के सब प्रदेशपिण्ड में सबसे जघन्य विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है? जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग गुणकार है। उससे उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पत्यका असंख्यातवां भाग गुणकार है । उससे आहारकशरीरका सब प्रदेशपिण्ड में जघन्य विसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग गुणकार है । उससे उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्यका असंख्यातवां भाग गुणकार है । उससे तैजसशरीरका सब प्रदेशपिण्डमें जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण
म० प्रतिपाठोऽयम् | प्रतिषु 'त्ति घडदे ' इति पाठः ।
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१६८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
तस्सेव उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगणो। को गणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो। कम्मइयसरीरस्त सम्वम्हि पदेसपिंडे जहण्णओ विस्सासुवचओ अणंतगणो । को गुणगारो? अभवसिद्धिएहि अणंतगणो सिद्धाणमणंतभागो। तस्सेव उक्कस्सओ विस्तासुवचओ असंखेज्जगणो। को गणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो त्ति । बादरणिगोदवग्गणाए सम्वेगसेडिवग्गणाओ असंखेज्जगणाओ। को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जविभागो। कथमेदं णव्वदे? बादरणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए सेडीए असंखेज्जविभागमेतो णिगोदाणं त्ति चलियासुत्तादो णवदे । के वि आइरिया: असंखेज्जपदरावलियाओ गणगारो ति भणंति तण्ण घडदे; चुलियासुत्तेण सह विरोहादो। विस्सासुवचयगुणगारं पड़च्च गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो होदि । ण च एसो पहाणो; सेढीए असंखेज्जदिभागस्स पुलवियाणं गुणगारस्स पहाणत्तवलंभादो । बादरणिगोदवग्गणाणमवरि सुहमणिगोदवग्गणाए हेटा तदियधुवसुण्णवग्गणाए सम्वएगसेडिआगासपदेसवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ । को गुणगारो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। कुदो? उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणाए जीवेहितो जहण्णसुहमणिगो. दवग्गणाजीवाणमंगलस्स असंखेज्जदिभागगुणगारुवलंभादो। कुदो एदमवगम्मदे ? गुणकार है । उससे उसीकी उत्कृष्ट विनसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उससे कार्मणशरीरका सब प्रदेशपिण्ड में जधन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है । उससे उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
बादरनिगोदवर्गणाको सब एकश्रेणिवर्गणायें असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-'बादरगिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तो णिगोदाणं' इस चूलिकासूत्रसे जाना जाता है।
कितने ही आचार्य असंख्यात प्रतरावलिप्रमाण गुणकार है ऐसा कहते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, चूलिकासूत्रके साथ विरोध आता है । यद्यपि विस्रसोपचयगुणकारको अपेक्षा गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, परन्तु यह प्रधान नहीं है, क्योंकि, जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण पूलवियोंके गणकारकी प्रधानता उपलब्ध होती है।
बादरनिगोदवर्गणाओंसे आग और सूक्ष्मनिगोदवर्गणाके पूर्व तीसरी ध्रुवशून्यवर्गणाकी सब एकश्रेणिआकाशप्रदेशवर्गणायें असंख्यातगणी हैं। गणकार क्या है ? अङगलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणाके जीवोंसे जघन्य सूक्ष्मनिगोदवर्गणाके जीवोंका गुणकार अमुलके असंख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है।
* आ० प्रती केत्तिआ आइरिया' इति पाठ । ४ म० प्रति पाठोऽयम् । ता० प्रती 'पुढ ( ल ) वीयाणं ' अ० का० प्रत्योः 'पूढवियाणं ' इति पाठ: ।
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५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा ( १६९ अविरुद्धाइरियवयणादो । सुहमणिगोदवग्गणाए सव्वएगसेडिवग्गणाओ असंखेज्जगणाओ। को गुणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो । महाखंधवग्गणाए सव्वएगसेडिवग्गणाओ असंखेज्जगणाओ। को गणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो । तं जहा- सव्वएगसेडिसुहमणिगोदवग्गणाओ टुविय पदरस्स असंखेज्जदिभागेण गुणिदे तिस्से चेव उवरिमध्वसुण्णएगसेडिवग्गणसव्ववग्गणपमाणं होदि । पुणो तस्स हेट्ठा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तभागहारे ?विदे महाखंधसव्वएगसेडिवग्गणपमाण होदि । पुणो एत्थ सुहमणिगोदसव्वएगसेडिवग्गणाहि भागे हिदे पदरस्स असंखेज्जदिभागो गुणगारो आगच्छदि ति घेत्तव्वं । सुहमणिगोदवग्गणाए उवरि महाखंधदव्ववग्गणाए हेट्ठा चउत्थधुवसुण्णसव्वएगसेडिवग्गणाओ असंखेज्जगणाओ। को गणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कारणं सुगमं । एवमेगसेडिवग्गणअप्पाबहुअं भणिदं।
___ संपहि णाणासेडिवग्गणप्पाबहुअं भणिस्सामो । तं जहा-सव्वत्थोवा महाखंधदव्ववग्गणाए दव्वा। कुदो? एगतादो। बादरणिगोदवग्गणाए दव्या असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । तं जहा-बादरणिगोदवग्गणाओ वट्टमाणकाले अभवसिद्धियपाओग्गसव्वजहणवग्गणाए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीयो सरिसधणियाओ लब्भंति । पुणो उवरि समयाविरोहेण विसेसाहियकमेण गंतूण जबमज्झटाणे वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ सरिसधणियवग्गणाओ
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आचार्यों के विरोध रहित वचनसे जाना जाता है ।
सूक्ष्म निगोदवर्गणाकी सब एकश्रेणिवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है? पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण गुणकार है । महास्कन्धवर्गणाकी सब एकश्रेणिवर्गणायें असंख्यातगणी हैं। गणकार क्या है? जगप्रतरका असंख्यातवां भागप्रमाण गुणकार है। यथा-सब एकश्रेणिसक्ष्मनिगोदवर्गणाओंको स्थापित कर जगप्रतरके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर उसकी आगेकी ध्रवशन्यएकश्रेणिवर्गणाकी सब वर्गणाओंका प्रमाण होता है । पुनः उसके नीचे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारके स्थापित करने पर महास्कन्ध सब एकश्रेणिवर्गणाओंका प्रमाण होता है । पुनः यहां सूक्ष्म निगोद सब एकश्रेणिवर्गणाओंसे भाजित करने पर जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार आता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । सूक्ष्म निगोदवर्गणासे आगे और महास्कन्धद्रव्यवर्गणासे पूर्व चौथी ध्रुवशून्य सब एकवेणि वर्गणायें असंख्यातगुणी हैं । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यात भागप्रमाण गुणकार है । कारण सुगम है। इसप्रकार एकश्रेणिवर्गणाअल्पबहुत्व कहा।
अब नानाश्रेणिवर्गणाअल्पबहुत्वको कहेंगे । यथा- महास्कन्धद्रव्यवर्गणाके द्रव्य सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वह एक है । उनसे बादरनिगोदवर्गाके द्रव्य असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या हैं? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । यथा-बादरनिगोदवर्गणायें वर्तमान काल में अभव्यप्रायोग्य सर्व जघन्य वर्गणाके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण सदृश धनवाली प्राप्त होती हैं। पूनः ऊपर आगमाविरुद्ध विशेष अधिक क्रमसे जाती हुई यवमध्यमें भी सदृश धनवाली
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१७०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ११६ लभंति । पुणो उवरि समयाविरोहेण विसेसहीणकमेण गंतण उकस्सबादरणिगोदवग्गणाओ वि सरिसधणियाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ त्ति लभंति । पुणो एत्थ विसेसाहियकमेण द्विवाओ चेव घेतण अवराओ मोत्तूण जवमज्झपमाणेण हेट्ठिमउवरिमदव्वे कदे तिण्णिगणहाणिमेत्तजवमझं होदि । एत्थ एगवग्गणं टुविय आवलियाए असंखेज्जविभागण गणिदे जवमज्झपमाणं होदि। पुणो एदम्मि तीहि गुणहाणीहि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताहि गणिदे सव्वदव्वं होदि । पुणो महा. खंधदव्ववग्गणसलागाए ओट्टिदे आलियाए असंखज्जदिभागो गणगारो आगच्छदि । एसो गुणगारो सेचीयढाणेसु वग्गणावद्वाणक्कमजाणावणटुं परूविदो । एत्थ परमत्थदो पुण गुणगारो असंखेज्जदिलोगमेत्तो होदि । तं जहा- वट्टमाणकाले बादरणिगोदाणं सयलपुलवियाओ असखज्जलोगमेत्ताओ पादेक्कमसंखेज्जलोगमेत्तसरी. रेहि आरिदाओ अस्थि। कुदो एवं णव्वदे? अविरुद्धाइरियवयणादो सुत्तसमाणादो। पुणो आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तपुलवियाहि जदि एगा बादरणिगोदवग्गणा लब्भदि तो असंखेज्जलोगमेत्तपुलवियासु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए असंखेज्जलोगमेत्ताओ बादरणिगोदवग्गणाओ लन्भंति । तेण महाखंधदव्ववग्गणादो बादरणिगोदवग्गणाणं गुणगारो असंखेज्जलोगमेत्तो त्ति सिद्धं ।
आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती हैं। पुनः ऊपर समयके अविरोधसे विशेष हीन क्रमसे जाती हुई सदृश धनवाली उत्कृष्ट बादरणिगोदवर्गणायें भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती हैं । पुनः यहां पर विशेष अधिकके क्रमसे स्थित वर्गणाओंको ही ग्रहण कर और दूसरी वर्गणाओंको छोडकर अधस्तन व उपरिम द्रव्य के यवमध्यके प्रमाणसे करनेपर तीन गुणहानिप्रमाण यवमध्य होता है। यहां एक वर्गणाको स्थापित कर आवलिके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर यवमध्यका प्रमाण होता है। पुनः इसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण तीन गुणहानियोंसे गुणित करने पर सब द्रव्य होता है। पुनः महास्कन्धद्रव्वयर्गणाशलाकासे भाजित करनेपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार आता है। यह गुणकार सेचीयस्थानोंमें वर्गणाओंके अवस्थानक्रमका ज्ञान करानेके लिए कहा है। परन्तु यहां पर परमार्थसे गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण होता है। यथा- वर्तमान कालमें बादरनिगोदकी सब पुलवियां असंख्यात लोकप्रमाण होकर प्रत्येक असंख्यात लोकप्रमाण शरीरोंसे आपूरित हैं ।
शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- सूत्रके समान अविरुद्ध आचार्य वचनसे जाना जाता है।
पुनः आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंसे यदि एक बादरनिगोदवर्गणा प्राप्त होती है तो असंख्यात लोकप्रमाण पुलवियों में क्या प्राप्त होगा इस प्रकार फलगुणित इच्छाको प्रमाणसे भाजित करने पर असंख्यात लोकप्रमाण वादरनिगोदवर्गणायें प्राप्त होती हैं। इसलिए महास्कन्धद्रव्यवर्गणासे बादरनिगोदवर्गणाओंका गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है यह सिद्ध होता हैं।
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५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा ( १७१
सुहमणिगोदवग्गणाए णाणासेडिसव्ववग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। बादरणिगोदवग्गणाओ जवमज्झवग्गणपमाणेण कदे तिणिगणहाणिमेत्ताओ होंति । सुहमणिगोदवग्गणाओ वि जवमज्झपमाणेण कदे तिणि चेव गणहाणीयो होति । तम्हा बादरणिगोदवग्गणाहि सह सुहमणिगोदवग्गणाओ सरिसाओ ति वत्तव्वं । बादरणिगोदवग्गणाहितो सुहुमणिगोदवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ त्ति ण घडदे ? एत्थ परिहारो उच्चवे-सरिसाओ ण होंति ; बादरणिगोदजवमज्झसरिसधणियवग्गणाहितो सहमणिगोदजवमज्झसरिसधणियवग्गणाणं तिण्णिगुणहाणीहितो एत्थतणतिग्णं गुणहाणीणं च असंखेज्जगुणत्तदसणादो । कुदो एवं णवदे ? असंखेज्जगणतण्णहाणुववत्तीदो। सामण्णप्पणाए पुण गुणगारो असंखेज्जा लोगा। कुदो ? बादरणिगोदजीवेहितो सुहमणिगोदजीवा असंखेज्जगुणा। एत्थ गुणगारो असंखेज्जा लोगा। तेण कारणेण बादरणिगोदपुलवियाहितो सुहमणिगोदपुलवियाओ असंखेज्जगुणाओ। एत्थ वि गुणगारो असंखेज्जा लोगा। आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तसुहमणिगोदपुलवियाहि जदि एगा सुहमणिगोदवग्गणा लब्भवि तो असंखेज्जलोगमेत्तसुहमणिगोदपुलवियासु कि लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए असंखेज्जलोगमेत्ता सुहमणिगोदवग्गणाओ बादरणिगोदवग्गणाहितो असंखेज्जगुणाओ लब्भंति । तेण कारणेण बादरणिगोदवग्गणाहितो
सूक्ष्म निगोदवर्गणामें नानाश्रेणी सब वर्गणायें असंख्यातगुणी हैं । गुणकार क्या हैं ? आवलिका असंख्यातवां भागप्रमाण गुणकार है।
शंका-बादरनिगोवर्गणायें यवमध्यके प्रमाणसे करने पर तीन गुणहानिप्रमाण होती हैं । सूक्ष्म निगोदवर्गणायें भी यवमध्यके प्रमाणसे करने पर तीन ही गुणहानियां होती हैं। इसलिए सूक्ष्म निगोदवर्गणायें बादरनिगोदवर्गणाओंके समान हैं ऐसा कहना चाहिए । बादरनिगोदवर्गणाओं से सूक्ष्मनिगोदवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं यह घटित नही होता ? |
___ समाधान-यहाँ इस शंकाका परिहार करते हैं । ये दोनों वर्गणायें समान नहीं होतीं, क्योंकि, बादरनिगोद यवमध्य सदृश धनवाली वर्गणाओंसे सूक्ष्मनिगोद यवमध्य सदृश धनवाली वर्गणायें और तीन गुणहानियोंसे यहाँ की तीन गुणहानियां असंख्यातगुणी देखी जाती हैं।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-अन्यथा असंख्यातगुणत्व नहीं बन सकता, इससे जाना जाता है।
सामान्यकी विवक्षामें तो गुणकार असंख्यात लोक है, क्योंकि, बादरनिगोद जीवोंसे सूक्ष्म निगोद जीव असंख्यातगुणे हैं । यहाँ पर गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है । इसलिए बादरनिगोद पुलवियोंसे सूक्ष्म निगोद पुलवियां असंख्यातगुणी हैं। यहाँ पर भी गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है । आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण सूक्ष्मनिगोद पुलवियोंसे यदि एक सूक्ष्मनिगोदवर्गणा प्राप्त होती है तो असंख्यात लोकप्रमाण सूक्ष्म निगोद पुलवियोंसे क्या प्राप्त होगा इस प्रकार फल गुणित इच्छाको प्रमाणसे भाजित करने पर बादनिगोदवर्गणाओंसे असंख्यातगुणी असंख्यात लोकप्रमाण सूक्ष्म निगोदवर्गणायें प्राप्त होती हैं। इसलिए बादरनिगोदवर्गणाओंसे सूक्ष्मनिगोद
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१७२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
सुहमणिगोदवग्गणाओ असंखेज्जगणाओ त्ति सिद्धं ।
कि च उक्कस्सिया बादरणिगोदवग्गणा सेडीए असंखेज्जदिभागमेतपुलवियाहि णिप्पज्जदि । सुहमणिगोदवग्गणा पुण उक्कस्सिया वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवियाहि चेव णिप्पज्जदि । एदम्हादो च णव्वदे जहा बादरणिगोदवग्गणाहितो सुहमणिगोदवग्गणाओ असंखेज्जगणाओ ति। बादरणिगोदउक्कस्सवग्गगाजीवेहितो सुहमणिगोदजहाणवग्गणजीवा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो ति जेण भणिद तेण सुहमणिगोदवग्गणाहितो बादरणिगोदवग्गणाणं बहुत्तं किण्ण जायदे ? ण एस दोसो; बादरणिगोदजीहितो सुहमणिगोदजीवाणं गुणगारो असंखेज्जा लोगा। तेण जदि एक्कम्हि सुहमणिगोदसरीरे अच्छमाणजोवाणं गुणगारो एयघणलोगमेत्तो होज्ज तो वि बादरणिगोदवग्गणाहितो सुहमगिगोदवग्गणाओ असंखेज्जगणाओ चेव; जीवगुणगारमाहप्पुवलंभादो। तेण लद्धाप्तखेज्जलोगेहि बादरणिगोदवग्णणासु गुणिदासु सुहुमणिगोदवग्गणपमाणं होदि ।
पत्तेयसरीरदव्ववग्गणासु णाणासेडिदव्ववग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ। को गुणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। तं जहा-अभवसिद्धियपाओग्गसव्वजहण्णवग्गणाए आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तपत्तेयसरीरसरिसधणियवग्गणाओ लभंति । अभवसिद्धियपाओग्गजवमज्झे वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तसरिस
वर्गणायें असंख्यातगुणी हैं यह सिद्ध हुआ।
दूसरे उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंसे निप्पन्न होती है परन्तु सूक्ष्मनिगोदवर्गणा उत्कृष्ट भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंसे निष्पन्न होती है, इससे भी जाना जाता है कि बादरनिगोदवर्गणाओंसे सूक्ष्मनिगोदवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं ।
शंका- बादरनिगोद उत्कृष्ट वर्गणाके जीवोंसे सूक्ष्म निगोद जघन्य वर्गणाके जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, चूंकि इस प्रकार कहा है इसलिए सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंसे बादरनिगोदवर्गणायें बहुत क्यों नहीं हो जाती।
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, बादरनिगोद जीवोंसे सूक्ष्मनिगोद जीवोंका गणकार असंख्यात लोकप्रमाण है, अतः यदि एक सुक्ष्मनिगोद शरीर में रहनेवाले जीवोंका गणकार एक घनलोकप्रमाण होवे तो भी बादरनिगोदवर्गणाओंसे सूक्ष्म निगोदवर्गणायें असंख्यातगणी ही हैं, क्योंकि, जीवोंके गुणकारकी विपुलता उपलब्ध होती है । इसलिए लब्ध असंख्यात लोकोंसे बादरनिगोदवर्गणाओंके गुणित करनेपर सूक्ष्म निगोदवर्गणाओंका प्रमाण होता है ।
प्रत्येक शरीरद्रव्यवर्गणाओंमें नानाश्रेणिवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं । गुणकार क्या है? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । यथा- अभव्यप्रायोग्य सबसे जघन्य वर्गणाम आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रत्येकशरीर सदृश धनवाली वर्गणायें प्राप्त होती है । अभव्य
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बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा ( १७३ धणियवग्गणाओ लभंति । उक्कस्तपत्तैयसरीरवग्गणाए वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तसरिसधणियवग्गणाओ लभंति । पुणो जवमज्झस्स हेहोवरि विसेसाहियहीणवग्गणाओ* घेत्तूण जवमज्झवग्गणपमाणेण कदे तिण्णिगुणहाणिमेत्तजवमज्झं होदि । णवरि सुहमणिगोदसरिसधणियजवमज्झवग्गणाहितो पत्तेयसरीरसरिसणियजवमझवग्गणाओ असंखेज्जगणाओ । एत्थ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। तेण कारणेण सुहमणिगोदवग्गणाहितो पत्तेयसरीरवग्गणाओ असंखेज्जगणाओ त्ति सिद्धं । अथवा गुणगारो असंखेज्जा लोगा । बादरणिगोदवग्गणाहितो सुहमणिगोदवग्गणाणमसंखेज्जगुणतं होदु णाम; बादरणिगोदजीवेहितो सुहमणिगोदजीवाणमसंखेज्जगुणत्तुवलंभादो। किंतु एदं ण जुज्जदे सुहमणिगोदवग्गणाहितो पत्तेयसरीरवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ त्ति । कुदो ? असंखेज्जलोगमेतपत्तेयसरीरजीवेहितो सुहमणिगोदजीवाणमणंतगुणत्तदंपणादो। ण एस दोसो; अणंताणंतजोवेहि सव्वजीवरासोए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि एगसुहमणिगोदवग्गणणिप्पत्तीदो। एग-दो-तिणिआदि जा उक्कस्सेण पलिदोवमस्त असंखेज्जदिभागमेत्तेहि चेव जीवेहि पत्तेयसरीराणमेगवग्गणुप्पत्तिदंसणादो ? असंखेज्जगुणत्तं ण विरुज्झदे । सबमेदं कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । प्रायोग्य यवमध्यमें भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण सदश धनवाली वर्गणायें प्राप्त होती हैं । उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गगामें भी आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण सदृश धनवाली वर्गणायें प्राप्त होती हैं। पुन: यवमध्यके नीचे और ऊपर क्रमसे विशेष अधिक और विशेष हीन वर्गणाओंको ग्रहण कर यवमध्य वर्गणाके प्रमाणसे करने पर तीन गुणहानिप्रमाण यवमध्य होता है। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्म निगोद सदृश धनवाली यवमध्यवर्गणाओंसे प्रत्येकशरीर सदृश धनवाली यवमध्य वर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। यहां पर गुणकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस कारणसे सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंसे प्रत्येकशरीरवर्गणायें असंख्यातगुणी है यह सिद्ध हुआ। अथवा गुणकार असख्यात लोकप्रमाण है।
शंका- बादरनिगोदवर्गणाओंसे सूक्ष्मनिगोदवर्गणायें असंख्यातगणी होवें, क्योंकि, बादर निगोद जीवोंसे सूक्ष्म निगोद जीव असंख्यातगुणे पाये जाते हैं । किन्तु सूक्ष्म निगोदवर्गणाओंसे प्रत्येकशरीरवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं यह बात नहीं बनती, क्योंकि, असंख्यात लोकप्रमाण प्रत्येकशरीर जीवोंसे सूक्ष्म निगोद जीव अनन्तगणे देखे जाते हैं ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सब जीवराशिसे असंख्यातवें भागप्रमाण अनन्तानन्त जीवोसे एक सूक्ष्म निगोदवर्गणाकी उत्पत्ति होती है । तथा एक, दो और तीनसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंसे प्रत्येकशरीर एक वर्गणाकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंसे प्रत्येकशरीरवर्गणाओंके असंख्यातगुणे होने में कोई विरोध नहीं आता।
शंका-यह सब किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आचार्यों के विरोध रहित वचनोंसे जाना जाता है। *ता प्रतो 'विसेसाइियऊणवग्गणाओ ' इति पाठः 1
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१७४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
अचित्तअद्धवक्खंधदव्ववग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा । को गुणगारो? सगरासिस्स असंखेज्जविभागो। तस्स को पडिभागो ? पतेयप्तरीरवग्गणादव्वपडिभागो । एसो गुणगारो सव्वजीवेहि अणंतगुणो। कुदो एवं णव्वदे? सांतरणिरंतरवग्गणणाणागुणहाणिसलागाणं पि सधजीवेहि अगंतगुणत्तुवलंभादो । एवं पि कुदो णव्ववे ? सव्वजीवेहि अणंतगुणधवक्खंधव्यवग्गणद्धाणादो सव्वजोवेहि अणंतगुणद्धवसांतरणिरंतरवग्गणट्ठाणे अद्धाण* मेत्तणाणाणंतगुणहाणिसलागाणमुवलंभादो गुणहाणिसलागासु सव्वजोवेहितो अणंतगुणासु संतीसु एदासि अण्णोण्णभस्थरासीए णिच्छएण गुणहाणिसलागाहितो अणंतगुणत्तसिद्धीए । किं च जदि वि सांतरणिरंतरवग्गणासु चरिमवग्गणा सरिसणिएहि पत्तक्कस्समावा उवलभदि तो वि पत्तेयसरीरवग्गणाहितो सांतरणिरंतरवग्गणाओ अणंतगुणाओ, चरिमाए वि वग्ग. णाए उक्कस्सेण अणंताणताणं सरिसधणियाणं वग्गणाणं संभवादो।
धुवक्खंधदव्ववग्गणाए जाणासेडिसव्वदम्वा अणंतगणा । को गुणगारो? सव्वजीवेहि अणंतगुणो दिवढगुणहाणिगणिदसगणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णन्मत्थरासी तं जहा- सांतरणिरंतरसववग्गणाओ सगपढमवग्गणपमाणेण कीरमाणीयो सादिरेय
अचित्त अवस्कन्धद्रव्यवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अपनी राशि के असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उसका प्रतिभाग क्या है ? प्रत्येकशरीरवर्गणा द्रव्य प्रतिभाग है। यह गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा है ।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि, सान्तर-निरन्तवर्गणाओंकी नानागुणहानिशलाकायें भी सब जीवोंसे अनन्तगुणी पाई जाती हैं। इससे जाना जाता है कि यह गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा है ।
शंका-यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि, सब जीवोंसे अनन्त गुणी ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणाओंके अध्वानसे सब जीवोंसे अनन्तगुणी ध्रुवसान्तर-निरन्तरवर्गणाओंके स्थान में अध्वानप्रमाण नाना अनन्त गुणहानिशलाकायें पाई जाती हैं । तथा गुणहानिशलाकाओंके सब जीवोंसे अनन्तगुणी होने पर इनकी अन्योन्याभ्यस्त राशि नियमसे गुणहानिशलाकाओंसे अनन्तगुणी सिद्ध होती है।
दूसरे यद्यपि सान्तर-निरन्तरवर्गणाओंमें अन्तिम वर्गणा सदृश धनरूपसे उत्कृष्ट भावको प्राप्त होकर उपलब्ध होती है तो भी प्रत्येकशरीरवर्गणाओंसे सान्तर-निन्तरवर्गणायें अनन्तगुणी हैं, क्योंकि, अन्तिम वर्गणामें भी उत्कृष्टरूपसे सदृश धनवाली अनन्तानन्त वर्गणायें सम्भव हैं।
ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणामें नानाथणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणी डेढ़ गुणहानिगुणित अपनी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । यथा-सान्तर-निरन्तर सब वर्गणायें अपनी प्रथम वर्गणाके प्रमाणसे करने
* अ० प्रती ' सब्वजीवेहि सांतरणिरंतरवग्गणट्ठागे अणंतगणअद्धाण-' इति पाठ 1
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( १७५
गद्दारे सणुयोगद्दारपरूवणा
५, ६, ११६. ) पढमवग्गणमेत्तीयो, वग्गणं पडि अनंतगुणहीणकमेण गदत्तादो। एवं पुध दुविय पुणो सांतरणिरंतर पढमवग्गणाए धूवक्खंधगुणहाणि सलागाण मण्णोष्णन्भत्थरासिणा गुणिदाए ध्रुवक्खंधपढमवग्गणा होदि । पुणो तिस्से पमाणेण ध्रुवक्खंधसव्ववग्गणासु कदासु दिवड गुणहाणिमेत्तपढमवग्गगाओ होंति । पुणो सांतर गिरंतर वग्गणाएं ध्रुवक्खंधवग्गणाए दिवगुणमेतपढमवग्गणासु ओवट्टिज्जमानासु दिवङ्गगुणहाणिगुजिदअण्णोणब्भत्थरासी आगच्छवि । एसो सव्वजीवेहि अनंतगुणो ति कथं णव्वदे ? ध्रुवक्बंधवग्गणद्धाणम्मि सव्वजोवेहि अनंतगुणमेत्तगुणहाणि सलागुवलंभादो । तं जहा - असंखेज्जलोगमेत्तद्धाणम्मि जदि एगा गुणहाणिसलागा लब्भदि तो सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तवक्खंधवग्गणद्वाणम्मि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टट्टिदा सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्ताओ णाणागुणहाणिसलागाओ लब्भंति । एदासिमण्णोष्णन्भत्थरासिणा दिवड्डगणहाणिगुणिदेण सांतरणिरंतरवग्गणाए गुणिदाए ध्रुवक्खंधदन्ववग्गणाओ होंति ।
कम्मइयवग्गणासु णाणासेढिसव्वदव्वा अणंतगुणा । को गुणगारो ? अब्भव - सिद्धिएहि अनंतगुणो कम्मइयवग्गणमंतरणाणागुणहाणिसला गाणमण्णोष्णमत्थरासी एत्थ गुणगारुपायणविहाणं पुव्वं व वत्तव्वं ।
कम्मइयसरीरस्स हेट्ठा अगहणदव्ववग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा । पर साधिक प्रथम वर्गणाप्रमाण होती हैं, क्योंकि, वे प्रत्येक वर्गणाके प्रति अनन्तगुणे हीनक्रमसे गई हैं। इसे पृथक् स्थापित कर पुनः सान्तरनिरन्तर प्रथम वर्गणाके प्रमाण में ध्रुवस्कन्ध की नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे गुणित करनेपर ध्रुवस्कन्धकी प्रथम वर्गणा होती है । पुनः इनके प्रमाणसे ध्रुवस्कन्धकी सब वर्गणाओंके करनेपर डेढ गुणहानिप्रमाण प्रथम वर्गणायें होती हैं । पुनः सान्तर - निरन्तरवर्गणाके द्वारा ध्रुवस्कन्धवर्गणाकी डेढ गुणहानिप्रमाण प्रथम वर्गणाओंके भाजित करनेपर डेढ गुणहानिगुणित अन्योन्याभ्यस्त राशि आती है । यह सब जीवराशिसे अतन्तगुणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -- क्योंकि, ध्रुवस्कन्धवर्गणास्थान में सब जीवोंसे अनन्तगुणी गुणहानिशलाकायें उपलब्ध होती हैं । यथा - असंख्यात लोकप्रमाण अध्वान में यदि एक गुणहानिशलाका प्राप्त होती है तो सब जीवोंसे अनन्तगुणे ध्रुवस्कन्धवर्गणाअध्वानमें कितना प्राप्त होगा इस प्रकार फलगुणित इच्छा में प्रमाणका भाग देनेपर सब जीवोंसे अनन्तगुणी नानागुणहानिशलाकायें प्राप्त होती हैं । डेढ गुणहानिगुणित इनकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे सान्तर - निरन्तरवगंणाके गुणित करने पर ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणायें होती हैं ।
शंका
कार्मणशरीरवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अभव्यों से अनन्तगुणी कामंगवर्गणाओंके भीतर नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । यहाँ पर गुणकारके उत्पन्न करने की विधि पहले के समान कहनी चाहिए । कार्मणशरीर से पूर्व अग्रहणद्रव्यवर्गणाओं में नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । अप्रती 'उवट्टिज्जमाणामु' इति पाठ: Ivate & Per andro
ता
श्रतो वग्गणद्वाणम्मि ' इति पाठ: ।
L
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१७६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड को गुणगारो? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सगअण्णोण्णभत्थरासो गुणगारो। कुदो? एदिस्से अगहणदव्ववग्गणाए अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतभागमेत्तणाणागणहाणिसलागवलंभादो । एदासिमण्णोण्णभत्थरासी सिद्धेहितो किमतगणो कि वा अणंतगुणहीणो होदि ति ण णव्वदे, विसिट्ठवदेसाभावादो ।
मणदव्ववग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगणा । को गणगारो ? मणदवगुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासी।
मणदव्ववग्गणाए हेट्ठिमअगहणवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगणा। को गुण ? अगहणगुणहाणिसलागण्णोण्णब्भस्थ रासी।
भासादव्ववग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा । को गण० ? भासावग्गणागुणहाणिसलागण्णोण्णब्भत्थरासी।।
भासावग्गणाए हेढा तदणंतरअगहणदव्यवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंत - गुणा । को गुणगारो ? सगगुणहाणिसलागण्णोण्णभरासी।।
तेजइयवग्गणासु गाणासेडिसव्वदन्वा अणंतगुणा । को गुण ? तेजावग्गणगुणहाणिसलागण्णोण्णभत्थरासी ।
तेजइयस्स हेट्ठिमतदणंतरअगहणदबवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा। को गुणगारो ? अगहणवग्गणगुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासी। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगणी अपनी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है, क्योंकि, इस अग्रहणद्रव्यअर्गणाकी अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण नाना गुणहानिशलाकायें पाई जाती हैं। इनकी अन्योन्याभ्यस्तराशि सिद्धोंसे क्या अनन्तगुणी है या अनन्तगुणी हीन है यह नहीं जाना जाता है, क्योंकि, इस विषयमें विशिष्ट उपदेशका अभाव है।
___ मनोद्रव्यवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? मनोद्रव्यवर्गणाओंकी गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुण कार है।
मनोद्रव्यवर्गणासे पूर्व अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अग्रहण गुणहानिशलाकाओं को अन्योन्याभ्यस्त गुणकार है।
भाषाद्रव्यवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? षावर्गणाओंका गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि गुणकार है।
भाषावर्गणासे पूर्व उसकी अनन्तरवर्ती अग्रहणद्रव्यवर्गणाओमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है? अपनी गुण हानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है ।
तैजसशरीरवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? तैजसवर्गणाकी गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है।
तैजसशरीरसे पूर्व उसकी अनन्तरवर्ती अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अग्रहणवर्गणाको गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है।
ता० प्रती · गुणगारो ? आहार ( अगहण ) वग्गण ' इति पाठः ।
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५, ६, ११६. )
बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा
(१७७
आहारवग्गणासु गाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा । को गुण ? आहारवग्गणगुणहाणिसलागण्णोण्णब्भत्थरासी। आहारवग्गणाए हेढा तदणंतरअगहणवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा । को गुणगारो ? अगहणवग्गणगुणहाणिसलागण्णोण्णभत्थरासी । परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणाए जाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा । को गुण ? जहण्णपरित्ताणंतादो अणंतगुणो । एदस्स कारणं वच्चदे । तं जहा-- पदमाणपोग्गलदव्ववग्गणादो उवरि असंखेज्जलोगमेत्तद्धाणं गंतूण तदित्थवग्गणमद्धं होदि । पुणो वि एत्तियं चेव अद्धाणं गंतूण तदित्थवग्गणा चदुष्भागा होदि । पुणो अणेण विहाणेण असंखेज्जपदेसियवग्गणाए अभंतरे जहण्णपरित्ताणंतच्छेदणयमेतगुणहाणीसु गदासु परमाणुवग्गणादो तदित्थवग्गणा जहण्णपरित्ताणंतगुणहीणा होदि ।
___ संपहि असंखेज्जपदेसियवग्गणाए उक्कस्सअसंखेज्जासंखज्जमेत्तद्धाणस्स असंखे. ज्जदिभागम्मि टिदवग्गणादो जदि परमाणुवग्गणा अणंतगुणा होदि तो असंखेज्जपदेसियवग्गणाए उरिमम्मि दिदवग्गणं पेक्खिदूण परमाणूवग्गणा णिच्छएण अणंतगुणा होदि । त्ति सद्दहेयव्वं । एवं होदि त्ति कादूण जहणपरित्ताणंतवग्गणापमाणेण उवरिमअगहणसव्ववग्गणासु गणिदासु कदासु दिवड्डगुणहाणिमेत्ताओ होदि पुणो असंखेज्जपदेसियवग्गणगुणहाणिसलागाओ विरलिय बिगणिय अण्णोण्णगुणिदरासिणा अणंतपदेसियपढमवग्गणाए गुणिदाए परमाणूपोग्गलदव्ववग्गणा होदि । पुणो एदाए
आहारवर्गणाओं में नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्त गुगे हैं गुणकार क्या है ? आहारवर्गणाकी गुणहानिलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । आहारवर्गणासे पूर्व उसकी अनन्तरवर्ती अग्रहणवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अग्रहणवर्गणाकी गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि गुणकार है । परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणाके नानाथणि सब द्रव्य अनन्त गुण हैं । गणकार क्या है ? जघन्य परीतानन्तसे अनन्तगुणा गुणकार है। इसका कारण कहते हैं । यथा-- परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणासे ऊपर असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाकर वहांको वर्गणा अर्धभागप्रमाण होती है । फिर भी इतना ही स्थान जाकर वहांकी वर्गणा चतुथंभागप्रमाण होती है । पुनः इस विधिसे असख्याप्रदेशी वर्गणाके भीतर जवन्य परीरानन्तकी अर्धच्छेदप्रमाण गुणहानियोंके जाने पर परमाणुवर्गणासे वहांकी वर्गणा जघन्य परीतानन्तगुणी हीन होती है।
अब असंख्यातप्रदेशी वर्गणाके उत्कृष्ट असख्यातासंख्यातप्रमाण स्थानके असंख्यातवें भागमें स्थित वर्गणासे यदि परमाणुवर्गणा अनन्तगुणी होती है तो असंख्यातप्रदेशी वर्गणाके ऊपर स्थित वर्गणाको देखते हुए परमाणुवर्गणा निश्चयसे अनन्तगुणी होती है ऐसा श्रद्धान करना चाहिए । इस प्रकार होती है ऐसा समझकर कर जघन्य परीतानन्त वर्गणाके प्रमाणसे उपरिम अग्रहण सब वर्गणाओंका गुणकार करने पर वे डेढ गुणहानिप्रमाण होती हैं । पुनः असंख्यातप्रदेशी वर्गणाओंकी गुणहानिशलाकाओंका विरलन कर और द्विगुणित कर जो अन्योन्यगुणित राशि उत्पन्न हो उससे अनन्तप्रदेशी प्रथम वर्गणाके गणित करने पर परमाणुपुद्गलद्रव्य
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१७८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ११६ अणंतपदेसियदव्ववग्गणाए ओवदिदाए दिवगणहाणिणोवट्टियअण्णोण्णभत्थरासी आगच्छदि । एदेण अणंतपदेसियअप्पिदवग्गणासु गणिदासु परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा होदि। संखेज्जपदेसियसम्बवग्गणासु णाणासेडिसम्बदन्या संखेज्जगुणा । को गुणगारो? उक्कस्ससंखेज्जयं दूरूवूणं । पुणो एगरूवस्स असंखेज्जभागा च गुणगारो होदि । तं जहा-परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणाए उक्कस्ससंखेज्जण गणिदाए एगपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणाए तिस्से असंखेज्जवि भागेण च अहियं संखेंज्जपदेसियवग्गणाओ होति । पुणो गुणगारम्मि एगरूवे अवणिदे रूवणुक्कस्ससंखेजमेताओ परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणाओ होति । पुणो रूवणुक्कस्ससंखेज्जयस्स संकलणाए अवणिदाए अहियगोवुच्छविसेसा होति । संपहि दोगुणहाणिमेतगोवुच्छविसेसेसु जदि एगपरमाणवग्गणा लब्भदि तो रूवूणुक्कस्ससंखेज्जयस्स संकलणमेत्तगोवच्छविसेसेसु कि लभामो ति पमाणेण फलगुणि दिच्छाए ओवट्टिदाए परमाणुवग्गणाए असंखेज्जदिभागो आगच्छदि । पुणो एदं रूवणुकस्सखेज्जमेत्तगुणगारम्मि अवणियसेसं परमाणवग्गणाए गुणगारे टुविद संखेज्जपदेसियसव्ववग्गणाओ होति । परमाणुवग्गणाए एदासु ओट्टिदासु एकरुवस्स असं-- खेज्जदिभागेणणयं रूणणक्कस्ससंखेज्जयं लद्धं होदि। एदमेत्थ गुणगारो। असंखेज्जपदेसियणाणासे डिसव्ववग्गणदव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो? एगरूवस्स असंखेज्जदिमागणणउकस्ससंखेज्जेहि परिहोणदिवडगुणहाणोणं संखेज्जदिभागोको पडिभागो? वर्गणा होती है। पुनः इससे अनन्तप्रदेशी द्रव्य वर्गणाके भाजित करनेपर डेढ गुणहानिसे भाजित अन्योन्याभ्यस्तराशि आती है। इससे अनन्तप्रदेशी विवक्षित वर्गणाओंके गुणित करने पर परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा होती है। संख्यातप्रदेशी सब वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य संख्यातगणे होते हैं। गणकार क्या है ? दो कम उत्कृष्ट संख्यात गणकार है। पुनः एक रूपके असंख्यात बहुभाग गुणकार है । यथा- परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाके उत्कृष्ट संख्यातसे गणित करनेपर एक परमाणपुदगलद्रव्यवर्गणा और उसका असंख्यातवां भाग अधिक संख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणायें होती हैं। पून: गणकारमें से एक अंकके कम करने पर एक कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणायें होती है। पुन: एक कम उत्कृष्ट संख्यातकी संकलनाके घटा देने पर अधिक गोपुच्छविशेष होते हैं। अब दो गुणहानिमात्र गोपुच्छविशेषोंम यदि एक परमाणुवर्गणा लब्ध होती है तो एक कम उत्कृष्ट संख्यातके संकलनमात्र गोपुच्छविशेषों में क्या प्राप्त होगा इस प्रकार फलगणित इच्छाको प्रमाणसे भाजित करने पर परमाणुवर्गणाका असंख्यातवां भाग आता है। पुन: इसके एक कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण गुणकारमें से घटाकर शेष रहे द्रव्यको परमाणुवर्गणाका गुणकार स्थापित करने पर सख्यातप्रदेशी सब वर्गणायें होती हैं। परमाणुवर्गणासे इनके भाजित करने पर एकका असंख्यातवां भाग कम एक कम उत्कृष्ट संख्यात लब्ध होता है । यह यहां पर गुणकार है । असंख्यातप्रदेशी नानाश्रेणि सब वर्गणाद्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? एकका असंख्यातवां भाग कम उत्कृष्ट संख्यात हीन डेढ गुणहानियोंका संख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? एकका
है मुदितप्रती · संखेज्जदिभागो व ' इति पाठः 1
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५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे उवणिधापरूवणा
( १७९ रूवणक्कस्ससंखेज्जयं एगरूवस्स असंखेज्जदि०भागेण ऊणयं । एत्थ कारणं सुगमं । एवं वग्गणप्पाबहुगं समत्तं । एवं चोद्दसेहि अणुयोगद्दारेहि वग्गणाए सह वग्गणदव्व. समुदाहारो ति समत्तमणुयोगद्दारं ।।
संपहि अणंतरोवणिधा णाम जमणुयोगद्दारं तस्स परूवणं कस्तामो । तं जहा--अणंतरोवणिधा दुविहा--दवढदा पदेसट्टदा । दध्वटदाए अणंतरोवणिधा वग्गणदव्वसमुदाहारे चेव परूविदा ति ह परूवेदव्वा ? ण, तत्थ अणसंगण सूचिदत्तादो। एत्थ पुण ताए चेव अहियारो ति तिस्से विसे सिदूण परूवणा कीरदे । परमाणुपोग्गलदववग्गणादो दुपदेसियदन्यवग्गणा विसेसहीणा । विसेसो पुण असंखेज्जदिभागो। तस्स को पडिभागो? असंखेज्जा लोगा। तं जहा-असंखेज्जलोगे विरलेदूण परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणे समखंडं कादूग दिण्णे एक्केकस्त रूवस्स वगणाविसेसपमाणं पावदि । पुणो एत्थ एगरूवर्धारदं परमाणुवग्गणादो सोहिदे सेसं दुपदेसियवग्गणदव्वं होदि । वेरूवधरिदेसु अवणिदेसु तिपदेसियवग्गणदव्वं होदि । तिण्णिरूवधरिदेसु परमाणुवग्गणदव्वादो अवणिदेसु चदुपदेसियवग्गणदव्वं होदि । एवं विसेसहीणा विसेसहीणा होदूण गच्छंति जाव भागहारस्स अद्धमेतवग्गणाओ उवरि चडिदाओ त्ति । ताधे तदित्थवग्गणा वव्वट्ठदाए दुगुणहीणा होदि । पुणो एदाए असंख्यातवां भाग कम एक कम उत्कृष्ट संख्यात प्रतिभाग है । यहां पर कारण सुगम है। इस प्रकार वर्गणाअल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार चौदह अनुयोगद्वारों और वर्गणाके साथ वर्गणाद्रव्यसमुदाहार
___अनयोगद्वार समाप्त हुआ। अब अनन्तरोपनिधा नामका जो अनुयोगद्वार है उसका कथन करते हैं। यथा-अनन्तरोपनिधा दो प्रकारकी है-द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता ।
शंका-द्रव्यार्थताकी अपेक्षा अनन्तरोपनिधाका वर्गणासमुदाहारमें कथन किया है, इसलिए यहां कथन नहीं करना चाहिए ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, वहां पर अनुसंगसे उसका सूचन किया है । परन्तु यहां पर उसका ही अधिकार है, इसलिए उसका विशेषरूपसे कथन करते हैं।
परमाणु पुद्गल द्रव्यवर्गणासे द्विप्रदेशी द्रव्यवर्गणा विशेष हीन है । विशेषका प्रमाण असंख्यातवां भाग है। उसका प्रतिभाग क्या है? असंख्यात लोक प्रतिभाग है । यथा-असंख्यात लोकोंका विरलन करके उसपर परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाओंको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति वर्गणाविशेषका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः यहाँ एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको परमाणु वर्गणा द्रव्यमेंसे घटा देनेपर शेष द्विप्रदेशी वर्गणाद्रव्य होता है । दो अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्यकों घटा देनेपर त्रिप्रदेशी वर्गणाद्रव्य होता है। तीन विरलन अंकों के प्रति प्राप्त द्रव्यको परमाणुवर्गणाद्रव्यमें से घटा देनेपर चतुःप्रदेशी वर्गणाद्रव्य होता है। इस प्रकार भागहारके अर्धभागप्रमाण वर्गगाओंके उत्तरोत्तर प्राप्त होने तक विशेष हीन विशेष हीन होकर जाते हैं । तब वहांकी वर्गणा द्रव्यार्थताकी अपेक्षा द्विगुणी हीन होती है । पुनः इस द्विगुण हीन वर्गणाका
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१८० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
दुगणहीणवग्गणाए* पुत्वविरलणाए समखंडं कादण दिण्णाए रूवं पडि एगेगवग्गणाविसेसो पावदि । णवरि पुविल्लवग्गणविसेसादो संपहियवग्गणविसेसो दुगुणहीणो। पुणो एत्थ एगवग्गणविसेसे अवणिदे तदणंतरवग्गणदव्वं होदि । एवं विसेसहीणक्कम जागिदूण णेयव्वं जाव धुवखंधम्मि अणंताओ वग्गणाओ गदाओ ति । तदो तिस्से असंखेज्जभागहीणवग्गणाए जा उवरिमअणंतरवग्गणा सा संखेज्जभागहीणा । तिस्से को पडिभागो? जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स अद्धछेदणयाणं संखेज्जदिभागो। तं जहाजहण्णपरित्तासंखेज्जद्धच्छेदणयाणं संखेज्जदिभागं विरलेदूण असंखेज्जभागहीणवग्गणाणं चरिमदुगणहीणवग्गण समखंड* कादूण दिण्णे रूवं पडि एगेगवग्गणविसेसो पावदि । पुणो एत्थ एगरूवरिदे तत्थ अवणिदे तदणंतर उवरिमवग्गणदव्वपमाण होदि । एवं संखेज्जभागहीणा होदूण गच्छंति जाव धुवखंधवग्गणाए अणंताओ वग्गणाओ गदाओ त्ति । तदो तिस्से संखेज्जदिभागहीणचरिमवग्गणाए जा उरिमअणंतरवग्गणा सा संखेज्जगुणहीणा।तस्स को पडिभागो? जहण्णरिपरित्तासंखेज्जच्छेदणाण संखेज्जदिभागो। तं जहा- जहण्णपरित्तासंखेज्जच्छेदणाणं संखेजभागं विरलेदूगा संखेज्जभागहीणवग्गणाणं चरिमदुगुणहीणवग्गणं समखंडं कादूण दिपणे तत्थ एगरूब धरिदं तदणंतरउवरिमवग्गणपमाणं होदि। एवं णिरंतरकमेण संखेज्जगणहीणाओ पूर्व विरलनके प्रति समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति एक एक वर्गणाविशेष प्राप्त होता
। इतनी विशेषता है कि पहलेके वर्गणाविशेषसे साम्प्रतिक वर्गणाविशेष द्विगण हीन होता है । पुनः यहां पर एक वर्गणाविशेष के घटा देनेपर तदनन्त रवर्ती वर्गणाद्रव्य होता है। इस प्रकार ध्रुवस्कन्धमें अनन्त वर्गणाओंके व्यतीत होने तक विशेषहीन क्रमको जानकर ले जाना चाहिए । अनन्तर उस असंख्यात भागहीन वर्गणासे जो आगेकी अनन्तर वर्गणा है वह संख्यात भागहीन है। उसका प्रतिभाग क्या है ? जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके सख्यातवें भागप्रमाण प्रतिभाग है । यथा-जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके संख्यातवें भागका विरलन करके असंख्यात भागहीन वर्गणाओंमेंसे अन्तिम द्विगुणहीन वर्गणाको समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर प्रत्येक विरलन अङ्कके प्रति एक एक वर्गणाविशेष प्राप्त होता है। पुन: यहां विरल नसे एक अङ्कके प्रति प्राप्त द्रव्यको उस वर्गणामें से घटा देने पर उसकी अनन्तरवर्ती उपरिम वर्गणा द्रव्यका प्रमाण होता है । इस प्रकार ध्रुवस्कन्ध वर्गणाकी अनन्त वर्गणाओं के व्यतीत होने तक सब वर्गणायें संख्यात भागहीन होकर जाती हैं । अनन्तर उस संख्यातभागहीन अन्तिम वर्गणासे जो आगेकी अनन्तर वर्गणा है वह संख्यातगुणहीन है। उसका प्रतिभाग क्या है ? जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंका संख्यातवां भाग प्रतिभाग है । यथा-जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके संख्यातवें भागका विरलन करके संख्यातभागहीन वर्गणाओंमेंसे अन्तिम द्विगुण हीन वर्गणाको समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर वहाँ एक अंकक प्रति प्राप्त द्रव्य तदनन्तर उपरिम वर्गणाका प्रमाण होता है । इस प्रकार ध्रुवस्कन्धमें अन्य अनन्त * ता० प्रती · एदा दुगुणहीणा वग्गणाए' आ० प्रतौ 'एदा दुगणहीणवग्गणाए ' इति पाठ} । ता० का० प्रत्यो: '-वग्गणस्स समखंड । इति पाठ।।
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५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे उवणिधापरूवणा
( १८१ संखेज्जगुणहीणाओ होदूण गच्छंति जाव धुवखंधम्मि अण्णाओ अणंताओ वग्गणाओ गदाओ ति । पुणो तिस्से संखेज्जगुणहीणचरिमवग्गणाए जा उवरिमअणंतरवग्गणा सा असंखेज्जगणहीणा होदि । तस्स को पडिभागो? असंखेज्जा लोगा। तं जहा- असंखेज्जलोगे विरलेदूण पुणो संखेज्जगुणहीणवग्गणाणं चरिमवग्गणं समखंडं कादूण दिण्णे तत्थ एगरूवधरिदं तदणंतर उवरिमवग्गणदव्वं होदि । एवं जिरंतरकमेण असंखेज्जगुणहोणाओ होदूण गच्छंति जाव धुवखंधम्मि अणंताओ वग्गणाणो गदाओ त्ति । तिस्से उवरि जाओ अणंतरवग्गणाओ ताओ अणंतगुणहीणाओ होति । तं जहा- अभवसिद्धिएहि अणंतगुणसिद्धाणमणंतिमभागरासि विरलेदूण पुणो असंखेज्जगुणहीणवग्गणाणं चरिमवग्गणं समखंड कादूण दिण्णे तदित्थएगरूवधरिदं तदणंतरवग्गणपमाणं होदि । एवमणंतगुणहीणाओ अणंतगणहीणाओ होदण गच्छंति जाव धुवखंधम्मि अणंताओ वग्गणाओ गदाओ त्ति । पुणो तस्सुवरिमणंतगुणहीणाओ चेव होंति । णवरि विसेसो अस्थि भागहारगओ। तं जहा- अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतिमभागभागहारं* विरलेदूण पुणो पढमअणंतगणहीणवग्गणाणं चरिमवग्गणं समखंडं काढूण दिण्ण तत्थ एगरूवधरिदं तदणंतरउरिमवग्गणपमाणं होदि । एवं पुणो वि अणंतगुणहीणाओ अणंतगणहीणाओ होदूण गच्छंति जाव धुवखंधम्मि अणंताओ वग्गणाओ वर्गणाओंके व्यतीत होने तक सब वर्गणायें निरन्तर क्रमसे संख्यातगुणी हीन संख्यातगुणी हीन होकर जाती हैं। पुनः उस संख्यातगुणहीन अन्तिम वर्गणासे जो आगेकी अनन्तर वर्गणा है वह असंख्यातगुणी हीन होती है। उसका प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है। यथा- असंख्यात लोकोंका विरलन करके पुनः संख्यातगणहीन वर्गणाओं में से अन्तिम वर्गणाकी समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर यहाँ एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त द्रव्य तदनन्तर उपरिम वर्गणाका द्रव्य होता है। इस प्रकार ध्रुवस्कन्ध में अन्य अनन्त वर्गणाओंके व्यतीत होने तक सब वर्गणायें निरन्तर क्रमसे असंख्यातगुणी हीन होकर जाती है । पुनः उसके ऊपर जो अनन्तर वर्गणायें हैं वे अनन्तगुणहीन होती हैं। यथा- अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंसे अनन्तवें भागप्रमाण राशिका विरलन करके पुन: असंख्यातगुणी हीन वर्गणाओंमेंसे अन्तिम वर्गणाके समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर वहां एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त द्रव्य तदनन्तर वर्गणाका प्रमाण होता है। इस प्रकार ध्रुवस्कन्ध में अन्य अनन्त वर्गणाओंके व्यतीत होने तक सब वर्गणायें अनन्तगुणी हीन अनन्तगुणीहीन होकर जाती हैं। पुनः इसके आगे सब वर्गणाय अनन्तगुणी हीन ही होती हैं । मात्र भागहारगत कुछ विशेषता है । यथा- अभव्योंसे अनंतगुण और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण भागहारका विरलन करके पुन: प्रथम अनंतगुणहीन वर्गणाओंमें से अन्तिम वर्गणाको समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर वहां एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त द्रव्य तदनन्तर आगेकी वर्गणाका प्रमाण होता है । इस प्रकार ध्रुवस्कन्धमें अन्य अनन्त वर्गणाओंके व्यतीत होने तक ये सब वर्गणायें फिर भी अनन्तगुणी हीन अनन्तगुणी हीन होकर जाती हैं।
ता० अ० प्रत्योः भागहारं गओ' इति पाठः 1 * ता० प्रती '-मणंतिमभागहारं ' अ० प्रती -मणंतिमभागे भागहारं ' इति पाठः ।
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१८२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
गदाओ त्ति । पुणो तत्तो उवरि अणंतगुणहीणाओ चेव होंति । णवरि विसेसो भागहारगओ अस्थि । तं जहा-सव्वजीवेहि अणंतगणहीणं सिद्धाणमणंतगुणं भागहार विरलेदूण बिदियवारं अणंतगणहीणवग्गणाणं चरिमवग्गणं समखंडं काढूण दिण्ण तत्थ एगखंडं तदणंतरवग्गणपमाणं होदि । एवमणंतगुणहीणाओ अणंतगुणहीणाओ होदूग गच्छंति जाव सांतरणिरंतरवग्गणाओ णिटिदाओ ति । पदेसटुवा ताव थप्पा।
परंपरोवणिधा दुविहा- दन्वट्ठदाए पदेसट्टदाए चेव । दवढदाए परमाणुदव्ववग्गणादो असंखेज्जलोगमेत्तद्धाणं गंतूण दुगणहीणा दुगुणहीणा जाव धुवखंधम्मि अणंताओ वग्गणाओ गदाओ ति । असंखेज्जलोगमेत्तभागहारस्ग अद्धं गंतूण दुगुणहाणी होदि ति भणिदं होदि । तस्सुवरि संखेज्जाओ वग्गणाओ गंतूण दुगुणहाणी होदि । एवं यव्वं जाव धुवखंधम्मि अणंताओ वग्गणाओ गदाओ त्ति । जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स अद्धच्छेदणाणं संखेज्जदिभागमेत्तद्धाणं गतूण एत्थ दुगुणहाणी होदि त्ति भणिदं होदि । पुणो उरि जाणिदूण यन्वं जाव धुवखंधम्मि वग्गणाओ णिटिदाओ त्ति । एत्थ तिणि अण योगद्दाराणि- परूवणा पमाणमप्पाबहुअं चेदि । परूवणदाए अस्थि णाणापदेसगुणहाणिढाणंतरसलागाओ एगपदेसगुणहाणिट्टाणंतरं पि अस्थि । पमाणमसंखेज्जभागहीणवग्गणाणमेगपदेसगुणहाणिअद्धाणमसंखेज्जा लोगा।
पुनः उससे ऊपर वर्गणायें अनन्तगुणी हीन ही होती हैं । मात्र यहाँ पर भागहारगत कुछ विशेषता है । यथा-सब जीवोंसे अनन्तगुणे हीन और सिद्धोंसे अनन्तगुणे भागहारका विरलन करके दूसरी बारमें अनन्तगणहीन वर्गणाओंमेंसे अन्तिम वर्गणाको समान खण्ड करके देयरूपसे वहां पर देनेपर जो एक खण्ड प्राप्त होता है वह तदनन्तर वर्गणाका प्रमाण होता है । इस प्रकार सान्तर-निरन्तरवर्गणाओंके समाप्त होने तक ये सब वर्गणायें अनन्नगुणी हीन अनन्तगुणी हीन होकर जाती हैं। यहां प्रदेशार्थता स्थगित करते है ।
परम्परोपनिधा दो प्रकारकी है- द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता । द्रव्यार्थताको अपेक्षा परमाण द्रव्यवर्गणासे असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाकर द्विगुणहीन द्विगुणहीन वर्गणायें होती हैं जो ध्रुवस्कन्ध में अनन्त वर्गणाओंके व्यतीत होने तक जाननी चाहिए । असंख्यात लोकप्रमाण भागहारके अर्धभागप्रमाण स्थान जाने पर द्विगुणी हानि होती है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इससे आगे सख्यात वर्गणायें जाकर द्विगुणी हानि होती है। इस प्रकार ध्रुवस्कन्ध में अनन्त वर्गणाओंके व्यतीत होने तक ले जाना चाहिए । जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके संख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर यहाँ द्विगुणी हानि होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । पुन: इससे ऊपर ध्रुवस्कन्धमें सब वर्गणाओंके समाप्त होने तक जानकर ले जाना चाहिए । यहाँ पर तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । प्ररूपणाकी अपेक्षा नानाप्रदेशगुणहानि स्थानान्तरशलाकायें हैं । एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर भी है । प्रमाण-असख्यात भागहीन वर्गपाओंका एकप्रदेशगुणहानि अध्वान असंख्यात लोकप्रमाण है । संख्यातभागहीन वर्गणाओंका
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५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे उवणिधापरूवणा
( १८३ संखेज्जभागहीणवग्गणाणमेगपदेसगुणहाणिअद्धाणं संखेज्जाओ वग्गणाओ। णाणापदेसगुणहाणिसलागाओ उभयत्थ पुण अणंताओ। अप्पाबहुगं- सव्वत्थोवमेगपदेसगुणहाणिढाणंतरं । णाणापदेसगणहाणिसलगाओ अणंतगुणाओ। ____संपहि पदेसटुवाए अणंतरोवगिधा वच्चदे । तं जहा--परमाणुपोग्गलवग्गणपदेसादो दुपदेसियवग्गणपदेसा विसेसाहिया । किंचणदुगुणा ति भणिदं होदि । तिपदेसियवग्गणपदेसा विसेसाहिया । किंचणदुभागेण अहिया त्ति भणिदं होदि । चदुप्पदेसियवग्गणाए पदेसा विसेसाहिया । केत्तियमेतेण ? किंचणतिभागेण । पंचमपदेसियवग्गणाए पदेसा विसेसाहिया । के० मेत्तेण ? किचूणचदुब्भागण एवं विसेसाहिया विसेसाहिया होदूण गच्छंति जाव असंखेज्जा लोगा ति विसेसो पुण संखेज्जपदेसियासु दग्गणासु संखेज्जविभागो । असंखेज्जपदेसियासु वग्गणासु अणंतरहेट्टिमवग्गणपदेसाणमसंखेज्जविभागो ।असंखेज्जलोगमेत्तद्धाणं गंतूण पदेसजवमज्झं होदि । पुणो जवमज्झस्सुवरि* विसेसहीणाओ होदूण वग्गणाओ गच्छंति जाव धुवखंधम्मि अणंताओ वग्गणाओ गदाओ ति। विसेसो पुण असंखेज्जविभागो । तस्स को पडिभागो ? असंखेज्जा लोगा। तस्सुवरि संखेज्जभागहीणा होहण गच्छंति जाव धुवांधम्मि अणंताओ वग्गणाओ गदाओ त्ति । उवरि जाणिदूण णेदव्य जाव धुवांधवग्गणाओ समत्ताओ ति।
एकप्रदेशगुणहानि अध्वान संख्यात वर्गणाप्रमाण है। परन्तु दोनों जगह नानाप्रदेशगुणहानिशलाकायें अनन्त हैं। अल्पबहुत्व- एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर सबसे स्तोक है। इससे नानाप्रदेशगुणहानिशलाकायें अनन्तगुणी हैं।
अब प्रदेशार्थताकी अपेक्षा अनन्तरोपनिधाका कथन करते हैं । यथा- परमाणु पुद्गल वर्गणाप्रदेशसे द्विप्रदेशी वर्गणाप्रदेश विशेष अधिक हैं। कुछ कम दूने हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इनसे त्रिप्रदेशी वर्गणाप्रदेश विशेष अधिक है। कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण अधिक हैं। इनसे चतुःप्रदेशी वर्गणाके प्रदेश विशेष अधिक हैं । कितने अधिक हैं ? कुछ कम विभाग अधिक हैं। इससे पञ्चप्रदेशी वर्गणाके प्रदेश विशेष अधिक है। कितने अधिक हैं ? कुछ कम चतुर्थभाग अधिक है। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाने तक विशेष अधिक विशेष अधिक होकर जाते हैं। किन्तु विशेष का प्रमाण संख्यातप्रदेशी वर्गणाओंमें संख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यातप्रदेशी वर्गणाओंमें अनन्तर अधस्तन वर्गणाप्रदेशोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाकर प्रदेशयवमध्य होता है । पुन: प्रदेशयवमध्यके ऊपर ध्रुवस्कन्धमें अनन्त वर्गणाओंके व्यतीत होने तक वर्गणाय विशेष हीन होकर जाती हैं। मात्र विशेष असंख्यातवें भागप्रमाण है। उसका प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभाग है । उसके ऊपर ध्रवस्कन्धमें अनन्त वर्गणाओंके व्यतीत होने तक सब वर्गणायें संख्यातभागहीन होकर जाती हैं। आगे ध्रुवस्कन्ध वर्गणाओंके समाप्त होने तक जानकर ले जाना चाहिए।
* ता० प्रती गंतूण पदेसजवमज्झस्सुवरि ' इति पाठः ।
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१८४ )
( ५, ६, ११६
संपहि अणंतरोवणिधाए दव्वट्ठिद संदिट्ठिविधि वत्तइस्सामा । तं जहा - परमाणुदव्ववग्गणा संदिट्ठीए बेसदछप्पण्णपमाणा त्ति २५६ घेत्तव्वा । पुणो विसेसहीणकमेण णेयव्वं जाव धुवक्बंधम्मि असंखेज्जभागहीण वग्गणाणं चरिमवग्गणेति । सा वि संदिट्ठीए व इदि गेव्हियव्वा । सेसं वेयणदव्वविहाणेण भणिदविहाणं संभलिदूण वत्तव्वं । णवरि एत्थ गुणहाणिअद्वाणं णिसेगभागहारपमाणं च असंखंज्जा लोगा । संपहि पदेसट्ठदाए भण्णमाणाए पुव्वत्तसंदिट्ठ दृविय तत्थतणपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणाए एगपरमाणुणा गुणिदाए तिस्से पदेसपमाणं होदि । दुपदेसियव्वग्गणाए दोहि गुणिदाए दुपदेसियवग्गणपदेसपमाणं होदि । तिपदेसियदव्ववग्गगए तीहि गुणिदाए तिपदेसियवग्गणपदेसपमाणं होदि । चदुपदेसियदव्ववग्गणाए चदुहि गुणिदाए चदुपदेसियवग्गणपदेसवमाणं होदि । एवं पंचगुणादिकमेण णेयव्वाओ जाव धुववखंधवग्गणाओ पिट्टिदाओ त्ति । एवं गुणणविहाणे कदे दव्वट्टदाए जं गुणहागिअद्वाणं भणिदं परमाणुवग्गणप्पहूडि तमुवरि सगलं गंतूण पुणो बिदियगुणहाणीए सयलद्धम्मि उवरि चडिदे तम्हि पदेसे दोसु वग्गणट्ठाणेसु एगलद्वाणि वेजवमज्झाणि होंति । तेसिमेसा संदिट्ठी
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
अब अनन्तरोपनिधा में द्रव्यार्थताकी सदृष्टिविधिको बतलाते हैं । यथा- - संदृष्टि में परमाणु द्रव्यवर्गणा दोसौ छप्पन २५६ लेनी चाहिए । पुनः ध्रुवस्कन्ध में असंख्यात भागहीन वर्गणाओंमेंसे अन्तिम वर्गणाके प्राप्त होने तक विशेष हीनक्रमसे ले जाना चाहिए। वह भी दृष्टि नो ९ लेनी चाहिए । शेष वेदनाद्रव्यविधानकी अपेक्षा कही गई विधिको स्मरण करके कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ पर गुणहानिअध्वान और निषेकभागहारका प्रमाण असंख्यात लोक है । अब प्रदेशार्थताकी अपेक्षा कथन करने पर पुर्वोक्त सदृष्टिको स्थापित करके वहाँकी परमाणुपुद्गलद्रव्य वर्गणाको एक परमाणुसे गुणित करनेपर उसके प्रदेशोंका प्रमाण होता है । द्विप्रदेशी द्रव्यवणाको दोसे गुणित करने पर द्विप्रदेशी वगंणाके प्रदेशोंका प्रमाण होता है ! त्रिप्रदेशी वर्गणाको तीनसे गुणित करनेवर त्रिप्रदेशी वर्गणा के प्रदेशों का प्रमाण होता है । चतुः प्रदेशी द्रव्यवर्गणाको चारसे गुणित करनेपर चतुःप्रदेशी वर्गणा के प्रदेशोंका प्रमाण होता है। इस प्रकार ध्रुवस्कन्ध वर्गणाओंके समाप्त होनेतक पाँचगुणे आदिके क्रमसे ले जाना चाहिए। इस प्रकार गुणविधि करने पर द्रव्यार्थताकी अपेक्षा जो परमाणु वर्गणासे लेकर गुणहानिअध्वान कहा है वह ऊपर सब जाकर पुनः दूसरी गुण'हनिका सकलार्थ ऊपर जानेपर उस स्थान में दो वर्गणास्थानों में एक साथ लब्ध हुए दो यवमध्य होते हैं । उनकी यह संदृष्टि है ( संदृष्टि मूलमें दी है ) । विशेषार्थ-द्रव्यार्थताकी अपेक्षा संदृष्टि- परमाणु द्रव्यवर्गणा २५६ और अन्तिम वर्गण ९ बतलाई है । इसकी रचना वेदनाद्रव्यविधानकी अपेक्षा इस प्रकार है-
Jain Education ster साo का० प्रत्यो 'दव्वदृद-' इति पाठ:
म प्रतिपाठोऽयम् प्रतिषु 'तंपि पदेसे इति पाठ: w.jainelibrary.org
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१२४
१२३२
५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे उवणिधापरूवणा
( १८५ ___संपहि एस्थ पढमगुणहाणिचरिमवग्गण विवियगण११५२ । ११५२ ११२० १२००
हाणिपढमवग्गणाओ संदिट्ठीए अत्थदो च दो वि सरि१०५६ १२३२ साओ। तदुवरिमवग्गणाओ जाव जवमज्झं ताव विसे
१२४८ । | साहियाओ ति घेत्तत्वं । पुणो जवमझस्सुवरि विसेसहीण८३२
कमेण णेयव्वं जाव धुवक्खंधवग्गणाए असंखेज्जभागहीण६७२
| संखेज्जभागहीणदव्ववग्गणे त्ति । एवं कदे जवमज्झस्स ४८० | १२००
| हेट्टा असंखेज्जाओ दुगणवड्ढीयो उप्पज्जति ति । संपहि २५६ । ११५२२
जवमज्झस्स हेटा गुणहाणीयो दवदाए दिवड्गुणहाणीणमद्धच्छेदणयमेत्ताओ। तं जहा- जवमज्झस्स हेटुिमपढमगुणहाणिअद्धाणादो तदणंतरहेट्ठिमगुणहाणिअद्धाणमद्धं होदि ।विदियगुणहाणिअद्धाणादो तदणंतरहेट्रिमप्रथम गु० हा० द्वि गु० हा० तृ० गु० च० गु० पं० गु० १२८
३२ अन्तिम वर्गणा प्रथम वर्गणा
अन्तिम प्रथम
अन्तिम १६०
१२० ११२
४४
२८ १९२
४८
१४४
१०
११
WW.००
२०८
२२४
८०
२४,
७२ इस संदृष्टि में २५६ परमाणुवर्गणाकी द्रव्यार्थता है, २४० द्विप्रदेशी, २२४ त्रिप्रदेशी, २०८ चतुःप्रदेशी, १९२ पंचप्रदेशी वर्गणाकी द्रव्यार्थता है । इसीप्रकार आगे भी जानना चाहिये । प्रदेशार्थताका प्रमाण जानने के लिए २५६ को एक से, २४० को दो से, २२४ को तीनसे, २०८को चारसे गुणा करनेपर २५६, ४८०, ६७२ और ८३२ प्रदेशार्थताका प्रमाण आ जाता है । इसीप्रकार आगे भी जानकर गुणा करनेसे प्रदेशार्थताका प्रमाण आ जाता है । संदृष्टि मूलमें दी ही है। इसमें १२४८ की यवमध्य संज्ञा है।
___ यहाँ पर प्रथम गुणहानिकी अन्तिम वर्गणा और द्वितीय गुणहानिकी प्रथम वर्गणाकी संदृष्टि है। वास्तव में ये दोनों वर्गणायें समान हैं । इनसे ऊपरकी वर्गणायें यवमध्यके प्राप्त होने तक विशेष अधिक है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। पुनः यवमध्यके ऊपर ध्रुवस्कन्धवर्गणाकी असंख्यातभागहीन और संख्यातभागहीन द्रव्यवर्गणाके प्राप्त होने तक विशेषहीन क्रमसे ले जाना चाहिए। ऐसा करनेपर यवमध्यके पूर्व असंख्यात द्विगुणवृद्धियाँ उत्पन्न होती हैं । यवमध्यके पूर्व ये गुणहानियां द्रव्यार्थताकी अपेक्षा डेढ़ गुणहानिके अर्धच्छेदप्रमाण होती हैं। यथा-यवमध्यके पूर्व प्रथम गुणहानिअध्वानसे तदनन्तर पूर्वका गुणहानिअध्वान अर्धभागप्रमाण होता
१म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु — १२४० ' इति पाठः 1 २ अ० का० प्रत्योः ' ११५६ ' इति पाठ। म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिष । बिदियगणहाणि-' इत्यादि वाक्यं नोपलभ्यते ।
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१८६)
छक्खंडागमे वग्गणा-ख तदियगुणहाणिअद्धाणमद्धं होदि । एवं पडिलोमेण णेयव्वं जाव परमाणुवग्गण पढमगुणहाणि त्ति । अणुलोमेण पुण पढमगणवड्डिअद्धाणादो बिदियगणवाड्डिअद्धाणं दुगणं होदि । पुणो एवं दुगुणवड्डिअद्धाणं दुगणदुगणकमेण गच्छदि जाव जवमज्झं ति । जदि वि एत्थ जवमज्झादो हेटा गुणहाणिमेत्तोदिण्ण सव्ववग्गणपदेसा दुगणहीणा ण होंति तो वि बुद्धीए दुगणहीणा ति घेतूण परूवणा कदा वालजणपबोहणठें । जवमज्झादो उवरि वि एवं चेव बध्दीए दुगणहीगत्तं संकप्पिय वत्तव्वं । णवरि उवरिमगणहाणिअदाणं सम्वत्थ असंखेज्जा लोगा संखेज्जरूवाणि च । उरिमगणहाणिअदाणाणि सव्वत्थ सरिसाणि ण होंति, जवमज्झादो उरि चडिददाणसंकलणदुगणमेत्तपक्खेवाणं सव्वत्थ धुवसरूवेण परिहाणिदंसणादो। हैं । इस प्रकार परमाणुवर्गणाकी प्रथम गुणहानिके प्राप्त होने तक प्रतिलोम विधिसे ले जाना चाहिए । अनुलोमविधिसे तो प्रथम गुणवृद्धि अध्वानसे दूसरा गुणवृद्धिअध्वान दूना होता है। इस प्रकार द्विगुणवृद्धि अध्वान यवमध्यके प्राप्त होने तक दूना दूना होकर गया है । यद्यपि यहा पर यवमध्यसे पूर्व गुणहानिमें प्राप्त हुए सब वर्गणाप्रदेश द्विगुणहीन नहीं होते है तो भी बालजनोंको बोध कराने के लिए बुद्धिसे वे द्विगुणहीन होते हैं ऐसा ग्रहण करके उनकी प्ररूपणा की है। यवमध्यके ऊपर भी इसी प्रकार बुद्धिसे द्विगुणहीनपने का संकल्प करके कथनकरना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सर्वत्र उपरिम गुणहानि अध्वान असंख्यात लोक और संख्यात अंक प्रमाण है। उपरिमगुणहानिअध्वान सर्वत्र समान नहीं होते हैं, क्योंकि यवमध्यसे जितने स्थान आगे जाते हैं उनके संकलनसे दूने प्रक्षेपोंको सर्वत्र ध्रुवरूपसे हानि देखी जाती है ।
विशेषार्थ- यहां पर गुणहामिका प्रमाण ८ है, अतः डेढ गुणहानि ( ८४३ ) = १२ स्थान जाने पर १२ ४८ यवमध्य प्राप्त होता है । प्रथम गुणहाणि । द्वितीय गुणहाणि।. त्रि. गु० हा० । चतु- गु० ही। पंच० गु० हा० १४४४८-११५२ १२८४ ९=११५२ : ३६ ४ २४-८६४ ३२ x २५-६०० : ६X४०-३६०
अन्तिम वर्गणा प्रथम वर्गणा | अन्तिम वर्गणा, प्रथम वर्गणा अतिम वर्गणा १६०४७=११२० १२० x १०=१२००४०४२३-६२० ३०४२६-७८० १०४३६३६० १७६४६=१०५६ ११२४ ११=१२३२ ४४४२६६८ २८ x २७=७५६ ११४३६-४१८ १९२४५-९६० १८४४१२-१२४८ : ४८४ २१=१००८ २६ x २८-७२८ : १२४३७-४४४
प्रथम यवमध्य २०८४४८३२ ९६४ १३१२४८ ५२ x २०=१०४० २४ x २६=६९६ १३४३६-४६८
द्वितीय यवमध्य २२४४३-६७२ ८८४१४-१२३२ ५६४ १६-१०६४ २२४ ३०=६६० १४४ ३५-४६० २४.X४८० ८० x १५=१२०० ६० x १८=१०८० २०४३१-६२० १५४३४८५१० २५६४१=२५६ ।। ७२ x १६=११५२१६४४ १७=१०८८ १८४३२=५७६ १६४३३-५२८
प्रथम यवमध्यसे पूर्व १२३२, १२००, ११५२, ११५२, ११२०, १०५६, ९६०, ८३२ व ६७२
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५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे उवरिधापरूवणा
( १८७ जवमज्झादो उवरिमपक्खेवावणयस्स कि पि अत्थपरूवणं* कस्सामो । तं जहा- जवमज्झदव्वे सरूवदिवगणहाणीए गणिदे जवमज्झपदेसगं होदि । पुणो जवमज्झदव्वं एविय दुरूवाहियदिवड्डगुणहाणीए गुणिदे जवमज्झदव्वदाए समहियपदेसगं होदि । पुणो जवमज्झदवदवादो उवरिमदव्वद्ववाए एगो पक्खेवो हीणो त्ति दिवड्गुणहाणिणा जवमझदव्वदाए ओट्टिदाए एगो पक्खेवो होदि । पुणो तम्मि दुरूदाहियदिवडगुणहाणिणा गुणिदे रिणपदेसग्गं होदि । तत्थ दोदवट्ठदपक्खेवे घेतूण पुध दुविय सेसगुणगार-भागहारा सरिसा ति अवणिदे जवमज्झदव्वटुवा होदि । एद पदेसग्गं पुस्विल्लपदेसग्गम्मि अवणिदे जवमज्झपदेसग्गादो सरिसं पदेसगं होदि। पुणो तत्थ पुध टुविददवट्टदाए दोपक्खेवमेतपदेसेसु अवणिदेसु जवमज्झादो अणंतरउवरिमघग्गणपदेसरगं होदि । पुणो जवमज्झादो उवरि तदियाए वग्गणाए पदेसग्गं जवमज्झपदेसेहितो छहि दव्वदापक्खेवमेतपदेसेहि ऊणं होदि । चउत्थवग्गणाए पदेसग्गं बारहेहि ऊणं होदि । एवं चडिदद्धाणसंकलणं दुगुणमेत्तदव्वट्ठदपक्खवेहि ऊणं होदूण वग्गणाणं पदेसग्गमुवरि गच्छदि । णवरि जत्थ दवट्ठद पक्खेवा सरिसा
ये ९ स्थान जाकर यवमध्य ( निकटतम ) आधा ६७२ आता है। द्वितीय यवमध्यसे उत्तर १२३२, १२००, ११५२, १०८८, १०८०, १०६४, १०४०, १००८, ९७८, ९२०, ८६४, ८००, ७८०, ७५६, ७२८, ६९६, ६६०, व ६२० ये १८ स्थान जाकर ६२० यवमध्य का ( निकटतम ) आधा ६२० आता है। इस प्रकार संदृष्टिके अनुसार प्रदेशार्थमें यवमध्यसे पूर्वकी गुणहानिमें ९ स्थान हैं और उत्तरकी गुणहानिमें ( ९४२ ) 3 १८ स्थान हैं।
अब यवमध्यसे उपरिम प्रक्षेपोंके निकालनेकी विधिका कुछ कथन करते हैं। यथायवमध्यके द्रव्यको एक अधिक डेढ गुणहानिसे गुणित करनेपर यवमध्य प्रदेशाग्र होता है। पुन: यवमध्यके द्रव्यको स्थापित कर दो अधिक डेढ गुणहानिसे गुणित करने पर यवमध्यद्रव्यार्थताकी अपेक्षा एक अधिक प्रदेशाग्र होता है। पुनः यवमध्यद्रव्यार्थतासे उपरिम द्रव्यार्थतामें एक प्रक्षेप हीन है, इसलिए डेढ गुणहानिसे यवमध्यद्रव्यर्थताके भाजित करने पर एक प्रक्षेप होता है। पुन: उसे दो अधिक डेढ गुणहानिसे गुणित करने पर ऋणस्वरूप प्रदेशाग्र होता है। वहाँ द्रव्यार्थताके दो प्रक्षेप लेकर पृथक् स्थापित करके शेष गुणकार और भागहार समान हैं, इसलिए अलग कर देने पर यवमध्यकी द्रव्यार्थता होती है। इस प्रदेशाग्रको पहलेके प्रदेशाग्रमेंसे कम कर देनेपर यवमध्य के प्रदेशाग्रके समान प्रदेशाग्र होता है। पुनः वहाँ पृथक स्थापित हुई द्रव्यार्थताके दो प्रक्षेप मात्र प्रदेशोंके अलग करने पर यवमध्यसे अनन्तर उपरिम वर्गणाका प्रदेशाग्र होता है। पुनः यवमध्यसे ऊपर तीसरी वर्गणाका प्रदेशाग्र यवमध्यके प्रदेशोंसे द्रव्यार्थताके छह प्रक्षेपमात्र प्रदेशोंसे हीन होता है। चतुर्थ वर्गणाका प्रदेशाग्र बारह प्रक्षेपमात्र प्रदेशोंसे हीन होता है । इस प्रकार जितने स्थान आगे गये हैं उनके संकलनसे गुणित दूने द्रव्यार्थतारूप प्रक्षेपोंसे हीन होता हुआ वर्गणाओं का प्रदेशाग्र ऊपर जाता है । इतनी विशेषता है कि जहाँ पर द्रव्यार्थताके प्रक्षेप समान
* अ०का प्रत्योः 'अद्भपरूवणं ' इति पाठ:1
* ता० प्रती ‘दवट्ठिद-' इति पाठः ।
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१८८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ११६
ण होंति तत्थ पुध तेसि संकलणं काढूण सिस्साणं पडिबोहो कायव्वो । एवं जवमज्झस्स उवरि सव्वगुणहाणीणमद्धाणमसंखेज्जलोगमेतं चेव पुध पुध होदि । होताओ वि विसेसहीणाओ चेव होंति, सरिसाओ ण होंति, दव्वद पक्खेवाणं जवमज्झं पेक्खिदूण अवट्टिदकमेण हाणीए अणुवलंभादो । एदस्त भावत्थोदवट्ठदापक्खेवेसु* अणवद्विदरूवेण एगेगगुणहाणिम्हि सगसगसरूवेण होयमाणेसु गुणगारेसु च सव्वत्थ रूवाहियकमेण गच्छ माणेसु गणहाणिअद्धाणाणं सरिसभावस्स कारणं णस्थि । तेण विसरिसं चेव तदद्धाणमिदि भणिदं होदि । एवमणंतरोवणिधा समत्ता।
संपहि पदेसमस्सिदूण परंपरोवणिधा जवमज्झादो हेट्ठा वुच्चदे । तं जहा-- नहीं होते हैं वहाँ उनकी अलगसे संकलना करके शिष्योंको ज्ञान कराना चाहिए । इस प्रकार यवमध्यके ऊपर सब गुणहानियोंका अध्वान पृथक पृथक् असंख्यात लोकप्रमाण होता है। ऐसा होता हुआ भी विशेष हीन ही होता है सदृश नही होता, क्योंकि, यवमध्यको देखते हुए द्रव्यार्थता के प्रक्षेपोंमें अवस्थित क्रमसे हानि उपलब्ध नहीं होती है। इसका आशय यह है कि द्रव्या र्थताके प्रक्षेपोंके अवस्थितरूपसे एक एक गुणहानिमें अपने अपने स्वरूपसे घटने पर और गुणकारोंके सर्वत्र एक अधिकके क्रमसे जाने पर गुणहानिअध्वानोंके सदृशरूप होनेका कारण नहीं है। इससे गुणहानियोंका अध्वान विसदृश ही होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई।
विशेषार्थ-संदृष्टि में द्वितीय गुणहानिमें द्रव्यार्थतका प्रक्षेप ८ है। इसका दुगुणा १६ है । यवमध्य ( १२४८ ) के पश्चात् प्रथम प्रदेशार्थता १२३२ है जो यवमध्यसे एक दुगुणा प्रक्षेप ( ८४२ ) कम है ( १२४८ - १२३२ % १६ ) । दूसरी प्रदेशार्थता १२०० हैं जो यवमध्य १२४८ से ( १+२ = ३ ) तीन दुगुणे प्रक्षेपों (३४८४२ = ४८) से हीन है। तीसरी प्रदेशार्थता ११५२ है जो यवमध्यसे ( १+२+३= ६ ) छह दुगुणे प्रक्षेपों (६४८४२ = ९६ ) अर्थात् ( १२४८ - ११५२ = ९६ ) कम है । चौथी प्रदेशार्थता १०८८ है जो यवमध्यसे (१+२+३+४ - १०) दस दुगुणे प्रक्षेप (१०४१६ = १६०) अर्थात् ( १२४८ - १०८८ = १६०) कम है। १०८८ तृतीय गुणहानिको प्रथम प्रदेशार्थता है और पंचम प्रदेशार्थता १०८० तीसरी गुणहानिकी द्वितीय प्रदेशार्थता है । तीसरी गुणहानिमें द्रव्यार्थता दुगुणा प्रक्षेप (२४४) = ८ है। तीसरी गुणहानिके प्रथम प्रदेशार्थतासे एक स्थान आगे जाने पर १०८० प्रदेशार्थता प्राप्त होती है जो ( १०८८ - १०८० = ८ ) एक दुगुण प्रक्षेप (८ ) कम है। तीसरी गुणहानिमें प्रथम प्रदेशार्थतासे दो स्थान आगे जाकर १०६४ प्रदेशार्थता है जो प्रथम प्रदेशार्थता १०८८ से (१+२ = ३) तीन दुगुण प्रक्षेप ( ३४२४४ = २४ ) अर्थात् ( १०८८ - १०६४ = २४ ) कम है। इसी प्रकार आगे भी संकलन करके द्रव्यार्थताके प्रक्षेपसे गणा करके हानिका प्रमाण जान लेना चाहिये।
अब प्रदेशोंका आश्रय लेकर यवमध्यसे नीचे परम्परोपनिधाका कथन करते हैं । यथा8 ता० प्रती · दवट्ठिद-' इति पाठः 1 * अप्रतो ' भावो दवद्वदाओ पक्खेवेसु ' इति पाठः ।
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बंधणाणुयोगद्दारे अवहारपरूवणा
( १८९ परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणादो दुपदेसियवग्गणा पदेसेग्गेण दुगुणा किंचूणा । केत्तियमेत्तेण ? दुगुणदब्वटदापक्खेवमेत्तेण । तमजोइय दुगुणा चेव ति घेत्तव्वं । दुपदेसियवग्गणादो चदुपदेसियवग्गणा किंचूणदुगुणा। केत्तियमेत्तेणणा? अट्ठपक्खेवमेत्तेण । चदुपदेसियवग्गणादो अट्ठपदेसियवग्गणा दुगुणा किंचूणा । केत्तियमेत्तेण ? बत्तीसपक्खेवमेतेण । एवमुरि जाणिदूण णेयव्वं जाव जवमझं ति । णवरि परमाणुवग्गणप्पहुडि जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जपदेसियवग्गणं पावदि ताव संखेज्जाओ वग्गणाओ गंतूण दुगणवड्ढीओ होति । तेण संखेज्जपदेसियवग्गणासु संखेज्जाओ चेवी दुगणवड्ढीओ उप्पज्जति । तस्सुवरि असंखेज्जाओ वग्गणाओ गंतूण दुगुणवड्ढी उप्पज्जदि । एवमसंखेज्जाओ दुगुणवड्ढीओ उवरि गंतूण जवमज्झमुप्पज्जदि । जवमज्झादो उवरि गुणहाणिअद्धाणमसंखेज्जा लोगा जाव धुवक्खंधम्मि अणंताओ वग्गणाओ गदाओ त्ति । तस्सुवरि संखेज्जाओ वग्गणाओ गंतूण दुगुणहाणो । एवमेदाओ गुणहाणीयो गच्छंति जावधुवक्खंधम्मि अणंताओ वग्गणाओ गदाओ ति। उरि जाणिदूण वत्तव्वं।
एत्थ तिणि अणुयोगद्दाराणि-परूवणा पमाणमप्पाबहुअं चेदि। परूवणदाए अस्थि एगपदेसगुणहाणिट्ठाणतरं । णाणापदेसगुणहाणिसलागाओ वि अस्थि । पमाणंपरमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणासे द्विप्रदेशी द्रव्यवर्गणा प्रदेशाग्रकी अपेक्षा कुछ कम दूनी है । कितनी न्यून है ? द्रव्यार्थताके दूने प्रक्षेपमात्रसे न्यून है। यहां कुछ कमकी विवक्षा न कर दूनी ही है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। द्विप्रदेशी वर्गणासे चतुःप्रदेशी वर्गण। कुछ कम दूनी है। कितनी न्यन है ? आठ प्रक्षेपमात्र न्यून है। चतुःप्रदेशी वर्गणासे आठप्रदेशी वर्गणा कुछ कम दूनी हैं। कितनी न्यन है ? बत्तीस प्रक्षेपमात्र न्यन है। इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक आगे भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि परमाणुवर्गणासे लेकर जघन्य परीतासंख्यातप्रदेशी वर्गणाके प्राप्त होने तक जो संख्यात वर्गणायें हैं उतनी वर्गणायें जाकर द्विगुण वृद्धियाँ होती हैं। इसलिए संख्यातप्रदेशीवर्गणाओं में संख्यात ही द्विगुणवृद्धियाँ उत्पन्न होती हैं। उसके ऊपर असंख्यात वर्गणायें जाकर द्विगुणवृद्धि उत्पन्न होती है। इस प्रकार असंख्यात द्विगुणवृद्धियाँ ऊपर जाकर यवमध्य उत्पन्न होता है। यवमध्यसे ऊपर ध्रुवस्कन्ध में अनन्त वर्गणाये जाने तक गुणहानि अध्वान असंख्यात लोकप्रमाण होता है। उसके ऊपर संख्यात वर्गणायें जाकर द्विगुणहानि होती है। इस प्रकार ध्रुवस्कन्धमें अनन्त वर्गणाओंके व्यतीत होने तक ये गुणहानियाँ जाती हैं। इसके आगे जानकर कथन करना चाहिए।
उदाहरण-- अंकसंदृष्टि में परमाणुद्रव्यवर्गणाके प्रदेशाग्र २५६, द्विप्रदेशी द्रव्यवर्गणाके प्रदेशाग्र ४८० है, प्रक्षेप १६, २५६४२ = ५१२, ५१२ - (१६४२) = ४८०। चतुःप्रदेशी वर्गणाके प्रदेशाग्र ८३२ हैं, ४८०४२ = ९६०, ९६० - (१६४८)%3D6३२ । आठप्रदेशी वर्गणाके प्रदेशाग्र ११५२ हैं, ८३२४२ % १६६४, १६६४ - (१६४३२) % ११५२।
यहाँ तीन अनुयोगद्वार होते हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व। प्ररूपणाकी अपेक्षा एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर है तथा नानाप्रदेशगुणहानिशलाकायें भी हैं । प्रमाण- एकप्रदेश
* ता० प्रती --बग्गणा पावदि 'इति पाठः। 9 ता०प्रती · संखेज्जासु चेव ' इति पाठः |
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छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, ११६
एगपदेसगुणहाणिअद्धाणं संखेज्जाहि वग्गणाहि असंखेज्जवग्गणाहि वा होदि । णाणागुणहाणिस लागाओ जवमज्झस्स हेट्ठा असंखेज्जाओ, उवरि अनंताओ होंति । अप्पाबहुअं - सव्वत्थोवमेगपदेस गुणहाणिट्ठाणंतरं । नाणापदेसगुणहाणिसलागाओ अनंतगुणाओ । एवं परंपरोवणिधा समत्ता ।
१९० )
अवहारो दुविहो- दव्वट्टदाए पदेसट्टदाए । तत्थ दव्वटुदाए परमाणुवग्गणपमाणेण सव्ववगगणदव्वं केवचिरेण कालेज अवहिरिज्जदि ? असंखेज्जलोगमेत दिवडगुणहाणिद्वाणंतरेण कालेन अवहिरिज्जदि । तं जहा- पढमगुणहाणिपमाणेण बिदियादिसव्वगुणहाणीसु कदासु पढमगुणहाणिपमाणाओ होंति । पुणो पढमगुणहाणिदव्वे परमाणुवग्गणप्रमाणेण कदे परमाणुवग्गणतिष्णिचदुब्भागविक्खंभं एगगुणहाणिआयामवखेत्तं होदि । पुणो बिदियादिगुणहागिदव्वे वि परमाणुवगणपमागण कदे एवं पि पुव्विल्लक्खेत्तसमाणं होदि । पुणो एत्थ एगचदुब्भागवित्रखंभ गुणहाणिआयाम खेत्तं होदि । तं घेतूण पुग्विल्लक्खेत्तम्मि संधिदे गुणहाणिमेत्ताओ परमाणुवग्गणाओ उपज्जति । पुणो सेसखेत्तं मज्झम्हि पाडिय पासे संधिदे एत्थ वि गुणहाणिअद्धमेत्तपरमाणुवग्गणाओ उत्पज्जति । एवं दिवड्डुगुणहाणिमेत्तपरमाणुवग्गणाओ होंति त्ति दिवडूगुणहाणीए परमाणुवग्गणाए गुणिदाए संदिट्ठीए सव्वदव्वपमाणमेत्तियं होदि
गुणहानिअध्वान संख्यात वर्गणाओं और असंख्यात वर्गणाओंका होता है तथा नानागुणहानिशलाकायें यवमध्यके नीचे असंख्यात हैं और ऊपर अनन्त हैं । अल्पबहुत्व - एक प्रदेश गुणहानिस्थानान्तर सबसे स्तोक है । इससे नानाप्रदेश गुणहानिशलाकायें अनन्तगुणी हैं। इस प्रकार परम्परोपनिधा समाप्त हुई ।
अवहार दो प्रकारका है- द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता । उनमें से द्रव्यार्थताकी अपेक्षा परमाणुवर्गणा के प्रमाणसे सब वर्गणाओंका द्रव्य कितने काल द्वारा अपहृत होता है ? असंख्यात लोकमात्र डेढ गुणहानि स्थानान्तर कालके द्वारा अपहृत होता है । यथा- द्वितीयादि सब गुण - हानियोंको प्रथम गुणहानि के प्रमाणसे करने पर वे सब प्रथम गुणहानिप्रमाण होती हैं । पुनः प्रथम गुणहानिके द्रव्यको परमाणुवर्गणा के प्रमाणसे करने पर परमाणुवर्गगाका तीन बटे चार भागप्रमाण विस्तारवाला और एक गुणहानिप्रमाण आयामवाला क्षेत्र होता है । पुनः द्वितीय आदि गुणहानियोंके द्रव्यको भी परमाणुवर्गणाके प्रमाणसे करने पर यह भी पहले के क्षेत्रके समान होता है । पुनः यहां एक बटे चार भागप्रमाण विष्कम्भवाला और एक गुणहानिप्रमाण आयामवाला क्षेत्र है उसे ग्रहण कर पहले के क्षेत्रमें जोड देने पर गुणहानिप्रमाण परमाणुवर्गणायें उत्पन्न होती हैं । पुनः शेष क्षेत्रको बीचमें से फाडकर पार्श्वभाग में जोडने पर यहां भी गुणहानिके अर्धभागप्रमाण परमाणुवर्गणायें उत्पन्न होती हैं । इस प्रकार डेढ गुणहानिप्रमाण परमाणुवर्गणायें होती हैं, इसलिए डेढ गुणहानिसे परमाणुवर्गणाके गुणित करने पर संदृष्टिकी अपेक्षा सब द्रव्यका प्रमाण इतना ३०७२ होता है । पुनः यहां डेढ गुणहानि १२ से सब द्रव्य के भाजित
ता० का० प्रत्योः ' आयाम खेत्तं घेत्तूण' इति पाठ: )
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बंधणाणुयोगदारे अवहारपरूबणा
३०७२ । पुणो एत्थ दिवगणहाणिणा १२ सव्वदव्वे भागे हिदे परमाणुवग्गणा आगच्छदि २५६ । पुणो दुपदेसियवग्गणपमाणेण सव्वदव्वं केवचिरेण कालेण अव - हिरिज्जाद ? सादिरेयदिवङ्गणहाणिट्राणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । एवमवरि जाणिदूण णेयव्वं । णवरि दिवगुणहाणिच्छेदगएहि उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जच्छेदणएसु भागे हिदेसु जं भागलद्धं तं विरलेदूण उक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जच्छेदणएसु समखंडं कादूण दिण्णेसु एक्केक्कस्स रूवस्स दिवगुणहाणिच्छेदणयपमाणं पावदि । पुणो* एत्थ रूवणविरलणमेतरूवधरिददिवगणहापिच्छेदणयमेत्तगुणहाणीओ जाव चडंति ताव असंखेज्जलोगमेतकालेण अवहिरिज्जदि। तदुवरि अणतेण कालेण अवहिरिज्जदि । एवं णेयव् जाव असंखेज्जभागहीणवग्गणाणं चरिमवग्गणे त्ति।
तदो संखेज्जभागहीणवग्गणाणं पढमवग्गणपमाणेण सव्वदच्वं केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जदि ? अणतेण कालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा- संखेज्जभागहीणवग्गणाणं पढमवग्गणाए सव्ववग्गणदवेर भागे हिदे जं भागलद्धं तं सलागभूदं टुवेदूण पुणो तव्ववग्गणपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे सलागमेत्तेण कालेण अवहिरिज्जदि । एवं जाणिदूण यवं जाव महाखंधदव्ववग्गणे ति)।
करने पर परमाणुवर्गणा २५६ आती है। पुनः द्विप्रदेशी वर्गणाके प्रमाणके सब द्रव्य कितने कालके द्वारा अपहृत होता है ? साधिक डेढ गुणहानिस्थानान्तर कालके द्वारा अपहृत होता है। इसी प्रकार ऊपर भी जानकर ले जाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि डेढगुणहानिके अर्धच्छेदोंसे उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातके अर्धच्छेदोंके भाजित करनेपर जो भाग लब्ध आवे उसका विरलन करके उस विरलित राशि पर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातके अर्धच्छेदोंको समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर एक एक विरलन अङ्कके प्रति डेढ गुणहानिके अर्धच्छेदोंका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः यहां पर एक कम विरलन प्रमाण अङ्कोंके प्रति प्राप्त डेढ गुणहानिके अर्धच्छदोंप्रमाण गुणहानियोंके आगे जाने तक वह असंख्यात लोकप्रमाण कालके द्वारा अपहृत होता है। उसके आगे अनन्त कालके द्वारा अपहृत होता है। इस प्रकार असंख्यातभागहीन वर्गणाओंमें अन्तिम वर्गणाके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये।
उसके बाद संख्यातभागहीन वर्गणाओंकी प्रथम वर्गणाके प्रमाणसे सब द्रव्य कितने कालके द्वारा अपहृत होता है ? अनन्त कालके द्वारा अपहृत होता है। यथा- संख्यातभागहीन वर्गणाओंकी प्रथम वर्गणाके प्रमाणसे सब वर्गणाओंके द्रव्यमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसे शलाकारूपसे स्थापित करके पुन: उस वर्गणाके प्रमाणसे सब द्रपके भाजित करने पर शलाकाप्रमाण कालके द्वारा अपहृत होता है । इस प्रकार जानकर महास्कन्धवर्गणाके प्राप्त होने तक कथन करना चाहिये।
४ अ० प्रती '-पमाण होदि । पुणो ' इति पाठः ।
ता० प्रती 'पढमवग्गणपमाणेण सव्वदव्वं केवचिरेण कालेण अ० ? सव्ववग्गणदव्वे' इति पाठ।। ॐ अ० का प्रत्यो। 'महाखंधवग्गणे त्ति ' इति पाठः।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
१९२ ) ___ संपहि पदेसट्टदमस्सिदण अवहारकाले भगणमाणे ताव सव्वंदव्वं जवमज्झपमाणंण कस्सामो। तं जहा- एगपक्खेवे दिवड्गुणहाणिगणिदरूवाहियदिवड्डगुणहाणिगुणिदे जवमज्झपमाणं होदि
* । पुणो एदम्हि गुणहाणिअद्धेण गुणिदे
एतियं होदि
एत्थ अधियपवखेवाणमवणयणं कस्सामो तं जहा- गुणहाणिअद्धगच्छदुगुणसंकलणासंकलणमेतपक्खेवा एत्थाहिया। कुदो ? जवमज्झादो हेटा पक्खेवगुणगारस्स एगुत्तरवट्टिदसणादो अद्धाणगुणगारस्स एगुत्तरहाणिदसणादो। ण च गच्छे रूवाहियगच्छेण गुगिदे दुगणसंकलणं मोत्तण अण्णस्स
अब प्रदेशार्थताकी अपेक्षा अवहार कालका कथन करने पर सब द्रव्यको यवमध्यके प्रमाणसे करते हैं। यथा- एक प्रक्षेपको डेढ गुणहानिसे गणित एक अधिक डेढ गुणहानिसे गुणित करनेपर यवमध्यका प्रमाण होता है--| |३||३ (१+८x.)x (८४३) = १३४१२ = १५६ ; द्विप्रक्षेप ८४२ - १६; १५६४१६ = २४९६ ; दो यवमध्य १२४८+१२४८ %D २४९६ । पुनः इसे गुणहानिके अर्धभागसे गुणित करनेपर इतना होता है- !१८|३||३.८/
।२१ ।२२ ( गुणहानि (८) का अर्धभाग () = ४ है। इस ४ से दो यवमध्य २४५६ को गुणा करनेसे ९९८४ आता है जो द्वितीयगुणहानिका कुल प्रदेशाग्र है; किन्तु इसमें यवमध्यसे पर्वके बादके तीन तीन निषेकोंके प्रदेशाग्र जो प्रक्षेप यवमध्यकी अपेक्षा हीन हैं वे प्रक्षेप द्वितीय गुणहानिके सर्वप्रदेशाग्रसे अधिक है।
यहाँ अधिक प्रदेशोंका अपनयन करते हैं। यथा- गुणहानिके अर्धभागप्रमाण गच्छके दुने संकलनासंकलनप्रमाण प्रक्षेप यहाँ अधिक हैं; क्योंकि, यवमध्यसे पूर्व प्रक्षेपगुणकारकी एकोत्तर वृद्धि देखी जाती है और अध्वानगुणकारकी एकोत्तरहानि देखी जाती है और गच्छको एक अधिक गच्छसे गुणित करनेपर द्विगुणे संकलनको छोडकर अन्यका आगम सम्भव नहीं है, क्योंकि, उसका निषेध है।
( एक गुणहानि ८ उसका आधा ई = ४ है । यहाँपर यह ४ गच्छ है । ४ का संकलन (१+२+३+४) = १० है। इसका दूना १०x२ % २० है । अथवा गच्छ ४ को एक अधिक गच्छ (४+१) = ५ से गुणा करनेपर २० आता है । पर पृ. १८५ की संदृष्टिके देखनेसे ज्ञात होगा कि यवमध्य १२४८ से दूसरा निषेक १२३२ दो प्रक्षेपहीन है, क्योंकि, वहाँपर द्रव्यप्रक्षेपका प्रमाण ८ है। तीसरे निषेकका प्रदेशाग्र १२०० है जो यवमध्यसे ६ प्रक्षेप (६+८ = ४८कम है। चौथे निषेकका प्रदेशाग्र ११५२ है जो यवमध्य १२४८ से १२ प्रक्षेत्र (१२४८) = ९६ कम है।
* अ०का प्रत्यो | °||३||३ | इति पाठः ।
* म०प्रतिपाठोऽयम् । ता०प्रती
| ८ | ३।। ६ अ०का० प्रत्योः | ०८ । ३।। ३ । इति पाठ ।
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५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे अवहारपरूवणा
( १९३ आगमो अस्थि, विप्पडिसेहादो।
एत्थ धण-रिणरासीयो आणिय रिणदो धणमवणिय सेसेण हाणी परूवेदव्वा । सा वि संकलणासंकलणसुत्तेण एत्तिया होदि ०८ १६४ । एदेसु पक्खेवेसु जबमज्झपमाणेण कदेसु एत्तियाणि जवमज्झाणि
अद्धगुणहाणिमेत्तजव
मज्झेसु अवणिदेसु एत्तियं होदि |
संपहि पढमगणहाणिदव्वाणयणं वुच्चदे। तं जहा- रूवाहियगुणहाणिमेत्तपक्खेवेसु गुणहाणीए वग्गेण गुणिदेसु थोरुच्चएण पढमगुणहाणीए दव्वं होदि ० १८८८ ।
इस प्रकार २+६+१२ = २० प्रक्षेप आते हैं । ये २० प्रक्षेप ऊपर व नीचे दोनों स्थानोंमें हीन हैं, अतः २० द्विगुण प्रक्षेप हुए। इन २० द्विगुण प्रक्षेपों (२०४८x२ = ३२०) को ९९८४ में से कम करनेपर (९९८४ - ३२०) = ९६६४ द्वितीय गुणहानिके प्रदेशाग्र का प्रमाण होता है।)
यहाँपर धनराशि और ऋणराशिको लाकर तथा ऋणमेंसे धनको कम करके शेषका अवलम्बन लेकर हानिका कथन करना चाहिए। वह भी संकलनासंकलनसूत्रके अनुसार इतनी होती है- ८।। ( यह २० की सहनानी है ) । इन प्रक्षेपोंको यवमध्यके प्रमाणसे करनेपर इतने यवमध्य होते हैं- 1८४ | (यह २० की सहनानी है । ) उक्त प्रमाणको अर्धगुणहानिप्रमाण यवमध्योंमेंसे कम करनेपर इतना होता है | ८ | १३ | । ( द्वितीय गुणहानिके प्रदेशाग्र १५६४४ = ६२४; ६२४ - २० = ६०४ = १३४४६, द्विगुणप्रक्षेप ) ।
अब प्रथम गुणहानिके द्रव्यको लानेकी विधि कहते हैं। यथा- एक अधिक गुणहानिमात्र प्रक्षेपों को गुणहानिके वर्गसे गुणित करनेपर स्तोक मानसे प्रथम गुणहानिका द्रव्य होता है- १८८८ | (प्रथम गुणहानिका प्रदेशाग्र = गुणहानि ८ से एक अधिक (८+१) = ९ को गुणहानिका वर्ग (८४८) =६४ से गुणा करनेपर ५७६ आता है । प्रक्षेपका प्रमाण १६ है । ५७६४१६ = ९२१६ । अथवा १६४९४८४८ = ११५२४८ अर्थात् प्रथम गुणहानिके अन्तिम आठ प्रदेश (११५२)४८ । किन्तु अन्य ७ निषेकोंके प्रदेशाग्र अन्तिम प्रदेशाग्रसे प्रक्षेपहीन हैं, अतः प्रथम गुणहानिके प्रदेशाग्रसे ११५२४८ में कुछ प्रक्षेप बढे हुए हैं। )
४म० प्रतिपाठोऽयम् | ता० प्रती ०८८८, अ.काप्रत्योः। कर
। इति पाठ:1
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१९४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ११६
संपहि एत्थ वड्दिपक्खेवपमाणमेत्तियं होदि (रूवण) गुणहाणिगच्छदुगुणसंकलणासंकलणपमाणत्तादो। एदम्मि किंचूणत्तमजोइय पुटिवल्लदव्वादो अवणिदे सेसमेत्तियं होदि | ०९८८२ | । पुणो एदम्मि जवमज्झपमाणेण कदे एत्तियं होदि १८/२६ । पुणो एदम्मि पढमगुणहाणिदब्वे अद्ध *गुणहाणिदवम्मि मेलाविदे एत्तियं होदि २७/२९ । जवमज्झादो उवरि अद्धगुणहाणिदव्वमेत्तियं होदि ||३७ । एवं हेटुिमदवम्मि पविखत्ते एत्तियं होदि | ८१४७ ।
अब यहाँपर बढे हुए प्रक्षेपोंका प्रमाण इतना होता है-/०२/१४ापत्र १८६ के विशेषार्थमें देखो- प्रथम गुणहानिके द्विचरम निषेकका प्रदेशाग्र ११२० जो चरम निषेकके प्रदेशाग्र ११५२ से दो प्रक्षेप (१६४२ % ३२) हीन है । त्रिचरम निषेकका प्रदेशाग्र १०५६ है जो चरम निषेकके प्रदेशाग्रसे ६ प्रक्षेप (१६४६ = ९६) हीन है। इसी प्रकार अन्य पाँच निषकोंके प्रदेशाग्र क्रमसे १२, २०, ३०, ४२ व ५६ प्रक्षेपहीन हैं। इनका जोड २+६+१२+२+३० + ४२+५६ = १६८ है । अथवा एक कम गुणहानिप्रमाणका संकलनासंकलन = १+ (१+२ = ३) + ( १+२+३ = ६ )+( १+२+३+४ - १० )+( १+२+३+४+५ - १५ )+ (१+२+ ३+४+५+६ = २१ )+( १+२+३+४+५+६+७ = २८ ) 3D ८४ होता है। इसका दूना ८४४२ % १६८ होता है। इस प्रकार १६८ बढे हुए प्रक्षेप हैं। पूर्वोक्त ५७६ प्रक्षेपोंम १६८ प्रक्षेप घटानेसे ४०८ प्रक्षेप (४०८x१६ = ६५२८) प्रथम गुणहानिके प्रदेशोंका प्रमाण होता है । ), क्योंकि, वह (एक कम) गुणहानिप्रमाण गच्छके दूने संकलनासंकलन प्रमाण है। इसमें कुछ कम की गणना न करके पहलेके द्रव्यमेंसे घटा देनेपर शेष इतना होता है- ०९१८८।२ । पुन
इसे यवमध्यके प्रमाणसे करने पर इतना होता है- 1८1१६ । पुनः इस प्रथम गुणहानिके
द्रव्यमें अर्धगुणहानिका द्रव्य मिलाने पर इतना होता है. छा। यवमध्यसे ऊपर अर्धगुणहानिका द्रव्य इतना होता है-०८ | १३ । इसे अधस्तन द्रव्य में मिला देनेपर इतना होता है
मप्रतिपाठोयऽम् । ता० प्रती ||४७६) अ० प्रती | ०९ । ८८३ । का०प्रतो || ८६। इति पाठः। * म० प्रतिपाठोयऽम् | प्रतिषु ‘पठमगणहाणिअद्ध- ' इति पाठः |
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५, ६, ११६. )
बंधणाणुयोगद्दारे अवहाररूवणा संपहि तदियगुणहागिदव्वाणयणं कस्सामो। तं जहा- बेगणहाणिमेत्ततदिय गुणहाणिपक्खेवेसु रूवाहियदोगुणहाणीहि गुणिदगुणहाणीए गणिदेसु थोरुच्चएण तदियगुणहाणिदव्वं होदि
। एत्थ ऊणपक्खेवपमाणमेत्तियं होदि २०४८ । एदेसु पुथ्वबळवादो अवणिदेसु एत्तियं होदि | २८८६१११ । एद म्हि जबमज्झपमाणेण कदे एत्तियं होदि |८२२|
संपहि चउत्थगुणहाणिदव्वाणयणं वुच्चदे । तं जहा- जवमन्झपक्खेवचउत्थभागे छग्गुणगुणहाणिघगुणिदें थोरुच्चएण चउत्थगुणहाणिसव्वदन्वं होदि ०८८८६ । एगगणहाणिआदिउत्तरपणहाणिगच्छसंकलणमेत्तगोवच्छविसेसा च एगादिएगत्तरगणहाणिगच्छसंकलणासंकलणदुगुणमेत्तगोवुच्छविसेसा च एत्थ फिट्टति। तासि पमाणमेदं
अब तृतीय गुणहानिके द्रव्यके लानेकी विधि हैं। यथा- दो गुणहानिमात्र तृतीय गुणहानिके प्रक्षेपोंको एक अधिक दो गुणहानियों से गुणित गुणहानिसे गुणित करने पर मोटे तौरपर तृतीय गुणहानिका द्रव्य होता है- / [ दोगुणहानि ( १६ ) x प्रक्षेप (४) x एक अधिक दो गुणहानि (१६+१ = १७) x गुणणहानि (८) = ८७० ४ । अर्थात् तृतीय गुणहानि प्रथम निषेक प्रदेशाग्र (१०८८) गुणित गुणहानि ८ (१०८८४८ - ८७०४) । यहां पर न्यून प्रक्षेपोंका प्रमाण इतना है- ९८०९।। (पूर्वोक्त विधि के अनुसार न्यून प्रक्षेपोंका प्रमाण १६८ है । यहां पर प्रक्षप (४) है )। इन्हें पहलेके द्रव्यमें से घटा देने पर इतना होता है-- १९८८८।२२। इसे यवमध्यके प्रमाणसे करने पर इतना होता है-८/२२ ।
अब चतुर्थ गुणहानिके द्रव्यके लानेकी विधि कहते हैं। यथा- यवमध्यके प्रक्षेपके चतुर्थ भागको छहगुणी गुणहानिके घनसे गुणित करने पर मोटे तौरसे चौथी गुणहानिका सब द्रव्य होता है- | ०८८८। ।। ( यवमध्यका प्रक्षेप ( ८ ) का चतुर्थ भाग ( = २ ) को ६ गुणहानिका घन ( ६४८४८४८ ) से गुणा करनेसे (२x६४८४८४८ ) - ६१४४ मोटे रूपसे चतुर्थ गुणहानिका प्रदेशाग्र है। अंक संदृष्टि में इसका प्रमाण ५१६६ है । ६१४४ - ५६१६ = ५२८ अर्थात् २६४ प्रक्षेप (२) को लाने का विधान कहते हैं ) यहां एक गुणहानि आदि उत्तचय गुणहानि गच्छ संकलनमात्र गोपुच्छविशेष और एकादि एकोत्तर
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१९६ )
०८ ८८ ०८ ८८
४
२
४ ३
जेण कबे एलियं होदि | ८|३ | उबरिमगुणहाणीसु एत्थतणसंकलणरासी हवा
।
३५४
दिरूवृत्तरगुणगारेण गुणिज्जमाणा गच्छदि । बिदिया पुण अवद्विदा । सव्वत्थ एदेण
अत्थपदेण पंचमगुणहाणिदव्वे अवणिदे एत्तियं होदि | ८ | १४० ।। छट्ठगुणहाणि
दवमेत्तियं होदि
८
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, ११६
। एदे पक्खेवे पुव्वरासिम्मि पाडिय सेसे जवमज्झपमा --
४९ २१६
अट्ठमगुणहाणिवश्वमेत्लियं होदि ||
। सलमगुणहाणिदव्वमेत्लियं होदि|८|
८ ६७
८६४
८
| एवं गुणहाणि पडि गुणहाणि पडि
अंसा णउत्तरकमेण छंदा विदुगुणक मेण गुणहाणीए गुणगारा होटूण गच्छति जाव ध्रुवक्खंधम्मि असंखेज्जभागहाणीए चरिमगुणहाणि त्ति । तदो एदासि मेलावणविहाणं भण्णमाणे यवमध्यादूर्ध्वं पदिति विकल्प्य दो सुत्तगाहाओ । तं जहा
इच्छं विरलिय (दु ) गुणिय अण्णोष्णगुणं पुणो दुपडिरासि । काऊण एक्करासि उत्तरजुदआदिणा गुणिय ।। १५ ।।
०८।८८ ०८ | ८८ ૨ ४
| 6665
हानिगच्छ संकलनासंकलन द्विगुणमात्र गोपुच्छविशेष फिट जाते हैं । उनका प्रमाण यह है। इन प्रक्षेपोंको पूर्व राशि में से अलग करके शेषको यवमध्यके प्रमाणसे करनेपर इतना होता है- ||३१ उपरिम गुणहानियों में यहाँ की संकलनराशि एकादि एकोत्तर गुणकार से गुणित होकर जाती है । परन्तु दूसरी राशि अवस्थित रहती है । सर्वत्र इस अर्थपदके अनुसार पञ्चम गुणहानिके द्रव्यके निकाल देने पर इतना होता है - ||१०८ । छटवीं गुण
हानिका द्रव्य इतना है
४९ २१६
सातवीं गुणहानिका द्रव्य इतना है
। आठवी
गुणहानिका द्रव्य इतना है-||६४ | इस प्रकार ध्रुवस्कन्धमें असंख्यातभागहानिकी अन्तिम गुणानि प्राप्त होने तक गुणहानि गुणहानिके प्रति अंश नवोत्तरक्रमसे और छेदादिद्विगुणक्रमसे गुणहानिके गुणकार होकर जाते हैं । अनन्तर इनके मिलाने की विधिका कथन करनेपर यवमध्यके ऊपर प्राप्त होता है ऐसा विकल्प करके दो सूत्रगाथायें देते हैं । यथा
इच्छित गच्छका विश्लन कर और उस विरलनराशिके प्रत्येक एकको दूना कर परस्पर गुणा करने से जो उत्पन्न हो उसकी दो प्रतिराशियाँ स्थापित कर उनमेंसे एक राशिको उत्तरसहित
अ० प्रतो
G
। १३३ । इति पाठः ।
५८ I ४३२|
८ ५८ ४३२
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बधणाणुयोगद्दारे अवहाररूवणा
उत्तरगुणिदं इच्छं उत्तरआदीए संजुदं अवणे ।
सेस हरेज्ज पडिणा आदिमछेदद्धगुणिदेण ।। १६ ॥ एदाति गाहाणमत्थो उच्चदे-इच्छिदगच्छं विरलेहूण विगं करिय अण्णोण्णभस्थरासि दुप्पडिरासि करिय एत्थ उत्तरं णव आदी बावीस, एदे मेलिदे एक्कत्तीस भवंति । एदेहि एक्कासि गुणिय उत्तरगुणिदं इच्छं- ति मणिदे इच्छं गवहि गुणिऊण उत्तरआदीय संजदं अवणे ति भणिदे उत्तरं आदि च तत्थ मेलाविय पुवरासिम्हि अवणेऊण सेसं हरेज्ज पडिणा आदिमछेबद्धगणिदेणे त्ति भणिदे अवसेस टुविदपडिरासि सत्तावीसहं अद्धेण गुणिय भागे हिदे इच्छिदसंकलणा आगच्छदि । __ तदो एदेण अत्थपदेण दुरूवणगुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थे कदे एत्तियं होदि । एदं (दु) पडिरासि दृविय एक्करासि इगितीसरू
वेहि गुणिदे एत्तियं होदि ९ ३१ । पुणो एदम्हि दुरूवूणगुणहाणिसलागाओ णवगुणाओ आदिउत्तरइगितीसरूवब्भहियाओ अवणिय पुणो पडिट्ठविदरासि सत्तावीसहं
आदि राशिसे गुणित कर इसमें से उत्तर गुणित और उत्तर आदि संयुक्त इच्छाराशिको घटा देनेपर जो शेष रहे उसमें आदिम छेदके अर्धभागसे गुणित प्रतिराशिका भाग देनेपर इच्छित संकलनका प्रमाण आता है ।। १५-१६ ।।
__ अब इन गाथाओका अर्थ कहते हैं- इच्छित गच्छका विरलन कर और उसे दूना कर परस्पर गुणा करने से जो राशि आवे उसकी दो प्रतिराशियाँ स्थापित करे। यहाँ उत्तर नौ
और आदि बाईस को मिलाने पर इकतीस होते हैं, इनसे एक राशिको गुणित करे। पुनः — उत्तरगुणि दं इच्छं' ऐसा कहनेपर इच्छाराशिको नौसे गुणित करके और इसमें · उत्तर आदीय संजुदं अवणे' ऐसा कहनेपर उत्तर और आदिको मिलाकर पूर्वराशि में से घटा कर ' सेसं हेरज्ज पडिणा आदिमछेदद्धगुणिदेण' ऐसा कहनेपर जो शेष रहे उसमें पहले स्थापित की गई प्रतिराशिको सत्ताईसके ओघसे गुणित कर भाग देनेपर इच्छितसंकलना आती है।
अनन्तर इस अर्थपदके अनुसार दो कम गुणहानिशलाकाओंका विरलन कर और दूना कर परस्पर गुणा करनेपर इतना होता है ।।। इसकी दो प्रति राशियाँ स्थापित कर एक
राशिके इकतीस से गुणिन करनेपर इतना होता है- ।। पुन: इसमें से नौगुणित तया आदि-उत्तर इकतीस सहित दो कम गुणहानिशलाकाओंको घटा कर
ता०प्रतो | १४३६| इति पाठः ।
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१९८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ११६
अद्धेण गुणिय | ६४ २७ पुवरासिम्हि भागे हिदे किंचूणत्तमजोएदूण गुणगारभागहारमवणि दे एत्तियं होदि (६२/ पुणो एदेण गुणहाणि गुणिदे एत्तियं होदि १३२।। पुणो हेद्विमदोगुणहाणिदब्वे पविखत्ते एत्तियं होदि २/३७ । भागे हिदेएत्तियं होदि
|२३ । चत्तारिसत्तावीसभागहीणचत्तारिगुणहाणीयो किंचूणत्तमजोएदूण जवमज्झ। २७/ पमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्माणे चत्तारिगुणहाणिढाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । परमाणुपोग्गलदव्वपमाणेण सव्वदन्वं केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जदि ? गुणहाणिवग्गेण सचउब्भागदोरूवाणिदेण। कुदो ? परमाणुपदेसद्वदाए सव्वदन्दे भागे हिदे सचउब्भागदोरूवगुणिदगुणहाणिवग्गवलंभादो। दुपदेसियवग्गणपदेसट्टदाए पमाणेण सम्बदव्वं केवचिरं कालेण अवहिरिज्जदि? पुवभागहारादो अद्धसादिरेयमेत्तेणकालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा- परमाणवग्गणभागहारस्सद्धं विरलिय सव्वदम्वे समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि दुगणपरमाणुवग्गणपमाणं पावदि। पुणो हेट्ठा दोगुणहाणीयो पुन: पहले स्थापित की गई प्रतिराशिको सत्ताईसके अर्धभागसे गुणित कर | ६४।२५और इनका पूर्व राशिमें भाग देने पर कुछ कमकी विवक्षा न कर भागहार और गुणकारका परस्पर अपनयन करने पर इतना होता है-६२i । पुनः इससे गुणहानिके गुणित करनेपर इतना होता है. | १६२ पुनः अधस्तन दो गुणहानियों का द्रव्य मिलाने पर इतना होता है-15।१०। । भाग देने पर
। २७
इतना होता है।
| चार बटे सत्ताईस भागहीन चार गुणहानियों में कुछ कमकी विवक्षा न
२७
कर यवमध्य के प्रमाणसे सब द्रव्यके अपहृत होनेपर चार गुणहानिस्थानांतर कालके द्वारा अपहृत होता है । परमाणुपुद्गलद्रव्यप्रमाणसे सब द्रव्य कितने कालके द्वारा अपहृत होता है ? चतुर्थभागयुक्त दोसे गुणित गुणहानिके वर्गरूप कालके द्वारा अपहृत होता है, क्योंकि. परमाण प्रदेशार्थतासे सब द्रव्यके भाजित करने पर चतुर्यभागयुक्त दोसे गुणित गणहानिका वर्ग उपलब्ध होता है। (३३४४८: २५६ - १३० अर्थात ८४८४२+ F ) द्विप्रदेशीवर्गणा प्रदेशार्थताके प्रमाणसे सब द्रव्य कितने कालके द्वारा अपहृत होता है? पूर्वभागहारसे साधिक अर्धभागमात्र कालके द्वारा अपहृत होता है । यथा- परमाणुवर्गणाके अर्धभागके अर्धभागका विरलनकर सब द्रव्यको समान खण्डकर देनेपर प्रत्येक एक विरलनके प्रति द्विगुणपरमाणुवर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः र ता० प्रती ' पुव्वभागहार दो अद्ध-' इति पाठः 1
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बंधणाणुयोगद्दारे अवहारपरूवणा विरलिय एगरूवधरिदमेत्तगोवुच्छविसेसेसु समखंडं करिय दिपणेसु दोदोगोवुच्छविसेसा रूवं पडि पावेंति, चडिदाणसंकलगदुगणमेत्तगोवच्छविसेसुवलंभादो । लद्धं उवरिमरूवधरिदेसु अवणेदूण तपमाणेण कोरमाणे पक्खेवरूवाणं पमाणाणुगमं कस्सामो। त जहा- हे टिमविरलणरूवणमेत्तदुगणगोवुच्छविसेसेसु जदि एगरूवपक्खेवो लभइ तो उरिमविरलणाए कि लभामो ति पमाणेण फलगणिदिच्छाए ओवट्टिदाए णवण्ह गुणहाणीणं सोलसमो भागो आगच्छदि । तम्मि पुग्विल्लविरलणाए पक्खित्ते दुपदेसिय दवभागहारो होदि । तिपदेसियवग्गणपमाणेण सम्वदव्वं केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जदि ? परमाणुवग्गणभागहारस्स तिभागेण सादिरेगेण । तं जहा-परमाणुवग्गणभागहारस्स तिभागं विरलिय सम्बदम्बे समखंडं करिय दिग्णे रूवं पडि तिगुणपरमाणुवग्गणदवपमाणं पावदि । पुणो चडिदद्धाणदुगणसंकलगमेत्तगोवुच्छविसेसा वड्डिदा ति तदवणयणढें किरियं कस्तामो। तं जहा- दोगुणहाणोगमद्धं विरलिय उरिमेगरूवधरिदे समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि चडिदद्धाणदुगणसकलणमेत्तपक्खेवा पावेंति । तेसु उवरिमरू वरिदेसु रूवं पडि अवणिदेसु सेसमिच्छिदपमाणं होदि।
नीचे दो गुणहानियोंका विरलनकर एक विरलनके प्रति प्राप्त गोपुच्छ विशेषोंके समान खण्ड कर देयरूपसे देनेपर प्रत्येक एक विरलनके प्रति दो दो गोपुच्छ विशेष प्राप्त होते हैं, क्योंकि, यहांपर जितने स्थान आगे गये हैं उतने संकलनके द्विगुणे गोपुच्छ विशेष उपलब्ध होते हैं । जो लब्ध आवे उसे उपरिम विरलन अंकों के प्रति प्राप्त द्रव्य से कमकर उसके प्रमाणसे करने पर जो प्रक्षेप अंक आते है उनके प्रमाणका अनुगम करते हैं । यथा-- अधस्तन विरलन मेंसे एक कम द्विगुण गोपुच्छ विशेषों में यदि एक अंकका प्रक्षेप लब्ध होता है तो उपरिम विरलन में क्या प्राप्त होगा इस प्रकार फल राशिसे गुणित इच्छाराशिको प्रमाण राशिसे भाजित करने पर नौ गुणहानियों का सोलहवां भाग आता है । उसे पूर्व विरलन में मिला देने पर द्विप्रदेशी द्रव्य का भागहार होता है ( ३३४४८ : ४८० = ६९ = ६५ + १४.. : ६५+३ ) त्रिप्रदेशी वर्गणाके प्रमाणसे सब द्रव्य कितने कालके द्वारा अपहृत होता है ? परमाण वर्गणाके भागहारके साधिक विभागप्रमाण काल के द्वारा अपहृत होता है। यथा-परमाणु वर्गणाके भागहारके तीसरे भाग का विरलन करके उसपर सब द्रव्यके समान भाग करके देयरूपसे देनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति तिगुण परमाणुवर्गणाद्रव्य का प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः जितने स्थान आगे गये उतने द्विगुणसंकलनमात्र गोपुच्छविशेष बढे हैं, इसलिए उनकी अपनयन क्रिया करते हैं । यथा-दो गुणहानियोंके अर्धभागका विरलनकर उपरिम एक अङ्कके प्रति प्राप्त द्रव्यको समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर प्रत्येक एकके प्रति जितने स्थान आगे गये हैं उतने द्विगुणसंकलनमात्र प्रक्षेप प्राप्त होते हैं । उन्हें उपरिम विरलनके प्रत्येक अङ्कके प्रति प्राप्त द्रव्यमेंसे घटा देनेपर शेष इच्छित द्रव्यका प्रमाण होता है। एक कम अधस्तन विरलन जाकर
* ता० प्रती · गोवृच्छविसेसेसु ' अतोऽग्रे 'जदि ' पर्यन्तः पाठस्त्रुटित।।
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२००) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ११६ हेटिमविरलणं रूवणं गंतूण जदि एगपक्खेवसलागा लब्भदि तो उवरिमविरलणाए कि लभामो त्ति पमाणेण फलगणिदिच्छाए ओवट्टिदाए तिण्णं गणहाणीणं चउभागो लब्भदि । तम्हि उवरिमविरलणाए पक्खित्ते इच्छिददवभागहारो होदि ।
चउप्पदेसियदव्वपमाणेण सव्वदव्वं केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जदि ? परमाणुवग्गणभागहारस्स च उभागेण सादिरेगेण । तं जहा- परमाणुवग्गणभागहारस्स चउभागं विरलेदूण सव्वदवे समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि परमाणवग्गणदव्वं चउग्गणं पावदि । पुणो चडिदखाणदुगुणसंकलणमेत्तपक्खेवाणं अवणयणं कस्सामो। तं जहा- दोगुणहाणितिभागं विरलिय उवरिमेगरूवधरिदे समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि बारह बारह पक्खेवा पावेंति । तेसु उवरिमरूवधरिदेसु अवणिदेसु सेसमिच्छिदपमाणं होदि । हेट्टिमविरलणं रूवणं गंतूण जदि एगा पक्खवसलागा लन्मदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगणिदिच्छाए ओट्टिदाए सत्तावीसगणहाणीणं बत्तीसदिमभागो आगच्छदि । तम्मि उवरिमविरलणाए पक्खित्त इच्छिददव्वभागहारो होदि । एवं प्रेयव्वं जाव जवमझं ति ।
जवमज्झस्सुवरि अणंतरपमाणेण सव्वदव्वं केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जदि यदि एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फल राशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर तीन गुणहानियोंका चतुर्थ भाग आता है । उसे उपरिम विरलनमें मिलानेपर इच्छित द्रव्यका भागहार होता है (३३४४८ - ६७२ = ४९ = १३० +३४८ : ४३ + ६ : ४९ )।
चतुःप्रदेशी द्रव्य के प्रमाणसे सब द्रव्य कितने कालके द्वारा अपहृत होता है ? परमाणुवर्गणा भागहारके साधिक चतुर्थ भाग द्वारा अपहृत होता है । यथा- परमाणुवर्गणा भागहारके चतुर्थ भागका विरलन करके उस विरलित राशिपर सब द्रव्यके समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर प्रत्येक विरलन अङ्कके प्रति परमाणुवर्गणाका द्रव्य चौगुना प्राप्त होता है । पुनः जितने स्थान आगे गये हैं। उनके दूने के संकलनमात्र प्रक्षेपोंका अपनयन करते हैं । यथा- दो गुणहानियोंके त्रिभागका विरलत करके ऊपर एक विरलन अङ्कके प्रति प्राप्त द्रव्यको समान खंड करके देयरूपसे देनेपर प्रत्येक विरलन अंकके प्रति बारह बारह प्रक्षेप प्राप्त होते हैं। उन्हें उपरिम विरलनके प्रति प्राप्त द्रव्यमेंसे घटा देनेपर शेष इच्छित द्रव्यका प्रमाण होता है। एक कम अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त होती है तो उपरिम निरलनमें क्या प्राप्त होगा, इसप्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर सत्ताईस गुणहानियोंका बत्तीसवां भाग आता है । उसे उपरिम विरलनमें मिलानेपर इच्छितद्रव्यका भागहार होता है। इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए (३३४४८ : ८३२ = ४० = १३० +२७४८ = ३२' +६३ : ३९ )1
यवमध्यके ऊपर अनन्तर प्रमाणसे सब द्रव्य कितने काल द्वारा अपहृत होता है ? साधिक
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५, ६, ११६ ) बंधणाणुयोगद्दारे जवमज्झपरूवणा
(२०१ जवमज्झमागहारेण सादिरेयेण,चडिदद्धाणदुगुणसंकलणमेत्तपक्खेवाणं तत्थाभावादो। तं जहा-जवमज्झभागहारं विरलिय सव्वदवे समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि जवमज्झपमाणं पावदि । पुणो हेढा गुणहाणिवग्गं सचउब्भागं दोरूवेहि गुणिदं विरलिय जवमज्झं समखंडं करिय दिण्णे एगेगो पक्खेवो पावदि । पुणो चडिदद्धाणसंकलणाए दुगुणाए ओवट्टिय विरलिय पुव्वं व जवमझे दिण्णे रूवं पडि अहियपक्खेवा होति । तेसु उवरिमविरलणरूवधरिदेसु इच्छिदपमाणं होदि। हेट्ठिमविरलणं रूवणं गंतूग जदि एगा पक्खेवसलागा लब्भदि तो उवरिमविरलणाए कि लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए एगरूवस्स असेखेज्जदिभागो आगच्छदि । एदम्मि उवरिमविरलणाए पक्खित्ते इच्छिददश्वभागहारोहोदि। एवं जाणिदूण णेयव्वं जाव धवक्खंधदव्वं ति। संपहि सांतरणिरंतरवग्गणाणमवहारो ण सक्कदे णेदं । कुदो ? तव्वग्गणाणं णिरंतरमवट्ठाणाभावादो। एवमवहारो त्ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
जवमज्झपरूधणा दुविहा-दव्वद्वदाए पदेसट्टदाए चेदि । तत्थ दव्वदृदाए पत्तेयसरीरवग्गणदाए जवमज्झपमाणाए कोरमाणाए परूवणादिछअणुयोगद्दाराणि होति । परूवणाए अभवसिद्धियपाओग्गवग्गणामु जहणियाए वग्गणाए अत्थि वग्गणाओ । एवं णेयव्वं जाव उक्कस्सपत्तेगसरीरवग्गणे त्ति। पमाणं अभवसिद्धिय
यवमध्य भागहारप्रमाण काल द्वारा अपहृत होता है, क्योंकि, जितने स्थान आगे गये हैं उनके दूने के संकलनमात्र प्रक्षेपोंका वहां पर अभाव है। यथा-यवमध्यके भागहारका विरलन करके उसपर सब द्रव्यके समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर प्रत्येक विरलन अङ्कके प्रति यवमध्यका प्रमाण प्राप्त होता है। पुन: नीचे (पूर्व) दोसे गुणित चतुर्थ भागसहित गुणहानिके वर्गका विरलन करके उस पर यवमध्यके समान खण्ड करके देने पर एक एक प्रक्षेप प्राप्त होता है । पुनः जितने स्थान आगे गये हैं उनके संकलनके दुनेसे भाजित कर जो लब्ध आवे उस पर पहलेके समान यवमध्यके देने पर प्रत्येक एकके प्रति अधिक प्रक्षेप प्राप्त होते हैं। उन्हे उपरिम विरलनके प्रति प्राप्त द्रव्यमेंसे घटा देने पर इच्छित द्रव्यका प्रमाण होता है। एक कम अधस्तन विरलन मात्र जाकर यदि एक प्रक्षेप शलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर एक अङ्कका असंख्यातवां भाग आता है । इसे उपरिम विरलनमें मिला देनेपर इच्छित द्रव्यका भागहार होता है । इस प्रकार ध्रुवस्कन्ध द्रव्यके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। अब सान्तरनिरन्तरवर्गणाओंका भागहार लाना शक्य नहीं है, क्योंकि, उन वर्गणाओंका अन्तरालके विना अवस्थान नहीं पाया जाता । इस प्रकार अवहार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
यवमध्यप्ररूपणा दो प्रकार की है-द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता। उनमें से द्रव्यार्थताकी अपेक्षा प्रत्येकशरीरवर्गणाको यवमध्यके प्रमाणसे करने पर प्ररूपणा आदि छह अनुयोगद्वार होते हैं- प्ररूपणा की अपेक्षा अभव्योंके योग्य वर्गणओंमेंसे जधन्य वर्गणाको वर्गणायें है।
* अ०का० प्रत्योः ‘लद्धाभावादो' इति पाठः।
|
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२०२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ११६ पाओग्गसव्वजहण्णवग्गणट्टाणे सरिसधणियवग्गणाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ। एवं णेयव्वं जाव उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणे त्ति ।
सेडिपरूवणा दुविहा-अणंतरोवणिधाळपरंपरोवणिधा चेदि । अणंतरोवणिधाए अभवसिद्धियपाओग्गपत्तेयसरीरवग्गणाणं सव्वजहणियाए वग्गणाए आवलियाए असंखे० भागमेत्ताओ सरिसधणियवग्गणाओ होंति । एवमणंताओ सरिसधणियवग्गणाओ तत्तियाओ चेव होदूण उवरि गच्छंति । एवं गंतूण तदो एया पत्तेयसरीरवग्गणा* अहिया होदि । तं जहा- अवद्विदमावलियाए असंखे०भागमेत्तभागहारं विरलेदूण सव्वजहण्णवग्गणासु आवलियाए असंखे०भागमेत्तासु समखंडं कादण दिण्णासु एक्केक्कस्स एगेगपत्तेयसरीरवग्गणपमाणं पावदि। पुणो एत्थ एगरूवधरिदवग्गणं घेत्तूण पुवुत्तावलियाए असंखे०भागमेत्तपत्तेयसरीरवग्गणाणमुवरि पक्खित्ते तदणंतरउवरिमविसेसाहियवग्गणपमाणं होदि। पुणो पुणो अणेण पमाणेण अणंतावो वग्गणाओ उवरि गंतूण तदो एया वग्गणा अहिया होदि त्ति अघट्ठिदविरलणाए बिदियख्वधरिदं घेत्तण हेट्रिमवग्गणाए पविखत्ते उवरिमवग्गणा होदि । एवमणंताओ वग्गणाओ तत्तियाओ उवरि गंतूण पुणो एया वग्गणा अहिया होदि । एवं जाणिदूण यन्वं जाव पढमदुगुणवड्ढी उप्पण्णे त्ति । सा पुण अवट्ठिदविरलणइस प्रकार उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । प्रमाण-अभव्योंके याग्य सबसे जघन्य वर्गणास्थान में सदृश धनवाली वर्गणायें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाके प्राप्त होनेतक ले जाना चाहिए ।
श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारकी है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा अभव्योंके योग्य प्रत्येकशरीरवर्गणाओंमें से सबसे जघन्य वर्गणामें सदृश धनवाली वर्गणायें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इस प्रकार अनन्त सदृश धनवाली वर्गणायें उतनी ही होकर आगे जाती हैं। इस प्रकार जाकर अनन्तर एक प्रत्येकशरीरवर्गणा अधिक होती है । यथा-आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अवस्थित भागहारका विरलन कर उसपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण सबसे जघन्य वर्गणाओंको समान खण्ड करके देनेपर एक एक विरलनके प्रति एक एक प्रत्येकशरीरवर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः यहां एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त वर्गणाको ग्रहण कर उसे पूर्वोक्त आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रत्येक शरीर वर्गणाओंके ऊपर प्रक्षिप्त करनेपर तदनन्तर उपरिम विशेष अधिक वर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता
पुनः इस प्रमाणसे अनन्त वर्गणायें ऊपर जाकर अनन्तर एक वर्गणा अधिक होता है, इसलिये अवस्थित विरलनके दूसरे विरलन अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहण करके उसे अधस्तन वर्गणामें मिलाने पर उपरिम वर्गणा होती है । इस प्रकार अनन्त वर्गणायें उतनीही ऊपर जाकर पुन. एक वर्गणा अधिक होती है । इस प्रकार प्रथम द्विगुणवृद्धिके उत्पन्न होने तक जान
Oता०प्रतौ 'सेडिपरूवणा तहा (दुविहा) अणंतरोपणिधा' अ०का. प्रत्योः 'सेडिपरूवणा तहा अणंतरोवणिधा' इति पाठः। *- ता.प्रतौ '-वग्गणा (ए)' अ०का प्रत्योः '- वग्गणाए' इति पाठः ।
0 ता०प्रती -भागमेत्तसु पत्तेयसरीरवग्गणाणमवरि पक्खित्ते (सु-) तदणंतर- इति पाठः ।
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५, ६, ११६.) बंधणाणुयोगद्दारे जवमज्झपरूवणा
(२०३ सव्वरूवधरिदेसु परिवाडीए पविठेसु उप्पज्जदि। पुणो पढमदुगुणवडिवग्गणपमाणेण अणंताओ वग्गणाओ उरि गंतूण तदो एगवारेण बेवग्गणामो अहियाओ होति । तं जहा-पुव्वुत्तअवट्ठिदविरलणाए पढमदुगुणड्डि समखंडं कादूण दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स बेबे पत्तेयसरीरवग्गणाओ पार्वति । पुणो एत्थ एगरूवधरिदे पढमदुगु गवड्ढ.ए पक्खित्ते विसेसाहियउवरिमवग्गणपमाणं होदि । एवमणंताओ वग्गणाओ समाणाओ होदूण उरि गच्छति । तदो जा उवरिमअणंतरवग्गणा तिस्से बे वग्गणाओ अहिया होति। एवं जाणिदूण णेयव्वं जाव बिदियदुगुणवड्ढ त्ति । पुणो बिदियदुगुणवडिपमाणेण अणंताओ वग्गणाओ गंतूण तदो जा अणंतरउवरिमवग्गणा तत्थ एगवारेण चत्तारि वग्गणाओ अहियाओ होति । तं जहा-पुवुत्तअवट्ठिदविरलणाए बिदियदुगुणड्ढि समखंडं काढूण दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स चत्तारि वग्गणाओ पावेंति । पुणो एत्थ एगरूवरिदं घेतूण पक्खित्ते तदणंतरवग्गणपमाणं होदि । पुणो उवरि जाणिदूण
यव्वं जाव जवमज्झे ति । पुणो जवमज्झपमाणेण उवरि अणंताओ वग्गणाओगंतूण तदो जा उवरिमअणंतरवग्गणा तत्थ असंखेज्जाओ वग्गणाी ज्झीयंति। तं जहाजवमज्झस्स हेट्ठिमभागहारं दुगुणं विरलेदूण जवमज्झ समखंडं कादूण दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स पक्खेवपमाणं पावदि । पुगो एत्थ एगरूवधरिदमेत्तं जवमज्झम्मि अवणिदे विसेसहीणवग्गणपमाणं होदि । पुणो अणेण पमाणेण अणंताओ वग्गणाओ
कर ले जाना चाहिये । परन्तु वह अवस्थित विरलन के सब विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्यमें क्रमसे प्रविष्ट होने पर उत्पन्न होती है । पुनः प्रथम द्विगुणवृद्धि वर्गणाके प्रमाणसे अनन्त वर्गणायें ऊपर जाकर अनन्तर एक बारमें दो वर्गणायें अधिक होती हैं। यथा-पूर्वोक्त अवस्थित विरलनके ऊपर प्रथम द्विगुणवृद्धि के समान खण्ड करके देनेपर एक एक विरलन अंकके प्रति दो दो प्रत्येक शरीरवर्गणायें प्राप्त होती हैं। पुनः यहां एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको प्रथम द्विगुण वृद्धिमें मिलाने पर विशेष अधिक उपरिम वर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार अनन्त वर्गणायें समान होकर ऊपर जाती हैं। अनन्तर जो उपरिम अनन्तर वर्गणा है उसकी दो वर्गणायें अधिक होती हैं। इस प्रकार दूसरी द्विगुणावृद्धिके प्राप्त होने तक जानकर ले जाना चाहिए । पुनः दूसरी द्विगुणवृद्धि के प्रमाणसे अनन्त वर्गणायें जाकर जो अनन्तर उपरिम वर्गणा है वहां एक साथ चार वर्गणायें अधिक होती हैं । यथा-पूर्वोक्त अवस्थित विरलनके प्रति द्वितीय द्विगुणवृद्धिको समान खण्ड करके देने पर एक एक विरलन अंकके प्रति चार वर्गणायें प्राप्त होती हैं। पूनः यहां एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहणकर मिलाने पर तदनन्तर वर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है। पुन: ऊपर यवमध्यके प्राप्त होनेतक जानकर ले जाना चाहिए। पुनः यवमध्यके प्रमाणसे ऊपर अनन्त वर्गणायें जाकर उसके बाद जो उपरिम अनन्तर वर्गणा है वहां असंख्यात वर्गणायें गल जाती है। यथा-यवमध्यके दूने अधस्तन भागहारका विरलन करके उस पर यवमध्यके समान खण्ड करके देने पर एक एक विरलन अंकके प्रति प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः यहां एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको यवमध्य में से घटा देनेपर विशेष हीन वर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः इस प्रमाणसे अनन्त वर्गणायें जाकर जो अनन्तर
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२०४)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
(५, ६, ११६. गंतूण जा अणंतरवग्गणा तत्थ बिदियपक्खेवो ज्झीयदि । एवं जाणिदूण यव्वं जाव पढमदुगुणहीणवग्गणे त्ति । पुणो पढमदुगुणहीणवग्गणपमाणेण अणंताओ वग्गणाओ उरि गंतूण तदो जा उवरिमवग्गणा तत्थ असंखेज्जाओ वग्गणाओ ज्झीयंति । उवरि जाणिदण यव्वं । णवरि आवलियाए असंखे०भागममेत्तदुगुणहीणाओछउवरि गंतूण सव्वजहण्णवग्गणपमाणवग्गणा होदि । पुणो सवजहण्णवग्गणपमाणेण अणंताओ वग्गणाओ उरि गंतूण तदो जा अणंतरवग्गणा तत्थ एगा वग्गणा ज्झीयदि । एवं जाणिदूण यव्वं जाव दुगुणहीणजहण्णवग्गणे त्ति । एत्तो उवरि जधा अणुभागट्ठाणेसु एगजीवपरिहाणी कदा तधा एत्थ वि काऊण यव्वं जावुक्कस्सपत्तेयसरीरवगणे त्ति।
परंपरोवणिधाए अभवसिद्धियपाओग्गसव्वजहण्णवग्गणाहितो अणंताओ वग्गणाओ गंतूण दुगुणवड्ढी होदि । एवं दुगुणवड्डिदा दुगुणवड्डिदा होदूण गच्छंति जाव जवमज्झं ति । तेण परमणंताओ वग्गणाओ गंतूण दुगुणहाणी होदि । एवं दुगुणही. णाओ दुगुणहीणाओ होदूण गच्छंति जाव उक्कस्सपत्तयसरीरवग्गणे ति । एत्थ परूवणादितिण्णिअणुयोगद्दाराणि होति । परूवणदाए अत्थि एगवग्गण-गुणहाणिट्ठाणंतरं णाणागुणहाणिसलागाओ च । पमाणं-एगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं सव्वजोवेहि अणंतगुणं । णाणागुणहाणिसलागाओ जवमझादो हेट्ठा उरि च आवलियाए असंखे०भागमेत्ताओ होति । अप्पाबहुअं-सव्वत्थोवाओ णाणागुणहाणि
वर्गणा है उसमेंसे द्वितीय प्रक्षेप गलित होता है । इस प्रकार प्रथम द्विगुणहीन वर्गणाके प्राप्त होने तक जान कर ले जाना चाहिए। पुनः प्रथम द्विगुणहीन वर्गणाके प्रमाणसे अनंत वर्गणायें ऊपर जा कर अनन्तर जो उपरिम वर्गणा है वहां असंख्यात वर्गणायें गलित होती हैं। ऊपर जान कर ले जाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणहीन वर्गणायें ऊपर जा कर सबसे जघन्य वर्गणाके प्रमाणवाली वर्गणा होती है । पुनः सबसे जघन्य वर्गणाके प्रमाणसे अनन्त वर्गणायें ऊपर जाकर उसके बाद जो अनन्तर वर्गणा है वहाँ एक वर्गणा गलित होती है । इस प्रकार द्विगुणहीन जघन्य वर्गणाके प्राप्त होने तक जानकर ले जाना चाहिए। इससे आगे जिस प्रकार अनुभागस्थानोंमें एक जीवपरिहानि की है उसी प्रकार उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाके प्राप्त होने तक यहां भी करके ले जाना चाहिए ।
परम्परोपनिधाकी अपेक्षा अभव्योंके योग्य सबसे जघन्य वर्गणासे लेकर अनन्त वर्गणायें जाकर द्विगुणवृद्धि होती है। इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होनेतक दूनी दूनी वृद्धि होती जाती है। उसके बाद अनन्त वर्गणायें जाकर द्विगुणहानि होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणाके प्राप्त होने तक दूनी हानि दूनी हानि होकर जाती है। यहां पर प्ररूपणा आदि तीन अनुयोगद्वार होते हैं। प्ररूपणाको अपेक्षा एकवर्गणागुणहानिस्थानान्तर है और नानागुणहानिशलाकायें हैं ।
ण-एक प्रदेशगणहानिस्थानान्तर सब जीवोंसे अनन्तगणा है। नानागणाहानिशलाकायें यवमध्यके नीचे और ऊपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अल्पबहुत्व-नानागुणहानि
लिप्रतिषु '-दुगुणहाणीओ' इति पाठः । ॐ अ का०प्रत्यो: '-पमाणं वग्गणा' इति पाठः ।
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५, ६, ११६) बंधणाणुयोगद्दारे जवमज्झपरूवणा
(२०५ सलागाओ। एगवग्गणदुगुणहाणिट्ठाणंतरमणंतगुणं । को गुणगारो ? सव्वजीवेहि अणंतगणो।
अवहारो ण सक्कदे णेदुं । कुदो? णिरंतरवड्ढीए हाणीए वा वग्गणाणं गमणाणुवलंभादो । अथवा सरिसघणियवग्गणाओ छंडेदूण विसेसाहियवग्गणाओ चेव घेत्तूण भण्णमाणे अवहारो सक्कदे वोत्तुं । तं जहा-* जवमज्झस्सुवरिमअसंखेज्जगुणहाणिदव्वे जवमज्झपमाणे कीरमाणे दिवडगुणहाणिमेत्ताणि जवमज्झाणि होति । हेटिम असंखज्जगुणहाणिदव्वे वि जवमझपमाणेण कीरमाणे दिवड्ढगुणहाणिमेत्तजवमज्झाणि होति । पुणो दोसु वि दम्वेसु एगट्टमेलिदेसु तिण्णिगुणहाणिमेत्तजवमज्झाणि होति । संपहि जवमज्झपमाणेण सव्वदव्वं केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जदि ? तिण्णिगुणहाणिट्टाणंतरेण आवलिए असंखे०भागपमाणेण कालेण अवहिरिज्जदि । संपहि अभवसिद्धियपाओग्गसव्वजहण्णवग्गणपमाणेण सव्वदव्वं केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जदि ? असंखेज्जतिणि* गुणहाणिढाणंतरेग कालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा-जवमज्झादो हेट्ठा आवलियाए असंखे० भागमेत्ताओ णाणागुणहाणिसलागाओ होति । पुणो एदाओ विरलिय बिगुणिय अण्णोण्णब्भत्थे कदे उप्पण्णरासिपमाणं पि आवलियाए असंखे०भागमेत्तं चेव होदि । कुदो? जवमझे जह ण द्वाणे वि आ व लि या ए असं खे ० भा ग मे ता णं शलाकायें सबसे स्तोक हैं । इनके एकवर्गणाद्विगुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणा है । गुणकार क्या हैं ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है ।
अवहार ले जाना शक्य नहीं है, क्योंकि, निरन्तर वृद्धि और निरन्तर हानिरूपसे वर्गणाओंका सिलसिला नहीं उपलब्ध होता है । अथवा सदृश धनवाली वर्गणाओंको छोडकर विशेषाधिक वर्गणाओंको ही ग्रहण करके कथन करने पर अवहारका कथन करना शक्य है । यथा यवमध्यसे उपरिम असंख्यातगुणहानिके द्रव्यको यवमध्यके प्रमाण करने पर डेढ़ गुणाहानिमात्र यवमध्य होते हैं । अधस्तन असंख्यातगुणहानिके द्रव्योंको भी यवमध्यके प्रमाणसे करनेपर डेढ़ गुणहानिमात्र यवमध्य होते हैं । पुनः दो द्रव्योंको भी इकठ्ठा मिलाने पर तीन गुणहानिमात्र यवमध्य होते हैं । अब यवमध्यके प्रमाणसे सब द्रव्य कितने काल द्वारा अपहृत होता है ? तीन गुणहानिस्थानान्तररूप आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काला द्वारा अपहृत होता है । अब अभव्योंके योग्य सबसे जघन्य वर्गणाके प्रमाणसे सब द्रव्य कितने कालके द्वारा अपहृत होता है ? असंख्यात त्रिगुणहानिस्थानान्तर कालकें द्वारा अपहृत होता है । यथा-यवमध्यके नोचे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण नानागुणहानिशलाकायें होती हैं। पुनः इनका विरलन कर और द्विगुणित कर परस्पर गुणा करने पर उत्पन्न हुई राशिका प्रमाण भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, क्योंकि, यवमध्यरूप जघन्य स्थानमें भी आवलिके
प्रतिषु ‘एवं वग्गण-' इति पाठः ॐ अ-आ प्रत्योः 'छड्डेदूण' इति पाठ; 1 * म. प्रतिपाठोऽयम् । ता०अ०प्रत्योः 'वोत्तुं जत्तं जहा' का०प्रतो वोत्तुं उत्तं जहा' इति पाठः । ॐ ता०प्रतौ 'जवमज्झपमाणेण' कीरमाणे दिवड्ढगणहाणिमेतजवमज्झाणि होति । पुणो सव्वदच' इति पाठः। -*- म०प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिष 'अवहिरिज्जदि ? असंखेज्ज तिण्णि' इति पाठः ।
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२०६) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, ११६. चेव वग्गणाणमुवलंभादो। पुणो एदेण तिसु गुणहाणीसु गुणिदासु अभवसिद्धियपाओग्गसव्वजहण्णभागहारो होदि । एवं जाणिदण णेयव्वं जाव उक्कर सपत्तेयसरीरवग्गणे त्ति।
संपहि उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए भागहारो वुच्चदे।तं जहा- जवमज्झादो उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ आवलियाए असंखे०भागमेत्ताओ होंति । पुणो एदाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णगुणिदरासिपमाणं पि आवलियाए असं०भागमेत्तं होदि। पुणो एदेण अण्णोण्णब्भत्यरासिणा तिसु गुणहाणीसु गुणिदासु उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणभागहारो होदि ।
भागाभागं-अभव सिद्धियपाओगसव्वजहण्णवग्गणाओ सव्वदव्वस्स केवडियो भागो? असंखेज्जदिभागो अणंतिमभागो वा। कुदो ? सयलद्धाणवग्गणग्गहणादो। एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणे त्ति । ___अप्पासहुगं-सव्वत्थोवाओ उक्कस्सट्टाणे पत्तेयसरीरवग्गणाओ। जहण्णट्ठाणे पत्तेयसरीरवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओको गुणगारो? आवलियाए असंखे०भागो। जवमज्झट्ठाणे पत्तेयसरीरवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ। को गुणगारो ? आवलि. असंखे०भागो । जवमज्झादो हेढा पत्तेयसरीरवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ । को गुणगारो ? किंचूणदिवड्डगुणहाणीयो । जवमज्झस्सुवरिमवग्गणाओ विसेसाहियाओ। केत्तियमेत्तेण? जवमज्झस्सुवरिमजहण्णपत्तेयसरीरसरिसवग्गणाणमुवरिमवग्गणमेत्तेण। असंख्यातवें भागप्रमाण ही वर्गणाओंकी उपलब्धि होती है पुनः इनके द्वारा तीन गुणाहानियोंके गुणित करने पर अभव्योंके योग्य सबसे जघन्य भागहार होता है इस प्रकार जान कर उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणाके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए ।
__ अब उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाका भागहार कहते हैं । यथा-यवमध्यके ऊपर नाना गुणहानिशलाकायें आवलिके असंख्यातवें भामप्रमाण होती हैं। पुनः इनका विरलन करके और दूनी करके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुई राशिका प्रमाण भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । पुनः इस अन्योन्याभ्यस्तराशिसे तीन गुणहानियोंके गुणित करने पर उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाका भागहार होता है ।
भागाभाग-अभव्योंके योग्य सबसे जघन्य वर्गणायें सब द्रव्य के कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण या अनन्तवें भागप्रमाण है, क्योंकि, समस्त अध्वानकी वर्गणाओंको ग्रहण किया है। इस प्रकार उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । ____ अल्पबहुत्व- उत्कृष्ट स्थान में प्रत्येकशरीरवर्गणायें सबसे स्तोक हैं। इनके जघन्य स्थानमें प्रत्येकशरीरवर्गणायें असंख्यातगणी हैं। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । इनसे यवमध्यस्थानमें प्रत्येकशरीरवर्गणाये असंख्यातगुणी हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । इनसे यवमध्यके नीचे प्रत्येकशरीरवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है? कुछ कम डेढगुणहानिप्रमाण गुणकार है । इनसे यवमध्यसे उपरिम वर्गणायें विशेष अधिक हैं। कितनी अधिक हैं? यवमध्यसे उपरिम जघन्य प्रत्येकशरीरवर्गणाओंके समान उपरिम वर्गणाओंके ऊपरवाली वर्गणाओं मात्रसे अधिक हैं। इनसे सब
* तापतौ- 'बग्गाओ (जहणटाणे ) असंखेज्जगणो' इति पाठः।
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५, ६, ११६.) बंधणाणुयोगद्दारे जवमज्झपरूवणा
(२०७ सव्वेसु ढाणेसु वग्गणाओ विसेसाहियाओ। केत्तियमेत्तेण? जवमज्झहेट्ठिमट्ठाणवग्गणमेत्तेण । एवं बादरसुहमणिगोदवग्गणाणं जवमज्झपरूवणाए छ,णयोगद्दाराणि परूवेदव्वाणि ।
पदेसट्टदाए जवमज्झं वुच्चदे । तं जहा-परमाणुवग्गणपदेसेहितो दुपदेसियवग्गणपदेसा विसेसाहिया। एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाद दवट्ठदाए दिवड्डगुणहाणिट्ठाणंतरमेत्तमद्धाणं गंतूण दोसुटाणेसु जवमज्झं होदि। तत्तो उवरि विसेसहीणा विसेसहीणा जाव विसेसहीणवग्गणाओ गिट्ठिदाओ त्ति। एवं जवमझे त्ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
पदमीमांसाए परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा जहण्णा अजहण्णा? उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा जहण्णा वा अजहण्णा वा । एवं णेयव्वं जाव धुवक्खंधदव्ववग्गणे त्ति । अचित्तअद्धवक्खंधदव्ववग्गणाओ सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तो उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा जहण्णा वा अजहण्णा वा । एवं पत्तेयसरीरबादरणिगोदसुहमणिगोदमहाखंधवग्गणाणं पि वत्तव्वं । णवरि महाखंधवग्गणाए एयसमयम्मि सरिसधणियवग्गणाओ णत्थि, साभावियादो। परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणाए जहण्णादो उक्कस्सिया विसेसाहिया। विसेसो पुणोअणंताणि पोग्गलपढमवग्गमूलाणि। स्थानोंमे वर्गणायें विशेष अधिक हैं। कितनी अधिक है? यवमध्यसे अधस्तन स्थानकी वर्गणामात्र अधिक हैं । इसी प्रकार बादर निगोदवर्गणा और सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंके यवमध्यका प्ररूपणा करते समय छह अनुयोगद्वारका कथन करना चाहिए। __अब प्रदेशार्थताको अपेक्षा यवमध्यका कथन करते हैं। यथा-परमाणुवर्गणाके प्रदेशोंसे द्विप्रदेशी वर्गणाके प्रदेश विशेष अधिक हैं। इस प्रकार द्रव्यार्थताकी अपेक्षा डेढ़गुणहानि स्थानान्तरमात्र अध्वान जाकर दो स्थानोंमें यवमध्यके प्राप्त होनेतक विशेष अधिक विशेष अधिक जानना चाहिए । इसके आगे विशेष हीन वर्गणाओंके समाप्त होनेतक विशेष हीन विशेष हीन जानना चाहिए। इस प्रकार यवमध्य अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
पदमीमांसाकी अपेक्षा परमाणुपुदगलद्रव्यवर्गणा क्या उत्कृष्ट होती है, अनुत्कृष्ट होती है, जघन्य होती है या अजघन्य होती है? उत्कृष्ट होती है, अनुत्कृष्ट होती है, जघन्य होती है और अजघन्य होती है । इस प्रकार ध्रुवस्कन्धवर्गणाके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । अचित्त अध्रुवस्कन्ध द्रव्यवर्गणायें कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं ? यदि है तो उत्कृष्ट होती है, अनुत्कृष्ट होती हैं, जघन्य होती हैं और अजघन्य होती हैं। इसी प्रकार प्रत्येकशरीरवर्गणा, बादरनिगोदद्रव्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदद्र व्यवर्गणा और महास्कन्धवर्गणाओं के विषयमें भी कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि महास्कन्धवर्गणाकी अपेक्षा एक समय में सदृश धनवाली वर्गणायें नहीं हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। परमाणुपुदगलद्रव्यवर्गणाकी अपेक्षा जघन्यसे उत्कृष्ट विशेष अधिक है । तथा विशेष पुद्गलके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण हैं। उनका प्रतिभाग क्या
ता०प्रतौ 'उक्कस्सा वा जहण्णा वा' इति पाठः । म म०प्रतिपाठोऽयम् । ता०प्रतौ 'विसेसाहिया विसेसाहिया । पूणो' अ०प्रती 'विसेसाहिया विसे० २ । पूणो' का०प्रतौ विसेसाहिया विसेसाहिया पुणो'
इति पाठ :।
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२०८ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ११६ तेसी को पडिभागो? असंखेज्जा लोगा। एवं णेयव्वं जाव धुवक्खंधवग्गणे त्ति । एवं पदमीमांसे त्ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
अप्पाबहगं तिविहं-णाणासेडिदव्वददा णाणासेडिपदेसट्टदा एगसेडिणाणासेडिदवट्ठपदेसद्वदा चेदि । संपहि णाणासेडिदव्वद्वदप्पाबहुगं वुच्चदे। ते जहासव्वत्थोवा महाखंधदव्वग्गणाए दवा। कुदो ? एयत्तादो। बादरणिगोदवग्गगाए दव्वा णसंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखे०भागो । कुदो ? समाणवग्गणाओ मोत्तूण विसेसाहियवग्गणाणं चेव गहणादो। अथवा गुणगारो असंखेज्जा लोगा। कुदो ? वट्टमाणकालबादरणिगोदवग्गणाणं गहणादो। बादरणिगोदवग्गणाओ असंखेज्जलोगमेत्तीयो होति त्ति कुदो णव्वदे। अविरुद्धाइरियवयणादो जुत्तीए च । तं जहा-एक्किस्से वग्गणाए जहण्णण आवलियाए० असंखे० भागमेत्तपुलवियाओ होंति, उक्कस्सेण सेडीए असंखे० भागमेत्ताओ। एदाओ च ण पउरं लब्भंति । तेण आवलियाए असंखे०भागमेत्तपुलवियाहि वग्गणाणयणं कस्सामोआवलि० असंखे०भागमेत्तपुलवियाहि जदि एगा बादरणिगोदवरगणा लब्भदि तो असंखेज्जलोगमेत्तपुलवियासु केत्तियाओ बादरणिगोदवग्गणाओ लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए असंखेज्जलोगमेत्ताओ बादरणिगोदवग्गणाओ
है ? असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभाग है। इस प्रकार ध्रुवस्कन्धवर्गणाके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार पदमीमांसा अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
__ अल्पबहुत्व तीन प्रकार का है- नानाश्रेणिद्रव्यार्थता, नानाश्रेणिप्रदेशार्थता और एकश्रेणिनानाश्रेणिद्रव्यार्थता-प्रदेशार्थता । अब नानाश्रेणिद्रव्यार्थता अल्पबहुत्वको कहते हैं। यथामहास्कन्धद्रव्यवर्गणाका द्रव्य सबसे स्तोक है, क्योंकि, वह एक है। बादरनिगोदवर्गणाके द्रव्य असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि समान वर्गणाओंको छोडकर विशेष अधिक वर्गणाओंको ही यहाँ पर ग्रहण किया है। अथवा गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है। क्योंकि, वर्तमान कालकी बादरनिगोदवगणाओंका ग्रहण किया है।
शंका- बादरनिगोदवर्गणायें असंख्यात लोकप्रमाण हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है?
समाधान- अविरुद्ध आचार्योंके वचनसे और यक्तिसे जाना जाता है। यथा- एक वर्गणामें जघन्यसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियां होती हैं और उत्कृष्टसे जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। किन्तु ये प्रचुरमात्रामें उपलब्ध नहीं होती है, इसलिए आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंके द्वारा वर्गणाओंको लाते हैं- आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंके आलम्बनसे यदि एक वादरनिगोदवर्गणा प्राप्त होती है तो असंख्यात लोकप्रमाण पुलवियोंमें कितनी बादरनिगोदवर्गणायें प्राप्त होगी, इस प्रकार फलराशिसे गणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर असंख्यात लोकप्रमाण बादरनिगोदवर्गणायें प्राप्त होती
* ता०का०प्रत्योः '-खधदव्ववाणाए दव्व असंखेज्जगुणा' इति पाठः ।
ॐ अ-आप्रत्योः 'सखेज्ज' इति पाठः ।
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५, ६, ११६.) बंधणाणुयोगद्दारे अप्पाबहुपरूवणा
(२०९ लन्भंति । तेण असंखेज्जालोगा गुणगारो ति सिद्धं । सुहमणिगोदवग्गणाए णाणासेडिसव्वदव्वा असंखेज्जगुणा। को गुणगारो ? आवलि० असंखे भागो कुदो ? विसेसाहियवग्गणपमाणादो । उभयत्थ तिण्णिगुणहाणिमेत्तजवमझे संतेसु कथं बादरणिगोदव्वग्गणाहितो सुहमणिगोदवग्गणाणमसंखेज्जगुणत्तं जुज्जदे ? ण, बादरणिगोदजवमज्झसरिसधणिवग्गणाहितो सुहमणिगोदजवमज्झसरिसधणियवग्गणाणमसंखेज्जगुणतुवलंभादो । को गुण ? आवलि० असंखे०भागो। कुदो एदं णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो। अथवा गुणगारो असंखेज्जा लोगा। कुदो ? वट्टमाणकालसयलवग्गणग्गहणादो, बादरणिगोदपुलवियाहिंतो सुहमणिगोदपुलवियाणमसंखेज्जगुणतुवलंभादो को गुण ? असंखेज्जा लोगा। एदाहि पुलवियाहिंतो वग्गणपमाणं पुव्वं व अःणेयव्वं । पत्तेयसरीरवग्गणाए णाणासेडिसव्वदव्वा असंखेज्जगुणा । को गुण० ? आवलि० असंखे०भागो कुदो ? विसेसाहियवग्गणप्पणाए। उभयत्थ ति(ण्णगुणहाणिमेत्तजवज्झेसु संतेसु कथं पत्तेयसरीरवग्गणा णमसंखेज्जगुणतं ? ण, सुहमणिगोदगुणहाणीदो पत्तेयसरीरगुणहाणीए असंखेज्ज
हैं । इसलिये गुणकार असंख्यात लोकप्रमाग है यह बात सिद्ध होती है।
सूक्ष्मनिगोदवर्गणाके नानाश्रेणि सब द्रव्य असंख्यात गुणे हैं ? गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि विशेष अधिक वर्गणाओंका प्रमाण लिया गया है।
शंका- उभयत्र तीनगुणहानिमात्र यवमध्योंके रहने पर बादरनिगोदवर्गणाओंसे सूक्ष्मनिगोदवर्गणायें असंख्यातगुणी कैसे बन सकती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि बादरनिगोद यवमध्य सदृश धनवाली वर्गणाओंसे सूक्ष्मनिगोद यवमध्य सदृश धनवाली वर्गणायें असंख्यातगुणी उपलब्ध होती है।
गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- अविरुद्ध आचार्योंके वचनसे जाना जाता है
अथवा गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है, क्योंकि वर्तमान कालकी सब वर्गणाओंका ग्रहण किया है । तथा बादरनिगोदपुलवियोंसे सूक्ष्मनिगोदपुलवियां असंख्यातगुणी उपलब्ध होती है। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण गुणकार है। इन पुलवियोंके आलम्बनसे वर्गणाओंका प्रमाण पहलेके समान लाना चाहिए । प्रत्येकशरीरवर्गणाके नानाश्रेणि सब द्रव्य असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या ! आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार हैं, क्योंकि विशेष अधिक वर्गणाओंकी मुख्यता है ।
शंका- उभयत्र तीन गुणहानिप्रमाण यवमध्योंके रहनेपर प्रत्येकशरीरवर्गणायें असंख्यातगुणी कैसे हे ?
समाधान- नहीं, क्योंकि सूक्ष्मनिगोदकी गुणहानिसे प्रत्येकशरीरकी गुणहानि असंख्यात
माता प्रतौ 'वग्गणप्पमाणाए' इति पाठः ।
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२१० )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, ११६
गुणत्तादो, सरिसधणियवग्गणाणं तव्वग्गणाहितो असंखेज्जगुणत्तादो वा । अथवा गुणगारो असंखज्जा लोगा। कुदो? वट्टमाणासेमवग्गणप्पणादो। सुहुमणिगोदवग्गणाहितो कथं पत्तेयसरीरवग्गणाणमसंखेज्जगुणत्तं जुज्जदे ? ण, एगजीवेण वि पत्तेयसरीरवरगणापित्तदो, अनंतेहि जीवेहि विणा सुहुमणिगोद वग्गणाणुप्पत्ती दो । सांतरणिरंतरवग्गणाए णाणासेडिसव्वदव्वमणंतगुणं । को गुणगारो ? सव्वजीवेहि अनंतगुणो । कुदो ? तत्थतणजहण्णवग्गणाए वि उक्कस्सेण अतस रिसधणियवग्गणुवलंभादो । धुवखंधवग्गणाए णाणासेडिसव्वदव्वा अनंतगुणा । को गुण० ? सव्वजीवेहि अनंतगुण । दिवगुणहाणिगुणिद सगणाणागुणहाणिसला गाणमण्णोष्णन्भत्य रासि त्ति भणिदं होदि । कम्मइयवग्गणाए णाणासेडिसव्वदव्वा अनंतगुणा । को गुण० ? कम्मइयवग्गणउभंतरणाणागुणहाणिस लागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोष्णेव गुणिदरासी गुणगारो । कुदो ? धुवक्खंधदव्वे सगपढवग्गणपमाणेण कीरमाणे दिवढगुणहाणि -
पढमवग्गणाओ होंति । पुणो कम्मइयदव्वे वि सगपढमवग्गणपमाणेण कीरमाणे दिवगुणहाणिमेत्तपढमवग्गणाओ उप्पज्जंति । एत्थतणएगमपढमवग्गणाए कम्मइयअण्णोष्णब्भत्थरासिमेत्ताओ धुववखंधपढमवग्गणाओ होंति त्ति अण्णोष्णन्भत्थरासिणा गुणिदे एत्तियाओ कम्म इयवगग्णाओ ध्रुवक्खंधपढमवग्गणाओ उप्पज्जंति । संपहिय
है । अथवा उन वर्गणाओंसें सदृश धनवाली वर्गणायें असंख्यातगुण हैं |
अथवा गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है, क्योंकि वर्तमान कालकी समस्त वर्गणाओंकी मुख्यता है ।
शंका- सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंसे प्रत्येकशरीरवर्गणायें असंख्यातगुणी कैसे बन सकती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि एक जीवके द्वाराभी प्रत्येकशरीरवर्गणाकी निष्पत्ति होती है और अनन्त जीवोंके बिना सूक्ष्मनिगोदवर्गणाकी उत्पत्ति नहीं हो सकती ।
सान्तरनिरन्तरवर्गणा में नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणा है । गुणाकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है, क्योंकि वहां की जघन्य वर्गणा में भी उत्कृष्टसे अनन्त सदृश धनवाली वर्गणायें उपलब्ध होती हैं । धुवस्कन्धवर्गणा में नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणें हैं । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है । डेढ़ गुणहानिसे गुणित अपनी नाना गुणानिशलाकाओं की अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । कार्मणवर्गणा में नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? कामवर्गणा के भीतर नाना गुणहानिशलाओंका विरलन कर व दूना कर परस्पर गुणित करने से उत्पन्न हुई राशि गुकका र है, क्योंकि स्कन्ध द्रव्यके अपनी प्रथम वर्गणाके प्रमाणसे करनेपर डेढ़ गुणहानिमात्र प्रथम वर्गणायें होती हैं । पुनः कार्मणद्रव्यकें भी अपनी प्रथम वर्गणाके प्रमाणसे करने पर डेढ़ गुणहानिमात्र प्रथम वर्गगायें उत्पन्न होती हैं। यहांकी एक प्रथम वर्गणामे कार्मण अन्योन्याभ्यस्त राशिमात्र ध्रुवस्कन्धकी प्रथम वर्गणायें होती हैं इसलिए अन्योन्याभ्यस्न राशिके गुणित करनेपर इतनी कार्मंगवर्गणायें ध्रुवस्कन्ध प्रथम वगणायें उत्पन्न होती हैं । अब डेढ़ गुणहानिमात्र ध्रुवस्कत्ध
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५, ६, ११६ ) बंधणाणुयोगद्दारे अप्पाबहुअपरूवणा
( २११ दिवड्ढमेत्तधुवक्खंधपढमवग्गणाहि कम्मइयवग्गणासु ओवट्टिदासु अण्णोण्णब्भत्थरासी जेण आगच्छदि तेण पुवुत्तगुणगारो सिद्धो। एदमत्थपदमुवरि सव्वत्थ वत्तव्वं । कम्मइयवग्गणाए हेटा अगहणवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा। को गुण ? अगहणवग्गणभंतरे अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ गुणहाणिसलागाओ अस्थि । एदाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासी गुणगारो। मणदव्ववग्गणासु णाणासेडिसव्वदवा अणंतगुणा । को गुण ? मणदव्ववग्गणभंतरअण्णोण्णब्भत्थरासी गुणगारो । मणस्स हेटिमअगहणदव्ववग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा। को गुण ? अगहणअण्णोण्णब्भत्थरासी गुणगारो। भासावग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा। को गुण ? भासावग्गणअण्णोण्णभत्थरासो गुणगारो। भासाए हेटा अगहणवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा। को गुण ? अगहणअण्णोण्णब्भत्थरासी गुणगारो। तेजावग्गणासु णाणासेडिसव्वदवा अणंतगुणा । को गुण०? तेजावग्गणअण्णोण्णब्भत्थरासी। तेजइयस्स हेटिमअगहणदव्ववग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा। को गुण ? अगहणअण्णोण्णब्भत्थरासी । आहारवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अगंतगुणा । को गुण ० आहारवग्गणअण्णोण्णब्भत्थरासी । आहारवग्गणाए हेट्टिमअणंतपदेसियअगहणदव्ववग्गणासु णाणासेडिसवदव्वा अणंतगुणा । को गुण ० अगहणअण्णोण्णभत्थरासी । परमाणुवग्गणाए णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा । को
प्रथम वर्गणाओंसे कार्मणवर्गणाओंके भाजित करने पर यतः अन्योन्याभ्यस्त राशि आती है अतः पूर्वोक्त गुणकार सिद्ध होता है । यह अर्थपद आगे सर्वत्र कहना चाहिए। कार्मणवर्गणासे नीचे अग्रहणवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगणे हैं। गणकार क्या है । अग्रहणवर्गणाके भीतर अभव्योंसे अनन्तगणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गणहानिशलाकायें हैं। इनका विरलन करके और दूना करके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुई राशि गुणकार है। मनोद्रव्यवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुण हैं । गुणकार क्या है? मनोद्रव्यवर्गणाके भीतर स्थित अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । मनोवर्गणासे नोचेको अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है। अग्रहणवगणाको अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। भाषावर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? भाषावर्गणाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार हैं । भाषावर्गणासे नीचे अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है? अग्रहणवर्गणाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । तैजसद्रव्य वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है? तैजसवर्गणाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। तेजसवर्गणाके नीचे अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या हैं? अग्रहणद्रव्यवर्गणाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । आहारवर्गणाओं में नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आहारवर्गणाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। आहारवर्गणासे नीचे अनन्तप्रदेशो अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य
अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अग्रहणवर्गणाको अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। परमाणु
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२१२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, ११६ गुण ? दिवड्ढोवट्टिदअसंखेज्जपदेसियवग्गणाणं अण्णोण्णभत्थरासी। अणंते ति कथं णव्वदे ? जुत्तीदो। तं जहा-एगगुणहाणीए जहण्णपरित्ताणते भागे हिदे असंखेज्जपदेसियवग्गणाणं गुणहाणिसलागाओ उप्पज्जति । एदाओ च जहण्णपरित्ताणतयस्स अद्धच्छेदणाहितो असंखेज्जगुणाओ। एदासिमसंखेज्जगुणत्तं कुदो णव्वदे ? गुरूवदेसादो । तेणेदाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थरासिस्स सिद्धमणंतत्तं । संखज्जपदेसियवग्गणासु णाणासेडिसध्वदव्या संखेज्जगुणा। को गुणगारो? एगरूवस्स असंखेज्जदिभागेणूणरूवूणुक्कस्ससंखेज्जयं । कुदो? परमाणुवग्गणादो एगादिएगुत्तरकमेण परिहोणएत्थतणगोवुच्छविसेसेहि एगपरमाणुवग्गणाए असंखेज्जभागुप्पत्तीदो। असंखेज्जपदेसियवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा असंखेज्जगुणा। को गुण ? एगरूवस्स असंखे०भागेणूणउक्कस्ससंखेज्जेण परिहीणदिवड्ढगुणहाणीए एगरूवस्स असंखे० भागेणूणरूवणुक्कस्ससंखेज्जेण ओवट्टिदाए जं लद्धं सो गुणगारो। एवं दव्वट्ठदप्पाबहुगं समत्तं । ____ संपहि णाणासेडिपदेसट्टदप्पाबहुअं उच्चदे। तं जहा-सव्वत्थोवा पत्तेयसरीरवर्गणामें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? डेढ़से भाजित असंख्यातप्रदेशी वर्गणाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है ।
शंका- वह अनन्तप्रमाण है यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- युक्तिसे जाना जाता है। यथा-एक गुणहानिका जघन्य परीतानन्त में भाग देने पर असंख्यातप्रदेशी वर्गणाओंकी गुणहानिशलाकायें उत्पन्न होती हैं। और ये जघन्य परीतानन्तके अर्धच्छेदोंसे असंख्यातगुणी हैं।
शंका- ये असंख्यातगुणी हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- गुरुके उपदेशसे ।
इसलिए इनका विरलनकर और दूना कर परस्पर गुणा करने से उत्पन्न हुई राशि अनन्तप्रमाण है यह सिद्ध होता है।
संख्यातप्रदेशी वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य संख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? एक अंकके असंख्यातवें भागसे न्यून एक कम उत्कृष्ट संख्यात गुणकार है, क्योंकि, परमाणुवर्गणाकी अपेक्षा एकादि एकोत्तर क्रमसे हीन यहाँके गोपुच्छविशेषोंसे एक परमाणुवर्गणाके असंख्यातवें भागकी उत्पत्ति होती है। असंख्यातप्रदेशी वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? एक अंकके असंख्यातवें भागसे न्यून उत्कृष्ट संख्यातको डेढगुणहानिमें से कम करने पर जो लब्ध आवे उसमें एक अंकके असंख्यातवें भागसे न्यून एक कम उत्कृष्ट संख्यातका भाग देने पर जो लब्ध आवे वह गुणकार है । इस प्रकार द्रव्यार्थता अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
अब नानाश्रेणि प्रदेशार्थता अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। यथा-प्रत्येकशरीरवर्गणाके प्रदेश
* अ०का प्रत्योः '-वग्गणाणाणासेडिसव्वदव्वा' इति पाठ; ।
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५, ६, ११६ ) बंधणाणुयोगद्दारे अप्पाबहुअपरूवणा
(२१३ वग्गणाए पदेसा। कुदो ? सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तएगजीवस्स कम्म-णोकम्मपदेसे दुविय असंखेजेहि लोगेहि तेसु गुणिदेसु पत्तैयसरीरवग्गणाणं सव्वपदेसुप्पत्तीए । महाखंधवग्गणाए सव्वपदेसा अणंतगुणा। को गुण ? अणंता लोगा। कुदो? उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणं टुविय अणंतेहि लोगेहि सेडीए असंखे०भागेण अंगुलस्स असंखे०भागेण पलिदो० असंखे०भागेण जगपदरस्स असंखे० भागेण च गुणिदे महाखंधपदेसपमाणं होदि । पुणो एदम्हि पत्तेयसरीरवग्गणपदेसेहि ओवट्टिदे जं लद्धं तत्थ अणंतलोगाणमुवलंभादो। बादरणिगोदवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा असंखेज्जगुणा। को गुण० ? असंखेज्जा लोगा। तं जहा-एगजीवकम्म-णोकम्मपदेसे सव्वजीवेहि अणंतगुणे दृविय सव्वजीवरासिस्स असंखेज्जदिभागेण असंखेज्जेहि लोगेहि च गुणिदे बादरणिगोदवग्गणाए पदेसग्गं होदि । पुणो तम्हि महाखंधवग्गणपदेसग्गेण भागे घेपमाणे हेटिमएगजीवपदेसेहि सव्वजीवरासिस्स असंखे० भागेण च उवरिमएगजीवपदेसा सव्वजोवरासिस्स असंखेज्जभागो च सरिसो ति अवणिय सेसहेट्ठिमरासिणा सेसुवरिमरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जलोगमेत्तगुणगारो लब्भदि तेण असंखेज्जगुणा त्ति भणिदं। सुहमणिगोदवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा असंखेज्जगुणा* । को गुण ? असंखेज्जालोगा। कुदो बादरणिगोहितो
सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, एक जीवके सब जीवोंसे अनन्तगुणे कर्म और नोकर्मके प्रदेशोंको स्थापित कर उन्हें असंख्यात लोकोंसे गुणित करने पर प्रत्येकशरीरवर्गणाओंके सब प्रदेशोंकी उत्पत्ति होती है। महास्कन्धवर्गणाके सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अनन्त लोक गुणकार है, क्योंकि, उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणाको स्थापित करके अनन्त लोकोंसे, जगश्रेणिके असंख्यातवें भागसे, अङगुलके असंख्यातवें भागसे, पल्यके असंख्यातवें भागसे और जगप्रतरके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर महास्कन्धके प्रदेशोंका प्रमाण होता है। पुनः इसमें प्रत्येकशरीरवर्गणाके प्रदेशोंका भाग देने पर जो लब्ध आवे उसमें अनन्त लोक उपलब्ध होते हैं। बादरनिगोदवर्गणाओं में नानाश्रेणि सब प्रदेश असंख्यातगुण हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। यथा- सब जीवोंसे अनन्तगुणे एक जीवके कर्म और नोकर्मप्रदेशोंको स्थापित करके सब जीव. राशिके असंख्यातवें भागसे और असंख्यात लोकोंसे गुणित करने पर बादर निगोदवर्गणाके प्रदेशाग्र होते हैं। पुनः उसमें महास्कन्धवर्गणाके प्रदेशोंका भाग ग्रहण करने पर अधस्तन एक जीवके प्रदेशोंके साथ और सब जीवराशिके असंख्यातवें भागके साथ उपरिम एक जीवके प्रदेश और सब जीवराशिका असंख्यातवां भाग समान है, इसलिए घटा कर शेष अधस्तन राशिका शेष उपरिम राशिमें भाग देने पर असंख्यात लोकप्रमाण गुणकार लब्ध होता है, इसलिए असंख्यातगुणे हैं ऐसा कहा है। सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है, क्योंकि, बादरनिगोदोंसे सूक्ष्मनिगोद असंख्यातगुणे हैं।
....................
* ता०प्रती 'सव्व पदेसा । अ.) संखेज्जगुणा' अ०का०प्रत्योः '-सव्वपदेसासंखेज्जगुणा' इति पाठः ।
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२१४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, ११६. सुहुमणिगोदा असंखेज्जगुणा? को गुण ? असंखेज्जा लोगा ति जीवट्ठाणसुत्ते परूविदत्तादो, उभयत्थ एगजीवपदेसग्गगुणगारस्स समाणत्तादो च । सांतर-णिरंतरवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण ? सव्वजोवेहि अणंतगुणो। धुवक्खंधवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो । तं जहा--धुवक्खंधचरिमवग्गणाए पदेसेहितो सांतरणिरंतर. वग्गणाए सव्वपदेसाणमणंतगुणहीणत्तुवलंभादो। कुदो ? जेण धुवक्खधचरिमवग्गणादव्वट्ठदादो सांतरणिरंतरवग्गणाए पढमादिसव्ववग्गणदव्वदाओ अणंतगुण. हीणाओ तेण तासि पदेसग्गं पि अणंतगुणहीणं चेव । जदि धुवक्खंधचरिमवग्गणा एक्का चेव पदेसग्गेण अणंतगुणा होदि तो धुवक्खंधसव्ववग्गणाओ णिच्छयेण अणंतगुणाओ होंति त्ति अणुत्तसिद्धं । कम्मइयवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण ? कम्मइयवग्गणाणं अण्णोण्णब्भत्थरासी।कम्मइयवग्गणादो हेट्ठिमअगहणवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण ०? सगअण्णोण्णब्भत्थरासी। मणदव्ववग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण • ? सगअण्णोपणभत्थरासी । मणंदो* हेटिमअगहणवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण ? सगअण्णोण्णब्भत्थरासी । भासावग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा। को गुण ? सगअण्णोण्णब्भत्थरासी। भासादो हेटिमअगहणवग्गणासु
गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है ऐसा जीवस्थानसूत्र में कथन किया है ? तथा दोनों जगह एक जीवके प्रदेशोंका गुणकार समाग है । सान्तर-निरन्तरवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणें है। गुणकार क्या है ? सब जोवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है। ध्रुवस्कन्ध वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है । यथा-ध्रुवस्कन्धको अन्तिम वर्गणाके प्रदेशोंसे सान्तरनिरन्तरवर्गणाके सब प्रदेश अनन्तगुणे होन उपलब्ध होते हैं, क्योंकि यतः ध्रुवस्कन्धको अन्तिम वर्गणाको द्रव्यार्थतासे सान्तरनिरन्तरवर्गणाकी प्रथमादि सब वर्गणाओंकी द्रव्यार्थताये अनन्तगुणी हीन हैं, इसलिए उनके प्रदेशाग्र भी अनन्तगुणे हीन हो हैं। यदि ध्रुवस्कन्धको अन्तिम वर्गणा अकेली ही प्रदेशाग्रकी अपेक्षा अनन्तगुणी है तो ध्रुवस्कन्ध सब वर्गणायें निश्चयसे अनन्तगुणो है यह अनुक्तसिद्ध है। कार्मणवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुण है। गुणकार क्या है ? कार्मणवर्गणाओंको अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । कार्मणवर्गणासे नीचेकी अग्रहणवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुण हैं। गुणकार क्या है ? अपनी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। मनोद्रव्यवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अपनी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। मनोवर्गणासे अधस्तन अग्रहणवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अपनी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । भाषावर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अपनी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार
प्रतिषु 'अगंत गुणहोणा' इति पाठः। * अ-आ प्रत्योः 'मणादो' इति पाठः ।
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५, ६, ११६) बंधणाणुयोगद्दारे अप्पाबहुअपरूवणा
( २१५ णाणासेडिसन्वपदेसा अणंतगुणा। को गुण ? सगअण्णोण्णब्भत्थरासी । तेजावग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण. ? सगअण्णोण्णब्भत्थरासी । तेजइयादो हेटिमअगहणवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण ? सगअण्णोण्णब्भत्थरासी । आहारवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण० ? सगअण्णोण्णभत्थरासी । आहारवग्गणादो हेटिमअणंतपदेसियवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण? सगअण्णोण्णब्भत्थरासी । परमाणुवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा। सुगमं । संखेज्जपदेसियवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा असंखेज्जगुणा । असंखेज्जपदेसियवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा असंखेज्जगुणा । एवं णाणासेडिसव्वपदेसदप्पाबहुअ ससत्तं ।
एगसेडि·णाणासेडिदव्वटु-पदेसट्टदप्पाबहुअं उच्चदे । तं जहा- दवट्ठदाए एगसेडिपरमाणुवग्गणा णाणासेडिमहाखंधवग्गणा च दो वि तुल्लाओ थोवाओ। कुदो? एगसंखत्तादो । संखेज्जपदेसियवग्गणासु एगसेडिवग्गणाओ संखेज्जगुणाओ । को गुण०? रूवणुक्कस्ससंखेज्जयं । बादरणिगोदवग्गणासु णाणासे डिसव्वदव्वा असंखेज्जगुणा । को गुण? असंखेज्जा लोगा । सुहमणिगोदवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा असंखेज्जगुणा । को गुण? असंखेज्जा लोगा। पत्तेयसरीरवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा असंखज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । असंखेज्जपदेसियवग्गणासु है । भाषावर्गणासे अधस्तन अग्रहणवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अपनी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। तेजसवर्गणाओंमें नानाधेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है? अपनी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। तेजसवर्गणासे अधस्तन अग्रहणवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अपनी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । आहारवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अपनो अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । आहारवर्गणासे अधस्तन अनन्तप्रदेशी वर्गणाओं में नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है? अपनी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । परमाणुवर्गणाओंमें नानाअंणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं । कारणका कथन सुगम है। संख्यातप्रदेशी वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातप्रदेशी वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार नानाश्रेणि सर्व प्रदेशार्थता अल्पवहुत्व समाप्त हुआ।
____ अब एकश्रेणि-नानाश्रेणिद्रव्यार्थता-प्रदेशार्थता अल्पबहुत्वका कथन करते हैं । यथाद्रव्यार्थताकी अपेक्षा एकश्रेणि परमाणुवर्गणा और नानाश्रेणि महास्कन्ध वर्गणा दोनों ही तुल्य हो कर सवसे स्ताक हैं, क्योंकि, ये एक संख्याप्रमाण हैं। संख्यातप्रदेशी वर्गणाओं में एकश्रेणिवर्गणायें संख्यातगुणी हैं । गुणकार क्या है? एक कम उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण गुणकार है। बादर निगोदवर्गणाओंमें नानाणि सब द्रव्य असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण गुणकार है। प्रत्येकशरोरवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य असंख्यातगुणं है । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण गुणकार है। असंख्यातप्रदेशी वर्गणाओंम
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२१६) छवखंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १६६. एगसेडिवग्गणा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। आहारवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा । को गुण ? आहारेगसेडिवग्गणाए® असंखे०भागो, अभव्वसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो। को पडिभागो ? असंखेज्जपदेसियवग्गणपडिभागो। आहारवग्णादो हेट्ठिमअणंतपदेसियवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा । को गुण? अभव्वसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो। पुन्व माहारवग्गणादो उवरि तेजा-भासा-मण-कम्मइयवग्गणाणमेगसेडिवग्गणाओ जहाकमेण अणंतगुणाओ भणिदूण पच्छा आहारवग्गणादो हेट्टिमअगहणकग्गणाए एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा त्ति भणिदं । एहि पुग आहारएगसेडिवगणादो हेट्ठिमअगहणवग्गणाए एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा ति भणिदं । तेण एदासि दोण्णमप्पाबहुगाणं परोप्परविरुद्धाणं एत्थ संभवो ण होदि, किंतु दोण्णमेक्केणेव होदव्वमिदि ? सच्चमेदमेक्केणेव होदव्वमिदि, किंतु अणेणेव होदव्वमिदि ण वट्टमाणकाले णिच्छओ कादं सक्किज्जदे, जिण-गणहर-पत्तेयबुद्ध-पण्णसमण-सुदकेवलिआदोणमभावादो। कम्मइयवग्गणादो हेट्ठिमआहारवग्गणादो उवरिमअगहणवग्गणमद्धाणगुणगारेहितो आहारादिवग्गणाणं अद्धाणुप्पायणटुंदुविदभागहारो अणंतगुणो त्ति के वि आइरिया
एकश्रेणिवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण गुणकार है। आहारवर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं । गुणकार क्या है ? आहार एकश्रेणि वर्गणाके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है जो अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? असंख्यातप्रदेशी वर्गणा प्रतिभाग है । आहारवर्गणासे अधस्तन अनन्तप्रदेशी वर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगणी हैं। गुणकार क्या है? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है ।
शंका- पहले आहारवर्गणासे ऊपरकी तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणाकी एकश्रेणिवर्गणायें क्रमसे अनन्तगुणी कहकर पश्चात् आहारवर्गणासे अधस्तन अग्रहणवर्गणाकी एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी है ऐसा कहा है । परन्तु इस समय आहार एकत्रेणिवर्गणासे अधस्तन अग्रहणवर्गणाकी एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी है ऐसा कहा है, इसलिये परस्पर विरुद्ध ये दोनों अल्पबहुत्व यहां पर सम्भव नहीं हैं। किन्तु इन दोनोंमें से कोई एक होना चाहिए ?
समाधान- यह सत्य है कि इन दोनोंमें से कोई एक अल्पबहुत्व होना चाहिए, किन्तु यही अल्पबहुत्व होना चाहिए इसका वर्तमानकालमें निश्चय करना शक्य नहीं हैं, क्योंकि इस समय जिन, गणधर, प्रत्येकबुद्ध, प्रज्ञाश्रमण और श्रुतकेवली आदिका अभाव है। कार्मणवर्गणासे अधस्तन आहार वर्गणासे उपरिम अग्रहणवर्गणाके अध्वानके गुणकारसे आहारादिवर्गणाओंके अध्वानको उत्पन्न करने के लिए स्थापित भागहार अनन्तगुणा है ऐसा कितने ही आचार्य चाहते
ताप्रतो- 'ओहारदव्ववग्गणाए' इति पाठः।
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५, ६, ११६.) बंधणाणुयोगद्दारे अप्पाबहुअपरूवणा
(२१७ इच्छंति तेसिमहिप्पाएण पुग्विल्लमप्पाबहुगं परूविदं । भागहारेहितो गुणगारा अणंतगुणा त्ति के वि आइरिया भणंतिकातेसिमहिप्पाएण एदमप्पाबहुगं परूविज्जदे, तेणेसो ण दोसो। तेजइयवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा। को गुण? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो। एसो गुणगारो उवरि कम्मइयवग्गणादो हेट्ठिमअगहणवग्गणा त्ति परूवेदव्वो। तेजइयादो हेटिमअगहणवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा। भासावग्गणासु एगसे डिवग्गणा अणंतगुणा। भासादो हेट्ठिमअगहणवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा। मणवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा । मणवग्गणादो हेट्ठिमअगहणवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा। कम्मइयवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा। कम्मइयादो हेट्ठिमअगहणवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा। धुवक्खंधवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा। को गुण० ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो। अचित्तअर्धवक्खंधवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा। को गुण० ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो। पढमिल्लियासु धुवसुण्णवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा । को गुण०? सव्वजीवेहि अणंतगुणो । पत्तेयसरीरवग्गणासु एगसेडिवग्गणा असंखेज्जगुणा। को गुण? पलिदोवमस्स असंखे०भागो। तासु चेव वग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा असंखेज्जगुणा। को गुण? असंखेज्जा लोगा। बिदियधुवसुण्णवग्गणासु एगसेडिवग्गणा अणंतगुणा। है, इसलिए उनके अभिप्रायानुसार पहले का अल्पबहुत्व कहा है। तथा भागहारोंसे गुणकार अनन्तगुणे हैं ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, इसलिए उनके अभिप्रायानुसार यह अल्पबहुत्व कहा जा रहा है इसलिए यह कोई दोष नहीं है।
तैजसवर्गणाओं में एक श्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं । गुणकार क्या है? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है। यह गुणकार ऊपर कार्मणवर्गणासे लेकर नीचे अग्रहणवर्गणा तक कहना चाहिए । तैजसवर्गणासे अधस्तन अग्रहणवर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं । भाषावर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं । भाषावर्गणासे अधस्तन अग्रहणवर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं। मनोवर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं। मनोवर्गणासे अधस्तन अग्रहणवर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं। कार्मणवर्गणाओं में एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी है। कार्मणवर्गणाओंसे नीचे अग्रहणवर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणो हैं । ध्रुवस्कन्धवर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं। गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है। अचित्तअध्रुवस्कन्धवर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं। गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है। पहली ध्रुवशून्यवर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणार्य अनन्तगुणी हैं। गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है । प्रत्येक शरीरवर्गणाओं में एकश्रेणिवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उन्हीं वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है? असंख्यात लोकप्रमाण गुणकार है। दूसरी ध्रुवशून्यवर्गणाओंमें
@अ०का०प्रत्योः 'के वि भणंति' इति पाठः ।
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२१८ )
छवखंडागमे वग्गणा - खंड
(५, ६, ११६.
को गुण ० ? अनंता लोगा । बादरणिगोदवग्गणासु एगसेडिवग्गणा असंखेज्जगुणा । को गुण० ? सेडीए असंखे० भागो पलिदोवमस्स असंखे० भागेण गुणिदो । तदियधुवसुण्णवगणासु एगसेडिवग्गणा असंखेज्जगुणा । को गुण ०? अंगुलस्स असंखे ० भागो । सुमणिगोदवग्गणासु एगसेडिवग्गणा असंखेज्जगुणा । को गुण ० ? पलिदो० असंखे० भागो आवलियाए असंखे ० भागेण गुणिदो । महाखंधवग्गणासु एगसेडिवग्गणा असंखेज्जगुणा । को गुण० ? जगपदरस्स असंखे ० भागे पलिदो असंखे० भागेण खंडिदे तत्थ एगखंडं गुणगारो । चउत्थधुवसुण्णवग्गणासु एगसेडिवग्गणा असंखे० गुणा । को गुण० ? पलिदो० असंखे० भागो । महाखंधवग्गणाए पदेसा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? चउत्थधुवसुण्ण० पलिदो० असंखे० भागेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तेण । बादरणिगोदवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा असंखेज्जगुणा । सुहुमणिगोदवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा असंखेज्जगुणा । सांतरणिरंतरवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अनंतगुणा । को गुण० ? सव्वजीवेहि अनंतगुणो । तासु चेव णागासेडिसव्वपदेसा अनंतगुणा । को गुणगारो ? सव्वजीवेहि अनंतगुणो । धुवक्खंधवग्गणासु णाणा से डिसव्वदव्वा अतगुणा । को गुणगारो ? सव्वजोवेहि अनंतगुणो । तं जहा -सांतरणिरंतर वग्गणा ए
दाए पट्टदाए च पढमवग्गणा चेव पहाणा, सेसवग्गणसव्वपदेसाणं तदणंतिम
एकश्रेणिवर्गणायें अनन्तगुणी हैं । गुणकार क्या है ? अनन्त लोकप्रमाण गुणकार है । बादरनिगोदवर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यात वें भागसे गुणित जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । तीसरी ध्रुवशून्यवर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है ? अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओं में एकश्रेणिवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागसे गुणित पल्यके असंख्यातवें भागत्रमाण गुणकार है । महास्कन्धवर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं । गुणकार क्या है । जगप्रतरके असंख्यातवें भागमें पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे वह गुणकार है । चौथी ध्रुवशून्य वर्गणाओंमें एकश्रेणिवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । महास्कन्धवर्गणा के प्रदेश विशेष अधिक हैं । कितने अधिक हैं ? चौथी ध्रुवशून्यवर्गणा में पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देने पर वहाँ जो एक भाग लब्ध आवे उतने अधिक हैं। बादरनिगोदवर्गणाओं में नानाश्रेणि सब प्रदेश असंख्यातगुणे हैं । सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओं में नानाश्रेणि सब प्रदेश असंख्यातगुणे हैं । सान्तरनिरन्तरवर्गणाओं में नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है । उन्हीं में नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है । ध्रुवस्कन्धवर्गणाओं में नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है । यथा-सान्तर निरन्तरवर्गणा में द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताकी
Q म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु 'असंखे० भागो पलिदो०' इति पाठः ।
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५, ६, ११६ ) बंधणाणुयोगद्दारे अप्पाबहुअपरूवणा
( २१९ भागत्तादो। धुवक्खंधपढमवग्गणपमाणेण सगसव्वदव्वे कीरमाणे दिवड्ढगुणहाणिमेत्तपढमवग्गणाओ हति, समयाविरोहेणुप्पण्णगुणहाणिसलागाओ विरलिय समयाविरुद्धगुणगारेण गुणिय अण्णोण्णभत्थं कादणुप्पाइदरासिणा धुवक्खंधचरिमवग्गणाए गुणिदाए पढमवग्गणा होदि त्ति दिवड्ढगुणहाणिगुणियअण्णोण्णब्भत्थरासिणा धुवक्खंधचरिमवग्गणाए गुणिदाए धुवक्खंधसव्वदव्वं होदि । सांतरणिरंतरपढमवग्गणादो धुवक्खंधचरिमवग्गणा अणंतगुणा । को गुण ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो । सांतर-णिरंतरपढमवग्गणपदेसुप्पायणटुं दुविदसादिरेयहेटिमअद्धाणमेत्तगुणगारादो। धुवक्खंधभंतरअण्णोण्णब्भत्थरासी अणंतगुणो, तेण सांतरणिरंतरवग्गणपदेसग्गादो धुवक्खंधवग्गणदव्वमणंतगुणमिदि सिद्धं । तस्सुवरि धुवक्खंधवग्गणाए पदेसग्गमणंतगुणं । को गुण० ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तो। तं जहा-धुवक्खंधपढमवग्गणं टुविय दिवड्ढगुणहाणिणा गुणिदे दव्ववग्गं होदि । पुणो तं चेव पडिरासिय हेटिमअद्धाणेण अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणेण सिद्धाणमणंतिमभागेण गणिदे धवक्खंधपदेसग्गं होदि । धवक्खंधवग्गणाए एगसेडिअद्धाणं सव्वजोवेहि अणंतगुणं ति सव्वजोवेहितो अणंतगुणो गुणगारो किण्ण दिज्जदि? ण, पढमगुणहाणिपदेसग्गस्सेव पहाणत्तदंसणादो बिदियगुणहाणिसव्वपदेसग्गस्स पढम
अपेक्षा प्रथम वर्गणा ही प्रधान है, क्योंकि, शेष वर्गणाओंके सब प्रदेश उसके अनन्तवें भागप्रमाण हैं । ध्रुवस्कन्ध प्रथम वर्गणाके प्रमाणसे अपने सब द्रव्यके करने पर डेढ़ गुणहानिमात्र प्रथम वर्गणायें होती हैं। अतः आगमानुसार उत्पन्न हुई गुणहानिशलाकाओंका विरलन कर और आगमानुसार गुणकारसे गुणित कर तथा परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुई राशिसे ध्रुवस्कन्धको अन्तिम वर्गणाके गुणित करने पर प्रथम वर्गणा होती है इसलिए डेढ़ गुणहानिसे गुणित अन्योन्याभ्यस्त राशिके द्वारा ध्रुवस्कन्धकी अन्तिम वर्गणाके गुणित करनेपर ध्रुवस्कन्धका सब द्रव्य होता है । सान्तरनिरन्तर प्रथम वर्गणासे ध्रुवस्कन्धकी अन्तिम वर्गणा अनन्तगुणी है। गुणकार क्या हैं ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है, क्योंकि, सान्तरनिरन्तर प्रथम वर्गणाके प्रदेशोंको उत्पन्न करनेके लिए स्थापित साधिक अधस्तन अध्वानमात्र गुणकार है। ध्रुवस्कन्ध के भीतर अन्योन्याभ्यस्त राशि अनन्तगुणी है, इसलिए सान्तरनिरन्तरवर्गणाके प्रदेशाग्रसे ध्रुवस्कन्धवर्गणाका द्रव्य अनन्तगुणा है यह सिद्ध होता है । इसके ऊपर ध्रुवस्कन्ध वर्गणाके प्रदेशाग्र अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है। यथा-रुवस्कन्धकी प्रथम वर्गणाको स्थापित कर डेढ गणहानिसे गणित करनेपर द्रव्यका वर्ग होता है। पूनः उसे ही प्रतिराशि बनाकर अभव्योंसे अनन्तगणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण अधस्तन अध्वानसे गणित करनेपर घ्रवस्कन्ध के प्रदेशान होते हैं।
शंका- ध्रुवस्कन्धवर्गगाका एकश्रेणि अध्वान सब जीवोंसे अनन्तगुणा है, इसलिए सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार क्यों नहीं दिया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रथम गुणहानिके प्रदेशाग्रकी ही प्रधानता देखी जाती है। तथा
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२२० )
छवखंडागमे वग्गणा - खंड
(५, ६, ११६
गुणहाणिपदेसग्गेण समाणत्तुवलंभादो । ण च हेट्ठिमअद्धाणस्सुवरि एगदोगुणहाणीयो पक्खित्ते गुणगारो सव्वजीवेहि अनंतगुणो, गुणहाणिणा गुणिदे वि तदणंतगणत्ताभावादो | तेण सिद्धं गुणगारो * अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागोत्ति। कम्मइयवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अनंतगु 1 को गुण० ? स्वाहियधुववधादो हेट्ठिमसमयलद्धाणेणोवट्टिदकम्मइयदव्वदृद अण्णोष्णन्भत्थरासी । कम्मइयवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अनंतगुणा । को गुण ० ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुण सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तकम्मइयवग्गणाए हेट्ठिमअद्धाणं ख्वाहियं । कम्मइयवग्गणादो हेट्टिमअगहणवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अनंतगुणा । को गुण ० ? कम्मइयवग्गणरूवा हियहेट्ठिमद्वाणेोवट्टिदकम्मइयहेट्ठिमअगहणवग्गणाए अण्णोष्णन्भत्थरासी गुणगारो । तासु चेव पदेसग्गमणंतगुणं । कोण गुण ०? अगहणवग्गणाए हेट्ठिमअद्वाणं ख्वाहियं । तदो मणवगणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अनंतगुणा । को गुण ०? अगहणवग्गणाए हेट्ठिमसयलद्धाणेण ख्वाहिएणोवट्टिदमणदव्ववग्गणाए अण्णोण्णब्भत्थरासी । मणदव्ववग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अनंतगुणा को गुण० ? मणदव्ववग्गणाए हेट्टिमसयलद्वाणं वाहियं । मणस्स हेड्डिमअगहणवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अनंतगुणा । को गुण ० ? मिसद्धाणेणोवट्टिदअगहण वग्गणअण्णोण्णब्भत्थरासो गुणगारो ।
मणस्स
द्वितीय गुणहानिका सब प्रदेशाग्र प्रथम गुणहानि के प्रदेशाग्र के समान पाया जाता है यदि कहा जाय कि अधस्तन अध्वानके ऊपर एक दो गुणहानियोंको प्रक्षिप्त करनेपर गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा पाया जावेगा सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, गुणहानिसे गुणित करने पर भी उसके अनन्तगुणे होने का अभाव है, इसलिय गुणकार अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है यह सिद्ध होता है ।
कार्मणवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? एक अधिक ध्रुवस्कन्ध के नीचे के सकल अध्वानसे भाजित कार्मणद्रव्यार्थताकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । कार्मणवर्गणाओं में नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण कार्मणवर्गणाका एक अधिक अधस्तन अध्वान गुणकार है। कार्मणवर्गणासे अधस्तन अग्रहण वर्गणाओं में नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? कार्मणवगंणाके एक अधिक अधस्तन स्थानसे भाजित कार्मणवर्गणासे अधस्तन अग्रहणवर्गणाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । उन्हीं में प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? अग्रहणवर्गणाका एक अधिक अधस्तन अध्वान गुणकार है । उससे मनोवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अग्रहणवर्गणा के एक अधिक अधस्तन सकल अध्वानसे भाजित मनोद्रव्यवगंणाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। मनोद्रव्यवर्गणाओं में नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? मनोद्रव्यवर्गणाका एक अधिक सकल अध्वान गुणकार है । मनोवर्गणासे अधस्तन अग्रहणवर्गणाओं म नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? मनोवर्गणा के अधस्तन सकल अध्वानसे * ता०प्रतौ 'सिद्धो गुणगारो' इति पाठः ।
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५, ६, ११६.) बंधणाणुयोगद्दारे अप्पाबहुपरूवणा
( २२१ तासु चेव अगहणवग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा। को गुण ? अगहण. वग्गणाए हेट्ठिमसयलद्धाणं रूवाहियं गुणगारो। भासावग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा । को गुण? अगहणवग्गणाए हेट्टिमसव्वद्धाणेण रूवाहिएणोवट्टिदभासावग्गणअण्णोण्णब्भत्थरासी गुणगारो । तासु चेव णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा को गुण० ? भासावग्गणाए हेट्ठिमसनद्धाणं रूवाहियं । भासावग्गणाए हेट्ठिमअगहणवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा। को गुण० ? भासावग्गणाए हेट्ठिमअद्धाणेण रूवाहिएणोवट्टिदअप्पिदागहणवग्गणाए अण्णोण्णब्भत्थरासी । तासु चेव णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण ? अप्पिदअगहणवग्गणाए हेट्ठिमअद्धाणं रूवाहियं । तेजावग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा। को गुण ? उरिमअगहणवग्गणाए हेट्रिमअद्धाणेण रूवाहिएगोवट्टिदतेजावग्गणअण्णोण्णब्भत्थरासी। तासु चेव णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण०? तेजावग्गणाहेट्ठिमअद्धाणं रूवाहियं । तेजइयादो हेटिमअगहणवग्गणासु णाणासे डिसव्वदव्वा अणंतगुणा । को गुण? तेजइयपदेसगुणगारेणोवट्टिदअप्पिदागहणवग्गणाए अण्णोण्णब्भत्थरासी। तासु चेव वग्गणासु णाणासेडिसव्वपदेसा अणंतगुणा । को गुण ? अप्पिदअगहणवग्गणाए हेटिमअद्धाणं रूवाहियं । आहारवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अणंतगुणा। को गुण? उरिमअगहणवग्गणपदेसगुणगारेणोवट्टिदआहारवग्गणअण्णोण्णब्भत्थरासी । तासु चेव
भाजित अग्रहणवर्गणाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। उन्हीं अग्रहण वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अग्रहणवर्गणाका एक अधिक अधस्तन सकल अध्वान गुणकार हैं। भाषावर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अग्रहणवर्गणाके एक अधिक अधस्तन सकल अध्वानसे भाजित भाषावर्गणाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। उन्हीं में नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? भाषावर्गणाका एक अधिक अधस्तन सकल अध्वान गुणकार है। भाषावर्गणाके नीचे अग्रहणवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? भाषावर्गणाके एक अधिक अधस्तन अध्वानसे भाजित विवक्षित अग्रहणवर्गणाकी अन्योन्याभ्यस्तराशि गुणकार है। उन्हीं में नानाणि सब प्रदेश अनन्त गुणे हैं। गुणकार क्या है? विवक्षित अग्रहणवर्गणाका एक अधिक अधस्तन अध्वान गुणकार है। तैजसवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? उपरिम अग्रहण वर्गणाके एक अधिक अधस्तन अध्वानसे भाजित तैजसवर्गणाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। उन्हीं में नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? तेजसवर्गणाका एक अधिक अधस्तन अध्वान गुणकार है । तेजसवर्गणासे अधस्तन अग्रहणवर्गणाओं में नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? तैजस प्रदेश गुणकारसे भाजित विवक्षित अग्रहणवर्गणाको अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। उन्हीं वर्गणाओं में नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुण हैं । गुणकार क्या है? विवक्षित अग्रहणवर्गणाका एक अधिक अधस्तन अध्वान गुणकार है। आहारवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? उपरिम अग्रहणवर्गणाके प्रदेश गुणकारसे भाजित आहारवर्गणाकी
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छवखंडागमे वग्गणा - खंड
(५, ६, ११६
णाणासेडिसव्वपदेसा अनंतगुणा । को गुण ० ? आहारवग्गणहेट्ठिमअद्धाणं स्वाहियं । आहारवग्गणादो हेट्टिमअणतपदेसियवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा अनंतगुणा । को गुण ? आहारवग्गणपदेसगुणगारेणोवट्टिद अप्पिदअगहणवग्गणअण्णोण्णब्भत्थरासी । तासु चेव णाणा से डिसव्वपदेसा अनंतगुणा । को गुण० ? हेट्टिमअद्धाणं ख्वाहियं । परमाणुवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा सध्वपदेसा च दो वि सरिसा अनंतगुणा 1 को गुण० ? अनंतपदेसियवग्गणाणं पदेसगुणगारेण दिवड्ढगुणहाणिगुणिदेणोवट्टिदअसंखेज्जपदेसियवग्गणाण मण्णोष्णब्भत्थरासी । संखेज्जपदेसियवग्गणासु णाणासे डिसव्वदव्वा संखेज्जगुणा । को गुण ०? एगरूवस्त असंखे ० भागेणूणरूवणुक्कस्स संखेज्जयं । तेसि चेव पदेसा संखेज्जगुणा । को गुण० ? संखेज्जरुवाणि । तं जहा - पदेसग्गेण सव्ववग्गणाओ एगगुणद्गुणतिगुणादिकमेण गदाओ त्ति संकप्पिय परमाणुवग्गणपदेसे दृविय उक्कस्ससंखेज्जयस्स संकलणाए गुणिदे सव्ववग्गणाणं पदेसग्गमागच्छदि । पुणो गुणगारम्हि एगरूवे अवणिदे संखेज्जपदेसियवग्गणपदेसग्गं होदि । पुणो पदेसग्गेण दाओ सरिसाओ न होंति । विसेसहोणाओ त्ति होणपदेसपमाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा - रूवूणुक्कस्ससंखेज्जयस्स संकलणासंकलणमाणिय दुगुणिदे होणपदेसपमाणं पावदि । पुणो दोहि गुणहाणीहि असंखेज्जलोगपमाणाहि ओवट्टिदे एगरूवस्स असंखे ०भागो आगच्छदि । एदम्मि पुव्विल्लसंकलणाए अवणिदे संखेज्जपदे सियवग्गणदव्वं
अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । उन्हीं वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आहारवर्गणाका एक अधिक अधस्तव अध्वान गुणकार है । आहारवर्गणा से नीचे अनन्तप्रदेशी वर्गणाओं में नानाश्रेणि सब द्रव्य अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आहारवर्गणा के प्रदेश गुणकारसे भाजित विवक्षित अग्रहणवर्गणाकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । उन्ही में नानाश्रेणि सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? एक अधिक अधस्तन अध्वान गुणकार है । परमाणुवर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य और उनके सब प्रदेश दोनों ही समान होकर अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? डेढ़ गुणहानि गुणित अनन्तप्रदेशी वर्गणाओंके प्रदेशगुणकारसे भाजित असंख्यातप्रदेशी वर्गणाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है । संख्यातप्रदेशी वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य संख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? एकेक असंख्यातवें भागसे न्यून एक कम उत्कृष्ट संख्यात गुणकार है । उन्हीं के प्रदेश संख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? संख्यात अंक गुणकार है । यथा- प्रदेशाग्रकी अपेक्षा सब वर्गणायें एकगुणी, द्विगुणी और त्रिगुणी आदि क्रमसे गई हैं ऐसा संकल्प करके परमाणुवर्गणाके प्रदेशों को स्थापित कर उत्कृष्ट संख्यातकी संकलनासे गुणित करने पर सब वर्गणाओंके प्रदेशाग्र आते हैं । पुनगुणकारमेंसे एक अंकके कम कर देने पर संख्यात प्रदेशी वर्गणात्रे प्रदेशाग्र होते हैं । पुनः प्रदेशाः ग्रकी अपेक्षा ये समान नहीं होती हैं किन्तु विशेष होन होती हैं इसलिए हीन प्रदेशों के प्रमाणका कथन करते हैं । यथा- एक कम उत्कृष्ट संख्यातके संकलनासंकलनको लाकर दूना करने पर हीन प्रदेशोंका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः असंख्यात लोकप्रमाण दो गुणहानियों का भाग देने पर एक अंकका असंख्यातवां भाग आता है। इसे पहले की संकलनामेंसे घटा देने पर
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( २२३
५, ६, ११७.) बंधणाणुयोगद्दारे बाहिरवग्गणापरूवणा होदि। एदम्नि दव्वद्वदाए भागे हिदे संखेज्जरूवाणि लन्भंति । तेण गुणगारो संखेज्जे ति सिद्धं। असंखज्जपदेसियवग्गणासु णाणासेडिसव्वदव्वा असंखेज्जगुणा । को गुण ? असंखेज्जा लोगा। तेसु चेव णाणासेडिसव्वपदेसा असंखेज्जगुणा । को गुण? असंखेज्जा लोगा। एवमप्पाबहुगपरूवणा गदा । अट्ठहि अणुयोगद्दारेहि तेवीसवग्गणासु पलविदासु अब्भंतरवग्गणा समत्ता होदि ।
तत्थ इमाए बाहिरियाए वग्गणाए अण्णा परूवणार कायव्वा भवदि ॥ ११७॥
ओरालियादिपंचण्हं सरीराणं कथं बाहिरिया वग्गणा त्ति सण्णा। ण ताव इंदिय-गोइंदिएहि अगेज्झाणं पोग्गलाणं बाहिरसण्णा, परमाणुआदिवग्गणाणं पि तदविसेसेण बाहिरवग्गणत्तप्पसंगादो। ण ताव जीवपदेसेहि पुधभूदाणि त्ति पंचण्हं सरीराणं बाहिरववएसो, दुद्धोदयाणं व अण्णोण्णाणुगयाणं जीवसरीराणं अन्भंतर - बाहिरभावाणुववत्तीदो। अणंताणताणं विस्सासुवचयपरमाणूणं मज्झे पंचण्हं सरीराणं परमाणू चेट्टिदा ति ण तेसि बाहिरसण्गा, विस्सासुवचयक्खंधाणमंतोटिदाणं बाहिरववएसविरोहादो। तम्हा* बाहिरवग्गणववएसो ण वडद? एत्थ परिहारो उच्चद। तं संख्यातप्रदेशी वर्गणाओंका द्रव्य होता है। इसमें द्रव्यार्थताका भाग देने पर संख्यात अंक लब्ध आते हैं। इसलिए गणकार संख्यात है यह सिद्ध होता है। असंख्यातप्रदेशी वर्गणाओंमें नानाश्रेणि सब द्रव्य असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है। उन्हीं में नानाश्रेणि सब प्रदेश असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात लोक गुणकार है । इस प्रकार अल्पबहुत्व प्ररूपणा समाप्त हुई। तथा आठ अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर तेईस वर्गणाओंकी प्ररूपणा करने पर आभ्यन्तर वर्गणा समाप्त होती है।
अब वहां इस बाह्य वर्गणाको अन्य प्ररूपणा कर्तव्य है ॥ ११७ ।
शंका- औदारिक आदि पाँच शरीरोंकी बाह्य वर्गणा संज्ञा कैसे है ? इन्द्रिय और नोइन्द्रियसे अग्राह्य पुद्गलों को बाह्य संज्ञा तो हो नहीं सकती, क्योंकि, परमाणु आदि वर्गणाओं में भी उनसे कोई विशेषता नहीं पाई जाती है, इसलिए उन्हें भी बाह्य वर्गणापनेका प्रसंग प्राप्त होता है। वे जीवप्रदेशों से पृथग्भूत हैं, इसलिए पाँच शरीरोंकी बाह्य संज्ञा है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, दूध और जलके समान परस्परमें एक दूसरे में प्रविष्ट हुए जीव और शरीरोंका आभ्यन्तरभाव और बाह्यभाव नहीं बन सकता है। अनन्तानन्त विस्रसोपचयरूप परमाणुओंके मध्यमे पाँचो शरीरों के परमाणु अवस्थित हैं इसलिए उनकी बाह्य संज्ञा है सो ऐमा कथन करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, भीतर स्थित विस्रसोपचय स्कन्धोंकी बाह्य संज्ञा होने में विरोध आता है। इसलिए बाह्य वर्गणा यह संज्ञा नहीं बनती है ? . समाधान- यहां अब इस शंकाका परिहार करते हैं। यथा--पूर्वोक्त तेईस वर्गणाओंसे
आप्रतौ 'अण्णा परूवणा' इति पाठः । ॐ अ०प्रती 'जीवसरीराणमच्चंतर-' इति पाठः । *प्रति 'तम्हा' इति स्थाने 'तं जहा' इति पाठः।।
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२२४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, ११८. जहा-पुव्वुत्ततेवीसवग्गणाहितो पंचसरीराणि पुधभूदाणि ति तेसि बाहिरववएसो । तं जहा-ण ताव पंचसरीराणि अचित्तवग्गणासु णिवदंति, सचित्ताणमचित्तभावविरोहादो। ण च सचित्तवग्गणासु णिवदंति, विस्सासुवचएहि विणा पंचण्हं सरीराणं परमाणूणं चेव गहणादो। तम्हा पंचण्हं सरीराणं बाहिरवग्गणा त्ति सिद्धा सण्णा । तत्थ इमा परूवणा कायव्वा भवदि
तत्थ इमाणि चत्तारि अणुयोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंतिसरीरिसरीरपरूवणा सरीरपरूवणा सरीरविस्सासुवचयपरूवणा विस्सासुवचयपरूवणा चेदि ॥ ११८ ॥
____सरीरी णाम जीवा। तेसि सरीराणं पत्तेयसाहारणभेयाणं परूवयत्तादो सरीरिसरीराणं च पत्तेयसाहारणलक्खणाणं परूवणत्तादो वा सरीरिसरीरपरूवणा णाम । पंचण्हं सरीराणं पदेसपमाणं तेसि पदेसणिसेयक्कमं पदेसथोवबहुत्तं च परूवेदि त्ति सरीरपरूवणा णाम । पंचण्हं सरीराणं विस्सासुवचयसंबंधकारणणिद्धल्हुक्खगुणाणमोरालिय-वेउविय-आहार-तेजा-कम्मइयपरमाणुविसयाणमविभागपडिच्छेदपरूवणा जत्थ कीरदि सा सरीरविस्सासुवचयपरूवणा णाम । तेसिं चेव परमाणूणं जीवादो मुक्काणं विस्सासुवचयस्स परूवणा जत्थ कीरदि सा विस्सासुवचयपरूवणदा णाम।
पाँच शरीर पृथग्भूत हैं, इसलिए इनकी बाह्य संज्ञा है। यथा-पाँच शरीर अचित्त वर्गणाओंमें सो सम्मिलित किये नहीं जा सकते, क्योंकि, सचित्तोंको अचित्त मानने में विरोध आता है। उनका सचित्त वर्गणाओंमें भी अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि, विस्रसोपचयोंके बिना पाँच शरीरोंके परमाणुओंका ही सचित्त वर्गणाओंमें ग्रहण किया है। इसलिए पाँचों शरीरोंकी बाह्य वर्गणा यह संज्ञा सिद्ध होती है । उसमें यह प्ररूपणा करने योग्य है
वहां ये चार अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-शरीरिशरीरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा, शरीरविनसोपचयप्ररूपणा और विस्रसोपचयप्ररूपणा ॥ ११८ ॥ . शरीरी जीवोंको कहते हैं। उनके प्रत्येक और साधारण भेदवाले शरीरों का प्ररूपण करनेवाला होनेसे अथवा प्रत्येक और साधारण लक्षणवाले शरीरी और शरीरोंका प्ररूपणकरनेवाला होनेसे शरीरिशरीरप्ररूपणा संज्ञा है । पाँचों शरीरोंके प्रदेशोंके प्रमाणका, उनके प्रदेशोंके निषेक क्रमका और प्रदेशोंके अल्पबहुत्वका कथन करता है, इसलिए शरीरप्ररूपणा संज्ञा है। जिसमें औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण परमाणुओं को विषय करनेवाले पाँच शरीरोंके विस्रसोपचयके सम्बन्धके कारण स्निग्ध और रूक्षगुणोंके अविभागप्रतिच्छेदोंकी प्ररूपणा की जाती है उसकी शरीरविस्रसोपचयप्ररूपणा संज्ञा है। तथा जिसमें जीवसे मुक्त हुए उन्हीं परमाणुओंके विस्रसोपचयकी प्ररूपणा की जाती है उसकी विस्रसोपचयप्ररूपणा संज्ञा है।
ॐ म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु '-गुणियमोरालिय-' इति पाठः। Oम०प्रती 'तेसिं चेव परमाणूण' इत्यादि वाक्यं पुनरपि निबद्धमस्ति । म०प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिष 'मक्कमारणं' इति पाठ: ।
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५, ६, १२०.) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणा
( २२५ एदेसि चदुण्हमणुयोगद्दाराणं कमेणेत्थ परूवणा कीरदे
सरीरिसरीरपरूवणदाए अस्थि जीवा पत्तेय-साधारणसरीरा ॥ ११९ ॥
एक्कस्सेव जीवस्स जं सरीरं तं पत्तयसरीरं। तं सरीरं जेसि जीवाणं अत्थि ते पत्तेयसरीरा णाम। बहूणं जीवाणं जमेगं सरीरं तं साहारणसरीरं णाम। तत्थ जे वसंति जीवा ते साहारणसरीरा। अथवा पत्तेयं पुधभूदं सरीरं जेसि ते पत्तयसरीरा। साहारणं सामण्णं सरीरं जेसि जीवाणं ते साहारणसरीरा। एवं सरीराणि सरीरिणो च दुविहा® चेव होंति, तदियस्स अणुवलंभादो ।
तत्थ जे ते साहारणसरीरा ते णियमा वणफदिकाइया । अवसेसा पत्तेयसरीरा ॥ १२० ॥
साहारणसरीरा जीवा वणप्फदिकाइया चेवे ति वयणेण साहारणसरीरं वणप्फदिकाइएसु णियमिदं। वणप्फदिकाइया पुण अणियदा ‘यत एवकारकरणं ततोऽन्यत्रावधारणमिति' वचनात् । तेण वणप्फदिकाइया पत्तयसरीरा वि अस्थि ति घेत्तव्वं । अवसेसा पुण जीवा पत्तेयसरीरा चेव ।।
अब इन चार अनुयोगद्वारोंका क्रमसे यहां पर कथन करते हैं
शरीरिशरीरप्ररूपणाकी अपेक्षा जीव प्रत्येक शरीरवाले और साधारण शरीरवाले हैं ॥११९॥
एक ही जीवका जो शरीर है उसकी प्रत्येकशरीर संज्ञा है । वह शरीर जिन जीवोंके है वे प्रत्येकशरीर जीव कहलाते हैं। बहुत जीवोंका जो एक शरीर है वह साधारणशरीर कहलाता है। उनमें जो जीव निवास करते हैं वे साधारणशरीर जीव कहलाते हैं। अथवा प्रत्येक अर्थात पृथग्भूत शरीर जिन जीवोंका है वे प्रत्येकशरीर जीव हैं । तथा साधारण अर्थात् सामान्य शरीर जिन जीवोंका है वे साधारणशरीर जीव कहलाते हैं। इसप्रकार शरीर और शरीरी दो प्रकारके ही होते हैं, क्योंकि, तीसरा प्रकार उपलब्ध नहीं होता।
उनमेंसे जो साधारणशरीर जीव हैं वे नियमसे वनस्पतिकायिक होते हैं। अवशेष जीव प्रत्येकशरीर हैं ॥ १२०॥
साधारणशरीर जीव वनस्पतिकायिक ही होते हैं इस वचनसे साधारणशरीर वनस्पतिकायिकोंमें नियमित किया गया है। परन्तु वनस्पतिकायिक अनियत हैं, क्योंकि, जहां एवकार किया जाता है उससे अन्यत्र अवधारण होता है ऐसा वचन है, इसलिए वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर भी हैं ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । परन्तु अवशेष जीव प्रत्येकशरीर ही हैं ।
® अ० का०प्रत्यो: 'दुविहो' इति पाठः। म०प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिष एवकारणं ' इति पाठः ।
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२२६ ) छवखंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १२१. तत्थ इमं साहारणलक्खणं भणिदं ॥ १२१॥
किम लक्खणपरूवणा कीरदे? ण, लक्खणभेदेण विणा सरीरिसरीराणं भेदो णत्थि त्ति तब्भेदपरूवण तदुत्तीदो। पत्तेयसरीरस्स किण्ण लक्खणं भणिदं ? ण, साहारणसरीरस्स लक्खणे कहिदे संते तश्विवरीयलक्खणं पत्तेयसरीरमिदि उवदेसेण विणा तल्लक्खणावगमादो* ।
साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहण च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणिदं ॥ १२२ ॥
एदाए सुत्तगाहाए सरीरि-सरीणाणं दोण्हं पि लक्खणं परूविदं, एगलक्खणावगमेण इयरस्स वि लक्खणावगमादो । सरीरपाओग्गपोग्गलक्खंधगहणमाहारो। सो साहारणं सामण्णं होदि । साहारणमिदि णवंसलिंगणिद्देसो कथं कदो? किरियाविसेसेण भावेण । एगजीवे आहारिदे सव्वजोधा आहारिदा त्ति भणिदं होदि, अण्णहा साहारणत्ताणुववत्तीदो। आणो उस्सासो, अवाणो णिस्सासो। तेसिमाणावाणाणं
वहाँ साधारणका यह लक्षण कहा है ॥ १२१॥ शंका- लक्षणका कथन किसलिए किया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, लक्षणके भेदके बिना शरीरी और शरीरोंका भेद नहीं हो सकता, इसलिए उनके भेदोंका कथन करने के लिए लक्षणके भेदका कथन किया है।
शंका- प्रत्येकशरीरका लक्षण क्यों नहीं कहा है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, साधारणशरीरका लक्षण कह देने पर उससे विपरीत लक्षणवाला प्रत्येकशरीर है इस प्रकार उपदेशके बिना उसके लक्षणका ज्ञान हो जाता है।
साधारण आहार और साधारण उच्छवास-निःश्वासका ग्रहण यह साधारण जीवोंका साधारण लक्षण कहा गया है ॥ १२२॥
इस सूत्रगाथा द्वारा शरीरी और शरीर दोनोंका ही लक्षण कहा गया है, क्योंकि, एकके लक्षणका ज्ञान होने पर दूसरेके लक्षणका भी ज्ञान हो जाता है। शरीरके योग्य पुद्गलस्कन्धोंका ग्रहण करना आहार कहलाता है । वह साधारण अर्थात् सामान्य होता है।
शंका- सूत्रगाथा में 'साहारणं' इस प्रकार नपुंसकलिंगका निर्देश किसलिए किया है?
समाधान- क्रिया विशेषरूप भावके दिखलाने के लिए नपुंसकलिंगका निर्देश किया है। एक जीवके आहार करने पर सब जीवोंका आहार हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, अन्यथा उसका साधारणपना नहीं बन सकता है।
'आण' शब्दका अर्थ उच्छ्वास है और 'अपाण' शब्दका अर्थ निःश्वास है। उन आना
* ता०प्रतो तण्ण (त्थ ) इमं अ० प्रती 'तण्ण इमं ' इति पाठः। * अप्रती 'तल्लक्खेणा वगमादो' इति पाठः। ॐ आ० प्रतौ 'सुत्त गाहाए सरीराणं का०प्रतौं 'सुत्तगाहाए सरीरसरीराणं' इति
पाठः । ताका प्रत्यो: 'अपाणो' इति पाठः।।
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५, ६, १२२) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणा
( २२७ गहणमयाणं सव्वजीवाणं साहारणं सामण्णं । केसि जीवाणं सामण्णं ति® भणिदे साहारणजीवाणं । के साहारणजीवा ? एगसरीरणिवासिणो । अण्णसरीरणिवासिणं अण्णसरीरट्टिएहि साहारणतं गत्थि, एगसरीरावासजणिदपच्चासत्तीए अभावादो । एदस्स भावत्थो- सव्वजहण्णण पज्जत्तिकालेण जदि पुव्वुप्पण्णणिगोदजीवा सरीरपज्जत्ति-इंदियपज्जत्ति-आहार-आणापाणपज्जत्तीहि पज्जत्तयदा होति । तम्हि सरीरे तेहि समुप्पण्णमंदजोगिणिगोदजीवा वि तेणेव कालेण एदाओ पज्जत्तीओ समाणेति, अण्णहा आहारगहणादीणं* साहारणत्ताणुधवत्तीदो । जदि दीहकालेण पढममुप्पण्णजीवा चत्तारि पज्जत्तीओ समाणेति तो तम्हि सरीरे पच्छा उप्पण्णजीवा तेणेव कालेण ताओ पज्जत्तीओ समाणेति त्ति भणिदं होदि । कथमेगेण जीवेण गहिदो आहारो तक्काले तत्थ अणंताणं जीवाणं जायदे? ण, तेणाहारेण जणिदसत्तीए पच्छा उप्पण्णजीवाणं उप्पण्णपढमसमए चेव उवलंभादो। जदि एवं तो आहारो साहारणो होदि आहारजणिदसत्ती साहारणे त्ति वत्तव्वं ? ण एस दोसो, कज्जे कारणोवयारेण आहारजणिदसत्तीए वि आहारववएससिद्धीदो । सरीरिदियपज्जत्तीणं साहारणतं पानका ग्रहण अर्थात् उपादान सब जीवोंके साधारण है अर्थात् सामान्य है । किन जीवोंके साधारण है ऐसा पूछनेपर गाथासूत्र में 'साधारण जीवोंके' ऐसा कहा है।
शंका- साधारण जीव कौन हैं । समाधान- एक शरीरमें निवास करनेवाले जीव साधारण हैं ।
अन्य शरीरोंमें निवास करनेवाले जीवोंके उससे भिन्न शरीरोंमें निवास करनेवाले जीवोंके साथ साधारणपना नहीं है, क्योंकि, उनमें एक शरीरके आवाससे उत्पन्न हुई प्रत्यासत्तिका अभाव है। इसका अभिप्राय यह है-सबसे जघन्य पर्याप्ति कालकेद्वारा यदि पहले उत्पन्न हुए निगोद जीव शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आहाराप्ति और उच्छ्वासनिःश्वासपर्याप्तिसे पर्याप्त होते है तो उसी शरीरमें उनके साथ उत्पन्न हुए मन्द योगवाले निगोद जीवभी उसी कालके द्वारा इन पर्याप्तियोंको पूरा करते हैं, अन्यथा आहारग्रहण आदिका साधारणपना नहीं बन सकता है। यदि दीर्घकालकेद्वारा पहले उत्पन्न हुए जीव चारों पर्याप्तियोंको प्राप्त करते हैं तो उसी शरीरमें पीछेसे उत्पन्न हुए जीव उसी कालकेद्वारा उन पर्याप्तियोंको पूरा करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका- एक जीवकेद्वारा ग्रहण किया गया आहार उस कालमें वहां अनन्त जीवोंका कैसे हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उस आहारसे उत्पन्न हुई शक्तिका बादमें उत्पन्न हुए जीवोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समय में हो ग्रहण हो जाता है ।
शंका-- यदि ऐसा है तो 'आहार साधारण है' इसके स्थानमें 'आहारजनित शक्ति साधारण है' ऐसा कहना चाहिए ?
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कार्य में कारणका उपचार कर लेनेसे आहारजनित शक्तिके भी आहार संज्ञा सिद्ध होता है।
म०प्रतिपाठोऽयम् । ता०प्रतौ 'सामण्णेत्ति' अ०का०प्रत्यो: 'सामण्णा त्ति' इति पाठः । * आ०प्रतौ 'अण्णहारगहण्णादीणं' इति पाठः ।
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२२८) छखंडागमे वगणा-खंड
( ५, ६, १२३ किण्ण परूविदं ? ण, आहाराणावाणणिद्देसो देसामासियो ति तेसि पि एत्थेव अंतब्भावादो । एवमेदं साहारणलक्खणं भणिदं । संपहि एदीए गाहाए भणिदत्थस्सेव दढीकरण? उत्तरगाहा भणदि -
एयस्स अणुग्गहणं बहूण साहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहूणं समासदो तं पि होदि एयस्स ॥ १२३॥
एयस्स णिगोदजीवस्स अणग्गहणं पज्जत्तिणिप्पायण परमाणपोग्गलग्गहणं णिप्पण्णसरीरस्स जं परमाणपोग्गलग्गहणं वा तं बहणं साहारणाणं वहणं साहारणजीवाणं तत्र शरीरे तस्मिन् काले सतामसतां च भवति । कुदो ? तेणाहारेण जणिदसत्तीए तत्थतणसव्वजीवेसु अक्कमेणुवलंभादो, तेहि परमाणूहि णिप्फण्णसरीरावयवफलस्स सव्वजीवेसु उवलंभादो वा । जदि एगजीवम्हि जोगेणागदपरमाणुपोग्गला तस्सरीरमहिट्रिदाणं अण्णजीवाणं चेव होंति तो तस्स जोगिल्लजीवस्स तमणग्गहणं ण होदि, अण्णसंबंधित्तादो त्ति भणिदे परिहारं भणदि- एयरस एदस्स वि जीवस्स जोगवंतस्स तमणुग्गहणं होदि । कुदो ? तप्फलस्स एत्थ वि उवलंभादो । कथमेगेण
शंका- शरीरपर्याप्ति और इन्द्रियपर्याप्ति ये सबसे साधारण हैं ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, गाथासूत्र में 'आहार' और 'आनापान' पदका ग्रहण देशामर्षक है, इसलिये उनका भी इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है ।
इस प्रकार यह साधारण लक्षण कहा है । अब इस गाथाद्वारा कहे गये अर्थ को ही दृढ़ करने के लिए आगेकी गाथा कहते हैं
___ एक जीवका जो अनुग्रहण अर्थात् उपकार है वह बहुत साधारण जीवोंका है और इसका भी है । तथा बहुत जीवोंका जो अनुग्रहण है वह मिलकर इस विवक्षित जीवका भी है ॥ १२३ ॥
___ एक निगोद जीवका अनुग्रहण अर्थात् पर्याप्तियोंको उत्पन्न करनेके लिए जो परमाणु पुद्गलोंका ग्रहण है या निष्पन्न हुए शरीरके जो परमाणु पुद्गलोंका ग्रहण है वह 'बहूणं साहारणाण' अर्थात् उस शरीरमें उस काल में रहनेवाले और नहीं रहनेवाले बहुत साधारण जीवोंका होता है, क्योंकि, उस आहारसे उत्पन्न हुई शक्ति वहाँके सब जीवोंमें युगपत् उपलब्ध होती है। अथवा उन परमाणुओंसे निष्पन्न हुए शरीरके अवयवोंका फल सब जीवोंमे उपलब्ध होता है।
शका- यदि एक जीवमें योगसे आये हुए परमाणु पुद्गल उस शरीरमें रहनेवाले अन्य जीवोंके ही होते हैं तो योगवाले उस जीवका वह अनुग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि, उसका सम्बन्ध अन्य जीवोंके साथ पाया जाता है ?
समाधान- अब इस शंकाका परिहार करते हैं- इस एक योगवाले जीवका भी वह अनुग्रहण होता है, क्योंकि, उसका फल इस जीव में भी उपलब्ध होता है। @ म०प्रति गठोऽयम् । प्रतिषु 'अण्णसंबंधत्तादो' इति पाठः ।
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५, ६, १२४.) बंधणाणियोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणा
( २२९ वि दत्ताणं पोग्गलाणं फलमण्णे भंजंति?ण एस दोसो, एक्केण वि दत्तधणधण्णाईणं अविहत्तधणभाउआणं धूउपिउपुत्तणत्तुअंताणं च भोत्तुभावदसणादो । तत्थेव सरीरे गिवसंतजीवाणं जोगेणागदपरमाणुपोग्गला किमेदस्स अप्पिदजीवस्स होंति आहो ण होति त्ति भणिदे भणदि- बहूणं जमणुग्गहणं तं समासदो पिडभावेण एयस्स एदस्स वि अप्पिदणिगोदजीवस्स होदि, एगसरीरावासिदअणंतजीवजोगेणागदपरमाणुपोग्गलकलावजणिदसत्तीए एत्थ उवलंभादो। जदि एवं तो एदेसि बहूणं जीवाणं तमणुग्गहणं ण होदि, तप्फलस्स अण्णत्थ चेव एगम्हि जोवे उवलंभादो त्ति भणिदे भणदि'एयस्स' एष एकशब्दोऽन्तर्भावितवीप्सार्थः, तेनैकैकस्यापि जीवस्य तदनुग्रहणं भवति, तेभ्योऽन्यजीवेषु शक्त्युत्पत्तिकाल एव स्वस्मिन्नपि तदुत्पत्तेः ।
समगं वक्ताणं समगं तैसि सरीरणिप्पती। समगं च अणुग्गहणं समगं उस्सासणिस्सासो ।। १२४॥
एक्कम्हि सरीरे जे पढमं चेव उप्पण्णा* अणंता जीवा जे च पच्छा उप्पण्णा ते सव्वे समगं वक्ता णाम। कथं भिण्णकालुप्पण्णाणं जीवाणं समगत्तं जुज्जदे? ण,
शंका- एक जीवकेद्वारा दिये गये पुदगलोंका फल अन्य जीव कैसे भोगते हैं ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि एक के द्वारा भी दिये गये धन धान्यादिक को अविभक्त धनवाले भाई, लडकी, पिता, पुत्र और नाती तक के जीव भोगते हुए देखे जाते हैं।
उसी शरीरमें निवास करने वाले जीवोंके योगसे आये हुए परमाणुपुद्गल क्या एक विवक्षित जीवके होते है या नहीं होते हैं ऐसा पूछने पर कहते हैं- बहुत जीवोंका जो अनुग्रहण हैं वह मिल कर एक का अर्थात विवक्षित निगोद जीवका भी होता है, क्योंकि एक निवास करनेवाले अनन्त जीवोंके योगसे आये हुए परमाणु पुद्गल कलापसे उत्पन्न (हुई शक्ति इस जीव में पाई जाती है । यदि ऐसा है तो इन बहुत जोवोंका वह अनुग्रहण नहीं होता है, क्योंकि उसका फल अन्यत्र ही एक जीव में उपलब्ध होता है, ऐसा कहने पर कहते हैं'एयस्स' यह 'एक' शब्द अन्तर्गभित वीप्सारूप अर्थको लिए हुए है, इसलिये यह फलित हुआ कि एक एक जीव का भी वह अनुग्रहण है. क्योंकि, उन पुद्गलोंसे अन्य जीवों में शक्ति के उत्पन्न होने के काल में ही अपने में मी उसकी उत्पत्ति होती हैं ।
एक साथ उत्पन्न होनेवालोंके उनके शरीरकी निष्पत्ति एक साथ होती है, एक साथ अनुग्रहण होता है और एक साथ उच्छ्वास-निःश्वास होता है ॥१२४॥
एक शरीरमे जो पहले उत्पन्न हुए अनन्त जीव है और बादमें उत्पन्न हुए अनन्त जीव हैं वे सब एक साथ उत्पन्न हुए कहे जाते हैं ।
शंका- भिन्न काल में उत्पन्न हुए जीवोंका एक साथपना कैसे बन सकता है ?
रीरम
म.प्रतिपाठोऽयम् । प्रतीषु '-धणभाउवावाण' इतिपाठः । ॐ अका०प्रत्योः धउपिउ धत्तण्णत्तवणताणं इति पाठः। Oता०प्रतो 'तमणुग्गहं ण होदि' अ०का०प्रत्यो: 'तमणग्गहणं होदि' इति पाठः *-ताप्रतौ 'पढम उप्पण्णा' का०प्रतौ 'पढमं चे उप्पण्णा' इति पाठः। 6आप्रती
धक्कंताणाम' का०प्रतौ 'धक्कताण णाम' इति पाठः ।
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२३०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १२५ एगसरीरसंबंधेण तेसि सव्वेसि पि समगत्तं पडि विरोहाभावादो। अथवा समए वक्कताणं ति सुत्तं वत्तव्वं । एक्कम्हि समए एक्कसरीरे उप्पण्णसव्वजीवा समए वक्कंता णाम । एक्कम्हि सरीरे पच्छा उप्पज्जमाणा जीवा अत्थि, कथं तेसिं पढमसमए चेव उप्पत्ती होदि ? ण, पढमसमए उप्पण्णाणं जीवाणमणुग्गहणफलस्स पच्छा उप्पण्णजीवेसु वि उवलंभादो । तम्हा एगणिगोदसरीरे उप्पज्जमाणसव्वजीवाणं पढमसमए चेव उप्पत्ती एदेण णाएण जुज्जदे । एवं दोहि फ्यारेहि समगं वक्कंताणं जीवाणं तेसि सरीरणिप्पत्ती समगं अक्कमेण चेव होदि । समगं च अणुरगहणं, समुणुग्गहणादो। जेण कारणेण सव्वेसि जीवाणं परमाणुपोग्गलग्गहणं समगं अक्कमेण होदि तेण आहारसरीरिदियणिप्पत्ती उस्सासणिस्सासणिप्पत्ती व समगं अक्कमेण होदि, अण्णहा अणुग्गहणस्स साहारणत्तविरोहादो। एगसरीरे उप्पण्णाणंतजीवाणं चत्तारिपज्जत्तीयो अप्पप्पणो द्वाणे समगं समप्पंति । अणुग्गहणस्स साहारणभावादो त्ति भणिदं होदि ।
जत्थेउ मरइ जीवो तत्थ दु मरणं भवे अणताणं । वक्कमइ जत्थ एक्को वक्कमणं तत्थणंताणं ॥१२५ ॥
समाधान-- नहीं, क्योंकि, एक शरीरके सम्बन्धसे उन जीवोंके भी एकसाथपना होने में कोई विरोध नहीं आता है।
अथवा 'समए वक्कंताणं' ऐसा सूत्र कहना चाहिये । एक समय में एक शरीरमें उत्पन्न हुए सब जीव 'समए वक्कता' कहे जाते हैं ।
शंका- एक शरीरमें बादमें उत्पन्न हुए जीव हैं ऐसी अवस्थामें उनकी प्रथम समयमेंही उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रथम समयमें उत्पन्न हुए जीवोंके अनुग्रहणका फल बादमें उत्पन्न हुए जीवोंमें भी उपलब्ध होता है, इसलिए एक निगोदशरीरमें उत्पन्न होनेवाले सब जीवोंकी प्रथम समयमें ही उत्पत्ति इस न्यायके अनुसार बन जाती है ।
इस प्रकार दोनों प्रकारोंसे एकसाथ उत्पन्न हुए जीवोंके उनके शरीरकी निष्पत्ति समगं अर्थात् अक्रमसे ही होती है । तथा एकसाथ अनुग्रहण होता है, क्योंकि, उनका अनुग्रहण समान
स कारणसे सब जीवोंके परमाणु पुद्गलोंका ग्रहण समगं अर्थात अक्रमसे होता है, इसलिये आहार, शरीर और इन्द्रियोंकी निष्पत्ति और उच्छवास-निःश्वासकी निष्प अर्थात् अक्रमसे होती है । अन्यथा अनुग्रहणके साधारण होने में विरोध आता है। एक शरीरमें उत्पन्न हुए अनन्त जीवोंकी चार पर्याप्तियां अपने अपने स्थानमें एकसाथ समाप्त होती हैं, क्योंकि, अनुग्रहण साधारणरूप है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
जिस शरीरमें एक जीव मरता है वहाँ अनन्त जीवोंका मरण होता है । और जिस शरीरमें एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ अनन्त जीवोंकी उत्पत्ति होती है ।।२२५॥
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५, ६, १२६ )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणा
( २३१
जत्थ सरीरे एगो जीवो मरदि तत्थ अणंताणं चेव णिगोदजीवाणं मरणं होदि । अवहारणं कुदो लब्भदे ? दु सद्दस्स अवहारणटुस्स संबंधादो । संखेज्जा असंखेज्जा वा एक्को वा ण मरंति, णिच्छएण एगसरीरे णिगोदरासिणो अनंता चेव मरंति त्ति भणिदं होदि । जत्थ णिगोदसरोरे एगो जीवो वक्कमदि उप्पज्जदि तत्थ सरीरे अनंताणं चेव णिगोदजीवाणं वक्कमणं उप्पत्ती होदि । एगो वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा एक्कम्हि णिगोदसरीरे एक्कम्हि समए ण उप्पज्जंति किंतु अनंता चेव उप्पज्जंति त्ति भणिदं होदि । ते च एगबंधणबद्धा चेव होदूण उप्पज्जंति, अण्णहा पत्तेयसरीरवग्गणाए बादरसुहुमणिगोदवग्गणाए वा आणंतियप्पसंगादो। ण च एवं, तहाणुवभादो । बादरहुमणिगोदाणमवद्वाणक्कमपरूवणद्वमुत्तरसुत्तं भणदि
बादरसुहुमणिगोवा बद्धा पुट्ठा य एयमेएण ।
ते हु अनंता जीवा मूलयथूहल्लयादीहि ॥ १२६ ॥
एयसरी रद्विदबादरणिगोदा तत्थद्विदअण्णेहि बादरणिगोदेहि एग्सरीरट्ठिदसुहुमणिगोदा अण्णेहि तत्थ द्विदसुहुमणिगोदेहि बद्धा समवेदा संता अच्छंति । सो च
जिस शरीर में एक जीव मरता है वहां नियमसे अनन्त निगोद जीवोंका मरण होता है ।
शंका- इस स्थलपर अवधारण कहाँसे प्राप्त होता है ?
समाधान- गाथा सूत्रमें आये हुए 'दु' शब्दका अवधारण रूप अर्थके साथ सम्बन्ध है । संख्यात, असंख्यात या एक जीव नहीं मरते हैं, किन्तु निश्चयसे एक शरीरमें निगोद राशिके अनन्त जीव ही मरते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । तथा जिस निगोद शरीरमें एक जीव वक्कमदि अर्थात् उत्पन्न होता है उस शरीरमें नियमसे अनन्त निगोद जीवोंका 'वक्कमणं' अर्थात् उत्पत्ति होती है । एक, संख्यात और असंख्यात जीव एक निगोदशरीरमें एक समय में नहीं उत्पन्न होते हैं किन्तु अनन्त जीव ही उत्पन्न होते यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वे एक बन्धनबद्ध होकर ही उत्पन्न होते हैं, अन्यथा प्रत्येक शरीरवर्गणा और बादर व सूक्ष्मनिगोदवर्गणा अनन्त प्राप्त होनेका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसी वे पाई नहीं जातीं । अब बादरनिगोद और सूक्ष्मनिगोदके अवस्थानके क्रमका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
बादरनिगोद जीव और सूक्ष्मनिगोद जीव ये परस्पर में बद्ध और स्पृष्ट होकर रहते हैं । तथा वे अनन्त जीव हैं जो मूली, थूवर और आर्द्रक आदिके निमित्तसे होते हैं ॥ १२६ ॥
एक शरीर में स्थित बादर निगोद जीव वहां स्थित अन्य बादर निगोद जीवोंके साथ तथा एक शरीर में स्थित सूक्ष्म निगोद जीव वहां स्थित अन्य सूक्ष्म निगोद जीवोंके साथ बद्ध अर्थात्
अ० प्रती 'हुदाद्दल्स' का० प्रती 'हुदाहस्स' इति पाठः ।
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२३२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १२६.
समवाओ देससव्वसमवायभेएण दुविहो । तत्थ देससमवायपडिसेहट्ठ भणदि - 'पुट्ठा य एयमेएण' एक्क मेक्केण सव्वावयवेहि पुट्ठा संता चेव ते अच्छंति । णो अबद्धा णो अट्ठा व अच्छंति । अवहारणं कुदो लब्भदे ? अवहारणट्ठहुसद्द संबंधादो । ते केत्तिएत्ति भणिदे संखेज्जा असंखेज्जा वा ण होंति किं तु ते जीवा अणंता चेव होंति । केण* कारणेण होंति त्ति भणिदे 'मूलयथूहल्लयादीहि ' मूलयथूहल्लयादि - कारणेहि होंति । एत्थ आदिसद्देण अण्णे वि वणप्फदिभेदा घेत्तव्वा । एदेण बादरणिगोदाणं जोणी परूविदा ण सुहुमणिगोदाणं जलथलआगासेसु सव्वत्थ तेसि जोणिदंसणादो । भावत्थो - मूलयथूहल्लयादीणं सरीराणि बादरणिगोदाणं जोणी होंति । ते तेसि मूल्य हल्लयादीणं पत्तेयसरीरजीवाणं बादरणिगोदपदिट्टिदा त्ति सण्णा । वृत्तं च
तेण तत्थ मूलयथूहल्लयादीणं मणुसादिसरीरेसु असंखेज्जलोगमेत्ताणि णिगोदसरीराणि होंति । तत्थ एक्केक्कम्हि णिगोदसरीरे अनंताणंता बादरसुहुमणिगोदजीवा
बीजे जोणीभूदे जीवो वक्कमइ सो व अण्णो वा । विय मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए || १७ ॥
समवेत होकर रहते हैं । वह समवाय देशसमवाय और सर्वसमवायके भेदसे दो प्रकारका है । उनमें से देशसमवायका प्रतिषेध करनेके लिए कहते हैं- 'पुठ्ठा य एयमेएण' परस्पर सब अवयवों से स्पृष्ट होकर हीं वे रहते हैं । अबद्ध और अस्पृष्ट होकर वे नहीं रहते ।
शंका- अवधारण कैसे प्राप्त होता है ?
समाधान- अवधारणवाची हु शब्दके सम्बन्धसे प्राप्त होता है ।
वे कितने हैं ऐसा पूछने पर कहते हैं - वे संख्यात और असंख्यात नहीं होते हैं किन्तु वे जीव अनन्त ही होते हैं । वे किस कारणसे होते हैं ऐसा पूछने पर कहते हैं कि 'मूलयथूहल्लयादीहि' अर्थात् मूली, थूवर और आर्द्रक आदि कारणसे होते हैं । यहाँपर आये हुए 'आदि' शब्द से वनस्पतिके अन्य भेद भी ग्रहण करने चाहिए। इसके द्वारा बादर निगोदोंकी योनि कही गई है, सूक्ष्म निगोदोंकी नहीं, क्योंकि, जल, थल और आकाश में सर्वत्र उनकी योनि देखी जाती है। भावार्थ यह है-मूली, थूवर और आर्द्रक आदिके शरीर बादर निगोदोंकी योनि होते हैं, इसलिए मूली, थूवर और आर्द्रक आदिके प्रत्येकशरीर जीवोंकी बादरनिगोदप्रतिष्ठित संज्ञा है । कहा भी है-
योनिभूत बीज में वही जीव उत्पन्न होता है या अन्य जीव उत्पन्न होता है । और जो मूली आदि हैं वे प्रथम अवस्था में प्रत्येक हैं ॥ १७ ॥
इसलिए वहां मूली, थूवर और आर्द्रक आदिक तथा मनुष्यों आदिके शरीरोंमें असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीर होते हैं। वहां एक एक निगोदशरीरमें अनन्तानन्त बादर
अ०का प्रत्योः 'अवहारणसहसंबंधादो' इति पाठः । * ता० प्रती होंति । 'केण' इति
दीणं ( णि )
सरीराणि' इति पाठः ।
पाठ: ।ता० प्रती 'भणिदे मूलयथूहल्लयादीहि कारणेहि' इति पाठः । * ता० प्रतो
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५, ६, १२७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणा पढमसमए उप्पज्जति । तत्थ चेव विदियसमए असंखेज्जगुणहीणा उप्पज्जति । एवमसंखेज्जगुणहीणाए सेडीए ताव णिरंतरमुप्पज्जति जाव आवलियाए असंखे०भागमेत्तकालो ति । पुणो एक्कदोतिण्णिसमए आदि कादूण जावुक्कस्सेण आवलियाए असंखे०भागमेत्तकालमंतरिदूण पुणो एगवेतिण्णिसमए आदि कादूण जावुक्कस्सेण आवलियाए असंखे०भागमेत्तकालं णिरंतरं उप्पज्जंति एवं सांतरणिरंतरकमेण ताव उप्पजति जाव उप्पत्तीए संभवो अस्थि । एवमेदेण कमेणुप्पण्णबादरसुहमणिगोदजीवा एक्कम्हि सरोरे बद्धा पुट्टा च होदूण अच्छंति त्ति भणिदं होदि । जीवरासी आयवज्जिदो सव्वओ तत्तो णिन्वुइमुवगच्छंतजीवाणमुवलंभादो। तदो संसारिजीवाणमभावी होदि त्ति भगिदे ण होदि । अलद्धतसभावणिगोदजीवाणमणंताणं संभवो होदि त्ति जाणावगट्टणुत्तरसुत्तं भणदि
अत्थि अणंता जीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो। भाबकलंकअपउरा णिगोदवासं गं* मुंचंति ॥१७२।।
जेहि अदीदकाले कदाचि वि तसपरिणामो ण पत्तो ते तारिसा अणंता जीवा णियमा अस्थि, अण्णहा संसारे भव्वजीवाणभावावत्तीदो । ण चाभावो, तदभावे
निगोद जीव और सूक्ष्मनिगोद जीव प्रथम समय में उत्पन्न होते हैं । वहीं पर द्वितीय समयमें असंख्यातगुणे हीन उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल व्यतीत होने तक असंख्यातगुणे हीन श्रेणिरूपसे निरन्तर जीव उत्पन्न होते हैं । पुनः एक, दो और तीन समयसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका अन्तर देकर पनः एक, दो और तीन समयसे लेकर उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निरन्तर जीव उत्पन्न होते हैं इस प्रकार सान्तर-निरन्तरक्रमसे तब तक जीव उत्पन्न होते है जब तक उत्पत्ति सम्भव है । इस प्रकार इस क्रमसे उत्पन्न हुए बादरनिगोद जीव और सूक्ष्मनिगोद जीव एक शरीरमें बद्ध और स्पृष्ट होकर रहने हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जीवन राशि आयसे रहित है और व्ययसहित है, क्योंकि, उसमेंसे मोक्षको जाने वाले जीव उपलब्ध होते हैं। इसलिये संसारी जीवोंका अभाव प्राप्त होता है ऐसा कहने पर उत्तर देते हैं कि नहीं होता है, क्योंकि, त्रसभावको नहीं प्राप्त हुए अनन्त निगोद जीव सम्भव हैं, अतः इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
जिन्होंने अतीत कालमे त्रसभावको नहीं प्राप्त किया है ऐसे अनन्त जीव हैं। क्योंकि वे भावकलंकप्रचुर होते हैं, इसलिए निगोदवासको नहीं त्यागते ॥१२७॥
जिन्होंने अतीत काल में कदाचित् भी सपरिणाम नहीं प्राप्त किया है वे वैसे अनन्त जीव नियमसे हैं अन्यथा संसारमें भव्य जीवोंका अभाव प्राप्त होता है। और उनका अभाव है
*ताप्रती 'भावकलंकअ (ल) पउरा णिगोदजीवा (वास)ण' इति पाठः ।
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२३४ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, १२८
अभव्वजीवाणं पि अभावावत्तदो । ण च तं पि, संसारीणमभावापत्तीदो। ण चेदं पि, तदभावे असंसारीणं पि अभावप्यसंगादो । संसारीणमभावे संते कथं असंसारीणमभावो ? बुच्चदे, तं जहा - संसारीणमभावे संते असंसारिणो वि णत्थि, सव्वस्स सपडिबक्खस्स उवलंभण्णहाणुववत्तदो । तदो सिद्धं अदीदकाले अपत्ततसभावा अनंता जीवा अस्थि त्ति । एत्थ उवउज्जती गाहा
सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणतपज्जाया । गुपायधुवत्ता सप्पविक्खा हवइ एक्का ||१८||
किमट्ट ते तसपरिणामंण लहंति ? 'भावकलंकसुपउरा' भावकलंक: संक्लेशः, तं लाति आदत्त इति भावकलंकलः । एकेन्द्रियजातावुत्पत्तेर्हेतुरिति यावत् । तस्य प्राचुर्य्यात् एत्थतणजीवा णिगोदवासं ण मुंचंति ण छंडंति त्ति भणिदं होदि । एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्यमाणदो विट्ठा ।
सिद्धेहि अनंतगुणा सव्वेण वि तीदकालेण ॥ १२८॥
1
नहीं, क्योंकि, उनका अभाव होनेपर अभव्य जीवोंका भी अभाव प्राप्त होता है । और वह भी नहीं है, क्योंकि, उनका अभाव होने पर संसारी जीवोंका भी अभाव प्राप्त होना है । और यह भी नहीं है, क्योंकि, संसारी जीवोंका अभाव होने पर असंसारी जीवोंके भी अभावका प्रसंग आता है ।
शंका- संसारी जीवोंका अभाव होनेपर असंसारी जीवोंका अभाव कैसे सम्भव है ? समाधान- अब इस शंकाका समाधान करते हैं । यथा-संसारी जीवोंका अभाव होने पर असंसारी जीव भी नहीं हो सकते, क्योंकि सब सप्रतिपक्ष पदार्थोंकी उपलब्धि अन्यथा नहीं बन सकती ।
इसलिये सिद्ध होता है कि अतीत कालमें त्रसभावको नही प्राप्त हुए अनन्त जीव हैं । यहाँ पर उपयुक्त पडनेवाली गाथा कहते हैं
सत्ता सब पदार्थों में स्थित है, सविश्वरूप है, अनन्त पर्यायवाली है, व्यय, उत्पाद और ध्रुवत्वसे युक्त है, सप्रतिपक्षरूप हैं और एक है || १८||
उत्तरार्ध में करता है
वे सपरिणामको क्यों नहीं प्राप्त करते हैं, इसके समाधान में सूत्रगाथाके कहते है- 'भावकलंकसुपउरा' भावकलङ्क अर्थात् संक्लेश | उसे 'लाति' अर्थात ग्रहण वह भावकलंकल कहलाता है । एकेन्द्रियजातिमें उत्पत्तिका हेतु यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसकी प्रचुरता होने से यहांके जीव निगोदवासको नहीं त्यागतें हैं अर्थात् नही छोड़ते है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
एक निगोदशरीरमे द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा देखे गये जीव सब अतीत कालके द्वारा सिद्ध हुए जीवोंसे भी अनन्तगुणे हैं ॥ १२८॥
1
म०प्रतिपाठोऽयम् । ताप्रती 'वि अ (ग) थि' अ०का०प्रत्यो: 'वि अस्थि' इति पाठ: 'तसपरिणामाणं इति पाठः । ता० प्रती 'भावकलंक: ( कल ) अ०का प्रत्योः भावकलंक:'
अप्रती इति पाठ:
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५, ६, १२८. )
योगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणा
( २३५
संसारिजीवाणमवोच्छेदे एगं हेउ परूविय विदियहेउपरूवणट्टमेदं गाहासुत्तमागदं । एक्कम्हि णिगोदसरीरे दव्वप्यमाणदो अनंता जीवा अत्थि त्तिणिद्दिट्ठा । जुत्तीए होता विकेत्तिया त्ति भणिदे अदीदकाले जे सिद्धा तेहिंतो अनंतगुणा एक्कम्हि foगोदसरीरे होंति । का सा जुत्ती, जाए एगणिगोदसरीरे अणंता जीवा उवलद्धा ? सव्वजीवरासी आणंतियं । जासि संखाणं आयविरहियाणं वये संते वोज्छेदो होदि ताओ संखाओ संखेज्जासंखेज्जसण्णिदाओ । जासि संखाणं आयविरहियाणं संखेज्जासंखेज्जेहि वइज्जमाणाणं पि वोच्छेदो ण होदि तासिमणंतमिदि सगणा । सव्वजीवरासी वाणतो तेण सो ण वोच्छिज्जदि, अण्णहा आणंतियविरोहादो । ण च अद्धपोग्गलपरिट्टेण वियहिचारी, तस्स केवलणाणस्स अनंतसण्णिदस्स विसयभावेण अनंतत्तसिद्धीदो। ण च मेए माणसण्णा असिद्धा, पत्थेण मिदजवेसु वि पत्थसण्णुवलंभादो । सव्वेण अदीदकालेण जे सिद्धा तेहिंतो एगणिगोदसरीरजीवाणमनंतगुणत्तं कुदो णव्वदे? जुत्तीदो चेव । तं जहा- असखेज्जलोगमेत्तणिगोदसरोरेसु जदि सव्वजोवरासी लब्भदि तो एगणिगोदसरोरहि*किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाएओट्टिदाए एगणिगोदसरीरजीवाणं पमाणं सव्वजीवरासिस्स असंखे० भागमेत्तं होदि । सिद्धा पुण
ससारी जीवोंकी व्युच्छित्ति कभी नहीं होती इस विषय में एक हेतुका कथन करके दूसरे हेतुका कथन करने के लिए यह गाथासूत्र आया है। एक निगोदशरीर में द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा अनन्त जीव हैं यह पहले दिखला आये है । युक्तिसे होते हुए भी वे कितने हैं ऐसा पूछने पर कहते हैं- अतीत कालमें जो सिद्ध हुए हैं उनसे एक निगोदशरीरमें अनन्तगुणे होते हैं ।
शंका- वह कौनसी युक्ति है जिससे एक निगोदशरीर में अनन्त जीव उपलब्ध होते है ? समाधान- सब जीव राशिका अनन्त होना यही युक्ति है ।
आयरहित जिन संख्याओंका व्यय होनेपर सत्त्वका विच्छेद होता है वे संख्याऐं संख्यात और असंख्यात संज्ञावाली होती हैं। आयसे रहित जिन संख्याओंका संख्यात और असंख्यातरूपसे व्यय होनेपर भी विच्छद नहीं होता है उनकी अनन्त संज्ञा है और सब जीवराशि अनन्त है, इसलिए वह विच्छेदको नहीं प्राप्त होती । अन्यथा उसके अनन्त होने में विरोध आता है । अर्धपुद्गलपरिवर्तनके साथ व्यभिचार आता है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, अनन्त संज्ञा - वाले केवलज्ञानका विषय होनेसे उसकी अनन्तरूपसे सिद्धि है । मेयमें मानकी संज्ञा असिद्ध है। यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, प्रस्थसे मापे गये यवोंमें प्रस्थ संज्ञाकी उपलब्धि होती है । शंका- सब अतीत कालके द्वारा जो सिद्ध हुए हैं उनसे एक निगोदशरीर के जीव अनन्तगुणे हैं यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- युक्तिसेही जाना जाता है । यथा-- असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीरोंमें यदि सब जीवराशि उपलब्ध होती है तो एक निगोद शरीरमें कितनी प्राप्त होगो, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशि में प्रमाणराशिका भाग देनेपर एक निगोदशरीरके जीवों का प्रमाण अ०का०प्रत्यो: 'होतो वि' इति पाठ । तान्प्रतौ 'संत वोच्छेदो' इति पाठः । * तातो 'एकणि गोदजीव सरीरम्ह' इति पाठः ।
* अ०का०प्रत्या. 'एगहेउ' इति पाठः ।
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२३६) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १२८ अदीदकाले समयं पडि जदि वि असंखेज्जलोगमेत्ता सिझंति तो वि अदीदकालादो असंखज्जगुणा चेव । ण च एवं, अदीदकालादो सिद्धाणमसंखे०भागत्तवलंभादो। अदीदकालादो च सव्वजीवरासी अणंतगणो कुदो णव्वदे ? सोलसवदियअप्पाबहुगादो । तेण सिद्धं सिद्धेहितो एगणिगोदसरीरजीवाणमणंतगुणत्तं । तदो सव्वेण अदीदकालेण एगणिगोदसरीरजीवा वि ण सिज्झंति त्ति घेत्तव्वं । तत्थ णिगोदेसु जे द्विदा जीवा ते दुविहा-चउग्गइणिगोदा णिच्चणिगोदा चेदि । तत्थ चउग्गइणिगोदा णाम जे देव-णेरइय-तिरिक्ख-मणुस्सेसूप्पज्जियूण पुणो णिगोदेसु पविसिय अच्छंति ते चदुगइणिगोदा भण्णंति । तत्थ णिच्चणिगोदा णाम जे सव्वकालं णिगोदेसु चेव अच्छंति ते णिच्चणिगोदा णाम । अदीदकाले तसत्तं पत्तजीवा सुट्ठ जदि बहुआ होंति तो अदीदकालादो असंखेज्जगुणं चेव। तं जहा- अंतोमुत्तकालेण जदि पदरस्स असंखे०भागमेत्तजीवा तसेसु उप्पज्जमाणा लब्भंति तो अदीदकालम्हि केवडिए लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवद्विदाए अदीदकालादो असंखेज्जगुणो तसरासी होदि । तेण जागिज्जदि अदीदकाले तसभावमपत्तजीवाणमत्थितं सिज्झंतेसु जीवेसु संसारिजीवाणं वोच्छेदो च णत्थि त्ति ।
सब जीवराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । परन्तु सिद्ध जीव अतीत कालके प्रत्येक समय में यदि असंख्यात लोकप्रमाण सिद्ध होवें तो भी अतीत कालसे असंख्यातगुण ही होंगे । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव अतीत कालके असंख्यातवें भागप्रमाण ही उपलब्धि होते हैं।
शंका- सब जोवराशि अतीत कालसे अनन्तगुणी है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है? समाधान- सोलहपदिक अल्पबहुत्वसे जाना जाता है ।
इसलिये सिद्ध हुआ कि सिद्धोंसे एक निगोद शरीरके जीव अनन्तगुणे है । अतएव सभी अतीत कालकेद्वारा एक निगोदरारीरके जीव भी सिद्ध नहीं होते हैं यह ग्रहण करना चाहिए । उन निगोदोंमें जो जीव स्थित हैं वे दो प्रकारके हैं- चतुर्गति निगोद और नित्यनिगोद। उनमें से पहले चतुर्गतिनिगोद जीवोंका लक्षण कहते हैं- जो देव, नारकी, तिर्यच्च और मनुष्योंमें उत्पन्न होकर पुन: निगोदोंमें प्रवेश करके रहते हैं वे चतुर्गति निगोद जीव कहे जाते हैं । अब नित्यनिगोद जीवोंका लक्षण कहते हैं- जो सदा निगोदोंमेही रहते हैं वे नित्यनिगोद जीव है । अतीत कालमें त्रसपनेको प्राप्त हुए जीव यदि बहुत अधिक होते हैं तो अतीत कालसे असंख्यातगुण ही होते हैं। यथा अन्तर्महर्त कालके द्वारा यदि प्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव त्रसोंमें उत्पन्न होते हुए पाय जाते हैं तो अतीत कालमें कितने प्राप्त होंग, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर अतीत कालसे असंख्यातगुणी त्रसराशि होती है । इससे जाना जाता है कि अतीत काल में त्रसभावको नहीं प्राप्त हुए जीवोंका अस्तित्व है और जीवोंके सिद्ध होने पर भी संसारी जीवोंका विच्छेद वहीं होता।
ॐ अका०प्रत्योः 'अणंतगुणा कुदो' इति पाठः । 0 अप्रतौ 'गुणा तसरासी' इति पाठः ।
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५, ६, १३१.)
बंधणाणियोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणा (२३७ ___एदेण अट्ठपदेण तत्थ इमाणि अणुयोगद्दाराणि णादवाणि भवंति-संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो चेदि ।। १२९॥
___ सरीरिसरीरपरूवणाए एदाणि अट्ठ अणुओगद्दाराणि होति । अणियोगद्दारेहि विणा सरीरिसरीरपरूयणा किण्ण कीरदे ? ण, तेहि विणा सुहेण अत्थावगमाणुववत्तीदो।
संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण ॥१३०॥
एवं दुविहो चेव णिद्दे सो होदि, दवट्ठियपज्जवट्ठियभेदेण दुविहाणं चेव सोदाराणमुवलंभादो । तत्थ दवट्ठियजणाणुग्गहट्ठमोघेण पज्जवट्ठियजणाणुग्गहटुमादेसेण परूवणा कीरदे । तत्थ संक्खित्तवयणकलावो ओघो णाम । असंक्खित्तवयणकलावो
आदेसो ।
ओघेण अस्थि जीवा बिसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा असरीरा ॥१३१॥ विग्गहगदीए वढमाणा जीवा चदुगदिया बिसरीरा णाम, तेसिं तत्थ तेजा-कम्मइय
इस अर्थपदके अनुसार यहां ये अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं- सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम ।।१२९॥
शरीरिशरीरप्ररूपणाकी अपेक्षा ये आठ अनुयोगद्वार होते हैं। शंका- अनुयोगद्वारोंके बिना शरीरिशरीरप्ररूपणा क्यों नहीं की जाती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उनके बिना सुखपूर्वक अर्थका ज्ञान नही हो सकता है। सत्प्ररूपणाको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश ॥१३०॥
इस प्रकार दो प्रकारका ही निर्देश है, क्योंकि, द्रव्याथिक और पर्यायाथिकके भेदसे श्रोता दो ही प्रकारके उपलब्ध होते हैं । उनमें से द्रव्यार्थिक जनोंका अनुग्रह करनेके लिए ओघसे और पर्यायाथिक जनोंका अनुग्रह करने के लिए आदेशसे प्ररूपणा करते है। उन दोनोंमेसे संक्षिप्त वचन कलापका नाम ओघ है और असंक्षिप्त वचन कलापका नाम आदेश है।
ओघसे दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले, चार शरीरवाले और शरीररहित जीव हैं ॥१३१॥
विग्रहगतिमें विद्यमान चारों गतिके जीव दो शरीरवाले हैं, क्योंकि, उनके वहां तैजसशरीर
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२३८)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
(५, ६, १३२ सरीराणं दोण्हं चेव उवलंभादो । तिण्णि सरीराणि जेंसि जीवाणं ते तिसरीरा णाम । के ते ? ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरेहि वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसरीरेहि वा वटुमाणा । चत्तारि सरीराणि जेसि ते चदुसरीरा । के ते? ओरालिय-वेउव्वियतेजा-कम्मइयसरीरेहि ओरालिय-आहार-तेजा-कम्मइयसरीरेहि वा वट्टमाणा । जेसि सरीरं पत्थि ते असरीरा । के ते ? परिणिव्वुआ।
आदेसेण गदियाणुवादेण गिरयगईए रइएसु अस्थि जीवा बिसरोरा तिसरीरा ॥१३२॥
विग्गहगदीए णेरइया विसरीरा चेव होंति, तत्थ वेउव्वियसरीरस्स उदयाभावेण तेजा-कम्मइयसरीराणं दोण्हं चेव उदयदंसणादो । पुणो तिसरीरा होंति, तत्थ वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीराणं तिण्णं पि उदयदसणादो।
एवं सत्तसु पुढवीसु रइया ॥१३३॥
सत्तसु पुढवीसु जे जेरइया तेसि गिरओघभंगो। विसरीर-तिसरीरत्तणेण भेदाभावादो।
तिरिख्खगदीए तिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्खजोणिणोसु ओघं ॥१३४॥ और कार्मणशरीर ये दो हो शरीर उपलब्ध होते हैं। जिन जीवोंके तीन शरीर होते हैं वे तीन शरीरवाले जीव कहलाते है । वे कौन है ? औदारिकशरीर, तंजसशरीर और कार्मणशरीरके साथ अथवा वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर, और कार्मणशरीरके साथ विद्यमान जीव तीन शरीरवाले हैं। चार शरीर जिनके होते हैं वे चार शरीरवाले जीव हैं । वे कौन है? औदारिकशरीर वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर और कार्मणशरीरके साथ अथवा औदारिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरके साथ विद्यमान जीव चार शरीरवाले होते हैं। जिनके शरीर नहीं है वे अशरीरी जीव हैं । वे कौन हैं ? परिनिर्वृत्तिको प्राप्त हुए जव अशरीरी होते हैं।
आदेशसे गति मार्गणाके अणुवादसे नरकगतिको अपेक्षा नारकियोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीव हैं ॥१३२॥
विग्रहगति में नारकी दो शरीरवाले होते हैं क्यों कि वहां पर वैक्रियिकशरीरका उदय नहीं होनेसे तैजसशरीर और कार्मणशरीर इन दो शरीरोंका ही उदय देखा जाता है । अनन्तर तीन शरीरवाले होते हैं, क्योंकि वहां वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर और कार्मणशरीर इन तीनों शरीरोंका ही उदय देखा जाता है ।
इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें नारकियोंके जानना चाहिए ॥१३३॥
सातों पृथिवियोंमें जो नारकी हैं उनमें सामान्य नारकियोंके समान भङ है, क्योंकि दो शरीरपने और तीन शरोरपने की अपेक्षा उनसे इनमें कोई भेद नहीं है ।
तिर्यश्चगतिकी अपेक्षा तिर्यश्च पन्चेन्द्रियतिर्यश्च, पन्चेन्द्रियतिर्यश्चपर्याप्त और
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५, ६, १३६ )
बंधाणुयोगद्दारे सरीरसरीरपरूवणा
( २३९
मूलोघे असरीरा अस्थि, एत्थ ते णत्थि, तेण ओघत्तं ण जुज्जदे ? असरीराणमभावस्स उवदेसेण विणा अवगम्ममाणत्तादो । अटुकम्मकवचादो णिग्गया असरोरा णाम । असेसकम्मुदयाविणाभावितिरिक्खगइणामकम्मोदइल्ला तिरिक्खा णाम । वसाभावे तिरिक्खेसु असरीराभावो सिद्धो त्ति ओघणिसो कदो । पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्ता अस्थि जीवा बिसरीरा तिसरीरा ।। १३५ ॥
farगहगदीए बिसरीरा चेव, तत्थ ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो, तेजाकम्मइयसरीराणं संसारे सव्वत्थ उदयवोच्छेदाभावादो । सरीरगहिदपढमसमय पहुडि तिसरीरा चेव, तत्थ ओरालिय-तेजा-क्रम्मइयाणं उदयदंसणादो । चदुसरीरा पुण णत्थि, सेसतिरिक्खाणं व विजब्वणसत्तीए अभावादो मनुस्सेसु व तिरिक्खेसु आहारसरीराभावादो च ।
मणुस दीए मणुस प्रणुसपज्जत्त मणुसिणीसु ओघं ॥ १३६ ॥ एत्थ असरीराणमभावो तिरिक्खेसु व परूवेदव्वो । सेसं सुगमं ।
पन्चेन्द्रियतिर्यश्च योनिनी जीवों में ओघके समान भंग है ॥ १३४॥
शंका- मूलोघ में अशरीरी जीव हैं ऐसा कहा है, परन्तु यहां पर वे नहीं हैं, इसलिए ओघपना नहीं बनता है ?
समाधान- यहाँ पर अशरीरी जीवोंका अभाव उपदेशके बिना अवगम्यमान है । आठ कर्मरूपी कवचसे निकले हुए जीव अशरीरी होते हैं और समस्त कर्मोंके उदयके अविनाभावी तिर्यञ्चगति नामकर्म के उदयसे युक्त जीव तिर्यञ्च कहलाते हैं, इसलिये उपदेश के बिना भी तिर्यमें अशरीरी जीवोंका अभाव सिद्ध होता है, इसलिए वे ओघ के समान हैं ऐसा निर्देश किया
है ।
पन्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीव दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले होते हैं ॥ १३५ ॥
विग्रहगति में दो शरीरवाले ही होते हैं, क्योंकि वहां पर औदारिक शरीरका उदय नहीं होता तथा तैजसशरीर और कार्मणशरीरकी संसार में सर्वत्र उदयव्युच्छित्ति नहीं है । ये शरीर ग्रहण करने के प्रथम समयसे लेकर तीन शरीरवाले ही होते हैं, क्योंकि वहां पर औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरका उदय देखा जाता है । परन्तु चार शरीरवाले नहीं होते, क्योंकि, शेष तिर्यवों में जैमी विक्रिया करनेकी शक्ति है वैसी इनमें नहीं है । तथा मनुष्यों में जैसे आहारकशरीर होता है वैसे तिर्यञ्चोंमे नहीं होता ।
मनुष्यगतिकी अपेक्षा सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में ओघ के समान भंग है ॥ १३६ ॥
यहां अशरीरो जीवोंका अभाव तिर्यञ्चों के समान कहना चाहिए । शेष कथन सुगम है ।
ॐ ता०प्रतौ 'तिरिक्खेसु (व - ) परूवेदब्वो' इति पाठः ।
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२४० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १३७ मणुसअपज्जत्ता अत्थि जीवा बिसरीरा तिसरीरा ॥१३७।। एदस्स अत्यो सुगमो, तिरिक्खअपज्जत्तएसु परूविदत्तादो। देवगदीए देवा अस्थि जीवा विसरीरा तिसरीरा ॥१३८॥
विग्गहदीए विसरीरा, अण्णत्थ तिसरीरा । चदुसरीरा णत्थि, देवेसु ओरालियआहारसरीराणमुदयाभावादो । मणुस्सेसु पंचसरीरा किण्ण परूविदा ? ण, पत्तविउव्वणाणमिसीण, माहारलद्धीए अभावादो।
एवं भवणवासियप्पहूडि जाव सवठ्ठसिद्धियविमाणवासियदेवा ॥१३९॥
कुदो? विसरीरत्तणेण तिसरीरत्तणेण च भेदाभावादो।
इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरेइंदिया तेसि पज्जत्ता पंचिदियों पंचिदियपज्जत्ता ओघं ॥१४०॥
मनुष्यअपर्याप्त दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले होते हैं ॥१३७॥
इम सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि तिर्यच्च अपर्याप्तकोंके कथनके समय इसका कथन कर आये हैं।
देवगतिकी अपेक्षा देव दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले होते हैं ॥१३८॥ - विग्रहगतिमें दो शरीरवाले और अन्यत्र तीन शरीरवाले होते हैं । चार शरीरवाले नहीं होते, क्योंकि देवोंमें औदारिकशरीर और आहारकशरीरका उदय नहीं होता ।
शंका- मनुष्योंमें पाँच शरीरवाले जीव क्यों नहीं कहे ?
समाधान- नहीं, क्योंकि वैक्रियिक ऋद्धिको प्राप्त हुए ऋषियोंके आहारकलब्धिका अभाव है।
इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी तकके देवोंमें जानना चाहिये ॥१३९॥
क्योंकि वहाँ दो शरीरपने और तीन शरीरपनेकी अपेक्षा भेद नहीं है।
इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंका भङ तथा पन्चेन्द्रिय और पन्चेन्द्रियपर्याप्त जीवोंका भङ ओघके समान है ॥१४०॥
*ता०प्रती पज्जत्ता (पज्जत्ता) 'पंचिदिय-'
ता०प्रतौ 'पत्तविउव्वमिसीण-' इति पाठः। अका०प्रत्यो: 'पज्जतापज्जत्ता पंचिदिय-' इति पाठः ।
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५, ६, १४१ )
बंधाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए संतपरूवणा
( २४१
एत्थ असरीराणमभावो पुव्वं व वत्तव्वो । ओघम्मि आहारसरीरुदओ अत्थि, एत्थं तं णत्थि तेण ओघत्तं ण जुज्जदे ? ण, ओरालिय सरीरुदएण सह उदयमागच्छमाणवेउब्बियसरीरोदयं पडुच्च एदेसि चदुसरीरत्तणिद्देसो । तत्थ दोहि पयारेहि चदुसरीरत्तं संभवदि, एत्थ ण संभवदि, तदो ओघेण सह अस्थि भेदों त्ति भणिदे ण, जेण केण वि पयारेण संभवमाणचदुसरीरत्तावेक्खाए भेदाभावादो ।
बादरएइंदियअपज्जता सुहुमेइंदिया तेसि पज्जता अपज्जता बीइंदिया तीइंदिया चउरिदिया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिदियअपज्जत्ता णेरइयभंगो ॥ १४१ ॥
रइयाणं व बिसरीरा तिसरीरा अस्थि त्ति भणिदं होंदि । चदुसरीरा णत्थि, एदेसु विउव्वणसरीराभावादो आहारसरीराभावादो च ।
कायाणुवादेण पुढविकाइया आउकाइया वणव्फ विकाइया णिगोदजीवा तेसि बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता बादरवप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा तेसि पज्जत्ता अपज्जत्ता बादरते उक्काइयअपज्जत्ता बादर
यहां पर अशरीरी जीवोंका अभाव पहले के समान कहना चाहिए ।
शंका- ओघ में आहारशरीरका उदय है और यहां वह नहीं है, इसलिए यहां ओघपता नहीं बनता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि औदारिकशरीर के उदयके साथ उदयको प्राप्त होनेवाले वैकिकिशरीर के उदयकी अपेक्षा इनके चार शरीरपनेका निर्देश किया है ।
शंका- वहां दोनों प्रकारसे चार शरीरपना सम्भव है पर यहां सम्भव नहीं है, इसलिए ओघ से यहां भेद है ही ?
समाधान- नहीं, क्योंकि जिस किसी भी प्रकारसे सम्भव चार शरीरपनेकी अपेक्षा भेद नहीं है, इसलिए यहाँ ओघपना बन जाता है |
बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त व अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा इन तीनोंके पर्याप्त व अपर्याप्त और पन्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें नारकियोंमें समान भग्न है ॥ १४१ ॥
नारकियों के समान दो शरीरवाले और तीनशरीरवाले होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । चार शरीरवाले नहीं होते, क्योंकि इनमें विक्रिया करनेवाले शरीरका अभाव है और आहारकशरीरका अभाव है ।
कायमार्गणा अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, उनके प्रर्याप्त और अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर
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२४२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, १४२ वाउक्काइयअपज्जत्ता सहमतेउकाइय-सहमवाउकाइयपज्जत्ता अपज्जत्ता तसकाइयअपज्जत्ता अस्थि जीवा बिसरीरा तिसरीरा ॥१४२॥
विग्गहगदीए बिसरीरा, अण्णत्थ तिसरीरा । कुदो? एदेसु वेउव्विय-आहारसरीराणमभावादो।
तेउक्काइया वाउक्काइया बादरतेउक्काइया बादरवाउक्काइया तेसि पज्जत्ता तसकाइया तसकाइयपज्जत्ता ओघं ॥१४॥
एत्थ बिसरीर-तिसरीर चदुसरीराणमुवलंभादो । कथमेदेसु चदुसरीरसंभवो? ण, एत्थ विउव्वमाणजीवाणमुवलंभादो।
जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंचवचिजोगी ओरालियकायजोगी अस्थि जीवा तिसरीरा चदुसरीरा ॥१४४।।
बिसरीरा णत्थि, विग्गहगईए मण-वचि-ओरालियकायजोगीणमभावादो। उत्तरसरीरं विउविदाणं कथमोरालियकायजोगो? ण, उत्तरसरीरस्स विओरालियवायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक और सूक्ष्म वायुकायिक तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त और त्रसकायिक अपर्याप्त जीव दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले होते हैं ॥ १४२॥
विग्रहगतिमें दो शरीरवाले और अन्यत्र तीन शरीरवाले होते हैं, क्योंकि, इनमें वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरका अभाव है ।
अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक, उनके पर्याप्त, त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंमें ओघके समान भंग है ॥१४३॥
इन जीवोंमें दो शरीर, तीन शरीर और चार शरीर उपलब्ध होते हैं । शंका- इनमें चार शरीर कैसे सम्भव है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इनमें विक्रिया करनेवाले जीव पाये जाते हैं, इसलिए उस समय चार शरीर सम्भव हैं।
योगमार्गणाके अनुवादसे पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी और औदारिककाययोगी जीव तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले होते हैं ॥ १४४ ॥
इनमें दो शरीरवाले जीव नहीं होते, क्योंकि, विग्रहगतिमें मनोयोगी, वचनयोगी और आदारिककाययोगी जीवोंका अभाव हैं।
शंका- उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेवाले जीवोंके औदारिककाययोग कैसे सम्भव है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उत्तर शरीर भी औदारिककाय है । यदि कहा जाय कि
* अप्रतौ 'तेउकाइया बादरते उक्काइया' इति पाठः ।
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५, ६, १४६.)
धाणियोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए संतपरूवणा
( २४३
कायत्तादो । ण च ओरालियसरीरणामकम्मोदयजणिदस्स विक्किरिय सरुवस्स ओरालियसरीरत्तं फिट्टदि, विरोहादो ।
कायजोगी ओघं ॥ १४५ ॥
कुदो ? तत्थ विग्गहगदीए विसरीराणं विउव्विदेसु उट्ठाविदआहारसरीरेसु च चदुसरीराणमण्णत्थ तिसरीराणमुवलंभादो ।
ओरालियमस्सकायजोगि - वेडव्वियकायजोगि - वेडव्वियमिस्सकायजोगी अस्थि जीवा तिसरीरा ॥ १४६॥
सुबिसरी पत्थि, विग्गहगदीए अभावादो । चदुसरीरा वि णत्थि आहारसरीरस्स उदयाभावादो, अपज्जत्तकाले विउव्वणसत्तीए अभावादो च । विउव्वमाणदेव - णेरइएस वि ण चत्तारि सरीराणि, ओरालियसरीरस्सेव वेउब्वियसरीरस्स विउव्वणाविउव्वणभेदेण दुविहभावाणुवलंभादो । पारिसेसेण तिसरीरा चेव ।
दारिकशरीर नामकर्मके उदयसे पैदा हुए विक्रियास्वरूप शरीरका औदारिकपना नहीं रहता सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होने में विरोध आता है ।
विशेषार्थ - मनोयोगी और वचनयोगी जीवोंमें औदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मण अथवा औदारिक, अहारक, तैजस और कार्मण इस तरह दो प्रकार से चार शरीर संभव हैं किन्तु औदारिककाययोगी जीवोंमें औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मण ये चार शरीर ही संभव हैं, क्योंकि आहारकशरीर के समय औदारिककाययोग नहीं होता, किन्तु मनोयोग व वचनयोग संभव है ।
काययोगी जीवोंका भंग ओघके समान है ।। १४५ ॥
क्योंकि वहां विग्रहगति में दो शरीर, विक्रिया करनेपर और आहारकशरीरके उत्पन्न करने पर चार शरीर तथा अन्यत्र तीन शरीर उपलब्ध होते हैं ।
औदारिक मिश्रकाययोगी, वैश्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में तीन शरीरवाले जीव होते हैं ॥ १४६॥
इनमें दो शरीर नहीं होते, क्योंकि विग्रहगतिका अभाव है । चार शरीर भी नहीं होते, क्योंकि आहारकशरोरका उदय नहीं है. तथा अपर्याप्त कालमें विक्रिया करनेकी शक्तिका अभाव है । विक्रिया करनेवाले देव और नारकियों में भी चार शरीर नहीं होते, क्योंकि जिस प्रकार औदारिकशरीरका विक्रिया और अविक्रियाके भेदसे द्विविधदना उपलब्ध होता है उस प्रकार वैक्रियिक शरीरका विक्रिया और अविक्रियाके भेदसे द्विविधपना नहीं होता । पारिशेषन्याय से ये तीन शरीरवाले ही होते हैं ।
तातो' उट्ठाविद (जा) आहारसरीरेस' अप्रतौ 'उठ्ठविदजा आहारसरीरेसु' इति पाठः ।
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२४४)
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
(५, ६, १४७
आहारकायजोगी आहारमिस्सकायजोगी अस्थि जीवा चदु
सरोरा ॥ १४७ ॥
तत्थ बिसरीरा णत्थि, विग्गहगदीए अभावादो। ण तिसरीरा वि, ओरालियआहार-तेजा-कम्मइयाणं चदुण्हं सरीराणं तत्थुवलंभादो । ण च ओरालियस रीरस्स उदओ णत्थि त्ति तत्थाभावो वोत्तुं सक्किज्जदे, तत्थ तदुदयसत्तीए संभवादो । कम्मइयकायजोगी रइयाणं भंगो ।। १४८ ।।
होदु णाम एदेसि बिसरीरत्तं विग्गहगदीए तेजा - कम्मइयसरीराणमुदयदंसणादो, कथं पुण तिसरीरत्तं ? ण, पदर - लोगपूरणाणं गदकेवलिम्हि तेजा - कम्मइयएहि सह ओरालियसरीरस्स उवलंभादो ।
वेदानुवादेण इत्थवेदा पुरिसवेदा णवुंसयवेदा ओघं ॥ १४९ ॥ तत्थ बिसरीर-तिसरीर-चदुसरीराणमुवलंभादो । इत्थि - णवुंसयवेदेसु आहारआहारक काययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीव चार शरोरवाले होते हैं ॥ १४७ ॥
इन में दो शरीरवाले नहीं होते, क्योंकि, यहाँ विग्रहगतिका अभाव है । तीन शरीरवाले भी नहीं होते, क्योंकि, आदारिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर ये चार शरीर इनमें पायें जाते हैं । यदि कहा जाय कि औदारिकशरीरका उदय नहीं होता, इसलिए वहाँ इसका अभाव कहना शक्य है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वहाँ उसके उदय होने की शक्ति सम्भव है |
विशेषार्थ - जिस समय प्रमत्तसंयत जीव आहारक शरीरका प्रारम्भ करता है उस समय से लेकर आहारक शरीरकी क्रिया समाप्त होनेतक उसके औदारिकशरीर नामकर्मका उदय नहीं होता, इसलिए वहाँ औदारिकशरीर का अभाव नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, एक तो उसके औदारिकशरीरके पुनः उदय होने की शक्ति विद्यमान है । दूसरे उसके औदारिकशरीर के उदय का फल औदारिकशरीर पूर्ववत् विद्यमान रहता है, इसलिए आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाय योगी जीव के चार शरीर कहे हैं ।
कार्मणका योगी जीवोंमें नारकियोंके समान भंग है ।। १४८ ॥
शंका- इनके दो शरीर होवें, क्योंकि, विग्रहगति में तैजसशरीर और कार्मणशरीरका उदय देखा जाता है । तीन शरीर कैसे हो सकते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रतर और लोकपूरण समुद्घातको प्राप्त हुए केवली जिनके तैजसशरीर और कार्मणशरीर के साथ आदारिकशरीर भी उपलब्ध होता है ।
वेदमार्गणाके अनुवाद से स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें ओघके समान भंग है ॥ १४९ ॥
क्योंकि, इन जीवों में दो शरीर, तीन शरीर और चार शरीर उपलब्ध होते हैं ।
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बंधाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए संतपरूवणा
(२४५
सरुदयाभावादो णत्थि चदुसरीरत्तं ? ण, तत्थ वि विउव्विदुत्तरसरीरेसु चदुसरीर
वलंभादो ।
५,
६, १५२. )
कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई ओघं ॥ १५०॥
सुगममेदं, बिसरीर - तिसरीराणं दोपयारेहि चदुसरीराणं च उवलंभादो । अवगदवेदा अकसाई अत्थि जीवा तिसरीरा ॥ १५१ ॥
काणि तिणि सरीराणि ? ओरालिय-तेजा - कम्मइयसरीराणि । बिसरीरा णत्थि, तत्थ अपज्जत्तकालाभावादो । चदुसरीरा वि णत्थि, विउव्वणाहारसरीरुट्ठावणवावाराणं तत्थाभावादो ।
णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी ओघं ॥ १५२॥
कथमेत्थ असरीरत्तं, ण आहारतं, ण चदुसरीरतं ? ण विउव्वणमस्सिदृण तदुवलंभादो ।
शंका- स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें आहारकशरीरका उदय नहीं होनेसे चार शरीर नहीं होते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, उनमें भी उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेपर चार शरीर उपलब्ध होते हैं ।
कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले और लोभकषायवाले जीवोंमें ओघके समान भंग है ॥ १५० ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और दो प्रकारसे चार शरीरवाले जीव यहाँ उपलब्ध होते हैं ।
अपगतवेदी और अकषायवाले जीव तीन शरीरवाले होते हैं ।। १५१ ॥
शंका- तीन शरीर कौन हैं ?
समाधान - औदारिक, तेजस और कार्मण ये तीन शरीर हैं ।
दो शरीरवाले जीव नहीं होते, क्योंकि, इनमें अपर्याप्त कालका अभाव है । चार शरीरवाले भी नहीं होते, क्योंकि, विक्रियारूप और आहारकशरीरके उपस्थापन रूप व्यापारका वहाँ अभाव है । ज्ञानमार्गणा अनुवाद से मत्यज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंमें ओघके समान भंग है ॥ १५२ ॥
शंका- यहां अशरीरपना कैसे सम्भव है, आहारकशरीरपना भी नहीं है और चार शरीरपना भी नहीं हैं, इसलिए ओघ के समान भंग कैसे हो सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, विक्रियाका आश्रय लेकर चार शरीरपने की उपलब्धि हो जाती है।
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२४६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १५३ विभंगणाणी मणपज्जवणाणी अस्थि जीवा तिसरीरा चदुसरीरा ॥१५३॥
मणपज्जवणाणीसु आहारसरीरस्स उदयाभावादो पत्थि चदुसरीरत्तं ? ण, विउव्वणमस्सिदण दोसु णाणेसु चदुसरीरत्तुवलंभादो । णत्थि विसरीरा, अपज्जत्तकाले एदेसि णाणाणमभावादो।
आभिणी-सुद-ओहिणाणी ओघं ।१५४॥ विसरीर-तिसरीर-चदुसरीरभावेण तत्तो भेदाभावादो। केवलणाणी अस्थि जीवा तिसरीरा ।। १५५॥ सुगम। संजमाणुवादेण संजदा सामाइय-छेदोवढावणसुद्धिसंजदा संजदासजदा अस्थि जीवा तिसरीरा चदुसरीरा ॥१५६॥ विसरीरा णत्थि विग्गहगदीए अणुव्वय-महव्वयाणमभावादो।
परिहारविसद्धिसंजदा सहमसांपराइयसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा अस्थि जीवा तिसरीरा ॥१५७।।
विभग्नज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले होते हैं ॥१५३॥
___ शंका- मन.पर्ययज्ञानवाले जीवोंमे आहारकशरीरका उदय नहीं होने से चार शरीरपना नहीं बनता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि विक्रियाका आश्रय लेकर उत्त दो ज्ञानोंमें चार शरीरपनेकी उपलब्धि होती है।
मात्र इनमें दो शरीरवाले जीव नहीं है, क्योंकि अपर्याप्त कालमें इन ज्ञानोंका अभाव है।
आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें ओघके समान भंग है ॥१५४॥ __ क्योंकि दो शरीर, तीन शरीर और चार शरीरपनेकी अपेक्षा ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है।
केवलज्ञानी जीव तीन शरीरवाले होते हैं ॥१५५॥ यह सूत्र सुगम है।
संयम मार्गणाके अनुवादसे संयत, सामायिकशुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीव तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले होते हैं ॥१५६।।
दो शरीरवाले नहीं होते, क्योंकि विग्रहगतिमें अणुव्रतों और महाव्रतों का अभाव है।
परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत, और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत जीव तीन शरीरवाले होते हैं ॥१५७॥
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बंधाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए संतपरूवणा
( २४७
परिहारसुद्धिसंजदेसु कुदो णत्थि चदुसरीरा ? परिहारसुद्धिसंजदस्स विउव्वणरिद्धीए आहाररिद्धीए च सह विरोहादो । सेसं सुगमं । असंजदा ओघं ॥ १५८ ॥
सुगमं ।
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओहिदंसणी
५, ६, १६२.)
ओघं ।। १५९ ।। सुगमं ।
केवलदंसणी अत्थि जीवा तिसरीरा ॥ १६० ॥
सुगमं ।
लेस्साणुवादेण किणण णील- काउलेस्सिया तेउ-पम्म सुक्कलेस्सिया ओघं ॥ १६१॥
सुगमं ।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिया अभवसिद्धिया ओघं ॥ १६२ ॥
सुगमं ।
शंका- परिहारशुद्धिसंयत जीवोंमें चार शरीरवालें क्यों नहीं होते ?
समाधान- परिहारशुद्धिसंयत जीवके विक्रियाऋद्धि और आहारकऋद्धिके साथ इस संयम होने का विरोध है ।
शेष कथन सुगम है ।
असंयत जीवोंमें ओघ के समान भंग है ॥ १५८ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी जीवों में ओघ के समान भंग है ।। १५९ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
केवलदर्शनवाले जीव तीन शरीरवाले होते हैं ॥ १६० ॥
यह सूत्र सुगम है ।
श्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और शुक्लले श्यावाले जीवों में ओघके समान भंग है ।। १६१ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
भव्यमार्गगाके अनुवादसे भव्य अभव्य जीवोंमें ओघके समान भंग है ॥ १६२ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १६३
समत्ताणुवादेण समाइट्ठी खइयसम्माइट्टी वेदगसम्म इट्टी उवसमसम्माइट्ठी सासणसम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी ओघं ॥ १६३ ॥ विसरीर - तिसरीर - चदुसरीरत्तणेण भेदाभावादो । सम्मामिच्छाइट्ठीणं मणजोगिभंगो ॥ ॥ १६४ ॥ अपज्जत्तकाले सम्मामिच्छत्ताभावादो ।
सणियाणुवादेण सणणी असणणी ओघं ॥ १६५ ॥ सुगमं ।
आहाराणुवादेण आहारामणजोगि भंगो ॥ १६६ ॥ सुगमं ।
२४८)
अाहारा कम्मइयभंगो ॥ १६७॥ एदं पि सुगमं ।
एवं संतपरूवणा समत्ता ।
एदमणियोगद्दारं सेस छष्णमणियोगद्दाराणं जेण आसेयं ते ते सिमेत्थ परूवणा
सम्यक्त्व मार्गणा अनुवादसे सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवों में ओघ के समान भग्न है ॥ १६३॥
क्योंकि दो शरीर, तीन शरीर और चार शरीरपनेकी अपेक्षा ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है ।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भग्न है || १६४॥ क्योंकि अपर्याप्त कालमें सम्यग्मिथ्यात्वका अभाव है ।
संज्ञीमार्गणा अनुवादसे संज्ञी असंज्ञो जीवोंमें ओघके समान भग्न है ॥ १६५ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
आहार मार्गणा अनुवादसे आहारक जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भंग है ।। १६६ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
अनाहारक जीवों में कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भंग है ॥१६७॥ यह सूत्र भी सुगम है ।
इस प्रकार सत्प्ररूपणा समाप्त हुई । यतः यह अनुयोगद्धार शेष छह अनुयोगद्वारोंका आश्रय है, इसलिए उनकी यहां पर
म० प्रतिपाठोऽयम् । ता०प्रतौ ' असेयं (आसिपं) तेण' अप्रतौ 'आसियं तेण' इति पाठः ।
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५, ६, १६७.)
बंधाणुयोगद्दारे सरीरसरीरपरूवणाए दव्वपमाणपरूवणा ( २४९.
कायव्वा । तं जहा - दव्वपमाणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण बिसरा तिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया ? अनंता । चदुसरीरा दव्पपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा, पदरस्स असंखे ० भागो, असंखेज्जाओ सेडीओ, तासि सेडीणं विक्खंभसूची पलिदो० असंखे ० भागमेत्तघणंगुलाणि ।
आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइयेसु बिसरीरा तिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया? पदरस्स असंखे ० भागो । एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि बिदियादि जाव सत्तमि त्ति सेडीए असंखे० भागो वत्तव्वो ।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु ओघं । पंचिदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्खपज्जत्तपंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु बिसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा, पदरस्स असंखे ० भागो । पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्त मणुसअपज्जत्त - बीइंदिय तोइंदिय- चउरिदियाणं तेसि पज्जत्त-अपज्जत्ताणं पंचिदिय अपज्जत्त पुढ वि० आउ० बादर पुढवि० सुमपुढवि० बादर-सुहुमआउ० पुढवि० आउ० बादर-सुहुम-पज्जत्तअपज्जत्ताणं प्ररूपणा करनी चाहिए । यथा - द्रव्यप्रमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश । ओघसे दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं । चार शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं अर्थात् प्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण या असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण हैं । उन जगश्रेणियोंकी विष्कम्भसूची पत्यके असंख्यातवें भागमात्र घनांगुलप्रमाण है ।
विशेषार्थ- कार्मणकाययोगी जीवोंका प्रमाण अनन्त होनेसे यहाँ दो शरीरवाले जीव अनन्त कहे हैं। तीन शरीरवाले जीव अनन्त हैं यह तो स्पष्ट ही हैं । रह गये चार शरीरवाले जीव सो पर्याप्त अग्निकायिक और वायुकायिक तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमेंही चार शरीरवालें जीव सम्भव हैं, अतः इनका प्रमाण असंख्यात कहा है । यहा असंख्यात से क्या लेना चाहिए इस बात का खुलासा क्षत्रकी अपेक्षा किया है ।
आदेश से गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिको अपेक्षा नारकियोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवियों में जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहने चाहिए ।
तिर्यंचगतिकी अपेक्षा तिर्यंचोंमें ओघ के समान भंग हैं। पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिनी जीवों में दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं अर्थात् जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। पंचेन्द्रियतिर्यंचअपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिंद्रिय तथा इन तीनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, पंचेंद्रिय अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, जलकायिक, बादर पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, पृथिवीकायिक बादर पर्याप्त व अपर्याप्त, पृथिवीकायिक सूक्ष्मपर्याप्त व अपर्याप्त, जलकायिक बादर पर्याप्त व अपर्याप्त, जलकायिक सूक्ष्म पर्याप्त व अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक
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२५० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
(५, ६, १६७. बादरतेउ०बादरवाउ०अपज्जत्ताणं सुहमतेउ०सुहमवाउ०पज्जत्त-अपज्जत्ताणं बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्त-अपज्जत्ताणं बिसरीरा तिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया? असंखेज्जा । (तेउ०-वाउ०-) बादरतेउ०-बादरवाउ० तेसि पज्जत्ताणं विसरीरा तिसरीरा चदुसरोरा दव्वपमाणेण केवडिया? असंखेज्जा।
मणुसगदीए मणुस्सेसु बिसरीरा तिसरीरा दव्वपमागेण केवडिया? असंखेज्जा, सेडीए असंखे भागो चदुसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया? संखेज्जा। मणुसपज्जत्तमणुसिणीसु विसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा दवपमाणेण केवडिया? संखेज्जा।
देवगदीए देवेसु जाव सहस्सारे ति ताव णेरइयभंगो । आणद-पाणदप्पहडि जाव अवराइदविमाणवासियदेवेसु त्ति विसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया ? संखज्जा। तिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया? असंखेज्जा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवेसु बिसरीरा तिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया? संखेज्जा।
__ इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरेइंदियपज्जत्ता बिसरीरा तिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया? अणंता। चदुसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया? असंखज्जा, पलिदो० असंखे०
व उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक व उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर व उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं? असंख्यात हैं। अग्निकायिक,वायुकायिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक तथा इन दोनोंके पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले, तोन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं? असंख्यात हैं।
मनुष्यगतिकी अपेक्षा मनुष्योंमे दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं । असंख्यात हैं जो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। चार शरीरवाले द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं? संख्यात हैं। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं? संख्यात हैं।
देवगतिकी अपेक्षा सामान्य देवोंसे लेकर सहस्त्रार कल्प तकके देवोंमें नारकियोंके समान भंग है । आनत-प्रागत कल्पसे लेकर अपराजित विमानवासी देवों तक दो शरीरवाले द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं? संख्यात हैं। तीन शरीरवाले द्रव्यप्रमाणको अपेक्षा कितने हैं। असंख्यात हैं जो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं।
विशेषार्थ- यहाँ सहस्त्रारकल्प तकके देवों का भंग नारकियों के समान कहा है सो यह सामान्य कथन है। विशेषरूपसे सौधर्म ऐशान कल्पतकके देव जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं और सानत्कुमारसे लेकर सहस्त्रार कल्प तकके देव जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण जानने चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है।
इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय व बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं? अनन्त हैं। चार शरीरवाले
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( २५१
५, ६, १६७, ७, )
बंधाणुयोगद्दारे सरीरसरीरपरूवणाए दव्वपमाणपरूवणा
भागो । बादरेइंदियअपज्जत्त-सुहुमेइं दियपज्जत्तापज्जत्ता विसरीरा तिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया ? अनंता । वणफ दिकाइया णिगोदजीवा बादरा सुहुमा तेसिं पज्जत्तापज्जत्ता बिसरीरा तिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया ? अनंता । पंचिदिया पंचिदियपज्जत्ता तसतसपज्जत्ता पंचिदियतिरिक्खभंगो |
जोगाणुवादेण पंचमणजोगि पंचवचिजोगि वेउव्विय-वेउब्विय मिस्सकायजोगिविभंगणाणीसु तिसरीरा चदुसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा । णवरि वे उव्विय- वे उब्वियमिस्सा चदुसरीरा णत्थि । कायजोगि णवुंसयवेद- कोध-माण- मायालोहकसाइ-मदि-सुदअण्णाणि असंजद - अचक्खु दंसणिकिण्ण-णील -- काउलेस्सिय--भवसिद्धिय- अभवसिद्धिय - मिच्छाइट्ठि त्ति ओघं । ओरालियकायजोगीसु तिसरीरा दव्वपमाण केवडिया ? अनंता । चदुसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा । ओरालि मिस्स कायजोगीसु तिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया ? अनंता । आहारआहार मिस्सकायजोगीसु चदुसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा । कम्मइयकायजोगीसु बिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया ? अनंता । तिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा ।
द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं जो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और इनके पर्याप्त व अपर्याप्त दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनंत हैं ? वनस्पतिकायिक और निगोद जीव तथा बादर और सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनंत है । पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और पर्याप्त जीवोंका भग्न पंचेन्द्रिय तिर्यच्त्रोंके समान है ।
योगमार्गणा अनुवादसे पाँचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रिfrefमश्रकाययोगी और विभंगज्ञानी जीवोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं । इतनी विशेषता है कि वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्र काययोगी जीव चार शरीरवाले नहीं होते । काययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले, लोभकषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कागेतलेश्यावाले भव्य, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंका भंग ओघ के समान है । औदारिककाययोगी जीवोंमें तीन शरीरवाले द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनंत हैं । चार शरीरवाले द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात है । औदारिकमिश्र काययोगी जीवोंमें तीन शरीरवाले द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनंत हैं । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी चार शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं | कार्मणकाययोगी जीवोंमें दो शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनंत हैं। तीन शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ।
विशेषार्थं - यहां काययोगी आदि जितनी मार्गणाओं में ओघके समान भंग कहा है सो ये सब मार्गणाऐं अनंत संख्यावाली हैं । अतः इनमें ओघके समान दो शरीरवाले, तीन
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२५२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
५, ६, १६७. ) वेदाणुवादेण इत्थि-पुरिसवेद-आभिणि-सुद-ओहिणाणि-चक्खुदंसणि-ओहिदंसणि-तेउपम्मलेस्सिय-सम्माइटि-वैदगसम्माइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-सण्णीणं तसकाइयभंगो। ____ अवगदवेद-अकसाइ-केवलणाणि-परिहार० सुहुमसांपराइय०-जहाक्खादविहारसुद्धिसंजद-केवलदसणीसु तिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया? संखेज्जा । मणपज्जवणाणिसंजद-सामाइय-च्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेसु तिसरीरा चदुसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया? संखेज्जा। संजदासंजद-सम्मामिच्छाइट्ठीसु तिसरीरा चदुसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा । सुक्कलेस्सिय-खइयसम्माइट्ठि-उवसमसम्माइट्ठीसु बिसरीरा दव्वपमाणेण केवडिया? संखेज्जा । तिसरीरा चदुसरीरा दव्वप० के० ? असंखेज्जा। असण्णीसु बिसरीरा तिसरीरा दव्वप०के०?अणंता।चदुसरीरा दव्वप०के०? असंखेज्जा।
आहाराणुवादेण आहारएसु तिसरीरा दव्वप० के० ? अणंता। चदुसरीरा दव्वप० के० ? असंखेज्जा । अणाहारएसु कम्मइयभंगो ।
एव दव्वपमाणपरूवणा समत्ता। शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंकी संख्या बन जानेसे इनमें ओघके समान जानने की सूचना की हैं। शेष कथन सुगम है।
वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेद और पुरूषवेदवाले तथा आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी. अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पोतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवोंका भग त्रसकायिक जीवोंके समान है।
विशेषार्थ - इन मार्गणाओंमें एक तो त्रसकायिक जीवोंके समान दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीव होते हैं, दूसरे इनकी संख्या असंख्यात है, इसलिए इनकी प्ररूपणा त्रसकायिक जीवोंके समान जानने की सूचना को है।
अपगतवेदी, अकषायी, केवलज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत और केवलदर्शनी जीवों में तीन शरीरवाले द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं। मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकशुद्धिसंयत और छेदोपस्थापनाशुद्धिसयत जीवोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीव द्रव्यप्रमाणको अपेक्षा कितने है ? संख्यात है। संयतासंयत और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले कितने हैं ? असंख्यात हैं। शुक्ललेश्यावाले, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंम दो शरीरवाले द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं। तीन शरीरवाले द्रव्यप्रमाणको अपेक्षा कितने हैं? असंख्यात हैं। असंज्ञी जीवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले द्रव्यप्रमाणको अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं। चार शरीरवाले द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने है ? असंख्यात हैं ।
विशेषार्थ - शुक्ललेश्यावाले, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि जीव विग्रहगतिमें संख्यात ही होते हैं, इसलिए इनमें दो शरीरवालोंका प्रमाण संख्यात कहा है । तथा चार शरीरवाले ओघसे ही असंख्यात बतलाये हैं, इसलिए असंज्ञियोंमें चार शरीरवालोंका प्रमाण असंख्यात कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है।
आहार मार्गणाकें अनुवादसे आहारकोंमें तीन शरीरवाले द्रव्य प्रमाणकी अपेक्षा कितने *अ० प्रतौ ' संखेज्जा' इति पाठः ।
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५, ६, १६७, ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए खेत्तपरूवणा (२५३
खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण बिसरीरा तिसरीरा केवडि खेत ? सव्वलोगे। चदुसरीरा केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखे० भागे। ___ आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए रइएसु बिसरीरा तिसरीरा केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखे० भागे। एवं सत्तसु पुढवीसु णेयव्वं । तिरिक्खगदीए तिरिक्खकायजोगि-णवंसयवेद-कोह-माण-माया-लोहकसाइ-मदि-सुदअण्णाणि-असंजद-अचक्खुदंसणि-- किण्ण-गील काउलेस्सिय-भवसिद्धिय-अभवसिद्धिय-मिच्छाइट्ठि-असण्णीसु ओघं। पंचि दियतिरिक्खतिग-इत्थि-पुरिसवेद-आभिणि-सुद-ओहिणाणि-चक्खुदंसणि-ओहिदंसणि तेउ-पम्मलेस्सिय-वेदग-उवसमसम्माइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-सण्णीसु बिसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखे० भागे। पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तहैं ? अनन्त हैं। चार शरीरवाले द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं । अनाहारकोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भंग है ।
इस प्रकार द्रव्यप्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश । ओघसे दो शरीरवाले और तोन शरोरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोकप्रमाण क्षेत्र है। चार शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है।
विशेषार्थ - दो शरीरवाले कार्मणकाययोगी होते हैं और तीन शरीरवाले प्रायः आहारक होते हैं। इनका क्षेत्र सर्वलोकप्रमाण होनेसे यहां दो शरीरवाले और तोन शरीरवाले जीवोंका सर्वलोकप्रमाण क्षेत्र कहा है । तथा चार शरीरवाले वे ही होते हैं जो औदारिकशरीरसे या तो विक्रिया कर रहे हैं या आहारक ऋद्धि के उपस्थापक है । ऐसे जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें ही पाये जादे हैं, इसलिए ओघसे चार शरीरवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यद्यपि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहा है परन्तु उनमें विक्रिया करनेवाले जीव स्वल्प होनेसे उनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण हो प्राप्त होता है। आगे भी इन्हीं विशेषताओंको ध्यान में रखकर और अपना अपना क्षेत्र जानकर वह ले आना चाहिए। यदि कहीं कोई विशेषता होगी तो उसका हम अलगसे निर्देश करेंगे।
आदेशसे गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिकी अपेक्षा नारकियोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इस प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। तिर्यंचगति की अपेक्षा तिर्यंचोंमें तथा काययोगो, नपुंसकवेदी, क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाल, लोभकषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदशनी, कृष्ण लेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य अभव्य, मिथ्यादृष्टि ओर असंज्ञी जोवोंमें ओघ के समान भंग है । पंचेन्द्रियतिर्यंचत्रिक, स्त्रीवेदी, पुरूष वेदी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षदर्शनो, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवोमें दो शरीरवाले, तीन शरोरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है? लोकके असंख्यातवें
सअ० प्रतौ ' तिसरीरा दव०प० के० खेत्ते ' इति पाठः ।
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२५४ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, १६७.
मणुस अपज्जत्त सव्वदेव- बेइं दिय-तेइंदिय - चउरिदिय--तप्पज्जत्तापज्जत -- पंचिदियतसअपज्जत्ताणं णेरइयभंगो । मणुसगदीए मणुस - मणुसपज्जत - मणुसिणि-पंचिदियपंचिदियपज्जत्त-तस-तसपज्जत्त-सुक्क लेस्सिय सम्माइट्टि खइयसम्माइट्ठीसु बिसरीरा चदुसरीरा केवड खेत्ते ? लोगस्स असंखे ० भागे । तिसरीरा केवड खेत्ते ? लोगस्स असंखे ० भागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा ।
अपज्जत्त०
०-- अपज्जत्त ०
इंदियाणुवादेण एइंदिय- बादरे इंदिय- बादरे इंदियपज्जत्तएसु ओघं । बादरेइंदिय० - सुहुमेइं दियपज्जत्तापज्जत्त पुढवि० आउ०- बादरपुढवि०- बादरआउ०- तदपज्जत्त - सुहुमपुढ वि० - सुहुमआउ ० तप्पज्जत्तापज्जत्त - -- ते उ०- बादरतेउ सुहुमते उ०- सुहुमवाउ ० तप्पज्जत्तापज्जत्त वणप्फदिकाइय- णिगोदजीव- बादर - सुहुमपज्जत्तापज्जत्त- बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरी रअपज्जत्तएसु. बिसरीरा तिसरीरा केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे । बादरपुढ वि० - बादरआउ०- बादरवणफदिकाइयपत्तेयसरी रपज्जत्तसुबिसरीरा तिसरीरा केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे० भागे । बादरतेउ०पज्जत्तए सु भागप्रमाण क्षेत्र है | पंचेन्द्रियतियंच अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, सत्र देव, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और इन तीनोंके पर्याप्त व अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जोवों में नारकियोंके समान भंग है । मनुष्यगतिकी अपेक्षा मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यिनी तथा पंचेन्द्रिय पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस त्रसपर्याप्त, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें दो शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । तोन शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्र है ।
विशेषार्थ - यहां मनुष्य आदि मार्गणाओंमें केवलिसमुद्घात सम्भव है इसलिए इस अपेक्षा से तीन शरीरवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सब लोकप्रमाण भी बतलाया हैं । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें ओघके समान भंग है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय व पर्याप्त और अपर्याप्त, पृथिकायिक, जलकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक तथा इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोदजीव तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोकप्रमाण क्षेत्र है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवों में दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । बादर अ० का० प्रत्यो: ' चउरिदियतसपज्जत्त-' इति पाठः ।
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५, ६, १६७, ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए खेत्तपरूवणा (२५५ बिसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखे०भागे । बादरवाउकाइयपज्जत्ता चदुसरीरा केडि खत्ते? लोगस्स असंखे०भागे । विसरीरा तिसरीरा केवडि खेते ? लोगस्स संखे०भागे*
जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचि०-वेउब्विय०कायजोगि-वेउव्वियमिस्सकायजोगि-विभंगणाणि-मणपज्जवणाणि-सामाइय-च्छेदोवढावणसुद्धिसंजम-संजमासंजमसम्मामिच्छाइट्टीसु तिसरीरा चदुसरीरा केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे भागे। णवरि वेउविय-वेउव्वियमिस्सा चदुसरीरा णत्थिाओरालिय जोगीसु आहाराणुवादस्स आहारीसु च तिसरीरा केवडि खेत्ते? सव्वलोए । चदुसरीरा केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे०भागे। ओरालियमिस्सकायजोगीसु तिसरीरा केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे। आहार-आहारमिस्सकायजोगीसु चदुसरीरा केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। अणाहार कम्मइय० जोगीसु विसरीरा केवडि खेत्ते? सव्वलोगे । तिसरीरा केवडि खेत्तें? लोगस्स असंज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा। णवरि कम्मइय० लोगस्स असंखेज्जदिभागो पत्थि । अग्निकायिक पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें चार शरीरवालोंका कितना क्षेत्र है? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है? लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है ।
विशेषार्थ- बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण होनेसे इनमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका यह क्षेत्र बन जाता है। शेष कथन सुगम है।
योग मार्गणाके अनुवादसे पाँचो मनोयोगी, पाँचो वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी तथा विभग्ङज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, सामायिकशुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, संयतासंयत और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है इतनी विशेषता है कि वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें चार शरीरवाले नहीं है । औदारिककाययोगी और आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है? सब लोकप्रमाण क्षेत्र है । चार शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र हैं। सब लोक प्रमाण क्षेत्र है ? आहारककाययोगा और आहारमिश्रकाययोगी जीवोंमे चार शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । अनाहारकों और कार्मणकाययोगी जोवोंमें दो शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र है। तीन शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है। लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र है । इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी जीवोंसे
* प्रतिषु 'लोगस्स असंखे भागे' इति पाठः। ता०प्रतो 'आ (अणा) हार-' अ०का०प्रत्वोः 'आहार-' इति पाठः ।
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२५६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १६७. अवगदवेद-अकसाइ-केवलणाणि-जहाक्खादविहारसुद्धिसंजद-केवलदंसणीसु तिसरीरा केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे०भागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा । एवं संजदाणं । णवरि चदुसरीरा लोग०असंखे०भागे । परिहार०सुहुमसांपरायसुद्धिसंजदेसु तिसरीरा केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे० भागे।
एवं खेत्ताणुगमो त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । फोसणाणुगमेण दुविहो णिहेसो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण बिसरीरतिसरीरएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? अदीद-वट्टमाणेण सव्वलोगो । चदुसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोगस्स असंखे०भागो अदीदेण सव्वलोगो।
आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु बिसरीर-तिसरीरएहि केवडियं खेतं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अदीदेण छ चोटसभागा देसूणा । पढमाए लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र नहीं है।
विशेषार्थ- अनाहारक अवस्था अयोगिकेवलियोंके भी होती है। वहाँ तीन शरीरोंका सद्भाव बन जाता है, इसलिए तीन शरीरवालोंकी अपेक्षा अनाहारकोंका क्षत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण भी कहा है। परन्तु यह क्षेत्र कार्मणकाययोगी जीवोंमें घटित न होने से उनमें इसका निषेध किया है।
अपगतवेदी, अकषायी, केवलज्ञानी, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत और केवलदर्शनी जीवों में तीन शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण,लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार संयतोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें चार शरीरवालोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। परिहारशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत जीवोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है।
इस प्रकार क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश । ओघसे दो शरीर और तोन शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? अतीत काल और वर्तमान काल की अपेक्षा सर्व लोकका स्पर्शन किया है । चार शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? वर्तमान की अपेक्षा लाकके असंख्यातवे भागप्रमाण क्षेत्रका और अतीतकालको अपेक्षा सर्व लोकका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ- आदारिकशरीरसे विक्रिया करते समय मारणान्तिक समुद्धात सम्भव है। इसलिए चार शरीरवालोंका अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है । आगे भी यह स्पर्शन इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट हो है।
आदेशसे नरकगति में नारकियोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? वर्तमानमें लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और अतीत कालकी
'
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५,६, १६७.) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए फोसणपरूवणा (२५७ पुढवीए खेत्तभंगो। विदियादि जाव समत्तपुढवि त्ति बिसरीरा-तिसरीरएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? वट्टमाणेण लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अदीदेण एक्क-वे-तिण्णि-चत्तारिपंचछचोद्दसभागावा देसूणा ?
तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु सामण्णतिरिक्ख-कायजोगि-णवंसयवेद-कोह-माणमाया-लोभकसाइ-मदि-सुदअण्णाणि-असंजद-अचक्खुदंसणि-किण्ण-णील - काउलेस्सियभवसिद्धि-अभवसिद्धि-मिच्छाइटि-असण्णीसु ओघभंगो । पंचिदियतिरिक्ख पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्खजोणिणीस बिसरीर-तिसरीर-चदुसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं? वट्टमाणेण लोगस्स असंखे०भागो, अदीदेण सव्वलोगो। पंचिदिय तिरिक्खअपज्जत्त-मणुसअपज्जत्त-वेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियपज्जत्तापज्चत्ता-पंचिदिय अपज्जत्त-तसअपज्जत्तएस बिसरीर-तिसररिएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोगस्स असंखे भागो, अदीदेण सव्वलोगो।
मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणी बिसरीर-चदुसरीरएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोगस्स असंखे०भागो, अदीदेण सव्वलोगो । तिसरीरेहि अपेक्षा असनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पहली पृथिवी में क्षेत्रके समान भंग है । दूसरोसे लेकर सातवीं तकको पृथिवियोंमें दो शरीरवालें और तीन शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमानकालकी अपेक्षा लोककें असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और अतीत कालकी अपेक्षा क्रमसे त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम एक भाग, कुछ कम दो भाग, कुछ कम तीन भाग, कुछ कम चार भाग, कुछ कम पाँच भाग और कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
तिर्यञ्चगतिकी अपेक्षा तिर्यञ्चोंमें सामान्य तियंञ्च तथा काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोध, कषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले, लोभकषायवाले, मत्यज्ञाज्ञी, श्रुताज्ञानी, असंयतअचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जोवोंमें ओघके समान भंग है । पन्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पन्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त और पन्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी जीवोंमें दो शरीर, तीन शरीर और चार शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पन्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य, अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा इन तीनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त पन्चेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवासे और तीन शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और अतीत कालको अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ____ मनुष्यगतिको अपेक्षा मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें दो शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीन शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, लोकके
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२५८)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १६७
केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे ० भागो असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा ।
देवगदी देवेसु बिसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोगस्स असंखे० भागो, अदीदेण छ चोहसभागा देसूणा । तिसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोग असंखे० भागो, अदीदेण अट्ठ णव चोहसभागा वा देसूणा । भवणवासिय वाणवेंतर - जोदिसियदेवेसु बिसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखे० भागो | तिसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोगस्स असंखे ०. भागो, अदीदेण अट्ठ अट्ठ णव चोट्सभागा वा देसूणा | सोहम्मीसाणकप्पवासिय देवे बिसरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोग० असंखे ० भागो, अदीदेण दिवड चोहसभागा देसूणा । तिसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोग० असंखे० भागो, अदीदेण अट्ठ णव चोद सभागा देसूणा । सणक्कुमारप्पहूडि जाव सहस्सारकप्पवासियदेवेसु बिसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं । वट्टमाणेण लोग०
असंख्यात बहुभागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
विशेषार्थ - मनुष्यगति में मारणान्तिक समुद्घात और उपपादपदकी अपेक्षा सब लोकप्रमाण स्पर्शन सम्भव है, इसलिए यहां तीन प्रकारके मनुष्योंमें दो शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका अतीतकालीन स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है । मात्र उपपादपदके समय चार शरीरवाले नहीं होते इतना विशेष जानना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
देवगतिकी अपेक्षा देवोंमें दो शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नो भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में दो शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढे तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । साधर्म और ऐशान कल्पवासी देवोंमें दो शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालको अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम डेढ़ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रागर कल्प तकके देवों में दो शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा
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५, ६, १६७, ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरी रपरूवणाए फोसणपरूवणा (२५९ असंखे० भागो, अदीदेण तिण्णि अद्ध चत्तारि अद्धपंचम पंच चोइसभागा देसूणा । तिसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो०, अदीदेण अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा। आणद-पाणद-आरण-अच्चुदकप्पवासियदेवेसु बिसरीर-तिसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो०, अदीदेण छ चोद्दसभागा देसूणा। णवगेवेज्जविमाणवासियदेवप्पहुडि जाव सव्वसिद्धिविमाणवासियदेवेसु बिसरोर-तिसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? अदीद-वट्टमाणेण लोग० असंखे० भागो।
इंदियाणुवादेण एइंदिय-बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्तएसु बिसरीर-तिसरीरएहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? अदीद-वट्टमाणे० सव्वलोगो। चदुसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो, अदीदेण सव्वलोगो। बादरेइंदियअपज्जत्तलोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालिके चौदह भागोंमेंसे ऋससे कुछ कम तीन भाग, कुछ कम साढे तीन भाग, कुछ कम चार भाग, कुछ कम साढे चार भाग और कुछ कम पाँच भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालको अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत काल की अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आनत प्राणत, आरण और अच्युत कल्पवासी देवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालको अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा असनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नो ग्रेवेयेक विमानवासी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों तक इनमें दो शरीरवालों और तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ - सब देवोंमें जिसका जो उपपाद पदकी अपेक्षा स्पर्शन बतलाया है वह यहां दो शरीरवालोंका स्पर्शन जानना चाहिए और शेष तीन शरीरवालोंका जानना चाहिए। यहां आनत-प्राणत कल्पोंमें दो शरीरवालोंका भी स्पर्शन त्रसनाली के कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। सो यह सामान्य कथन प्रतीत होता है, क्योंकि कुछ कम साढे पांच भाग राजुका अन्तर्भाव कुछ कम छह बटे चौदह भागमें हो जाता है । वास्तवमें इनमें उपपादपदकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम साढे पांच भागप्रमाण बतलाया है अतः यहां दो शरीरवालोंका स्पर्शन भी इतना ही प्राप्त होगा। आगे भी सब स्पर्शन इन विशेषताओंको ध्यानमें रखकर घटित कर लेना चाहिए।
इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवालों और तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत काल और वर्तमान कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त तथा सूक्ष्म
अ० प्रती० तिण्णि चत्तारि ' इति पाठः ।
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२६० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, १६७ सुहमेइंदियपज्जत्तापज्जत्तएसु बिसरीर-तिसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? अदीद-वट्टमाणे० सव्वलोगो। पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्तएसु बिसरीर-तिसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोग० असंखे० भागो, अदीदेण सव्वलोगो। तिसरीरेहि केव० खेत्तं फोसिदं? वट्टमाणेण लोगस्स असंखे० भागो असंखेज्जा भागा, सव्वलोगो वा*, अदीदेण अट्ठ चोद्दसभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । ___ कायाणुवादेण पुढवि०-आउ०-बादरपुढवि०-बादरआउ०-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज्जत्त-सुहमपुढवि०-सुहुमआउ०-तप्पज्जत्तापज्जत्तएसु बिसरीर--तिसरीरेहि केवडियं खत्तं फोसिदं? अदीद-वट्टमाणेण सव्वलोगो। बादरपुढवि०-बादरआउ०-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्तएसु बिसरीरतिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो, अदीदेण सव्वलोगो। तेउ०-वाउ-बादरतेउ०-बादरवाउकाइएसु बिसरीर-तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? अदीद-वट्टमाणे० सव्वलोगो। चदुसरोरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो, अदीदेण सव्वलोगो। बादरएकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवालों और तीत शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत काल और वर्तमान कालकी अपेक्षा सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पंचेन्द्रिय और पंचेंद्रिय पर्याप्तकोंमें दो शरीरवालों और चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभाग प्रमाण और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक और जलकायिक तथा बादर पृथिवीकायिक बादर जलकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर तथा इन तीनोंके अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीर और तीन शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा सर्व लोक. प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त औण बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंमे दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं। अग्निकायिक. वायकायिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोन कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालको अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। चार शरीरवालोने कितने क्षेन्नका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा
ता. प्रतो' असखेज्जा भागा' इति पाठो नास्ति । * म० प्रतिपाठोऽयम् । अ० का प्रत्यो: चदुसरोरेहि के० खेत्तं फो? वट्टमाणेण लोग० संखे० भागो। असंखेज्जा भागा सवलोगो वा' इति पाठः। Bअ० प्रतौ ' आउ० बादरआ उ० ' इति पाठः।
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५, ६, १६७.)
बंधाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए फोसणपरूवणा
( २६१
ते उक्काइयपज्जत्तएसु बिसरीर-तिसरीर-चदुसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो, अदीदेण सव्वलोगो । बादरवाउ० पज्जत्तएसु चदुसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे ० लोग० असंखे० भागो, अदीदेण सव्वलोगो । बिसरीर- तिसरीहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोग० संखं० भागो, अदीदेण सव्वलोगो । बादरतेउक्काइय-बादरवाउक्काइयअपज्जत्त-सुहुमतेउ०- सुहुमवाउ०- तष्पज्जत्तापज्जताणं बिसरीर-तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? अदीद-वट्टमाणे० सव्वलोगो । एवं वणफदि- णिगोदजीवाणं तेसि चेव बादर - सुहुमपज्जत्तापज्जत्ताणं च वत्तव्वं । तस-तसपज्जत्ताणं पंचिदियपंचिदियपज्जत्ताणं भंगो ।
जोगाणुवादेण पंचवणजोगि पंचमचिजोगीसु तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोग० असंखे० भागो, अदीदेण अट्ठ चोद सभागा देणा सव्वलोगो वा । चदुसरी रेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो, अदीदेण सब्दलोगो । ओरालिका जोगीसु तिसरीरेहि के० खेतं फोसिदं ? अदीद-वट्टमाणेण सव्वलोगो । लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवालों तीन शरीरवालों और चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? दो शरीरवालों और तीन उरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है । वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमा णं और अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त तथा सूक्ष्म अग्निMetfor और सूक्ष्म वायुकायिक तथा इन दोनोंके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में दो शरीरवाले और तीन शरीरवालों जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक और निगोद तथा उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके कहना चाहिए। त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंका भंग पंचेंद्रिय और पंचेंद्रिय जीवोंके समान है ।
योगमार्गणा अनुवादसे पांचों मनोयोगी और वचनयोगी जीवोंमें तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । चार शरोरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालको अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । औदारिककाययोगी जीवों में तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा सर्व लोकमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । चार प्रतिषु 'लोग० असंखे० भागो ' इति पाठः ।
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२६२)
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, १६७
चदुसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोगस्स असंखे० भागो, अदीदेण सव्वलोगो । ओरालियमस्सकायजोगीसु तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? अदीद- वट्टमाणेण सव्वलोगो । वेव्वियकाय जोगीसु तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोग० असंखे ० भागो, अदीदेण अट्ठ तेरह चोहसभागा वा देसूणा । वेउव्वियमिस्सकायजोगोसु तिसरोहि के० खेत्तं फोसिदं ? अदीद-वट्टमाणेण लोग० असंखे० भागो । आहारआहारमिस्सकायजोगीसु चदुसरोरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? अदीद-वट्टमाणेण लोगस्स असंखे ० भागो । कम्मइयकायजोगीसु विसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? अदीद-वट्टमाणेण सव्वलोगो | तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? अदीद-वट्टमाणेण लोग० असंखे० भागा, सव्वलोगो वा ।
वेणुवादे इत्थवेद- पुरिसवेदेसु बिसरीर-चउसरोरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोग असंखे० भागो, अदीदेण सव्वलोगो | तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग असंखे० भागो, अदीदेण अट्ठ चोहसभागा देसूणा सव्वलोगो वा ।
०
शरीरवालोने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालको अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है । वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनाली के कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आहारककाययोगी और आहारकमिमिश्र काययोगी जोवों में चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । कार्मणका - ययोगी जीवों में दो शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतत और वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
वेदमार्गणा के अनुवाद से स्त्रीवेदी और पुरूषवेदी जीवोंमें दो शरीरवालों और चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कप आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण
प्रतिषु असंखे० भागो सब्बलोगो वा' इति पाठः ।
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(२६३
५, ६, १६७. ) बधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए फोसणपरूवणा अवगद-अकसाइ-केवलणाणि जहावखादविहार • केवलदंसणीसु तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिद ? अदीद - वट्टमाणे० लोग० असंखे ० भागो असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा । वादे विभंगणाणीसु तिसरीरेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे ० लोग असंखे ० भागो, अदीदेण अट्ठ तेरह चोद्द सभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । चदुहि सरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो, अदीदेण सव्वलोगो । आभिणि-सुद-ओहिणाणीसु चदुसरीर-विसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे ० लोग० असंखे०भागो, अदीदेण छ चोहसभागा देसूणा । तिसरीरेहि के०खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे ० लोग० असंखे०भागो, अदोदेण अट्ठ चोदसभागा देणा । मणपज्जवणाणीसु तिसरीर-चदुसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? अदीद - वट्टमाणेण लोग० असंखे० भागो ।
संमाणुवादे संदेसु तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? अदीद- वट्टमाणेण लोग० असंखे० भागो असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा । चउसरोरेहि फे० खेत्तं फोसिदं ? अदीद- वट्टमाणे ० लोग० असंखे ० भागो । सामाइय-च्छेदोवद्वावणसुद्धिसंजदाणं
क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अपगतवेदी, अकषायी, केवलज्ञानी, यथाख्यातविहार बिशुद्धिसंयत और केवलदर्शनी जीवों में तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
ज्ञानमार्गेणा के अनुवाद से विभंगज्ञानी जीवोंमें तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ आठ बटे चौदह भाग, कुछ कम तेरह बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में चार शरीरवालें और दो शरीरवाले जीवोंसे कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीतकालकी अपेक्षा त्रसनालीकें कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मन:पर्ययज्ञानी जीवों में तीन शरीरवालों और चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं ? अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
संयममागणाके अनुवादसे संयतोंमें तीन शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ! अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवे भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सामायिकशुद्धिसंयत और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीवोंमें मन:पर्ययज्ञानी
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२६४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १६७ मणपज्जवभंगो। परिहार-सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? अदीद-वट्टमाणे० लोग० असंखे०भागो। संजदासंजदाणं तिसरीर-चदुसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं? वट्टमाणे० लोग० असंखे०भागो, अदीदेण छ चोद्द सभागा देसूणा।
दसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु विसरीरा लद्धि पडुच्च अस्थि णित्ति पडुच्च णत्थि । जदि अत्थि तो तेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे०भागो, अदीदेण सव्वलोगो । तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं? वट्टमाणेण लोग० असंखे भागो, अदीदेण अट चोद्दसभागा देसूणा सव्वलोगो वा । चदुसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे लोग असंखे०भागो, अदीदेण सव्वलोगो। ओहिदंसणीणमोहिणाणिभंगो।
लेस्साणुवादेण तेउलेस्सिएसु बिसरीर-चउसरीरेहि के० खेतं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे०भागो, अदोदेण दिवड्ड चोद्दसभागा देसूणा। तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं? वट्टमाणे० लोग० असंखेज्जभागो, अदीदेण अट्ठ णव चोद्दसभागा देसूणा। पम्मलेस्सिएसु चदुसरीरेहि विसरोरेहि के खेत्तं फोसिदं १ वट्टमाणे० लोग०
जीवोंके समान भंग है । परिहारशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत जीवोंमें तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? अतीत और वर्तमानकालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सयतासंयतोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालको अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालको अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
___ दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें दो शरीरवाले लब्धिको अपेक्षासे हैं, हैं, निर्वृत्तिकी अपेक्षासे नही हैं। यदि हैं तो उन्होने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीन शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालको अपेक्षा लोकके असंख्यातवे भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । चार शरीरवाले जीवोंमें कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं। अवधिदर्शनवाले जीवोंका भंग अवधिज्ञानवाले जीवोंके समान है।
__ लेश्यामार्गणाके अनवादसे पीतलेश्यावाले जीवोंमें दो शरीरवालों और चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम डेढ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीन शरोरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालको अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पद्मलेश्यावालोंमें चार
शरीरवाले और दो शरीरवाले जीवोने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? वर्तमान कालकी अपेक्षा
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५, ६, १६७.) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए फोसणपरूवणा (२६५ असंखे० भागो, अदीदेण पंच चोद्दसभागा देसूणा । तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो, अदीदेण अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा। सुक्कलेस्सिएसु बिसरीर-चउसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोग० असंखे० भागो, अदीदेण छ चोदस भागा देसूणा। तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग असंखे०भागो, असंखेज्जा भागा सबलोगो वा, अदीदेण छ चोदसभागा देसूणा । केवलिभंगो वा।
समत्तागुवादेण सम्माइट्ठीसु बिसरीर-चदुसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो, अदीदेण छ चोद्दसभागा देसूणा । तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा, अदीदेण अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा केवलिभंगोवा। खइयसम्माइट्ठीसु तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो अस खेज्जा भागा सव्वलोगो वा, अदीदेण अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा केवलिभंगो वा। बिसरीर-चदुसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा वसनाली के कुछ कम पांच बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तीन शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा असनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शुक्ललेश्यावालोंमें दो शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालको अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीन शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभाग प्रमाण और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अतीत कालकी अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन है और केवलज्ञानीका जो स्पर्शन बतला आये वह भी अतीत कालकी अपेक्षा यहां स्पर्शन जानना चाहिए।
सम्यक्त्व मागंणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टि जीवोंमें दो शरीरवालों और चार शरोरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, असख्यात बहुभागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अतीत कालको अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और केवलज्ञानियोंके जो स्पर्शन बतलाया है वह स्पर्शन भी अतीत कालको अपेक्षा यहां जानना चाहिए। क्षायिकसम्यग्दष्टि जीवोंमें तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके अमख्यातवें भागप्रमाण, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण और सर्व लोक +माण क्षत्रका स्पर्शन किया है । तथा अतीत कालका अपेक्षा त्रसनालीके कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और केवलज्ञानियों के समान भंग है। दो शरीरकालों और
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२६६ )
( ५, ६, १६७
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छक्डागमे वग्गणा - खंड अदीद- वट्टमाणेण लोग० असंखे० भागो । वैदगसम्माइट्ठीण मोहिणाणिभंगो । उवसमसम्माइट्ठीसु बिसरीर-चदुसरी रेहि के० खेत्तं फोसिदं ? अदीद वट्टमाणे० लोग० असंखे ०भागो । तिसरी रे हि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो, अदीदेण अट्ठ चोद्दसभागा देसूणा । सासणसम्माइट्ठीसु बिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे ० लोग असंखे० भागो, अदीदेण एक्कारह चोहसभागा देसूणा । तिसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग० असंखे० भागो, अदीदेण बारह चोहसभागा वा देसूणा । चदुसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? वट्टमाणेण लोग. असंखे ० भागो, अदीदेण सत्त चोहसभागा देणा । सम्मामिच्छाइट्ठीसु तिसरीरेहि के० खेतं फोसिदं ? वट्टमाणे० लोग ० असंखे० भागो, अदीदेण अट्ठ चोहसभागा देसूणा । चदुसरीरेहि के० खेत्तं फोसिदं ? अदीद - वट्टमाणे० लोगस्स असंखे० भागो ।
सणियाणुवादेण सण्णीणं चक्खुदंसणियभंगो। आहाराणुवादेण आहारीणं ओरालियकायजोगिभंगो ? अणाहारीणं बिसरीराणं कम्मइयभंगो | तिसरीराणं चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंका भंग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में दो शरीरवालों और चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान और अतीत कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीन शरीरवाले जीवोंने कितने क्षेशका स्पर्शन किया है? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें दो शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालको अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालको अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शत किया है । चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है? वर्तमान कालको अपेक्षा लोकके अपंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में तीन शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? वर्तमान कालको अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। चार शरीरवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? अतीत और वर्तमान कालको अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ - सासादनसम्यग्दृष्टियों में चार शरीरवालोंका नीचे कुछ कम पांच राज् स्पर्शन नहीं उपलब्ध होता, क्योंकि, एक तो सासादनसम्यग्दृष्टि तियंच और मनुष्य नारकियों में तथा मेरुके नीचे एकेंद्रियों में मारणान्तिक समुद्घात नही करते। दूसरे नारकी तिर्यंचों और मनुष्यों में मारणान्तिक समुद्घात करते हुए भी चार शरीरवाले नहीं होते । इसलिए सासादनों में चार शरीरवालों का स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
संज्ञी मार्गणा अनुवादसे संज्ञियोंका भंग चक्षुदर्शनवाले जीवोके समान है । आहारमा - गंणाके अनुवादसे आहारक जीवोंका भंग औदारिककाययोगी जीवोंके समान है । अनाहारकोंगे
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५, ६, १६७.) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए कालपरूवणा (२६७ केवलिभंगो। एवं फोसणाणगमो समत्तो।
कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण बिसरीरा केवचिरं कालादो होति? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्ण समया। तिसरीरा केवचिरं कालादो होति? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणिओ। चदुसरीरा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं।
आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए रइएसु बिसरीरा केवचिरं कालादो दो शरीरवालोंका भंग कामणकाययोगो जीवोंके समान है। तीन शरीरवालोंका भंग केवलज्ञानियोंके समान है।
इस प्रकार स्पर्शानुगम समाप्त हुआ। कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश। ओघसे दो शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है । तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीके बराबर है। चार शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ - कार्मण काययोगका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल होनेसे यहां नाना जीवोंकी अपेक्षा दो शरीरवालोंका सर्वदा काल कहा है। इसी प्रकार तोन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीव भी निरन्तर पाये जाते हैं, इसलिए नाना जीवको अपेक्षा इनका सर्वदा काल कहा हैं। तथा एक जीवकी अपेक्षा कार्मणकाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय होनेसे दो शरीरवालोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है। जो औदारिक शरीरके साथ विक्रिया कर रहा है वह एक समय के लिए तीन शरीरवाला होकर यदि द्वितीय समयमें मर कर दो शरीरवाला हो जाता है तो उसके तीन शरीरवालोंका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । यह देखकर एक जोवकी अपेक्षा तीन शरीरवालोन्का जघन्य काल एक समय कहा है। तथा आहारक अवस्थाका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, इसलिये एक जीवकी अपेक्षा तीन शरीरवालोंका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। किसी जीवने औदारिक शरीरसे विक्रिया प्रारंभ की और दूसरे समयमें मर कर वह दो शरीरवाला हो गया। यह देख कर एक जीवकी अपेक्षा चार शरीरवालों का जघन्य काल एक समय कहा है । तथा एक जोवके विक्रियाका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है, इसलिए एक जीवको अपेक्षा चार शरीरवालोका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त कहा है। आगे गति आदि मार्गणाओंमें इसी प्रकार कालका विचार कर वह घटित कर लेना चाहिए।
आदेशसे गति मागंणाके अनुवादसे नरकगतिकी अपेक्षा नारकियोमें दो शरीरवालोंका
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छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, १६७
होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे भागो । एगजीवं पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । तिसरीरा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजोवं पडुच्च जह० दसवाससहस्साणि विसमऊणाणि, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि संपुष्णाणि । पढमपुढविप्पहुडि जाव सत्तमपुढविणेरइएसु बिसरीरा haचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । एगजीवं पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । तिसरीरा केदचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जह० दसवाससहस्साणि बिसमऊउक्क सागरोवमं संपुष्णं । जह० सागरोवमं समऊणं, उक्क० तिष्णि सागरोवमाणि संपुष्णाणि । जह० तिण्णि सागरोवमाणि समऊगाणि, उक्क० सत्त सागरोवमाणि संपु| जह० सत्तसागरोवमाणि समऊणाणि, उक्क० दस सागरोवमाणि संपुष्णाणि । जह० • दससागरोवमाणि समऊणाणि, उक्क० सत्तारस सागरोवमाणि संपुष्णाणि । जह० सत्तारस सागरोवमाणि सयऊणाणि, उक्क० बावीसं सागरो० संपुष्णाणि । जह० बावीसं सागरो० समऊणाणि, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुष्णाणि ।
०
कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । तीन शरीरवालों का कितना काल हैं ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल दो समय कम दस हजार वर्ष प्रमाण हैं और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है | पहिली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में दो शरीरवालों का कितना काल हैं ? नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । तीन शरीरवालोंका कितना काल हैं ? नाना जीवोंको अपेक्षा सर्वदा काल हैं । एक tant अपेक्षा प्रथम पृथिवीं में जघन्य काल दो समय कम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण एक सागर है । दूसरी पृथिवीमें जघन्य काल एक समय कम एक सागर है और उत्कृश्ट काल सम्पूर्ण तीन सागर है। तीसरी पृथिवी में जघन्य काल ऊक समय कम तीन सागर है और उत्कृश्ट काल सम्पूर्ण सात सागर है। चौथी पृथिवी में जघन्य काल एक समय कम सात सागर हैं और उत्कृश्ट काल सम्पूर्ण दस सागर है। पांचवी पृथिवीमें जघन्य काल एक समय कम दस सागर है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण सत्रह सागर है। छठी पृथिवीमें जघन्य काल एक समय कम सत्रह सागर है ओर उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण बाईस सागर हे । सातवीं पृथिव में जघन्य काल एक समय कम बाईस सागर हे और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है ।
विशेषार्थ - नरक में नाना जीव विग्रह गति से यदि निरन्तर उत्पन्न हो तो कमसे कम एक समय तक ओर अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक हो उत्पन्न होते हैं । सामान्यसे ओर प्रत्येक पृथिवीं में यही नियम है, इसलिए यहां सर्वत्र नाना जीवोंको अपेक्षा दो शरीरवालोंका जघन्य काल एक समय ओर उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें
अ० प्रतो' उक्क० दससागरोवमाणि समऊणाणि । जह० इति पाठः ।
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५, ६, १६७. )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए कालपरूवणा
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तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु बिसरीरा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया। तिसरीरा केवचिरं का होंति? णाणाजीवं पडु० सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो असंखेज्जाओ ओस प्पिणि-उस्सप्पिणीओ। चदुसरीरा केवचिरं का. होंति? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुत्तं। पंचिदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-चिदियतिरिक्खजोणिणीसु बिसरीरा केवचिरं का. होंति? णाणाजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंख० भागो। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया। तिसरोरा केवचिरं का होति? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० तिग्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि। चदुसरीरा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा। एगजीवं प० जहण्णण एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुतं । पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु बिसरीरा केवचिरं का. होंति? णाणाजीनं प० जह० एगसमओ, उक्क आवलि० असांखे० भागो। भागप्रमाण कहा है। तथा एक जीव यहां सर्वत्र यदि विग्रहसे उत्पन्न हो तो कमसे कम एक विग्रह और अधिकसे अधिक दो विग्रह लेकर उत्पन्न होता है, इसलिए यहां एक जीवको अपेक्षा दो शरीरवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। विग्रहके इन दो समयोंकी अपनी जघन्य स्थितिमेसे कम कर देने पर सर्वत्र एक जीवकी अपेक्षा तीन शरीरवालों का जघन्य काल होता है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पस्टही है। तथा नरकति निरन्तर मार्गणा है, इसलिए नाना जीवोंको अपेक्षा तीन शरीरवालोका काल सर्वदा है यह भी स्पष्ट है।
तिर्यंचगतिकी अपेक्षा तिर्यंचोंमें दो शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय हैं। तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवौकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिणी कालप्रमाण है। चार शरीरवालोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। पचेंद्रियतियंच, पंचेंद्रियतिथंच पर्याप्त और पचेंद्रियतियंच योनिनियों में दो शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जोवोंको अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवका अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । तीन शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपयक्त्व अधिक तीन पल्यप्रमाण है। चार शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नानाजीवोंको अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है । पंचेंद्रियतिर्यच अपर्याप्तकोंम दो शरीरवाले जीवोंका कितना काल है? नाना
जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भाग
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२७०) छखंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १६७ एगजीवं प. जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया। तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं प० जह० खुद्दाभवग्गहणं बिसमऊण, उक्क० अंतोमुत्तं संपुगं ।
मणुसगदीए मणुस्सेसु बिसरीरा कवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो। एगजीवं पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया। तिसरीरा केचिरं काला होति? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह• एगसमओ, उक्क० तिणि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । चदुसरोरा केवचिरं का. होति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु बिसरीरा केवचिरं का. होंति ? णाणाजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया। तिसरीरा केवचिरं का. होति ! णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । प्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल दो समय कम क्षुल्लक भवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है।
विशेषार्थ - पहले ओघसे कालका स्पष्टीकरण कर आए हैं। सामान्य तिर्यंचोंमें उसी प्रकार स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। पंचेंद्रियतिथंच आदिमें भी उसी प्रकार अपनी अपनी विशेषता जानकर कालका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि जिस मार्गणाम एक जीव और नाना जीवों की अपेक्षा अनाहारकोंका जघन्य और उत्कृष्ट जो काल हो वह वहां दो शरीरवाला काल जानना चाहिए। तीन शरीरवालों और चार शरीरवालोंका काल लाते समय कई बातोंका ध्यान रखने की आवश्यकता है। यथा-मार्गणाका द्रव्यप्रमाण कितना है
और मार्गणा सान्तर है या निरन्तर आदि । ओघसे कालका स्पष्टोकरण करते समय कुछ विशेताओंका निर्देश किया ही है उन्हे ध्यानमें रखकर यहां और आगे कालका स्पष्टीकरण लेना चाहिए। __मनुष्यगतिकी अपेक्षा मनुष्यों में दो शरीरवालोंका कितना काल है ? नानाजीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आबलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। चार शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में दो शरीरवालोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। तीन शरीरवाले जीवोका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक
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बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए कालपरूवणा
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एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । चदुसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क ० अंतमहुतं । मणुस अपज्जत्तेसु बिसरीरा केवचिरं का० होंति ? गाणाजीव प० जह० एगसमओ, उक्क० आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एगजीव पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जह० खुद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एगजीवं प० जह० खुद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं, उक्क० अंतोमुहुत्तं संपुण्णं ।
देवदीए देवसु बिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० जह० एगसमओ उक्क० आवलि० असंखे० भागो । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । तिसरीरा केवचिरं का० होति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० दसवस्ससहस्साणि बिसमऊणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुष्णाणि । भवणवा - ferपहुड जाव सहस्सारकप्पवासियदेवेषु बिसरीरा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । एग-
जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । चार शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्य अपर्याप्तक दो शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य । काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल दो समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ।
विशेषार्थ - मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है। इसमें निरन्तर यदि जीव पाये जाते हैं तो वे कमसे कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण काल तक और अधिक से अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहते हैं। उसके बाद नियमसे अन्तर पड जाता है। इसी विशेषताको ध्यान में रखकर यहां तीन शरीरवालोंका काल कहा है । शेष कालका स्पष्टीकरण पूर्व में कही गई विशेषताओं को ध्यान में रखकर लेना चाहिए ।
देवगतिकी अपेक्षा देवोंमें दो शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। तीन शरीरवाले जीवों का कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल दो समय कम दस हजार वर्ष प्रमाण है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है । भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पवासी देवों तक दो शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातव
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, १६७
जीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० दसवस्ससहस्साणि बिसमऊणाणि, उक्क ० सागरोवमं सादिरेयं । जह० दसवस्ससहस्साणि बिसमऊणाणि, उक्क० पलिदोवमं सादिरेयं । जह० पलिदोवमस्स अट्ठमभागो बिसमऊगो, उक्क० पलिदोवमं सादिरेयं । जह० पलिदोवमं सादिरेयं, उक्क० बेसागरोवमाणि सादिरेयाणि । जह० बेसागरो० सादिरेयाणि, उक्क० सत्त सागरो० सादिरेयाणि । जह० सत्त साग० सादिरेयाणि उक्क० दस सागरो० सादिरेयाणि । जह० दस सागरो० सादिरेयाणि, उक्क० चोद्दस सागरोव ० स दिरेयाणि । जह० चोद्दस सागरो० सादिरेयाणि उक्क० सोलस सागरो० सादिरेयाणि । जह० सोलस सागरो० सादिरेयाणि, उक्क० अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । आणद - पाणदप्पहूडि जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवे बिसरा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया, । तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि, उक्क वीसं सागरोवमाणि । जह० वोसं सागरो ० समऊणाणि, उक्क० बावीसं सागरोवमाणि । जह० बावीसं सागरो० समऊणाणि,
भागप्रमाण हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है | तीन शरीरबाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा भवनवासियोंमें जघन्य काल दो समय कम दस हजार वर्षप्रमाण है ओर उत्कृष्ट काल साधिक एक सागर है । व्यन्तरोंमें जघन्य काल दो समय कम दस हजार वर्षं प्रमाण है और उत्कृष्ट काल साधिक एक पल्य प्रमाण है । ज्योतिषियोंमें जघन्य काल दो समय कम पल्यका आठवां भागप्रमाण है और उत्कृष्ट काल साधिक एक पल्यप्रमाण है। सौधर्म ऐशान कल्प में जघन्य काल साधिक एक पल्य प्रमाण है और उत्कृष्ट काल साधिक दो सागर है । सानत्कुमार माहेन्द्र में जघन्य काल साधिक दो सागर है और उत्कृष्ट काल साधिक सात सागर है। ब्रह्मब्रह्मोत्तरमे जघन्य काल साधिक सात सागर है और उत्कृष्ट काल साधिक दस सागर है । लान्तव-कापिष्ठ में जघन्य काल साधिक दस सागर है और उत्कृष्ट काल साधिक चौदह सागर है । शुक्र महाशुक्र में जघन्य काल साधिक चौदह सागर है और उत्कृष्ट काल साधिक सोलह सागर है । शतार - सहस्रार में जघन्य काल साधिक सोलह सागर है और उत्कृष्ट काल साधिक अठारह सागर है। आनत प्राणतसे लेकर सर्वार्थसिद्धिविमानवासो तकके देवोंमें दो शरीरबाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । एक जोवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल हैं । एक जीवकी ओला आगत-प्राणत में जघन्य काल साधिक अठारह सागर है और उत्कृष्ट काल बीस सागर है। आरणम जवन्य काल एक समय कम बीस सागर है और उत्कृष्ट काल बाईस
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५, ६, १६७, ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए कालपरूवणा (२७३ उक्क० तेवीसं सागरोवमाणि । जह० तेवीसं सागरो० समऊणाणि, उक्क० चवीस सागरोवमाणि । जह० चउबीसं सागरो० समऊणाणि, उक्क०पणुवीसं सामरोवमाणि। जह. पणुवीसं सागरो० समऊणाणि, उक्क छब्बीसं सागरोवमाणि । जह• छब्बीसं सागरो० समऊणाणि, उक्क० सत्तावीसं सागरोवमाणि । जह० सत्तावीसं सागरो० समऊणाणि, उक्क० अट्ठावीसं सागरोवमाणि । जह० अट्ठावीसं सागरो० समऊणाणि, उक्क० एगुणतीसं सागरोवमाणि । जह० एगुणतीसं सागरो० समऊणाणि, उक्क० तीस सागरोवमाणि । जह° तीसं सागरो० समऊणाणि उक्क० एक्कत्तीसं सागरोवमाणि । जह० एक्कत्तीसं सागरो० समऊण्णणि, उक्क० बत्तीसं सागरोवमाणि । जह० बत्तीसं सागरो० समऊणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । सव्वट्टे जह० तेत्तीसं सागरो० बिसमऊणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुण्णाणि।
__ इंदियाणुवादेण एइंदिएसु बिसरीरा केवचिरं कालादो होति?णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया। तिसरीरा केवचिरं का० होति? णाणाजीवं प० सव्वद्धा। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे भागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। चदुसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सागर है । प्रथम ग्रैवेयकमें जघन्य काल एक समय कम बाईस सागर है और उत्कृष्ट काल तेईस सागर है। द्वितीय ग्रेवेयकमें जघन्य काल एक समय कम तेईस सागर है और उत्कृष्ट काल चौबीस सागर है। ततीय ग्रंवेयकमें जघन्य काल एक समय कम चौबीस सागर है और उत्कृष्ट काल पच्चीस सागर है। चतुर्थ ग्रेवेयकमें जघन्य काल एक समय कम पच्चीस सागर है और उत्कृष्ट काल छब्बीस सागर है। पांचवें प्रैवेयकमें जघन्य काल एक समय कम छब्बीस सागर है और उत्कृष्ट काल सत्ताईस सागर है। छटे ग्रेवेयकमें जघन्य काल एक समय कम सत्ताईस सागर है और उत्कृष्ट काल अट्ठाईस सागर है । सातवें वेयकमें जघन्य काल एक समय कम अट्ठाईस सागर है और उत्कृष्ट काल उनतीस सागर है । आठवें वेयक में जघन्य काल एक समय कम उनतीस सागर है और उत्कृष्ट काल तीस सागर है । नावें ग्रेवेयकमें जघन्य काल एक समय कम तीस सागर हैं और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है । नौ अनुदिशोंमें जघन्य काल एक नमय कम इकतीस सागर है और उन्कृष्ट काल बत्तीस सागर है। चार अनुत्तरविमानोंमें जघन्य काल एक समय कम बत्तीस सागर है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सर्वार्थसिद्धि में जघन्य काल दो समय कम तेतीस सागर है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है।
इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें दो शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है । तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीके बराबर है। चार शरीरवालोंका कितना काल हैं? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय
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२७४ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
(५, ६, १६७. बादरेsदिए बिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क बेसमया । तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जहण्गुक्कस्सेण एइंदियभंगो। चदुसरीराणं पि एइंदियभंगो । बादरेइंदियपज्जत्तएसु बिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं पडु० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । चदुसरोरा ओघं । बादरेइंदियअपज्जत्ता बिसरीरा केवचिरं का० होंति ? जीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । तिसरीरा केवचिज्ञं का० • होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० खुद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सुहुमेइंदिया बिसयोरा ओघं । तिसरीरा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्क अंगुलस्स असंखे ० भागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि उस्सप्पिणीओ । सुमेइंदियपज्जत्ता बिसरीरा ओघं । तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० अंतोमुहुत्तं तिसमऊगं, उक्क अंतमुत्तं । सुमेइंदियअपज्जत्ता बिसरीरा ओघं । तिसरोरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं । बादर एकेद्रियों में दो शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। तीन शरीरवालोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालका भंग एकेद्रियोंके समान है। चार शरीरवालों के कालका भंग भी एकेंद्रियों के समान है । बादर एकेद्रि पर्याप्तकों में दो शरीरवालों का कितना काल है ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । तोन शरीरवालों का कितना काल है ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्षप्रमाण है । चार शरीरवालों के कालका भंग ओघके समान हैं । बादर एकेद्रिय अपर्याप्तकों में शरीरवालों का कितना काल है ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वदा काल तीन है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । शरीरवालों का कितना काल है ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वदा काल है एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सूक्ष्म एकेद्रियों में दो शरीरवालों का काल ओघ के समान है । तीन शरीरवाले जीवों का कितना काल है । नाना जीवों की अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवका अपेक्षा जघन्य काल तीन समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है जो असंख्यात अवसर्पिण-उत्सर्पिणी के बराबर है । सूक्ष्य एकेद्रिय पर्याप्तकों में दो शरीरवालों के कालका भंग ओघ के समान है। तीन शरीरवाले जीवों का कितना काल है? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल तीन समय कम अन्तर्मुहुर्तप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्तमा है । सूक्ष्म एकेंद्रिय अपर्याप्तकों में दो शरीरवालों का काल ओघ के समान है ।
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५, ६, १६७. ) बधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए कालपरूवणा (२७५ एगजीवं प० जह० खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्क० अंतोमहतं । बेइंदिय-तेइंदियचरिदिय० बिसरीराणं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं भंगो। तिसरीरा केवचिरं का. होंति? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० खद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं, उक्क० संखेज्जाणि ॐ वस्ससहस्साणि । बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियपज्जत्ताणं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं भंगो। णवरि तिसरीरा केवचिरं का होंति?णाणा०प० सव्वद्धा। एगजीव प० जह० अंतोमुहूत्तं विसमऊणं, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । बेइंदियतेइंदिय-चरिदियअपज्जत्ता बिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीव प० जह० एगसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखे भागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ उक्क० बेसमया*। तिसरीरा केवचिरं का०होंति? णाणाजीवं प० सव्वद्धा। एगजीवं प० जह० खुद्दा भवग्गहणं बिसमऊणं, उक्क० अंतोमुहुतं । पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्त० बिसरीराणं बेइंदियभंगो। तिसरीरा केवचिरं का होंति? णाणाजोवं प० सम्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० सागरोवमसहस्सं पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियं सागरोवमसदपुधत्तं । चदुसरीरा ओघं। पंचिदियअपज्जत्ताणं बेइंदियअपज्जताणं भंगो। तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल तीन समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें दो शरीरवालोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके मान है । तीन शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्षप्रमाण है।द्वीन्द्रिय पर्याप्त,त्रीन्द्रिय पर्याप्त और चतुरिन्द्रियपर्याप्त जीवोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । इतनी विशेषता है कि तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल दो समय कम अन्तर्म हर्तप्रमाण है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्षप्रमाण है।द्वान्द्रिय अपर्याप्त,त्रोन्द्रिय अपर्याप्त और चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवालोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आबलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। तीन शरीरवालोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल दो समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्तप्रमाण है । पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें दो शरीरवालोंका द्वीन्द्रियोंके समान भंग है। तीन शरीरवालोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागरप्रमाण और सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण है । चार शरीरवालोंका भंग ओघके समान है। पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भंग है।
ॐ प्रतिषु 'उक्क० असंखेज्जणि' इति पाठः। * अ०का०प्रत्योः ‘णाणाजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० वेसमया' इति पाठः ।
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२७६ ) -- छपखंडागळे-वग्गणा-खंडे (५, ६, १६७.
___ कायाणुवादेण पुढवि०-आउ० बिसरीरा तिसरीरा ओघ । णवरि तिसरीराणं जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमयूणं । बादरपुढवि० बादरआउ०-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरा तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सम्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया। तिसरीरा केवचिरं का० होंति? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प०जह० खुद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं, उक्क० कम्मदिदी। बादरपुढवि-बादरआउ०बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्त० बिसरीराणं बेइंदियपज्जत्ताणं भंगो। तिसरीरा केवचिरं का होंति? णाणाजीवं प० सम्बद्धा। एगजीवं प० जह० अंतोमुत्तं बिससऊणं उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । बादरपुढवि-बादरआउ०-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज्जत्ता बिसरीर तिसरीराणं बादरेइंदियअपज्जत्तभंगो। सुहमपुढवि०-सुहुमआउ०-सुहुमतेउ०-सुहुमआउ० बिसरीर-तिसरीराणं सुहमेइंदियभंगो। तेउकाइय-वाउका० बिसरीरा तिसरीराचदुसरीरा ओघं। बादरतेउकाइय-बादरवाउ० बिसरीर-चदुसरीराणं बादरेइंदियभंगो। तिसरीराणं बादरपुढविभंगो णवरि एगजीवं प० जह० एगसमओ। बादरतेउ०-बादरवाउ० पज्जत्त० बिसरीराणं बादरपुढविपज्जत्तभंगो। ___कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवोकायिक और जलकायिक जीवोंमें दो शरीरवालों और तीन शरीरवालोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि तीन शरीरवालोंका जघन्य काल तीन समय कम क्षुद्र भवग्रहप्रमाण है। बादर पृथिवीकायिक बादर जलकायिक और बादर
कायिक प्रत्येक शरीर जीवोंमें दो शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जोवको अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दं समय है। तीन शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है जीवकी अपेक्षा जघन्य काल दो समय कम क्षुल्लक भवग्रहप्रमाण है और उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकाकिय प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवों में दो शरीरवालोंका भंग द्वीन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है। तीन शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंको अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल दो समय कम अन्तर्मुहर्त प्रमाण है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्षप्रमाण है । बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका भंग बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें समान है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक,
और सूक्ष्म वायुकायिक जीवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका भंग सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है। अग्निकायिक और वायुकायिकोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है । बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायि. कोंमें दो शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग बादर एकेन्द्रियोंके समान है । तीन शरीरवालोंका भंग बादर पृथिवीकयिक जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि एक जीवको अपेक्षा जघन्य काल एक समय है। बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंमें दो शरीरवाले जीवोंका भंग बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें
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५, ६, १६७. )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए कालपरूवणा ( २७७
तिसरीरा के चिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । चदुसरीरा ओघं । बादरतेउकाइयबादरवाउ० अपज्जत्त० बिसरीर-तिसरीराणं बादरेइंदियअपज्जत्तभंगो। वणप्फदिका -
० बिसरीर-तिसरीरा ओघं । बादरवणप्फदिकाइय० बिसरीर-तिसरीराणं बादरेइंदियभंगो। बादरवणफदिकाइयपज्जत्त० बिसरीर-तिसरीराणं बादरेइंदियपज्जत्तभंगो। raft सुतिसु वि तिसरीराणमेगसमओ णत्थि । बादरवणप्फदि० अपज्जत्त० बिसरीर तिसरीराणं (बादरेइंदियअपज्जत्त मंगो। सुहुमवणप्फदि० सुहुमणिगोद बिसरीर- तिसराणं) सुमेइं दियभंगो । सुहुमवणप्फदि सुहुमणिगोदजीवपज्जत्त० बिसरीर-तिसरीराणं सुमेइंदिपज्जतभंगो। सुहुमवणफदि-सुहुमणिगोदजीवपज्जत्ताणं सुहुमेइंदियअपज्जत्तभंगो। तसकाइय-तसकाइयपज्जत्त० बिसरीर तिसरीर-चदुसरीराणं पचिदियपंचिदियपज्जत्ताणं भंगो। णवरि विसेसो सगट्ठिदी भणिदव्वा । तसअपज्जत्ताणं पंचदियअपज्जत्ताणं भंगो ।
जोगाणुवादेण पंचमण० - पंचवचि० तिसरीरा चदुसरीरा केवचिरं कालादो होंति ? जीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमृहुत्तं । कायजोगीसु बिसरीर - तिसरीर - चदुसरीरा ओघं । ओरालियकायजोगीसु तिसरीरा समान है । तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्षप्रमाण है। चार शरीरवालोंका भंग ओघ के समान है । बादर अग्निकायिक अपर्याप्त और बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीवों में दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले ज. वोंका भंग बादर एकेंद्रिय अपर्या
कोंके समान है । वनस्पतिकायिकों में दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है । बादर वनस्पतिकायिकों में दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका भंग बादर एकेंद्रियोंके समान है। बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तकों में दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका भंग बादर एकेंद्रिय पर्याप्तकों के समान है। इतनी विशेषता है कि इन तीनों ही वनस्पतिकायिकों में तीन शरीरवालों का एक समय काल नहीं है । बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तकों में दो शरीरवाले और तीन शरोरवाले जे बोका भंग बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। सूक्ष्म वनस्प तिकायिकों मे दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका भंग सूक्ष्म एकेद्रियोंके समान हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त और सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीवाले जीवोंका भंग सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों के समान है । त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तकों में दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के समान है । इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। त्रस अपर्याप्तकों का भंग पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकों के समान है ।
योगमार्गणा के अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों में तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोका कितना काल है ? नाना जावों की अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । काययोगी जीवों में
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२७८)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड केवचिरं का. होति? णाणाजीवं प० सव्वद्धा। एगजीवं प०जह एगसमओ, उक्क० बावीसं वस्ससहस्साणि अंतोमहत्तणाणि । चदुसरीरा केवचिरं का. होति? णाणाजीवं प०सव्वद्धा। एगजीवं प. जह° एगसमओ, उक्क० अंतोमुत्तं। ओरालियमिस्सकायजोगीसु तिसरीरा केवचिरं का० होंति? णाणाजीवं प० सव्वद्धा। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क०अंतोमुहुत्तं । वेउव्वियकायजोगीसु तिसरीराणं मणजोगिभंगो। वेउव्वियमिस्सकायजोगीसु तिसरीरा केवचिरं का. होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जह अंतोमुहुत्तं बिसमऊणं, उक्क० पलिदोवमस्स असंखे भागो । एगज.वं प० जह° अंतोमुहुतं बिसमऊणं । तं पुण सव्व? उप्पण्णस्स होदि । उक्क अंतोमहत्तं । तं गुण सत्तमाए पुढवीए उप्पण्णस्स होदि । आहारकायजोगीसु चदुसरीरा केवचिरं का० होंति? णाणाजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहत्तं । एगजीवं प० जह एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । आहारमिस्सकायजोगीसु चदुसरीरा केवचिरं का. होंति? णाणाजीवं प० जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एगजीवं प० जहण्णुक्क० अंतो' मुहत्तं । कम्मइयकायजोगीसु बिसरीरा ओघ । तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प०जह० तिण्णि समया, उक्क असंखेज्जा समया। एगजीवं प० जहण्णुक्क तिणि समया। दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघ के समान है। औदारिककाययोगियों में तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्षप्रमाण है। चार शरीरवाले जीवोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वद
सर्वदा काल है। एक ज वकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है । औदारिक मिश्रकाययोगियोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। वैक्रियिककाययोगियोंमें तीन शरोरवाले जीवों का भंग मनोयोगो जीवोंके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें तीन शरीरवाले जवोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल दो समय कम अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट काल पत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हे । एक जीवकी अपेक्षा जवन्य काल दो समय कम अन्तर्मुहूर्त है जो सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होनेवाले के होता है ? तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त जो सातवा पृथिवीमें उत्पन्न होनेवालेके होता है। आहारककाययोगियों में चार शरीरवाले जीवों का कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है । आहारकमिश्रकाययोगियोंमें चार शरीरवाले जीवोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है । कार्मणकाययोगी जीवोंमें दो शरीरवालोंका भंग ओघके समान है। तीन शरीरवालोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल तीन समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल तीन समय है ।
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५, ६, १६७.) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए कालपरूत्रणा (२७९
वेदाणुवादेण इत्थिवेदे बिसरीराणं पंचिदियपज्जत्तभंगो। तिसरीराणं फेवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं। चदुसरीरा ओघं । एवं पुरिसवेदाणं । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं। णवंसयवेदा ओघं । अवगदवेदा तिसरीरा केवचिरं का० हति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० पुवकोडी देसूणा।
कसायाणुवादेण कोध माण-माया-लोभ कसाइसु बिसरीरा चदुसरीरा ओघं । तिसरीराणं मणोजोगिभंगो । अकसाईणमवगदवेदभंगो।
णाणाणुवादेण मदि-सुदअण्णाणीसु बिसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा ओघं । विहंगणाणी तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तूणतेत्तीससागरोवमाणि । चदुसरीरा ओघं। आभिणिसुद-ओहिणाणीसु बिसरीराणं पुरिसवेदभंगो। तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । तं जहा- एगो मिच्छाइट्ठी दलिंगी अंतोमुत्तब्भहियअट्ठारस
वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवोंमें दो शरीरवालोंका भंग पंचेद्रिय पर्याप्तकोंके समान है । तीन शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ पल्य पृथक्त्वप्रमाण है। चार शरीरवालोंका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें तीन शरीरवालोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण है। नपूंसकवेदी जीवोंका भंग ओघके समान है । अपगतवेदी जीवोंमें तीन शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है।
कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले और लोभकषायवाले जीवोंमें दो शरीरयाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। तीन शरीरवाले जीवोंका भंग मनोयोगी जीवोंके समान है । अकषायी जीवोंका भंग अपगतवेदवाले जीवोंके समान है।
ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। विभंगज्ञानियों में तीन शरीरवाले जीवों का कितना काल है ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवका अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त कम तेतीस सागर है । चार शरीरवालों के कालका भंग ओघके समान है। अभिनीबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में दो शरीरवाले जीवों के भंग पुरूषवेदो जीवो के समान है। तीन शरीरवाले जीवो का कितना काल है ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है । यथा- एक मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी अन्तर्मुहूर्त अधिक
ON अ० का० प्रत्यो: ' मणपज्जवभंगो' इति पाठः ।
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२८० )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
(५, ६, १६७.
सागरोवमाणि देवाउअं बंधिदूण आणद - पाणदकप्पवासियदेवेसु उववण्णो, छहि पज्जती हि पज्जत्तयदो होदूण अट्ठारससागरोवमाणं बहि तिष्णि *वि करणाणि कादूण उवसमसम्मत्तं घेत्तूण वेदगं पडिवण्णो । पुणो अट्ठारससागरोवमाणि सम्मत्तमगुपालेण fore तीहि णाणेहि कालं कादृण पुव्वकोडाउओ मणुस्सो जादो । पुणो तिणाणी चेव होण पुव्वकोडीए ऊणवीससागरोवमट्ठिदीओ देवो जादो । तत्तो चुदो पुव्वकोडाउओ मणुस्सो जादो । पुणो दोपुव्वकोडीहि ऊणअट्ठावीस सागरोवमट्टिदीओ देवो होण पुणो पुव्वकोडाउओ मणुस्सो जादो । पुणो तेत्तीसाउअं बंधिदूण अंतोमुहुत्तावसेसे खइयसम्माइट्ठी होण सव्वट्ट े उबवण्णो । तदो पुव्वकोडाउओ मणुस्सो होण अंतोमुहुत्तावसेसे सिज्झिदव्वए त्ति केवलणाणी जादो । एवमुवसमसम्मत्तं तोमुहुत्तेण पुव्व कोडिअम्भ हियतेत्तीससागरोवमेहि सादिरेयाणि छावट्टिसागरोवमाणि । चदुसरीरा ओघं । मणपज्जवणाणीसु तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क ० पुव्वकोडी देसूणा । चदुसरीरा ओघं । केवलणाणी० अवगदवेदभंगो । णवरि एगसमओ णत्थि ।
संजमाणुवादेण संजदेसु तिसरीराणमवगदवेदभंगो । चदुसरीरा ओघं । सामाइय
अठारह सागर प्रमाण देवायुका बन्ध करके आनत प्राणत कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ । छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होकर अठारह सागरके बाहर तीनों ही करणोंको करके उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । पुनः अठारह सागर काल तक सम्यक्त्वका अनुपालन करके विनाशको नहीं प्राप्त हुए तीन ज्ञानोंके साथ मरकर पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य हुआ। पुनः तीनों हो ज्ञानवाला होकर पूर्वकोटिसे कम बीस सागरकी स्थितिवाला देव हुआ । वहाँसे च्युत होकर पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य हुआ । पुनः दो पूर्वकोटि कम अट्ठाईस सागरकी आयुवाला देव होकर पुनः पूर्वकोटिकी आयुवाला मनुष्य हुआ । पुनः तेतीस सागरप्रमाण आयुका बन्ध करके अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न हुआ । अनन्तर पूर्वकोटिको आयुवाला मनुष्य होकर अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर सिद्ध होनेवाला है इसलिए केवलज्ञानी हो गया। इस प्रकार उपशमसम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त और साधिक पूर्वकोटि तेतीस सागर अधिक छयासठ सागरकाल प्राप्त होता हैं । चार शरीरवाले जीवों के कालका भंग ओघके समान हैं । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण हैं । चार शरीरवालोंके कालका भंग ओघके समान है। केवलज्ञानी जीवों में अपगतवेदवाले जीवोंके समान भंग हे । इतनी विशेषता है कि एक समय काल नहीं है ।
संयममागंणाके अनुवादसे संयतोंमें तीन शरीरवालोंमें अदगत वेपवाले जीवोंके समान भंग है । चार शरीरवाले जीवोंका कालका भंग ओघके समान है । सामायिकसंयत और छेदो* अ० प्रती ' - सागरोवमाण भहिवं तिण्णि' इति पाठ: ।
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५, ६, १६७ )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए कालपरूवणा
(२८१
छेदोवट्टावणसंजदेसु तिसरीर-चदुसरीराणं मणपज्जवमंगो। परिहारसंजदेसु तिसरीरा केवचिरं कालादो होंति? गागाजीवं प० सम्वद्धा। एगजीवं ५० जहण्णेण अंतोमहतं. उक्कस्सेण पुचकोडी देसूणा। सुहमसांपराइय० तिसरीरा केवचिरं कालावो होंति ? णाणाजीवं प० जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एगजीवं प० जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमहत्तं। जहाक्खाद० अवगदवेदभंगो । संजवासजदा तिसरीरा केचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं प० सम्वद्धा । एगजीवं प० जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा । सा वि तिरिक्खेसु तिहि अंतोमहुत्तेहि ऊणा कादूण घेत्तव्वा । चदुसरीरा ओघं । असंजदाणं मदिअण्णाणिभंगो।
दसणाणुवादेण चक्खदंसणीणं तसपज्जत्तभंगो। अचक्खुदंसणी० ओघं । ओहिदसणीणमोहिणाणी० भंगो । केवलदंसणीणं केवलणाणी मंगो।
लेस्साणुवादेण किण्ह-गील काउलेस्सिएसु बिसरीरा चदुसरीरा ओघं । तिसरीरा केवचिरं कालादो होति? जाणाजीव प० सव्वद्धा। एगजीवं प० जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि, सत्तसागरो० सादिरे. पस्थापनासंयत जीवोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंके कालका भंग मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान है। परिहारविशुद्धिसंयतोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नानाजीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। सूक्ष्मसांपरायसंयतोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहुर्त है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। यथाख्यातसंयतोंमें अपगतवेदवाले जीवोंके समान भंग है। संयतासंयतोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । वह भी तिर्यञ्चोंमें तीन अन्तमुहूर्त कम करके ग्रहण करना चाहिए। चार शरीरवालोंका भंग ओघके समान है। असंयतोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान भंग है।
दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षदर्शनवाले जीवोंका भंग असपर्याप्त जीवोंके समान है। अचक्षुदर्शनवाले जीवों में ओघके समान भंग है। अवधिदर्शनवाले जीवोंका भंग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। तथा केवलदर्शनवाले जीवोंमें केवलज्ञानी जीवोंके समान भंग है।
लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें दो शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंके कालका भंग ओघके समान है। तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नामा जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कृष्णलेश्यामें साधिक तेतीस सागर, नील लेश्यामें साधिक सत्रह सागर तथा कापोत लेश्यामें साधिक सात सागर है । यहाँ साधिकका प्रमाण दो अंतर्मुहूर्त
*म० प्रतिपाठोऽयम् | ता० प्रती ' केवलदसणीए (सु ) केवलणाणी. ' अ० का. प्रत्योः
'केवलदसणीए केवलणाणी०' इति पाठ।।
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२८२)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १६७
सत्तसागरो० सादिरे । अदिरेगस्स पमाणं वे अंतोमहत्ताणि । तेउ-पम्मलेस्सिएसु बिसरीराणं णारगभंगो। तिसरीरा केवचिरं का० होंति? णाणाजीवं प० सम्वद्धा। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० बेसागरोवमाणि सादिरेयाणि, अट्ठारससागरो० सादिरे. याणि । चदुसरोरा ओघ । सुक्कलेस्सिएसु बिसरीरा केवचिरं का० होति.?णाणाजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया। तिसरीरा केवचिरं का० होंति? जाणाजीवं प० सव्वद्धा । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । चदुसरीरा ओघ ।
भवियाणुवादेण भवसिद्धिय-अभवसिद्धियाणमोघो। सम्मत्ताणवादेण सम्माइट्ठी० बिसरीर-तिसरीर-चदुसरीराणमाभिणि मंगो। खइयसम्माइट्ठो० बिसरीर तिसरीरचदुसरीराणं सुक्कलेस्सियभंगो। वेदगसम्माइट्ठी० बिसरीर-चदुसराराणं सम्माइटिभगो। तिसरीरा केवचिरं का. होंति? जाणाजीवं प० सम्वद्धा। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क छावद्धिसागरोवमाणि । उवसमसम्माइट्ठी० विसरीराणं सुक्कलेस्सियभंगो । तिसरीरा चदुसरीरा केवचिर का होंति ? णाणाजीव प० जह० अंतोमहत्तं, उक्क० पलिदो० असखे भागो। एगजोवं ५० जहणेण एगसमओ उक्कस्सेण अतोमहत्त।
है। पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवों में दो शरीरवाले जीवोंके कालका भंग नारकियोंके समान है। तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पीतलेश्या में साधिक दो सागर तथा पद्मलेश्यामें साधिक अठारह सागर है। चार शरीरवालोंके कालका भंग ओघके समान है । शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें दो शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। तीन शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। चार शरीरवालोंका काल ओघके समान है।
भव्यमार्गणाके अनवादसे भव्यों और अभव्योंका भंग ओघके समान है। सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टियोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंके कालका भंग आभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके समान है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें दो शरोरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंके काल का भंग शुक्ललेश्यावाले जीवोंके समान है। वेदकसम्यगन्दष्टियोंम दो शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंके काल का भंग सम्यग्दाष्ट जीवों के समान है। तीन शरीवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सवदा काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छयासठ सागर है उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें दो शरीरवाले जीवोंके काल का भंग शुक्ललेश्यावाले जीवोंके समान है। तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जोवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एक जीवकी
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५, ६, १६७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए कालपरूवणा । २८३ सासणसम्माइट्ठी बिसरीराणं सम्माइटिभंगो। तिसरीरा चदुसरीरा केवचिरं का. होति ? णाणाजीवं १० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० छ आवलियाओ । सम्मामिच्छाइट्ठी तिसरीरा चदुसरीरा केवचिरं का. होंति ? णाणाजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० दोण्हं पिपलिदो० असंखे० भागो। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुतं । चदुसरीराणं कथमेगसमओ? सम्मामिच्छत्तद्धाए एगसमयावसेसाए विउविदाणमेगसमओ। मिच्छाइट्ठी० बिसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा ओघं ।
सणियाणवादेण सण्णीसु बिसरीर तिसरीर-चदुसरीराणं पंचिदियपज्जत्तभंगो। असण्णी० निसरीर-तिसरीर-चदुसरीराणमोघं । वसण्णि-णेवअसणीसु तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० सम्वद्धा । एगजीवं ५० जह० अंतोमहत्तं, अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें दो शरीरवाले जीवोंके कालका भंग सम्यग्दृष्टियोंके समान है। तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका कितना काल है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह आवलिप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दोनोंका पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
शका-- चार शरीरवालोंका एक समय काल कैसे है ?
समाधान-- सम्यग्मिथ्यात्वके कालमें एक समय शेष रहने पर विक्रिया करनेवालोंके एक समय काल प्राप्त होता है।
मिथ्यादृष्टि जीवों में दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंके कालका भंग ओघके समान है।
विशेषार्थ - - उपशमसम्यदृष्टियोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा तीन शरीरवालोंका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है यह तो स्पष्ट ही है, क्योंकि, जो उपशमसम्ययक्त्वको प्राप्त करता है वह अन्तर्मुहुर्त काल तक उसके साथ नियमसे रहता है । यहाँ उपशमश्रेणिसे नीचे उपशमसम्यक्त्वके साथ मरण नहीं होता इसलिए तथा जो इसके काल में विक्रिया करके चार शरीरवाला होता है उसके अन्तर्महर्त कालके पहले उपशमसम्यक्त्वसे पतन नहीं होता, इसलिए उपशमसम्यक्त्वमें चार शरीरवालोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमहतं कहा है। शेष कथन सुगम है।
संज्ञी मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंके कालका भंग पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान है। असंज्ञी जीवोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंके कालका भंग ओघके समान है। न संज्ञी और न असंज्ञी जीवोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका काल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा
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२८४)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १६७
उक्क० पुवकोडी देसूणा ।
___ आहाराणवादेण आहारी० तिसरीर-चदुसरीरा ओघं । अणाहारी० बिसरीरा ओघं । तिसरीरा केवचिरं का० होंति ? णाणाजीवं प० जह० तिणि समया, उक्क० अंतोमुहत्तं । एगजीवं प. जह० तिण्णि समया, उक्क. अतोमुहुतं । एवं कालाणुयोगद्दारं समत्तं ।
अंतराणुगमेण दुविहो गिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण बिसरीराणमंतर केवचिरं का. होंति ? णाणाजीवं प० पत्थि अंतर णिरंतरं । एगजीव ५० जह खुद्दामवग्गहणं तिसमऊणं, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणिउस्तप्पिणीओ । तिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि? णाणाजीवं प० पत्थि अंतरं गिरंतरं। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अतोमहुतं । चदुसरीराणमंतर केचिरं का० होदि ? जाणाजीवे प० णत्थि अंतरं पिरंतर । एगजीवं प० जह० अतोमहत्तं, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है।
आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंके कालका भंग ओघके समान है । अनाहारक जीवोंमें दो शरीरवालोंके कालका भंग ओघके समान है । तीन शरीरवालोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल तीन समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल तीन समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
___ इस प्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ । अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश । ओघसे दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है। नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर तीन समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीके बराबर है। तीन शरीरवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। चार शरीरवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंको अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जोवको अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है ।
विशेषार्थ-दो शरीर वाले अनाहारक होते हैं और अनाहारक जीवोंका कभी अभाद नहीं होता, इसलिए नाना जीवोंकी अपेक्षा दो शरीरवाले जीवोंके अन्तरका निषेध किया है । एक
४ ता० प्रती चदूसरीराणमतर केवचिर का. होदि ? णाणाजीव पड़च्च णत्थि अंतरं णिरतरं । एगजीवं पडुच्च ज० एगसमओ उक्क० अतोमुहुत्तं । चदुसरीराण मंतर केवाचर का. होदि ? णाणाजीव
प. णस्थि अतर णिरतर 1 एगजीवं प० जह• अतोमहत्त, उक्क. इति पाठ ।
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५, ६, १६७ ) बंषणाणुयोगद्दारे सरीरिसरी रपरूवणाए अंतरपरूवणा (२८५ आदेसेण गवियाणवादेण जिरयगदीए णेरइएस निसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि? णाणाजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० चदुवीसमहुत्ता। एगजीवं प० णस्थि अंतरं। तिसरीराणमंतरं केवचिर का० होवि ? णाणेगजीवं प० पत्थि अंतरं। पढमादि जाव सत्तमपुढवि त्ति ताव बिसरीराणमंतर केवचिरं का० होदि ? जाणाजीवे प० जह० सव्वासि पुढवीणमेगसमओ, उक्क० अडदालीसं महत्ता पक्खो मासोबेमासा चत्तारिमासा छम्मासा बारसमासा। एगजीवं १० पत्थि अंतरं पिरंतरं। तिसरीराण मभयदो वि जीवोंकी अपेक्षा दो शरीरवालोंका जघन्य अन्तर तीन समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि, अपर्याप्त जीवकी जघन्य भवस्थितिमें से अनाहारकके तीन समय कम कर देने पर शेष काल आहारक अवस्थाका बच रहता है। इसके बाद वह जीव पुनः अनाहारक हो सकता है। तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, यदि कोई जीव निरन्तर आहारक रहता है तो इतने काल तक ही वह आहारक रहता है। इसके पूर्व और बादमें वह नियमसे अनाहारक होता है । तीन शरीरवाले जीव भी निरंतर पाये जाते हैं, इसलिए ओघसे नाना जीवोंकी अपेक्षा इनके अन्तरकालका निषेध किया है । तथा दो शरीरवालोंका जघन्य काल एक समय और चार शरीरवालोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त पहले बतला आये हैं। वही यहाँ एक जीवकी अपेक्षा तीन शरीरवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट अंतरकाल जानना चाहिए। यदि तीन शरीरवाला एक समयके लिए दो शरीरवाला होकर पुनः तीन शरीरवाला हो जाता है तो जघन्य अंतर एक समय प्राप्त होता है और तीन शरीरवाला अंतर्मुहर्तके लिए चार शरीरवाला होकर पुन: तीन शरीरवाला हो जाता है तो उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है। चार शरीरवाले नाना जीव भी निरंतर पाये जाते है, इसलिए नाना जीवोंकी अपेक्षा चार शरीरवालोंके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा विक्रिया करके उसका उपसहार करने के बाद या आहारक शरीरको उत्पन्न करने के बाद पुनः विक्रिया या आहारक शरीरकी उत्पत्ति अन्तर्मुहुर्त कालका अन्तर पडे बिना नहीं हो सकती, इसलिए एक जीवकी अपेक्षा चार शरीरवालोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त कहा है। और जो जीव अग्निकायिक पर्याप्त और वायुकायिक पर्याप्त अवस्थाको छोडकर अनंत काल तक निरंतर एकेन्द्रियोंमें परिभ्रमण करता रहता है उसके इतने काल तक चार शरीरकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए एक जीवको अपेक्षा चार शरीरवालोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त कालप्रमाण कहा है।
___ आदेशसे गति मागंणाके अनुवादसे नरकगति की अपेक्षा नारकियोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस महतं है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। तीन शरीरवालोंका अन्त कितना है ? नाना जीव और एक जोवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है। नाना जीवोंकी अपेक्षा सब पृथिवीयोंमें जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पहली पृथिवीमें अडतालीस महतं, दूसरी पृथिवी में एक पक्ष, तीसरी पृथिवीमें एक मास, चौथी पृथिवीमें दो मास, पाँचवीं पृथिवी में चार मास, छटी पृथिवीमें छह मास और सातवीं पृथिवीमें बारह मास है। एक
जीवकी अपेक्षा अन्तर काल नहीं है निरन्तर है। तीन शरीरवालोंका नाना और एक जीव _Jain Education no प्रतिषु 'णिरतरं ] बिसरीराण-' इति पाठः । sonal use Only
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२८६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
पत्थि अंतरं णिरंतरं।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु बिसरीर-तिसरीर-चदुसरीराणमोघं । पंचिदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्खपज्जत-चिदियतिरिक्खजोणिणीसु बिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि ? जाणाजीवं प० जह० तिण्णं पि एगसमओ, उक्क० पढमाणमंतोमहत्तं, बिदिय-तदीयाणं चदुवीसमहुत्ता। एगजीवं प० जह० खद्दाभवग्गहणं विसमऊणं अंतोमहत्तं बिसमऊणं, उक्क० अपज्जत्तअंतोमुत्तमहियपुवकोडिपुधत्तं बिदिय-तदियतिरिक्खाणं संपुण्णं पुवकोडिपुधत्तं । तिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होवि? जाणाजीवं पडच्च णत्थि अंतरं गिरंतरं। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । चदूसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि? जाणाजीवं प० णत्थि अंतरं णिरंतरं। एग. जीवं प० जह० अंतोमहत्तं, उक्क० तिणि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणबमहियाणि। दोनों प्रकारसे भी अन्तर नहीं हैं निरन्तर है।
विशेषार्थ-- नरक में यदि विग्रहगतिसे उत्पन्न होता है तो प्रारंभके एक या दो समय तक जीव दो शरीरवाला रहता है और उसके बाद तीन शरीरवाला हो जाता है। जो अपनी पर्यायके अन्त तक तीन शरीरवाला ही रहता है। तथा नरकसे निकलकर पुनः नरकमें जीव नहीं उत्पन्न होता, इसलिए तो यहाँ एक जीवकी अपेक्षा दो शरीरवालों और तीन शरीरवालोंके अन्तर कालका निषेध किया है। तथा नरकगतिका कभी अभाव नहीं होता, इसलिए नाना जीवोंकी अपेक्षा तीन शरीरवालोंके अन्तरकालका निषेध किया है। परन्तु यह सम्भव है कि नरकमें या प्रथमादि नरकोंमें कोई जीव कमसे कम एक समय तक न उत्पन्न हो, इसलिए सर्वत्र दो शरीरवालोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय कहा है और सामान्यसे नरक में अधिकसे अधिक चौबीस मुहूर्त तक कोई जीव नहीं उत्पन्न होता । तथा प्रथमादि नरकोंमें अधिकसे अधिक क्रमसे अडतालीस मुहूर्त, एक पक्ष, एक माह, दो माह, चार माह, छह माह और एक वर्ष तक नहीं उत्पन्न होता, इसलिए नाना जीवोंकी अपेक्षा दो शरीरवालोंका सामान्यसे नरक में और प्रथमादि नरकोंमें उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है।
तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच योनिनियों में दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा तीनोंका ही जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अंतर प्रथम का अंतर्मुहुर्त है तथा द्वितीय और तृतीयका चौबीस महूर्त है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में दो समय कम क्षल्लक भवग्रहणप्रमाण और शेष दो में दो समय कम अन्तमहर्त प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पञ्चेन्द्रिय तियञ्चोंमें अपर्याप्तकोंका अंतर्मुहूर्त मिलाकर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण तथा दूसरे और तीसरे प्रकारके तिर्यञ्चोंमें सम्पूर्ण पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल 'कतना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहुर्त है। चार शरीरवालोंका अंतरकाल कितना है ? नाना जीवोंको अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जीवको अपेक्षा जघन्य अंतर अन्तर्मुहूर्त है ओर उत्कृष्ट अंतर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्यप्रमाण है। पञ्वेन्द्रिय
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५, ६, १६७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अंतरपरूवणा ( २८७ पंचिनियतिरिक्खअपज्जत्त० विसरीराणमंतरं केवचिरं का होदि ? जाणाजी. प. जह० एगसमओ, उक्क. अंतोमहत्तं । एगजीवं प. जह० खद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं, उक्कस्सेण पण्णारस अंतोमहत्ताणि। तिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि?णाणाजी. प० णत्थि अंतरं णिरंतरं । एगजीनं प० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया।
मणसगदीए मणस्सेसु मणस-मणसपज्जत्त-मणसिणीसु बिसरीराणमंतरं केवचिर का० होदि ? जाणाजी. प. जह• तिण्णं पि एगसमओ, उक्क० चदुवीस महुत्ता । एगजीनं प० जह. खुद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं अतोमहत्तं बिसमऊणं, उक्क पुश्वको. डिपुधत्तं । तिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजी. प. पत्थि अंतर गिरंतरं । एगजीनं प. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमहत्तं । चदुसरीराणमंतरं । केवचिर का होदि ? णाणाजी. पडुच्च पत्थि अंतर णिरंतरं । एगजीनं प. जह. अंतोमहत्तं, उक्क. तिणि पलिदो. पुश्वकोडिपुधत्तेणमाहियाणि । मणसअपज्जत्त.
तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल क्तिना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह अन्तर्मुहुर्त है। तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंको अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है।
विशषार्थ-सामान्य तिर्यञ्चोंका भंग ओघके समान है यह स्पष्ट ही है । पञ्चेन्द्रियर्यञ्च आदिमें दो शरीवाले आदिका अन्तर घटित करते समय तिर्यञ्च तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होते हैं इस बात को ध्यान में रखकर अन्तरको घटित करना चाहिए। यहाँ जो विशेष बात कहनी है वह यह कि पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीवोंमें लगातार यदि कोई जाव उत्पन्न न हो तो अधिकसे अधिक प्रथम में अन्तर्महुर्त काल तक, दूसरे-तोसरे भेदमें चौबीस मुहूर्त तक और अन्तके भेदमें अन्तर्मुहुर्त तक नहीं उत्पन्न होता । इन सबमें नहीं उत्पन्न होने का काल कमसे कम एक समय है यह स्पष्ट ही है। यही कारण है कि इनमें नाना जीवों की अपेक्षा दो शरीरवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अपने अपने अनुत्पत्ति के काल प्रमाण कहा है । इसी प्रकार आगे भी अपनी अपनी विशेषताका विचार कर अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए ।।
मनुष्यगतिकी अपेक्षा मनुष्योंमें मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनष्यिनियोमें दो शरीरवालों का अन्तरकाल कितना है? नाना जोवोंको अपेक्षा तीनोंका ही जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तर प्रथम में दो समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और शेष दोमें दो समय कम अन्तर्मुहुर्त प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । तीन शरीरवालों का अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। निरन्तर है । एक जोवको अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महर्त है । चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि
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२८८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १६७
बिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजी० प० जहण्ण० एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो। एगजीवं प० जहण्णण खहामवग्गहणं बिसमऊणं, उक्कस्सेण सत्त अंतोमहत्ताणि । तिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजी० प० जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं प० जहण्णण एगसमओ उक्कस्सेण बेसमया ।
देवगदीए देवेसु बिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजी० ५० जहण्णण एगममओ, उक्कस्सेण चदुवीसं महत्तं। एगजीवं प० जत्थि अंतरं । तिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? गाणेगजीवे प० णत्थि अंतरं । भवणवासियप्पहुडि जाव सम्वसिद्धिविमाणवासियदेवा ति बिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजीव ५० जहण्णेण सम्वेसिमेगसमओ, उक्कस्सेण भवणवासियवाणवेंतर-जोइसिय--सोहम्मीसाणदेवाणं अडदालीस महत्ता सणक्कुमार--माहिदे पक्खो बम्ह-बम्हुत्तर- लांतव- काविट्ठवेवेसु मासो सुक्कमहासुक्क-सवर-- सहस्सारकप्पवासियदेवेसु वे मासा आणद--पाणवदेवेसु चत्तारि मासा
पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें दो शरीरवालोंका अंतरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अतर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर सात अन्तर्महुर्त है। तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है।
विशेषार्थ -- पहले अपर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें एक जीवकी अपेक्षा दो शरीरवालोंका उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह अन्तर्मुहुर्त कह आये हैं और यहाँ सात अन्तर्मुहुर्त प्रमाण ही कहा है । सो इसका कारण यह है कि तियंञ्च संज्ञी और असंज्ञी दो प्रकारके होते हैं, इसलिए वहाँ संज्ञीके आठ असज्ञीके आठ इस प्रकार सोलह भवोंको ग्रहण कर उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त किया गया है। पर मनुष्योंमें संज्ञी ही होते हैं, इसलिए संज्ञियोंके आठ भवोंका ग्रहण कर उत्कृष्ट अन्तर लाया गया है। यहाँ दोनों स्थलों पर भवग्रहणके प्रारम्भ में और अन्तिम भवके ग्रहण करने के प्रारम्भमें दो शरीरवाला उत्पन्न कराकर यह अन्तरकाल लाना चाहिए।
देवतिकी अपेक्षा देवोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौबास महूर्त है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीव और एक जीवको अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धिविमानवासी तकके देवोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर सबका एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर भवनवासी, व्यन्त र, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशानकल्पके देवोंमें अडतालीस मुहूर्त, सनत्कुमार-माहेन्द्र में एक पक्ष, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठमें एक माह, शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पवासी देवोंमें दो माह, आनत और प्राणतके देवोंमें
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( २८९
५, ६, १६७
बंणाणुयोगद्दारे सरी रिसरीरपरूवणाए अंतरपरूवणा
आरणच्चददेवेसु छम्मासा णवगेवज्जदेवेसु बारसमासा नवअणुदिस - चत्तारिअणुत्तरविमाणवासियदेवेसु वासपुधत्तं सव्वट्ठे पलिदोवमस्स संखे० भागो । एगजीवं प० णत्थि अंतरं । तिसरीराणमंतरं णाणेगजीवे पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं निरंतरं ।
इंदियाणुवादेण एइंदिया ओघं । णवरि चदुसरीराणं एगजीगं पड़च्च उक्कस्सेण पलिदो० असंखे० मागो, वेडव्वियसंतकम्मियाणं चेव उत्तरसरीर विउठवणणियमदंसणादो | बादरेइंदिय० बिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि ? णाणाजी० प० णत्थि अंतरं निरंतरं । एगजीगं प० जह० खूद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो अस्संखेज्जाओ ओसप्पिणि उस्सप्पिणीओ तिसरीरा ओघं । चदुसरीराण
I
चार माह, आरण और अच्युतके देवोंमें छह माह, नो ग्रैवेयकके देवोंमें बारह माह, नो अनुदिश और चार अनुत्तरविमानवासी देवों में वर्षपृथक्त्व और सर्वार्थसिद्धिमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा दोनों प्रकारसे अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है ।
विशेषार्थ -- षट्खण्डागम कृतिअनुयोगद्वार में अन्तरप्ररूपणाके समय भी देवों और उनके अवान्तर भेदों में इस अन्तरकालका निर्देश किया है पर वहाँ भवन्त्रिकके अडतालीस मुहूर्त सौधर्मादिकमें एक पक्ष, सनत्कुमारद्विकमें एक माह ब्रह्मोत्तर आदि चारमें दो महिना, शुक्र आदिचार में चार महिना, आनत आदि चारमें छह महिना, नौ ग्रैवेयकोंमें बारह महिना अनुदिशों और अनुत्तरविमानों में वर्षपृथक्त्व और सर्वार्थसिद्धि में पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर कहा है । यहाँ कहे गये अन्तरसे उसमें कहीं कहीं फरक आता है सो जानकर इसका निर्णय करना चाहिए। यह सम्भव है कि इस विषय में दो उपदेश मिलते हो और उनमें से एकका संकलन वहां किया हो और दूसरेका यहां । जो भी हो, हमें यहां सब प्रतियोंमें यह पाठ मिला है, इसलिए उसे वैसा ही रखा है ।
इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि चार शरीरवालों का एक जीवको अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, वैक्रियिकसत्कर्मवालोंके ही उत्तर शरीरकी विक्रियाका नियम देखा जाता है । बादर एकेन्द्रियों में दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं जो असंख्यात अवसर्पिणी- उत्सविणके बराबर है। तीन शरीरवालोंका भंग ओघ के समान है । चार शरीरवालोंका अन्तर
उक्कस्सेण भवणवासिय वाणवेंतर- जो दिसियाणं पादेक्कं अदालीस महुत्ता | सोहम्मीसाणे पक्खो 1 सणक्कुमार- माहिंदे मासो ' ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर-लांतब-काविले वेमासा | सुक्क महासुक्क-सदार सहस्सारम्मि चत्तारिमासा | आणद- पाणद-आरणच्चदेसु छम्मासा | णवगेवज्जेसु बारसमासा | अणुदिसादि जाव अवइदति वासधत्तं । सब्बट्ठे पलिदोवमस्स असखेज्जदिभागो। ष० खं, पु० ९, पृ० ४०८
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२९० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १६७
मंतरं केवचिरं का० होदि ? णाणाजी० प० णत्थि अंतरं निरंतरं । एगजीवं पडुच्च जह० खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्तं वा, उक्क० * पलिदो० असंखे ० भागो । बादरेइंदियपज्जत्त० बिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि ? णाणाजी० प० णत्थि अंतरं निरंतरं । एगजीवं प० जह० अंतोमुहुतं बिसमऊणं, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि | तिसरीरा ओघं । चदुसरी राणमंतरं केवचिरं का० > होवि ? णाणाजी० प० णत्थि अंतरं निरंतरं । एगजीवं प० जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । बादरेइं दियअपज्जत्त० विसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि ? णाणाजी० प० णत्थि अंतरं निरंतरं । एगजीवं प० जह० खुद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं, उक्क० अंतोमुहुतं । तिसरीराणं पचिदियतिरिक्खअपज्जत्त मंगो । सुहुमेइंदिय० बिसरीरा ओघं । तिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि ? णाणाजी० प० णत्थि अंतरं णिरतरं । एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० तिणि समया । सुहुमेइं दियपज्जत्त० बिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि ? णाणाजी० प० णत्थि अंतरं निरंतरं । एगजीवं प० जह० अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं, उक्क० अंतो मुत्तं । सुमेइंदियअपज्जत्त० बिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि? णाणाजी० प० णत्थि अंतरं निरंतरं । एगजीवं प० जह० खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्क ० अंतोमुहुत्तं ।
काल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में दो शरीरवालों का अन्तरकाल कितना है? नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय कम अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सख्यात हजार वर्षप्रमाण है। तीन शरीरवालोंका भंग ओघके समान है । चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्षाप्रमाण है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों में दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण हैं और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तीन शरीरवालों का भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों के समान है। सूक्ष्म एकेन्द्रियों में दो शरीरवालोंका भंग ओघ के समान है । तीन शरीरवालों का अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन समय है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर तीन समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । उक्त दोनों
Xx ता० का० प्रत्योः ' जह० अतोमुहुत्तं उक्क•
! इति पाठः ।
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५, ६, १६७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अंतरपरूवणा ( २९१ दोण्णं पि तिसरीराणं अंतरं केवचिरं का. होदि ? णाणाजी० प० णस्थि अंतर णिरंतरं। एगजीनं ५० जह० एगसमओ, उक्क० तिणि समया। बेइंदिय-तेइंदियचाउरिदिएसु तेसि पज्जत्तेसु च बिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि? जाणाजी०प० जह सव्वेसिमेगसमओ, उक्क० आदिमतियम्हि अंतोमहत्तं तिण्हं पज्जत्ताणं चदुवीस. महत्ता । एगजीनं प० जह. खुद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं अंतोमहत्तं बिसमऊणं, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । तिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजी० प० गस्थि अंतरं। एगजीनं प० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया । बेइंदिय-तेहंदिय. चरिदियअपज्जत्त० बिसरीर-तिसरीराणं पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पंचिदियपंचिदियपज्जत्त० बिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होवि ? णाणाजीवं पडुच्च जह० एगसमओ, उक्क० अन्तोमहत्तं चदुवीसमहुत्ता। एगजीनं प० जह० खुद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं अन्तोमहत्तं बिसमऊणं उक्क०* सागरोवमसहस्स पुदकोडिपुधतेणमहियसागरोवमसव'धत्तं । तिसरीरा ओघ । चदुसरीराणमंतर केवचिर का० होदि? जाणाजीवं प० णस्थि अंतरं । एगजीनं प० जह० अन्तोमहत्तं उक्क० सागरोवमसहस्सं पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियं सागरोवमसदपुधत्तं । पंचिदियअपज्जत्ताणं ही जीवोंमें तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है, नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट तीन समय है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और इन तीनोंके पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवालोंका अंतरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर सभीका एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रारभ्भके तीनोंमें अन्तर्मुहूर्त तथा तीनों पर्याप्तकोंमें चौबीस मुहूर्त है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर प्रारम्भके तीनोंमें दो समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और अन्तके तीनोंमें दो समय कम अन्तर्मत है तथा उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्षप्रमाण है। तीन शरोरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त और चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवालों और तीन शरीरवालोंका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्त र एक समय है और उत्कृष्ट अंतर पञ्चेन्द्रियों में अन्तर्मुहुर्त और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकों में चौबीस महूर्त है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर पञ्चेन्द्रियोंमें दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें दो समय कम अन्तर्मुहर्त । तथा उत्कृष्ट अन्तर पञ्चेन्द्रियोंमें पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागर और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें सो सागर पृथक्त्वप्रमाण है। तीन शरीरवालोंका भग ओघके समान है। चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अंतरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहुर्त है । और उत्कृष्ट अन्तरकाल पञ्चेन्द्रियोंमें पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागर और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण
*ता. प्रतो 'खुद्दा मवग्गहणं विसमऊण उक्क. ' इति पाठ।।
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२९२ )
छक्खंडागमे वग्गणा खंड
( ५, ६, १६७ पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो।
कायाणवादेण पुढवि०-आउ० बिसरीर-तिसरीराणं सुहमेइंदियभंगो। बादरपुढवि०-बादरआउ०-बादरवणप्फविपत्तेयसरीर० बिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि ? जाणाजी० प० णत्थि अन्तरं गिरन्तरं । एगजीवं ५० जह० खुद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं, उक्कस्सेण कम्मटिदी। तिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि ? णाणाजी० ५० पत्थि अन्तरं । एगजीवं ५० जह० एगसमओ, उक्क० बेसमया। बावरपुढवि०बावरआउ० बादरवणप्फदि०-पत्तेयसरीरपज्जत्त० बिसरीराणमंतरं केवचिरं का होवि? जाणाजी० ५० जह° एगसमओ, उक्क० अंतोमहत्तं । एगजीवं ५० जह० अन्तोमुहुत्तं बिसमऊगं, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । तिसरीराणं बेइंदियपज्जत्तमंगो। बादरपुढवि०-बावरआउ०-बावरवणप्फदि० पत्तेयसरीरअपज्जत बिसरीर-तिसरीराणं है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका भंग पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है ।
विशेषार्थ-- एकेन्द्रियों में चार शरीरोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण क्यों है इस बातके समर्थन में वीरसेन स्वामीका कहना है कि जिनके वैक्रियिकशरीर आदि चार प्रकृतियोंकी सत्ता है वे ही विक्रिया करते हैं, अन्य नहीं । सामान्य नियम यह है कि जिन एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंके देवगतिद्विक, नरकगतिद्विक और वैकियिकचतुष्ककी सत्ता होती है वे इनकी नियमसे उद्वेलना करते हैं और उद्वेलनामें जघन्य और
काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण लगता है। इसका मतलब यह हुआ कि एकेन्द्रियोंम वैक्रियिकशरीर आदि की सत्ता अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही हो सकती है। और जब यह नियम मान लिया गया कि वैक्रियिकशरीरके सत्त्वके रहते हुए ही मनुष्य और तिर्यञ्च विक्रिया करते हैं तब उक्त कालके प्रारम्भमें और अन्त में विक्रिया कराके ही यह अन्तर लाया जा सकता है। यही कारण कि यहाँ एकेन्द्रियों में उनकी काय - स्थिति अधिक होने पर भी एक जीवकी अपेक्षा चार शरीरवालोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है।
कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवों में दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवों का भंग सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है। बादर पृथिवीकायिक, बादर जल कायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जोवोंमें दो शरीरवालोंका अंतरकाल कितनाहै? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अंतर दो समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अंतर कर्मस्थिति प्रमाण है। तीन शरीरवालोंका अंतरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अतर दो समय है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवालोंका अंतरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय कम अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है। तीन शरीरवालोंका भंग द्वीन्द्रियपर्याप्तकोंके समान है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले और
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५, ६, १६७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरी रपरूवणाए अंतरपरूवणा ( २९३ बादरेइंदियअपज्जतमंगो। तेउ०-वाउ० बिसरीर-तिसरीर-चदुसरीरा ओघं । णवरि विसेसो जत्थ चदुसरीराणमणंतकालो तत्थ पलिदो० असंखे०भागो वत्तव्यो। नादरतेउ०-बावरवाउ० बिसरीराणं बादरपुढ विमंगो। तिसरीरा ओघं । चदुसरीराणमंतर केवचिरं का होदि ? जाणाजी०प० पत्थि अंतरं एगजीवं प० जह० अंतोमुत्तं उक्क० पलिदो० असंख० भागो। बादरतेउक्काइयपज्जत्त० बिसरीराणमंतरं केवचि० का होदि? जाणाजी०प० जह० एगसमओ, उक्क० चदुवीसमहुत्ता। एगजीनं प० जह० अतोमुहुत्तं बिसमऊणं, उपक० संखेज्जाणि वस्तसहस्प्ताणि । तिसरीरा ओघ । चदुसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? जाणाजी० ५० णस्थि अंतरं। एगजीनं प० जह० अंतोम०, उक्क० खेज्जाणि वस्ससहस्साणिाबादरवाउक्काइयपज्जत्त० बिसरीराणमंतर केवचिरं का. होदि ? जाणाजी० ५० पत्थि अंतरं । एगजीनं प० जह० अतोमहत्तं विसमऊणं, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । तिसरीरा ओघं । चदुसरीराणमंतरं के० का० होदि?णाणाजी० १० पत्थि अंतरं । एगजीनं प० जह० अतोमहत्तं, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । बादरतेउ० बादरवाउ० अपज्जत्ताणं बादर पुढवि०अपज्जत्तभंगो सहमपूढवि०-सहमआउ० सहमतेउ०-सहमवाउ०-पज्जत्ता
तीन शरीरवाले जीवोंका भंग बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। इतना विशेष है कि जहाँ पर चार शरीरवालोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है वहाँ पल्य के असख्यातवें भागप्रमाण कहना चाहिए । बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीवोंमें दो शरीरवालोंका भंग बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है तथा तीन शरीरवालोंका भंग ओघके समान है। चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें
गप्रमाण है। बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय कम अन्तमहत है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है । तीन शरीरवालोंका भंग ओघ के समान है । चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्ध अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है। बादर वायु कायिक पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय कम अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तर संख्यात हजार वर्ष है । तीन शरीरवालोंका भंग ओघके समान है। चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ठ अन्तर संख्यात हजार वर्ष है। बादर अग्नि कायिक अपर्याप्त और बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीवोंमें बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त जीवोंके समान भंग है । सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक और सूक्ष्म वायुकायिक तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका भंग सूक्ष्म
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२९४)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं पज्जत्ताणं सुहमेइंदियपज्जत्तापज्जत्तभंगो। वणप्फविकाइय० बिसरीरा तिसरीरा ओघं । बादरवणप्फदिकाइय० बिसरीर-तिसरीराणं बावरेइंदियमंगो। बावरवणप्फदिकाइयपज्जत्त० बिसरीर-तिसरीराणं बादरेइंदियपज्जत्तभंगो । बादरवणप्फदिअपज्जत्ताणं बादरेइंदियअपज्जत्तभंगो । सुहमवणफदिपज्जत्तापज्जत्ताणं देहु मेइंदियपज्जतापज्जत्तभंगो। णिगोदजीबा बिसरीरा तिसरीरा ओघं । बादरणिगोदजीव० बिसरीर-तिसरीराणं बादरेइंबियभंगो। बादरणिगोदजीवपज्जत्त० बिसरीर तिसरीराणं बादरेइदिवपज्जत्तभंगो । बादरणिगोदजीवअपज्जत्ताणं बादरेइंदियअपज्जत्तभंग्रो । सुहमणिगोदपज्जत्तापाजत्ताणं सुहमेइंदियपज्जत्तापज्जत्तभंगो। तस० तस०पज्जत्ताणं पंचिबियपज्जत्ताणं भंगो । णवरि विसेसो सगदिदी भाणियन्वा । तसअपज्जत्ताणं पंचिदियअपज्जतमंगो।
जोगाणुवादेण पंचमण० पंचवचि० तिसरीर-चदुसरीराणमंतरं णाणेगजीवे पडुच्च उभयदो पत्थि। कायजोगि० बिसरीर-तिसरीर-चदुसरीरा ओघं । गवरि चदुसरीर० एयजीवस्स उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । ओरालियकायजोगि० तिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? जाणाजी० पडुच्च पत्थि अंतरं । एगजोवं प० जहण्णुक्कस्सेण एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके समान है । वनस्पतिकायिक जीवों में दो शरीर वाले और तीन शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। बादर वनस्पतिकायिकोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका भंग बादर एकेन्द्रियों के समान है। बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका भंग बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है। बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंमें बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके समान भंग है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और उनके पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंका भंग सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके समान है। निगोद जीवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। बादर निगोद जीवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका भंग बादर एकेन्द्रियोंके समान है। बादर निगोद पर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका भंग बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों के समान है। बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंका भंग बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। सूक्ष्मनिगोद तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका भग सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके समान है। त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंका भंग पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके समान है। इतना विशेष है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए । त्रस अपर्याप्तर्कोका भंग पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है।
योग मार्गणाके अनुवादसे पाँचों मनोयोगी पाँचों वचनयोगी जीवोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका अन्तरकाल नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा दोनों प्रकारसे नहीं है। काययोगी जीवोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि चार शरीरवालोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अंतर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। औदारिककाययोगी जीवोंमें तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और
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५, ६, १६७ )
बंषणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अंतरपरूवणा ( २९५
अंतोमहत्तं । चदुसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि ? जाणाजी० प० पत्थि अंतरं । एगजीवं प० जह० अंतोमहत्तं, उक्क० तिणि वाससहस्साणि देसूणाणि। ओरालियमिस्सकायजोगि० तिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होवि? गाणेगजी० प० णस्थि अंतरं। वेउग्वियकायजोगि० तिसरीराणं णाणेगजी० प० उभयदो त्थि अंतरं । वेउन्वियमिस्स० तिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि ? जाणाजी०प० जह० एगमसओ, उक्क० बारसमुहुत्ता । एगजीवं प. उभयदो पत्थि अंतरं । आहारदुगस्स चदुसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि ? जाणाजी० ५० जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । एगजीवं ५० जत्थि अंतरं । कम्मइयकायजोगि० बिसरीराणमंतरं णाणेगजी० प० उभयदो णत्थि अंतरं। तिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? जाणाजी० प० जह० एगमसओ, उक्क० वासपुधत्तं । एगजीवं प० णत्थि अंतरं । उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहुर्त है । चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अंतर्महुर्त है और उत्कृष्ट अंतर कुछ कम तीन हजार वर्षप्रमाण है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें तीन शरीरवालोंका अन्तर काल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा उभयतः अन्तरकाल नहीं है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें तीन शरीरवालोंका अंतरकाल कितना है? नानाजीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है। एक जीवकी अपेक्षा उभयतः अन्तरकाल नहीं है। आहारकद्विकमें चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें दो शरीरवालोंका अन्तर काल नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा उभयतः अन्तरकाल नहीं है। तीन शरीरवालोका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अंतर वर्षपृथक्त्व-प्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-- पहले ओघसे चार शरीरवालोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अंतर अनंत काल कह आये हैं सो वहाँ किसी एक योग और एक इन्द्रियकी प्रधानता न होने से वह अन्तर बन जाता है। किन्तु यहाँ काययोगमें वह घटित नहीं होता, क्योंकि, काययोगका अधिक काल तक सद्भाव एकेन्द्रियोंके होता है और एकेन्द्रियोंमें चार शरीरवालोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पहले घटित करके बतला आये हैं इसलिए यहाँ भी वह उतना ही कहा है । तथा औदारिककाययोगके रहते हुए चार शरीरोंकी प्राप्ति यदि हो तो वह जघन्य और उत्कृष्ट रूपसे अन्तर्मुहुर्त काल तक नियम से होती है, इसलिए इसमें तीन शरीरवालोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहुर्त कहा है । यद्यपि नरक में और देवोंमें अधिकसे अधिक काल तक कोई जीव उत्पन्न न हो तो चौबीस मुहूर्त तक नहीं उत्पन्न होता पर सम्मिलित रूपसे विचार करने पर अधिकसे अधिक काल तक कोई नरकगति या देवगतिमें उत्पन्न न हो तो बारह महूर्त तक नहीं उत्पन्न होता, इसलिए वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें तीन शरीरवालोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त कहा है। कार्मण
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२९६)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
वेदाणवादेण इत्थिवेवेसु बिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि? जाणाजी० ५० जह० एगसमओ, उक्क० चदुवीसमहुत्ता। एगजीवं प० जह० अंतोमहत्तं बिसमऊणं उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । तिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि? जाणाजी० प० पत्थि अंतरं । एगजीवं १० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमहत्तं । चदुसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होवि? णाणाजी० प० गत्थि अंतरं । एगजीवं प० जह० अंतोमहत्तं, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । एवं पुरिसवेवस्त । गरि जत्थ पलिदोवमसदपुधत्तं तत्थ सागरोधमसदपुधत्तं वत्तव्वं । गवंसयवेदेसु निसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा ओघं । अवगदवेद० तिसरीराणं णाणेगजीवे प० उभयदो पत्थि अंतरं।
कसायाणवादेण कोध-माण-माया-लोभकसाई० बिसरीर-चदुसरीराणमंतरं जाणेगजी० प० उभयदो पत्थि अंतरं । तिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि ? णाणाजी० ५० पत्थि अंतरं। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमहुतं । अकसाईणमवगववेदभंगो।
गाणाणुवादेण मदि-सुदअण्णाणि बिसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा ओघं । काययोगियोंमें तीन शरीरवालोंका नाना जीवोंको अपेक्षा अन्तरकाल केवलिसमुद्घातको अपेक्षा से बतलाया है । तात्पर्य यह है कि केवली जीव एक समयके अन्तरसे भी केवलिसमुद्घात कर सकते हैं और अधिकसे अधिक काल तक यदि कोई जीव केवलिस मुद्घातको न प्राप्त हो तो वर्ष पृथक्त्व काल तक नहीं प्राप्त होता । शेष कथन स्पष्ट ही है। - वेदमार्गणाके अनुवाद से स्त्रीवेदवालोंमें दो शरीरवालोंका अंतरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अतर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय कम अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सो पल्य पृथक्त्वप्रमाण है। तीन शरीरवालोंका अंतरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अंतरकाल नहीं है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहुर्त है। चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सो पल्य पृथक्त्वप्रमाण है। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहां सो पल्य पृथक्त्वप्रमाण अन्तर कहा है वहां सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण अन्तर कहना जाहिए । नपुंसकवेदी जीवोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। अपगतवेदी जीवोंमें तीन शरीरवालोंका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा उभयतः अन्तरकाल नहीं है।
कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषावाले और लोभकषायवाले जीवोंमें दो शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा उभयतः अन्तरकाल नहीं है। तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है । अकषायी जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भंग है।
___ ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें दो शरीरवाले, तीन
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५, ६, १६७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अंतरपरूवणा ( २९७ विभंगणाणी० तिसरीर-चदुसरीराणं गाणेगजीवे प० णत्थि अंतरं। आभिणि-सुद
ओहिणाणी विसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि? जाणाजी० प० जह० एगसमओ, उक्क०मासपुधत्तं। ओहिणाणीसु वासपुधत्तं । एगजीवं प० जह० वासपुधत्तं, उक्क० छावद्धिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । तिसरीरा ओघं। चदुसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि? जाणाजी० प० णत्थि अंतरं । एगजीवं प० जह० अंतोमहत्तं उक्क० छावटिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । मणपज्जवणाणी० तिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि? जाणाजी० ५० जत्थि अंतरं। एगजीवं प० जहण्गक्क० अंतोमहत्तं । चदुसरीराणमंतरं केवचिरं का० होवि? जाणाजी० प० पत्थि अंतरं । एगजीवं प० जह० अंतो. मुहुत्तं, उक्क० पुवकोडी देसूणा । केवलणाणीणमवगदवेदभंगो।
संजमाणवावेण संजदेसु तिसरीर-चदुसरीराणं मणपज्जवभंगो। सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद० तिसरीर-चदुसरीराणं पि एवं चेव वत्तन्वं । परिहारसुद्धिसंजदेसु तिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होवि ? जाणेगजी० ५० उमयदो वि पत्थि अंतरं। सुहमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु तिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होवि? गाणाजी०*
शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है ? विभंगज्ञानी जीवोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है ! आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रारम्भके दो ज्ञानोंमें मासपृथक्त्व तथा अवधिज्ञानमें वर्षपथक्त्वप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर सादिक छयासठ सागर है । तीन शरीरवालोंका भंग ओघके समान है। चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अंतर साधिक छयासठ सागर है। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महुर्त है। चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। केवलज्ञानियोंका भंग अपगतवेदी जीवोंके समान है।
संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है। सामायिकशुद्धिसंयत और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीवोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग इसी प्रकार कहना चाहिए। परिहारविशुद्धिसंयतोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा उभयतः अन्तरकाल नहीं है। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतों में तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर
*ता० प्रती 'होदि ? णाणाजीवं' इति पाठः ।
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२९८ )
छपखंडागमे वग्गणा-खंड प० जहण्णण एगसमओ, उक्क० छम्मासा । एगजीवं प० णस्थि अंतरं जहाक्खादसुद्धिसंजद० तिसरीराणं केवलणाणी. भंगो । संजदासंजदाणं मणपज्जवणाणी. भंगो । असंजदा ओघं ।
दसणाणवादेण चक्खदसणीणं तसपज्जत्तभंगो । अचक्खुदसणी० ओघं । ओहिदसणीणमोहिणाणी० भंगो । केवलदसणीणं केवलणाणी० भंगो।
लेस्साणुवादेण किण्ण-णील-काउलेस्सिएसु बिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि? णाणाजी०प० पत्थि अंतरं । एगजीवं ५० जहण्णेण सत्तरससागरोवमाणि बिसमऊणाणि सत्तसागरो० बिसमऊणाणि दसवस्ससहस्साणि बिसमऊणाणि उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि समऊणाणि सत्तसागरो० समऊगाणि सत्तसागरो० समऊगाणि । तिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजी०प० त्थि अंतरं णिरंतरं। एगजीवं प० जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोम० । चदुसरीराणमभयदो
त्थि अंतरं। तेउलेस्सिएसु बिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजी० प० जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अडवालीसमुहुत्ता । एगजीवं प० जहण्णेण पलिदोवमं सादिरेयं उक्कस्सेण बेसागरोवमाणि सादिरेयाणि । तिसरीराणमंतर केवचिरं कालादो होनि ? णाणाजी० ५० गथि अंतरं । एगजीव ५० जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेग अंतोमुत्त । चदुसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो छह महीना है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। यथाख्यातशुद्धिसंयतों में तीन शरीरवालोंका भंग केवलज्ञानियोंके समान है। संयतासंयतोंका भंग मन:पर्ययज्ञानियोंके समान है। असयतोंका भंग ओघके समान है।
दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले जीवोंका भंग त्रसपर्याप्तकोंके समान है। अचक्षुदर्शनवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। अवधिदर्शनवाले जीवोंका भग अवधिज्ञानियों के समान है। केवलदर्शनवाले जीवोंका भंग केवलज्ञानियों के समान है।
लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें दो शरीरवाले जीवोंका अतरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अतरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर कृष्णलेश्यामें दो समय कम सत्रह सागर, नीललेश्यामें दो समय कम सात सागर और कापोतलेश्यामें दो समय कम दस हजार वर्षप्रमाण है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कृष्णलेश्यामें एक समय कम तेतीस सागर, नीललेश्यामें एक समय कम सत्रह सागर और कापोतले श्यामें एक समय कम सात सागर है। तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर 3 है। चार शरीरवालोंका उभयत: अंतरकाल नहीं है। पीतलेश्यावालों में दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अडतालीस मुहूर्त है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर साधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अंतर साधिक दो सागर है। तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीवको अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। चार शरीरवालोंका अंतरकाल कितना
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५, ६, १६७ )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अंतरपरूवणा
(२९९
होदि ? जाणाजी० प० उभयदो पत्थि अंतरं। पम्मलेस्सिएसु बिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि ? णाणाजी० ५० जह० एगसमओ, उक्क० पक्खो। एगजीवं प० जह० बेसागरो० साविरेयाणि, उक्क० अट्टारससागरो० सादिरेयाणि । तिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि ? णाणाजी० ५० पत्थि अंतरं। एगजीवं प० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमहत्तं । चदुसरीराणमंतरं गाणेगजी० ५० उभयदो णत्थि । सुक्कलेस्सिएसु बिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि ? जाणाजी० प० जह० एगसमओ, उक्क० चत्तारि मासा। एगजीवं प० जह० अट्ठारससागरोवमाणि साविरेयाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि समऊगाणि । तिसरीर-चदुसरीराणं तेउलेस्सियभंगो । भवियाणुवादेण भवसिद्धिया अभवसिद्धिया ओघं।
सम्मत्ताणवादेण सम्माइट्ठीणमोहिणाणी० भंगो। खइयसम्माइट्ठी० विसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि ? जाणाजी० ५० जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । एगजीनं प० जह० चदुरासीदिवस्ससहस्साणि बिसमऊणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरो० समऊणाणि । तिसरीरा ओघं। चदुसरीराणमंतरं, केवचिरं का० होदि ? जाणाजी० १० णस्थि अंतरं। एगजीन प० जह० अन्तोमहत्तं, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि। वेदगसम्माइट्ठी० बिसरीराणमंतरं केवचिरं का. होदि? जाणाजी० ५० है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा उभयतः अंतरकाल नहीं है। पद्मलेश्यावाले जीवों में दो शरीरवालोंका अंतरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अंतर एक समय है और
र एक पक्ष है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर साधिक दो सागर है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहुर्त है। चार शरीरवालोंका अन्तरकाल नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा उभयत: नहीं है। शुक्ललेश्यावालोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार महीना है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर साधिक अठारह सागर है और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम तेतीस सागर है। तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग पीतलेश्यावाले जीवोंके समान है। भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्योंमें और अभव्यों में ओघके समान भंग है।
___ सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टियोंका भंग अवधिज्ञानियोंके समान है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय कम चौरासी हजार वर्षप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम तेतीस सागर है । तीन शरीरवालोंका भंग ओघके समान है। चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अंतरकाल नहीं है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अंतर अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें दो शरीरवालोंका अंतरकाल
अ० का० प्रत्योः 'ओघं तिसरीराणमतरं ' इति पाठ।।
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३०० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६. १६७
जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण मासपुधत्तं । एगजीवं प० जहण्णेण वासपुधत्तं उक्कस्सेण छावद्धिसागरोवमाणि देसूणाणि । तिसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जाणाजी० प० पत्थि अंतरं णिरंतरं। एगजीवं प० जहण्णण एगसमओ, उकस्सेण अंतोमहुतं । चदुसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि ? णाणाजी०प० स्थि अंतरं णिरंतरं। एगजीवं प० जह० अंतोमहतं, उक्क० छावट्रिसगारोवमाणि देसूणाणि। उवसमसम्माइट्ठी बिसरीराणमंतरं केचिरं का. होवि? जाणाजी०प० जह० एगसमओ उक्क० वासपुधत्तं । एगजीवं प० स्थि अंतरं । तिसरीराणमंतरं केवचिर का० होदि ? जाणाजी० ५० जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेण सत्तरादिवियाणि । एगजीवं प० जह० एगसमओ उक्क० अंतोमहत्तं । चदुसरीराणमंतरं केवचिरं का० होति? गाणाजी० ५० जह० एगसमओ, उक्क० सत्तराविदियाणि । एगजीवं ५० णस्थि अंतरं । सासणसम्माइट्ठी० बिसरीर-तिसरीर-चदुसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होवि ? जाणाजी० प० जहण्णण एगसमओ उक्कस्सेण पलिदो० असंखेज्जविभागो । एगजीव प० पत्थि अंतरं । सम्मामिच्छाइट्ठी० तिसरीर-चदुसरीराणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? गाणाजी० प० जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदो० असंखेजविभागो। एगजीवं प० पत्थि अंतरं । मिच्छाइट्ठी० ओघं ।
कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्वप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है और उत्कृष्ट अंतर कुछ कम छयासठ सागर है। तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंको अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । चार शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है. निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है ! उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अंतर एक समय है और उत्कृष्ट अंतर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अंतर सात रातदिन है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अंतर चार शरीरवालोंका अंतरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात रातदिन है। एक जीवको अपेक्षा अंतरकाल नहीं है। सासादनसम्यग्दष्टियोंमें दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्त र एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। एक
जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। मिथ्यादृष्टियोंका भंग ओघके समान है।
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५, ६, १६७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा ( ३०१
सणियाणवादेण सण्णीणं पुरिसवेवमंगो । असण्णी० ओघं । णेव सण्णिअसणि तिसरीराणं णाणेगजीवे ५० उभयदो पत्थि अंतरं।
आहाराणुवादेण आहारिणो तिसरीरा चदुसरीरा ओघं । गवरि चदुसरीराणं उक्कस्सेण अंगलस्स असंखेज्जविभागो। अणाहाराणं कम्मइयमंगो। गवरि जम्हि वासपुधतमंतरं तम्हि छम्मासा ।
व मंतराणयोगद्दारं समत्तं । मावाणगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण बिसरीरतिसरीर-चदुसरीराणं को भावो ? ओवइओ भावो । एवं यव्वं जावं अणाहारए ति।
एवं भावाणयोगद्दारं समत्तं । अप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आवेसेण य ।१६८। कुदो ? ववडिय-पज्जवट्टियभेवेण दुविहाणं चेव सिस्साणमवलंभादो।
ओघेण सव्वत्थोवा चवुसरीरा ॥ १६९ ॥ वो ? पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तघणंगुलेहि गणिदजगसेडिपमाणत्तादो।
संज्ञी मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंका भंग पुरुषवेदी जीवोंके समान है। असंज्ञियोंका भंग ओघके समान है। न संज्ञी न असंज्ञी जीवोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा उभयतः अन्तरकाल नहीं है।
___ आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि चार शरीरवालोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनाहारकोंका भंग कार्मणकाययोगियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि जहां वर्षपृथक्त्व अन्तर है वहां छह महीना अन्तर कहना चाहिए ।
विशेषार्थ-- अयोगकेवलीका उत्कृष्ट अन्तर छह माह है, इसलिए अनाहारकोंमें तीन शरीरवालोंका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है।
इस प्रकार अन्तरानुयोगद्वार समाप्त हुआ। भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश । ओघसे दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका कोन भाव है ? औदयिक भाव है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए ।
इस प्रकार भावानुयोगद्वार समाप्त हुआ। अल्पबहुत्वानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आवेश । १६८ । क्योंकि, द्रव्याथिक और पर्यायाथिकके भेदसे दो प्रकारके ही शिष्य उपलब्ध होते हैं ।
ओघसे चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं ॥ १६९ ।। क्योंकि, ये पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण घनांगुलोंसे गुणित जगश्रेणिप्रमाण होते हैं ।
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३०२)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १७०
असरीरा अणंतगुणा ॥१७॥
को गणगारो? सिद्धाणमसंखे०भागो । खो पडिभागो ? चदुसरीरजीवा पडिभागो।
बिसरीरा अणंतगुणा ॥१७१।।
कुदो ? अंतोमहत्तेण खंडिवसव्वजोवरासिपमाणत्तादो । को गुणगारो ? सव्व. जीवरासिस्स अणंतिमभागो । को पडिभागो ? अंतोमहत्तगणिवसिद्धरासी।
तिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥१७२।। को गणगारो ? अंतोमहुतं ।
आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए रइएस सम्वत्थोवा विसरीरा ॥१३॥
कुदो ? जेरइयरासि आवलियाए असंखेज्जदिमागेण खंडिवएयखंडपमाणत्तादो। तिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥१७४।।
को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । असखेज्जवासाउएसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागो।
उनसे अशरीरी जीव अनन्तगणे हैं । १७०॥
गुणकार क्या है ? सिद्धोंका असंख्यातवां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? चार शरीरवाले जीवोंका प्रमाण प्रतिभाग है।
उनसे दो शरीरवाले जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १७१ ।।
क्योंकि, सब जीवराशिमें अन्तर्मुहूर्तका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना इनका प्रमाण है। गुणकार क्या है ? सब जीवराशिका अनन्तवां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? अन्तर्महुर्तसे गुणित सिद्धराशि प्रतिभाग है।
उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगणे हैं ॥ १७२ ।।
गुणकार क्या है ? अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गुणकार है।
आवेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिकी अपेक्षा नारकियों में दो शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं ॥ १७३ ।।
क्योंकि, नारक राशिमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण वहाँ दो शरीरवाले जीव हैं।
उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातणे हैं ।। १७४ ।।
गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । तथा असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
६ प्रतिष । चदूसरीरजीवपडिमागो' इति पाठ11
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५, ६, १७८ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा
एवं जाव सत्तसु पुढवीसु ।। १७५ ।।
सत्तसु* पुढवीसु पत्तेयं पत्तेयं अध्याबहुअपरूवणे कीरमाणे जहा णिरओघम्हि वृत्तं तावत्तव्यं ।
तिरिक्खगदीए तिरिक्खे ओघं ॥ १७६ ॥
जहा मूलोघम्हि अप्पा बहुअपरूवणा कदा तहा तिरिक्खेसु कायव्वा । णवरि असरोरा णत्थि । तं जहा - सव्वत्थोवा चदुसरीरा । बिसरीरा अनंतगुणा । को गुणगारो ? विसरोराणमसंखे० भागो को पडि० ? चदुसरी ररासी । तिसरीरा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? संखेज्जावलियाओ 1
पंचिदियतिरिक्खं - पंचिवियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु सम्वत्थोवा चदुसरीरा ॥ १७७ ॥
कुदो ? पलिदो० असंखे ० भागमेत्तघणंगुलेहि गुणिदजगसेडियमाणत्तादो । बिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥ १७८ ॥
को गुणगारो ? सेडिए असंखे० भागो । तस्स को पडिभागो ? चदुसरीर विषखंभ
( ३०३
इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए ।। १७५ ।।
अलग अलग प्रत्येक पृथिवी में अल्पबहुत्वका कथन करने पर जिस प्रकार सामान्य नारकियों में कहा है उस प्रकार कहना चाहिए ।
तियंचगतिको अपेक्षा तियंचोंमें ओघके समान भंग है ॥ १७६ ॥
4
1
जिस प्रकार मूलोध में अल्पबहुत्वप्ररूपणा की है उस प्रकार तिर्यञ्चों में करनी चाहिए इतनी विशेषता है कि यहाँ अशरीरी जीव नहीं है । यथा- चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? दो शरीरवालोंके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? चार शरीरवालोंकी राशि प्रतिभाग है। उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? संख्यात आवलियाँ गुणकार
1
पंचेंद्रिय तिर्यंच, पंचेंद्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेंद्रिय तिर्यंच योनिनियों में चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं ॥ १७७ ।।
क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण घनांगुलोंसे जगश्रेणिके गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतना यहाँ चार शरीरवालोंका प्रमाण है ।
उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं ।। १७८ ॥
गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उसका प्रतिभाग
ता० प्रती सूत्रानतरं 'सत्तसु पुढवीसु' इति पाठो नास्ति ।
अ० प्रती
पंचिदियतिरिक्ख
इति पाठो नास्ति 1
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३०४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
सूचीए गणिदसगसगअवहारकालो।
तिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥१७९॥
को गुण ? आवलि० असंखे० भागो । कुदो ? आवलियाए असंखे०भागमेत्तउवक्कमणकालेण सगसगरासीए ओवट्टिदाए बिसरीराणं पमाणप्पत्तीवो । विग्गहगदीए चेव उप्पज्जमाणा नहुगा ण उजगदीए, उज्जवाए गदीए उप्पज्जमाणोपदेसस्स थोवत्तुवलंभादो । के वि आइरिया उजगदीए उप्पज्जमाणा जीवा बहुआ त्ति भणंति तेसिमहिप्पाएण गुणगारो पलिदो० असंखे० भागो होदि । एदमत्थपदं सव्वमग्गणासु परूवेयन्वं ।
पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्ता रइयाणं भंगो ॥१८०॥
जहा रइयाणमप्पाबहुगं परूविदं तहा एत्थ वि परवेयव्वं । तं जहासव्वत्थोवा बिसरीरा । तिसरीरा असंखेज्जगणा । को गणगारो? आवलियाए असंखे०भागो। पलिदो० असंखे० भागो गुणगारो ति सव्वमग्गणासु के वि आइरिया भणंति, तण्ण धडदे । कुदो? संखेज्जावलियाहि सध्वजीवरासिम्मि ओवट्टिदे कम्मइयरा. सिपमाणागमण*ण्णहाणुववत्तीदो। जदि उप्पज्जमाणजीवाणमसंखेज्जो भागो विग्गह
क्या है ? अपने अपने अवहारकाल को चार शरीरवालोंकी विष्कंभसूचीसे गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतना प्रतिभाग है।
उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं ।।१७९॥
गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण उपक्रमण कालसे अपनी अपनी राशिके भाजित करने पर दो शरीर वालोंका प्रमाण उत्पन्न होता है । विग्रहगतिसे ही उत्पन्न होनेवाले जीव बहुत हैं, ऋजुगतिसे नहीं, क्योंकि, ऋजुगतिसे उत्पन्न होने वाले जीव स्तोक हैं ऐसा उपदेश पाया जाता है । कितने ही आचार्य ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेवाले जीव बहुत हैं ऐसा कहते हैं, इसलिए उनके अभिप्रायसे गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। यह अर्थपद सब मार्गणाओंमें कहना चाहिए।
पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें नारकियों के समान भंग है ॥१८० ।
जिसप्रकार नारकियोंका अल्पबहुत्व कहा है उसीप्रकार यहां भी कहना चाहिए। यथादो शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । सब मार्गणाओं में पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है ऐसा भी कितने ही आचार्य कथन करते हैं किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, संख्यात आवलियोंसे सर्व जीवराशिके भाजित करने पर कामणराशिका प्रमाण आता है, अन्यथा वह बन नहीं सकता है। यदि उत्पन्न होनेवाले जीवोंको असंख्यातवें
*अ. का. प्रत्योः ' -पमाणगमण-' इति पाठ ।
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५, ६, १८३ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा (३०५ कुणदि तो पलिदो० असंखे०भागेण गणिवसंखेज्जावलियाओ सव्वजीवरासिस्स भाग. हारो होज्ज । ण च एवं, तहाणवलंभादो तम्हा असंखे० भागो चेव उजगदीए उप्पज्जदि त्ति घेत्तव्वं ।
मणुसगदीए मणुसा पंचिदियतिरिक्खाणं भंगो ॥ १८१ ॥
तं जहा- सव्वत्थोवा चदुसरीरा, संखेज्जपमाणत्तादो। विसरीरा असंखेज्जगुणा । को गुण ? विसरीराणं संखे० भागो। तस्स को पडिभागो ? चदुसरीरसंखेज्जजीवा । अथवा गुणगारो सेडीए असंखे० भागो। तिसरीरा असंखेज्जगणा। को गुण ? आवलि० असंखे० भागो । पलिदो० असंखे० भागो गुणगारो होवि तिर पुव्वं व परवेयव्वं ।
मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वत्थोवा चदुसरीरा ॥ १८२ ।। विउवमाणाणमाहारसरीरेण परिणमंताणं अइथोवत्तदसणादो।
विसरोरा संखेज्जगुणा ॥ १८३ ।। विउवमाणजीहितो विग्गहगदीए उप्पज्जमाणजीवाणं संखेज्जगणत्तवलंभादो।
भागप्रमाण जीवराशि विग्रह करती है तो पल्यके असंख्यातवें भागसे संख्यात आवलियोंके गुणित करने पर समस्त जीवराशिका भागहार होवे । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, उस प्रकार भागहार नहीं उपलब्ध होता, इसलिए असंख्यातवें भागप्रमाण राशि ही ऋजुगतिसे उत्पन्न होती है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए ।
मनष्यगतिको अपेक्षा मनुष्योमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भड्ग है ।१८१॥
यथा- चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, उनका प्रमाण संख्यात है। उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? दो शरीरवालोंके संख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उसका प्रतिभाग क्या है ? चार शरीरवाले संख्यात जीव प्रतिभाग है। अथवा गुणकार जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है ऐसा पहलेके समान कहना चाहिए । मनुष्यपर्याप्त और मनष्यिनियोंमें चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं ।१८२॥
क्योंकि, विक्रिया करनेवाले और आहारक शरीररूपसे परिणत हुए मनुष्य अति स्तोक देखे जाते हैं।
उनसे दो शरीरवाले मनुष्य संख्यातगणे हैं ।।१८३॥
क्योंकि, विक्रिया करनेवाले जीवोंसे विग्रहगतिसे उत्पन्न होनेवाले उक्त मनुष्य संख्यातगुणे उपलब्ध होते हैं।
8 ता० प्रसो ' गुणगारो ( ण- ) होज्जदि त्ति' इति पाठ।।
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' छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
- तिसरीरा संखेज्जगुणा ॥ १८४ ॥ - सुगमं ।
.. [मणुसअपज्जत्तो पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो ॥ १८५॥ - तं जहा- सम्वत्थोवा विसरीरा। तिसरीरा असंखेज्जगणा । को गुणगारो ? आवलियाए असंखे०भागो ।
देवगदीए देवा सव्वत्थोवा विसरीरा ॥ १८६ ॥ कुदो ? सगरासी आवलि.* असंखे०भागेण खंडिदेय (खंड-) पमाणत्तादो। तिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥ १८७ ॥
को गुण०? आवलि० असंखे० भागो। 'कुदो? संखेज्जवासाउअदेवेसु उप्पज्जमाणजीवाणं बहुत्तुवलंभादो ।
एवं भवणवासियप्पहुडि जाव अवराइदविमाणवासियदेवा त्ति णेयन्वं ॥ १८८ ॥
णवरि जोइसियप्पहुडि जाव सदर-सहस्सारदेवेसु गणगारो पलिदो० असंखे०भागो होदि; तत्थ संखेज्जवासाउआणमभावादो। आणद-पाणदप्पहुडि जाव अवराइदं
उनसे तीन शरीरवाले मनुष्य संख्यातगणे हैं ।। १८४ ।। यह सूत्र सुगम है। मनष्य अपर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान भंग है । १८५ ।
यथा- दो शरीरवाले सबसे स्तोक हैं। उनसे तीन शरीरवाले असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
देवगतिकी अपेक्षा दो शरीरवाले देव सबसे स्तोक हैं। १८६ ।
क्योंकि, अपनी राशिको आवलिके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण दो शरीरवाले देव है ।
उनसे तीन शरीरवाले देव असंख्यातगणे हैं । १८७ । __ गुणकार क्या है ? ' आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है क्योंकि, संख्यात वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव बहुत पाये जाते हैं।
इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमानवासी तकके देवोंमें जानना चाहिए । १८८ ।
इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियोंसे लेकर शतार सहस्रार कल्प तकके देवोंमें गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, वहां पर संख्यात वर्षकी आयुवाले देवोंका अभाव
४ ता० प्रती · देवा ( वेसु ) सव्वत्थोवा' इति पाठः । * ता० प्रती । सगरासी ( सि ) आवलि ' इति पाठः ।
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५, ६, १९२ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा ( ३०७ ति जेण विसरीरा तत्थ संखेज्जा तेण तत्थ वि गुणगारो पलिदोवमस्स असंखे० भागो।
सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा सव्वत्थोवा विसरीरा॥१८९॥ सुगमं । तिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥ १९० ।। को गणगारो ? संखेज्जा समया । इंबियाणुवादेण एइंदिया बादरएइंदियपज्जत्ता ओघं ॥१९१॥
कुवो ? सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा अणंतगुणा । तिसरीरा असंखेज्जगुणा ति भेदाभावादो।
बावरेइंदियअपज्जत्ता सहमेइंवियपज्जत्तापज्जत्ता बीइंदियतीइंदिय-चरिदियपज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिदियअपज्जत्ता सव्वत्थोवा विसरीरा ॥ १९२॥
विग्गहगदीए सगसगरासीणमसंखे०भागस्स उप्पत्तिदसणावो । णवरि णिरंतररासीसु सगसगढ़िदीए सगसगदव्वे भागे हिदे एगसमयसंचिदविसरीराणं पमाणं होदि।
है। आनत- प्राणत कल्पसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें यत: दो शरीरवाले वहां संख्यात हैं अतः वहां भी गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
सर्वार्थसिद्धिविमानवासी दो शरीरवाले देव सबसे स्तोक हैं ।।१८९।। यह सूत्र सुगम है। उनसे तीन शरीरवाले संख्यातगणे हैं । १९० । गुणकार क्या है । संख्यात समय गुणकार है ।
इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रियपर्याप्तकोंका भड्ग ओघके समान है ॥१९१॥
क्योंकि, उनमें चार शरीरवाले सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले अनन्तगुण हैं और उनसे तीन शरीरवाले असंख्यातगुणे हैं, इस दृष्टिसे कोई भेद नहीं है।
बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले सबसे स्तोक हैं ।।१९२।।
__ क्योंकि, विग्रहगतिमें अपनी अपनी राशिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। इतनी विशेषता है कि निरन्तर राशियोंमें अपनी अपनी स्थितिका अपने अपने द्रव्यमें
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३०८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १९३ सांतराणं णिरंतरवक्कमणकालसहिदंतरेण सगढिविमोवट्टिय णिरंतरुवक्कमणकालेण गुणिदे सव्वुक्कमणकालो होदि तेण सगसगददे भागे हिदे एगसमयसंचिवविसरीर. जीवपमाणं होदि।
तिसरीरा असंखेज्जगुणा ।। १९३ ॥
को गुण० ? णिरंतररासीसु संखेज्जावलियाओ । अण्णत्थ आवलि. असंखे० भागो।
पंचिदिय-चिदियपज्जत्ता मणुसगदिभंगो । १९४ ॥
कुदो ? सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा असंखेगुणा । तिसरीरा असंखेज्जगुणा इच्चेदेहि भेदाभावादो । पज्जवटियणए पुण अवलंबिदे अस्थि भेदो कुदो? मणुस्सेसु संखेज्जाणं चदुसरीराणं पंचिदिएसु असंखेज्जाणमुवलंभादो ।
___कायाणुवावेण पुढविकाइया आउकाइया वणप्फविकाइया णिगोवजीवा बादरा सहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा पज्जत्ता अपज्जत्ता बावरतेउकाइय-बादरवाउकाइयअपज्जत्ता सहमतेउकाइय-सहमवाउकाइयपज्जत्ता अपज्जत्ता तसकाइयअपज्जत्ता
भाग देनेपर एक समय में संचित हुए दो शरीरवालोंका प्रमाण होता है। सांतरराशियोंमे निरंतर उपक्रमण कालसे सहित अन्तरसे अपनी स्थितिको भाजित कर जो लब्ध आवे उसे निरन्तर उपक्रमण कालसे गुणित करने पर सब उपक्रमणकालका प्रमाण होता है, पुनः उससे अपने अपने द्रव्यके भाजित करने पर एक समयमें संचित हुए दो शरीरवाले जीवोंका प्रमाण होता है।
उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगणे हैं ॥१९३।।
गुणकार क्या है ? निरन्तर राशियों में संख्यात आवलियां गुणकार है। अन्यत्र आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रियपर्याप्तकोंमें मनुष्यगतिके समान भङग है । १९४।
क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं और उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगणे हैं, इस अल्पबहुत्वसे यहां कोई भेद नहीं है। परन्तु पर्यायाथिकनयका अवलम्बन करने पर भद है ही, क्योंकि, चार शरीरवाले जीव मनुष्यों में संख्यात और पञ्चेन्द्रियोंमें असंख्यात उपलब्ध होते हैं।
कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोदजीव, उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बावर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक और वायुकायिक तथा उनके पर्याप्त 8 प्रतिष ' -सचिदसरीर- ' इति पाठः ।
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५, ६, १९८ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा
( ३०९
सम्वत्थोवा विसरीरा ॥ १९५॥
सगसगरासिम्हि संखेज्जावलियमेत्तमज्झिमट्टिदीए भागे हिदे सगसविसरीरपमाणप्पत्तीदो। तसकाइयअपज्जत्तएसु आवलियाए असंखे० भागेण सगरासिम्हि ओवट्रिदे विसरीराणमप्पत्तिदसणादो।
तिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥ १९६ ॥
को गण? आवलि० असंखे० भागो । तसअपज्जत्तएसु अण्णत्थ संखेज्जावलियाओ।
तेउकाइय-वाउकाइय-बादरतेउकाइय-बावरवाउकाइयपज्जत्ता तसकाइया तसकाइयपज्जत्ता पंचवियपज्जत्तभंगो ॥ १९७॥
कुदो ? सव्वत्थोवा चदुसरीरा। विसरीरा असंखेज्जगुणा । तिसरीरा असंखे०गणा इच्चेदेहि तत्तो भेदाभावादो । गणगारेण दव्वपमाणेण च भेदो अस्थि सो एत्थ ण विवक्खिदो । सो च भेदो जाणिय परूवेयवो । ____ जोगाणुवादेण पंचमणजोगि--पंचवचिजोगीसु सम्वत्थोवा चदुसरीरा ॥ १९८ ॥
और अपर्याप्त तथा प्रसकायिक अपर्याप्त जीवोंमें दो शरीरवाले सबसे स्तोक हैं ।। १९५ ॥
क्योंकि, अपनी अपनी राशिमें संख्यात आवलिप्रमाण मध्यम स्थितिका भाग देने पर अपने अपने दो शरीरवालोंका प्रमाण उत्पन्न होता है। त्रसकायिक अपर्याप्तकोंमें आवलिके असंख्यातवें भागसे अपनी राशिके भाजित करने पर दो शरीरवालोंकी उत्पत्ति देखी जाती है।
उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगणे हैं ॥ १९६ ॥
गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। अन्यत्र त्रसअपर्याप्तकों में संख्यात आवलियां गुणकार है।
अग्निकायिक, वायुकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायकायिक और बादर वायकायिकपर्याप्त, त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्त जीवोंमें पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान भङग हैं ।।१९७॥
क्योंकि, चार शरीरवाले सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरबाले असंख्यातगुणे हैं और उनसे तीन शरीरवाले असंख्यातगुणे हैं इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा उनसे इनमें कोई भेद नहीं है। गुणकार और द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा यद्यपि भेद है परन्तु उनकी यहां विवक्षा नही है। तथा उस भेदको जानकर कहना चाहिए ।
योगमार्गणाके अनुवादसे पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें चार शरीरवाले सबसे स्तोक हैं ॥१९८॥
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३१०)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
कुदो ? पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तघणंगुलेहि गणिवजगसेडिपमाणत्तादो। तिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥ १९९ ॥ को गग० ? सेडीए असंखे० भागो। कायजोगी ओघं ।। २०० ।।
कुदो ? सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा अणंतगुणा । तिसरीरा असंखे०गुणा इच्चेदेहि भेदाभावादो।
ओरालियकायजोगीसु सव्वत्थोवा चदुसरीरा ॥ २०१ ॥ कुदो ? पलिदो० असंखे० भागमेत्तघणंगुलेहि गणिवजगसेडिपमाणत्तादो। तिसरीरा अणंतगुणा ॥ २०२ ।। को गुण? अणंताणि सव्वजीवरासिपढमवग्गमूलाणि।
ओरालियमिस्सकायजोगि-वेउन्वियकायजोगि-वेउध्वियमिस्सकायजोगि-आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु णधि अप्पाबहुअं ॥ २०३ ॥
कुदो ? एगपदत्तादो।
क्योंकि, पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण घनाङ्गलोंसे जगश्रेणिको गुणित करने पर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण चार शरीरवाले जीव हैं।
उनसे तीन शरीरवाले असंख्यातगणे हैं ॥ १९९ ।। गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। काययोगवाले जीवोंमें ओघके समान भंग है ।। २०० ।।
क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव अनन्तगुणे हैं और उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है।
औदारिककाययोगी जीवोंमें चार शरीरवाले सबसे स्तोक हैं ।। २०१॥
क्योंकि, पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण घनाङ्गुलोंसे जगश्रेणिको गुणित करने पर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण चार शरीरवाले जीव हैं।
उनसे तीन शरीरवाले अनन्तगुणे हैं ।। २०२॥ गुणकार क्या है ? सब जीव राशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण गुणकार है।
औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहा. रककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है । २०३ ॥
क्योंकि, इनमें एक ही पद है ।
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५, ६, २०८ ) · बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा ( ३११
कम्मइयकायजोगीसु सम्वत्थोवा तिसरीरा ॥ २०४ ॥ कुदो ? पदर-लोगपूरणगदसजोगीणं संखेज्जाणं चेव उवलंभादो। विसरीरा अणंतगुणा ॥ २०५ ।। को गण? अणंताणि सव्वजीवरासिपढमवग्गमलाणि ।
वेदाणुवादेण इथिवेद-पुरिसवेदा पंचिदियभंगो ॥ २०६ ॥ व. कुदो ? सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा असंखेज्जगुणा । तिसरीरा असंखेज्जगणा इच्चेदेहि भेदाभावादो।।
णवंसयवेदा कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई ओघं ॥ २०७ ।।
कुदो ? सव्वत्थोवा चदुसरीरा। विसरीरा अणंतगुणा । तिसरीरा- असंखेज्जगुणा इच्चेदेहि भेदाभावादो ।
__ अवगदवेद-अकसाईणं णवि अप्पाबहुगं ।। २०८ ।।
कार्मणकाययोगी जीवोंमें तीन शरीरवाले सबसे स्तोक हैं । २०४ । ... क्योंकि, प्रतर और लोकपूरण अवस्थाको प्राप्त हुए सयोगिकेबली संख्यात ही उपलब्ध होते हैं।
उनसे दो शरीरवाले अनन्तगुणे हैं । २०५ । गुणकार क्या है ? सब जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण गुणकार है।
वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदवाले और पुरुषवेदबाले जीवोंमें पंचेन्द्रियोंके समान भंग है । २०६ ।
क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं और उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा इनमें कोई भेद नहीं है।
नपंसकदवाले जीवों तथा कषाय मार्गणाके अमवादसे क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले और लोभकषायवाले जीवों में . ओघके समान भंग है । २०७।
क्योंकि, चार शरीरवाले सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव अनन्तगणे हैं और उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है।
अपगतवेदी और अकषायी जीवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है । २०८ ।
४ अ० प्रती ' चदुसरीरा अणंतगुणा' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
३१२) कुदो ? एगपदत्तादो।
जाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुवअण्णाणी ओघं ॥२०९॥
कुदो ? सम्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा अणंतगुणा । तिसरीरा असंखे०गुणा इच्चेदेहि विसेसाभावादो।
विहंगणाणी सव्वत्थोवा* चदुसरीरा ॥२१०॥
कुदो? पलिदो० असंखे० मागेण गुणिदघणंगुलमेत्तजगसेडिपमाणतिरिक्खविभंग णाणीणमसंखे० भागत्तादो।
तिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥२११॥ को गुणगारो ? सेडीए असंखे०भागो।
आभिणि-सुद-ओहिणाणीसु पंचिदियपज्जत्ताणं भंगो॥२१२॥ कुदो ? सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा असंखेज्जगणा । को गुण ? आवलियाए असंखे०भागो। तिसरीरा असंखेमणा । को गण ? आवलि० असंखे.
क्योंकि, इनमें एक ही पद है।।
ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंमें ओघके समान भड्.ग है ।। २०९॥
क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव अनन्तगुण हैं और उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा ओघसे इनम कोई भेद नहीं है।
विभड्.गज्ञानी जीवोंमें चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं ।। २१० ।।
क्योंकि, पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण घनाङ्गुलोंसे जगश्रेणिके गुणित करने पर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण चार शरीरवाले जीव हैं।
उनसे तीन शरीरवाले असंख्यातगुणे हैं ।। २११ ॥ गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
आमिनिबोधिकज्ञानी श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान भड्.ग है ।। २१२ ॥
क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उनसे तीन शरीरवाले
xता० प्रती ' -सुदअण्णाणीसु ओघ-' इति पाठः । * ता० प्रती 'विहंगणाणीसु सव्वत्थोवा' इति पाठः ।
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५, ६, २१७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा ( ३१३ भागो इच्चेदेसु पदेसु असंखेज्जगुणत्तणेण भेदाभावादो, दव्व गुणगारगयभेवाणं विवक्खाभावादो।
मणपज्जवणाणीसु सव्वत्थोवा चदुसरीरा ॥ २१३ ।। विउवमाणमणपज्जवणाणि* संजदाणं सुठ थोवत्तवलंभादो। तिसरीरा संखेज्जगुणा* ॥ २१४ ॥ को गण० ? संखेज्जा समया । केवलणाणीसु णत्थि अप्पाबहुगं ॥ २१५ ॥ कुदो ? एगपदत्तादो।
संजमाणुवादेण संजदा सामाइय-च्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजवा मणपज्जवणाणिभंगो ॥ २१६ ॥
सम्वत्थोवा चदुसरीरा । तिसरीरा संखेज्जगुणा इच्चेदेहि भेदाभावादो।
परिहारसुद्धिसंजद-सुहमसांपराइयसुद्धिसंजद-जहाक्खावविहारसुद्धिसंजदाणं पत्थि अप्पाबहुगं ॥ २१७ ॥ जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है इत्यादि पदोंमें असख्यातगणेपने की अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंसे इनमें कोई भेद नहीं है । तथा द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा और गुणकारकी अपेक्षा रहनेवाले भेदकी यहां विवक्षा नहीं है।
मनःपर्ययज्ञानियों में चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं ॥ २१३ ॥ क्योंकि, विक्रिया करनेवाले मनःपर्ययज्ञानी संयत जीव बहुत ही स्तोक पाये जाते हैं। उनसे तीन शरीरवाले जीव संख्यातगणे हैं ॥ २१४ ॥ गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है। केवलज्ञानियोंमें अल्पबहुत्व नहीं है ।। २१५ ॥ क्योंकि, उनमें एक ही पद पाया जाता है।
संयममार्गणाके अनुवादसे संयत, सामायिकशद्धिसंयत और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीवोंमें मनःपर्ययज्ञानियोंके समान भङग है ॥ २१६ ॥
क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे तीन शरीरवाले जीव संख्यातगुण हैं इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा मनःपर्ययज्ञानियोंसे इनमें कोई भेद नहीं है।
परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत और यथाख्यातविहारशद्धिसंयत जीवोंका अल्पबहुत्व नहीं है ।। २१७ ।।
* ता०प्रतो '-माणम (णपज्जव) णाणि 'अ० का. प्रत्योः'-माणमणाणि-' इति पाठः । * ता०प्रतो ' तिसरीरा ( अ ) संखेज्जगुणा ' अ०का० प्रत्यो: 'तिसरीरा असखेज्जगणा इति पाठ।) ० ता.प्रती ' चदूसरीरा। वि (ति) सरीरा 'अ.का. प्रत्यो । चदसरीरा विसरीरा' इति पाठः।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
३१४ )
( ५, ६, २१८ कुदो ? एगपदत्तादो।
संजवासंजदा विभंगणाणिभंगो ॥ २१८ ॥
कुदो ? सव्वत्थोवा चदुसरीरा। तिसरीरा असंखेगणा । को गुणगारो ? आवलि० असंखे० मागो इच्चेदेसु असंखेज्जगुणत्तणेण भेदाभावादो ।
असंजद-अचक्खुदंसणी ओघं ॥ २१९ ॥
लेस्साणुवादेण किण्ण-णील-काउलेस्सिया भवियाणुवादेण भवसिद्धिय-अभवसिद्धिया ओघं ॥ २२० ॥
कुदो ? सम्वत्थोवा चदुसरीरा। विसरीरा अणंतगणा । तिसरीरा असंखे०. गुणा। को गुण ? संखेज्जावलियाओ इच्चेदेण भेदाभावादो।
दसणाणुवावेण चक्खुदंसणी ओहिदसणी तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया पंचिदियपज्जत्ताणं भंगो ॥ २२१ ॥
कुदो ? पदसंखाए असंखेज्जगणतणेण च भेदाभावादो। अत्थदो पुण अस्थि
क्योंकि, इन मार्गणाओंमें एक ही पद है। संयतासंयतोंमें विभङगज्ञानियोंके समान भंग है ॥ २१८ ॥
क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। इस प्रकार इनमें असंख्यातगुणत्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है ।
असंयत और अचक्षदर्शनवाले जीवोंका भंग ओघके समान है ॥ २१९ ॥
लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्यावाले नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले तथा भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्य और अभव्य जीवोंमें ओघके समान भंग है ।। २२० ॥
क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव अनन्तगुणे हैं और उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? असंख्यात आवलियां गुगकार है। इस प्रकार इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा यहां कोई भेद नहीं है।
दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षदर्शनवाले और अवधिदर्शनवाले तथा पोतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें पञ्चेन्द्रियपर्याप्तकोंके समान भंग है ।। २२१ ॥
क्योंकि, पदोंकी संख्या और असंख्यातगुणत्वको अपेक्षा कोई भेद नहीं है। अर्थकी
४ म०प्रतिपाठोऽयम् । ता. प्रतौ सूत्रमिदं पृथक नोपलभ्यते 1 अ० प्रती अस्मिन् सूत्रे ' ओघं ' इति
पाठः तथा का प्रती ' असंजद ' इति पाठो नोपलभ्यते ।
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५, ६, २२४ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरी परूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा ( ३१५
भेदो । तं जहा - चक्खुदंसणीसु सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा असंखेज्जगुणा । को गुण ० ? सेडीए असंखे० भागो । तिसरीरा असंखे० गुणा । को गुणगारो । आवलि० असंखे० भागो । ओहिदंसणीसु सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा* असंखेज्जगुणा । को गुण ०? आवल० असंखे ० भागो | तिसरीरा असंखे० गुणा । को गुण ०? आवलि० असंखे० भागो | तेउलेस्सिएसु सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा असंखेज्जगुणा । को गुण ० ? आवलि० असंखे० भागो । अहवा गुणगारो ण णव्वदे, विसिट्ठवएसाभावादो । तिसरीरा असंखे० गुणा । को गुण० ? सेडीए असंखे ० भागो । एवं पम्पलेस्सियाणं ।
केवलदंसणीणं णत्थि अप्पा बहुगं ।। २२२ ॥
कुदो ? एगपदत्तादो ।
सुक्कलेस्सिया सव्वत्थोवा विसरीरा ।। २२३ ॥ कुदो ? संखेज्जत्तादो |
चदुसरीरा असंखेज्जगुणा ॥ २२४ ॥
अपेक्षा तो भेद है ही । यथा- चक्षुदर्शनवालोंमें चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । अवधिदर्शनवालों में चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? आलि असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । पीतलेश्यावालोंमें चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । अथवा गुणकारका ज्ञान नहीं है, क्योंकि, इस विषय में विशिष्ट उपदेशका अभाव है । उनसे तीन शरीरवाले जोव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है । जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । इसी प्रकार पद्मलेश्यावालोंके जानना चाहिए ।
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केवलदर्शनवालोंमें अल्पबहुत्व नही है ।। २२२ ॥
क्योंकि, इनमें एक ही पद है ।
शुक्ललेश्यावालोंमें दो शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं ।। २२३ ॥ क्योंकि इनका प्रमाण संख्यात है ।
उनसे चार शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं ।। २२४ ॥
का० प्रतो 'ओहिदंसणीसु ता० प्रतो
चदुसरीरा । ति ( वि ) सरीरा इति पाठः ।
ता० प्रती ' असंखे० भागो 1 वि ( ति ) सरीरा' इति पाठ: 1
• इत आरम्भ तेउलेस्सिएसु' इति यावत् पाठो नोपलभ्यते ।
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३१६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २२५ को गुण ? पलिदोवमस्स असंखे०मागस्स संखे०भागो। तिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥ २२५ ॥ को गुण ? आवलि० असंखे०भागो।
सम्मत्ताणुवावेण सम्माइट्ठी वेवगसम्माइट्ठी सासणसम्माइट्ठीपंचिदियपज्जत्तभंगो ।। २२६ ॥
कुदो? सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा असंखे० गुणा । को गुण? आवलि. असंखे०भागो। तिसरीरा असंखे०गुणा । को गुण० ? आवलि० असंखे० भागो त्ति पदसंखाए असंखेज्जगुणतणेण च भेदाभावादो।
खइयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी सम्वत्थोवा विसरीरा ।२२७' कुदो ? संखेज्जत्तादो।
चदुसरीरा असंखेज्जगुणा ॥ २२८ ॥ को गुण० ? पलिदो० असंखे० भागो।
गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगणे हैं ।। २२५ ॥
गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
सम्यक्त्व मार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान भंग है ।। २२६ ॥
क्योंकि, चार शरीरवाले सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उनसे तीन शरीरवाले असंख्यातगुण हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है इस प्रकार पदसंख्या और असंख्यातगुणत्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है।
क्षायिकसम्यग्दष्टि और उपशमसम्यग्दष्टि जीबोंमें दो शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं ॥ २२७ ।।
क्योंकि, इनका प्रमाण संख्यात है। उनसे चार शरीरवाले जीव असंख्यातगणे हैं ॥ २२८॥ गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
अ.का. प्रत्योः 'पदसंखा असखेज्जगणतणेण ' इति पाठ।)
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५, ६, २३२ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा
( ३१७
तिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥ २२९ ।। को गुण ? आवलि० असंखे० भागो।
सम्मामिच्छाइट्ठी संजदासंजदाणं भंगो ॥ २३० ॥ कुदो ? सम्वत्थोवा चदुसरीरा। तिसरीरा असंखे० गुणा । को गुण ? आवलि० असंखे०भागो इच्चेदेहि भेदाभावादो।
मिच्छाइट्ठी ओघं ॥ २३१ ॥
सव्वत्थोवा चदुसरीरा। विसरीरा अणतगुणा। तिसरीरा असंखेगणा इच्चेदेहि भेदाभावादो।
सणियाणुवादेण सण्णी पंचिवियपज्जत्ताणं भंगो ॥ २३२ ।।
कुदो ? सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरोरा असंखे०गणा। को गुण ? सेढीए असंखे० भागो। तिसरीरा असंखे० गुणा। को गुण ? आवलि० असंखे०भागो इच्चेदेहि भेवाभावादो।
उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगणे हैं ॥ २२९ ॥ गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। सम्यग्मिथ्यावृष्टियोंमें संयतासंयतोंके समान भङग है । २३० ।
क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुण है। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार इस प्रकार इसकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है।
मिथ्याष्टियोंमें ओघके समान भङग है । २३१ ।
क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव अनन्तगणे हैं। उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं इस प्रकार इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है। संज्ञी मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें पञ्चेन्द्रियपर्याप्तकोंके समान भङग है ।२३२।
क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। इस प्रकार इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंसे संज्ञी जीवोंमें कोई भेद नहीं है।
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३१८)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २३३
असण्णी ओघं ।। २३३ ॥ सुगममेदं। आहाराणुवावेण आहारएस ओरालियकायजोगिभंगो ॥ २३४॥ सम्वत्थोवा चदुसरीरा । तिसरीरा अणंतगणा इच्चेदेहि भेदाभावादो । अणाहारा कम्मइयकायजोगिभंगो ॥ २३५ ।। सव्वत्थोवा तिसरीरा । विसरीरा अणंतगुणा इच्चेदेहि भेदाभावादो। एवमप्पाबहुए समत्ते सरोरिसरीरपरूवणा त्ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
असंज्ञियोंमें ओघके समान भंग है ॥२३३॥ यह सूत्र सुगम है।
आहारमार्गणाके अनुवावसे आहारक जीवोंमें औदारिककाययोगी जीवोंके समान भंग है ॥२३४॥
क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे तीन शरीरवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इस प्रकार इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा औदारिककाययोगियोंसे आहारक जीवों में कोई भेद नहीं है।
अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भंग है ॥२३५।।
क्योंकि, तीन शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इस प्रकार इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा कार्मणकाययोगी जीवोंसे अनाहारक जीवोंमें कोई
विशेषार्थ- बाह्य वर्गणाके मुख्य भेद चार हैं- शरीरिशरीरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा, शरीरविस्रसोपचयप्ररूपणा और विस्रसोपचयप्ररूपणा । साधारणतः संसारी जीवोंके कुल पाँच शरीर होते हैं। उनका जीवोंके साथ कथन करना कि किस जीवके किस अपेक्षासे कितने शरीर होते हैं इसे शरीरिशरीरमरूपणा कहते हैं। यहां इसी अनुयोगद्वारका सत्, संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर विवेचन किया गया है । साधारणतः यहाँ यही बात बीजरूपमें बतलानी है कि ये पाँच शरीर किस नियम के साथ कितने होते हैं । यह तो सामान्य नियम है कि सब संसारी जीवोंके तैजसशरीर और कार्मणशरीर निरन्तर बना रहता है। इन दो शरीरोंका अयोगिकेवलिके अन्तिम समय तक अभाव नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं कि अनादि काल पहले जीवके साथ जिस तैजस और कार्मणशरीरका सम्बन्ध था उसीका आज भी सम्बन्ध बना हुआ है । अभिप्राय यह है कि बन्धसन्ततिका विच्छेद न होनेसे इन दोनों शरीरोंका संसारमें कभी अभाव नहीं होता । अब शेष रहे तीन शरीर-औदारिकशरीर वैक्रियिकशरीर आहारकशरीर सो ये किसके और कबसे होते हैं इस बातका पहले यहां
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५, ६, २३५ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा
(११९
पर निर्णय कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। निश्चित नियम यह है कि जीव विग्रहगतिम अनाहारक होता है। वर्तमान पर्यायका वियोग होकर उत्तर पर्यायके शरीरके ग्रहणके लिए जीवकी गति दो प्रकारकी होती है- एक ऋजुगति और दूसरी विग्रहगति । ऋजुगतिका अर्थ मोडे रहित गतिसे है और विग्रहगतिका अर्थ मोडेवाली गतिसे है। जो जीव वर्तमान पर्यायका त्याग कर ऋजुगतिसे दूसरी पर्यायके शरीरको ग्रहण करनेके लिए गमन करता है वह अनाहारक नहीं होता, क्योंकि, यहां पर शरीरका त्याग होकर उत्तर पर्यायके शरीरके ग्रहणमें कालभेद उपलब्ध नहीं होता । अब रहा मोडवाली गतिका विचार, सो उसमें पूर्व पर्यायके त्यागके साथ ही यद्यपि उत्तर पर्यायकी प्राप्ति हो जाती है परन्तु उत्तर पर्यायको अवस्थितिके लिए शरीरका ग्रहण जब तक जीव मोडोंको पार नहीं करता तब तक नहीं होता, इसलिए यह सिद्धान्त स्थिर होता है कि जीव विग्रहगतिमें कमसे कम दो शरीरवाला होता है । उन दो शरीरोंके नाम तैजसशरीर और कार्मणशरीर हैं और ये ही अनादि सम्बन्धवाले हैं । हम पहले कह आये हैं कि विग्रहगतिमें जीव अनाहारक रहता है। यहां अनाहारकसे तात्पर्य है कि ऐसा जीव औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंको नहीं ग्रहण करता । विग्रहगतिमें स्थित जीव एक तो इन तीन शरीरोंके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण नहीं करता, इसलिए उसके इनमेंसे किसी भी एक शरीरकी सत्ता नहीं होती। दूसरे, पूर्व पर्यायमें ग्रहण किये गये शरीरका उसी पर्यायके त्यागके साथ त्याग हो जाता है, इसलिए भी उसके इन तीन शरीरोंमेंसे किसी एक शरीरकी सत्ता नहीं होती। अब यह देखना है कि ये तीन शरीर किस जीवके किस क्रमसे उपलब्ध होते हैं। इस सम्बन्धमें साधारण नियम यह है कि तिर्यंचों और मनुष्योंके जब औदारिकशरीर नामकर्मका उदय होता है, तब इन पर्यायोंके मिलने पर आहारक होने के प्रथम समयसे इस जीवके औदारिकशरीर पाया जाता है। देवों और नारकियोंके वैक्रियिकशरीर नामकर्मका उदय होता है, इसलिए इनके भवग्रहण करने पर आहारक होने के प्रथम समयसे लेकर वैक्रियिकशरीर उपलब्ध होता है। तथा प्रमत्तसंयत जीवके आहारक ऋद्धिकी प्राप्ति होनेपर आहारकशरोर नामकर्मके उदयसे कारण- विशेषके सद्भावमें अन्तर्मुहुर्त काल तक आहारक शरीर उपलब्ध होता है। इसप्रकार अधिकारी भेदसे यह तो ज्ञात हो जाता है कि किसके कबसे लेकर कितने शरीर होते हैं। यदि तिर्यंच और मनुष्य है तो आहारक होनेके पूर्व उसके तैजस और कार्मण ये दो शरीर उपलब्ध होंगे और आहारक होने के प्रथम समयसे लेकर उसके औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर ये तीन शरीर अवश्य ही उपलब्ध होंगे। यदि देव और नारकी है तो आहारक होनेके पूर्व उसके तैजस और कार्मण, ये दो शरीर उपलब्ध होंगे और आहारक होनेके प्रथम समयसे लेकर वैक्रियिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर उपलब्ध होंगे । इस प्रकार अधिकारी भेदसे तीन शरीर किस प्रकार पाये जाते हैं इसका विचार किया । अब चार शरीर किसके किस प्रकार सम्भव हैं इसका विचार करना है। पहले हम यह तो कह ही आये हैं कि किसी प्रमत्तसंयत जीवके योग्य सामग्रीके सद्भावमें अन्तर्मुहूर्त काल तक आहारकशरीरकी प्राप्ति संभव है । इसका यह अर्थ हुआ कि मनुष्य होनेके नाते उसके औदारिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर तो पाये ही जाते है साथ ही उसके चौथा आहारकशरीर भी हो जाता है। यह कैसे होता है
इसका खुलासा इस प्रकार है- कि जब किसी प्रमत्तसंयत जीवकी तत्त्वविषयक सूक्ष्म शंका होती
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३२० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २३५
है और जिस क्षेत्रमें वह है वहाँ उसका परिहार होना सम्भव नहीं होता या जब किसी तीर्थकरको निष्क्रमण आदि कल्याणककी प्राप्ति होती है और देवादिके आने जानेसे इसकी सूचना मिलने पर वह प्रमत्तसंयत जीव वन्दनाके लिए जाना चाहता है या इसी प्रकारका अन्य कारण मिलने पर वह प्रमत्तसंयत जीव आहारक ऋद्धिके सद्भावमें आहारकशरीर नामकर्मके उदयसे
औदारिक शरीरसे भिन्न आहारकशरीरको उत्पन्न करता है और वह आहारकशरीर उक्त प्रयोजनकी पूर्ति कर विघटित हो जाता है । जिस समय आहारकशरीर उत्पन्न होकर अपना कार्य करता है उस समय औदारिकशरीर नामकर्मका उदय नहीं रहता और औदारिक काययोग भी नहीं होता । उतने काल तक औदारिकशरीर बना अवश्य रहता है और पूरी तरहसे जीवका उससे सम्बन्ध विच्छेद भी नहीं होता पर क्रियाका प्रयोजक वह नहीं होता । इस प्रकार ऐसे जीवके औदारिक, आहारक, तेजस और कार्मण ये चार शरीर होते हैं। चार शरीरोंकी प्राप्तिका दूसरा प्रकार यह है कि पर्याप्त अग्निकायिक और पर्याप्त वायुकायिक जीव तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य औदारिकशरीरके रहते हुए भी विक्रिया करते हैं। इनके वैक्रियिकशरीर नामकर्मका उदय न होकर औदारिकशरीरको ही यद्यपि यह विशेषता होती है फिर भी विक्रिया रूप गुणको देखकर इसकी वैक्रियिकशरीर संज्ञा है। साथ ही यह ऐसे ही जीवके होता है जिसके वैक्रियिकशरीर चतुष्ककी सत्ता होती है। श्वेताम्बर कर्मसाहित्यमें तो उस समय वैक्रियिकशरीर चतुष्कका उदय तक माना गया है । इस प्रकार इन जोवोंके औदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मण ये चार शरीर बन जाते हैं । पाँच शरीर किसी एक के सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, वैक्रियिक और आहारकशरीरकी प्राप्ति एक साथ नहीं होती। इस प्रकार गति आदि मार्गणाओंमें किस प्रकार किस मार्गणा में कितने शरीर होते हैं यह घटित कर लेना चाहिए। यहाँ एक विशेष बातका निर्देश करना है वह यह कि केवली जिन केवलिसमुद्घातके समय तीन समय तक अनाहारक होते हैं और अयोगिकेवली भी अनाहारक होते हैं फिर भी उनके औदारिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर उपलब्ध होते हैं । कारण स्पष्ट है। आठ अनुयोगद्वारोंके अन्तमें सब विशेषताओंका संक्षेपमें ज्ञान करानेके अभिप्रायसे इतना निर्देश किया है।
इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर शरीरिशरीरप्ररूपणा
नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
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सरीरपरूवणा
सरीरपरूवणदाए तत्थ इमाणि छ अणुयोगद्दाराणि- णामणिरुत्ती पदेसपमाणाणुगमो जिसेयपरूवणा गुणगारो परमीमांसा अप्पाबहुए त्ति ॥ २३६ ॥
णामणिरुत्ती किमट्ठ वच्चदे ? पंचण्णं सरीराणं णामाणि गोण्णाणि णोअगोण्णाणि त्ति जाणावणटुं। पदेसपमाणाणुगमो किमळं परूविज्जदे ? " पंचण्णं सरीराणं पदेसपमाणे * अणवगए संते तेसिमवगमाणववत्तीदो। णिसेयपरूवणा किमळं वच्चदे ? पंचण्णं सरीराणं समयपबद्धाणं पदेसपिंडस्स बंधमागच्छंतस्स कालो सरिसो ण होदि किंतु विसरिसो होदि । एक्केक्ककालविसेसे एत्तिया एत्तिया परमाणु होति त्ति जाणावणठं च णिसेयपरूवणा कीरते । जहण्णदव्वादो उक्कस्सदश्वमेवदियगणं होदि ति जाणावणठें पंचण्णं सरीराणं पदेसमाहप्पजाणा
शरीरप्ररूपणाकी अपेक्षा वहां ये छह अनयोगद्वार होते हैं- नामनिरुक्ति, प्रदेशप्रमाणानुगम, निषेकप्ररूपणा, गुणकार, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व ।। २३६ ।।
नामनिरुक्तिका कथन किसलिए करते हैं ? पाँच शरीरोंके नाम गौण्य हैं नोगौण्य नहीं हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए नामनिरुक्ति अधिकार आया है। प्रदेशप्रमाणानुगमका कथन किसलिए करते हैं? पाँच शरीरोंके प्रदेशोंके प्रमाणका ज्ञान नहीं होने पर उनका ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए प्रदेशप्रमाणानुगम अधिकार आया है। निषेकप्ररूपणा किसलिए करते हैं? पाँच शरीरोंके समयप्रबद्धोंके प्रदेशपिण्डका बंध होने पर उसका काल सदृश नहीं हैं किंतु विसदृश है तथा एक एक काल विशेषमें इतने परमाणु होते हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए निषेकप्ररूपणा करते हैं। जघन्य द्रव्यसे उत्कृष्ट द्रव्य इतना गुणा है इस बातका ज्ञान कराने के लिए और पाँच शरीरोंके प्रदेशोंके माहात्म्यको जानने के लिए गुणकार अधिकारका कथन करते हैं।
ता.का. प्रत्योः 'परूविज्जदे ? पंचणं ' इति पाठ।। *ता०का० प्रत्यो। 'पदेसपमाणं' इति पाठ 1
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३२२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६ २३७ वणटुं च गुणगारो वच्चदे । जहण्णक्कस्सादिपदपरिक्खटं पदमीमांसा बुच्चदे । पंचण्णं सरीराण पदेसग्गथोवनहुत्तजाणावणटुमप्पाबहुअं वुच्चदे । एदेहि छहि अणुयोगद्दारेहि विणा सरीरपरूवणाणुववत्तीदो । एत्थ एदेहि परूवणा कीरदे
णामणिरुत्तीए उरालमिदि ओरालियं ।। २३७ ।।
उरालं थलं वटुं महल्लमिदि* एयट्ठो । कुदो उरालतं? ओगाहणाए । सेस. सरीराणं ओगाहणादो एदस्स सरीरस्स ओगाहणा बहुआ त्ति ओरालियसरीरमराले त्ति गहिदं । कुदो बहुत्तमवगम्मदे? महामच्छोरालियसरीरस्त पंचजोयणसदविक्खंभेण जोयणसहस्सायामदंसणादो। 'इदि' सद्दो हेदु-विवक्खाणमववत्तीदो उरालमेव ओरालि यमिदि सिद्ध। अथवा सेससरीराणं वग्गणोगाहणादो ओरालियसरीरस्स वग्गणओगाहणा बहुआ त्ति ओरालियवग्गणाणमुरालमिदि सण्णा । ओरालियवग्गणोगाहणाए बहुतं कुदो नवदे ? चूलियअप्पाबहुआदो । तं जहा- सव्वत्थोवाओ
जघन्यपद और उत्कृष्टपद आदिकी परीक्षा करने के लिए पदमीमांसा अधिकारका कथन करते हैं। पाँच शरीरोंके प्रदेशोंका अल्पबहुत्व जानने के लिए अल्पबहुत्व अधिकारका कथन करते हैं। इन छह अनुयोगद्वारोंके बिना शरीरप्ररूपणा नहीं हो सकती, इसलिए यहाँ इनके द्वारा प्ररूपणा करते हैं--
नामनिरुक्तिकी अपेक्षा उराल है इसलिए औदारिक है ।। २७३ ।। उराल, स्थूल, और महान् ये एकार्थवाची शब्द हैं । शंका-- यह उराल क्या है ?
समाधान-- अवगाहनाकी अपेक्षा उराल है। शेष शरीरोंकी अवगाहनासे इस शरीरकी अवगाहना बहुत है, इसलिए औदारिकशरीर उराल है ऐसा ग्रहण किया है।
शंका-- इसकी अवगाहनाके बहुत्वका ज्ञान कैसे होता है ?
समाधान-- क्योंकि, महामत्स्यका औदारिकशरीर पाँचसौ योजन विस्तारवाला और एक हजार योजन आयामवाला देखा जाता है।
सूत्रमें आया हुआ — इति' शब्द हेतुवाची और विवक्षावाची बन जाता है, इसलिए उराल ओरालिय है ऐसी उसकी निरुक्ति सिद्ध होती है। अथवा शेष शरीरोंकी वर्गणाओंकी अवगाहनकी अपेक्षा औदारिकशरीरकी वर्गणाओंकी अवगाहना बहुत है इसलिए औदारिकशरीरकी वर्गणाओंकी उराल ऐसी संज्ञा है।
शंका-औदारिकशरीरकी वर्गणाओंको अवगहना बहुत है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-चूलिकाके अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । यथा-कार्मणशरीरको द्रव्यवर्गणायें
प्रतिषु 'ओरालियं
*म० प्रतिपाठोऽयम् । ता० का० प्रत्यो ' बहल्लमिदि' इति पाठ:1
तसद्धा' इति पाठः ।
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५, ६, २३७ )
घणानुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए णामणिरुत्ती
( ३२३
कम्मइयसरीरदध्ववग्गणाओ ओगाहणाए । मणदव्ववग्गणाओ ओगाहणार असंखेज्जगुणाओ । भासादव्ववग्गणाओ ओगाहणाए असंखेज्जगुणाओ । तेयासरोरदव्ववग्ग - णाओ ओगाहणाए असंखेज्जगुणाओ । आहारसरीरदव्ववग्गणाओ ओगाहणाए असंखे० गुणाओ । वेव्वियसरी रदव्ववग्गणाओ ओगाहणाए असंखेज्जगुणाओ | ओरालिय सरीरदव्यवग्गणाओ ओगाहणाए असंखे० गुणाओ त्ति । एदेहि उराले हि पोग्गलेहि भवमिदि ओरालियं अथवा उरालं जेठ पहाणमिदि एयट्ठो | उदारसद्दादो उरालसद्दनिष्पत्तीए कथमोरालियसरीरस्स महल्लत्तं ? जिव्वुइगमण हे दुअट्ठारस सीलसहस्सुप्पत्तिणिमित्तभावादो । तम्हि उराले भवमोरालियं । अथवा उरालमेव ओरालियमिदि घेत्तव्वं । ओरालियसरीरमोगाहणाए चेव सेससरी रेहितो महलं, ण पदेसग्गेण विस्सासुवचएहि वा त्ति कथं णव्वदे ? सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जाणासमयसंचिदपदेसा । वेउब्विययरीरस्स णाणासमयसंचिदपदेसा असंखे० गुणा । को गुण ० ? सेडीए असंखे ० भागो आहारसरीरस्त णाणासममसंचिदपदेसा असंखे० गुणा । को गुण ० ? सेडीए असंखे ० भागो | तेजासरीरस्स णाणासमयसंचिदपदेसा अनंतगुणा । को गुण ० ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो | कम्म यसरी रस्स अवगाहन की अपेक्षा सबसे स्तोक हैं । मनोद्रव्यवर्गणायें अवगाहनाकी अपेक्षा असंख्यातगुणी है । भाषाद्रव्यवर्गणायें अवगाहनाकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं । तैजसशरीरद्रव्यवर्गणायें अवगाहना की अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं । आहारकशरीरद्रव्यवर्गणाये अवगाहनाकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं । क्रियिकशरीरद्रव्यवगंणायें अवगाहनाकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं । औदारिकशरीरद्रव्यवर्गणायें अवगाहनाकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ।
इन उराल पुद्गलों से हुआ है, इसलिए ओदारिक है । अथवा उराल, ज्येष्ठ और प्रधान ये एकार्थवाची शब्द है ।
शंका- उदार शब्द से उराल शब्दकी निष्पत्ति होनेपर औदारिकशरीरकी महत्ता कैसे बनती है ?
समाधान- क्योंकि यह निर्वृत्तिगमनका हेतु है और अठारह हजार शीलोंकी उत्पत्तिका निमित्त हैं, इसलिए इसकी महत्ता बन जाती है ।
उस उरालमें जो होता है वह औदारिक है । अथवा उराल ही औदारिक है ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
शंका- औदारिकशरीर अवगाहनाकी अपेक्षा ही शेष शरीरोंसे महान् है, प्रदेशा और विसोपचयों की अपेक्षासे नहीं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान - औदारिकशरीरके नाना समयों में संचित हुए प्रदेश सबसे स्तोक हैं | उनसे वैक्रियिकशरोरके नाना समयोंमें संचित हुए प्रदेश असंख्यातगुणे है । जगश्रेणिके असख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उनसे आहारकशरोरके हुए प्रदेश असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या ? जगश्रेणिके असंख्यातवें है । उनसे तैजसशरीर के नाना समयों में संचित हुए प्रदेश अनन्तगुणे हैं । अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है ।
गुणकार क्या है ? नाना समयों में संचित भागप्रमाण गुणकार
गुणकार क्या है ? उनसे कार्मणशरोरके
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३२४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, २३७
जाणासमयसंचिदपदेसा अणंतगणा । को गुण.? अभवसिद्धिएहि अणंतगणो सिद्धाणमणंतभागो। विस्सासुवचयं पडुच्च सम्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहण्णो विस्सासुवचओ । तस्सेवक्कस्सओ असंखे०गणो । को गण. ? पलिदो० असंखे०भागो । वेउव्वियसरीरस्स जहण्णओ विस्सासुवचओ अणंतगणो । को गुण ? सव्वजोवेहि अणंतगणो । तस्तेव उक्कस्सओ असंखे०गणो । को गण? पलिदो० असंखे०भागो। आहारसरीरस्स जहण्णओ विस्सासुवचओ अणंतगणो । को गुण० ? सव्वजोवेहि अणंतगणो। तस्सेव उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखे० गुणो । को गुण०? पलिदो० असंखेज्जदिभागो । तेजासरीरस्स जहण्णओ विस्सासुवचओ अणंतगणो । को गण० ? सव्वजीवेहि अणंतगणो। तस्सेवुक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखे० गणो। को गण? पलिदो० असंखे०भागो। कम्मइयसरीरस्स जहण्णस्स जहण्णओ* विस्सासुवचओ अणंतगणो । को गुण०? सव्वजोवेहि अणंतगणो । तस्सेव उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखे०गणो।को गुण? पलिदो? असंखे०भागो, एवम्हादो अप्पाबहुगादो णव्वदे सुत्तेण विणा एवं कुदो जव्वदे? बंधणगणाविभागपडिच्छेदप्पाबहुअसुत्तसिद्धत्तादो । तं जहासम्वत्थोवा ओरालियसरीरस्त अविभागपडिच्छेदा । वेउब्वियसरीरस्स अविभागपडिच्छेदा अणंतगणा । आहारसरीरस्स अविभागपडिच्छेवा अणंतगुणा । तेयासरीरस्स नाना समयोंमें संचित हुए प्रदेश अनन्तगुणे हैं। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनंतगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है। विस्रसोपचयकी अपेक्षा औदारिकशरीरका जघन्य विस्रसोपचय सबसे स्तोक है। उससे उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गणकार है। उससे वैऋियिकशरीरका जघन्य विस्रसोपचय अनंतगुणा है । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनंतगुणा गुणकार है। उससे उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनंतगुणा है। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उससे आहारकशरीरका जघन्य विस्रसोपचय अनंतगुणा है । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनंतगुणा गुणकार है। उससे उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उससे तैजसशरीरका जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है । उससे उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उससे कार्मणशरीरके जघन्यका जघन्य विस्रसोपचय अनंतगुणा है । गुणकार क्या है? सब जीवोंसे अनंतगुणा गुणकार है। उससे उसीके उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। इसे अल्पबहुत्वसे जाना जाता है ।
शंका-- सूत्रके बिना यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान-- यह अल्पबहुत्व बन्धनगुणके अविभागप्रतिच्छेदोंके अल्पबहुत्वका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रसे सिद्ध है। यथा औदारिकशरीरके अविभागप्रतिच्छद सबसे स्तोक हैं। उनसे वैक्रयिकशरीरके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। उनसे आहारकशरीरके अविभागप्रतिच्छेद
*ता० प्रती - सरीरस्स जहण्णओ' इति पाठः ।
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५, ६, २३८ )
योगद्दारे सरिसरीरपरूवणाए णामणिरुत्ती
( ३२५
अविभागपडिच्छेदा अनंतगुणा । कम्मइयसरीरस्स अविभागपडिच्छेजा अनंतगुणा । एवं कारगरसप्पाबहुअं विस्सासुवचयाणं कथं होदि ? ण, विस्तासुवचयमहिकिच्च परुविदअप्पा बहुअस्स अण्णहाभावविरोहादो । जहण्णादो उक्कस्सस्स असंखेज्जगुणत्तं कुवो सिद्ध ? अण्णहा जहणपत्तेयसरीरवग्गणादो उक्कस्सियाओ अनंतगुणत्तप्पसंगादो । ण च एदं, उक्कसपत्तेयसरीरवग्गणाए हेट्ठा जहण्णबादरणिगोदवग्गणाए उत्पत्तिपसंगादो । जहण्णविस्सासुवचयादो सत्थाणुक्कस्स विस्सासुवचओ अनंतगुणो त्ति सुत्तेण कथं दस्स विरोहो ? ण, जीवमुक्क पंचसरीरपरमाणु द्विदविस्सासुवचयमहिकिच्च तदपबहुअपउत्तीए । तदो ओरालियसरीरस्स ओगाहणादो चेव थूलत्तं घेत्तव्वं । fafaeइड्ढगुणजुत्तमिति वेउब्वियं ॥ २३८ ॥
अणिमा महिमा लहिमा पत्ती पागम्मं ईसित्तं वसित्तं कामरूवित्तमिच्चेवमादियाओ अणेयविहाओ इद्धीओ णाम । एदेहि इद्विगुणेहि जुत्तमिति काऊण वेउन्दियं त्ति भणिदं ।
अनन्तगुणे हैं। उनसे तैजसशरीर के अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। उनसे कार्मणशरीर के अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं ।
शंका-- यह कारणसम्बन्धी अल्पबहुत्व विस्रसोपचयोंका कैसे हो सकता है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, विस्रसोपचयको अधिकृत कर प्ररूपित किये गये अल्पबहुत्व के अन्यथारूप होने में विरोध है ।
शंका--- अपने जघन्यसे अपना उत्कृष्ट असंख्यातगुणा है यह किस प्रमाणसे सिद्ध है ? समाधान -- यदि ऐसा न माना जावे तो जघन्य प्रत्येकशरीरवर्गणासे उत्कृष्ट वर्गणा अनन्त गुणे होने का प्रसंग आता है । परन्तु यह है नहीं, क्योंकि, यह होनेपर उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणासे नीचे जघन्य बादर निगोदवर्गणाकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है ।
शंका-- जघन्य विस्रसोपचयसे स्वस्थानमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है इस सूत्र के साथ इस व्याख्यानका विरोध कैसे नहीं है ?
समाधान-- - नहीं, क्योंकि, जीवमुक्त पाँच शरीरोंके परमाणुओंपर स्थित हुए विस्रसोपचयको अधिकृत करके उस अल्पबहुत्वकी प्रवृत्ति होती है ।
इसलिए औदारिकशरीरका अवगाहनाकी अपेक्षा ही स्थूलपना ग्रहण करना चाहिए । विविध गुणऋद्धियोंसे युक्त है, इसलिए वैक्रियिक हैं ॥ २३८ ॥
अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्त्र, वशित्व और कामरूपित्व इत्यादि अनेक प्रकारकी ऋद्धियाँ हैं। इन ऋद्धिगुणोंसे युक्त है ऐसा समझकर वैक्रियिक है ऐसा कहा है ।
ॐ ता० प्रती ' विविहगुणजुत्तमिदि इति पाठ: 1
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३२६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६ २३९
णिवुणाणं वा णिण्णाणं वा सुहमाणं वा आहारवव्वाणं सुहमदरमिवि* आहारयं ॥२३९॥
___ असंजमनहुलदा आणाकणिढदा सगखेत्ते केवलिविरहो त्ति एवेहि तीहि कारणेहि साह आहारसरीरं पडिवज्जति । जल-थल-आगासेसु अक्कमेण सुहमजीवेहि दुष्परिहरणिज्जेहि आऊरिदेसु असंजमबहुलदा होदि । तप्परिहरणटुं हंसांसधवलमप्पडिहयं आहारवग्गणाक्खंधेहि णिम्मिदं हत्थमेत्तुस्सेहं आहारसरीरं साहु पडिवज्जंति । तेणेदमाहारपडिवज्जणमसंजदबहुलवाणिमित्तमिदि भण्णदि । अण्णा सिद्धंतो आगमो इदि एयट्ठो । तिस्से कणिटुदा सगखेत्ते थोवत्तं आणाकणिटुदा णाम । एवं बिदियं कारणं । आगमं मोत्तण अण्णपमाणाणं गोयरमइक्कमिदूण टुिदेसु दव्वपज्जाएसु संदेहे समुप्पणे सगसंदेहविणासणठ्ठ परखेत्तट्ठियसुदकेवलि केवलोणं वा पादमूलं गच्छामि ति चितविदूण आहारसरीरेण परिणमिय गिरि-सरि सायर मेरु कुलसेलपायालाणं गंतूण विणएण पुच्छिय विणटुसंदेहा होदूण पडिणियत्तिदूण आगच्छति त्ति भणिदं होइ । परखेत्तम्हि महामुणोणं केवलणाणप्पत्ती परिणिवाणगमणं परिणिक्खमणं वा तित्थयराणं तवियं कारणं । विउव्वणरिद्धिविरहिदा आहारलद्धिसंपण्णा साहू ओहिणाणेण सुदणाणेण वा देवागमचिशेण वा केवलणाणप्पत्तिमवगंतूण वंदणाभत्तीए
निपुण, स्निग्ध और सूक्ष्म आहारद्रव्योंमें सूक्ष्मतर है, इसलिए आहारक है ॥२३९॥
असंयमबहुलता, आज्ञाकनिष्ठता और अपने क्षेत्र में केवलिविरह इस प्रकार इन तीन कारणोंसे साधु आहारक शरीरको प्राप्त होते हैं । जल, स्थल और आकाशके एक साथ दुष्परिहार्य सूक्ष्म जीवोंसे आपूरित होने पर असंयमबहुलता होती है । उसका परिहर करने के लिए साधु हस और वस्त्र के समान धवल, अप्रतिहत, आहारवर्गणाके स्कन्धोंसे निर्मित और एक हाथप्रमाण उत्सधवाले आहारकशरीरको प्राप्त होते हैं। इसलिए यह आहारकशरीरका प्राप्त करना असंयमब हुलतानिमित्तक कहा जाता है। आज्ञा, सिद्धान्त और आगम ये एकार्थवाची शब्व हैं । उसकी कनिष्ठता अर्थात् अपने क्षेत्रमें उसका थोड़ा होना आज्ञाकनिष्ठता कहलाती है। यह द्वितीय कारण है। आगमको छोडकर द्रव्य और पर्यायोंके अन्य प्रमाणको विषय न होने पर तथा उनमें सन्देह होनेपर अपने सन्देहको दूर करने के लिए परक्षत्र में स्थित श्रुतकेवली कोर केवलीके पादमलमें जाता हूँ ऐसा विचार कर आहारकशरीररूपसे परिणमन करके गिरि, नदी, सागर, मेरुपर्वत, कुलाचल और पातालमें केवली और श्रुतकेवली के पास जाकर तथा विनयसे पूछकर सन्देहसे रहित होकर लौट आते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परक्षेत्र में महामुनियों के केवल ज्ञानकी उत्पत्ति और परिनिर्वाणगमन तथा तीर्थङ्करोंके परिनिष्क्रमणकल्याणक यह तीसरा कारण है । विक्रियाऋद्धिसे रहित और आहारकलब्धिसे युक्त साधु अवधिज्ञानसे या श्रुतज्ञानसे या देवोंके आगमन के विचारसे केवलजानकी उत्पत्ति जानकर वन्दनाभक्तिसे जा
विचार कर *म० प्रतिपाठोऽयम् प्रतिषु ' -दव्वाणं वा सुहुमदरमिदि' इति पाठ 1
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५, ६, २४० )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए णामणिरुत्ती
( ३२७
गच्छामि त्तिचितिदूण आहारसरीरेण परिणमिय तप्पदेस गंतूण तेसि केवलीणमसि च जिण-जिणहराणं वंदणं काऊण आगच्छंति ति भणिदं होदि । एवाणि तिणि वि कारणाणि अस्सिऊण घेप्पमाणआहारसरीरस्स णामणिरुत्ती वुच्चदे । तं जहागिउणा अण्हा मउआ त्ति भणि होदि । णिहा धवला सुगंधा सुट्ठ सुंदरा त्ति भणिदं होदि । अप्पडिहया सुहमा णाम । आहारदव्वाणं मज्झे णिउणदरं जिण्णदरं खंधं आहारसरीरणिप्पायणठं आहरदि घेण्हदि ति आहारयं । णिवण-णिण्णाणं कथं सुहमदरत्तं ? ण,? पढमावत्थं पेक्खिदूण तरतमपच्चयविसयाणं सुहुमदरत्तं पडि विरोहाभावाधो । अथवा आहारकद्रव्याणि प्रमाणानि, तेषां निपुणानां मध्ये अतिनिपुणं निष्णातानामति निष्णातं सूक्ष्माणामतिसूक्ष्ममाहरति परिछिन्नत्तीत्याहारकम् । पंचवण्णागमाहारसरीरपरमाणूणं कथं सुक्किलतं जुज्जदे ? ण, विस्सासुवचयवाण पडुच्च धवलत्तवलंभादो।
तेयप्पहगणजत्तमिदि तेजइयं ॥ २४० ॥ शरीरस्कन्धस्य पद्मरागमणिवर्णस्तेजः, शरीरान्निर्गत*रश्मिकलापः प्रभा, तत्र भवं
आहारकशरीररूपसे परिणमन कर उस प्रदेशमें जाकर उन केवलियोंकी और दूसरे जिनों व जिनालयोंकी वन्दना करके वापिस आते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इन तीनों ही कारणोंका अवलम्बन लेकर ग्रहण किये जानेवाले आहारकशरीरकी नामनिरुक्ति कहते हैं। यथा- निपुण अर्थात्. अण्हा ओर मृदु यह उक्त कथनका तात्पर्य है। स्निग्ध अर्थात् धवल, सुगन्ध, सुष्ठु और सुन्दर यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अप्रतिहतका नाम सूक्ष्म है। आहारद्रव्योंमें से आहारकशरीरको उत्पन्न करने के लिए निपुणतर और स्निग्धतर स्कन्धको आहरण करता है अर्थात् ग्रहण करता है, इसलिए आहारक कहलाता है।
शंका-- निपुण और स्निग्ध सूक्ष्मतर कैसे हो सकता है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, प्रथम अवस्थाको देखते हुए तर और तम प्रत्ययके विषयभूत पदार्थों के सूक्ष्मतर हाने में कोई विरोध नहीं आता ।
अथवा आहारकद्रव्य प्रमाण है। उनमेंसे निपुणोंमें अतिनिपुण. निष्णातोंमें अतिनिष्णात और सूक्ष्मों में अतिसूक्ष्मको आहरण करता है अर्थात् जानता है. इसलिए आहारक कहलाता है।
शंका-- आहारकशरीरके परमाणु पाँच वर्णवाले हैं। उनमें केवल शुक्लपना कैसे बन सकता है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, विस्रसोपचयके वर्णकी अपेक्षा धवलपना उपलब्ध होता है। तेज और प्रभारूप गुणसे युक्त है इसलिए तैजस है ।। २४० ॥ शरीरस्कंधके पद्मराग मणिके समान वर्णका नाम तेज है । तथा शरीरसे निकली हुई
* अप्रतो ' अण्णहा मउआ ' इति पाठः 1 0 म०प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु ' सुहुमदरं तण्ण इति
पाठः । अ-आ-प्रत्यो: ' विनिर्गत ' इति पाठ 1
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३२८)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २४१
तेजसं शरीरम् । तेजःप्रभागुणयक्तमिति यावत् । तं तेजइयसरीरं हिस्सरणप्पयमणिस्सरणप्पयं चेवि दुविहं । तत्थ जं तं हिस्सरणप्पयं तं दुविह-सुहमसुहं चेहि । संजदस्स उग्गचरित्तस्स दयापुरंगमअणकंपावरिवस्स इच्छाए दक्खिणांसावो हंससंखवण्णं हिस्सरिदूण मारीदिरमरवाहिवेयणादुब्भिक्खुवसग्गादिपसमणदुवारेण सम्वजीवाणं संजवस्स य ज सुहमुप्पादयदि तं सुहं णाम । कोधं गवस्स संजदस्स वामसादो वारहजोयणायामेण णवजोयणविक्खंभेण सूचिअंगुलस्स सखेज्जदिभागमेत्तबाहल्लेण जासवणकुसुमवण्णण णिस्सरिदूण सगक्खेत्तभंतरट्रियसत्तविणासं काऊण पुणो पविसमाणं तं जं चेव संजदमावरेदि * तमसुहं णाम । जं तमणिस्सरणप्पय तेजइयसरीरं तं भुत्तण्णपाणपाचयं होदूण अच्छदि अंतो।। सव्वकम्माणं परूहणुप्पादयं सुहदुक्खाणं बीजमिदि कम्मइयं ।२४१॥
कर्माणि प्ररोहन्ति अस्मिन्निति प्ररोहणं कार्मणशरीरम् । कूष्माण्डफलस्य वन्तवत सकलकाधारं कार्मणशरीरमिति यावत् । न केवलं सर्वकर्मोत्पत्तराधार एव किं तु सकलकर्मणामुत्पादकमपि कार्मणशरीर, तेन विना तदुत्पत्तेरभावात् । तत एव सुख-दुःखानां तद् बोजमपि, तेन विना तदसत्त्वाद् । एतेन नामकर्मावयवस्य
रश्मिकलापका नाम प्रभा है। इसमें जो हुआ है वह तैजसशरीर है। तेज और प्रभा गुणसे युक्त तैजसशरीर है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वह तेजसशरीर निःसरणात्मक और अनि:सरणात्मक इस तरह दो प्रकारका है। उसमें जो निःसरणात्मक तेजसशरीर है वह दो प्रकारका है- शुभ और अशुभ । उग्र चारित्रवाले तथा दयापूर्वक अनुकम्पासे आपूरित संयतके इच्छा होनेपर दाहिने कंधेसे हंस और शखके वर्णवाला शरीर निकलकर मारी, दिरमर, व्याधि, वेदना, दुभिक्ष और उपसर्ग आदिके प्रशमनद्वारा सब जीवों और सयत के जो सुख उत्पन्न करता है वह शुभ कहलाता है । तथा क्रोधको प्राप्त हुए संयतके वाम कधसे बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौडा और सूच्यंगलके सख्यातवें भागप्रमाण मोटा तथा जपाकुसुमके रंगवाला शरीर निकल कर अपने क्षत्रके भीतर स्थित हुए जीवोंका विनाश करके पुनः प्रवेश करते हए जो उसी सयतको व्याप्त करता है वह अशुभ तैजसशरीर है । जो अनिःसरणात्मक तैजसशरीर है वह भुक्त अन्न-पानका पाचक होकर भीतर स्थित रहता है।
सब कर्मोका प्ररोहण अर्थात् आधार, उत्पादक और सुख-दुःखका बीज है इसलिए कार्मणशरीर है ।।२४१॥
____ कर्म इस में उगते हैं इसलिए कामणशरीर प्ररोहण कहलाता है। कूष्मांडफलके वन्तके समान कार्मणशरीर सब कर्मोंका आधार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। कार्मणशरीर केवल सब कर्मोकी उत्पत्तिका आधार ही नहीं है। किन्तु सब कर्मोका उत्पादक भी है, क्योंकि उसके बिना उनको उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए वह सुखों और दुःखोंका भी बीज है, क्योंकि, उसके बिना
* ता. प्रती · संजद मारेदि ' इति पाठः। * ता. प्रतो ' सरीर भतण्ण गणपच्चयं' का० प्रती -सरीरं तं भत्तण्णगणपचयं 'इति पाठ'
J
ता० प्रती 'वत्तपत ' इति पाठ:
.
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५, ६, २४१ )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए णामणिरुत्ती
शरीरस्य प्ररूपणा कृता । साम्प्रतमष्टकर्मकलापस्य कार्मणशरीरस्य लक्षणप्रतिपादकत्वेन सूत्रमिदं व्याख्यायते । तद्यथा- भविष्यत्सर्वकर्मणां प्ररोहणमत्पादकं त्रिकालगोचराशेषसुख-दुःखानां बीजं चेतिर अष्टकर्मकलापं कार्मणशरीरम् । कर्मणि भवं कार्मणं कम्मैव वा कार्मणमिति कार्मणशब्दव्युत्पत्तेः ।
एवं णामणिरुति ति समत्तमणयोगद्दारं ।
उनका सत्त्व नहीं होता। इस द्वारा नामकर्मके अवयवरूप कार्मणशरीरकी प्ररूपणा की है। अब आठों कर्मों के कलापरूप कार्मणशरीरके लक्षण के प्रतिपादकपनेकी अपेक्षा इस सूत्रका व्याख्यान करते हैं । यथा- आगामी सब कर्मोका प्ररोहण, उत्पादक और त्रिकाल विषयक समस्त सुखदुःखका बीज है इसलिए आठों कर्मों का समुदाय कार्मणशरीर है, क्योंकि, कर्ममें हुआ इसलिए कार्मण है, अथवा कर्म ही कार्मण है इस प्रकार यह कार्मण शब्दकी व्युत्पत्ति है।
विशेषार्थ-- शब्दके व्युत्पत्तिलभ्य अर्थको निरुक्ति द्वारा प्रकट किया जाता है। यहाँ सर्व प्रथम पाँचों शरीरोंकी निरुक्ति दिखलाई गई है। यथा औदारिक शब्द उदार शब्दसे, वैक्रियिक शब्द विक्रिया शब्दसे, आहारक शब्द आहारसे, तैजस शब्द तेजससे और कार्मण शब्द कमसे बना है। उदार, उराल, महत् और स्थूल ये एकार्थवाची शब्द हैं। औदारिकशरीर अवगाहनाकी अपेक्षा अन्य शरीरोंसे बडा है प्रदेशोंकी अपेक्षा नहीं, इसलिए इसकी औदारिक संज्ञा है। यद्यपि सूक्ष्म एकेन्द्रियका औदारिकशरीरकी अवगाहनाकी अपेक्षा सूक्ष्म देखा जाता है फिर भी सब शरीरोंको ध्यान में लेकर विचार करने पर सबसे बडा यही शरीर सिद्ध होता है, इसलिए इसकी औदारिक संज्ञा है। अणिमा आदि जो आठ प्रकारकी ऋद्धियाँ हैं वे वैक्रियिकशरीरमें पाई जाती हैं। उनके कारण यह शरीर छोटा, बडा, हलका, भारी आदि विविध प्रकारकी विक्रिया करने में समर्थ होता है, इसलिए इस शरीरको वैक्रियिक कहते हैं। जो शरीर वैक्रियिकशरीर नामकर्मके उदयसे देवों और नारकियोंके होता है उसमें भी यह विशेषता पायी जाती है और जो शरीर मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके विक्रिया रूप प्रयोगविशेष के कारण होता है उसमें भी यह विशेषता पाई जाती है। आहारकशरीरको प्राप्ति प्रमत्तसंयतके होती है। इसका यह अर्थ है कि यह शरीर अपने कारण कूटके अनुसार यदि होगा तो प्रमत्तसंयतके ही होगा, अन्यके नहीं । एक तो यह शरीर आहार द्रव्यमें से सुन्दर, सुगन्ध और स्निग्ध आदि गुणोंसे युक्त वर्गणाओंसे बनता है, इसलिए इसकी आहारक संज्ञा है। दूसरे यह अतिसूक्ष्म आदि गुणयुक्त अर्थको आहरण करने में अर्थात् जानने में समर्थ है, इसलिए इसको आहारक संजा है । तैजस शरीर दो प्रकारका होता है- निकलने वाला और नहीं निकलनेवाला। निकलने वाला तैजसशरीर शुभ और अशुभ दो प्रकारका होता है । यह दोनों प्रकारका तेजसशरीर संयतके होता है। तथा नहीं निकलने वाला तेजसशरीर भुक्त अन्नपान के पाचन में समर्थ होता है। यह तेज और प्रभा गुणसे युक्त होता है, इसलिए इसे तैजस कहते हैं। नामकर्मकी ९३ प्रकृतियों में एक कार्मणशरीर प्रकृति है। उसके उदयसे ज्ञानावरणादि कर्म कार्मण संज्ञाको प्राप्त होते हैं । अथवा य सब ज्ञानावरणादि कर्म ही हैं, इसलिए इनकी कार्मण संज्ञा है । इस प्रकार औदारिक आदि पाँच शरीर हैं। इनके ये
४ अ० प्रती '-दुखानां जीवं चेति' इति पाठः ।
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३३०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २४२ पदेसपमाणाणुगमेण ओरालियसरीरस्स केवडियं पदेसग्गं ॥२४२।।
सेससरीरपडिसेहलो ओरालियसरीरणिद्देसो । संखेज्जा-संखेज्जाणंतसंखाओ तिणि गवणवमेवाओ केवडिए त्ति गिद्देसो सो अवेक्ख । दिदि-अणुभागादिपडि. सेहफलो पदेसग्गणिद्देसो । सेसं सुगमं । अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागा ॥ २४३ ॥
एदमोरालियसरीरस्स जहण्णेण उक्कस्सेण य पदेसग्गपमाणं सुत्तं परूवेदि। विस्सासवचयेहि सह घेप्पमाणे सव्वजोवेहि अणंतगणा ओरालियपरमाणू होति त्ति भणिदे ण, ओरालियसरीरणामकम्मोदएण जीवम्मि संबद्धपोग्गलाण चेव ओरालियसरीरत्तम्भवगमादो। ण च तत्थतणविस्सासुवचओ ओरालियणामकम्मणिदो, ओरा. लियणोकम्मणिद्ध ल्हक्खगणेण तत्थ तेसि संबंधादो। तम्हा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता चेव ओरालियसरीरपरमाणू होंति त्ति घेत्तन्वं ।
एवं चदुण्हं सरीराणं ॥ २४४ ।।
औदारिक आदि नाम गौण्य अर्थात् सार्थक नाम हैं। यहां इनकी नामनिरुक्ति कहनेका यही अभिप्राय है।
इस प्रकार नामनिरुक्ति अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। प्रदेशप्रमाणानुगमकी अपेक्षा औदारिकशरीरके कितने प्रदेशाग्र हैं। २४२ ॥
शेष शरीरोंका प्रतिषेध करने के लिए ' औदारिकशरीर' पदका निर्देश किया है । 'कितना है' पदका निर्देश नौ नौ भेदरूप संख्यात, असंख्यात और अनन्त इन तीन संख्याओंकी अपेक्षा करता है। स्थिति और अनुभाग आदिका निषेध करना प्रदेशाग्र पदके निर्देशका फल है। शेष कथन सुगम है।
अभव्योंसे अनन्तगणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं ।। २४३ ॥ यह सूत्र औदारिकशरीरके जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशप्रमाणका कथन करता है।
शंका - विस्रसोपचयोंके साथ ग्रहण करनेपर औदारिकशरीरके परमाणु सब जीवोंसे अनन्तगुणे होते हैं ?
समाधान - नहीं, क्योंकि औदारिकशरीर नामकर्मके उदयसे जीवमें सम्बन्धको प्राप्त हुए पुद्गलोंको ही औदारिकशरीररूपसे स्वीकार किया गया है। किंतु वहाँ रहनेवाला विस्रसोपचय
औदारिकशरीर नामकर्मके उदयसे नहीं उत्पन्न हुआ है, क्योंकि औदारिक नोकर्म के स्निग्ध और रक्षगुणके कारण वहाँ विस्रसोपचय परमाणुओंका सम्बन्ध हुआ है। इसलिए सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण ही औदारिकशरीरके परमाणु होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए ।
इसी प्रकार चार शरीरोंके प्रदेशाग्र होते हैं ।। २४४ ॥
४ प्रतिषु ' उवेक्खदे ' इति पाठः। 8 अप्रतो ' -मेत्तो चेव ' इति पाठ।।
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५, ६, २४६ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए समुक्कित्तणा ( ३३१
जहा ओरालियसरीरस्स परमाणपमाणं भणिदं तहा सेसचदुण्णं सरीराणं परमाणपमाणं वत्तव्वं, अभवसिद्धिएहितो अणंतगणतणेण सिद्धेहितो अणंतगणहोणत्तणेण भेदाभावादो । एवं पदेसपमाणाणुगमो समत्तमणयोगद्दारं ।
जिसेयपरूवणदाए तत्थ इमाणि छ अणुयोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति-समुक्कित्तणा पदेसपमाणाणुगमो अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा पदेसविरओ अप्पाबहुए ति ॥२४५॥
एदाणि छ चेव अणयोगद्दाराणि एत्थ होंति अण्णेसिमसंभवादो। एदेसि छण्हं पि जहाकमेण अणुयोगद्दाराणं परूवणा कीरदे
समुक्कित्तणवाए ओरालिय-वेउन्विय-आहारसरीरिणा तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण ओरालिय-वेउन्वियआहारसरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं गिसित्तं तं जीवे किंचि एगसमयमच्छदि किंचि बिसमयमच्छवि किचि तिसमयमच्छदि एवं जाव उक्कस्सेण तिणिपलिदोवमाणि तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमहत्तं ॥२४६॥
जिस प्रकार औदारिकशरीरके परमाणुओंका प्रमाण कहा है उसी प्रकार शेष चार शरीरोंके परमाणुओंका प्रमाण कहना चाहिए, क्योंकि, अभव्योंसे अनन्तगुणत्व और सिद्धोंसे अनन्तगुणहीनत्वकी अपेक्षा औदारिकशरीरके परमाणुओंसे शेष चार शरीरोंके परमाणुओंमें कोई भेद नहीं है। इसप्रकार प्रदेशप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
__ निषेकप्ररूपणाको अपेक्षा वहां ये छह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य -हैं समुत्कीर्तना, प्रदेशप्रमाणानुगम, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा प्रदेशविरच और अल्पबहुत्व ॥ २४५ ।।
यहाँ ये छह ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि, अन्य अनुयोयगद्वार यहाँ सम्भव नहीं हैं। अब क्रमसे इन छहों अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं---
समत्कीर्तनाको अपेक्षा जो औदारिकशरीरवाला, वैक्रियिकशरीरवाला और आहारकशरीरवाला जीव है, प्रथम समयमें आहारक हुए और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हए उसी जीवके द्वारा औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीररूपसे जो प्रदेशाग्न प्रथम समयमें बांधे गये हैं उनमेंसे कुछ प्रदेशाग्र जीवमें एक समय तक रहते हैं, कुछ दो समय तक रहते हैं, कुछ तीन समय तक रहते हैं । इस प्रकार क्रमसे उत्कृष्ट रूपसे तीन पल्य, तेतीस सागर और अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं ॥ २४६ ॥
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३३२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २४६ एत्थ ताव ओरालियसरीरमस्सिदूण सुत्तत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा-- ओरालियसरीरमेदस्स अस्थि ति ओरालियसरीरी तेण ओरालियसरीरिणा । पढमसमए चेव आहारो सरीरपाओग्गपोग्गलगहणं जस्स सो पढमसमयआहारओ तेण पढमसमयआहारएण । पढमसमयओरालियसरीरिणा ति भणि होदि । तेणेव गहणं किमठें कोरवे ? ओरालियसरीरी चेव ओरालियसरीरस्स पदेसरचणं कुणदि ण अण्णसरीरिणो त्ति जाणावणठें। तम्हि भवे द्विदो ति तब्भवत्थो पढमसमओ च तब्भवत्थो च पढमसमयतब्भवत्थो तेण पढमसमयतब्भवत्थेण । अविग्गहगदीए उपपणेणे त्ति भणिदं होदि, अण्णहा पढमसमयतब्भवत्थस्स पढमसमय आहारयत्तविरोहादो। तेण जीवेण ओरालियसरीरत्ताए ओरालियसरीरसरूवेण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं पढमसमयबद्धपदेसग्गं त्ति भणिदं होदि। तं जीवे किंचि एगसमयमच्छदि, णोकम्मस्स आबाधाभावेण पढमसमए णिसित्तस्स बिदियसमए चेव परिसदणवलंभादो* । किमट्टमेत्थ णत्थि आबाधा ? साभावियादो । किंचि बिसमयमच्छ दि बिदियट्टिदीए णिसित्तस्स तदियसमए चेव अकम्मभावलंभादो। किचि तिसमयमच्छदि, तदियट्रिदीए मिसित्तस्स चउत्थसमए अकम्मपरिणामदंसणादो । एवं जाव
__यहाँ सर्वप्रथम औदारिकशरीरका आश्रय लेकर सूत्रके अर्थका कथन करते हैं। यथाऔदारिकशरीर जिसके होता है वह औदारिकशरीरी कहलाता है, उस औदारिकशरीरके द्वारा । प्रथम समयमें ही आहार अर्थात् शरीरके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण जिसके होता है वह प्रथम समयवर्ती आहारक कहलाता है, उस प्रथम समयवर्ती आहारके द्वारा । प्रथम समयवर्ती औदारिकशरीरवाले जीवके द्वारा यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-- सूत्र में तेणेव ' पदका ग्रहण किसलिए किया है ?
समाधान--औदारिकशरीरवाला ही औदारिकशरीरकी प्रदेशरचना करता है अन्य शरीरवाले नहीं इस बात का ज्ञान कराने के लिए ' तेणेव ' पदका ग्रहण किया है।
उस भवमें जो स्थित है वह तद्भवस्थ कहलाता है। प्रथम समयवर्ती जो तद्भवस्थ वह प्रथम समय में तद्भवस्थ है, उस प्रथम समयवाले तद्भवस्थके द्वारा । अविग्रहगतिसे उत्पन्न हुए जीवके द्वारा यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि, ऐसा नहीं मानने पर प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुए जीवका प्रथम समयमें आहारक होने में विरोव है। उस जीवके द्वारा 'ओरालियशरीरत्ताए अर्थात् औदारिकशरीररूपसे जो प्रथम समय प्रदेशाग्र निषिक्त किया है । अर्थात् प्रथम समयम जो प्रदेशाग्र बाँधा गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वह जीवमें कुछ एक समय तक रहता है, क्योंकि, नोकर्मकी आबाधा नहीं होने से प्रथम समय में निषिक्त हुए प्रदेशाग्रका दूसरे समय में ही क्षय देखा जाता है।
शंका--यहां आबाधा किस कारणसे नहीं है ? समाधान--क्योंकि, ऐसा स्वभाव है।
कुछ दो समय तक रहता है, क्योंकि, जो द्वितीय स्थितिमें निषिक्त हुआ है उसका तीसरे समयमें ही अकर्मपना देखा जाता है। कुछ तीन समय तक रहता है, क्योंकि, तृतीय स्थितिम
*आ० प्रती ' परिसदाणवलंभादो ' इति पाठः ]
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५, ६ २४६, ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए समुक्कित्तणा उक्कस्सेण किंचि तिणि पलिदोवमाणि अच्छदि, तदुवरिमसमए तस्स अकम्मभावदंसणादो। एवं वेउविवयसरीरस्स वि वत्तव्वं । णवरि तत्थ किचि तेत्तीसं सागरोवमाणि उक्कस्सेण अच्छदि त्ति वत्तव्वं । एवमाहारसरीरस्स वि समक्कित्तणा कायव्वा । णवरि एवं जाव उक्कस्सेण अंतोमहत्तमच्छदि त्ति वत्तवं । बिदियादिसमएसु वि एवं चेव पदेसरचणा कायव्वा । निषिक्त हुए प्रदेशाग्रका चतुर्थ समय में अकर्मरूप परिणाम देखा जाता है । इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे कुछ तीन पल्य काल तक रहता है, क्योंकि, उससे अगले समयमें उसका अकर्मभाव देखा जाता है। इसी प्रकार वैक्रियिकशरीरका भी कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वहाँ कुछ उत्कृष्ट रूपसे तेतीस सागर काल तक रहता है ऐसा कथन करना चाहिए । इसी प्रकार आहारकशरीरकी समुत्कीर्तनाका भी कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है की इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे वह अन्तर्महर्त काल तक रहता है ऐसा यहाँ कथन करना चाहिए । द्वितीय आदि समयों में भी इसी प्रकार प्रदेश रचना करनी चाहिए।
विशेषार्थ-- जिस शरीरके प्रथमादि समयोंमें जितने परमाणु मिलते हैं उनका अपनी अपनी आयुस्थिति के अनुसार बटवारा होकर उनमें से जिनकी जितनी स्थिति पडती है उतने काल तक वे रहते हैं। उदाहरणार्थ तीन पल्यकी आयुवाले किसी मनुष्यने प्रथम समय में ही तद्भवस्थ होकर औदारिकशरीरके परमाणुओंको ग्रहण करके उन्हें तीन पल्यके जितने समय हैं उनमें बाँट दिया तो इनमें से जिनकी स्थिति एक समय है वे एक समय तक रह कर निर्जीर्ण हो जाते हैं। जिनकी स्थिति दो समय है वे दो समय तक रह कर निर्जीर्ण हो जाते हैं । इसी प्रकार क्रमसे एक एक समय बढते हुए तीन पल्यके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यह प्रथम समयमें ग्रहण किये गये परमाणुओंकी अपेक्षासे विवेचन किया है। आहारक होनेके दूसरे समयमें जिन परमाणुओंका ग्रहण होता है उनकी निषेक रचना प्रथम समयसे नहीं होती। क्योंकि, इनके लिए प्रथम समय गत हो चुका है। इसी प्रकार तृतीयादि समयों में ग्रहण किय गये परमाणुओंके विषय में भी जानना चाहिए । यहाँ दो बातें खासरूपसे समझने की हैं। प्रथम तो यह कि नोकर्म की आबाधा नहीं होती, इसलिए इसकी निषेक रचना उसी समयसे होती है जिस समयमें उसको ग्रहण किया है । और दूसरी बात यह कि नोकर्मकी स्थिति भुज्यमान आयुके अनुसार होती है और इसलिए जिसकी जितनी भवस्थिति होती है या शेष रहती है ग्रहण किये गये नोकर्मकी उतनी ही स्थिति पडती है।
विशेष खुलासा इस प्रकार है- जो औदारिक आदि तीन शरीरोंके लिए वर्गणायें आती हैं उनमें से जिसकी जितनी स्थिति है उसके अनुसार उनकी निषेक रचना होती है। निषेक शब्द नि उपसर्ग पूर्वक सिच् धातुसे बना है जिसका अर्थ सिञ्चन करना है। अर्थात् अपनी अपनी स्थितिके प्रत्येक समय में वर्गणाओंको देना निषेक रचना है। यहां सर्व प्रथम औदारिक और वैक्रियिक इन दो शरीरोंकी निषेक रचनाके सम्बन्ध में विचार करना है। जो जीव एक पर्यायको छोडकर दूसरी पर्यायको ग्रहण करता है वह यदि विग्रहगति में स्थित होता है तो उसके विग्रहगतिमें रहते हुए अपनी अपनी पर्याय के अनुसार औदारिक आदि तीन शरीरके योग्य वर्गणाओंका ग्रहण नहीं होता, क्योंकि, उसके यथासम्भव औदारिकशरीर और वैक्रियिकशरीर नामकर्मका उदय नहीं होता। किन्तु जब ऐसा जीव यथासम्भव एक, दो या तीन मोडोंको पारक र अवस्थित होता है तब उसके इन नामकर्मों का उदय होता है और तभी यह जीव इन शरीरोंके योग्य वर्गणाओंको ग्रहण करता है । अर्थात् यदि वह मनुष्य और तिर्यंच है तो उसके औदारिकशरीर
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३३४ )
छवखंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २४६
नामकर्मका उदय होता है और इसलिए वह औदारिकशरीरके योग्य नोकर्म वर्गणाओंको ग्रहण करता है । तथा यदि देव और नारकी है तो उसके वैक्रियिकशरीर नामकर्मका उदय होता है। और इसलिए वह वै क्रियिकशरीर के योग्य नोकर्मवगंणाओं को ग्रहण करता है । सूत्रमें प्रथम समय आहारक और प्रथम समय तद्भवस्थ कहनेका यही तात्पर्य है । अब देखना है कि इस प्रकार जो ओदारिक और वैक्रियिकशरीरके योग्य वर्गणाओंका प्रथमादि समयों में ग्रहण होता है उनकी निषेकरचना किस प्रकार होती है । सूत्रमें कहा है कि प्रथम समयमें जो वगंणायें ग्रहण की हैं उनमें से कुछको प्रथम समय में निषिक्त करता है, कुछको द्वितीय समय में निषिक्त करता है । इस प्रकार प्रत्येक समय में निषिक्त करता हुआ अपनी अपनी स्थिति के अन्तिम समय तक निषिक्त करता है और फिर इसके बाद सूत्र में औदारिकशरीरकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य और वैक्रियिकशरीरकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर बतलाई है सो इसका इतना ही अभिप्राय है कि मनुष्यों और तिर्यंचोंके क्षुल्लकभवग्रहणसे लेकर तीन पल्यके भीतर तथा देव और नारकियों के दस हजार वर्षसे लेकर तेतीस सागर से भीतर जिसकी जितनी आयुके अनुसार भवस्थिति हो उसके अनुसार उसके शरीर के लिए ग्रहण किये गये परमाणुओंकी निषेकरचना होती है । उदाहरणार्थ कोई मनुष्य सौ वर्ष की आयु लेकर ऋजुगतिसे उत्पन्न हुआ तो उसके प्रथम समय में औदारिकशRaat जिन वर्गणाओंका ग्रहण होगा उनमें से कुछ वर्गणाओंकी एक समय स्थिति पडेगी, कुछ वर्गraat दो समय स्थिति पडेगी और कुछ वर्गणाओंकी तीन समय कुछकी चार समय आदिसे लेकर सौ वर्ष प्रमाण स्थिति पडेगी । कर्मवर्गणाओंके ग्रहण होने पर आबाधा कालको छोड़कर उनकी अपनी स्थिति के अनुसार निषेक रचना होती है उस प्रकार इन दो शरीरोंकी बात नहीं है, क्योंकि, इनका भोग प्रथम समयसे ही होने लगता हैं, इसलिए स्वभावतः निषेक रचना भी इसी क्रम से होती है। यह तो प्रथम समय में ग्रहण किये गये पुद्गलोंका विचार हुआ । द्वितीयादि समयों में जो नोकर्म वर्गणायें आती हैं उनकी निषेक रचना भी इसी प्रकार जाननी चाहिए। मात्र वहाँ आयु में एक समय आदि कम हुआ है इसलिए उनकी निषेक रचना जिस समय में जितनी स्थिति शेष रहती है उसके अनुसार होती हैं । अर्थात् उक्त मनुष्य दूसरे समय में औदारिकशरीर के योग्य जिन वर्गणाओं का ग्रहण करेगा उनको निषेक रचना एक समय कम सौ वर्ष के जितने समय होंगे तत्प्रमाण करेगा । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए। यह तो ओदारिक और वैक्रियिकशरीर के सम्बन्ध में विचार हुआ । आहारकशरीरकी निषेकरचना तो इसी प्रकार होतो है । मात्र इसके निषेकोंकी रचना भवस्थिति कालप्रमाण न होकर आहारकशरीरके अवस्थितिकालप्रमाण होती है, क्योंकि, आहारकशरीरका ग्रहण प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ जीव नहीं करता । किन्तु इसकी प्राप्ति संयत जीवके होती है, इसलिए जिस समय से संयत जीव आहारकशरीरके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है उस समयसे लेकर आहारकशरीर के समाप्तिकाल तक जो अन्तर्मुहूर्त काल लगता है उतने समयोंमें इस शरीर के योग्य पुद्गलोंकी निषक रचना करता है । शेष सब व्यवस्था पूर्ववत् जाननी चाहिए । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि यद्यपि संयत जीव आहारकशरीरको उत्पन्न करते समय नवीन पर्याय धारण नहीं करता फिर भी उसका उतने काल तक औदारिकशरीरसे योगक्रियाका सम्पर्क छूट कर आहारकशरीरसे संपर्क स्थापित होता है । उसी प्रकार छह पर्याप्तियोंकी पूर्णता आदि विधि होती है, इसलिए इसके एक तरह से अन्य पर्यायका ग्रहण ही है । यही देखकर इस शरोरकी निषेक रचना का विवान करते हुए भी प्रथम समय में आहारक हुआ और प्रथम समय में तद्भवस्थ हुआ यह विशेषण लगाया है। इस प्रकार
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५, ६, २४७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए समुक्कित्तणा ( ३३५
तेयासरीरिणा तेयासरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं णिसितं तं जीवे किंचि एगसमयमच्छदि किंचि बिसमयमच्छदि किंचि तिसमयमच्छदि एवं जाव उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि ॥२४७॥
एगजोगमकाऊण किमळं पुधभदभेदं सुत्तं वच्चदे ? ण, पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्येण णिसेगरचणा कीरदे त्ति एत्थ णियमाभावादो। अणादिसंसारे हिंडंतस्स जीवस्स जत्थ कत्थ वि टाइगुण तेजइयसरीरमेत्तपदेसरचणवलंभादो। सेसं सगमं, पुव्वसुत्तत्थेण विसेसाभावादो।
कम्मइयसरीरिणा कम्मइयसरीरत्ताए जं पदेसग्गं णिसित्तं तं किंचि जीवे समउत्तरावलियमच्छदि किंचि विसमउत्तरावलियमच्छदि किंचि तिसमउत्तरावलियमच्छवि एवं जाव उक्कस्सेण कम्मछिदि त्ति ॥२४८॥
एत्थ कम्मदिदि ति* वृत्ते सत्तरिसागरोवमकोडाकोडी घेत्तवा, अट्टकम्मकलावस्स कम्मइयसरीरत्तब्भवगमादो । जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं किंचि जीवे समउत्तराइन औदारिक आदि तीन शरीरोंकी निषेक रचना किस प्रकार होती है इसका विचार किया ।
तैजसशरीरवाले जीवके द्वारा तैजसशरीररूपसे जो प्रदेशाग्र प्रथम समयम बांधे जाते है उनमेंसे कुछ जीवमें एक समय तक रहता है, कुछ दो समय तक रहता है और कुछ तीन समय तक रहता है। इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे छयासठ सागर काल तक रहता है ।। २४७ ॥
शंका- एक सूत्र न करके यह सूत्र अलगरूपसे किसलिए कहा है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रथम समयमें आहार करनेवाला और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुआ जीव निषेक रचना करता है इस प्रकारका यहाँ कोई नियम नहीं है तथा अनादिसे संसारमें घूमते हुए जीवके जहाँ कहीं भी स्थापित करके तैजसशरीरकी प्रदेश रचना उपलब्ध होती है । शेष कथन सुगम है, क्योंकि, पूर्वके सूत्रार्थसे इसमें कोई विशेषता नहीं है ।
___ कार्मणशरीरवाले जोवके द्वारा कार्मणशरीररूपसे जो प्रदेशाग्र बांधे जाते हैं उनमेंसे कुछ जीवमें एक समय अधिक आवलि प्रमाण काल तक रहता है, कुछ दो समय अधिक आवलिप्रमाण काल तक रहता है और कुछ तीन समय अधिक आवलिप्रमाण काल तक रहता है। इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे कर्मस्थिति प्रमाण काल तक रहता है ।। २४८।।
यहाँ पर कर्मस्थति ऐसा कहने पर सत्तर कोडाकोडी सागरका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, आठों कर्मों के समुदायको कार्मणशरीररूपसे स्वीकार किया है। प्रथम समयमें जो प्रदेशाग्र
* म०प्रतिपाठोऽयम् । ता० प्रती ' कम्मटुिंदि त्ति ||१८०॥ ( कम्मट्ठिदि त्ति- ) वुत्ते ' अ०का० प्रत्योः एत्थ कम्मट्रिदि ति ' इति पाठो नास्ति ।
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३३६ )
छवखंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६.२४९
वलियमच्छदि, बंधावलियादिक्कत मोकडिदूण समयाहियावलियाए उदए पादिदस्स दुसमाहियआवलियाए अकम्मभावदंसणादो । एदं अत्थपदं लक्षूण उवरि सव्वत्थ वत्तव्वं । एवं समुक्कित्तणा ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
पदेसपमाणानुगमेण ओरालिय- वेउब्विय- आहारसरीरिणा तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण ओरालिय- वेउब्विय- आहारसरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं केवडिया ।। २४९ ।। एदं पुच्छासुतं अनंतादिसंखमवेक्खदे । केवडिया इदि बहुवय णणिद्देसो पदेसग्गगदबहुत्तावेक्खो ।
अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमनंतभागो ।। २५० ।।
निषिक्त होता है उसमें से कुछ जीवमें एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण काल तक रहता है, क्योंकि, बन्धावलि के बाद द्रव्यका अपकर्षण करके एक समय अधिक आवलिरूप उदय समयम लाये गये द्रव्यका दो समय अधिक आवलिके अन्तिम समय में अकर्मपना देखा जाता है । इस अर्थपदको ग्रहण करके आगे सर्वत्र कहना चाहिए ।
विशेषार्थ - तेजसशरीर और कार्मणशरीर सन्ततिकी अपेक्षा अनादि सम्बन्धवाले हैं । भवके परिवर्तन के साथ जिस प्रकार औदारिक और वैक्रियिक शरीर बदल जाते हैं उसप्रकार ये नहीं बदलते । विग्रहगति में इनकी परम्परा चालू रहती है, इसलिए इन दोनों की निषेक रचना प्रथम समय में आहरण करनेवाले और प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए जीवके द्वारा प्रारम्भ नहीं कराई गई है । किन्तु बन्धकी अपेक्षा कहीं भी प्रथम समय मान कर शरीरोंकी निषेकरचनाका विधान किया है । तैजसशरीरका शेष विचार औदारिक आदि तीन शरीरोंकी समान है । मात्र कार्मणशरीरकी निषेकरचना और अवस्थितिकाल में कुछ विशेषता है । तात्पर्य यह है कि कार्मणशरीरकी निषेकरचना आबाधा कालको छोड़ कर होती है । तथा कोई भी निषेक बन्धकाल से लेकर कमसे कम एक समय एक आवलि प्रमाण काल तक अवश्य ही अवस्थित रहता है । शेष विचार अन्यत्र से जान लेना चाहिए ।
इस प्रकार समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
प्रदेशप्रमाणानुगमकी अपेक्षा जो औदारिकशरीरवाला, वैक्रियिकशरीरवाला और आहारकशरीरवाला जीव है, प्रथम समयमें आहार करनेवाले और प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए उसी जीवके द्वारा औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर रूप से जो प्रदेशाग्र प्रथम समय में निषिक्त होते हैं वे कितने हैं |२४९| यह पृच्छासूत्र अनन्त आदि संख्या की अपेक्षा करता है । तथा 'केवडिया' इस प्रकार बहुवचनका निर्देश प्रदेशाग्रगत बहुत्वकी अपेक्षा करता है ।
अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है || २५० ॥
प्रतिषु 'धवलादियादि-' इति पाठ 1 प्रतिषु 'मुवेक्खदे' इति पाठा ]
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५, ६, २५६ )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसपमाणाणुगमो
एदेण संखेज्जासंखेज्जाणं पडिसेहो कदो। सेसं सुगमं ।
जं विदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं केवडिया । २५१ । अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो । २५२ । जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं केवडिया ॥ २५३ ॥ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो ॥ २५४ ॥ एदाणि सुत्ताणि तिण्णं पि सरीराणं परिवाडीए जोजेयवाणि ।
एवं जाव उक्कस्सेण तिण्णिपलिदोवमाणि तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहुत्तं ।। २५५ ॥
एवं तिष्णिं पि सरीराणं टिदि पडि णिसित्तपदेसाणं परिवाडीए पमाणपरूवणा कायव्वा । ओरालियसरीरस्स जावुक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि त्ति, वेउवियसरीरस्स तेत्तीसं सागरोवमाणि त्ति, आहारसरीरस्स अतोमहत्तं ति ।
तेजा-कम्मइयसरीरिणा तेजा-कम्मइयसरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं णिसितं तं केवडिया ।। २५६ ।।
इसके द्वारा संख्यात और असंख्यातका प्रतिषेध किया है। शेष कथन सुगम है । जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमें निषिक्त होता है बह कितना है ।। २५१ ॥ अभव्योंसे अनन्तगणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है ॥ २५२ ॥ जो प्रदेशाग्र तृतीय समयमें निषिक्त होता है वह कितना है ।।२५३॥ अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है ॥२५४॥ इन सूत्रोंकी तीनों ही शरीरोंके विषयमें यथाक्रमसे योजना करनी चाहिए ।
इसप्रकार उत्कृष्टरूपसे तीन पल्य, तेत्तीस सागर अन्तर्मुहूर्त काल तकके निषेकोंका प्रमाण जानना चाहिए ।।२५५॥
इसप्रकार तीनों ही शरीरोंकी स्थितिके प्रति निषिक्त हुए प्रदेशोंकी प्रमाणप्ररूपणा यथाक्रमसे करनी चाहिए । यथा- उत्कृष्टरूपसे औदारिकशरीरके तीन पल्यप्रमाण, वैक्रियिकशरीरके तेतीत सागरप्रमाण और आहारकशरीरके अन्तर्महुर्त प्रमाण काल तक विषिक्त हुए प्रदेशोंकी प्रमाण प्ररूपणा करनी चाहिए।
तैजसशरीरवाले और कार्मणशरीरवाले जीवके द्वारा तैजसशरीर और कार्मण शरीररूपसे जो प्रदेशाग्र प्रथम समय में निषिक्त होता है वह कितना है ॥२५६।।
४ ता० प्रती · जोजे यत्रो ( ब्याणि ) ' इति पाठः ।
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३३८)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, २५७
अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो॥२५७॥ जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं केवडिया ॥२५८॥ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो ॥२५९।। जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं केवडिया ॥२६०।। अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो ॥२६॥
एवं जाव उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि कम्मट्ठिदी ॥२६२॥ एवाणि सुत्ताणि सुगमाणि । वरि तेजइयसरीरस्स छावट्टिसागरोवमाणि कम्मइयसरीरस्स कम्मदिदी घेत्तव्वा । तेजा-कम्मइयसरीराणं पढमसमयाहारपढमसमयतब्मवत्थविसेसणाभावादो पुधजोगो कदो । एसा दिवि पडि णिसित्तपरमाणणं पंचसरीराणि अस्सिऊण जा पमाणपरूवणा कदा । सा किमेगसमयपबद्धमस्सिदूण कदा आहो जाणासमयपबद्धे अस्सिदण कदा त्ति? एगसमयपबध्दमस्सिदूण कदा । जदि एगसमयपबध्वमस्सिदूण* कदा तो कम्मइयसरीरस्स आबाधं मोत्तण जं पढमसमए
अभव्योंसे अनन्तगणा और सिध्दोंके अनन्तवें भागप्रमाण है ।। २५७ ।। जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमें निषिक्त होता है वह कितना है ।। २५८ ।। अभव्योंसे अनन्तगणा और सिध्दोंके अनन्तवें भागप्रमाण है ॥ २५९ ॥ जो प्रदेशाग्र तृतीय समयमें निषिक्त होता है वह कितना है । २६० । अमव्योंसे अनन्तगुणा और सिध्दोंके अनन्तवें भागप्रमाण है । २६१ ।
इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे छयासठ सागर और कर्मस्थिति तकके निषेकोंका प्रमाण जानना चाहिए ॥२६२ ।।
ये सूत्र सुगम हैं। इतनी विशेषता है कि तैजसशरीरकी छयासठ सागरप्रमाण और कार्मण शरीरकी कर्मस्थितिप्रमाण स्थिति लेनी चाहिए। तेजसशरीर और कार्मणशरीरके प्रथम समयमें आहारक हुए और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुए ये दो विशेषण नहीं होने से अलगसे सूत्ररचना की है। यह प्रत्येक स्थितिके प्रति निषिक्त होनेवाले परमाणुओंकी पाँच शरीरोंका आश्रय लेकर उत्पन्न होनेवाली प्ररूपणा की है।
शंका- वह क्या एक समयप्रबद्धका आश्रय लेकर की है या नाना समय प्रबद्धोंका आश्रय लेकर की है?
समाधान- एक समयप्रबद्धका आश्रय लेकर की है। शंका- यदि एक समयप्रबद्धका आश्रय लेकर की है तो कार्मणशरीरका आबाधाको
* ता. प्रतो 'एगसमयमस्सिदूण ' इति पाठ: 1
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५, ६, २६३ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए अणंत रोवणिधा (३३९ पदेसगं णिसित्तं तं केत्तियमिदि जं भणिदं तं कथं घडदे । ण एस दोसो, आबाधं मोत्तण णिसेगद्विदीसु जा पढमा दिदी तिस्से तत्थ गहणादो। अथवा जाणासमयपबद्धे अस्सिदूण एसा परूवणा कायव्वा । ण च ओकड्डकडुणाहि एत्थ पदेसाणं विसरिसत्तं, सेचीयमस्सिदूण परूविज्जमाणे विसरिसत्ताभावादो। एवं पदेसपमाणाणगमो त्ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
___अणंतरोवणिधाए ओरालिय-वेउविय-आहरसरीरिणा तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्येण ओरालिय-वेउग्विय-आहारसरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुअं ॥२६३॥
आहारसरीरस्स पढमसमयतब्भवत्थविसेसेणं कथं जुज्जदे ? एस दोसो, ओरालियसरीरं छंडिण आहारसरीरेण परिणदस्स अवांतरQगमणमथि त्ति पढ़मसमयतब्भवत्थविसेसणुववत्तीदो। तिण्णं सरीराणं सगसगकम्मट्टिदोणं पढमसमए जं मिसित्तं पदेसग्गं तं बहुगं होदि उवरि णिसिंचमाणदिदीणं पदेसेहितो ।
छोड़ कर प्रथम समय में जो प्रदेशाग्र निषिक्त होता है वह कितना है ऐसा जो कहा है वह कैसे घटित होता है ?
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आबाधाको छोड़कर निषेकस्थितियों में जो प्रथम स्थिति है उसका वहां ग्रहण किया है।।
___ अथवा नाना समयप्रबद्धोंका आश्रय लेकर यह प्ररूपणा करनी चाहिए। यदि कहा जाय कि अपकर्षण और उत्कर्षणके निमित्तसे यहां परमाणुओंकी विसदृशता हो जायगी सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, सिंचनका आश्रय लेकर कथन करनेपर विसदृशताका अभाव है।
इस प्रकार प्रदेशप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा जो औदारिक शरीरवाला, वैक्रियिकशरीरवाला और आहारकशरीरवाला जीव है, प्रथम समयमें आहारक हुए और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुए उसी जीवके द्वारा औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीररूपसे जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें निषिक्त होता है वह बहुत है ।। २६३ ।।
शंका-आहारकशरीरका 'प्रथमसमयतद्भवस्थ' विशेषण कैसे बन सकता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, औदारिकशरीरको छोड़ कर आहारकशरीर रूपसे परिणत हुए जीवका अवान्तरगमन है, इसलिए 'प्रथमसमयतद्भवस्थ' विशेषण बन जाता है।
तीन शरीरोंका अपनी अपनी कर्मस्थितियोंके प्रथम समय में जो प्रदेशाग्र निषिक्त होता है वह आगेकी स्थितियों में प्राप्त होनेवाले प्रदेशोंसे बहुत होता है।
* ता० प्रती · णिसेगटिदीए जा पढमहिठदी ' इति पाठ।। अवंतर- ' इति पाठः ।
अ०का०प्रत्यो। परिणदस्स
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३४० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २६४
जं बिवियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं ।। २६४॥
केत्तियमेत्तेण ? णिसेगमागहारेण पढाणसेगं खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तेण । केत्तियमेत्तो एत्थ णिसेगभागहारो? दोगणहाणिमेत्तो। गणहाणिपमाणं केत्तियं ? ओरालिय-वेउम्विय-आहारसरीराणमंतोमहत्तं । तेजइय-कम्मइयसरीराणं पुण गुणहाणिपमाणं पलिदोवमस्स असंखे० भागो।।
जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं ॥ २६५ ।।
केत्तियमेत्तेण? सगसगणिसेयभागहारेहि रूवणेहि सगसगबिदियणिसेगेसु खंडिदेसु तत्थ एगखंडमेत्तेण ।
जं चउत्थसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं ।। २६६ ॥
केत्तियमेत्तेण ? सगसगणिसेयमागहारेहि दुरूवूणेहि सगसगतदियणसेगेसु खंडिदेसु तत्थ एगखंडमेत्तेण । एवं णिसेयभागहारो तिरूवणचदुरूवणादिकमेण यवो जाव* पढमगणहाणि ति । पुणो उवरि णिसेगभागहारो चेव होदि। तत्तो उवरि रूवणादिकमेण यन्वो।
जो द्वितीय समयमें प्रदेशाग्र निषिक्त होता है वह विशेषहीन है । २६४ ।
कितना हीन है ? निषेकभागहारसे प्रथम निषेकको भाजित करने पर जो एक भाग प्राप्त होता है उतना हीन है।
शंका-- यहाँ निषेकभागहार कितना है ? समाधान-- दो गुणहानिमात्र है। शंका-- गुणहानिका प्रमाण कितना है।
समाधान-- औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरकी गुणहानिका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है। परन्तु तैजसशरीर और कार्मणशरीरकी गुणहानिका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
जो तृतीय समयमें प्रदेशाग्र निषिक्त होता है वह विशेषहीन है । २६५ ।
कितना हीन है ? एक कम अपने अपने निषेकभागहारसे अपने अपने द्वितीय निषेकके भाजित करने पर वहाँ जो एक भाग लब्ध आवे उतना हीन है।
जो चतुर्थ समयमें प्रदेशाग्र निषिक्त होता है वह विशेषहीन है । २६६ ।
कितना हीन है ? दो कम अपने अपने निषेकभागहारसे अपने अपने तृतीय निषेकके भाजित करने पर वहाँ जो एक भाग लब्ध आवे उतना हीन है । इस प्रकार प्रथम गुणहानिके अन्त तक निषेकभागहार तीन कम और चार कम आदि क्रमसे ले जाना चाहिए। पुन: ऊपर निषेकभागहार ही होता है। फिर वहाँ ऊपर एक कम आदि क्रमसे ले जाना चाहिए ।
४ का प्रतो ।जाव ' इत आरभ्य टीकागतपाठो नोपलभ्यते ।
* ता० प्रती होदि ] ' तत्थ उवरि ' इति पाठः ।
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५, ६, २७१ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए अणंतरोवणिधा ( ३४१
एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि अंतोमुहत्तं ॥२६७॥
एदाओ तिणि वि ट्ठिदीओ जहाकमेण तिण्णं णोकम्माणं जोजेयव्वाओ
तेजा-कम्मइयसरीरिणा तेजा-कम्मइयसरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुअं ॥२६८॥
जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीण ॥२६९॥ जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं ॥२७०॥
एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि कम्मट्ठिदी ॥२७१॥
एत्थ तेजइयसरीरस्स परूवणे कीरमाणे जहा ओरालियसरीरस्स णिसेयपमाणपरूवणा कदा तहा कायवा, आबाधाभावं पडि विसेसाभावादो । वरि एत्थ णिसेगभागहारो पलिदोवमस्स असंखे०भागो। कम्मइयसरीरस्स पुणो सत्तवाससहस्साणि आबाधं मोत्तूण जं पढमसमए णिसित्तं तं बहुअं । जं बिवियसमए णिसित्तं
इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे तीन पल्य, तेतीस सागर और अन्तर्मुहूर्तके अन्त तक विशेष हीन प्रदेशाग्र निषिक्त होता है ।। २६७ ॥
ये तीनों स्थितियाँ यथाक्रमसे तीन नोकर्मों के लिए योजित कर लेनी चाहिए ।
तैजस शरीर और कार्मण शरीरवाले जीवके द्वारा तैजस शरीर और कार्मण शरीररूपसे जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें निषि क्त होता है वह बहुत है ।। २६८ ॥
जो द्वितीय समयमें प्रदेशाग्र निषिक्त होता है वह विशेष हीन है ।। २६९ ॥ जो तृतीय समयमें प्रदेशाग्र निषिक्त होता है वह विशेष हीन है ।। २७० ॥
इस प्रकार छयासठ सागर और कर्मस्थितिके अन्त तक विशेष हीन प्रदेशान निषिक्त होता है ॥ २७१ ॥
यहां तेजस शरीरकी प्ररूपणा करनेपर जिस प्रकार औदारिकशरीरकी निषेक प्रमाणप्ररूपणा की है उस प्रकारसे करनी चाहिए, क्योंकि, आबाधाके अभावके प्रति औदारिकशरीरसे यहाँ कोई विशेषता नहीं है । इतनी विशेषता है कि यहाँ पर निषेकभागहार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। परन्तु कार्मणशरीरका सात हजार वर्षप्रमाण आबाधाको छोडकर जो प्रदेशाग्र आबाधाके बाद प्रथम समययें निषिक्त होता है वह बहुत है। जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमें
"ता०प्रतो 'परूवणा कीरमाणे ' इति पाठ।।
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३४२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २७१ तं विसेसहीणं । केत्तियमेत्तेण? णिसेगमागहारमेतेण पढमणिसेगे खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तेण । एत्थ णिसेगभागहारो केत्तिओ ? दोगुणहाणिमेत्तो। गुणहाणिपमाणं केत्तियं? पलिदो० असंखे० भागो । जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं एगगोवच्छविसेसमेत्तेण। एवं यन्वं जाव कम्मढिविचरिमसमओ त्ति । अटुकम्मकलावे कम्मइयसरीरे संते एगसमयपबद्धं गाणासमयपबद्धे वा अस्सिदूण अणंतरोवणिधा ण सक्कदे वोत्तुं। तं जहा-ताव णाणासमयपबद्ध अस्सिदण अणंतरोवणिधा वोत्तं सक्किज्जदे । कुदो ? जेण कसायपाहुडे एगसमयपबद्धस्स कम्मढिदिणिसित्तस्स समयाहियावलियप्पहुडि गिरंतरमणसमयवेदगकालो लभदि पलिदो० असंखे० भागमेत्तो । पुणो तदणंतरउवरिमसमयमादि कादूण तस्समयपबद्धस्स अवेदगकालो होदि । जहण्णेण एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागमेत्तो णिरंतरमवेदगकालो होदि । एवमेगसमयपबद्धस्स वेदग-अवेदगकालाणि गच्छंति जाव कम्मद्विदिचरिमसमओ त्ति । जहा कम्मट्टिदीए एगसमयपबद्धस्स वेदगकालो सांतरो णिरंतरो च होदि तहा सेससव्व समयपबद्धाणं वेदगकालेण सांतरेण णिरंतरेण च होदव्वं, समयपबध्दत्तं पडि भेदाभावादो। तम्हा कम्मट्टिदीए णिसित्तसव्वसमयपबध्दाणं पदेसा गोवुच्छागारेण
निषिक्त होता है वह विशेष हीन है। कितना हीन है ? निषेकभागहारसे प्रथम निषेकके भाजित करने पर वहां जो एक भाग लब्ध आवे उतना हीन है।
शंका-- यहाँ निषेकभागहारका प्रमाण कितना है ? समाधान-- दो गुणहानिमात्र उसका प्रमाण है। शंका-- गुणहानिका प्रमाण कितना है ? समाधान-- गुणहानिका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागमात्र है ।
जो तृतीय समयमें प्रदेशाग्र निषिक्त होता है वह एक गोपुच्छ विशेष मात्र विशेष हीन है। इस प्रकार कर्मस्थितिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए ।
शंका-- आठों कर्मोके समुदायरूप कार्मणशरीरके होनेपर एक समयप्रबद्ध या नाना समयप्रबद्धोंका आश्रय लेकर अनन्तरोपनिधाका कथन करना शक्य नहीं है। यथा-नाना समयप्रबद्धोंका आश्रय लेकर तो अनंतरोपनिषाका कथन करना इसलिए शक्य नहीं है, क्योंकि, यतः कषायप्राभूतमें कर्मस्थितिमें निषिक्त हुए एक समयप्रबद्धका एक समय अधिक आवलिसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक प्रत्येक समयमें निरंतर वेदककाल प्राप्त होता है। पुनः तदनंतर उपरिम समयसे लेकर उस समय प्रबद्ध का अवेदक काल होता है। जघन्य रूपसे एक समय तक और उत्कृष्टरूपसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निरन्तर अवेदक काल होता है। इस प्रकार एक समयप्रबद्धकी कर्मस्थितिके अन्तिम समय तक निरन्तर वेदककाल और अवेदककाल होते हुए जाते हैं। जिस प्रकार कर्मस्थिति में एक समयप्रबद्ध का वेदककाल सांतर और निरन्तर होता है उसी प्रकार शेष सब समयप्रबद्धोंका वेदककाल सांतर और निरंतर होना
चाहिए, क्योंकि, समयप्रबद्धपनेकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं है। इसलिए कर्मस्थितिमें निषिक्त
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५, ६, २७१ ) बंषणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए अणंतवणिधा ( ३४३ णिरंतरं णो अच्छंति। तेण संचयमस्सिदूण अणंतरोवणिधाणिए संभवो पत्थि । एग. समयपबद्धमस्सिदूण वि अणंतरोवणिधाए ण संभवो अस्थि । कुदो? सव्वकम्मपढमणि. सेयाण मेत्यथ संभवाभावादो सव्वकम्मचरमणिसेयाणमेयदिदीए णिवावाभावादो च । तं जहा- कम्मट्टिदिपढमसमयप्पहुडि उवरि दसवस्ससदाणि गंतूण हस्स-रदिपुरिसवेवदेवगइ-देवगइपाओगाणुपुस्वि-समचउरसंठाण बज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणपसत्यविहायगइ-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर आवेज्ज-जसगित्ति--उच्चागोव पण्णासहं (दसियाणं) पयडोणं पढमणिसेया* होंति। तत्तो उवरि बेवस्ससदाणि गंतूण बिदियसंठाग बिवियसंघडणाणं बारसियाणं बेपयडीणं पढमणिसेया होंति । पुचिल्लजिसेयकलावादो संपहियणिसेयकलाओ संखेज्जभागभहिओ। १५, १७ । तत्तो उवरि वेवस्ससदाणि गंतूण तदिय-संठाणतदियसंघडणबेपयडीणं चोद्दसियाणं पढमणिसेया णिवदंति १९ । ताधे असंखेज्जगणहीणतं फिट्टिदूण णिसेयकलावस्स संखे०भाग
भहियत्तं होदि । तदो वस्ससदमुवरि गंतूण मणुसगइ-मणसगइपाओग्गाणुपुग्विइत्थिवेद-सादावेदणीयपयडीणं पण्णारसियाणं पढमणिसेया होंति २३ । ताधे णिसेगो संखेज्जभागब्भहिओ होदि । चउत्थसंठाण-चउत्थसंघडणपयडीणं सोलसियाणं तत्तो उवरि वस्ससदं गंतूण पढमणिसेया होंति २५ । ताधे णिसेयकलाओ
हुए सब समयप्रबद्धोंके प्रदेश गोपुच्छाकाररूपसे निरन्तर नहीं रहते है । इसलिए संचयका माश्रय लेकर अनन्तरोपनिधा सम्भव नहीं है । तथा एक समयप्रबद्धका आश्रय लेकर भी अनन्तरोपनिधा सम्भव नहीं है, क्योंकि, सब कर्मों के प्रथम निषेक यहाँ सम्भव नहीं हैं तथा सब कर्मोंके अन्तिम निषेकोंका एक स्थितिमें मिपात नहीं होता। यथा-कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर ऊपर एक हजार वर्ष जाकर हास्य, रति, पुरुषवेंद, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, समचतुरस्र संस्थान,वज्रर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति और उच्चगोत्र इन पन्द्रह दसिय प्रकृतियों के प्रथम निषेक होते हैं १५ । वहाँसे ऊपर दो सौ वर्ष जाकर द्वितीप संस्थान और द्वितीय संहनन इन बारसिय दो प्रकृतियोंके प्रथम निषेक होते हैं १७ । पहलेके निषेककलापसे साम्प्रतिक निषेककलाप संख्यातवें भागप्रमण अधिक होता है । वहांसे ऊपर दो सौ वर्ष जाकर तृतीय संस्थान और तृतीय संहनन इन चोदसिय दो प्रकृतियों के प्रथम निषेक निपतित होते हैं १९ । तब असंख्यात गुणहीनत्व मिटकर निषेककलापका सख्यातवां भाग अधिक होता है । वहाँसे सौ वर्ष पर जाकर मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी, स्त्रीवेद और सातावेदनीय इन पन्द्ररसीय प्रकृतियोंके प्रथम निषेक होते हैं २३ । तब निषेक संख्यातवें भाग अधिक होता है। वहाँसे सौ बर्ष ऊपर जाकर चतुर्थ सस्थान और चतुर्थ संहननके प्रथम निषेक होते हैं २५ । तब निषेककलाप संख्यातवें भागप्रमाण अधिक
४ प्रतिष 'अणंतरोवणिधाणिसेगं एग-' इति पाठ।। ताप्रती 'णिसेयाण मेत्थ' इति पाठः ता०प्रतो 'उच्चागोदसोलसण्हं ( दसियाणं ) पयडीणं पढमणिसेया ' आ० प्रती उच्चगोद तित्थयर कम्मद्विदिणिसेया ' मा०प्रती ' उच्चागोदसोलसहं पयडीणं पढमणिसेया' इति पाठा)
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३४४ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, २७१
डण
संखेज्जभागब्भहिओ होदि । तत्तो उवरि बेवस्ससदाणि गंतूण पंचमसंठाण- पंचमसंघ- बीइंदिय-तीइंदिय - चउरिदिय- सुहुम-अपज्जत्त--साहारणपयडीणमट्ठा रसियाणं पढमणिसेया पदंति ३३ | ताधे णिसेयकलावो संखेज्जभागब्भहिओ होदि । तत्तो बेवस्ससदाणि उवरि गंतून अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-णवंसयवेद-निरयगड- निरयगइपाओग्गापुवि-तिरिक्ख गइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि एइंदिय पंचिदियजादि-तेजाकम्मइयसरीर-ओरालियस रीर-ओरालियस रीरंगोवंग वे उब्वियसरोर - वेडव्वियसरीरंगोवंग इंडसंठाण -- असंपत्त से वट्टसंघडण - वण्ण-गंध रस फास अगुरुअलहुअ - उबघादपरघाद - उस्सास- अप्पसत्यविहायगइ आदावुज्जोव-यावर तस- बादर- पज्जत्त- पत्तेयसरीरअथर असुह- मग दुस्सर- अणादेज्ज - अजसकित्ति- णिमिणणीचागोदपयडीणं वीसियाणं पढमणिसेया पदति ७६ । ताधे णिसेयकलावो संखेज्जेहि भागेहि अब्भहिओ होदि । तत्तो उवरि दसवस्ससदमेत्तमद्वाणं गंतूण पंचणाणावरणीय जवदंसणावरणीय असादावेदणीय पंचंत रायपयडीणं तीसियाणं पद्मणिसेया पदंति ९६ । ताधे णिसेयकलाओ संखेज्जभागन्महियो होदि । तत्तो उवरि दसवस्ससदमेत्तमद्वाणमुवरि गंतूण सोलसकसायाणं पढमणिसेया पदति ११२ । ताधे णिसेककलावो संखेज्जभागन्महिओ होदि । तदो उवरिमसंखेज्जभागहीणकमेण तिण्णि वस्ससहस्साणि गंतूण मिच्छत्तस्स पढमणिसेयो पददि ११३ | पदिदे वि असंखेज्जभागहाणी चेव, देसघादिकम्मपदे से हितो
होता है। उससे ऊपर दो सौ वर्ष जाकर पञ्चम संस्थान, पञ्चम संहनन, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन अठारसीय प्रकृतियोंके प्रथम निषेक होते हैं ३३ | तब निषेककलाप संख्यातवें भागप्रमाण अधिक होता है। वहाँसे दो सौ वर्ष ऊपर जाकर आरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नपुंसकवेद, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तियंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, पंचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिकशरीर, औदारिकआंगोपांग, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकआंगोपांग, हुंडसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, आतप, उद्योत, स्थावर, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र इन वीसिय प्रकृतियोंके प्रथम निषेक पडते हैं ७६ । तब निषेककलाप संख्यातवें भाग प्रमाण अधिक होता है | वहाँसे एक हजार वर्ष प्रमाण स्थान आगे जाकर पाँच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, असातावेदनीय और पाँच अन्तराय इन तीसिय प्रकृतियोंके प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं ९६। तब निषेककलाप संख्यातवें भागप्रमाण अधिक होता है। वहाँसे ऊपर एक हजार वर्षप्रमाण स्थान जाकर सोलह कषायोंके प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं ११२। तब निषेककलाप संख्यातवें भागप्रमाण अधिक होता है। वहांसे ऊपर असंख्यात भागहीन क्रमसे तीन हजार वर्ष जाकर मिथ्यात्वका प्रथम निषेक प्राप्त होता है ११३। उसके वहाँ पडने पर भी असंख्यात भागहानि ही होती है, क्योंकि, देशघातिकर्मोंके प्रदेशोंसे मिथ्यात्व और बारह कषायरूप सर्वघाति कर्मों के
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* अ० का० प्रत्यो । संखेज्जगुण महियो' इति पाठ 1
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( ३४५
योगद्दारे सरीरपरूवणाए अनंतरोवणिधा
५, ६, २७१ ) मिच्छत्त- बारसकसायाणं सव्वधादीणं पदेसस्स अनंतगुणहोणत्तुवलंभादो । ण च देसघादी मेगगोवृच्छविसे सस्स अनंतिमभागे पविदे णिसेयस्स विसेसाहियत्तं जुज्जदे, विरोहादो । उवरि जत्थ दसियाणं णिसेयरचणा थक्कदि ततो उवरिमअणंतरणिसेओ संखेज्जदिभागहीणो । एवमुवरि जत्थ जत्थ पयडीणं णिसेयरचणा थक्कवि तत्थ तत्थ जिसेयो संखेज्जमागहीणो संखेज्जगुणहीणो च होदित्ति वत्तव्वं । एवं चत्तालीससारोमको डाकोडीओ उवरि गंतूण जावुवरिमअणंतरद्विदी तिस्से गोवुच्छो अनंतगुहो होदि । तत्तो उवरि सव्वत्थ असंखेज्जभागहीणो, तेण एगसमयपबद्धमस्सि
विणाणतरोवणिधा वोत्तुं सक्किज्जदे ? एत्थ परिहारो उच्चवेण ताव पढमपरूविवदोससम्भवो, सेचीयादो मिच्छत्तसंचयगोबुच्छाए अनंतरोवणिधाए भण्णमानाए सम्वत्थ विसेसहीणत्तवलंभादो। ण बिदियपक्खे उत्तदोसो वि संभवदि, मिच्छत्तमेक्क चेव घेत्तूण अनंतरावणिधाणिरूवणादो । किमट्ठ तं चेवेक्कं घेप्पदे ? अण्णासि पयडोणं द्विदि पडि पहाणत्ताणुवलंभादो । अथवा कम्मट्ठदित्ति उत्ते अटुहं कम्माणं पुध पुध द्विदीओ घेतब्बाओ । एवं गहिदे ण पुग्वृत्तदोससंभवो, सव्वकम्माणं सगसगजहणणिसेगट्टि दिपहुडि जाव तगसगुक्कस्सद्विवित्ति पुध पुध णिसेयरयणाए परूविदत्तादो । एवमणंतरोवनिधा ससत्ता ।
प्रदेश अनन्तगुणं हीन उपलब्ध होते हैं। यदि कहा जाय कि देशघातियों के एक गोपुच्छ विशेष के अनन्तवें भाग के पतन होने पर विषेकका विशेष अधिकपना बन जाता है सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा होने में विरोध आता है । ऊपर जहाँ दसियोंकी निषेकरचना समाप्त होती है उससे उपरिम अनन्तर निषेक संख्यातवें भागप्रमाण हीन होता है। इस प्रकार ऊपर जहाँ जहाँ प्रकृतियोंकी निषेक रचना है वहाँ वहाँ निषेक संख्यात भागहीन और सख्यातगुणहीन होता है ऐसा कहना चाहिए। इस प्रकार चालीस कोडाकोडी सागर ऊपर जाकर जो उपरिम अनंतर स्थिति है उसका गोपुच्छ अनन्तगुणा हीन होता है । वहाँसे ऊपर सर्वत्र असख्यात भागहीन है, इसलिए एक समयप्रबद्धका आश्रय करके भी अनन्तरोपनिधाका कथन करना शक्य नहीं है । समाधान -- यहाँ पर परिहारका कथन करते हैं- प्रथम पक्षमें कहे गए दोषोंकी तो सम्भावना है नहीं, क्योंकि, सेचीयरूपसे मिथ्यात्व के संचयकी गोपुच्छा के अनन्तरोपनिधारूपसे कथन करने पर सर्वत्र विशेष हीनपना पाया जाता है। द्वितीय पक्षमें कहा गया दोष भी संभव नहीं है, क्योंकि, एक मिथ्यात्वको ही ग्रहण करके अनन्तरोपनिधाका कथन किया है ।
शंका-उस एकको ही किसलिए ग्रहण करते हैं ?
समाधान - क्योंकि, अन्य प्रकृतियोंकी स्थितिके प्रति प्रधानता उपलब्ध होती है ।
अथवा कर्मस्थिति ऐसा कहने पर आठों कर्मोंकी पृथक् पृथक् स्थितियाँ ग्रहण करनी चाहिए। ऐसा ग्रहण करने पर पूर्वोक्त दोष सम्भव नहीं है, क्योंकि, सब कर्मोंकी अपनी अपनी जघन्य निषेकस्थिति से लेकर अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक अलग अलग निषेक रचनाका
ता० प्रतो' उत्तअट्ठण्हं' अ० प्रती ' वृत्तं अट्ठण्णं' का० प्रती ' वृत्तअट्टण्णं इति पाठ ! [
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३४६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, २७२ परंपरोवणिधाए ओरालिय-वेउब्वियसरीरिणा तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण ओरालिय-वेउव्वियसरीरत्ताए जं पढमसमयपदेसग्गं तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण दुगुणहीणं ॥ २७२ ॥
__ एदाणि दोण्हं सरीराणं जं भवस्स पढमसमए णिमित्तं पदेसग्गं तं पेक्खिदूण कथन किया है।
विशेषार्थ- अनन्तरोपनिधामें प्रथम स्थानसे द्वितीय स्थानमें, तथा इसी प्रकार द्वितीय आदि स्थानोंसे तृतीय आदि स्थानोंमें कितनी हानि या वृद्धि होती है इसका विचार किया जाता है। यहाँ कर्मके प्रसंगसे निषेक रचनाका विचार करना है । नोकर्मोके समान उसके सम्बन्धम सामान्य नियम यह तो है ही कि प्रथम स्थितिमें जो प्रदेशाग्र मिलता है उससे द्वितीयादि स्थितियों में वह उत्तरोत्तर हीन मिलता है। पर कितना हीन मिलता है इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिए सूत्रकारने यह व्यवस्था दी है कि प्रथम समयमें जो प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है वह बहुत है। उससे दूसरे समयमें जो प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है वह विशेष हीन है । उससे तीसरे समय में जो प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है वह विशेष हीन है । इस प्रकार विशेष हीन का यह क्रम कर्मकी अन्तिम स्थिति तक जानना चाहिए । इस पर शंकाकारका यह कहना है कि इस प्रकार जो अनन्तरोपनिधा बतलाई है वह न तो नानासमयप्रबद्धोंका आश्रय लेकर बन सकतो है और न एक समयप्रबद्धका आश्रय लेकर ही बन सकती है। कषायप्राभतमें जो वेदक और अवेदककाल
या है उसे देखते हए तो नानासमयप्रबद्धोंकी अपेक्षा उक्त प्रकारसे अनन्तरोपनिधा नहीं बन सकती । यदि एक समयप्रबद्धको अपेक्षा यह अनन्तरोपनिधा मानी जाय तो यह मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि. एक तो मल और उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा प्रत्येक कर्मकी अपनी अपनी स्थितिके अनुसार अलग अलग आबाधा पडती है, दूसरे एक समय में आए हुए द्रव्यका बटवारा सर्वघाति और देशघातिरूपसे विभाग होकर भिन्न भिन्न प्रकारसे होता है, इसलिए न तो सब कर्मोकी निषेकरचना एक स्थानसे प्रारम्भ हो सकती है और न समानक्रमसे विभाग होकर सब कर्मोको द्रव्य ही मिल सकता है। अतः प्रथम स्थितिके प्रदेशाग्रसे द्वितीय स्थितिका प्रदेशाग्र, द्वितीय स्थिति के प्रदेशाग्रसे तृतीय स्थिति का प्रदेशाग्र विशेष हीन होता है इत्यादि क्रम नहीं बन सकता । यह मूल शंका है। इस शंकाका जो समाधान किया है उसका सार यह है कि यहाँ जो अनन्तरोपनिषाका कथन किया है वह एक समयमें आठों कर्मों और उनकी उत्तर प्रकृतियोंके लिए जो द्रव्य मिला है उस सबको मिलाकर कथन वहीं किया गया है किन्तु मिथ्यात्वको या अलग अलग प्रकृतिको ध्यान में रख कर ही यहां अनन्त रोपनिधाका कथन किया गया है, इसलिए शंकाकारने जो आपत्तियां उठाई हैं उनका परिहार हो जाता है ।
___ इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई। परम्परोपनिधाको अपेक्षा जो औदारिकशरीरवाला और वैक्रियिकशरीरवाला जीव है, प्रथम समयमें आहारक हुए और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुए उसी जीवके द्वारा औदारिकशरीर और वैक्रियिकशरीररूपसे जो प्रथम समयमें प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है उससे अन्तर्मुहूर्त जाकर वह दुगणा हीन होता है।। २७२ ॥
इन दोनों शरीरोंका भवके प्रथम समयमें जो प्रदेशाग्र निषिक्त होता है उसे देखते हुए
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५, ६, २७४ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए परंपरोवणिधा (३४७ तत्तो अंतोमहत्तमवरि गंतूण णिसित्तं पदेसगं दुगुणहीणं होदि। किं पमाणमंतोमहत्तं? जिसेगमागहारस्स अद्धमेतं । पुणो दुगणहीणणिसेगावो उवरि तत्तियं चेव अवट्टिदमद्धाणं गंतूण जो अण्णो णिसेयो सो तत्तो दुगणहीणो होदि ।
एवं दुगुणहीणं दुगुणहीण जाव उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि ॥ २७३ ।।
___ अप्पिनअप्पिदगणहीणणिसेगादो उवरि अवट्टिदअंतोमहत्तमद्धाणं गंतूण द्विवणिसेगो दुगणहीणो होदि ति घेतव्वं । अवट्टिरमाणमिदि कथं णवदे ?' एवं' णिद्देसावो । एवं एवेण कमेण यन्वं जाव तिण्णं पलिदोवमाणं तेत्तीसं सागरोवमाणं चरिमदिदि ति । एगगुणहाणिअद्धाणपरूवणट्ठ+ णाणागुणहाणिसलागाणं पमाणपरूवणठं च उत्तरसुत्तमागदं--
एगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमंतोमुहुत्तं जाणापदेसगुणहाणिट्ठाअंतराणि पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो ॥ २७४ ॥
उससे अन्तर्मुहुर्त प्रमाण काल ऊपर जाकर वहांकी स्थितिमें निषिक्त हुमा प्रदेशाग्र दुगुणा हीन होता है।
शंका-- यहाँ अन्तर्मुहूर्तका क्या प्रमाण है ? समाधान - निषेक भागहारके अर्धभागप्रमाण है ।
पुनः द्विगुण हीन निषेकसे ऊपर उतना ही अवस्थित अध्वान जाकर जो अन्य निषेक है वह उससे दुगुणा हीन है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे तीन पल्य और तेतीस सागर होने तक दुगुणा हीन होता गया है ।। २७३ ॥
उत्तरोत्तर विवक्षित दुगुणे हीन निषेकसे ऊपर अवस्थित अन्तर्मुहूर्त अध्वान जाकर स्थित हुआ निषेक दुगुणा हीन होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए ।
शंका-- सर्वत्र अवस्थित अध्वान है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- ' एवं ' पदके निर्देशसे जाना जाता है।
इस प्रकार इस क्रमसे तीन पल्य और तेतीस सागरको अन्तिम स्थितिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । अब एक गुणहानिअध्वानका कथन करनेके लिए और नाना गुणहानि शलाकाओंके प्रमाणका कथन करने के लिए आगेका सत्र आया है..
एकप्रवेशगुणहानिस्थानान्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है तथा नानाप्रदेशगणहानिस्थानान्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ २७४ ।।
४ ता० प्रतो 'णिद्देसादो । एवं एदेण ' इति पाठः। * प्रतिषु '-अद्धाणं परूवणहूँ ' इति पाठ: 1
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
३४८)
( ५, ६, २७५ गुणहाणिट्ठाणंतरमंतोमुत्तमिदि सुत्तादो चेव गव्ववे, जुत्तिगोचरमइच्छिदूण द्विवत्तादो। णाणागुणहाणिसलागपमाणं पुण सुत्तादो जत्तीदो च नव्वदे । तं जहाअंतोमहत्तस्स जदि एगगणहाणिसलागा लब्भवि तो तिण्णं पलिदोवमाणं तेत्तीस सागरोवमाणं च कि लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिविच्छाए ओट्टिवाए जाणापदेसगुणहाणिढाणंतराणि पलिदो० असंख० भागमेत्ताणि लब्भंति । एदेसि थोवबहुत्तपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि
एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं थोवं ॥ २७५ ॥ कुदो ? अंतोमहत्तपमाणत्तादो।
णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि ॥ २७६ ॥ को गुणगारो ? पलिदो० असंखे०भागो।
आहारसरीरिणा तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्येण आहारसरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं तदो अतोमुहुत्तं गंतूण दुगुणहीणं ॥२७७॥
ओरालिय-उब्धियसरीरेहि सह आहारसरीरस्स परूवणा किण्ण कदा, अंतोमहत्तं गंतूण दुगुणहीणत्तं पडि भेदाभावादो ? ण, गणहाणिसलागसंखगदभेद
गुणहानिस्थानान्तर अन्तर्मुहुर्तप्रमाण है यह बात सूत्रसे ही जानी जाती है, क्योंकि, वह युक्तिकी विषयताका उल्लंघन कर स्थित है। परन्तु नानागुणहानिशलाकाओंका प्रमाण सूत्र और युक्ति दोनोंसे जाना जाता है । यथा-अन्तर्मुहुर्तकी यदि गुणहानिशलाका प्राप्त होती है तो तीन पल्य और तेतीस सागरोंकी कितनी गुणहानिशलाकायें प्राप्त होंगी, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाण राशिका भाग देने पर नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण लब्ध होते हैं । अब इनके अलबहुत्वका करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं।
एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर स्तोक है ।। २७५ ।।
क्योंकि, वह अन्तर्मुहुर्तप्रमाण है। उससे नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं ।। २७६ ।।
गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
जो आहारकशरीरवाला जीव है, प्रथम समयमें आहारक हुए और प्रथम समय में तद्भवस्थ उसी जीवके द्वारा आहारकशरीररूपसे जो प्रथम समयमें प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है उससे अन्तर्मुहूर्त जाकर वह दुगुणा हीन होता है ।। २७७ ।।
__ शंका-औदारिकशरीर और वैक्रियिकशरीरके साथ आहारकशरीरकी प्ररूपणा क्यों नहीं की, क्योंकि, अन्नर्मुहूर्त स्थान जाकर दुगुणा हीन होता है इस अपेक्षासे इनके कथन में कोई भेद
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योगद्दारे सरीरपरूवणाए परंपरोवणिघा
५, ६२८१, )
परूवणट्ठं पुध सुत्तारंभकरणादो ।
एवं दुगुणहीणं बुगुणहीणं जावुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २७८ ॥ अवट्टिवगुणहाणिअद्धाणमिदि जाणावणट्ठ एवं निद्देसो कदो, अण्णहा तस्स निष्फलत्तप्पसंगादो ।
( ३४९
एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमंतोमुहुत्तं णाणापवेसगुणहाणि-ट्ठाणंतराणि संखेज्जा समया ॥ २७९ ॥
तदो अंतीमहत्तं गंतूण पदेसगं दुगुणहीणं होदि त्ति एदेण सुत्तेण जाणाविदस्स गुणहाणि अद्धाणपमाणस्स पुणो वि एत्थ परूवणा किमट्ठ कीरदे ? तत्तो णाणागुणहाणिसला गाणं पमाणमागच्छदित्ति जाणावणट्ठ कीरदे । तं जहा - अंतोमुहुत्तस्स जदि एगा गुणहाणिसलागा लब्भवि तो आहारसरीरेण सह अच्छणकालभंतरे केत्तियाओ लभामो त्ति प्रमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए संखेज्जाओ णाणागुणहाणिस लागाओ लब्भंति ।
नाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि ॥ २८० ॥
कुदो ? संखेज्जत्तादो 1 एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ २८१ ॥
नहीं है ।
समाधान -- नहीं, क्योंकि, गुणहानिशलाकाओंके संख्यागत भेदका कथन करनेके लिए अलगसे सूत्रका आरम्भ किया है ।
1
इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होने तक दुगुणा हीन दुगुणा हीन होता गया है | २७८ गुणहानिअध्वान अवस्थित है, इस बातका ज्ञात करानेके लिए ' एवं पदका निर्देश किया है, अन्यथा उसके निष्फल होनेका प्रसंग आता है ।
एक प्रदेश गुणहानिस्थानान्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यात समयप्रमाण है ।। २७९ ।।
शंका--' उससे अंतर्मुहूर्त जाकर प्रदेशाग्र दुगुणा हीन होता है ' इस प्रकार इस सूत्र द्वारा गुणहानि अध्वान के प्रमाणका ज्ञान हो जाता है, इसलिए पुनः इसकी प्ररूपणा किसलिए करते हैं ? समाधान -- उससे नानागुणहानिशलाकाओंका प्रमाण आता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए उसकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- अंतर्मुहूर्तकी यदि एक गुणहानिशलाका प्राप्त होती है तो आहारकशरीर के साथ रहने के कालके भीतर वे कितनी प्राप्त होंगी, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छा राशि में प्रमाणराशिका भाग देने पर संख्यात नानागुणहानिशलाकायें प्राप्त होती हैं । नानाप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं ।। २८० ॥
क्योंकि, उनका प्रमाण संख्यात है ।
उनसे एक प्रवेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ।। २८१ ॥
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३५०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २८२ को गुण ? अंतोमहत्तं ।
तेजा-कम्मइयसरीरिणा तेजा-कम्मइयसरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं तदो पलिवोवमस्स असंखेज्जविभागं गंतूण दुगुणहीणं पलिदो० असंखे०भागं गंतूण दुगुणहीणं ॥२८२॥
पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागं गंतूण णिसेगस्स दुगुणहोणत्तं कुदो नव ? एवम्हादो चेव सुत्तादो । ण च पमाणं पमाणंतरमवेक्खदे, अणवत्थापसंगावो।
एवं दुगुणहीणं दुगुणहीणं जाव उक्कस्सेण छावसिागरोवमाणि कम्मट्ठिवी ॥२८३॥
सुगममेदं ।
एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि जाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो ।।२८४॥
एत्थ वि पुव्वं व गुणहाणिअद्धाणादो गाणागणहाणिसलागाओ उप्पादेवव्वाओ।
गुणकार क्या है ? गुणकारका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है।
तेजसशरीरवाले और कार्मणशरीरवाले जीवके द्वारा तैजसशरीर और कार्मणशरीररूपसे प्रथम समयमें जो प्रवेशाग्र निक्षिप्त होता है उससे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वह दुगुणा हीन होता है पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वह दुगणा हीन होता है ।। २८२ ।।
___ शंका-पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिस्थान जाकर निषेक दुगुणा हीन होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है । और एक प्रमाण दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि, ऐसा होने पर अनवस्थाका प्रसङग आता है।
इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे छयासठ सागर और कर्मस्थितिके अन्त तक दुगुणा हीन दुगणा हीन होता हुआ गया है ।। २८३ ।।
___ यह सूत्र सुगम है।
एकप्रदेशगुणहानिस्थानांतर पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमलप्रमाण है और नानागणहानिस्थानान्तर पल्यके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥२८४ ।।
यहाँ पर भी पहलेके समान एकगुणहानिअध्वानसे नानागुणहानिशलाकायें उत्पन्न करनी
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५, ६, २८६ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए परंपरोवणिधा अथवा जहा वेयणाए जाणागुणहाणिसलागाणं गुणहाणीए च परूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा।
णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि ॥ २८५॥ पलिदोवमपढमवग्गमूलस्स असंखे० भागमेत्तादो। एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं असंखेज्जगुणं ॥ २८६ ।। असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणत्तादो । एवं परंपरोवणिधा समत्ता।
चाहिए। अथवा जिस प्रकार वेदना अनुयोगद्वारमें नानागुणहानिशलाकाओं और एक गुणहानिकी प्ररूपणा की है उसप्रकार यहाँ भी करनी चाहिए।
नानाप्रदेशगणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं ।। २८५ ॥ क्योंकि, वे पल्यके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । उनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगणा है ।। २८६ ॥ क्योंकि, वे पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमलोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
विशेषार्थ-- यह तो अनन्तरोपनिधाके प्रसंगसे ही बतला आये हैं कि प्रथम स्थितिमें जो द्रव्य मिलता है उससे द्वितीय स्थितिमें मिलनेवाला द्रव्य विशेष हीन होता है आदि । अब यहाँ परम्परोपनिधामें यह बतलाया गया है कि इस प्रकार आगे आगेकी प्रत्येक स्थितिमें विशेषहीन विशेषहीन होता हुआ वह द्रव्य कितना काल जानेपर आधा, कितना काल जानेपर चतुर्थांश और कितना काल जानेपर अष्टमांश आदि होकर रह जाता है। यहाँ बतलाया है कि औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीरका द्रव्य उत्तरोत्तर अन्तर्मुहुर्त अन्तर्मुहुर्त काल जानेपर उत्तरोत्तर आधा आधा होता जाता है। तथा तैजसशरीर और कार्मणशरीरका द्रव्य उत्तरोत्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल जानेपर आधा आधा होता जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरकी अपेक्षा इस प्रकार निषेक रचना होती है जिससे वह प्रथम निषेकमें प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे अन्तर्मुहुर्तके अन्त में प्राप्त होनेवाला निषेक आधा रह जाता है । तथा इससे दूसरे अन्तर्मुहर्तके अन्त में प्राप्त होनेवाला निषेक उससे भी आधा रह जाता है। इस प्रकार इन तीन नोकर्मोकी क्रमसे जो तीन पल्य, तेतीस सागर और अन्तर्महर्त उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है उसमें इस एक द्विगुणहानिके कालका भाग देनेपर उस उस नोकर्मकी अलग अलग द्विगुणहानियोंका प्रमाण आ जाता है। यहाँ मूलमें एक द्विगुणहानिस्थानान्तरसे एक गुणहानि ली गई है और इस एक द्विगुणहानिका अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने पर जहाँ जितना लब्ध आता है वहाँ उतनी द्विगुणहानियाँ बतलाई गईं हैं। इन्हींको नानाद्विगुणहानिस्थानान्तर कहते है । यतः तीन पल्य और तेतीस सागर में अन्तर्महुर्तका भाग देनेपर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान प्राप्त होते हैं अतः औदारिकशरीर और वैक्रियिकशरीरकी इतनी द्विगुणहानियाँ बतलाई हैं । तथा अन्तर्मुहूर्वमें अन्तर्मुहूर्तका भाग देनेपर संख्यात समय लब्ध आते हैं अतः आहारकशरीरकी संख्यात द्विगुणहानियाँ बतलाई हैं। तेजस और कार्मणशरीरकी एकद्विगुणहानि पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इसका
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २८७ पदेसविरए ति तत्थ इमो पदेसविरअस्स सोलसवविओ दंडओ कायवो भवति ॥ २८७ ॥
कर्मपुद्गलप्रदेशो विरच्यते अस्मिन्निति प्रदेशविरचः कर्मस्थितिरिति यावत् । अथवा विरच्यते इति विरचः, प्रदेशश्चासौ विरचश्च प्रदेशविरचः, विरच्यमानकर्मप्रदेशा इति यावत्। तत्थ पढमत्थमस्सिदूग आउद्विदीए सोलसवदिओ वंडओ कायव्यो त्ति भणिदं होदि ।
सम्वत्थोवा एइंदियस्स जहणिया पज्जतणिवत्ती ॥ २८८ ॥
जहण्णाउअबंधो जहणिया पज्जत्तणिवत्ती णाम । भवस्त पढमसमयप्पहुडि जाव जहण्णाउअबंधस्स चरिमसमयो ति ताव एसा जहणिया णिवत्ति त्ति भणिवं होदि । आबाधा एत्थ किण्ण घेप्पदे ? ण, अप्पिदसरीरस्स तत्थ पदेसाभावादो। एइंदिया बादर-सुहमपज्जत्तापज्जत्तभेएण चउविहा। तत्थ कस्स जहणिया णिवत्ती
छयासठ सागर और सत्तर कोडाकोडीसागरमें भाग देनेपर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान लब्ध आते हैं, इसलिए इनकी इतनी द्विगुणहानियाँ होती हैं। इस सब विधिका कथन परम्परोपनिधामें किया जाता है, क्योंकि, इसमें परम्परासे कहाँ कितनी हानि और वृद्धि होती है यह देखा जाता है।
इस प्रकार परम्परोपनिधा समाप्त हुई। प्रदेशविरचका अधिकार है। उसमें प्रदेशविरचका यह सोलहपदवाला दण्डक करने योग्य है ।। २८७ ।।
कर्मपुद्गलप्रदेश जिसमें विरचा जाता है अर्थात् स्थापित किया जाता है वह प्रदेशविरच कहलाता है। अभिप्राय यह है कि यहाँ पर प्रदेशविरचसे कर्मस्थिति ली गई है। अथवा विरच पदकी निरुक्ति है- विरच्यते अर्थात जो विरचा जाता है उसे विरच कहते हैं। तथा प्रदेश जो विरच वह प्रदेशविरच कहलाता है। विरच्यमान कर्मप्रदेश यह उसका अभिप्राय है। इन दोनों अर्थों में से प्रथम अर्थकी अपेक्षा आयुस्थितिका सोलह पदवाला दण्डक करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
एकेन्द्रिय जीवकी पर्याप्तनिर्वृत्ति सबसे स्तोक है २८८ ॥
जघन्य आयुबन्धकी जघन्य पर्याप्तनिर्वृत्ति संज्ञा है। भवके प्रथम समयसे लेकर जघन्य आयुषन्धके अन्तिम समय तक यह जघन्य निर्वृत्ति होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-- यहाँ पर आबाधाका ग्रहण किसलिए नहीं करते हैं ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, विवक्षित शरीरके वहाँ प्रदेश नहीं हैं। शंका-- एकेन्द्रिय जीव बादर और सूक्ष्म तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे चार
४ अ० प्रती 'जहण्णा उअबंधो ' इति पाठो नोपलभ्यते ।
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( ३५३
५, ६, २८९ )
बंघणानुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पवेसविरओ
घेपदि ? सुहुमेइं दियपज्जत्तयस्स जहण्णणिव्वत्ती घेत्तव्वा । दोण्णमपज्जत्ताणं जहवित्तीओ किण्ण घेष्पंति ? ण, तत्तो उवरि निव्वत्तिट्ठाणाणं निरंतरकमेण गमनाभावादो । बादरेइंदियस्स पज्जत्तयस्त जहण्णणिव्वत्ती किण्ण घेप्पदे ? ण, सुहुमे इंदियपज्जत्तयस्स जहण्णणिव्वत्तदो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतून ट्टिबबाद रेइं दियजहण्णपज्जत्तणिव्वत्तीए एइंदियजहण्णणिव्वत्तित्तविरोहादो । एसा जहणिया वित्ती किमाउअस्स जहण्णबंधो आहो जहग्णसंतमिदि ? जहण्णबंधो घेत्तव्वो ण जहण्णं संतं । कुदो ? जीवणियद्वाणाणं विसेसाहियत्तण्णहाणुववत्तदो । १ ।
व्वित्तिट्ठाणाणि संखेज्जगुणापि ॥ २८९ ॥
तं जहा - सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स जो जहण्णाउअबंधो सो सव्वो एगं निव्वत्तिद्वाणं । तम्हि चेव समउत्तरं पबद्धे बिदियं निव्वत्तिद्वाणं पुणो दुसमउत्तरं पबद्धे तदियं व्वित्तिद्वाणं । एवं तिसमउत्तर- चदुसमउत्तरादिकमेण निरंतरं निव्वत्तिद्वाणाणि ताव लब्भंति जाव बावीसं वस्ससहस्साणि ति । एदेहितो उवरि ण लब्भंति, एइंदियेसु वावीसवस्सस हस्से हितो अहियआउअबंधाभावादो | समऊणजहण्णणिव्वत्तीए बावीसवस्ससहस्सेसु अवणिदाए णिव्वत्तिद्वाजाणं पमाणं होदि । एवं होदि ति कादूण
प्रकारके हैं। उनसे किसकी जघन्य निर्वृत्ति ग्रहण करते हैं ?
अभाव
समाधान -- सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य निर्वृत्ति ग्रहण की जानी चाहिए। शंका-- दोनों अपर्याप्तकोंकी जघन्य निर्वृत्तियाँ क्यों नहीं ग्रहण करते ? समाघान -- नहीं, क्योंकि, उनसे ऊपर निर्वृत्तिस्थानोंकी निरन्तर क्रमसे प्राप्तिका
1
शंका -- बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य निर्वृत्ति क्यों नहीं ग्रहण करते ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य निर्वृत्तिसे ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर स्थित हुई बादर एकेन्द्रियकी जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिको एकेन्द्रियकी जघन्य निर्वृत्ति होने में विरोध है ।
शंका-- यह जघन्य निर्वृत्ति क्या आयुकर्मका जघन्य बन्ध है या जघन्य सत्त्व है ? समाधान -- जघन्य बन्ध ग्रहण करना चाहिए जघन्य सत्त्व नहीं, क्योंकि, अन्यथा जीवनीयस्थान विशेष अधिक नहीं बन सकते ।
उससे निर्वृत्तिस्थान संख्यातगुणे हैं ।। २८९ ॥
यथा - सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका जो जघन्य आयुबन्ध है वह सब एक निर्वृत्तिस्थान है । एक समय अधिक उसीका बन्ध होने पर दूसरा निर्वृत्तिस्थान होता है । पुनः दो समय अधिaar बन्ध होनेपर तीसरा निर्वृत्तिस्थान होता है। इस प्रकार तीन समय अधिक और चार समय अधिक के क्रमसे निरन्तर निर्वृत्तिस्थान बाईस हजार वर्षके प्राप्त होने तक लब्ध होते हैं । इनसे ऊपर नहीं प्राप्त होते, क्योंकि, एकेन्द्रियों में बाईस हजार वर्ष से अधिक आयुबन्ध नहीं होता । बाईस हजार वर्षों में से एक समय कम जघन्य निर्वृत्तिके घटा देनेपर निर्वृत्तिस्थानों
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३५४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५,६,२९०
अंतो मुहुत्तमे तजहणणिव्यत्तीए देसूण बावीस वस्सस हस्तमेतनिश्वत्तिट्ठाणेसु भागे हिदेसु संखेज्जाणि रूवाणि लब्भंति । जं लद्धं सो गुणगारो । २ ।
जीवणियट्ठाणाणि विशेसाहियाणि ।। २९० ।।
बंधाहतो जीवणियद्वाणाणं समत्तं मोत्तूण कुदो विसेसाहियत्तं ? ण मुंजमाणाउअस्स कदलीघादेण जहण्णणिव्वत्तिद्वाणादो हेट्ठा जीवणियद्वाणाणमुवलंभादो । भुंजमाणाउअस कदलीघादो अस्थि त्ति कुदो जवढे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो, अण्णहा निव्वत्तिद्वाणेहिंतो जीवणियद्वाणाणं विसेसाहियत्ताणुववत्तीदी । एत्थ कदलीघादम्मि बे उदेसा के वि आइरिया जहण्णाउअम्मि आवलियाए असंखे० भागमेत्ताणि जीवणियद्वाणाणि लब्धंति त्ति भणंति । तं जहा- पुव्वभणिदसुहुमेइं दियपज्जत सव्वजहण्णा उअणिव्वत्तिद्वाणस्स कदलीघादो णत्थि । एवं समउत्तरदुसमउत्तराविणिव्वत्तीणं पि घादो णत्थि । पुणो एदम्हादो जहण्णणिव्वत्तिद्वाणादो संखेज्जगुणमाउअं बंधिण सुहुमपज्जत्ते सुववण्णस्स अत्थि कदलीघावो । पुण तं घावयमाणेण सव्वजहग्णाउअणिव्वत्तिद्वाणं समऊणं घावेदूण कदं ताधे तमेगं जीवणियद्वाणं होदि । पुणो तेणेव विधिना बिदियजीवेण घादेदूण दुसमऊणं जहण्णणिव्वत्तिद्वाणाउए ट्ठविदे
का प्रमाण होता है । इस प्रकार होता है ऐसा समझकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य निर्वृत्तिका कुछ कम बाईस हजार वर्षप्रमाण निर्वृत्तिस्थानों में भाग देनेपर संख्यात अंक लब्ध आते हैं । यहाँ जो लब्ध आया है वह गुणकार है ।
उनसे जीवनीय स्थान विशेष अधिक हैं । २९० ।
शंका-- जीवनीय स्थान बन्धस्थानोंके समान न होकर विशेष अधिक कैसे हैं ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, भुज्यमान आयुका कदलीघात सम्भव होनेसे जघन्य निर्वृत्तिस्थान से नीचे जीवनीय स्थान उपलब्ध होते हैं।
शंका-- भुज्यमान आयुका कदलीघात होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- इसी सूत्रसे जाना जाता है, अन्यथा निर्वृत्तिस्थानोंसे जीवनीयस्थान विशेष अधिक नहीं बन सकते ।
यहाँ कदलीघात के विषय में दो उपदेश पाये जाते है। कितने ही आचार्य जघन्य आयुमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवनीय स्थान लब्ध होते हैं ऐसा कहते हैं। यथा- पहले कहे गये सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकी सबसे जघन्य आयुके निर्वृत्तिस्थानका कदलीघात नहीं होता । इसी प्रकार एक समय अधिक और दो समय अधिक आदि निर्वृत्तियोंका भी घात नहीं होता । पुन: इस जघन्य निर्वृत्तिस्थानसे संख्यातगुणी आयुका बन्ध करके सूक्ष्म पर्याप्तकों में उत्पन्न हुए जीवका कदलीघात होता है । पुनः उसका घात करनेवाले जीवने आयुके सबसे जघन्य निर्वृत्तिस्थानका घात करके उसे एक समय कम किया तब वह एक जीवनीयस्थान होता है । पुन: उसी विधि से दूसरे जीके द्वारा घात करके जघन्य निर्वृत्तिस्थानरूप आयुके दो समय कम स्थापित करने
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५, ६, २९० ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरसरूवणाए पदेसविरओ ( ३५५ बिवियं जीवणियट्ठाणं होदि । पुणो अण्णण विहाणेण घादेदूण जहण्णणिव्वत्तिटाणे तिसमऊणे कदे तदियं जीवणियहाणं होदि । एवमवरिमआउअवियप्पे घादिय जहगणिव्वत्तिट्ठाणं चदुसमऊण-पंचसमऊणादिकमेण ओदारेवव्वं जाव आवलियाए असंखे०भागमेत्तजीवणियहाणाणि जहण्णणिवत्तिट्टाणे लद्धाणि त्ति । एत्थ एत्तियाणि चेव जीवणियद्वाणाणि लब्भंति णो वडिमाणि, जहण्णणिवत्तिढाणम्मि आवलिअसंखे० भागादो अधिओ घादो णस्थि त्ति गुरूवएसादो। तेण णिवत्तिट्टाणेहितो जीवणियाणाणि आवलि. असंखे० भागेण विसेसाहियाणि । जहण्णणिवत्तिद्वाणादो हेढा जीवणियट्टाणाणि चेव, ण णिव्वत्तिट्टाणाणि, आउअबंधवियप्पाभावादो। उरि णिव्वत्तिट्टाणाणि जीवणियहाणाणि च सरिसाणि, जीवाणं बंधाउअमेत्तकालं जीविदूण अण्णत्थ गमणुवलंभादो ।
के वि आइरिया एवं भणंति- जहणणिवत्तिट्टाणमवरिमाउअवियप्पेहि वि घादं गच्छदि । केवलं पिघादं गच्छदि । वरि उवरिमआउअवियप्पेहि जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणं घादिज्जमाणं समऊणदुसमयऊणादिकमेण हीयमाणं ताव गच्छदि जाव जहपणणिव्वत्तिद्वाणस्त संखेज्जे : भागे ओदरिय संखे० भागो सेसो त्ति। जदि पुण केवलं जहण्णणिव्वत्तिट्टाणं चेव घावेदि तो तत्थ दुविहो कदलीघादो होदि- जहण्णओ
पर दूसरा जीवनीयस्थान होता है। पुनः इस विधिसे घात कर जघन्य निर्वृत्तिस्थानके तीन समय कम करने पर तीसरा जीवनीयस्थान होता है। इस प्रकार उपरिम आयुविकल्पको घात कर तीन जघन्य निर्वृत्तिस्थानको चार समय और पाँच समय आदिके क्रमसे कम करते हुए जघन्य निर्वृत्तिस्थान में आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवनीयस्थानोंके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए। यहाँ पर इतने ही जीवनीयस्थान प्राप्त होते है अधिक नहीं, क्योंकि, जघन्य निर्वत्तिस्थानमें आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक स्थानोंका घात नहीं होता ऐसा गरुका उपदेश है। इसलिए निर्वत्तिस्थानोंसे जीवनीयस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण विशेष अधिक हैं। जघन्य निर्वत्तिस्थानसे नीचे जीवनीयस्थान ही हैं निर्वत्तिस्थान नहीं, क्योंकि, वहाँ आयुबन्धके विकल्पोंका अभाव है। ऊपर निर्वृत्तिस्थान और जीवनीयस्थान सदृश हैं, क्योंकि, जीवोंका बँधी हुई आयुमात्र काल तक जी कर अन्यत्र गमन पाया जाता है।
कितने ही आचार्य इस प्रकार कथन करते हैं- जघन्य निर्वृत्तिस्थान उपरिम आयुविकल्पोंके साथ भी घातको प्राप्त होता है और केवल भी घातको प्राप्त होता है । इतनी विशेषता है कि उपरिम आयुविकल्पोंके साथ घातको प्राप्त होता हुआ जघन्य निर्वृत्तिस्थान एक समय और दो समय आदिके क्रमसे कम होता हुआ वह तब तक जाता है जब तक जयन्य निर्वृत्तिस्थानका संख्यात बहुभाग उतर कर संख्यातवें भागप्रमाण शेष रहता है। यदि पुनः केवल जघन्य निर्वत्तिस्थानको ही घातता है तो वहाँ दो प्रकारका कदलीघात होता है- जघन्य और उत्कृष्ट ।
* ता० प्रती ‘गमणाणुवलंभादो' इति पाठः। ४ प्रतिष · जियमाणं ' इति पाठ 1 * अ० का० प्रत्यो। ' असंखेज्जे ' इति पाठः ।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६. २९०
उक्कस्सओ चेदि । सुदृढ़ जदि थोवं घावेवि तो जहणियणिव्यत्तिट्ठाणस्स संखेज्जे भागे जीविदूण सेससंखे०भागस्स संखेज्जे भागे संखेज्जदिभागं वा घादेदि । दि पुण बहुअं घादेवि तो जहण्णणिव्वत्तिद्वाणसंखे०भागं जीविदूण संखेज्जे भागे कदलीघादेण घादेदि। तं जहा- एगो तिरिक्खो मणुसो वा सुहुमणिगोदपज्जत्तसवजहण्णाउअं बंधिदूण कालं करिय सुहमणिगोदपज्जत्तएसुवज्जिय सवलहुएण कालेण चदुहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो होदूण एगवारेण जहण्णणिवत्तिट्टाणस्स संखेज्जेसु भागेसु जीविदद्धपमाणेण कदलीघादेण घाविदूण ढविदेसु तमेगमपुणरुत्तं जीवणियद्वाणं होवि । पुणो अण्णो जीवो सुहमणिगोदपज्जत्तसन्धजहण्णणिन्वत्तिटाणं समउत्तरं बंधिदूणुप्पज्जिय कवलीघादेण पुव्वत्तजीवणियहाणादो समउत्तरं काऊण अच्छिदो ताधे तं बिदियमपुणरुत्तं जीवणियट्ठाणं होदि । पुणो तदियजीवेण सुहमणिगोदपज्जतसव्वजहण्णाउअं दुसमउत्तरबंधण पुवुत्तसध्वजहण्णघाटाणस्सुवरि कदलीघादेण दुसमउत्तरे जीवणियहाणे कदे तं तदियमपुणरुत्तं जीवणियहाणं होदि । एवं हेढदो उरि तिसमउत्तरचदुसमउत्तरादिकमेण गाणाजीवे अस्सिदूण णेयव्वं जाव समऊणसव्वजहण्णणिव्वत्तिटाणं ति । एवं कदे अंतोमुहुत्तणबावीसवस्ससहस्समेत्तणिवत्तिट्टाणाणमुवरि सव्वजहाणणिन्वत्तिढाणस्स संखेज्जा भागा पविसिदूण जीवणियट्ठाणाणि विसेसाहियाणि भवंति । पुम्वृत्तविसेसादो संपहिय विसेसो असंखेज्जगुणो। कुदो ? जहण्ण
यदि अति स्तोकका घात करता है तो जघन्य निर्वृत्तिस्थानके संख्यात बहु भाग तक जीवित रह कर शेष संख्यातवें भागके संख्यात बहुभाग या संख्यातवें भागका घात करता है। यदि पुनः बहुतका घात करता है तो जघन्य निर्वत्तिस्थानके संख्यातवें भागप्रमाण काल तक जीवित रह कर संख्यात बहुभागका कदलीघातद्वारा घात करता है। यथा- एक तिर्यञ्च या मनुष्य के सूक्ष्म निगोद पर्याप्तककी सबसे जघन्य आयुका बन्ध करके और मर कर सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हो कर सबसे जघन्य कालके द्वारा चार पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो कर एक बार में जघन्य निर्वत्तिस्थानके संख्यात बहुभागका कदलीघातसे घात कर जीवित कालप्रमाण स्थापित करने पर वह एक अपुनरुक्त जीवनीयस्थान होता है । पुन: अन्य जीव सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकके सबसे जघन्य निर्वत्तिस्थानको एक समय अधिक बाँध कर और वहां उत्पन्न होकर कदलीघातके द्वारा पूर्वोक्त जीवनीय स्थानसे इसे एक समय अधिक करके स्थित हुआ तब वह दूसरा अपुनरुक्त जीवनीयस्थान होता है। पुन. सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक की सबसे जघन्य आयुका बंध करने वाले तीसरे जीवके द्वारा पूर्वोक्त सबसे जघन्य घातस्थानके ऊपर कदलीघातके द्वारा दो समय अधिक जीवनीयस्थानके करने पर वह तीसरा अपुनरुक्त जीवनीयस्थान होता है। इस प्रकार नीचेसे ऊपर तीन समय अधिक और चार समय अधिक आदिके क्रमसे नाना जीवोंका आश्रय लेकर एक समय कम सबसे जघन्य निर्वत्तिस्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। ऐसा करने पर अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्षप्रमाण निर्वृत्तिस्थानोंके ऊपर सबसे जघन्य निर्वृत्तिस्थानके संख्यात बहुभागका प्रवेश कराकर जीवनीयस्थान विशेष अधिक होते हैं। पूर्वोक्त विशेषसे साम्प्रतिक विशेष
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५, ६, २९३ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ णिवत्तिट्राणस्स संखेज्जेसु भागेस संखेजावलियाणमवलंभादो । एत्थ पढमवक्खाणं ण मद्दयं, खुद्दाभवग्गहणादो । एइंदियस्त जहणिया णिवत्ती संखेज्जगुणा त्ति सुत्तेण सह विरुद्धत्तादो। ३ ।।
उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया ॥ २९१ ॥ ___ केत्तियमेत्तेण ? आवलि० असंखे० भागमेत्तेण वा जहण्णणिवत्तिट्ठाणस्स संखेज्जेहि भागेहि वा ऊणसव्वजहण्णणिव्वत्तिट्ठाणमेत्तेण । ४ ।।
सम्वत्थोवा सम्मुच्छिमस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती ॥२९२।।
सम्मच्छिमपज्जत्ता बादरेइंदियपज्जत्त-बेइंदियपज्जत-तेइंवियपज्जत्त-चरिदियपज्जत्त-असण्णिचिवियपज्जत-सण्णिचिदियपज्जत्तभेदेण छविहा होंति, तत्थ कस्सेदं गहणं छण्णं पि गहणं कायव्वं, विरोहाभावादो । एदेसि अपज्जत्ताणं गहणं ण कायक्वं, पज्जत्तणिद्देसेण ओसरिदत्तादो । किमटमपज्जत्ता ओसारिज्जति ? तेसि णिव्वत्तिट्टाणाणं णिरंतरवड्ढीए अमावादो। तेण सम्मुच्छमपज्जत्तजहण्णणिवत्ति त्ति मणिवे छण्णं सम्मच्छिमपज्जत्ताणमंतोमहुत्तमेत्तसव्वजहण्णाउआणं गहणं कायव्वं । ५ ।
णिव्वत्तिटठाणाणि संखेज्जगणाणि || २९३ ॥
असंख्यातगुणा है, क्योंकि, जघन्य निर्वत्तिस्थानके संख्यात बहु भागोंमें संख्यात आवलियाँ उपलब्ध होती हैं। यहाँ पर प्रथम व्याख्यान ठीक नहीं है, क्योंकि, उसमें क्षुल्लक भवका ग्रहण किया है। तथा एकेन्द्रियकी जघन्य निर्वृत्ति संख्यातगुणी है इस सूत्रके वह विरुद्ध पड़ता है।
उत्कृष्ट निर्वृत्ति विशेष अधिक है ।। २९१ ।।
कितनी अधिक है ? आवलिके असंख्यातवें भागसे या जघन्य निर्वृत्तिस्थानके संख्यात बहुभागसे न्यून जो सबसे जघन्य निर्वृत्तिस्थान है उतनी वह अधिक है।
सम्मळुन जीवकी जघन्य पर्याप्तनिर्वृत्ति सबसे स्तोक है ॥ २९२ ।।
शंका-सम्मर्छन पर्याप्त जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त और संजी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तके भेदसे छह प्रकारके हैं। उनमेंसे किसका यह ग्रहण किया है ?
समाधान-छहोंका ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, ऐसा करने में कोई विरोध नहीं है।
मात्र इनके अपर्याप्तकोंका ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि, पर्याप्त पदके निर्देश द्वारा उनको अलग कर दिया है।
शंका-अपर्याप्तकोंको किसलिए अलग किया है ? समाधान-क्योंकि, उनके निवृत्तिस्थानोंकी निरन्तर वृद्धिका अभाव है।
इसलिए सम्मूच्छंन पर्याप्तकोंकी जघन्य निर्वृत्ति ऐसा कहनेपर छह सम्मूर्छन पर्याप्तकोंकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण सबसे जघन्य आयुका ग्रहण करना चाहिए।
उससे निर्वृत्तिस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २९३ ॥
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३५८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २९४ ___ अप्पप्पणो सव्वजहण्णणिव्वत्तिढाणस्सुवरि समउत्तराविकमेण गिरंतरणिव्वत्तिढाणाणि ताव लभंति जाव एइंदिएसु बावीसवस्ससहस्साणि, बेइंदिएसु बारसवासाणि तेइंदिएसु एगणवण्ण रादिदियाणि चरिविएसु छम्मासा सण्णि-असण्णिांचदिएसु पुवकोडि त्ति । तदो अप्पप्पणो जहण्णणिवत्तिटाणे समऊणे अप्पप्पणो उक्कस्साउअम्मि सोहिदे णिव्वत्तिढाणाणि होति । पुणो अप्पप्पणो जहण्णणिवत्तीए संखेज्जावलियमेत्ताए अप्पप्पणो णिव्वत्तिट्ठाणेसु भागे हिदेसु संखेज्जरूवाणि लब्भंति । जं लद्धं सो गणगारो। ६ ।।
जीवणियट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ॥ २९४ ॥
केत्तियमेत्तेण? आवलि० असंखे० भागमेत्तेण वा अप्पप्पणो सध्वजहणणिब्धत्तीए संखेज्जेहि भागे हिदे वा । एस्थ कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । ७ ।।
उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया ॥२९५॥ केत्तियमेत्तेण ? अप्पप्पणो सवजहण्णजीविवमेत्तेण । ८ ।। सव्वत्थोवा गम्भोवक्कंतियस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती ।२९६। गन्मोवक्कं तियसव्वजहण्णणिवत्तीए अंतोमुहुत्तपमाणत्तादो। ९ ।।
अपने अपने सबसे जघन्य निर्वत्तिस्थानके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे निरन्तर निर्वत्तिस्थान एकेन्द्रियोंमें बाईस हजार वर्षप्रमाण, द्वीन्द्रियोंमें बारह वर्षप्रमाण, त्रीन्द्रियोंमें उनचास रात-दिनप्रमाण, चतुरिन्द्रियोंमें छह महिनाप्रमाण तथा संज्ञी और असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें पूर्वकोटि वर्षप्रमाण होनेतक प्राप्त होते हैं । तदनन्तर अपने अपने एक समय कम जघन्य निर्वृत्तिस्थानको अपनी अपनी उत्कृष्ट आयुमेंसे कम करने पर निर्वृत्तिस्थान होते हैं। पुन: अपनी अपनी संख्यात आवलिप्रमाण जघन्य निर्वृत्तिका अपने अपने निर्वृत्तिस्थानोंम भाग देने पर संख्यात अंक लब्ध आते हैं। यहाँ जो लब्ध आया है वह गुणकार है।
उनसे जीवनीयस्थान विशेष अधिक हैं ।। २९४ ।।
कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं । अथवा अपनी अपनी जघन्य निर्वृत्तिके संख्यात बहुभागप्रमाण अधिक हैं । यहाँ कारणका कयन पहलेके समान करना चाहिए ।
उनसे उत्कृष्ट नित्ति विशेष अधिक है । ।। २९५ ।।
कितनी अधिक है ? अपने अपने सबसे जघन्य जोवित रहने का जो प्रमाण है उतनी अधिक है।
गर्भोपक्रान्त जीवको जघन्य पर्याप्त निवृत्ति सबसे स्तोक है ।। २९६ ।। क्योंकि, गर्भोपक्रान्त जीवकी सबसे जघन्य निर्वृत्ति अन्तर्मुहुर्तप्रमा है।
ता०प्रसो 'भागेहि (दे) वा' अ०प्रती 'भागे वा ' का० प्रती 'भागेहि वा' इति पाउ ।
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बंघणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ
व्वित्तिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ २९७ ॥
को गुणगारो ? पलिदो० असंखे० भागो । कुदो ? जहणणिव्वत्तिद्वाणादो समउत्तराविकमेण निरंतरं जाव तिष्णि पलिदोवमाणि ति णिव्वत्तिद्वाणाणं बुड्डिसणादो । पुव्वकोडीए उवरि कथं निरंतरवड्ढी लब्भदे ? ण, उस्सप्पिणिकालमस्सिदूग भरहएरावदमणुस्सेसु पुव्वकोडीए उवरि समउत्तरादिकमेण निरंतरं तिष्णि पलिदोवमाणि वुडिदंसणादो | १० ||
५, ६, ३०० )
जीवणियट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ॥ २९८ ॥
केत्तियमेत्तेण ? आवलि० असंखे० भागेण जहण्णणिव्वत्तिद्वाणस्स संखेज्जेहि भागेहि वा । एत्थ कारणं जाणिय वत्तव्वं । ११ । ।
उक्कस्सिया णिव्वत्ती विसेसाहिया ॥ २९९ ॥
( ३५९
केत्तियमेत्तेण ? कदलीघावजहण्णिदसव्वजहण्णजीवणकालमेत्तेण । १२ । । सव्वत्थोवा उववादिमस्स जहणिया पज्जत्तणिव्वत्ती ||३००॥ कुदो? दसवस्ससहस्सपमाणत्तादो । १३ । ।
उससे निर्वृत्तिस्थान असंख्यातगुणे हैं । २९७ ।
गुणकारका प्रमाण कितना है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकारका प्रमाण है' क्योंकि, जघन्य निर्वृत्तिस्थानसे लेकर एक समय अधिक आदिके क्रमसे निरन्तर तीन पल्य प्रमाण कालतक निर्वृत्तिस्थानोंकी वृद्धि देखी जाती है ।
शंका -- पूर्वकोटि कालके ऊपर निरन्तर वृद्धि कैसे सम्भव है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि, उत्सर्पिणी कालका आश्रय लेकर भरत और ऐरावत क्षेत्रके मनुष्यों में पूर्वकोटिके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे तीन पत्यप्रमाण कालतक निरन्तर वृद्धि देखी जाती है ।
उनसे जीवनीयस्थान विशेष अधिक हैं । २९८ ।
कितने अधिक है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं । अथवा जघन्य निर्वृत्तिस्थानके संख्यात बहुभागप्रमाण अधिक हैं । यहाँ पर कारणका कथन जानकर करना चाहिए ।
उनसे उत्कृष्ट निर्वृत्ति विशेष अधिक है । २९९ ।
कितनी अधिक है ? कदलीघातके कारण जो सबसे जघन्य जीवनकाल उत्पन्न होता है उतनी अधिक है ।
औपपादिक जन्मवालेकी जघन्य पर्याप्त निर्वृत्ति सबसे स्तोक है । ३०० ॥
क्योंकि, वह दस हजार वर्षप्रमाण है ।
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३६०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ३०१ णिवत्तिट्ठाणाणि जीवणियट्ठाणाणि च दो वि तुल्लाणि असंखेज्जगुणाणि ।। ३०१॥
कुदो ? दसवस्ससहस्साणमुवरि समउत्तरादिकमेण णिव्वत्तिढाणाणि जीवणियढाणाणि च सरिसाणि होदूण गच्छंति जावक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि त्ति । एत्थ जीवणियढाणाणं णिवत्तिटाणाणं च जिरंतरवड्ढी कथं लब्भदे ? ण, दसवस्ससहस्समादि कादूण समउत्तराविकमेण बंधेण जाव तेत्तीससागरोवमाणि त्ति वड्ढीए विरोहाभावादो, ओवट्टणाघादेण आउअंघादिय देवेसुप्पज्जमाणे अस्सिदण णिव्वत्तिट्ठाणाणं जीवणियट्ठाणाणं च णिरंतरवड्ढीए विरोहाभावादो च । णिवत्तिट्ठाणेहितो जीवणियाणाणं विसेसाहियत्तमेत्थ किण्ण परविदं ? ण, देवणेरइएसु आउअस्स कदलीघादाभावादो तत्थ कदलीघादो पत्थि ति कुदो णव्वदे ? णिव्वत्ति-जीवणियट्ठाणाणि तुल्लाणि त्ति सुत्तण्णहाणुववत्तीदो । को गुणगारो ? पलिदो० असंखेज्जविभागो । १५ ।।
उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया ॥ ३०२ ॥
उसमें निर्वृत्तिस्थान और जीवनीयस्थान दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगणे हैं ।। ३०१ ॥
क्योंकि, दस हजार वर्षके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे निर्वृत्तिस्थान और जीवनीयस्थान समान होकर तेतीस सागरकाल तक जाते हैं ।
शंका-- यहाँपर जीवनीयस्थानोंकी और निर्वृत्तिस्थानोंकी निरन्तर वृद्धि कैसे प्राप्त होती है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, दस हजारवर्षसे लेकर एक समय अधिक आदिके क्रमसे बन्धके द्वारा तेतीस सागर काल तक वृद्धि होने में कोई विरोध नहीं है और अपवर्तनाघातके द्वारा आयुका घात करके देवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका आश्रय लेकर निर्वत्तिस्थान और जीवनीयस्थानोंकी निरन्तर वृद्धि होने में कोई विरोध नहीं है।
शंका-- निर्वृत्तिस्थानोंकी अपेक्षा जीवनीयस्थान यहां विशेष अधिक क्यों नहीं कहे हैं ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, देव और नारकियोंमें आयुका कदलीघात नहीं होता ।
शंका-- देवों और नारकियोंमें आयुका कदलीघात नहीं होता यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- वहाँ निर्वृत्तिस्थान और जीवनीयस्थान तुल्य हैं यह सूत्र अन्यथा बन नहीं सकता है। इससे जाना जाता है कि देवों और नारकियोंमें कदलीघात नहीं होता ।
गुणकार क्या है ? पल्यसे असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उनसे उत्कृष्ट निर्वत्ति विशेष अधिक है ॥ ३०२ ।।
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योगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ
केत्तियमेत्तेण ? समऊणदसवस्ससहस्समेत्तेण । १६ ।
५, ६, ३०४ )
एवं सत्थाणेण सोलसवदियमहादंडओ समत्तो ।
( ३६१
एत्थ अप्पा बहुअं || ३०३ ॥
संपहि सत्थाणेण सोलसवदियअप्पाबहुअं काढूण परत्थाणेण सोलसवदियअपबहुअं भणामि त्ति भणिदं होदि ।
सव्वत्थोवं खुद्दाभवग्गणं ।। ३०४ ॥
एत्थ खुद्दाभवग्गहणं दुविहं- णिसेयखुद्दाभवग्गहणं घादखुद्दामवग्गहणं चेदि ।
कितनी अधिक ? एक समय कम दस हजार वर्षप्रमाण अधिक है
विशेषार्थं - - यहाँ पर प्रदेशविरच अधिकारके प्रसंगसे निर्वृत्तिस्थानों और जीवनीयस्थानोंका सांगोपांग विचार किया गया है। एक जीवके जितनी आयुका बन्ध होता है उसकी निर्वृत्तिस्थान संज्ञा है और एक जीव भवग्रहण के प्रथम समयसे लेकर जितने काल तक जीवित रहता है उसकी जीवनीयस्थान संज्ञा है । यह एकांत नियम नहीं है कि जिस भवकी जितनी आयुका बंध होता है वह उस भवके ग्रहणके समय उतनी नियमसे रहती है । यदि आयुबन्धके भवमें उसका अपवर्तन न हो या द्वितीयादि त्रिभागों में अधिक आयुका बंध न हो तो भवग्रहण के समय उतनी ही रहती है और यदि पूर्वोक्त क्रिया हो लेती है तो वह घट बढ़ भी जाती है । इस प्रकार भवग्रहण करने के बाद यदि कवलीघात न हो तो भवग्रहण के समय जितनी आयु होती है उतने काल तक यह जीव जीवित रहता है, अन्यथा कदलीघात होनेसे जीवन काल अल्प हो जाता है, इसलिए यहाँ निर्वृत्तिस्थानों और जीवनीयस्थानोंका अलग अलग विचार करके ये कहाँ जघन्य और उत्कृष्ट किस प्रमाणमें प्राप्त होते हैं तथा इनका परस्परमें अल्पबहुत्व कितना है आदि बातोंका यहाँ सांगोपांग विचार किया गया है। यहाँ एकेन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य निर्वृत्ति और जघन्य जीवनीयस्थानका स्पष्टीकरण करते हुए दो मतों का उल्लेख किया है । उनका आशय इतना ही है कि एक मत के अनुसार जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिका जितना काल है उसमें से आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका घात हो कर जघन्य जीवनीय स्थान प्राप्त होता है और दूसरे मतके अनुसार यह घात काल संख्यात आवलि प्रमाण तक हो सकता है । किन्तु इतना विशेष जानना चाहिए कि जो जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिको लेकर उत्पन्न होता है उसके यह कदलीघात हो कर जघन्य जीवनीस्थान नहीं प्राप्त होता किन्तु जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिस्थानसे अधिक आयु लेकर उत्पन्न होनेवाले जीवके ही यह जघन्य जीवनीयस्थान प्राप्त होता है । विशेष स्पष्टीकरण मूलमें किया ही है । इस प्रकार स्वस्थान की अपेक्षा सोलह पदवाला महादण्डक समाप्त हुआ । यहाँ अल्पबहुत्व | ३०३ । स्वस्थानकी अपेक्षा सोलह पदवाले
अल्पबहुत्वका कथन कर अब परस्थानकी अपेक्षा सोलह पदवाले अल्पबहुत्वका कथन करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । क्षुल्लकभवग्रहण सबसे स्तोक है । ३०४ ।
यहाँपर क्षुल्लकभवग्रहण दो प्रकारका है- निषेक क्षुल्लकभवग्रहण और घात क्षुल्लक
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३६२) छक्खंडागमे वग्गणाखंड
( ५, ६, ३०४ तत्थ सुहमेइंदियअपज्जत्तसंजत्तो जहण्णाउअबंधो जिसेयखद्दामवग्गहणं णाम । णिसेयखुद्दाभवग्गहणादो आवलि० असंखे०मागेणणजीवणियकालो णिसेयखुद्दाभवग्गहणस्स संखेज्जे भागे धादिदूण दृविदसंखे० भागो वा घावखुद्दाभवग्गहणं । सन्धजहण्णजीवणियकालो घादखुद्दाभवग्गहणं, होवि त्ति भणिदं होदि । एत्थ दोसु खुद्दाभवग्गहणेसु कं घेपदे ? घावखुद्दाभवग्गहणं, जहण्णणिवत्तीए खद्दाभवग्गहणत्ताणववत्तीदो। भवग्गहणं णाम जीवणियकालो सो च खुद्दओ जहण्णओ कदलीघादम्हि चेव होदि ण बंधे, णिवत्तीए जहणियाए तत्तो संखेज्जगणत्तसणादो । एवं घावखुद्दाभवग्गहण सत्तण्णमपज्जत्तजीवसमासाणं सरिसं होदूण संखेज्जावलियमेत्तं । तं कथं नव्वदे ? जत्तीदो । तं जहा
तिण्णिसहस्सा सत्तसदाणि तेहत्तरं च उस्सासा।
एसो हवदि मुहुत्तो सव्वेसिं चेव मणुयाणं ३७७३ ।।१९।। एवे महत्तस्सासे टुविय पुणो एगस्सासमंतरसंखेज्जावलियाहि गणिदे एगमुहुत्तावलियाओ होंति ।
तिण्णि सदा छत्तीसा छावट्ठिसहस्स चेव मरणाणि ।
अंतोमहत्तकाले तावदिया चेव खुद्दभवा ॥२०॥ भवग्रहण । उनमें से जो सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तसे युक्त जघन्य आयुका बन्ध है वह निषेक क्षुल्लकभवग्रहण है । तथा निषेकक्षुल्लक भवग्रहणसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कम जो जीवनीय काल है वह अथवा निषेकक्षुल्लकभवग्रहणके संख्यात बहुभागका घात करके स्थापित किया गया जो संख्यातवाँ भाग है वह घातक्षुल्लकभवग्रहण है। सबसे जघन्य जीवनीय कालप्रमाण घातक्षुल्लकभवग्रहण है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका- यहां दो क्षुल्लकभवग्रहणोंमेंसे किसका ग्रहण किया है ?
समाधान - घातक्षुल्लकभवग्रहणका ग्रहण किया है, क्योंकि, जघन्य निर्वृत्ति क्षुल्लकभवग्रहणरूप नहीं बन सकती।
भवग्रहणका नाम जीवनीयकाल है और वह क्षुल्लक तथा जघन्य कदलीघातके होने पर ही होता हैं, बन्धके होनेपर नहीं, क्योंकि, जघन्य निर्वृत्ति उससे संख्यातगुणी देखी जाती है। यह घातक्षुल्लकभवग्रहण सात अपर्याप्त जीवसमासोंका समान होकर सख्यात आवलिप्रमाण है।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- युक्तिसे । यथासभी मनुष्योंके तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वासोंका एक मुहुर्त होता है । १९ ।
एक मुहूर्तके इन उच्छ्वासोंको स्थापित करके पुनः एक उच्छ्वासके भीतर स्थित संख्यात आवलियोंसे गुणित करनेपर एक मुहूर्तकी आवलियाँ होती हैं।
अन्तर्मुहूर्तके कालके भीतर छयासठ हजार तीनसो छत्तीस मरण और उतने ही क्षुल्लक भवग्रहण होते हैं ॥ २०॥
Xता०प्रसो ' एव ' इति पाठः 1
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५, ६, ३०६ )
योगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ
( ३६३
इदि वयणादो एगमृहुत्त मंतरे एत्तियाणि खुद्दाभवग्गहणाणि होंति ६६३३६ । एत्तियमेत्तमवग्गहणेसु जवि पुग्वृत्त संखेज्जावलियाओ लब्भंति तो एगखुद्दाभवग्गहणम्हि किं लामो त्तिपमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए संखेज्जावलियाओ लब्मंति, एइंदियाणं संखेज्जुस्सा सेहि एगखुद्दाभवग्गहणस्स निष्पत्तीदो । तेणेदं सव्वत्थोवं होदि । १ । । एइंदियस्स जहणिया पज्जत्तणिव्वत्ती संखेज्जगुणा । ३०५ । एइंदियस्स जहणिया पज्जत्तणिग्वत्ती णाम सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स जहणिया पज्जत्तणिव्वत्ती । एसा खुद्दाभवग्गहणादो संखेज्जगुणा । कुदो ? खुद्दामवग्गहणादो सुहमे इंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णणिव्वत्ती संखेज्जगुणा । तस्स चेव सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया जिव्वत्ती संखेज्जगुणा । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स जहणिया निव्वत्ती तत्तो संखेज्जगुणा त्ति गुरूवदेसादो । २ । ।
समुच्छिमस्स जहणिया पज्जत्तणिव्वत्ती संखेज्जगुणा । ३०६ | कुदो ? बादरेइंदियपज्जत्तयस्स सव्वजहण्णणिव्वत्तीए गहणादो का निव्वत्ती णाम ? कवलीघादेण विणा जीवणकालो आउबंधद्धाणंत भूदो जीवणियद्वाणं पुण वित्ती न होदि, तस्स बंधट्ठाणेसु अंतभावनियमाभावादो । ३. 11
इस वचन के अनुसार एक मुहूर्त के भीतर इतने क्षुल्लकभवग्रहण होते हैं- ६६३३६ ॥ इतने भवग्रहणों में यदि पूर्वोक्त संख्यात आवलियां लब्ध आती हैं तो एक क्षुल्लकभवग्रहण में क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित कर प्रमाणराशिका भाग देने पर संख्यात आवलियाँ प्राप्त होती हैं, क्योंकि, एकेन्द्रियोंके संख्यात उच्छ्वासोंसे एक क्षुल्लकभवग्रहणकी उत्पत्ति होती है, इसलिए यह सबसे स्तोक है ।
उससे एकेन्द्रिय जीवको जघन्य पर्याप्त निर्वृत्ति संख्यातगुणी है । ३०५ ॥ एकेन्द्रियकी जघन्य पर्याप्त निर्वृत्ति इसका अर्थ है सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य पर्याप्त निर्वृत्ति | यह क्षुल्लकभवग्रहणसे संख्यातगुणी है, क्योंकि, क्षुल्लकभवग्रहणसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवकी जघन्य निर्वृत्ति संख्यातगुणी है । उससे उसी सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवकी उत्कृष्ट निर्वृत्ति संख्यातगुणी है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवकी जघन्य निर्वृत्ति संख्यातगुणी है ऐसा गुरुका उपदेश है ।
उससे सम्मूच्र्छन जीवको जघन्य पर्याप्त निर्वृत्ति संख्यातगुणी है । ३०६ | क्योंकि, यहाँ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवकी सबसे जघन्य निर्वृत्तिका ग्रहण किया है । शंका-- निर्वृत्ति किसे कहते हैं ?
समाधान -- कदलीघातके बिना आयुकर्मके बन्धकालके भीतर जो जीवनकाल है उसे निर्वृत्ति कहते हैं ।
परंतु जीवनीयस्थान निर्वृत्ति नहीं होता, क्योंकि, उसका बंधस्थानों में अंतर्भाव होने का
०ता० प्रो' - बंधद्वाणं मूदो' इति पाठ: 1
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३६४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ३०७ गब्भोवक्कंतियस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती संखेज्जगुण ।३०७।
गब्भोपक्कंतियस्स जहण्णपज्जत्तणिवत्तीणाम गब्भजाणं णिवाघादेण वद्धजहण्णाउअकालमेत्तजीवियं । कुदो एदिस्से संखेज्जगुणत्तं ? सम्मच्छिमेहितो गन्भजाणं पुधभूदजादिदंसणादो। ४ ।।
ओववादिमस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती संखेज्जगुणा ॥३०८॥
को गुण ? संखेज्जा समया । कुदो ? अंतोमहुत्तेण दसवस्ससहस्सेसु ओवट्टिदेसु संखेज्जरूवोवलंभादो। ५ ।।
एइंदियस्स णिन्वत्तिट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥३०९॥
को गण० ? सादिरेयदोरूवाणि । कुदो ? वसवस्ससहस्सेहि अंतोमहत्तणबावीस वस्ससहस्सेसु ओवट्टिदेसु दोहि स्वेहि सह किंचूणपंचमभागस्स उवलंभादो। ६ ।।
जीवणियट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ॥३१०॥
केत्तियमेत्तेण ? आवलि० असंखे० भागेण एइंवियजहण्णणिवत्तीए संखेज्जेहि भागेहि वा । ७ ।।
कोई नियम नहीं है।
उससे गर्भोपक्रान्तिक जीवकी जघन्य पर्याप्त निर्वृत्ति संख्यातगषी है ।३०७।
गर्भोपक्रान्तिक जीवकी जघन्य पर्याप्त निर्वृत्ति इसका अर्थ है गर्भज जीवोंका बद्ध जघन्य आयुके काल तक निर्व्याघातरूपसे जीवित रहना।
शंका- यह संख्यातगुणी कैसे है ? समधान- क्योंकि, सम्मळुन जीवोंसे गर्भज जीवोंकी पृथक् जाति देखी जाती है । उससे औपपादिक जीवकी जघन्य पर्याप्त निर्वत्ति संख्यातगणी है ॥३०८॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त कालसे दस हजार वर्षके भाजित करने पर संख्यात अंक उपलब्ध होते हैं।
उससे एकेन्द्रिय जीवके निर्वत्तिस्थान संख्यातगणे हैं ॥३०९।
गुणकार क्या है ? साधिक दो अंक गुणकार है, क्योंकि, दस हजार वर्षसे अन्तमुहूर्त कम बाईस हजार वर्षके भाजित करनेपर दो और कुछ कम पांचवां भाग उपलब्ध होता है
उनसे जीवनीयस्थान विशेष अधिक हैं ॥३१०॥
कितने अधिक है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण या एकेन्द्रियकी जघन्य निर्वत्तिके संख्यात बहुभागप्रमाण अधिक है।
४ अ. का. प्रत्योः ' अंतोमहत्तेण बावीस' इति पाठ:1
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५, ६, ३१५ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ (३६५
उक्कस्सिया णिवत्ती विरोसाहिया ॥ ३११ ॥
केत्तियमेत्तेण ? सव्वुक्कस्सकदलीघावेण घादिदूण एइंदियाणं जहण्णजीविएण समऊणेण । ८ ।।
सम्मुच्छिमस्स णिन्वत्तिट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥ ३१२ ॥
को गुण ? संखेज्जा समया । कुदो ? बावीसवस्ससहस्सेहि अंतोमहत्तूणपुत्वकोडीए भागे हिदाए संखेज्जरूवोवलंभादो । ९ ।।
जीवणियट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ॥ ३१३ ॥
केत्तियमेतेण? आवलि० असंखे० भागेण सम्मच्छिमजहण्णणिवत्तीए संखेज्जेहि भागेहि वा । १० ।।
उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया ॥ ३१४ ॥ केत्तियमेत्तेण ? सम्मच्छिमजहण्णजीविएण समऊणेण । ११ ।। गब्भोवक्कंतियस्स णिव्वत्तिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ।३१५॥
को गुण ? पलिदो० असंखे० मागो। कुदो ? पुश्वकोडीए अंतोमुत्तूणतिण्णि पलिबोवमेसु ओवट्टिवेसु पलिदो० असंखे० भागवलंभावो । १२ ।।
उनसे उत्कृष्ट निवृत्ति विशेष अधिक है । ३११ ।
कितनी अधिक है ? सबसे उत्कृष्ट कदलीघातसे घात कर एकेन्द्रियोंका जो एक समय कम जघन्य जीवित है उतनी अधिक है।
उससे सम्मूर्छन जीवके निर्वृत्तिस्थान संख्यातगणे हैं। ३१२ ।
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है, क्योंकि, बाईस हजार वर्षसे अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटिके भाजित करने पर संख्यात अङ्ग उपलब्ध होते हैं।
उनसे जीवनीयस्थान विशेष अधिक हैं। ३१३ ।
कितने अधिक है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण या सम्मच्छंन जीककी जघन्य निर्वत्तिके संख्यात बहुभागप्रमाण अधिक हैं।
उससे उत्कृष्ट निवृत्ति विशेष अधिक है । ३१४ ।
कितनी अधिक है ? सम्मूच्र्छन जीवके एक समय कम जघन्य जीवित का जितना प्रमाण है तत्प्रमाण अधिक है।
उससे गर्भोपक्रान्त जीवके निवृत्तिस्थान असंख्यातगुणे हैं । ३१५ ।
गुणकार क्या हैं ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, पूर्वकोटिका अन्तमहतं कम तीन पल्यमें भाग देने पर पल्यका असंख्यातवाँ भाग उपलब्ध होता है।
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३६६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ३१६ जीवणियट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ॥३१६॥
के० मेत्तेण? आवलि. असंखे०भागेण सम्वजहणणिवत्तीए संखेज्जेहि भागेहि वा । १३ ।।
उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया ॥३१७।। के. मेत्तेण ? सगजहण्णजीविएण समऊणेण । १४ ॥
उववादिमस्स णिवत्तिट्ठाणाणि जीवणीयट्ठाणाणि च दो वि तुल्लाणि संखेज्जगुणाणि ।।३१८॥
को० गुण ? संखेज्जा समया । कुदो ? तीहि पलिदोवमेहि समऊणवसवस्ससहस्सेहि परिहोणतेत्तीससागरोवमेसु ओवट्टिदेसु संखेज्जरूवोवलंभावो । १५ ॥
उक्कस्सिया णिवत्ती विरोसाहिया ॥३१९।। के० मेत्तेण ? समऊणदसवस्ससहस्समेत्तेण । १६॥
___ एवं परत्थाणेण सोलसदियदंडओ समत्तो । तस्सेव पदेसविरइयस्स इमाणि छअणुयोगद्दाराणि-जहणिया अग्गट्ठिदी अग्गठिविविसेसो अग्गठिविट्ठाणाणि उक्कस्सिया अग्गद्विदी
उनसे जीवनीय स्थान विशेष अधिक हैं ॥३१६।।
कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण या सबसे जघन्य निर्वृत्तिके संख्यात बहुमागप्रमाण अधिक है।
उनसे उत्कृष्ट निर्वृत्ति विशेष अधिक हैं ॥३१७।।
कितनी अधिक है ? एक समय कम सबसे जघन्य जीवितका जितना प्रमाण है तत्प्रमाण अधिक है।
उससे औपपादिक जीवके निर्वत्तिस्थान और जीवनीययस्थान दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगणे हैं ।३१८॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है, क्योंकि, तीन पल्यका एक समय कम दस हजार वर्षसे हीन तेतीस सागरमें भाग देने पर संख्यात अंक उपलब्ध होते हैं ।
उनसे उत्कृष्ट निर्वृत्ति विशेष अधिक है ॥३१९।। कितनी अधिक है ? एक समय कम दस हजार वर्षप्रमाण अधिक है।
इस प्रकार परस्थानकी अपेक्षा सोलह पदवाला दण्डक समाप्त हुआ। उसी प्रदेशविरचके ये छह अनुयोगद्वार हैं-जघन्य अग्रस्थिति, अग्रस्थितिविशेष
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५, ६, ३२३ )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ
( ३६७
भागाभागाणुगमो अप्पाबहुए ति ॥ ३२० ॥
एदाणि छच्चेव एत्थ अणुयोगद्दाराणि होति, अण्णेसिमसंभवादो। सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहणिया अग्गठ्ठिदी ।३२१॥
जहण्णणिवत्तीए चरिमणिसेओ अग्गं णाम । तस्स टिदी जहणिया अग्गदिदी त्ति घेत्तवा । जहण्णणिवत्ति त्ति भणिदं होदि।
अग्गट्ठिविविसेसो असंखेज्जगुणो ।। ३२२ ॥
को गण ? पलिदो० असंखे०भागो। कुदो ? उक्कस्समग्गं णाम तिण्णं पलिदोवमाणं चरिमणिसेओ। तस्स दिदी तिण्णि पलिदोवमाणि उक्कस्सअग्गट्टिवी णाम। तत्थ जहण्णअग्गट्टिदीए अवणिवाए अग्गद्विदिविसेसो। तम्हि जहण्णअग्गदिदीए भागे हिदे पलिदो० असंख०मागवलंभादो।
अग्गठिविट्ठाणाणि रूवाहियाणि विसेसाहियाणि ॥३२३॥
अग्गदिदिविसेसेहितो अग्गट्टिविट्ठाणाणि विसेसा० । केत्तियमेत्तो विसेसो त्ति मणिवे एगरूवमेत्तो त्ति जाणावणठें रूवाहियाणि त्ति भणिदं। एगरूवाहियाणि त्ति पदुप्पडि विसेसाहियणिद्देसो ण कायव्यो ? ण एस दोसो, दवटियणयाणुग्गहढें
अग्रस्थितिस्थान, उत्कृष्ट अग्रस्थिति, भागाभागानगम और अल्पबहुत्व । ३२० ।
यहाँ ये छह ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि, अन्य अनुयोगद्वार सम्भव नहीं हैं। औदारिकशरीरको जघन्य अग्रस्थिति सबसे स्तोक है । ३२१ ।
जघन्य निर्वृत्तिके अन्तिम निषेककी अग्र संज्ञा है। उसकी स्थिति जघन्य अग्रस्थिति है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। जघन्य निर्वृत्ति यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
उससे अग्रस्थितिविशेष असंख्यातगुणा है । ३२२ ।
गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, उत्कृष्ट अग्र तीन पल्यके अन्तिम निषेककी संज्ञा है। उस अन्तिम निषेककी जो तीन पल्यप्रमाण स्थिति है वह उत्कृष्ट अग्रस्थिति है। उसमें से जघन्य अग्रस्थितिके कम कर देने पर जो लब्ध आवे उतना अग्रस्थितिविशेष होता है। उसमें जघन्य अग्रस्थितिका भाग देने पर पल्यका असंख्यातवाँ भाग उपलब्ध होता है।
उससे अग्रस्थितिस्थान रूपाधिक विशेष अधिक हैं ॥ ३२३ ॥
अग्रस्थितिविशेषसे अग्रस्थितिस्थान विशेष अधिक है । विशेषका प्रमाण कितना है ऐसा पूछने पर एक अंकप्रमाण है, इस बातका ज्ञान कराने के लिए सूत्र में 'रूवाहियाणि' ऐसा कहा है।
शंका-- एक अंकप्रमाण अधिक हैं ऐसा कहने पर विशेषाधिक पदका निर्देश नहीं करना चाहिए ?
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्यार्थिकनयका अनुग्रह करनेके लिए
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३६८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ६, ३२४ विसेसाहियणिद्देसकरणादो । जदि एवं तो विसेसाहियणिद्देसस्स पुव्वणिवाओ कायव्वो? ण एस दोसो, जवि वि पच्छा णिविट्ठो तो वि एदस्स परूवणा पुव्वं चेव होदि ति उवदेसेण विणा वि अवगम्ममाणत्तादो।
उक्कस्सिया अग्गट्टिदी विसेसाहिया ॥३२४॥ केत्तियमेत्तेण ? समऊणजहण्णअग्गटिदिमेत्तेण । एवं तिण्णं सरीराणं ॥३२५॥
जहा ओरालियसरीरस्स चदुण्णमणयोगद्दाराणं परूवणा कदा तहा आहारसरीरवज्जाणं सेसतिण्णं सरीराणं परूबणा कायवा । वरि कम्मइयसरीरस्स जहणिया अग्गदिदी थोवा ति वृत्ते सुहुमसांपराइयस्स चरिमबंधो घेत्तव्यो । अग्गटिदि. विसेसो असंखेज्जगणो ति बुत्ते पंचिदियजहणियमग्गट्टिदि सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तउक्कस्सअग्गदिदीए सोहिय पलिदो० संखे०भागमेतदिदिबंधढाणेसु तत्थ पक्खित्तेस अग्गद्विविविसेसो होदि । एदम्हि जहण्णअग्गदिदीए भागे हिदे पलिदो० असंखे०भागो आगच्छति । एसो एत्थ गणगारो । अग्गटिविट्ठाणाणि रूवाहियाणि । उक्कस्सिया विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? संखेज्जेहि पलिदोवमेहि । सेसं सगमं ।
विशेषाधिक पदका निर्देश किया है।
शंका-यदि ऐसा है तो विशेषाधिकपदका पूर्व निपात करना चाहिए ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यद्यपि विशेषाधिक पदका पश्चात् निर्देश किया तो भी इसकी प्ररूपणा पहले ही होती है कह बात उपदेशके बिना भी जानने योग्य है ।
उनसे उत्कृष्ट अग्रस्थिति विशेष अधिक है। ३२४ ।।
कितनी अधिक है ? एक समय कम जघन्य अग्रस्थितिका जितना प्रमाण है उतनी अधिक है।
इस प्रकार तीन शरीरोंको प्ररूपणा करनी चाहिए ॥ ३२५ ।।
जिस प्रकार औदारिकशरीरकी अपेक्षा चार अनुयोगद्वारोंका कथन किया है उसी प्रकार आहारकशरीरको छोड़ कर शेष तीन शरीरोंकी अपेक्षा कथन करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कार्मणशरीरकी जघन्य अग्रस्थिति स्तोक है ऐसा कहनेपर सूक्ष्मसाम्परायिक जीवका अन्तिम समय में होनेवाला बन्ध लेना चाहिए । अग्रस्थितिविशेष असंख्यात गुणा है ऐसा कहने पर पञ्चेंद्रियकी जघन्य अग्रस्थितिको सत्तर कोडाकोडी सागरप्रमाण उत्कृष्ट अग्रस्थितिमें से घटा कर उसमें पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबन्धस्थानों के मिलाने पर अग्रस्थितिविशेष होता है। इसमें जघन्य अग्रस्थितिका भाग देने पर पल्यका असंख्यातवां भाग लब्ध आता है । यह यहाँ पर गुणकार है । अग्रस्थितिस्थान एक अधिक हैं । उत्कृष्ट अग्रस्थिति विशेष अधिक है। कितनी अधिक है ? संख्यात पल्पप्रमाण अधिक है। शेष कथन सुगम है । इतनी विशेषता है
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५, ६, ३३० )
बंणानुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ
( ३६९
वरि तेजइयस्स जहण्णिया अग्गट्ठिदी अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सिया अग्गट्टिदी छावट्ठिसागरोवमाणि । वेउब्वियसरीरस्स जहणिया अग्गट्टिदी दसवस्ससहस्वाणि । उक्कस्सिया अग्गट्टिदी तेत्तीससागरोवमाणि ।
सव्वत्थोवा आहारसरीरस्स जहष्णिया अग्गट्टिदी || ३२६ ॥
अंतमत्तपमानत्तादो ।
अग्गट्ठविविसेसो संखेज्जगुणो ॥ ३२७॥
कुदो ? जहण्ण अग्गट्टिवीवो उक्कस्सअग्गट्ठिदीए संखेज्जगुणत्तादो । अग्गट्ठिदिट्ठाणाणि रूवाहियाणि ॥ ३२८ ॥
सुगमं ।
उक्कस्सिया अग्गट्ठिदी विसेसाहिया ॥ ३२९॥ केत्तियमेत्तेण ? अंतोमुहुत्तमेत्तेण ।
भागाभागानुगमेण तत्थ इमाणि तिष्णि अणुयोगद्दाराणि - जहणपदे उक्कस्सपदे अजहरण - अणुक्कस्सपदे ॥ ३३० ॥
एवमेत्थ तिणि चेव अणुयोगद्दाराणि होंति, अण्णेसिमसंभवादो ।
कि तैजसशरीरकी जघन्य अग्रस्थिति अन्तर्मुहूतं प्रमाण है । उत्कृष्ट अग्रस्थिति छ्यासठ सागर - प्रमाण है । वैक्रियिकशरीरकी जघन्य अग्रस्थिति दस हजारवर्षप्रमाण है । उत्कृष्ट अग्र स्थिति तेतीस सागरप्रमाण है ।
आहारकशरीर की जघन्य अग्र स्थिति सबसे स्तोक है || ३२६ ॥ क्योंकि, उसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है ।
उससे अग्रस्थितिविशेष संख्यातगुणा है ॥ ३२७॥
क्योंकि, जघन्य अग्रस्थितिसे उत्कृष्ट अग्रस्थिति संख्यातगुणी है । उससे अग्र स्थितिस्थान रूपाधिक हैं ॥३२८॥
यह सूत्र सुगम है ।
उनसे उत्कृष्ट अग्र स्थिति विशेष अधिक है ।। ३२९ ॥
कितनी अधिक है ? अन्तर्मुहुर्तप्रमाण अधिक है । भागाभागानुगमकी अपेक्षा वहां ये तीन अनुयोगद्वार हैं- जघन्यपद, उत्कृष्टपव और अजघन्य - अनुत्कृष्टपद ॥३३०॥
इस प्रकार यहाँ पर तीन ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि, अन्य अनुयोगद्वारा यहाँ पर सम्भव नहीं हैं ।
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३७०)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ३३१
जहण्णपदेण ओरालियसरीरस्स जहणियाए ठ्ठिदीए पदेसगं सम्वपदेसग्गस्स केवडियो भागो ॥३३॥
एदं पुच्छासुतं संखेज्जदिभागो असंखे*० भाग-अणंतिमभागे अवेक्खदेछ ।
असंखेज्जदिभागो ॥३३२॥
कुदो ? एगसमयपबद्धे दिवगणहाणीए खंडिदेगखंडपमाणत्तादो। सव्वपदेसग्गस्स त्ति वृत्ते एगसमयपबद्धो चेव घेप्पदि । तिसु पलिदोवमेसु संचिदवव्वं ण घेप्पदि त्ति कथं णव्वदे ? अविद्धाइरियवयणादो । एत्थ दिवगणहाणिपमाणमंतोमुहुत्तं, ओरालियसरीरम्मि अंतोमहत्तं गंतूण पढमणिसेगादो दुगुणहीणणिसेगवलंभादो। एत्थ कि तिण्णं पलिदोवमाणं पढमसमए पदिदणिसेयपदेसग्गं घेप्पदि आहो जहण्णणिव्यत्तीए पढमसमए पदिदपदेसग्गमिदि? एत्थ पढमपक्खो घेत्तवो, उक्कस्सणिसेगटिवीए जहण्णटिदिपदेसग्गेण अहियारादो।
एवं चदुष्णं सरीराणं ।:३३३॥
जघन्यपदकी अपेक्षा औदारिकशरीरको जघन्य स्थितिका प्रदेशाग्र सब प्रदेशाग्र के कितने भागप्रामण है ? ॥३३॥
___ यह पृच्छासूत्र संख्यातवें भागप्रमाण है, असंख्यातवें भागप्रमाण है या अनन्तवें भागप्रमाण है इस बातकी अपेक्षा करता है।
असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥३३२।।
क्योंकि, एक समयप्रबद्ध में डेढ़ गुणहानिका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना उसका प्रमाण है । 'सव्वपदेसग्गस्स'ऐसा कहने पर समयप्रबद्धका ही ग्रहण होता है ।
शंका--तीन पल्यप्रमाण काल के भीतर संचित हुए द्रव्यका ग्रहण नहीं होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान--अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है।
यहाँ पर डेढ़ गुणहानिका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि,, औदारिकशरीरमें अन्तर्मुहूर्त जाकर प्रथम निषेकसे दुगुने हीन निषेक उपलब्ध होते हैं ।
शंका---यहाँ पर क्या तीन पल्यों के प्रथम समयमं प्राप्त हुए निषेकका प्रदेशाग्र ग्रहण करते हैं या जघन्य निर्वृत्तिके प्रथम समयमें प्राप्त हुआ प्रदेशाग्र ग्रहण करते हैं ?
समाधान--यहाँ पर प्रथम पक्षको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, उत्कृष्ट निषेकस्थितिमें जघन्य स्थितिके प्रदेशाग्रका अधिकार है।
इसी प्रकार चार शरीरोंका भागाभाग कहना चाहिए ॥३३३॥
*ता. प्रतो 'संखेज्जदिभागो (ग) असंखे० ' अ. का. प्रत्यो। 'संखेज्जदिभागो असंखे० ' इति पाठ।। ता० प्रती 'उ (अ) अवेक्खदे ' अ. का. प्रत्यो। उक्खदे' इति पाठः ।
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५, ६, ३३५ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ (१७१
जहा ओरालियसरीरस्स जहण्णपडिभागाभागो परविदो तहा एदेसि परूवेदव्वो, अंतोमुत्तमेत्तदिवड्डगुणहाणीए एगसमयपबद्धं खंडिय तत्थ एगखंडपमाणत्तणेण भेवाभावादो। णवरि तेजा-कम्मइयसरीराण दिवगणहाणिपमाणमसंखेज्जाणि पलि. दोषमाणि पढमवग्गमूलाणि । कम्मइयसरीरस्स सत्तवाससहस्साणि आबाधं मोत्तूण तवणंतरउरिमदिदीए जं पदेसगं णिसित्तं तस्स गहणं कायव्वं । पढमणिसेयपमाणेण सव्वदव्वे कीरमाणे जहा वेयणाए परूवणा कदा तहा कायव्वा, पंचसु वि सरीरेसु* पढमणिसेयपमाणेण कीरमाणेसु भेदाभावादो।
उक्कस्सपदेण ओरालियसरीरस्स उक्कस्सियाए ठिठदीए पदेसग्गं सवपदेसग्गस्स केवडिओ भागो ॥३३४॥
सुगमं ।
असंखेज्जदिभागो ॥३३५॥
तिषणं पलिदोवमाणं पढमसमयप्पहुडि एगसमयपबद्धे जहाकमेण णिसिंचमाणे तिणं* पलिदोवमाणं चरिमसमए जं णिसितं पदेसगं तमुक्कस्सट्रिदिपदेसागर णाम । तं सवद्विदिपदेसग्गाणमसंखे०भागो। तस्स को पडिभागो? असंखेज्जा लोगा। तं
जिस प्रकार औदारिकशरीरका जघन्य पदकी अपेक्षा भागाभाग कहा है उसी प्रकार इन शरीरोंका भी कहना चाहिए ; क्योंकि, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण डेढ गुणहानिका एक समयप्रबद्ध में भाग देने पर वहाँ एक खण्डप्रमाणपनेकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। इतनी विशेषता है कि तेजसशरीर और कार्मणशरीरको डेढ़ गुणहानिका प्रमाण पल्यके असंख्यात प्रथमवर्गमूलप्रमाण है । तथा कार्मणशरीरकी सात हजार वर्षप्रमाण आबाधाको छोडकर तदनन्तर उपरिम स्थिति में जो प्रदेशाग्न निषिक्त है उसका ग्रहण करना चाहिए । प्रथम निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्यके करने पर जिस प्रकार वेदना अनुयोगद्वारमें प्ररूपणा की है उस प्रकार करनी चाहिए,क्योंकि, पाँचों ही शरीरोंको प्रथम निषेकके प्रमाण रूप करने पर उस कथनसे इसमें कोई भेद नहीं है।
उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा औदारिकशरीरको उत्कृष्ट स्थितिका प्रदेशाग्र सब प्रवेशान के कितने भागप्रमाण है । ३३४॥
यह सूत्र सुगम है। असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥३३५॥
तीन पल्योंके समयसे लेकर एक समयप्रबद्ध के क्रमसे निक्षिप्त होने पर तीन पल्यों के अन्तिम समय में जो प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है उसकी उत्कृष्ट स्थितिप्रदेशाग्र संज्ञा है। वह सब स्थितियों में प्राप्त प्रदेशाग्रोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है। उसका प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात
* म०प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु ' पचसु सरीरेसु' इति पाठः। * तातो 'fणसिंचमाणं तिण्णं । इति पाठः । ता०प्रती 'उकस्सरदेसट्रिदिपदेसगं' अ०प्रती ' उक्कस्सहिट्रिदिपदेसग्गं ' इति पाठ।।
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३७२)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
जहा- चरिमणिसेयं दृविय, ओरालियसरीरस्स णाणागणहाणिसलागाओ असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमलमेत्ताओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थरामिणा असंखेज्जलोगपमाणेण अंतोमहत्तमेत्तदिवड्डगणहाणिगणिवेण गणिदे समयपबद्धवव्वं होवि । तेणेव गुणगारेण णाणासमयपबद्ध भागे हिदे चरिमणिसेगो आमच्छदि । तेण भागहारो असंखेज्जलोगो त्ति सिद्ध ।
एवं चदण्णं सरीराणं ॥३३६ ॥
तं जहा- वेउब्धियसरीरस्स उक्कस्सियाए टिवीए पदेसग्ग सम्वदिदिपदेसग्गाणं केवडिओ भागो ? असंखे०भागो। तस्स को पडिमागो ? असंखेज्जा लोगा। आहारसरीरस्स उक्कस्सियाए द्विदीए पदेसरगं सव्वढिविपदेसग्गाणं केवडिओ भागो? असंखे० भागो। तस्स को पडिभागो ? अंतोमहत्तं । एवं तेजा-कम्मइयसरीराणं । गरि पडि भागो अंगलस्स असंखे० भागो।
___ अजहण्ण-अणुक्कस्सपदेण ओरालियसरीरस्स अजहण्ण-- अणुक्कस्सियाए द्विदीए पदेसग्गं सवट्ठिविपदेसग्गस्स केवडिओ भागो ॥ ३३७ ॥
सुगमं ।
लोक प्रतिभाग है यथा- अन्तिम निषेकको स्थापित करके औदारिकशरीरकी पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण नाना गुणहानिशलाकाओंका विरलन करके और विरलित राशिके प्रत्येक एकको दुना करके परस्पर गुणा करनेसे जो असंख्यात लोकप्रमाण राशि उत्पन्न हो उसे अन्तमुहूर्त मात्र डेढ गुणहानिसे गुणित करने पर जो आवे उससे गुणित करने पर समयप्रबद्धका द्रव्य होता है। तथा उसी गणकारका नाना समयप्रबद्धोंमें भाग देने पर अन्तिम निषेक आता है। इसलिए भागहार असंख्यात लोक प्रमाण है यह सिद्ध होता है।
इसी प्रकार चार शरीरोंका भागाभाग कहना चाहिए ॥ ३३६ ॥
यथा- क्रियिकशरीरकी उत्कृष्ट स्थितिका प्रदेशाग्र सब स्थितियों के प्रदेशाग्रोंके कितने भागप्रमाण है ? असंख्यातवें भागप्रमाण है। उसका प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभाग है । आहारकशरीरकी उत्कृष्ट स्थितिका प्रदेशाग्र सब स्थितियों के प्रदेशाग्रों के कितने भागप्रमाण है ? असंख्यातवें भागप्रमाण है। उसका प्रतिभाग क्या है ? अन्तर्मुहर्त प्रतिभाग है। इसी प्रकार तैजसशरीर और कार्मणशरीरके विषय में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ पर प्रतिभाग अङगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
___ अजघन्य- अनत्कृष्टपदको अपेक्षा औदारिकशरीरको अजघन्य-अनत्कृष्टस्थितिका प्रवेशाग्र सब स्थितियोंके प्रदेशाग्रके कितने भागप्रमाण है ।। ३३७ ।।
यह सूत्र सुगम है। ४ अ० आ० प्रत्योः ‘एग' इति पाठ;
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५, ६, ३४१ )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ
असंखेज्जा भागा ॥ ३३८ ॥
को पडिभागो ? किणविवगणहाणी पडिभागो । तत्थ एगरूधधरिवं मोत्तण बहुरूवरि गहिदे इच्छिदवव्वं होदि त्ति घेत्तव्वं ।।
एवं चदुण्णं सरीराणं ॥ ३३९ ।। गरि अप्पप्पणो गणहाणिपमाणं जाणिदूण वत्तव्वं ।
अप्पाबहुए ति तत्थ इमाणि तिणि अणुयोगद्दाराणिजहण्णपदे उक्कस्सपदे जहण्णुक्कस्सपदे ॥ ३४० ॥
एवमेत्थ तिण्णि चेव अणुयोगद्दोराणि होति, अण्णेसिमसंभवादो। एस्थ एगेगद्विदिपदेसग्गं जहणं णाम, अप्पहाणीभवकालएगत्तेण कालविसेसस्सेव गहणावो। एगे. गगुणहाणी उक्कस्सपदं णाम, एगसमयं पेक्खिदूण गुणहाणिकालस्स उक्कस्सत्तवलं. भादो । तदुभयं जहण्णक्कस्सपदं णाम ।
जहण्णपदेण सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स चरिमाए टिवीए पवेसग्गं ॥३४॥ ___ जंतिण्णं पलिदोवमाणं चरिमसमए णिसित्तं पवेसरगं तं थोवं । ९ ।।
असंख्यात बहुभाग प्रमाण है ॥३३८॥
प्रतिभाग क्या है ? कुछ कम डेढ गुणहानि प्रतिभाग है। डेढ़ गुणहानिका विरलन करके उस विरलन राशिके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको छोड़कर शेष बहुत अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्यके ग्रहण करने पर इच्छित द्रव्य होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
इसी प्रकार चार शरीरोंकी अपेक्षा भागाभाग जानना चाहिए ॥३३९।।
इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी गुणहानिका प्रमाण जान कर कथन करना चाहिए।
अल्पबहुत्वका अधिकार है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-जघन्यपद उत्कृष्टपद, और जघन्य-उत्कृष्टपद ।।३४०।।
___ इसप्रकार यहाँ पर तीन ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि, अन्य अनुयोगद्वार असम्भव है। यहाँ पर एक एक स्थितिके प्रदेशाग्रकी जघन्य संज्ञा है, क्योंकि, अप्रधानीभूत कालके एकत्वकी अपेक्षा कालविशेषका ही यहाँ ग्रहण किया है । एक एक गुणहानिकी उत्कृष्टपद संज्ञा है । क्योंकि, एक समयको देखते हुए गुणहानिके कालमें उत्कृष्टपना पाया जाता है। तथा उन दोनोंकी जघन्य उत्कृष्टपद संज्ञा है।
जघन्यपदकी अपेक्षा औवारिकशरीरको अन्तिम स्थितिका प्रदेशाग्न सबसे स्तोक है ॥३४१॥
____ जो तीन पल्यप्रमाण स्थितिके अन्तिम समयमें निषिक्त प्रदेशान है वह स्तोक है ।
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३७४)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
पढमाए ट्ठिदीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं ॥ ३४२ ॥ तिण्णं पलिदोवमाणं पढमसमए जं गिसित्तं पदेसग्गं तं पढमद्विदिपदेसरगं नाम । तं चरिमसमए पढेसग्गादो असंखेज्जगणं । को गुण ? असंखेज्जा लोगा। तं जहाअंतोमहत्तमेत्तगणहाणीए तिसु पलिदोवमेसु ओवट्टिवेसु लद्धं गाणागुणहागिसलागाओ होति । एवासि किंचूणण्णोण्णब्भत्थरासिपमाणमेदं ११९ । एदेण चरिमणिसेगे गणिदे जेण पढमणिसेगो होदि तेण गणगारो असंखेज्जा लोगा। असंखेज्जलोगमेत्तं कुदोणव्वदे ? परियम्मादो। तं जहा- बेरूवे वग्गिज्जमाणे वग्गिज्जमाणे पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्ताणि वग्गणट्टाणाणि उवरि गंतूण पलिदोवमच्छेदणयपमाणं पावदि । तं सई वग्गिदं सूचिअंगलच्छेवणयपमाणं पावदि । ते छेदणया दुगणिदा पदरंगलच्छेदणया होति । घणंगलच्छेदणया दुब्भागभहिया । उद्धारपल्लमसखेज्जगणं । दीवसागररूवाणि संखेज्जगणाणि । रज्जच्छेवणया विसेसाहिया । सेडिच्छेदणा विसेसाहिया । जगपवरच्छेदणा दुगणा । घणलोगच्छेदणा दुब्भागभहिया । एवं घणलोगच्छेदणयपमाणं भणिदं । तदो गियत्तिदूण सूचिअंगुलच्छेदणया वग्गिज्जमाणा वग्गिज्जमाणा पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्ताणि वग्गणट्टाणाणि उवरि गंतूण पलिदोवम
उससे प्रथम स्थितिमें निषिक्त प्रदेशाग्र असंख्यातगणा है ॥ ३४२ ।।
तीन पल्योंके प्रथम समयमें जो प्रदेशाग्र निषिक्त है उसकी प्रथम स्थितिप्रदेशाग्र संज्ञा है। वह अन्तिम समय में निषिक्त प्रदेशाग्रसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? असख्यात लोक है। यथा- अन्तर्मुहर्तप्रमाण गुणहानिका तीन पल्योंमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उतनी नानागुणहानिशलाकायें होती हैं। इनकी कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि का प्रमाण इतना है पर । इससे अन्तिम निषेकके गुणित करने पर यतः प्रथम निषेकका प्रमाण होता है, अत: गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है।
शंका-- गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- परिकमसूत्रसे जाना जाता है । यथा- दोका उत्तरोत्तर वर्ग करने पर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण वर्गणास्थान ऊपर जाकर पल्यके अर्धच्छेदोंका प्रमाण प्राप्त होता है। उसका एक बार वर्ग करने पर सूच्यंगुलके अर्धच्छेदोंका प्रमाण प्राप्त होता है। उन अर्धच्छेदोंको दूना करने पर प्रतराड्.गुलके अर्धच्छेद होते हैं। उनसे घनाइ.गुलके अर्धच्छद द्वितीय भागप्रमाण अधिक हैं। उनसे उद्धारपल्यका प्रमाण असंख्यातगणा है। उससे द्वीपों और सागरोंकी संख्या संख्यातगुणी है। उससे राजुके अर्धच्छेद विशेष अधिक है। उनसे जगश्रेणिके अर्धच्छेद विशेष अधिक है। उनसे जगप्रतरके अर्घच्छेद दूने है। उनसे घनलोकके अर्धच्छेद द्वितीय भागप्रमाण अधिक हैं। इस प्रकार घनलोकके अर्घच्छेदोंका प्रमाण कहा है। यहाँसे लोटकर सूच्यंगुलके अर्धच्छेदोंका उत्तरोत्तर वर्ग करके पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण
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५, ६, ३४२ )
बंणानुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ
पढमवग्गमूलं पावदि । तं सई वग्गिदं पलिदोवमं पावदि । संपहि पलिदोवमादो हेट्ठा असंखेज्जाणि वग्गणद्वाणाणि ओसरिदूण सूचियंगुलच्छेदणयाणमुवरि तस्सेव उवरिमवग्गादो हेट्ठा घणलोगच्छेदणया होंति त्ति परियम्मे भणिदं । पुणो एदे विरलिय fai करिय अण्णोषण भत्थे कदे घणलोगो उप्पज्जदि त्ति भणिदं होदि । ओरालियसरीरस्स पुण णाणागुणहाणिसलागाणं पमाणं जदि घणलोगच्छेदणयमेत्तं होदि तो ओरालि यसरी रण्णोष्ण मत्थरासिपमाणं घणलोगमेत्तं चेव होदि । अथ जदि जत्तिया जगपदरच्छेदणया घणलोगच्छेदणया च तत्सियाओ ओरालियस रीरणाणागुणहाणिसलागाओ होंति तो ओरालियसरीरस्स अण्णोष्णब्भत्थरासिपमाणं जगपदर गुणिदघणलोगमेत्तं होदि । ण च एदं । कुदो ? घणलोगच्छेदणएहितो पलिदोवमपढमवग्गमूलादो च ओरालियस रीरणाणागुणहाणिसला गाणमसंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । एदं कुदो उवलब्भदे ? जुत्तदो । तं जहा- ओरालियसरीरस्स एगपदेसगुणहाणिअद्धाणं संखेज्जावलियमेत्तं होण अंतोमुहुत्तं होदि । एवं च कुदो णव्वदे ? वग्गणपरंपरोवणिधसुत्तादो। पुणो एत्तियमद्धाणं गंतॄण जदि एगगुणहाणिसलागा लब्मदि तो तिष्णं पलिदोवमाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए आवलि०
वर्गणास्थान ऊपर जाकर पल्यका प्रथम वर्गमूल प्राप्त होता है । उसका एकबार वर्ग करने पर पल्यका प्रमाण प्राप्त होता है । अब पल्यसे नीचे असंख्यात वर्गणास्थान उतर कर सूच्यंगुलके अर्धच्छेदोंके ऊपर तथा उसीके उपरिम वर्गसे नीचे घनलोकके अर्धच्छेद होते हैं ऐसा परिकर्म में कहा है । पुनः इनका विरलन कर और विरलितराशिके प्रत्येक एकको दूना कर परस्पर गुणा करने पर घनलोक उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु ओदारिकशरीर की नानागुणहानिशलाकाओंका प्रमाण यदि घनलोक के अर्धच्छेदप्रमाण होता है तो औदारिकशरीरकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण घनलोकप्रमाण ही होता है । और जितने जगप्रतरके अर्धच्छेद और घनलोकके अर्धच्छेद हैं उतनी यदि औदारिकशरीरकी नानागुणहानिशलाकायें होती हैं तो औदारिकशरीरको अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण जगप्रतरसे गुणित घनलोकप्रमाण होता है । परन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि, घनलोकके अर्धच्छेदों और पल्यके प्रथम वर्गमूलसे औदारिकशरीरकी नानागुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी उपलब्ध होती हैं ।
शंका -- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- - युक्तिसे । यथा- औदारिकशरीरका एक प्रदेश गुणहानिअध्वान संख्यात आवल होकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है ।
शका -- यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- वर्गणापरम्परोपनिधा सूत्रसे जाना जाता है ।
पुनः इतना अध्वान जाकर यदि एक गुणहानिशलाका प्राप्त होती है तो
तीन पल्यों का
क्या प्राप्त होगा इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशि में प्रमाण शिका भाग देने पर
ता० प्रो' हेट्ठा संखेज्जाणि' इति पाठ: 1
( ३७५
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३७६ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, ३४३
असंखे० मागेण पदरावलियं गुणेदूण तेण गुणिदरासिणा उवरि वग्गं गुणेवण णेयव्वं जाव पलिदोवमबिदियवग्गमले त्ति । जत्थ जत्तियाणि ख्वाणि तत्थ तत्तियाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि आगच्छति । एवमेत्तियाओ ओरालियसरीरणाणागुणहाणिसलागाओ होंति । पुणो एदाओ विरलिय विगं करिय अण्णोष्णमत्थे कवे असंखेज्जलोगमेत्तरासी उप्पज्जदि त्ति णत्थि संदेहो । पुणो एदेण रासिगा ओरालियसरीरचरमणिसे गुणिदे तस्सेव पढमणिसेगो होदित्ति गेव्हियत्वं ।
अपढम अचरिमासु ट्ठिदीस पदेसग्गमसंखेज्जगुणं ॥ ३४३ ॥
को गुण ? संखेज्जावलियमेत्ताओ सादिरेगेगरूवेणूणदिवड्डूगुणहाणीओ । तं जहा - तिसु पलिदोवमेसुप्पज्जिय उप्पण्णपढमसमए ओरालियस रोरणिप्पायणट्ठ गहिदणोकम्मपदे से हितो घेतूण तिणिपलिदोवमाणं पढमसमए बहुअं पदेसपिडं निसिचवि । बिदियसमए विसेसहीणं णिसिचदि । एवं निरंतरं विसेसहीणकमेण ताव निसिचदि जाव तिष्णं पलिदोवमाणं चरिमसमओ त्ति । पुणो एवं णिसित्तसव्वदन्वे पढमणिसेपमाणेण कदे दिवडगुणहाणिमेत्तपढमणिसेया होंति । पुणो एत्थ पढमणिसेगस्स चरिमणिसेगस्स च अवणयणट्ठ सादिरेगमेगरूवमवणेदव्वं । सेसमेत्तियं होदि५७७९ ५१२/
। एदेण पढमणिसे गुणिदे तिष्णं पलिदोवमाणं पढमणिसेयं चरिमणिसेगं च
आवलिके असंख्यातवें भागसे प्रतरावलिको गुणित करके उस गुणित राशिसे ऊपर वर्गको गुणित करके पल्यके द्वितीय वर्गमूलके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । जहाँ जितनी संख्या होती है वहाँ उतने पल्य के प्रथम वर्गमूल आते हैं । इस प्रकार जितनी औदारिकशरीरकी नानागुणहानिशलाकायें होती हैं। पुनः इनका विरलन करके और विरलितराशिके प्रत्येक एकको दूना करके परस्पर गुणा करने पर असंख्यात लोकप्रमाण राशि उत्पन्न होती है इसमें सन्देह नहीं है । पुन: इस राशिसे औदारिकशरीरके अन्तिम निषेकके गुणित करने पर उसीका प्रथम निषेक होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए ।
उससे अप्रथम-अचरम स्थितियोंमें प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा होता है । ३४३ ।
गुणकार क्या है ? संख्यात आवलिप्रमाण जो साधिक एक अंकसे न्यून डेढ गुणहानि है उतना गुणकार है । यथा - तीन पल्की आयुवालोंमें उत्पन्न हो कर उत्पन्न होनेके प्रथम समय में औदारिकशरीरको उत्पन्न करनेके लिए ग्रहण किये गये नोकर्मके प्रदेशोंमेंसे लेकर तीन पल्के प्रथम समय में बहुत प्रदेश पिण्डको निक्षिप्त करता है । द्वितीय समय में विशेष हीन प्रदेशपिण्ड निक्षिप्त करता है । इस प्रकार निरन्तर विशेष हीन क्रमसे तीन पल्यके अंतिम समय तक निक्षिप्त करता है । पुनः इस प्रकार निक्षिप्त किये गये सब द्रव्यको प्रथम निषेकके प्रमाणरूप से करने पर डेढ गुणहानिप्रमाण प्रथम निषेक होते हैं । पुनः यहाँ पर प्रथम निषेक और अंतिम निषेकका अपनयन करनेके लिए साधिक एक अंक घटाना चाहिए । शेषका प्रमाण इतना होता ५७७९ । इससे प्रथम निषेकके गुणित करने पर तीन पल्यके प्रथम निषेक और अन्तिम ५१२
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(३७७
५, ६, ३४७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ मोत्तूण मज्झिमसनवदम्वमागच्छदि । तेण अपढम-अचरिमदव्वस्स असंखेज्जगणतं सिद्धं । मज्झिमदव्वमेदं ५७७९ ।
अपढमासु ट्ठिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३४४ ।। केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमणिसेयमेतो ५७८८ । अचरिमासु ट्ठिवीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ।। ३४५॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमणिसेगेणूणपढमणिसेगमेत्तो ६२९१ । सव्वासु ट्ठिवीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३४६ ।। केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमणिसेगमेत्तो ६३०० । एवं तिण्णं सरीराणं ॥ ३४७ ॥
जहा ओरालियसरीरस्स जहण्णपदप्पाबहुअपरूवणा कदा तहा वेउविय-तेजाकम्मइयसरीराणं पि कायव्वा, विसेसाभावादो। णवरि तेजासरीरस्स अण्णोण्णब्भत्थरासी असंखेज्जओसप्पिणि-उस्सप्पिणिमेत्तो, पलिदोवमअद्धच्छेदणाहितो तेजइयसरीर. णाणागुणहाणिसलागाणमसंखेज्जगुणत्तदंसणादो। एदं कुदो जव्वदे ? कम्मइयसरीरस्स
निषेकको छोड कर मध्यके निषेकोंका सब द्रव्य आता है। इसलिए अप्रथम-अचरम द्रव्य असंख्यातगुणा है यह सिद्ध होता है। मध्यका द्रव्य इतना है-- ५७७९ ।
उससे अप्रथम स्थितियोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ॥ ३४४ ।।
विशेष का प्रमाण कितना है ? अन्तिम निषेकका जितना प्रमाण है उतना है (५७७९+९)%3D५७८८ ।।
उससे अचरम स्थितियोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ॥ ३४५ ॥
विशेषका प्रमाण कितना है ? प्रथम निषेकमेंसे अन्तिम निषेकके प्रमाणको कम करके जो शेष रहे उतना है। ( ५१२ - ९ = ५०३; ५७८८+५०३ % ) ६२९१ ।
उससे सब स्थितियों में प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ॥ ३४६ ॥
विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम निषेकका जितना प्रमाण है उतना है। ( ६२९१+९ = ६३०० ) ।
इसी प्रकार तीन शरीरोंके प्रदेशाग्रका जघन्यपदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिए ॥ ३४७ ।।
___ जिस प्रकार औदारिकशरीरके जघन्य पदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणा की है उसी प्रकार वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर और कार्मणशरीरकी प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि तेजसशरीरकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका प्रमाण असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सपिणियोंके कालप्रमाण है, क्योंकि, पल्यके अर्धच्छेदोंसे तैजसशरीरकी नानागुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी देखी जाती हैं। __ शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
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( ५, ६.३४८
३७८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं णाणागणहाणिसलागाहिंतो तेजइयस्स गणहाणिसलागाओ असंखेज्जगुणाओ ति सुत्तवयणादो । कम्मइयस्स अण्णोण्णभत्थरासिपमाणं पलिदो० असंखे० भागो।
__ जहण्णपदेण सम्वत्थोव आहारसरीस्स चरिमाए ट्ठिवीए पदेसग्गं ।। ३४८ ॥
कुदो ? गोवच्छागारेण सव्यणिसेगाणमवट्ठाणादो उक्कस्सटिदिसंजत्तपरमाणूणं बहुआणमसंभवादो च।
पढमाए ट्ठिबीए पदेसग्गं संखेज्जगुणं ॥ ३४९ ॥
को गण ? संखेज्जा समया अण्णोण्णब्भत्थरासी । किमट्ठमण्णोण्णभत्थरासी संखेज्जे ? अंतोमहत्तमेत्तगणहाणिअद्धाणेण सयलआहारसरीरदिविकाले अंतोमहत्तमेत्ते भागे हिदे संखेज्जाणं णाणागणहाणिसलागाणं पमाणवलंभावो । एवासिमण्णो. ण्णभत्थरासी वि संखेज्जा चेव होदि, पढमद्धिविपदेसग्गस्स संखेज्जगणतण्णहाणव वत्तीदो।
अपढम-अचरिमासु ट्ठिबीसु पदेसग्गमसंखेज्जगुणं ॥ ३५० ॥ को गुण ? अंतोमहत्तं । किचूदिवगणहाणि त्ति जं वृत्तं होवि ।
समाधान-- कार्मणशरीरको नानागुणहानिशलाकाओंसे तैजसशरीरकी नानागुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी हैं, इस सूत्रवचनसे जाना जाता है ।
कार्मणशरीरकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण पत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
जघन्यपदकी अपेक्षा आहारकशरीरको अन्तिम स्थितिमें प्रदेशाग्र सबके स्तोक है ॥ ३४८॥
क्योंकि, सब निषेक गोपुच्छाके आकाररूपसे अवस्थित हैं और उत्कृष्ट स्थितिसे युक्त . परमाणुओंका बहुत होना असंभव है।
उससे प्रथम स्थितिमें प्रदेशाग्र संख्यातगणा है ।। ३४९ ।। गुणकार क्या है ? संख्यात समय प्रमाण अन्योन्याभ्यस्त राशि गुणकार है। शंका--अन्योन्याभ्यस्तराशिका प्रमाण संख्यात क्यों है ?
समाधान-- गुणहानिका अध्वान अन्तर्मुहूर्त है। उससे आहारक शरीरके समस्त स्थितिकाल अन्तर्मुहुर्तके भाजित करने पर नानागुणहानियोंका प्रमाण संख्यात उपलब्ध होता है। इनकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण भी संख्यात ही होता है, क्योंकि, अन्यथा प्रथम स्थितिका निषेक संख्यातगुणा नहीं बन सकता।
उससे अप्रथम-अचरम स्थितियोंमें प्रदेशाग्र असंख्यातगणा है ॥ ३५० ॥
गुणकार क्या है ? अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गुणकार है । कुछ कम डेढ़ गुणहानिप्रमाण गण कार है यह उक्त कथन तात्पर्य है।
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५, ६, ३५५ )
बंषणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ
अपढमासु ट्ठिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥३५१॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमणिसेगमेत्तो ।
अचरिमासु ट्ठिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥३५२॥ केत्तियमे तो विसेसो ? चरिमणिसेगेणूणपढमणिसेगमेत्तो ।
सव्वासु द्विदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥३५३॥
के० विसेसो ? चरिणिसेगमेतो । एवं पंचणं सरीराणं जहण्णपदप्पाबहुअं समत्तं ।
उक्कस्सपदेण सम्वत्थोवं ओरालियसरीरस्स चरिमे गुणहाणिट्ठाणंतरे पदेसग्गं ॥३५४॥
कुदो ? चरिमगणहाणिपदेसग्गादो हेटिमहेट्ठिमगुणहाणीणं पदेसग्गस्स दुगुणदुगणकमेण १००। २०० । ४००। ८०० । १६०० । ३२०० । अवट्ठाणसणादो ।
अपढम-अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पवेसग्गमसंखेज्जगुणं ॥३५५॥
को गण? असंखेज्जा लोगा । रूवणणाणागणहाणिसलागाओ ५ विरलिय विगं
उससे अप्रथम स्थितियोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ॥३५॥
कितना अधिक है ? अन्तिम निषेकका जितना प्रमाण है उतना अधिक है। उससे अचरम स्थितियोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ॥३५२।।
कितना अधिक है ? प्रथम निषेकमेंसे अन्तिम निषेकके प्रमाणको कम करने पर जितना शेष रहे उतना अधिक है।
उससे सब स्थितियोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ॥३५३।। विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम निषेकका जितना प्रमाण है उतना है। इस प्रकार पाँच शरीरोंका जघन्य पदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
उत्कृष्टपदकी अपेक्षा औदारिकशरीरके अन्तिम गणहाणिस्थानान्तरमें प्रदेशाग्र सबसे स्तोक हैं ॥३५४॥
क्योंकि, अन्तिम गुणहानिके प्रदेशाग्रसे अधस्तन अधस्तन गुणहानियोंका प्रदेशाग्न दूने दुने क्रमसे अवस्थित देखा जाता है । यथा- १००, २००, ४००, ८००, १६००, ३२०० ।
उससे अप्रथम-अचरम गणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र असंख्यातगणा है।३५५।
गुणकार क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण गुणकार है। एक कम नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन कर और विरलित राशिके प्रत्येक एकको दूनाकर परस्पर गुणा करनेपर
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३८० )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, ३५६
करिय अण्णोष्ण भत्थरासी दूरूवूणा त्ति भणिदं होदि ३० 1 तस्स पमाणमेवं ३००० । अपढमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेस पवेसग्गं विसेसाहियं । ३५६ । केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमगुणहाणिदव्वमेत्तो ३१०० ।
पढमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३५७ ॥ केत्तिय० विसेसो ? चरिमगुणहाणिदव्वमेत्तो ३२०० ।
अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेस पदेसग्गं विसेसाहियं ३५८ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमगुणहाणिदव्वेणूण बिदियादिगुणहाणिदव्वमेत्तो ६२०० । सव्वेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३५९ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमगुणहाणिदव्वमेत्तो ६३०० ।
एवं तिष्णं सरीराणं ॥ ३६० ॥
जहा ओरालियस रीरस्स उक्कस्सपदप्पाबहुअं परूविदं तहा वेउब्विय- तेजाकम्मइयसरीराणं पि परूवेदव्वं । णवरि तेजा - कम्मइयसरीराणमण्णोष्णन्भत्थरासिपमाणं णादूण माणिदव्वं ।
जो अन्योन्याभ्यस्त राशि उत्पन्न हो उसमेंसे दो कम ( ३२ - २३० ) गुणकार शलाका है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसका प्रमाण इतना है । १००x३० ) ३००० ।
उससे अप्रथम गुणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । ३५६ । विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम गुणहानिक। जितना द्रव्य है उतना है ( ३०००+१०० = ) ३१०० अप्रथम गुणहानियोंका द्रव्य ।
उससे प्रथम गुणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । ३५७ । विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम गुणहानिके द्रव्यका जितना प्रमाण है ( ३००० + १०० = ) ३२०० ।
उससे अचरम गुणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । ३५८ । विशेषका प्रमाण कितना है ? द्वितीयादि गुणहानियोंके द्रव्यमेंसे अन्तिम गुणहानि के कम करनेपर जो शेष रहे उतना है ( ३१०० १०० = ३०००; ३२०० + ३००० = ) ६२०० । उससे सब गुणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । ३५९ ।
विशेषका प्रमाण कितना है ? अतिम गुणहानिके द्रव्यका जितना प्रमाण है उतना है
( ६२०० + १०० = ) ६३०० |
इसी प्रकार तीन शरीरोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । ३६० ।
जिस प्रकार औदारिकशरीरका उत्कृष्टपदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरका भी कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तेजसशरीर और कार्मणशरीरकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका प्रमाण जान कर कहना चाहिए ।
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५, ६, ३६६ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ (१८१
सम्वत्थोवं आहारसरीरस्स चरिमगुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं ॥३६॥
कारणं सुगमं । अपढम-अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं संखेज्जगुणं ।३६२। को गुण० ? सगअण्णोण्णभत्थरासीए चदुरूवूणाए अद्धं ।
अपढमेमु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥३६३॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमगुणहाणिदव्वमेत्तो।
पढमे गुणहाणिट्ठाणंतरे पदेसग्गं विसेसाहियं ॥३६४।। के० विसेसो ? चरिमगुणहाणिव्व्वमेत्तो।
अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥३६५॥
के० विसेसो ? चरिमगुणहाणिदब्वेणूणबिवियादिगणहाणिवव्वमेत्तो । सव्वेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥३६६।।
के० विसेसो ? चरिमगुणहाणिवव्वमेत्तो । एवमक्कस्सपदप्पाबहुअं समत्तं ।
आहारकशरीरके अन्तिम गुणहानिस्थानान्तरों में प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है।३६१॥
कारण सुगम है। उससे अप्रथम-अचरम गुणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र संख्यातगणा है ३६२।
गुणकार क्या है ? चार कम अपनी अन्योन्याभ्यस्त राशिका अर्धभागप्रमाण गुणकार है ( ६४ - ४ = ६०; ६.२- ३०, १०० x ३० - ३०००)
उससे अप्रथम गणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ।।३६३॥ विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम गुणहानिका जितना द्रव्य है उतना है। उससे प्रथम गणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ।।३६४॥ . विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम गुणहानिका जितना द्रव्य है उतना है । उससे अचरम गुणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ॥३६५।।
विशेषका प्रमाण कितना है ? द्वितीयादि गुणहानियोंके द्रव्यमें से अन्तिम गुणहानिका द्रव्य कम कर देने पर जो शेष रहे उतना है ।
उससे सब गुणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ॥३६६।। विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम गुणहानिका जितना द्रव्य है उतना है।
इस प्रकार उत्कृष्टपद अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
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३८२ )
( ५, ६, ३६७
जहण्णुक्कस्सपदेण सव्वत्थोवं ओरालियसरीरस्स चरिमाए ट्ठिदीए पदेसग्गं ।। ३६७ ॥
कुदो ? उक्कस्सट्ठिदिसंजुत्तपरमाणुपोग्गलाणं बहुआणमणुवलंभादो । ९ ।। चरिमे गुणहाणिट्ठाणंतरे पवेसग्गमसंखेज्जगुणं ॥ ३६८ ॥
को गुण० ? किंचूणदिव ड्डगुणहाणीओ
९
१०० । कुबो चरिमगुणहाणिदव्वे चरिमणियमाणेण कदे किंचूणदिवडूगुणहाणिमेत्तचरिमणिसेगाणं तत्युवलंभादो । पढमाए ट्ठिीए पदेसग्गमसंखेज्जगुणं ॥ ३६९ ॥
किचनण्णोष्ण
९
को गुण ० ? असंखेज्जा लोगा । किंचूजदिवडुगुणहाणिना १०० मत्थसिम्हि
मागे हिदे जं भागलद्धं सो गुणगारो त्ति घेत्तव्वं ५१२ । अपढम - अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गमसंखेज्ज-गुणं ॥ ३७० ॥
को गुण० ? अंतोमुहुत्तं । गुणहाणीए तिष्णिचदुब्भागेण सादिरेगेणऊणविवड्ड
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
५१२
जघन्य उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा औवारिकशरीरको अन्तिम स्थितिमें प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है । ३६७ ।
क्योंकि, उत्कृष्ट स्थितियुक्त बहुत परमाणु नहीं उपलब्ध होते ।
उससे अन्तिम गुणहाणिस्थानान्तर में प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । ३६८ ॥ गुणकार क्या है ? कुछ कम डेढ गुणहानिप्रमाण गुणकार है १००, क्योंकि, अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको अन्तिम निषेकके प्रमाणसे करने पर कुछ कम डेढ गुणहानि प्रमाण अन्तिम निषेक उपलब्ध होते हैं ।
उससे प्रथम स्थिति में प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा
। ३६९ ।
गुणकार क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण गुणकार है । कुछ कम डेढ गुणहानि १०० का कुछकम अन्योन्याभ्यस्त राशि 2' में भाग देनेपर जो भाग लब्ध आवे वह गुणकार है : ) ५१२ ।
ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए | ( ५१२ : १०० ९
५१२ १०० ५१२ X १०० १ १००
उससे अप्रथम- अचरम गुणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । ३७०। गुणकार क्या है ? अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गुणकार है । गुणहानिके तीन बटे चार भाग से
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५, ६, ३७५ ) बंधणाणुयोगदारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ गुणहाणि ति मणिदं होदि ३००० ।
अपढमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पवेसग्गं विसेसाहियं । ३७१ । केत्तियतो विसेसो ? चरिमगणहाणिदव्वमेत्तो ३१०० । पढमे गुणहाणिट्ठाणंतरे पदेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३७२ ॥
के० विसेसो ? चरिमगणहाणिवत्वमेत्तो। कुदो ? बिदियाविगुणहाणिदव्वाणं दुगुणहीण-दुगुणहीणकमेण अवट्ठाणुवलंभादो ३२०० ।।
अपढम-अचरिमासु हिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ।। ३७३ ।।
केत्तियमेत्तो विसेसो ? पढमचरिमणिसेगेहि ऊणविदियाविगुणहाणिवव्वमेत्तो ५७७९ ।
अपढमाए ट्ठिदीए पदेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३७४ ।। के० विसेसो ? चरिमणिसेयमेत्तो ५७८८ । अचरिमेसु गुणहाणिहाणंतरेसु पदेसग्गं विसेसाहियं ।३७५। के० विसेसो ? चरिमगुणहाणिदग्वेणूणपढमणिसेगमेत्तो ६२०० ।
अधिक कुछ कम डेढ गुणहानिप्रमाण गुणकार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ३०००।
उससे अप्रथम गणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। ३७१ ।
विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम गुणहानिका जितना द्रव्य है उतना है (३००० + १००: । ३१०० ।।
उससे प्रथम गणहानिस्थानान्तरों में प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । ३७२ ।
विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम गुणहानिका जितना द्रव्य है उतना है, क्योंकि, द्वितीय आदि गुणहानियोंका द्विगुणहीन द्विगुणहीन क्रमसे अवस्थान उपलब्ध होता है ( ३१००+१००%3D ) ३२०० ।
उससे अप्रथम-अचरम स्थितियोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । ३७३ ।
विशेषका प्रमाण कितना है ? प्रथम और अन्तिम निषेकसे न्यून द्वितीय आदि गुणहानियोंका जितना द्रव्य है उतना है ( ६३०० - ५२१ % ) ५७७९ ।
उसेस अप्रथम स्थितिमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। ३७४ ।
विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम निषेकका जितना प्रमाण है उतना है (५७७९ +९%D ) ५७८८ ।
उससे अचरम गुणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है । ३७५ ।
विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम गुणहानिके द्रव्यको प्रथम निषेकके द्रव्यमेंसे कम करनेपर जितना शेष रहे उतना है (५१२ - १००%3D४१२, ५७८८+४१२ = ) ६२०० ।
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३८४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
अचरिमाए विदीए पदेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३७६ ॥
के० विसेसो ? चरिमणिसे गेणूणच रिमगुणहाणिदव्वमेत्तो ६२९१ ।
सव्वासु विसेसाहियं ॥ ३७७ ॥
ट्ठिदीसु सव्वेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पवेसग्गं
केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमणिसेगमेत्तो ६३०० ।
( ५, ६, ३७६
एवं तिष्णं सरीराणं ॥ ३७८ ॥
जहा ओरालियस रीरस्स जहष्णुक्कस्सपदप्पाबहुअं परूविदं तहा वेउव्विय-तेजाकम्इयसरीराणं पि परूवेदव्वं । गवरि चरिमगुणहाणिदव्वादो तेजइयसरीरस्स पढमद्विदीए णिसित्तवव्वमसंखेज्जगुणं ति भणिदे एत्थ गुणगारो अंगुलस्स असंखे० भागो होदि, दिवडूगुणहाणिमेत्तचरिमणिसेगेहि अण्णोष्णन्भत्थरासिमेत्त चरिमणिसेगेसु ओट्टिदे अंगलस्स असंखे ० भागमेत्तगुणगारुवलंभादो । एत्थ एत्तियमागच्छदित्ति कुदो नव्वदे ? एत्थेव उवरि भण्णमाणअप्पाबहुगादो णव्वदे । तं जहा - सव्वत्थोवाणि आहारसरीरस्स णाणापदेस गुणहाणिद्वाणंतराणि । कम्मइयसरीरस्स णाणापदेस
उससे अचरम स्थितिमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ||३७६ ||
विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम गुणहानिके द्रव्यमेंसे अन्तिम निषेकके द्रव्यको कम कर देने पर जो शेष रहे उतना है ( १०० - ९ = ९१; ६२०० +९१ = '६१९१ । उससे सब स्थितियों और सब गुणहानिस्थानान्तरों में प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ॥ ३७७ ॥
विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम निषेकका जितना प्रमाण है उतना है ( ६२९१ + ९ = ) ६३०० ।
इसीप्रकार तीन शरीरोंकी अपेक्षा जानना चाहिए ॥ ३७८ ॥
जिस प्रकार औदारिकशरीरका जघन्य उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर और कार्मणशरीरका भी कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अन्तिम गुणहानि द्रव्यसे तैजसशरीरकी प्रथम स्थितिमें निक्षिप्त हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा है ऐसा कहने पर यहाँ पर गुणकार अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, क्योंकि, डेढ़ गुणहानिप्रमाण अन्तिम निषेकोंसे अन्योन्याभ्यस्त राशिप्रमाण अन्तिम निषेकोंके भाजित करने पर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार उपलब्ध होता है ।
शंका-- यहाँ इतना आता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-यहीं पर आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । यथा-आहारकशरीरके नानागुणहानिस्थानान्तर सबसे स्तोक हैं। उनसे कार्मणशरीरके नानागुणहानिस्थानान्तर
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५, ६, ३७९ )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ
( ३८५
गुणहाणिट्टाणंतराणि असंखेज्जगणागि। तेजासरीरस्त णाणापदेसगुणहाणिढाणंतराणि असंखे० गुणाणि । संपहि कम्मइयसरीरस्स णाणागुणहाणिसलागाओ पलिदोवमच्छेदणरहितो असंखे० भागेणणाओ त्ति आइरिया भणंति । पुणो एवं विहकम्मइयसरीरगाणागुणहाणिसलागाहितो तेजइयसरीरस्स णाणागुणहाणिसलागाओ असंखेज्जगणाओ त्ति वग्गणासुत्ते भणिदं । अविरुद्धाइरियाणं उवदेसो पुण पलिदोवमच्छेदणाहितो तेजइयसरीरस्स णाणागणहाणिसलागाओ असंखेज्जगुणाओ। को गण० ? पलिदो ० असंखे०भागो त्ति । एदम्हि गुणगारे जत्तियाणि रूवाणि तत्तियाणं पलिदोवमाणमण्णोण्णब्भासे कदे तेजइयणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासी उप्पज्जदि । पुणो तम्मि अण्णोण्णभत्थरासिम्मि दिवगणहाणीए ओट्टिदे लद्धमसंखेज्जाणं पलिदोवमाणमण्णोण्णमासो आगच्छदि । तेण गणगारो अंगलस्स असंखे०भागो त्ति सिद्धं । कम्मइयसरीरगुणगारो पुण पलिदोवमस्स असंखे०भागो त्ति बटुवो। एसो गणगारविही पुव्वं परूविवजहण्णपदे उक्कस्सपदे च वत्तव्यो ।
जहण्णुक्कस्सपदेण सम्वत्थोवं आहारसरीरस्स चरिमाए ट्ठिदीए पदेसग्गं ॥ ३७९ ॥
कुदो ? उक्कस्सद्विदिपरमाणणं बहुआणं संभवाभावादो।
असंख्यातगुणे हैं। उनसे तैजसशरीरके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। यहाँ पर कार्मणशरीरकी नानागुणहानिशलाकायें पल्य के अर्धच्छेदोंसे असंख्यातवें भागप्रमाण कम हैं ऐसा आचार्य कथन करते हैं। पुनः इस प्रकारकी कार्मणशरीरकी नानागुणहानिशलाकाओंसे तेजसशरीरकी नानागुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी है ऐसा वर्गणासूत्रमें कहा है । परन्तु विरोधरहित आचार्योंका उपदेश है कि पल्यके अर्धच्छेदोंसे तैजसशरीरकी नानागुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी हैं। गुणकार क्या है ? पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण गुणकार है। इस गुणकारमें जितनी संख्या है उतने पल्योंका परस्पर गुणा करने पर तैजसशरीरकी नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि उत्पन्न होती है । पुनः उस अन्योन्याभ्यस्त राशिम डेढ गुणहानिका भाग देने पर असंख्यात पल्योंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि आती है । इसलिए गुणकार अङगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है यह सिद्ध होता है। परन्तु कार्मणशरीरका गुणकार पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण है ऐसा जानना चाहिए। यह गुणकारविधि पहले कहे गये जघन्यपद और उत्कृष्टपदमें भी कहनी चाहिए ।
जघन्य- उत्कृष्ट पदको अपेक्षा आहारकशरीरको अन्तिम स्थितिमें प्रदेशान सबसे स्तोक है ।। ३७९ ।।
क्योंकि, उत्कृष्ट स्थितिके बहुत परमाणु सम्भव नहीं हैं।
४ ता० प्रती 'पुवपरूविदजहण्णपदे ' अ० प्रको 'पुव्वं परूविदं जहण्णपदे' इति पाठ ।
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arखंडागमे वग्गणा-खंड
पढमाए हिदीए पदेसग्गं संखेज्जगुणं ।। ३८० ।।
को गुण ० ? संखेज्जा समया । किंचूणण्णोष्णमत्थरासि त्ति भणिदं होदि चरिमे गुणहाणिट्ठाणंतरे पवेसग्गमसंखेज्जगुणं ॥ ३८१ ॥ को गुण० ? सगदिवडुगुणहाणीए संखेज्जदिभागो ।
३८६ )
अपढम- अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेस पदेसग्गं संखेज्ज - गुणं ॥ ३८२ ।।
? संखेज्जा समया । चदुरूवूणअण्णोष्णन्मत्थरासिस्त अद्धमिदि
को गुण ०
भणिदं होदि ।
अपढमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं विसेसाहियं । ३८३ । केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमगुणहाणिदव्वमेत्तो ।
पढमे गुणहाणिट्ठाणंतरेस पवेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३८४ ॥ के० विसेसो ? चरिमगुणहाणिदव्वमेत्तो । अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं विसेसाहियं । ३८५ | के० विसेसो ? चरिमगुणहाणिदव्वमेत्तेणूण बिदियादिगुणहाणिमेत्तो ।
उससे प्रथम स्थिति में प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है ।। ३८० ॥
( ५, ६, ३८०
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
उससे अन्तिम गुणहानिस्थानान्तर में प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है ॥ ३८१ ॥ गुणकार क्या है ? अपनी डेढ गुणहानिके संख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उससे अप्रथम अचरम गुणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र संख्यातगुणा है । ३८२ । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । चार कम अन्योन्याभ्यस्त राशिका भागप्रमाण गुणकार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उससे अप्रथम गुणहानिस्थानान्तरोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ।। ३८३ ।। विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम गुणहानिके द्रव्यका जितना प्रमाण है उतना है । उससे प्रथम गुणहानिस्थानान्तर में प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ।। ३८४ । विशेषका प्रमाण कितना है ? अंतिम गुणहानिके द्रव्यका जितना प्रमाण है उतना है । उससे अचरम गुणहानिस्थानान्तरों में प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ।। ३८५ ।। विशेषका प्रमाण कितना है ? द्वितीय आदि गुणहानियोंके द्रव्यमेंसे अन्तिम गुणहानि द्रव्यको कम करनेपर जो शेष रहे उतना है ।
गुणकार है । कुछकम अन्योन्याभ्यस्त राशिप्रमाण
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५, ६, ३९० )
घाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए णिसेय अप्पाबहुअं
( १८७
अपढम अचरिमासु ट्ठिदीस पवेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३८६ ॥ के० विसेसो ? पढम चरिमणिसेगेहि ऊणचरिमगुणहाणिदव्वमेत्तो । अपढमासु ट्ठिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३८७ ॥
के० विसेसो ? चरिमणिसेगमेत्तो |
अचरिमासु ट्ठिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३८८ ॥
के० विसेसो ? चरिमणिसेगेणूणपढमणिसेगमेत्तो ।
सव्वासु ट्ठिवीसु सव्वेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३८९ ॥
केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमणिसेयमेत्तो ।
एवं पदेसविरओ त्ति समत्तमणुयोगद्दारं ।
जिसे अप्पा बहुए ति तत्थ इमाणि तिष्णि अणुयोगद्दाराणिजहण उक्तपदे जहण्णुक्कस्सपदे ॥ ३९०॥
उससे अप्रथम- अचरम स्थितियोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है || ३८६ ॥ विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम गुणहानिके द्रव्यमेंसे प्रथम और अन्तिम निषेकके द्रव्यको कम करनेपर जो शेष रहे उतना है ।
उससे अप्रथम स्थितियों में प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ।। ३८७ ॥
विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम निषेकका जो प्रमाण है उतना है ।
उससे अचरम स्थितियोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है || ३८८ ॥
विशेषका प्रमाण कितना है ? प्रथम निषेकके प्रमाणमेंसे अन्तिम निषेकके प्रमाणको कम करनेपर जो शेष रहे उतना है ।
उससे सब स्थितियों और सब गुणहानिस्थानान्तर में प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ।। ३८९ ॥
विशेषक प्रमाण कितना है ? अन्तिम निषेकका जितना प्रमाण है उतना है । इस प्रकार प्रदेशविरच अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
निषेक अल्पबहुत्वका प्रकरण है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैंजघन्यपद, उत्कृष्टपद और जघन्य उत्कृष्टपद ॥ ३९०॥
अ० प्रतो ' पदेसग्गं विसेसग्गं विसेसा ० इति पाठ: ।
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३८८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ३९१ एगगुणहाणिअखाणं जहण्णपदं णाम, एगसंखत्तादो। णाणागुणहाणिसलागाओ उक्कस्सपदं गाम, अणेगसंखत्तादो । गुणहाणिअद्धाणं पेक्खिदूण गाणागुणहाणिसलागाणमसंखेज्जगुणत्तदंसणादो वा उक्कस्सं जाणागणहाणिसलागाणं । आहारकम्मइयगुणगारसलागाहि वियहिचारो, पाधण्णपदमस्तिदूण गुणहाणिसलागाणं उक्कस्सववएसादो । दवटियणयावलंबणादो त्ति भणिदं होदि ।
जहण्णपदेण सव्वत्थोवमोरालिय-वेउब्विय-आहारसरीरस्स एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं ॥ ३९१ ॥
कुदो ? अंतोमुहत्तपमाणत्तादो। होता वि तिण्णि गुणहाणिट्ठाणतराणि सरिसाणि । तं कुदो गव्वदे ? एगसुत्ते एगवयणेण च णिद्देसादो।
तेयासरीरस्स एयपदेस गुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं॥३९२॥ को गुण. ? पलिदो० असंखे०भागो असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । कम्मइयसरीरस्स एगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ।३९३।
एकगुणहानिअध्वानका नाम जघन्यपद है, क्योंकि, उसकी संख्या एक है। नानागुणहानि शलाकाओंका नाम उत्कृष्टपद है, क्योंकि, उनकी संख्या बहुत है। अथवा गुणहानि अध्वानको देखते हुए नानागुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी देखी जाती हैं, इसलिए नानागुणहानिशलाकाओंकी उत्कृष्टपद संज्ञा है। आहारकशरीर और कार्मणशरीरकी गुणहानिशलाकाओंके साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि, प्राधान्यपदकी अपेक्षा नानागुणहानिशलाकाओंकी उत्कृष्ट संज्ञा है । द्रव्याथिकनयका अवलम्बन लेनेसे यह संज्ञा रखी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
जघन्यपदकी अपेक्षा औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरका एकप्रदेशगणहानिस्थानान्तर सबसे स्तोक है ।। ३९१ ॥
क्योंकि, उसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है। ऐसा होते हुए भी तीनों गुगहानिस्थानान्तर
समान हैं।
शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- एक सूत्रमें एक वचनका निर्देश होनेसे जाना जाता है। उससे तैजसशरीरका एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगणा है । ३९२ ।
गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। जो पल्यका असंख्यातवां भाग पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है।
उससे कार्मणशरीरका एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है । ३९६ ।
४ ता० प्रती '-सलागाओ। (अ) णाहार' अ. का. प्रत्यो: 'सलागाओ अणाहार' इति पाठ।। * का० प्रती · तेयासरीरस्स णाणापदेस-' इति पाठः ।
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५, ६, ३९७ ) बंषणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए णिसेयअप्पाबहुअं ( ३८९ को गुणगारो ? पलिदो० असंखे० भागो । एवं जहण्णपदप्पाबहुअं समत्तं ।
उक्कस्सपरेण सव्वत्थोवाणि आहारसरीरस्स गाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि ॥३९४॥
कुदो ? संखेज्जरूवत्तादो।
कम्मइयसरीरस्स णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि ॥३९५॥
को गुणगारो ? पलिदो० असंखे०भागो।
तेजासरीरस्स गाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि ॥३९६॥
को गण० ? पलिदो० असंखे० भागो। कुदो ? तेजासरीरस्स एगगणहाणि*अदाणादो असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमलमेत्तादो कम्मइयसरीरएगगणहाणिअद्धास्स असंखेज्जगुणत्तादो।
ओरालियसरीरस्स गाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि ॥३९७॥
गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
इसप्रकार जघन्यपदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । उत्कृष्ट पदको अपेक्षा आहारकशरीरके नानाप्रदेशगुणाहानिस्थानान्तर सबसे स्तोक हैं ॥३९४॥
__ क्योंकि, उनका प्रमाण संख्यात है। उनसे कार्मणशरीरके नानाप्रदेशगणहानिस्थानान्तर असंख्यातगणे हैं ।।३९५।।
गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उनसे तैजसशरीरके नानाप्रदेशगणहानिस्थानान्तर असंख्यातगणे हैं ।।३९६॥
गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, असंख्यात पल्योंके प्रथम वर्गमूलप्रमाण तेजसशरीरके एकगुणहानि अध्वानसे कार्मणशरीरकी एकगुणहानिका अध्वान असंख्यातगुणा है।
उनसे औदारिकशरीरके नानाप्रवेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगणे हैं ।।३९७॥
* ता० प्रती ' तेजासरीरस्स णाणागुणहाणि- ' इति पाठ।)
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३९० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ३९८
को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो असंखेज्जाणि: पलिदोवमपढमवग्गमलाणि ।
वेउव्वियसरीरस्स णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि संखेज्जगुणाणि ॥ ३९८॥
को गुण ? असंखेज्जा समया। कुदो ? दोणं गुणहाणिअद्धाणाणि सरिसाणि होदूण तेहि विहज्जमाणतिपलिदोवमेहितो तेत्तीससागरोवमाणं संखेज्जगणत्तदसणादो।
एवं उक्कस्सपदप्पाबहुअं समत्तं । जहण्णुक्कस्सपदेण सव्वत्थोवाणि आहारसरीरस्स णाणापवेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि ॥ ३९९ ।। कुदो ? संखेज्जरूवत्तादो।
ओरालिय-वेउन्विय-आहारसरीरस्स एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ।। ४०० ॥ कुदो ? तिण्णि वि गुणहाणिट्ठाणंतराणि सरिसाणि होदूण अंतोमहत्तपमाणत्तादो।
कम्मइयसरीरस्स णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि ॥४०१॥
गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। जो कि पल का असख्यातवां भाग पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है।
उनसे वैक्रियिकशरीरके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगणे हैं ।३९८॥
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है, क्योंकि, दोनोंके गुणहानिअध्वान समान हैं इसलिए उनसे भाजित किये जानेवाले तीन पल्योंसे तेतीस सागर संख्यातगुणे देखे जाते हैं।
इस प्रकार उत्कृष्टपदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। जघन्य-उत्कृष्टपदको अपेक्षा आहारकशरीरके नानाप्रदेशगणहानिस्थानान्तरसबसे स्तोक हैं । ३९९ ।।
क्योंकि, उनका प्रमाण संख्यात है।
उनसे औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरका एकप्रदेशगणहानिस्थानान्तर असंख्यातगणा है । ४०० ।
क्योंकि, तीन ही गुणहानिस्थानांतर सदृश होते हुए प्रत्येकका अध्वान अतर्मुहूर्तप्रमाण है।
उनसे कार्मणशरीरके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगणे हैं।४०१। 8 का० प्रती ' को गुणगारो असंखेज्जाणि ' इति पाठ।।
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५, ६, ४०६ )
को गुण ० ? पलिदो० असंखे ० भागो ।
तेयासरीरस्स
गुणाणि ॥ ४०२ ॥
बंघणानुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए णिसेयअप्पा बहुअं
को गुग० ? पलिदो० असंखे० भागो ।
तेयासरीरस्स एगपदेस गुणहाणिट्ठानंतर मसंखेज्जगुणं ॥ ४०३ | को गुण० ? असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि ।
कम्मइयसरीरस्स एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ ४०४ ।
को गुण ० ? पलिदो० असंखे ० भागो ।
ओरालियसरीरस्स
हैं ॥४०५॥
( ३९१
णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्ज
गुणाणि ॥४०५॥
को गुण० असंखेज्जाणि पलिदोवमच्छेदणय पढ मवग्गमूलाणि । वेडव्वियसरीरस्स णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि संखेज्ज
गुणाणि ॥ ४०६ ||
णाणागुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्ज
गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उनसे तैजसशरीर के नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं ॥ ४०२ ॥ गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है ।
उनसे तैजसशरीरका एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ ४०३ ॥ गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण गुणकार है !
उससे कार्मणशरीरका एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ ॥ ४०४ | गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । औदारिकशरीर के नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे
उससे
गुणकार क्या हैं ? असंख्यात पल्योंके जितने अर्धच्छेद हो उतने प्रथम वर्गमूलप्रमाण
गुणकार है ।
उनसे वैक्रियिकशरीर के नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं ॥ ४०६ ॥
ता० प्रती ' तेयासरीरस्स णाणा (एय) पदेस- ' अ० का० प्रत्यो' 'तेणासरीरस्स णाणापदेस - इति पाठ: ।
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३९२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
को गुण ० ? संखेज्जा समया ।
एवं णिसेयपरूवणा समत्ता |
गुणगारेति तत्थ इमाणि तिणि अणुयोगद्दाराणि जहण्णपद उक्कस्सपदे जहष्णुक्कस्सपदे ।। ४०७ ।।
( ५, ६, ४०७
जहणदव्वमस्सिदूण जो गुणगारो तं जहण्णपदं णाम । उक्कस्सदव्वमस्सिदूण जो गुणगारो तमुक्कस्सपदं णाम । उभयमस्तिऊण जो गुणगारो तं जहण्णुक्कस्सपदं
णाम ।
जहण्णपदे सव्वत्थोवा ओरालिय-वेउब्विय- आहारसरीरस्स जहण्णओ गुणगारो सेडीए असंखेज्जदिभागो ।। ४०८ ।।
कुदो ? सामावियादो । जहण्णपदप्पाबहुए कीरमाणे सेडीए असंखे० भागो गुणगारो होदित्ति भणिदं होदि । तं जहा- सन्वत्थोवमोरालिय सरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं । तं पुण एगसमयपबद्धमेत्तं सुहुमेइंदिय अपज्जत्तएण पढमसमयतमवत्थेण जहण्ण उववादजोगेण अपज्जत्तिवित्तणणिमित्तं गहिदणोकम्पपवेसग्गं । वेउब्वियसरीरस्स जहरणयं पदेसग्गमसंखे० गुणं । को गुण० ? सेडीए असंखे० भागो । एदं पि एगसमयपबद्धमेत्तं असणिपच्छायददेव णेरइएसु उप्पण्णेण पढमसमयआहारएण
गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । इस प्रकार निषेकप्ररूपणा समाप्त हुई ।
गुणकारका प्रकरण है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं- जघन्यपद, उत्कृष्टपद और जघन्य उत्कृष्टपद ॥ ४०७॥
जघन्य द्रव्यका आश्रय कर जो गुणकार है वह जघन्यपद कहलाता है । उत्कृष्टपदका आश्रय कर जो गुणकार है वह उत्कृष्टपद कहलाता है और दोनोंका आश्रय कर जो गुणकार है वह जघन्य - उत्कृष्टपद कहलाता है ।
जघन्य पदकी अपेक्षा औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरका जघन्य गुणकार जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ||४०८ ||
क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । जघन्य पदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व करने पर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यथा - औदारिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्न सबसे स्तोक है । परन्तु वह प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवके द्वारा जघन्य उपपादयोगसे अपर्याप्तिकी रचना के लिए ग्रहण किया गया नोकर्मप्रदेश ग्र एक समयप्रबद्धमात्र होता है । उससे वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । यह भी प्रथम समय में आहारक हुए तथा प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए ऐसे असंज्ञियों में से आकर देव और नारकियों में
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५, ६, ४०९ ) बंधणाणुयोगदारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ ( ३९३ पढमसमयतमत्थेण जहण्णउववावजोगेण गहिदणोकम्मपदेसरगं । आहारसरीरस्त जहण्णयं पदेसग्गमसंखेज्जगणं । को गण ०? सेडीए असंखे०भागो। एवं पि एगसमयपबद्धमत्तं आहारसरीरमट्ठावेंतसंजदेण पढमसमयतप्पाओग्गजहण्णपरिणामजोगेण गहिवणोकम्मपदेसग्गं ।
तेजा-कम्मइयसरीरस्स जहण्णओ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमतभागो ॥४०९॥
एवेण सुत्तेण तेजा-कम्मइयसरीरस्स जहण्णदवाणं गुणगारो परूविदो । तं जहा-आहारसरीरस्स जहण्णपदेसग्गादो तेजासरीरस्स जहण्णपदेसग्गमणंतगुणं । को गण० ? अभवसिद्धिएहि अणंतगणो सिद्धाणमतभागो। एवं पि अण्णदरस्स सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्सर एयंताणवड्ढीए वडमाणयस्स जहण्णजोगिस्स सामितवरिसमयए वट्ठमाणस्स होदि । कम्मइयसरीरस्स जहण्णयं पदे सग्गमणंतगणं । को गुण ? अभवसिद्धिएहि अणंतगणो सिद्धाणमणंतभागो । एवं पि खविदकम्मंसिय. लक्खणेणागद अजोगिचरिसमए वठ्ठमाणअघादिचदुक्कदव्वं घेत्तव्वं ।
एवं जहण्णपदप्पाबहुअं समत्तं ।
उत्पन्न हुए जीवके द्वारा जघन्य उपपादयोगसे ग्रहण किया गया नोकर्मप्रदेशाग्र एक समयप्रबद्ध प्रमाण होता है । उससे आहारकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। यह भी आहारकशरीरको उत्पन्न करनेवाले संयतके द्वारा प्रथम समय में तत्प्रायोग्य जघन्य परिगामयोगके द्वारा ग्रहण किया गया नोकर्मप्रदेशाग्र एक समयप्रबद्धप्रमाण होता है ।
तेजसशरीर और कार्मणशरीरका जघन्य गुणकार अभव्योंसे अनन्तगणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है ॥४०९।।
इस सूत्रके द्वारा तैजसशरीर और कार्मणशरीरके जघन्य द्रव्योंका गुणकार कहा गया है। यथा--आहारकशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रसे तैजसशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है। यह प्रदेशाग्र भी एकान्त वृद्धिसे वृद्धिगत जघन्य योगवाले और स्वामित्वके अन्तिम समयमें विद्यमान अन्यतर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवके होता है । उससे कार्मणशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है। यह भी क्षपितका शिकलक्षणसे आये हुए अयोगी जीवके अन्तिम समयमें विद्यमान अघातिचतुष्कके द्रव्यरूप ग्रहण करना चाहिए।
___ इस प्रकार जघन्य पदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
४ता. प्रतो' -जीवपज्जत्तयस्स ' इति पाठ: 1
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३९४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ४१० उक्कस्सपदेण ओरालियसरीरस्स उक्कस्सओ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो ॥४१०॥
जहण्णउववादजोगेण बद्धएगोरालियसमयपबद्धादो उक्कस्सपरिणामजोगेण बद्धएगोरालियसमयपबद्धो तिणिपलिदोवमसंचिददिवगणहाणिमेत्तउक्कस्सओरालियसमयपबद्धा वा असंखेज्जगणा । एत्थ गणगारो पलिदो० असंखे० भागो।
एवं चदण्णं सरीराणं ॥४११।।
जहा ओरालियसरीरजहण्णव्वादो उक्कस्सदव्वं पलिदो० असंखे० भागगणं तहा सेसचदुण्णं सरीराणं पि सगसगजहण्णसमयपबद्धादो सगसगउक्कस्ससमयपबद्धो गणिदकम्मंसियलक्खणेण संचिददिवगणहाणिमेतसमयपबद्धा वा पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागगुणा । णवरि एगक्कस्ससमयपबद्धं पडुच्च जोगगुणगारो गणिदकम्म. सियलक्खणेण संचिदसवक्कस्सवध्वं पडच्च जोगगणगारेण गणिदविषड्ढगणहाणीओ गणगारो होदि । वरि कम्मइयसरीरस्स जहण्णवव्वमुक्कस्सदव्वं च दिवड्डगणहाणि. गणिदसमयपबद्धमेत्तं होदि, अणादिबंधेण बंधत्तादो । एत्थ वि जहण्णदम्वादो उक्क. स्सदव्वगुणगारो जोगगुणगारमेत्तो । एवमुक्कस्सपदेण सत्थाणप्पानहु समत्तं ।
उत्कृष्ट पदको अपेक्षा औदारिकशरीरका उत्कृष्ट गणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥४१० ।
जघन्य उपपादयोगसे बन्धको प्राप्त हुए औदारिकशरीरके एक समयप्रबद्धसे उत्कृष्ट परिणामयोगसे बन्धको प्राप्त हुआ औदारिकशरीरका एक समयप्रबद्ध अथवा तीन पल्य कालके भीतर संचित हुए डेढ़ गुणहानि प्रमाण औदारिकशरीरके उत्कृष्ट समयप्रबद्ध असख्यातगुणे हैं । यहाँ पर गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
इसी प्रकार चार शरीरोंको अपेक्षासे जानना चाहिए ।।४११।।
जिस प्रकार औदारिकशरीरके जघन्य द्रव्यसे उसका उत्कृष्ट द्रव्य पल्यके असंख्यातवें भागगुणा कहा है उसीप्रकार शेष चार शरीरोंके भी अपने अपने जघन्य समयप्रबद्धसे अपना अपना उत्कृष्ट समयप्रबद्ध अथवा मुणितकांशिकलक्षणसे सञ्चित हुए डढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्ध पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गृणे हैं । इतनी विशेषता है कि एक उत्कृष्ट समयप्रबद्धकी अपेक्षा योगगुणकार ही गुणकार होता है और गुणितकांशिकलक्षणसे सञ्चित हुए सर्वोत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा योगगुणकारसे गुणित डेढ़ गुणहानियाँ गुणकार होता है। इतनी और विशेषता हैं कि कार्मणशरीरका जघन्य द्रव्य और उत्कृष्ट द्रव्य डेढ गुणहानिगुणित समयप्रबद्धप्रमाण होता है, क्योंकि, उसका अनादिसम्बन्धरूपसे बन्ध उपलब्ध होता है । यहाँ भी जघन्य द्रव्यसे उत्कृष्ट द्रव्य लाने के लिए गुणकार योगगुणकारप्रमाण है। ___इस प्रकार उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
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५, ६, ४१५ )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ
( ३९५
जहष्णुक्कस्सपदेण ओरालिय-वेउविय-आहारसरीरस्स जहण्णओ गुणगारो सेडीए असंखेज्जविभागो ॥४१२॥
उक्कस्सओ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥४१३।।
तेजा-कम्मइयसरीरस्स जहण्णओ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो ॥४१४॥
तस्सेव उक्कस्सओ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥४१५।।
एदेहि चदुहि वि सुत्तेहि जहण्णुक्कस्सपदप्पाबहुअस्त गुणगाराणं परूवणा कदा । तं जहा-सम्वत्थोवमोरालियसरीरस्स जहण्मयं पदेसरगं, सुहुमेइवियअपज्जत्त जहण्णउववादजोगेण आगदएगसमयपबद्धत्तादो । तस्सेव उक्कस्सयं पदेसम्गमसंखेज्ज. गणं । को गण. ? पलिदो० असंखे० भागो । कुदो ? तिपलिदोवमाउमणुस्सचरिमसमयउक्कस्सदव्वग्गहणादो। वेउविवयसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । को गण ? सेडीए असंखे० भागो । कुदो? असण्णिपच्छायदेण देवेण रइएण वा जहण्णउववादजोगेण संचिदएगसमयपबद्धपमाणत्तादो । कथं जहणजोगिस्स दव्वं
जघन्य उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरका जघन्य गुणकार जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥४१२।।
तथा उत्कृष्ट गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ४१३॥
तेजसशरीर और कार्मणशरीरका जघन्य गणकार अभव्योंसे अनन्तगणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है ।।४१४॥
तथा उन्हीं का उत्कृष्ट गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥४१५॥
इन चारों ही सूत्रोंके द्वारा जघन्यपद और उत्कृष्टपदकी अपेक्षा अल्पबहत्वके गणकारोंकी प्ररूपणा की है। यथा-औदारिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है; क्योंकि, वह सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके जघन्य उपपाद योगके द्वारा ग्रहण किये गए एक समयप्रबद्धप्रमाण है। उससे उसीका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, तीन पल्य की आयुवाले मनुष्योंके अन्तिम समययें जो उत्कृष्ट द्रव्य होता है उसका यहाँ ग्रहण किया है। उससे वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगणा है । गुणकार क्या है ? जगधेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, वह असंज्ञी जीवोंमेंसे आकर उत्पन्न हुए देव या नारकीके द्वारा जघन्य उपपादयोगसे संचित हुए एक समयप्रबद्धप्रमाण होता है।
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३९६ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, ४१५
O
सेडीए असंखे० भागगुणं होज्ज ? ण, जादिविसेसेण वेउब्वियजहण्ण समयपबद्धस्स सेडीए असंखेज्जदिभागगुणलं पडि विरोहाभावादो । तस्सेव उक्कस्सदव्वमसंखेज्जगुणं । को गुण० ? पलिदोवमासंखे ० भागो । कुदो ? गणिदकम् मंसियलक्खणेणागवआरणच्चदकप्पवासियदेवस्स चरिमसमयसंचयग्गहणादो । आहारसरीरस्स जहयं पवेसग्गमसंखे० गुणं । को गुण ० ? को गुण ० ? सेडीए असंखे ० भागो । कुदो ? उत्तरसरीरमुट्ठावेंतपढमसमयसाहुस्स जहण्णजोगेणागदएगसमयपबद्धग्गहणादो। एत्थ जादिविसेसेणेव गुणगारो सेडीए असंखे ० भागो होदि त्ति घेत्तव्वो । तस्सेव उक्कस्यं पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । को गुण० ? पलिदो० असंखे० भागो । कुदो ? उत्तरसरीरं विविधण मूलसरीरं पविसमाणचरिमसमय आहारसाहुस्स उक्कस्ससंचयग्गहणादो । तेजइयसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गमणंतगुणं । को गुण ० * ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिद्धाणमणंत भागो । कुदो ? सुहुमेइंदियअपज्जत्तजहणएगंताणुव डिजोगकालस्स चरिमसमयतेजइयदव्वग्गहणादो । पुविल्लाणं गुणगारो सेडीए असंखे ० भागो । एदस्स गुणगारो कथमणंतो होज्ज ? साभावियादो । तस्सेव उक्कस्तदव्वमसंखेज्जगुणं । को
शंका-- जघन्य योगवालेका द्रव्य जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणा कैसे होता है ? समाघान -- नहीं, क्योंकि, जातिविशेषके कारण वैक्रियिकशरीरके जघन्य समयप्रबद्ध के जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाणगुणे होने में कोई विरोध नहीं है ।
उससे उसीका उत्कृष्ट द्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, गुणितकर्माशिकलक्षण से आए हुए आरण- अच्युत कल्पवासी देवके अन्तिम समय में जो संचय होता है उसका यहाँ ग्रहण किया है। उससे आहारकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, उत्तरशरीरको उत्पन्न करनेवाले साधुके जघन्य योगसे जो एक समयप्रबद्ध प्राप्त होता है उसका यहाँ पर ग्रहण किया है । यहाँ पर भी जातिविशेष के ही कारण गुणकार जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। उससे उसीका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है | गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, उत्तरशरीरकी विक्रिया करके मूल शरीरमें प्रवेश करनेवाले अन्तिम समयवर्ती आहारकशरीरी साधुके जो उत्कृष्ट संचय होता है उसका यहाँ ग्रहण किया है। उससे तैजसशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र अनन्तगुणा गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवके जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग - कालके अन्तिम समयमें जो तैजसशरीरका द्रव्य होता है उसका यहां ग्रहण किया है । शंका- पहले के शरीरोंका गुणकार जगश्रणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । ऐसी अवस्था में इस शरीरका गुगकार अनन्त कैसे हो सकता है ?
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समाधान - ऐसा स्वभाव है ।
* अ० प्रो' जहण्णजोगिस्स दव्वं सेडीए असंखे० मागगुणत्तं पडि इति पाठ: 1 ता० प्रतो पदेसग्गमसंखे० गुणं ( मणंतगुणं ) को गुण० ' इति पाठ 1
1
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५, ६, ४१७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा ( ३९७ गुण ? पलिदो० असंखे० भागो । कुदो सतमाए पुढवीए चरिमसमयणेरइयस्स गुणिदकम्मंसियस्स उक्कस्स तेजावग्वगहणादो । कम्मइयसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गमणंतगणं । को गुण ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो। कुदो ? खविवकम्मंसियलक्खणेणागदचरिमसमयअजोगिदव्वग्गहणादो । तस्सेव उक्कस्सदव्वमसंखे० गुणं । को गुण ? पलिदो० असंखे०भागो। कुदो गणिदकम्मसियलक्खणेणागवसत्तमपुढविचरिमसमयणेरइयवध्वग्गहणादो।
एवं गणगारो त्ति समत्तमणुओगद्दारं । पवमीमांसाए तत्थ इमाणि दुवे अणुयोगद्दाराणि--जहण्णपदे उक्कस्सपदे ॥४१६॥
जत्थ पंचणं सरीराणं जहण्णवव्वपरिक्खा कीरदि सा जहण्णपदमीमांसा । जत्थ उक्कस्सदव्वपरिक्खा कोरदि सा उक्कस्सपदमीमांस।।
उक्कस्सपदेण ओरालियसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स ॥४१७॥
उससे उसीका उत्कृष्ट द्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, सातवीं पृथिवीमें अन्तिम समयवर्ती नारकीके गुणितकर्माशिकविधिसे जो तैजसशरीरका उत्कृष्ट द्रव्य होता है उसका यहाँ पर ग्रहण किया है । उससे कार्मणशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आए हुए अन्तिम समयवर्ती अयोगिकेवलीके जो द्रव्य होता है उसका यहाँ पर ग्रहण किया है। उससे उसीका उत्कृष्ट द्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, गुणितकौशिकलक्षणसे आये हुए सातवीं पृथिवीके अन्तिम समयवर्ती नारकीका जो द्रव्य है उसका यहाँ पर ग्रहण किया है।
इस प्रकार गुणकार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। पवमीमांसाका प्रकरण है । उसमें ये दो अनुयोगद्वार होते हैं-जघन्यपद और उत्कृष्टपद ।।४१६॥
जहाँ पाँचों शरीरोंके जघन्य द्रव्यकी परीक्षा की जाती है वह जघन्य पदमीमांसा है और जहाँपर उत्कृष्ट द्रव्यकी परीक्षा की जाती है वह उत्कृष्ट पदमीमांसा है।
उत्कृष्टपदकी अपेक्षा औदारिक शरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है ।।४१७॥
ता. प्रतो' -कम्मंसियउक्कस्स-' इति पाठ11
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३९८ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६, ४१८
कि देवस्स किं णेरइयस्स किं तिरिक्खस्स कि मणुस्सस्स कि पज्जत्तस्स किमपज्जत्तस्स कि सणिस्स किमसणिस्स किमेइंदियस्स इच्चादिपुच्छाओ एत्थ कायव्वाओ ।
अण्णदरस्स
उत्तरकुरु-देवकुरुमणुअस्स
तिपलिदोवम
ट्ठिदियस्स ।। ४१८ ॥
इत्थि पुरिस वेदेदिसम्मत्त-मिच्छत्तादिगुणेहि य वव्वविसेसो णत्थि त्ति जाणावणट्ठमदरणिद्देसो कदो । सेसगइप डिसेहट्ठ सेसमणुस्सप डिसेहट्ठ च उत्तरकुरु देवकुरुमस्सग्गहणं कदं । किमदुमणास पडिसेहो कदो ? अण्णत्थ बहुसादाभावादो । असादेण ओरालियसरीरपोग्गलस्स बहुअस्स अपचयदंसणादो । उत्तरकुरु देवकुरुमणुआ सव्वे तिपलिदोवमट्ठिदिया चेव तदो तिपलिदोवमट्ठिदियस्से त्ति विसेसणमजुत्तं ? ण एस दोसो, उत्तरकुरु- वेवकुरुमणुआ तिपलिदोवर्माट्ठदिया चेवे त्ति तत्थ सेसाउट्ठिदिवि - पडसे फलत्तादो। ण च एदं सुत्तं मोत्तूण अण्णं सुत्तमत्थि जेण उत्तरकुरु देवकुरुमणुआ तिपलिदोवमट्ठिदिया चेव होंति त्ति णव्वदि तदो सफलमेदं विसेसणं । समग्राहिय दुपलिदोवमे आदि कादूण जाव समऊणतिष्णिपलिदोवमाणि त्ति द्विदिवियप्पपडिसेहट्ठ
क्या देव है, क्या नारकी है, क्या तियंञ्च है या क्या मनुष्य है; क्या पर्याप्त है या क्या अपर्याप्त है; क्या संज्ञी है या क्या असंज्ञी हैं; तथा क्या एकेन्द्रिय है आदि पृच्छाय यहाँ पर करनी चाहिए ।
जो तीन पल्की आयुवाला उत्तरकुरु और देवकुरुका अन्यतर मनुष्य है । ४१८० स्त्रीवेद और पुरुषवेदके कारण तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्व आदि गुणों के कारण द्रव्य विशेष नहीं होता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए अन्यतरपदका निर्देश किया है । शेष गतियों का निषेध करनेके लिए तथा शेष मनुष्यों का निषेध करने के लिए उत्तरकुरु और देवकुरुके मनुष्यों के इस पदका ग्रहण किया है ।
शका -- अन्यके उत्कृष्ट स्वामित्वका किसलिए निषेध किया है ?
समाधान- क्योंकि, अन्यत्र बहुत साताका अभाव है, क्योंकि, असातासे औदारिकशरीरके बहुत पुद्गलका अपचय देखा जाता है । शंका -- उत्तरकुरु और देवकुरुके सब मनुष्य तीन पल्यकी स्थितिवाले ही होते हैं। इसलिए 'तीन पल्यकी स्थितिवाले के' यह विशेषण युक्त नहीं है ?
समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उत्तरकुरु और देवकुरुके मनुष्य तीन पल्यकी स्थितिवाले ही होते हैं ऐसा कहने का फल वहाँपर शेष आयुस्थिति के विकल्पोंका निषेध करता है । और इस सूत्र को छोडकर अन्य सूत्र नहीं है जिससे यह ज्ञान हो कि उत्तरकुरु और देवकुरुके मनुष्य तीन पल्की स्थितिवाले ही होते है, अतः यह विशेषण सफल है । अथवा एक समय अधिक दो पल्यसे लेकर एक समय कम तीन पल्य तकके स्थितिविकल्पोंका निषेध करने के लिए
-दुरलिद व मआदि
ता० प्रतो '
इति पाठ 1
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५, ६, ४१९ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा (१९९ वा तिपलिदोवमग्गहणं । ण च सम्वसिद्धिदेवाउअं व णिवियप्पं तवाउअं, तप्परूवयसुत्त-वक्खाणाणमणवलंभादो । संपहि तस्स मयस्स लक्खणपरूवणट्ठमुत्तरसुतं भणवि--
तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्येण उक्कस्सेण जोगेण आहारिदो । ४१९ ।
सरीरपाओग्गपोग्गलपिंडग्गहणमाहारो। तत्थ पढमसमयआहारएण आहारिदो। बिवियादिसमयआहारपडिसेहढं पढमसमएण आहारो विसेसिदो। एसो पढमसमयआहारो पढमसमयतब्भवत्थो बिदियसमयतब्भवत्थो तदियसमयतब्भवत्थो वि अस्थि, तत्थ बिविय-तदियसमयतब्भवत्थाहाराणं पडिसेहढं पढमसमयतब्भवत्थविसेसणेण पढमसमयआहारो विसे सिदो । विग्गहगदीए उप्पण्णे को दोसो ? ण, दोसमयसंचयदव्यस्स* अभावप्पसंगादो। उक्कस्सजोगो जस्स पढमसमयआहारस्स सो उक्स्सो जोगो तेण उक्कस्सजोगेण आहारिदो। अणाहार वियप्पपडिसेहटें एवकारणिद्देसो कदो। एवमुप्पण्णपढमसमए आहारविसेस परूविय संपहि बिदियादिसमएसु आहार
सूत्रमें तीन पल्यकी स्थितिवाले पदका ग्रहण किया है। सर्वार्थसिद्धिके देवोंकी आयु जिस प्रकार निर्विकल्प होती है उस प्रकार वहाँकी आयु निर्विकल्प नहीं होती, क्योंकि, इस प्रकारकी आयुकी प्ररूपणा करनेवाला सूत्र और व्याख्यान नहीं उपलब्ध होता ।
अब उस मनुष्यके लक्षणका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
उसी मनुष्यने प्रथम समयमें आहारक और प्रथम समयमें तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योगसे आहारको ग्रहण किया ॥ ४१९ ॥
__ शरीरके योग्य पुद्गलपिण्डका ग्रहण करना आहार है। वहाँ प्रथम समय में आहारक होकर आहार ग्रहण किया। द्वितीय आदि समयोंमें आहारका प्रतिषध करनेके लिए प्रथम समय' पदसे आहारको विशेषित किया है। यह प्रथम समयका आहार प्रथम समयमें तद्भवस्थ होकर, दूसरे समयमें तद्भवस्थ होकर और तीसरे समयमें तद्भवस्थ होकर भी होता है, अतः वहाँ द्वितीय और तृतीय समयमें तद्भवस्थ होकर जो आहार होता है उसका प्रतिषेध करने के लिए 'प्रथम समय में तद्भवस्थ' इस विशेषणसे प्रथम समयके आहारको विशेषित किया है।
शंका-- विग्रहगतिसे उत्पन्न होने में क्या दोष है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, दो समय में संचित हुए द्रव्यके अभावका प्रसंग आता है।
प्रथम समयमें आहारक जिस जीवके जो उत्कृष्ट योग होता है वह उत्कृष्ट योग वहाँपर विवक्षित है। उस उत्कृष्ट योगसे आहार ग्रहण किया। अनाहार विकल्पका निषेध करने के लिए 'एवकार' पदका निर्देश किया है। इस प्रकार उत्पन्न होने के प्रथम समयमें आहार विशेषका कथन
४ अ. प्रसो 'विसेसणं' का० प्रती । विसेसण ' इति पाठ। 1
* म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु ' दोससंचयदव्वस्स ' इति पाठ; ।
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४०० }
छवखंडागमे वग्गणा - खंड
ग्गहणक्कमपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि-
उक्कस्सियाए वड्ढी वड्ढिदो ।। ४२० ।।
पढमसमयजोगादो बिदियसमयजोगो असंखेज्जगुणो । बिदियादो तदियसमयजोगो असंखेज्जगणो । एवं णेयव्वं जात्र एगंताणुवड्डिचरिमसमओ ति । एत्थ गुणगारपमाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एत्थ गुणगारो जणओ वि उक्कस्सओ वि अस्थि । raft जहण्णादो उक्कस्सो असंखेज्जगुणो । तत्थ जहण्णवड्डिपडिसेहट्टमक्क स्सियाए वड्ढी वडिदो त्ति भणिदं । एदेण एयंताणुवड्ढीए आहारणक्कमो परुविदो । किमट्ठ उक्कस्सजोगेणेव आहाराविज्जदि ? बहुपोग्गलग्गहणट्ठ 1
अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तदो । ४२१ |
छपज्जत्तिसमाणणकालो जहण्णओ उक्कस्सओ वि अंतोमहुत्तमेत्तो । तत्थ सव्वजहणेण अंतमहुत्तेण कालेन सव्वाहि य पज्जत्ती हि पज्जत्तयदो तिवृत्तं होदि । किमट्ठे अपज्जत्तकालो लहुओ घेप्पवि ? पज्जत्तकालपरिणामजोगे हितो अपज्जत्तकाल गता वडजोगेहि असंखेज्जगुणहीणेहि* बहुपोग्गलग्गहणाभावादो ।
( ५, ६, ४२१
करके अब द्वितीय आदि समयों में आहारग्रहण के क्रमका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ । ४२० ।
प्रथम समयके योग से द्वितीय समयका योग असंख्यातगुणा है । दूसरे समय के योग से तीसरे समयका योग असंख्यातगुणा है । इस प्रकार एकान्तानुवृद्धियोग के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए । यहाँपर गुणकारका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । यहाँ पर गुणकार जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है । इतनी विशेषता है कि जघन्यसे उत्कृष्ट असंख्यातगुणा है । उनमेंसे जघन्य वृद्धिका प्रतिषेध करनेके लिए उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ यह कहा है । इसद्वारा एकान्तानुवृद्धिसे आहारग्रहणका क्रम कहा गहा है ।
शंका-- उत्कृष्ट योगसे ही आहारग्रहण क्यों कराया गया है ? समाधान -- बहुत पुद्गलोंके ग्रहण करने के लिए ।
अन्तर्मुहूर्त अर्थात् सबसे लघु काल द्वारा सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ । ४२१ ।
छह पर्याप्तियोंके पूरा होनेका काल जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। उनमें से सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका -- लघु अपर्याप्त काल किसलिए ग्रहण किया जाता है ?
समाधान -- क्योंकि, पर्याप्तकालीन परिणामयोगोंसे अपर्याप्तकालीन एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणे हीन होते हैं अतः उनके द्वारा बहुत पुद्गलोंका ग्रहण नहीं होता, इसलिए अपर्याप्त काल लघु ग्रहण किया है ।
• अ० प्रती सव्वाहि पज्जत्तीहि इति पाठा 1
ता० प्रती असखेज्जगुणेहि इति पाठ |
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५, ६, ४२५. )
बंधणाणुयोगदारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा
( ४०१
तस्स अप्पाओ भासद्धाओ ॥ ४२२ ।।
सव्वाओ पज्जत्तीओ समाणिय भासंतस्स जस्स अप्पाओ भासद्धाओ सो उक्कस्सदव्वसामी होदि । भासाकालस्स. थोवत्तं किमट्ट मिच्छिज्जदे? ण, भासावावारेण जणिदपरिस्समेण भासापोग्गलणमभिघादेण य बहुआणं ओरालियपोग्गलाणं परिसदणप्पसंगादो।
अप्पाओ मणजोगद्धाओ ॥ ४२३ ॥
चिदाजणिदपरिस्समेण परिगलंतपोग्गलक्खंधपडिसेहट्ठ अप्पाओ मणजोगद्धाओ त्ति भणिदं।
अप्पा छविच्छेदा ।। ४२४ ।।
छवी सरीरं । तस्स णहादी किरियाविसेसेहि खंडणं छेदो णाम । ते छेदा तत्थ अप्पा थोवा, बहुआणं किरियाणमंतरे तविरोहाभावादो। जेहि सरीरपीडा होदि ते तत्थ अप्पाणि त्ति भावत्थो ।
अंतरे ण कदाइ विउविदो ॥ ४२५ ॥
उसके बोलनेके काल अल्प हैं ॥ ४२२ ।।
सब पर्याप्तियोंको समाप्त करके बोलते हुए जिसके भाषाकाल अल्प हैं वह उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी है।
शंका-भाषाकालका स्तोकपना किसलिए चाहते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, भाषाके व्यापारसे जो परिश्रम होता है उससे तथा भाषारूप पुद्गलोंका अभिघात होनेसे बहुत औदारिकशरीरके पुद्गललोंकी निर्जरा होनेका प्रसंग आता है, इसलिए भाषाकालका स्तोकपना चाहते हैं ।
मनोयोगके काल अल
चिन्ताके कारण जो परिश्रम होता है उससे गलनेवाले पुद्गलस्कन्धोंका निषेध करने के लिए ' मनोयोगके काल अल्प है ' यह कहा है।
छविछेद अल्प हैं। ४२४ ।।
छवि शरीरको कहते हैं। उसके नख आदिका क्रियाविशेषके द्वारा खण्डन करना छेद है । वे छेद वहां अल्प अर्थात् स्तोक हैं, क्योंकि, बहुत क्रियाओंके बिना उसके होने में कोई विरोध नही आता । जिनसे शरीरपीडा होती है वे वहां अल्प हैं यह इसका भावार्थ है ।
आयुकालके मध्य कदाचित् विक्रिया नहीं की ॥ ४२५ ॥
ता० प्रती 'भासकालस्स' इति पाठः 18 प्रतिषु 'तस्सण्णहादीणं इति पाठः |
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४०२ )
छक्वंडागमे वग्गणा-खं
( ५, ६, ४२६
एत्थंतरे तिपलिदोवमाउअमणपालेमाणो ण कदा विउविदो । कुदो? तत्थ परिचत्तोरालियसरीरस्स विउव्वणप्पयमोरालियसरीरं गणंतस्स केवलं तप्परिसदणप्पसंगादो । ण चेदं विउव्वणसरीरं ओरालियं, विप्पडिसेहादो ।
थोवावसेसे जीविदवए त्ति जोगजवमज्झस्स उवरिमंतोमुहुतद्धमच्छि दो* ॥ ४२६ ॥
जवमज्झं णाम असमयपाओग्गजोगदाणाणि । तेहिंतो उवरिमजोगदाणेसु हेटिमजोगट्ठाणेहितो असंखेज्जगुणेसु अंतोमुत्तद्धमच्छिदो। किमढें ? बहुपोग्गल. ग्गहणटुं । तत्थ बहुअं कालं किण्ण अच्छदि ? ण, अंतोमुत्तादो उवरि तत्थ अच्छणस्स संभवाभावादो। एवं कालदेसामासियसुत्तत्थपरूवणठें । एवमुवजोगजवमज्झस्स उवरिमंतोमहत्तध्दमच्छदि ति ण घेतव्वं किंतु तिण्णं पलिदोवमाणमभंतरे जदा जदा संभवदि तदा तदा जवमज्झस्स उवरि जोगट्टाणेसु चेव परिणमिदि त्ति घेत्तव्वं ।
'एत्थंतरे' अर्थात् तीन पल्यप्रमाण आयुका पालन करते हुए कदाचित् विक्रिया नहीं की, क्योंकि, औदारिकशरीरका त्याग कर विक्रियारूप औदारिकशरीरको ग्रहण करनेवालेके केवल उसकी निर्जरा होनेक प्रसंग आता है । यह विक्रियारूप शरीर भी औदारिक है ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, विक्रियारूप शरीरके औदारिक होने का निषेध है ।
जीवितव्य कालके स्तोक शेष रहनेपर योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहुर्त काल तक रहा ॥ ४२६ ।।
आठ समयप्रायोग्य योगस्थानोंको यवमध्य कहते हैं। उससे अधस्तन योगस्थानोंसे असंख्यातगुणे उपरिम योगस्थानोंमें अन्तर्मुहुर्त काल तक रहा ।
शंका- वहां अन्तर्मुहुर्त काल तक किसलिए रहा ? समाधान- बहुत पुद्गलोंका संग्रह करनेके लिए।
शंका- वहां बहुत काल तक क्यों नहीं रहता है? समाधान- नहीं, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्त कालसे अधिक कालतक वहां रहना सम्भव नहीं है।
काल देशामर्षक सूत्रके अर्थका कथन करने के लिए यह वचन है । इससे उपयोगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त कालतक रहता है यह ग्रहण नहीं करना चाहिए। किन्तु तीन पल्यप्रमाण कालके भीतर जब जब सम्भव है तब तब यवमध्यके ऊपरके योगस्थानोंमें ही परिणमन करता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए।
*ता०प्रती 'जीविदब्वमेत्तमंतरमत्थि तत्थ (जीविदव्व ए ति जोगजवमज्झस्स) उवरिमंतोमुत्तत्थ (ख) मज्छिदो ' अ०का०प्रत्योः 'जीविदब्बमेत्तमंत रमत्थि तत्थ उवरिमंतोमहत्तत्थमच्छि दो' इति पाठः । ४ अप्रती 'अंतोमहत्तत्थमच्छिदो' इति पाठ तातो '-पुत्तत्थ (त्तमद्ध) परूवणटुं' इति पाठः ।
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५, ६, ४२८. ) बधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा (४०३
चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जविभागमच्छिदो ॥ ४२७ ॥
जाव चरिमजीवगण हाणी तत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागमस्सिदण ताव चरिमजोहितो तत्थतणजोगाणमसंखेज्जगणत्तादो। कालजवमज्झादो उवरि अच्छमाणेसु जदि चरिमे जीवगुणहाणिढाणंतरे अच्छंताणं बहुदव्वलाहो होदि तो आवलि० असंखे० भागं मोत्तूण तत्थ बहुकालं किण्ण अच्छाविदो? ण, तत्थ बहुकालमच्छगासंभवाभावादो । एवं दि कालदेसामासियसुत्तं तेण कालमत्तं मोत्तण जवमज्झस्स उरिमच्छमाणो जाव संभवदि ताव चरिमे जीवगणहाणिट्टाणंतरे चेव अच्छदि त्ति भणिदं होदि।
चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो ॥ ४२८ ॥ किमदमेत्थ उक्कस्सजोग णीदो? जोगवडढीदो पदेसबंधवडढी बहगी होदि ति जाणावणठें । दो समए मोत्तूण सव्वत्थ भवद्विदिम्मि उक्कस्सजोगं किण्ण णीदो?
___ अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहा ।। ४२७ ।।
क्योंकि, जो अन्तिम जीवगुणहानि है वहां आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका आश्रय लेकर अन्तिम योगसे वहांके योग असंख्यातगुण होते है ।
शंका - कालयवमध्य के ऊपर रहनेवाले जीवोंमसे यदि अन्तिम जोवगुणहानिस्थानान्तरमें रहने वाले जोवोंको बहुत द्रव्यका लाभ होता है तो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालको छोडकर वहां बहुत काल तक क्यों नहीं ठहराया ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, वहां बहुत काल तक रहना सम्भव नहीं है इसलिए वहां आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालसे अधिक काल तक नहीं ठहराया।
यह भी कालदेषामर्षक सूत्र है, इसलिए मात्र कालकी विवक्षा न करके यवमध्यके ऊपर रहता हुआ जब तक सम्भव है तब तक अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें ही रहता है यह उक्त सूत्रके कथनका तात्पर्य है।
चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ ।। ४२८ ॥ शंका - यहां उत्कृष्ट योगको किसलिए प्राप्त कराया है ?
समाधान - योगवृद्धिसे प्रदेशबन्धकी वृद्धि बहुत होती है इस बातका ज्ञान कराने के लिए यहां उत्कृष्ट योगको प्राप्त कराया है।
शंका - दो समयको छोडकर सर्वत्र भवस्थितिके भीतर उत्कृष्ट योगको क्यों नहीं प्राप्त कराया ?
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४०४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ४२९
ण, उक्कस्सजोगेण विसमय-तिसमय-चदुसमयं मोत्तण सम्वत्थ भवद्विदम्मि बहुकालपरिणमणसत्तीए अभावादो। एवं भवसामासियसुत्तं । तेग एत्थ भवम्मि जाव संभवो अस्थि ताव उक्कस्सजोगं चेव गदो त्ति गेमिहयव्वं । एत्य संकिलेसावासो किण्ण परूविदो? कालगदसमाणउजुगदीए पइज्जमाणाए कसायवड्डि-हाणीहि कज्जाभावादो संकिलेसे संते ओलंबणकरणकरणेण बहुणोकम्मपोग्गलाणं गलणप्पसंगादो ध।
तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स तस्स ओरालियसरीरस्स उक्कस्सय पदेसग्गं ।। ४२९॥
तिरिक्खो मणुस्सो वा दाणेण दाणाणमोदेण वा तिपलिदोवमाउद्विदिए सु उत्तरकुरुदेवकुरुमणस्सेसु आउअंबंधिदूण एवमेदेण कमेण कालगदसमाणो* उजुगदीए देवकुरु-उत्तरकुरुवेसु उववज्जिय पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण उक्कस्सुववादजोगेण आहारिदूण तमाहारिदणोकम्मपदेसं तिष्णं पलिदोवमाणं पढमसमयमादि कादूण जाव चरिमसमओ ति ताव गोवच्छागारेण णिसिंचिय तदो बिदियसमयप्पहुडि उक्कस्सेगंताणुवड्डिजोगेण वड्डमाणो अंतोमत्तकालमसंखेज्जगुणाए सेडीए णोकम्मपदेसमाहारिदूण तिण्णं पलिदोवमाणं णिसिंचमाणो सव्वलहुं पज्जत्तीओ
समाधान-नहीं, क्योंकि, उत्कृष्ट योगके साथ दो समय, तीन समय और चार समयको छोडकर सर्वत्र भवस्थितिके भीतर बहुत काल तक परिण मन करनेको शक्तिका अभाव है ।
___यह भवदेशामर्षक सूत्र है, इसलिए इस भवमें जब तक सम्भव है तब तक उत्कृष्ट योगको ही प्राप्त हुआ ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए।
शंका-यहां पर संक्लेशावासका कथन क्यों नहीं किया है ?
समाधान- क्योंकि, मर कर ऋजुगतिके प्राप्त होने पर कषायकी वृद्धि और हानिसे कोई प्रयोजन नहीं है और संक्लेशके सद्भावमें अवलम्बनाकरणके करनेसे बहुत नोकर्मपुद्गलोंके गलनेका प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिए यहां संक्लेशावासका ग्रहण नहीं किया है ।
अन्तिम समयमें तद्भवस्थ हुए उस जीवके औदारिकशरीरका उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ॥४२९ ।।
किसी तिर्यञ्च और मनुष्यने दान या दानके अनुमोदनसे तीन पल्यकी स्थिति वाले देवकुरु और उत्तरकुरुके मनुष्योंकी आयुका बन्ध किया । इस प्रकार इस क्रमसे मर कर ऋजुगतिसे देवकुरु और उत्तरकुरुमें उत्पन्न हुआ। पुनः प्रथम समय में आहारक और प्रथम समयमें तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट उपपाद योगसे आहार ग्रहण कर उन ग्रहण किये गये नोकर्मप्रदेशोंको तीन पल्थके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक गोपुच्छाकारसे निक्षिप्त किया । फिर द्वितीय समयसे लेकर उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योगसे वृद्धिको प्राप्त होता हुआ अन्तर्मुहूर्त काल तक असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे नोकर्मप्रदेशोंको ग्रहण कर तीन पल्यप्रमाण काल में निक्षिप्त किया । पुनः
9 ता० का० प्रत्योः ‘णीदो? उक्कस्सजोगेण इति पाठः । म०प्रतिपाठोऽयम् | ता० प्रती बंधिदूण एदेण कालगदसमागो अ० का० प्रत्यो बंधिदण एव मेदेण कालगदसमाणो इति पाठ।।
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५, ६, ४२२ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा (४०५ समाणिय परिणामजोगम्मि णिवदिय सुत्तवृत्तविहाणेण आगंतूण चरिमसमयट्टिदो उक्कस्सदव्वसामी होदि त्ति भावत्थो । निदिओ तस्से ति णिद्देसो ण णिप्फलो, तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स जीवस्स जमोरालियसरीरं तस्सुक्कस्सयं पदेसग्गमिदि संबंधे कीरमाणे सहलत्तुवलंभादो ।
एत्थ संचयाणुगमो भागहारपमाणाणगमो समयपबद्धपमाणाणुगमो चेदि एदेहि तीहि अणुयोगद्दारेहि उवसंहारो उच्चदे- तत्थ संचयाणुगमस्स परूवणा पमाणमप्पा. बहुअं चेदि तिणि अणुयोगद्दाराणि । परूवणदाए तिण्णं पलिदोवमाणं पढ़मसमयसंचिददव्वं सामित्तचरिमसमए अस्थि । विदियसमयसंचितवध्वं पि अस्थि । एवं णेयत्वं जाव तिण्णं पलिदोवमाणं चरिमसमयसंचिददव्वं ति । परूवणा गदा । तिण्णं पलिदोवमाणं पढमसमयसंचिददव्वं केत्तियमथि त्ति भणिदे एगसमयपबद्धस्स चरिमगोपुच्छमेत्तमत्थि । जं बिदियसमयसंचिददव्वं तं सामित्तसमए चरिम दुचरिमगोवुच्छमेत्तमथि । जं तदियसमए संचिददव्वं तं सामित्तसमए चरिम दुचिरम-तिचरिमगोवुच्छमेत्तमत्थि । एवं गंतूण कम्मटिदिचरिमसमयसंचिददव्वमेगसमयपबद्धमेत्तमत्थिा पमाणं गदं । अप्पाबहुअं पदेसविरहिय अप्पाबहुए परूविदं ति ह वुच्चदे ।
भागहारपमाणाणुगमे भण्णमाणे पढमसमए संचिवस्स भागहारो वुच्चदे- एगसमयपबद्धमसंखेज्जेहि लोगेहि खंडिदूण तत्थ एगखंडमेत्तं पढमसमयसंचिददव्वं होदि । अतिशीघ्र पर्याप्तियोंको समाप्त करके और परिणामयोगको प्राप्त होकर सूत्रमें कही गई विधिसे आकर जो अन्तिम समय में स्थित होता है वह उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सूत्र में द्वितीय · तस्स ' पदका निर्देश निष्फल नहीं है, क्योंकि, उस चरम समयवर्ती तद्भवस्थ जीवके जो औदारिकशरीर होता है उसके उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होता है ऐसा सम्बन्ध करने पर उसकी सफलता उपलब्ध होती है।
यहाँ पर सञ्चयानुगम, भागहारप्रमाणानुगम और समयप्रबद्धप्रमाणानुगम इन तीन अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर उपसंहारका कथन करते हैं। उनमें से संचयानुगमके प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व ये तीन अनुयोगद्वार है । प्ररूपणाका कथन करने पर तीन पल्यप्रमाण कालके प्रथम समय में संचित हुआ द्रव्य स्वामित्वके अन्तिम समयमें है। द्वितीय समयमें संचित हुआ द्रव्य भी है। इस प्रकार तीन पल्यके अन्तिम समयमें संचित हुए द्रव्य के प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। प्ररूपणा समाप्त हुई। तीन पल्यके प्रथम समयमें संचित द्रव्य कितना है ऐसा पूछने पर एक समयप्रबद्धके अन्तिम गोपुच्छ प्रमाण है। जो दूसरे समयमें संचित द्रव्य है वह स्वामित्व समय में चरम और द्विचरम गोपुच्छप्रमाण है। जो तिसरे समयमें संचित द्रव्य हैं वह स्वामित्व समय में चरम, द्विचरम और त्रिचरम गोपुच्छप्रमाण है । इस प्रकार जाकर कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें संचित हुआ द्रव्य एक समयप्रबद्धप्रमाण है । प्रमाण समाप्त हुआ। अल्पबहुत्वका कथन प्रदेशविरहित अल्पबहुत्वके समय कर आये हैं, इसलिए यहाँ नहीं करते ।
भागहारप्रमाणानुगमका कथन करने पर प्रथम समयमें संचित हुए द्रव्यका भागहार कहते हैं-- एक समयप्रबद्ध में असंख्यात लोकका भाग देकर वहाँ जो एक भागप्रमाण द्रव्य
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४०६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ४२९
असंखेज्जलोगाणमद्धेण किचणेण एगसमयपबद्धे खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तं बिदियसमयसंचिददव्वं होदि । पढमभागहारस्स तिभागेण किंचणेण एगसमयपबद्ध खंडिदे तदियसमयसंचिदवव्वं होदि । एवं गंतूण कम्मट्टि चरिमसमए जं बद्धं कम्मं तस्स एगरूवं भागहारो होदि । तिण्णं पलिदोवमाणं पढमसमए संचिददध्वं चरिमणिसेगमेत्तं होदु णाम बिदियसमयसंचिददध्वं पुण चरिम.दुचरिणिसेयमेतं ण होदि,तिण्णं पलिदो. वमाणमुवरि णिसेयर चणाभावादो। एवमवरिमसमयपबद्धसंचिददन्वेसु वि एगादिएगत्तरकमेण णिसेगा ण संचिगंति त्ति परूवेदव्वं? एत्थ परिहारो वुच्चदे । तं जहातिण्णं पलिदोवमाणं पढमसमए बद्धं णोकम्मं तं तेति चेव तिष्णं पलिदोवमाणं पढमसयमादि कादण जाव चरिमसमओ त्ति ताव गोवच्छागारेण णिसिंचदि । जं बिदियसमए बद्धं णोकम्मपदेसग्गं तं बिदियसययप्पडिगोवच्छागारेण गिसिंचमागो ताव गच्छदि जाव तिग्णं पलिदोवमाणं दुचरिमसमओ त्ति । पुणो कम्मट्टिदिरिमसमए अप्पिदसमयपबद्धस्स चरिम-दुचरिमगोवच्छं च णिसिंचदि, उपरि आउट्टिदीए अभावादो । तदियसमए जं बद्धं णोकम्मपदेसगं तं तदियसमयप्पहुडि णिसिंचमाणो ताव गच्छदि जाव दुचरिसमओ ति । तदो चरिमसमए अप्पिदसमयपबद्धस्स चरिमदुचरिम-तिचरिमगोवुच्छाओ णिसिंचदि । पुणो एवं गंतूण तिण्णं पलिदोवमाणं जं
प्राप्त हो वह प्रथम समय में संचित द्रव्य है । असंख्यात लोकके कुछ कम अर्धभागका एक समयप्रबद्ध में भाग देने पर वहां जो एक भागप्रमाण द्रव्य प्राप्त हो वह द्वितीय समयमें संचित द्रव्य है। प्रथम भागहारके कुछ कम तृतीय भागका एक समयप्रबद्ध में भाग देने पर तीसरे समय में संचित द्रव्य होता है । इस प्रकार जाकर कर्म स्थितिके अन्तिम समय में जो वह बद्ध कर्म है उसका एक अंक भागहार होता है।
शंका- तीन पल्योंके प्रथम समय में संचित हुआ द्रव्य अन्तिम निषेकप्रमाण होओ, किन्तु द्वितीय समयमें संचित द्रव्य चरम और द्विचरम निषेकप्रमाण नहीं होता, क्योंकि, तीन पल्योंके जार निषेकरचना का अभाव है। इसी प्रकार उपरिम समयप्रबद्धों में संचित हुए द्रव्योंम भी एकादि एक अधिक क्रमसे निषेकोंका संचय नहीं बन सकता ऐसा यहां कथन करना चाहिए?
समाधान - यहां इस शंकाका समाधान करते हैं। यथा- तीन पल्यों के प्रथम समयमें जो बद्ध नोकर्म है उसे उन्हीं तीन पल्योंके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक गोपुच्छाकार रूपसे निक्षिप्त करता है । जो दूसरे समय में बद्ध नोकर्मप्रदेशाग्र है उसे दूसरे समयसे लेकर गोपुच्छाकर रूपसे निक्षिप्त करता हुआ जब तक जाता है जब तक तीन पल्योंका द्विचरम समय है। पुनः नोकर्मस्थितिके अन्तिम समय में विवक्षित समयप्रबद्धके चरम द्विचरम गोपुच्छको निक्षिप्त करता है, क्योंकि, ऊपर आयुस्थितिका अभाव है । तीसरे समय में बद्ध जो नोकर्मप्रदेशाग्र है उसे तीसरे समयसे लेकर निक्षिप्त करता हुआ तब तक जाता है जब तक द्विचरम समय प्राप्त होता है । अनन्तर अन्तिम समय में विवक्षित समयप्रबद्धके चरम, द्विचरम और विचरम गोपुच्छोंको निक्षिप्त करता है । पुनः इस प्रकार जाकर तीन पल्योंके द्वि चरम समयमें जो बद्ध
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५, ६, ४२९. ) बधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा ( ४०७ बद्धं णोकम्मं पदेसरगं तस्स पढमगोवुच्छं दुचरिमसमए णिसचिदूण पुणो सेससव्व दव्वं चरिमसमए णिसिंचदि । पुणो तिण्णं पलिदोवमाणं चरिमसमए जं बद्धं कम्मं तं सव्वं पुंज कादूण चरिमसमए चेव णिसिंचदि । तेण कारणेण पुवुत्तभागहारपरूवणा जुज्जदे।
अण्णे के वि आइरिया एवं भणंति ।जहा-गलिदसेसम्मि आउअम्मि सव्वे समयपबद्धा समयाविरोहेण सिचिज्जति त्ति । तं जहा-तिण्णं पलिदोवमाणं पढमसमए जं बद्धं कम्मं तं तम्हि चेव पढमसमए बहुगं णिसिंचदि । तत्तो उरि विसेसहीणं णिसिंचदि जाव कम्मटिदिचरिमसमओ ति । पुणो जं चरिमसमए णिसित्तं पदेसरगं तस्स भागहारो असंखेज्जा लोगा होंति 1 जं तिण्णं पलिदोवमाणं बिदिए समए पबद्धं णोकम्मपदेसरगं तं बिदियसमए बहुग णिसिंचदि । तत्तो उवरि विसेसहीणं णिसिंचदि जाव कम्मट्टिदिचरिमसमओ ति । संपहि जं चरिमसमए णिसित्तपदेसरगं तस्स भागहारो पुव्वत्तभागहारादो विसेसहीणो होदि, चरिमणिसेगस्स असंख० भागेणब्भहियदुचरिमणिसेगस्स चरिमसमए उवलंभादो । तदियसमए जं संचिददव्वं तस्स वि भागहारो पुव्वुत्तभागहारादो विसेसहीणो होदि, चरिम दुचरिमगोवुच्छाणमसंखे०भागेण
भहियतिचरिमगोवुच्छ मेत्तसंचयदंसणादो। एवं गंतूण तिण्णं पलिदोवमाणं दुचरिमसमए जं बद्धं णोकम्मपदेसग्गं तस्स अद्धं सादिरेयं दुचरिमसमए णिसिंचिदूण पुणो चरिमसमए अद्धं किंचूणं णिसिंचदि । पुणो जं चरिमसमए नोकर्मप्रदेशाग्र है उसके प्रथम गोपुच्छको द्विचरम समयमें निक्षिप्त करके पुन: शेष द्रव्यको अन्तिम समयमें निक्षिप्त करता है । पुनः तीन पल्योंके अन्तिम समय में जो बद्ध नोकर्म है उसका पूरा पुंज बनाकर उसे अन्तिम समयमें ही निक्षिप्त करता है । इसलिए पूर्वोक्त भागहारका कथन बन जाता है।
___अन्य कितने ही आचार्य इस प्रकार कथन करते हैं। यथा-गल कर जो आयु शेष रही है उसके भीतर सब समयप्रबद्धोंको शास्त्र परिपाटीके अनुसार निक्षिप्त करते हैं । यथातीन पल्योंके प्रथम समय में जो बद्ध कर्म है उसके बहुभागको उसी प्रथम समयमें निक्षिप्त करता है । उससे आगेके समयोंमें नोकर्म स्थितिके अन्तिम समय तक विशेष हीन क्रमसे निक्षिप्त करता है । पुन: जो प्रदेशाग्र अन्तिम समयमें निक्षिप्त हुआ है उसका भागहार असंख्यात लोकप्रमाण है । जो तीन पल्योंके दूसरे समयमें नोकर्मप्रदेशाग्र बँधा है उसमेंसे दूसरे समयमें बहुभाग निक्षिप्त करता है। उससे आगे नोकर्मस्थितिके अन्तिम समय तक विशेष हीन क्रमसे निक्षिप्त करता है । अब जो अन्तिम समययें निक्षिप्त प्रदेशाग्र है उसका भागहार पूर्वोक्त भागहारसे विशेष हीन होता है, क्योंकि, अन्तिम निषेकके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक द्विचरम निषेक अन्तिम समय में पाया जाता है । तृतीय समयमें जो संचित द्रव्य है उसका भी भागहार पूर्वोक्त भागहारसे विशेष हीन होता है, क्योंकि, चरम और द्विचरम गोपुच्छोंके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक त्रिचरम गोपुच्छमात्राका संचय वहां देखा जाता है । इस प्रकार जाकर तीन पल्योंके द्विचरम समयमें जो बद्ध नोकर्म प्रदेशाग्र है उसके साधिक अर्धभागको द्विचरम समयमें निक्षिप्त करके पुनः अन्तिम समयमें कुछ कम
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४०८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खं
( ५, ६, ४२९
णिसित्तपदेसगं तस्स सादिरेयदोरूवाणि भागहारो होदि । जं चरिमसमए पबद्धं णोकम्मपदेसग्गं तस्स एगरूवं भागहारो होदि । एवं दोहि पयारेहि भागहारपरूवणा कदा।
संपहि पढमिलाणसेगोवदेसमस्सिदूण समयपबद्धपमाणाणुगमो वच्चदे । तं जहा- चरिमसमए संचिदपदेसग्गमेगसमयपबद्धमत्तं होदि, तत्थ वयाभावादो। दुचरियसमए संचिदपदेसग्गं किंचूणेगसमयपबद्धमेत्तं होदि, पढमणिसेगाभावादो। तिचरिमसमयसंचिदपदेसग्गं किंचणेगसमयपबद्धमेतं होदि, पढम बिदियगिसेगाभावादो । एवं गंतूण पढमसमयसंचिवदव्वमेगसमयपबद्धस्स असंखेज्जदिभागो होदि चरियणिसेयपमाणत्तादो । जेणेवं तेण सबमेदं दव्वं दिवगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धपमाणं होदि । अंतोमहत्तमेत्तसमयपबद्धा होति ति भावत्थो ।
संपहि णिसेगस्स बिदियमवदेसमस्सिरण समयपबद्धपमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा- तिण्णं पलिदोवमाणं चरिमसमए संचिदपदेसग्गं तमेगसमयपबद्धमत्तं होदि, वयाभावादो । जं दुचरिमसमयसंचिददव तं तमेगसमयपबद्धस्स किंचूगमद्धं होदि, गलिदसादिरेयद्धत्तादो । जं तिचरिमसमयसंचिददव्वं तं समयपबध्दस्स किंचूणतिभाग. मेतं होदि, गलिदसादिरेयवेत्तिभागत्तादो। एवं पलिदोवमेण जाणिदूण गेयत्वं
अर्धभागको निक्षिप्त करता है । पुनः अन्तिम समयमें जो निक्षिप्त प्रदेशाग्र है उसका साधिक दो अंक भाग होता है। तथा अन्तिम समयमें जो बद्ध नोकर्म प्रदेशाग्र है उसका एक अंक भागहार होता है। इस तरह दो प्रकारसे भागहार प्ररूपणा की।
अब पहलेके निषेकोपदेशका अवलम्बन लेकर समयप्रबद्धोंके प्रमाणका अनुगम करते हैं। यथा- अन्तिम समयमें संचित हुआ प्रदेशाग्र एक समयप्रबद्ध प्रमाण होता है, क्योंकि, उसके व्ययका अभाव है। द्विचरम समयमें संचित हुआ प्रदेशाग्र कुछ कम एक समयप्रबद्धप्रमाण होता है, क्योंकि, अन्तमें इसके प्रथम निषेकका अभाव है । त्रिचरिम समयमै संचित हुआ प्रदेशाग्र कुछ कम एक समयप्रबद्धप्रमाण होता है, क्योंकि, अन्तमें इसके प्रथम और द्वितीय निषेकका अभाव है। इस प्रकार जाकर प्रथम समयमें संचित हुआ द्रव्य एक समयप्रबद्धके असंख्या भागप्रमाण शेष रहता है. क्योंकि, अन्तमें उसका अन्तिम निषेकमात्र उपलब्ध होता है। यतः इस प्रकार है अत: यह सब द्रव्य डेढगुणहानिमात्र समयप्रबद्धप्रमाण होता है। अन्तर्मुहूर्तके जितने समय हैं उतने समयप्रबद्ध होते हैं यह उक्त कयनका भावार्थ है। ___अब निषेकके द्वितीय उपदेशका अवलम्बन लेकर समयप्रबद्धोंके प्रमाणका अनुगम करते हैं । यथा- तीन पल्योंके अन्तिम समयमें जो संचित हुआ है वह एक समयप्रबद्धप्रमाण होता है, क्योंकि, उसके व्ययका अभाय है। जो द्विचरम समय में संचित हुआ द्रव्य है वह एक समयप्रबद्धका कुछ कम अर्धभागप्रमाण होता है, क्योंकि, इसका साधिक अर्धभाग गल चुका है । जो तृतीय समयमें संचित द्रव्य है वह समयप्रबद्धका कुछ कम तृतीय भागमात्र होता है, -योंकि, इसके तीन भागोंमेंसे साधिक दो भाग गल चुके हैं । इस प्रकार पल्योपमके द्वारा जान
'
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५, ६, ४२९ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा
( ४०९ जाव तिण्णं पलिदोवमाणं पढमसमयो त्ति । एत्थ संदिट्ठी
.. . शशश११११२१ १ १
| १२/१३/१४/१५/१६/१७ १८/१९/२०२१२२२३२४/२५/२६/२७२८/२९३०३१३२ |
एत्थ एगगणहाणिअद्धाणमेत्तमोदरिदूण बद्धपदेसग्गसंचयस्स भागहारो गुणहाणिमेत्तो गुण हाणिअखाणं पुण एत्थ संखेज्जावलियाओ तेणेदम्हि समकरणं कादूण मेलाविदे असंखेज्जा समयपबद्धा होति । तं जहा- ताव चरिमेगगुणहाणिसंचयमस्सिदण असंखेज्जाणं समयपबद्धाणमुप्पत्ति भणिस्सामो- चरिमगुणहाणिपढमसमयसंचयस्स भागहारो एगगणहाणी । तस्स पमाणमेदं १ ।। उवरिमसमयसंचिददव्वं जदि वि विसेसाहिय तो वि जाव चरिमगणहाणीए अद्धमवरि गच्छदि ताव समयं पडि संचिददव्वं चरिमगणहाणिपढमसमयसंचएण सरिसं ति गहिदे एत्यंतरे जादसव्वसंचयसमूहो एगसमयपबद्धस्स अद्धं होदि । पुणो तदो उवरि एगगुणहाणीए चदुब्भागमेत्तअदाणस्स सव्वसंचयसमहो वि एगसमयसमूहो वि एगसमयपबध्दस्स अध्दं होविएवमेगगणहाणिअट्टमभाग-सोलसभाग-बत्तीसभाग-चउस ट्ठिभागादि उवरिमकर तीन पल्योंके प्रथम समय तक ले जाना चाहिए । यहाँ सदृष्टि- १, १, १ .
३६. २६
२७
२८
२९. . . . . . यहाँ पर एक गुण
हानिअध्वानमात्र उतरकर बंधे हुए प्रदेशाग्रके संचयका भागहार गुणहानिप्रमाण होता है। परंतु यहाँ पर गुणहानिअध्वान संख्यातआवलिप्रमाण है । इसलिए इसका समीकरण करके मिलानेपर असंख्यात समयप्रबद्ध होते हैं। यथा- पहले अन्तिम एक गुणहानिके संचयका अवलम्बन लेकर असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उत्पत्तिका कथन करेंगे- अन्तिम गुणहानिके प्रथम समयम संचित हुए द्रव्यका भागहार एक गुणहानि है। उसका प्रमाण यह है । उपरिम समयमें संचित हुआ द्रव्य यद्यपि विशेष अधिक होता है तो भी जब तक अन्तिम गुणहानिका अर्धभागप्रमाण ऊपर जाता है तब तक प्रत्येक समयमै संचित हआ द्रव्य अन्तिम गणहानिके प्रथम समयमें संचित हुए द्रव्य के समान है, इसलिए उसका ग्रहण करने पर इतने कालके मध्य में जो सम्पूर्ण संचय होता है वह एक समयप्रबद्धका अर्धभागप्रमाण होता है । पुनः उसके ऊपर एक गुणहानिके चतुर्थ भागमात्र अध्वानका सब संचय समूह भी तथा एक समयका समूह भी एक ममयप्रबद्ध का अर्धभागप्रमाण होता है । इस प्रकार एक गुणहानिके आठवें भाग, सोलहवें भाग,
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४१० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ४३० अद्धाणेसु एगेगसमयपबद्धस्स अद्धमद्धमप्पज्जदि त्ति णादव्वं । एवमुप्पण्णसमयपबद्धस्स अाणि संखेज्जावलियच्छेदणयमेत्ताणि होति । ते च छेदणया असंखेज्जा, जहण्णपरीत्तासंखेज्जस्स अद्धच्छेदणएहि जहण्णपरीत्तासंखेज्जे गणिदे आवलियद्धच्छेदणयसलागुप्पत्तीदो । तम्हा असंखेज्जसमयपबद्धमेत्तो ओरालियसरीरपदेसग्गसंचओ होदि त्ति घेत्तव्वं । एवं दो वि उवदेसे अस्सिदूण असंखेज्जसमयपबद्धमेतपदेसग्गं होदि त्ति सिध्दं । गवरि पुग्विल्ल उवदेसेण लदसमयपबध्देहितो पछिल्ल उवदेसेण लध्दसमयपबध्दा असंखेज्जगणहीणा । एत्थ बिदियउवदेसो ण घडदे, सामित्तसुत्तेण सह विरुध्दत्तादो । तं जहा- जदि निदियवियप्पो घेवि तो जत्थ उदये दो समयपबध्दा गलंति तत्तो हेट्ठा चेव उक्कस्ससामित्तेण होदव्वं ण चरिमसमए, आयादो वयस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो। ण च एवं, सुत्तविरुध्दस्त वक्खाणत्तविरोहादो।
तव्वदिरित्तमणुक्कस्सं ॥४३० ।।
एवम्हादो ओकडणवसेण एगपरमाणुम्हि फिट्टे अणुक्कस्सटाणमुप्पज्जदि । एवं दो-तिण्णि-चत्तारिआदिकमेण ऊणं कादूण अणक्कस्सट्टाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव एगविगलपक्खेवो परिहीणो त्ति । तदो एगजोगपवखेवेण परिहीणजोगट्टाणेण बंधाविय सरिसं कायव्वं । एवं जाणिदूण ओदारिय अणक्कस्सटाणाणि उप्पादेबत्तीसवें भाग और चौसठवें भाग आदि उपरिम अध्वानोंके जाने पर एक समयप्रबद्धका आधा आधा उत्पन्न होता है ऐसा यहां जानना चाहिए । इस प्रकार उत्पन्न हुए समयप्रबद्धके अर्धभाग संख्यात आवलियोंके अर्धच्छेदप्रमाण होते हैं। और वे अर्धच्छेद असंख्यात हैं; क्योंकि, जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंसे जघन्य परीतासंख्यातके गुणित करने पर एक आवलिके अर्धच्छेदों की शलाकायें उत्पन्न होती हैं। इसलिए औदारिकशरीरके प्रदेशाग्रका संचय असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार दोनों ही उपदेशोंका आश्रय लेकर असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण प्रदेशाग्र होता है यह सिद्ध हुआ। इतनी विशेषता है कि पहलेके उपदेशके अनुसार जो समय प्रबद्ध लब्ध आते हैं उनसे पिछले उपदेशके अनुसार लब्ध हुए समयप्रबद्ध असंख्यातगुणे हीन होते हैं। इनमें से यहां पर द्वितीय उपदेश घटित नहीं होता, क्योंकि, उसका स्वामित्व सूत्रके साथ विरोध आता है। यथा- यदि द्वितीय विकल्पको ग्रहण करते हैं तो जहां पर उदयमें दो समयप्रबद्ध गलते है उससे पूर्व ही उत्कृष्ट स्वामित्व होना चाहिए, अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व नहीं होना चाहिए, क्योंकि, वहां द्वितीय उपदेशके अनुसार आयसे व्यय असंख्यातगुणा उपलब्ध होता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, जो सूत्रविरुद्ध हो उसके व्याख्यान होने में विरोध आता है।
उससे व्यतिरिक्त अनुत्कृष्ट प्रदेशाग्र है । ४३० ।।
पहले जो उत्कृष्ट प्रदेशाग्र कह आये हैं उसमेंसे अपकर्षण वश एक परमाणुके नष्ट होने पर अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार दो, तीन और चार आदि कम करने के एक विकल प्रक्षेपके हीन होने तक अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न करने चाहिए। अनन्तर एक योगप्रक्षेपसे हीन योगस्थावके द्वारा बन्ध कराकर सदृश करना चाहिए । इस प्रकार जानकर उतारते हुए जघन्य
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५, ६, ४३२. )
बधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा
( ४११
दव्वाणि जाव जहण्णट्ठाणे ति।
उक्कस्सपदेण वेउव्वियसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स।४३१॥ सुगम।
अण्णवरस्स आरण-अच्चुदकप्पवासियदेवस्स बावीससागरोंवमट्ठिवियस्स ॥ ४३२ ॥
सम्मत्त-मिच्छत्तादीहि दवविसेसो पत्थि त्ति जाणावणळं अपणदरस्स गिद्दे सो कदो । हेटिम उवरिमदेवाणं रइयाणं च पडिसेहटें आरणच्चुदकप्पवासियदेवणिद्देसो कदो। सव्वदृसिद्धिदेवेसु दीहाउएसु उक्कस्ससामित्तं किण्ण दिज्जदे? ण, णवगेवज्जादिउवरिमदेवेसु उक्कस्स जोगपरावत्तणवाराणं पउरमणुवलंभादो। उक्कस्सजोगपरावत्तगवारा तत्थ पउरा ण लब्भंति ति कुदो णव्वदे? एदम्हादो चेव सुत्तादो उरि ओगाहणा दहरा त्ति तत्थ ण सामित्तं दिज्जदि त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, जोगवसेण आगच्छमाणकम्मणोकम्मपोग्गलाणमोगाहणादो संखाविसेसाणुप्पत्तीदो । हेटिमदेवेसु
स्थानके प्रप्त होने तक अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न करने चाहिए । उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा वैक्रियिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है।४३१॥
__ यह सूत्र सुगम है।
जो बाईस सागरको स्थितिवाला आरण और अच्युत कल्पवासी अन्यतर देव है ।। ४३२ ॥
सम्यक्त्व और मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे द्रव्य विशेष नहीं होता इस बातका ज्ञान कराने के लिए अन्यतर पदका निर्देश किया हैं । अधस्तन और उपरिम देवोंका तथा नारकियोंका प्रतिषेध करनेके लिए 'आरण और अच्युत कल्पवासी देव ' पदका निर्देश किया है।
शका- दीर्घ आयुवाले सर्वार्थसिद्धि के देवोंमें उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं दिया?
समाधान- नहीं, क्योंकि, नौ ग्रैवेयक आदि ऊपरके देवोंमें उत्कृष्ट योगके परावर्तनके बार प्रचुरमात्रामें नहीं उपलब्ध होते ।
शंका- वहाँ उत्कृष्ट योगके परावर्तनके बार प्रचुरमात्रा में नहीं उपलब्ध होते यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- इसी सूत्रसे जाना जाता है ।
ऊपर अवगाहना हस्व है, इसलिए वहाँ पर स्वामित्व नहीं देना चाहिए यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, योगके वशसे आनेवाले कर्म और नोकर्म पुद्गलोंकी अवगाहनाके कारण संख्याविशेष नहीं उत्पन्न होती।
शंका- नीचेके देवोंमें उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ?
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४१२ )
उपखंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ४३३
उक्कस्ससामित्तं किग्ण दिज्जदे ? ण तत्थ दीहाउआमावादो। सत्तमपुढविणेरइएसु दीहाउएसु उक्कस्सजोगेसु किण्ण दिज्जदे ? ण, तेसु संकिलेसबहुलेसु बहुणोकम्मणिज्जरदसणादो। एक्कारससागरोवमसंचयादो संकिलेसेण गलमागदां बहुअमिदि कुदो गव्वदे ? एदम्हादो चेव सुतादो। आरण-अच्चुददेवेसु सेसाउद्विदिपडिसेहट्ठ वावीससागरोवमदिदिणिद्देसो कदो।
तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतम्भवत्येण उक्कस्सजोगेण आहारिदो ॥ ४३३ ।।
उक्कस्सियाए वड्ढीए वड्ढिदो ॥ ४३४ ॥ अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तपदो ॥४३५॥ तस्स अप्पाओ भासद्धाओ ॥ ४३६ ॥ अप्पाओ मणजोगद्धाओ ।। ४३७ ।। एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । णत्थि छविच्छेदा ॥४३८ ॥
समाधान-- नहीं, क्योंकि, वहाँ पर लम्बी आयुका अभाव है।
शंका-- सातवीं पृथिवीके नारकियोंकी आयु लम्बी होती है और उत्कृष्ट योग भी है, इसलिए वहाँ उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ?
___समाधान-- नहीं, क्योंकि, वे संक्लेशबहुल होते हैं, इससिए उनमें बहुत नोकर्मोकी निर्जरा देखी जाती है।
___ शंका-- ग्यारह सागरके भीतर होनेवाले संचयसे संक्लेशवश गलनेवाला द्रव्य बहुत है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- इसी सूत्रसे जाना जाता है ।
आरण और अच्युत कल्पके देवोंमें शेष आयुका प्रतिषेध करने के लिए 'बाईस सागरकी स्थितिवाले' पदका निर्देश किया है।
उसी देवने प्रथम समयमें आहारक और प्रथम समयमें तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योगसे आहारको ग्रहण किया ॥ ४३३ ।।
उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ ॥ ४३४ ॥ सबसे लघु अन्तर्मुहर्त काल द्वारा सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ॥ ४३५ ॥ उसके बोलनेके काल अल्प हैं ॥ ४३६ ।। मनोयोगके काल अल्प हैं ॥ ४३७ ।।
ये सूत्र सुगम हैं। उसके छविच्छेद नहीं होते ।। ४३८ ।।
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५, ६, ४४४. ) बधणाणुयोगदारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा वेउब्वियसरीरस्स छेदभेदावोणमभावादो ।
अप्पदरं विउव्विदो ॥ ४३९ ॥ कुदो बहुविउव्वणाए बहुआणं परमाणपोग्गलाणं गलणप्पसंगादो।
थोवावसेसे जीविदवए ति जोगजवमज्झस्सुवरिमंतोमुत्तद्धमच्छिदो॥ ४४०॥
चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ।। ४४१॥
चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो ॥ ४४२ ।।
तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स तस्स वेउब्वियसरीरस्स उक्कस्सपदेसग्गं ।। ४४३ ॥
एदेसि सुत्ताणं जहा ओरालियसरीरम्मि परूवणा कदा तहा कायव्वा. विसेसाभावादो।
तन्वदिरित्तमणुक्कस्सं ॥ ४४४ ॥ एवं पि सुगमं ।
क्योंकि, वैक्रियिकशरीरके छेद व भेद आदिक नहीं पाये जाते ।
उसने अल्पतर विक्रिया को ।। ४३९ ॥ क्योंकि, बहुत विक्रिया करनेसे बहुत परमाणुपुद्गलोंके गलन होने का प्रसंग प्राप्त होता है।
जीवितव्यके स्तोक शेष रहने पर वह योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा ।। ४४० ।।
अन्तिम जीवगणहानिस्थानान्तरमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहा ।। ४४१ ।।
चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ ॥ ४४२ ।।
अन्तिम समयमें तद्भवस्थ हुआ वह जीव वैक्रियिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी है ।। ४४३ ॥
___ इन सूत्रोंकी जिस प्रकार औदारिकशरीरके प्रसंगसे प्ररूपणा की है उस प्रकार करनी चाहिए, क्योंकि, कोई विशेषता नहीं हैं।
उससे व्यतिरिक्त अनुत्कृष्ट है । ४४४ । यह सूत्र सुगम है।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंचं
( ५, ६, ४४५
उक्कस्सपदेण आहारसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स |४४५ |
सुगमं ।
अण्णदरस्स पमत्त संजदस्स उत्तरसरीरं णिउव्वियस्स ॥४४६ ॥ ओगाहणांदीहि दव्वभेदो णत्थि त्ति जाणावणट्ठे अण्णदरणिद्देसो कदो । पमादेण तत्थ आहारसरीरस्त उदओ अस्थि त्ति जाणावणट्ठे पमत्तगहणं कदं । असंजदप डिसेहट्ठ संजदग्गहणं कदं ।
तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण उक्कस्सजोगेण आहारिदो ॥ ४४७ ॥
उक्कस्सियाए वड्ढीए वड्ढिदो । ४४८ ॥
अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो । ४४९ । तस्स अप्पाओ भासद्धाओ ।। ४५० ॥ अप्पाओ मणजोगद्धाओ । ४५१ ॥ णत्थि छविच्छेदा ॥ ४५२ ॥
थोवावसेसे नियत्तिदव्बए त्ति जोगजवमज्झट्ठाणाए मितद्ध
४१४ )
उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा आहारकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है १४४५ | यह सूत्र सुगम है ।
उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेवाला जो अन्यतर प्रथम संयत जीव है ।। ४४६ ।। अवगाहना आदिकी अपेक्षा द्रव्यभेद नहीं है इस बातका ज्ञान करानेके लिए अन्यतर पदका निर्देश किया है । प्रमादके होने पर वहाँ आहारकशरीरका उदय नहीं है इस बातका ज्ञान कराने के लिए ' प्रमत्त' पदका ग्रहण किया है । असंयतका प्रतिषेध करनेके लिए 'संयत ' पदका ग्रहण किया है ।
उसी जीवने प्रथम समय में आहारक और प्रथम समय में तद्भवस्थ होकर योगद्वारा आहारको ग्रहण किया ।। ४४७ ॥
उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धिको प्राप्त हुआ If ४४८ ॥
सबसे लघु अन्तर्मुहूर्त कालद्वारा सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ । ४४९ ॥
उसके बोलनेके काल अल्प हैं । ४५०
मनोयोग काल अल्प हैं || ४५१॥
छविच्छेद नहीं हैं ॥ ४५२ ॥
निवृत्त होनेके कालके थोडा शेष रह जाने पर योगयवमध्यस्थानके
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५, ६, ४५६ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा ( ४१५ मच्छिदो ॥ ४५३ ॥
चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ॥ ४५४ ।।
चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सयं जोगं गदो ॥४५५ ।।
तस्स चरिमसमयणियत्तमाणस्स तस्स आहारसरीरस्स उक्कस्सयं पवेसग्गं ।। ४५६ ।।
एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । णवरि एसो पमत्तसंजदो आहारसरीरमुट्ठावेतो अपज्जत्तकाले अपज्जत्तजोगं पडिवज्जदि त्ति घेत्तव्वं, अण्णहा उक्कस्सियाए वड्ढीए आहारमिस्सद्धाए वडणाणववत्तीदो । किं च णिसेगरचणाए कीरमाणाए अवट्टिद-- सरूवेणेव णिसेगरचणा होदि ण गलिदसेसा । कथमेदं णव्वदे? आहारसरीरपरिसदणकालस्स अंतोमहत्तपमाणपरूवणादो। ण च कालभेदेण विणा एक्कम्मि चेव समए णिसित्ताणमेगसमएण विणा अंतोमहत्तण गलणं संभवदि, विरोहादो । सेसं सुगमं । एवं तिरिक्ख-मणुस्सेसु वेउवियसरीरस्स वि णिसेयरचणा वत्तव्वा, अण्णहा तत्थ परिसदणकालस्स अंतोमहत्तपमाणत्तविरोहादो। ऊपर परमित काल तक रहा ॥४५३॥
__ अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहा ॥४५४॥
चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ ।।४५५।। .
निवृत्त होनेवाला वह जीव अन्तिम समयमें आहारकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी है ।।४५६॥
ये सूत्र सुगम हैं। इतनी विशेषता है कि यह प्रमत्तसंयत जीव आहारकशरीरको उत्पन्न करता हुआ अपर्याप्त काल में अपर्याप्त रोगको प्राप्त होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा उत्कृष्ट वृद्धिद्वारा आहारमिश्रकालके भीतर वृद्धि नहीं बन सकती । दूसरे निषेक रचना करने पर अवस्थितरूपसे ही निषेकरचना होती है, गलितशेष निषेकरचना नहीं होती।
शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- क्योंकि, आहारक शरीरकी निर्जरा होनेका काल अन्तमहर्त प्रमाण कहा है।
यदि कहा जाय कि कालभेदके विना एक ही समयमें निक्षिप्त हुए प्रदेशोंका एक समयके बिना अन्तर्मुहुर्तमें गलना सम्भव है सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा होने में विरोध आता है । शेष कथन सुगम है। इसी प्रकार तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें वैक्रियिकशरी - रकी भी निषेकरचना कहनी चाहिए, अन्यथा वहाँ पर क्षीण होनेका काल अन्तर्मुहुर्तप्रमाण होने में विरोध आता है।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
तव्वदिरित्तमणुक्कस्सं ।। ४५७ ॥ सुगम ।
उक्कस्सपदेण तेजासरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स (४५८। सुगम। अण्णवरस्स ।। ४५९।। ओगाहणादीहि पदेसग्गस्स विसेसाभावपदुप्पायणट्ठमण्णदरणिद्दसो कदो।
जो जीवो पुत्वकोडाउओ अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु आउअंबंधदि ॥४६० ।।
जो जीवो पुवकोडउओ सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु आउअं बंधदि सो तेजइयसरीरस्स छावद्धिसागरोवमाणं पढमसमयपबद्धमत्तचरिमसमओ त्ति ताव गोवुच्छागारेण णिसेगरचणं करेदि । जो सत्तमाए पुढवीए रइएसु आउअं बंधंतो* द्विदो
विशेषार्थ-- यहाँ पर आहारकशरीरकी निषेक रचना गलित शेष न बतलाकर अवस्थितस्वरूप बतलाई है। इसका यह अभिप्राय है कि आहारकशरीरके उत्पन्न होनेके समयसे लेकर उसके समाप्त होने तकका जितना काल है, प्रत्येक समयमै निषेकरचना उतने समयप्रमाण होती है। मान लीजिए आहारकशरीरका अवस्थान काल आठ है तो प्रथम समयमें ग्रहण किये गये समयप्रबद्ध के आठ निषेक होंगे। दूसरे समयमें ग्रहण किये गये समयप्रबद्धके भी आठ ही निषेक होंगे। एक समय गल गया है, इसलिए आठ समयोंमें से एक समय कम निषेकरचना नहीं होगी। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए । मनुष्य और तिर्यञ्च जो वैक्रियिकशरीर उत्पन्न करते हैं उसकी निषेकरचना भी इसी प्रकार जाननी चाहिए ।
उससे व्यतिरिक्त अनुत्कृष्ट है ।।४५७।। यह सूत्र सुगम है। उत्कृष्ट पदको अपेक्षा तेजसशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है । ४५८ यह सूत्र सुगम है। जो अन्यतर जीव है ।।४५९॥
अवगाहवा आदिके द्वारा प्रदेशाग्रमें कोई विशेषता नहीं उत्पन्न होती इस बात का ज्ञान कराने के लिए 'अन्यतर' पदका निर्देश किया है।
जो पूर्वकोटिकी आयवाला जीव नीचे सातवीं पृथ्वीके नारकियोके आयुकर्मका बन्ध करता है ।।४६०॥
जो पूर्वकोटिकी आयुवाला जीव सातवीं पृथ्वीके नारकियोंमें आयुकर्मका बन्ध करता है वह तैजसशरीरके छयासठसागरप्रमाण स्थितिके प्रथम समयप्रबद्धसे लेकर अन्तिम समय तक गोपुच्छाकाररूपसे निषेकरचना करता है। जो सातवीं पृथिवी के नारकियोंकी आयु का बन्ध
* प्रतिष ' बंधदि तो ' इति पाठः ।
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५, ६, ४६१. )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा
( ४१७
सो चेव तेजइयसरीरणोकम्मस्स उक्कस्सियं द्विदि बंदि ति ण घेत्तव्वं किंतु जो पुवकोडाउओ जीवो पज्जत्तयदो उक्कस्सजोगो उरि पुवकोडितिभागावसेसे सत्तमाए पुढवीए रइएसु आउअबंधक्खमो सो तेजइयसरीरणोकम्मस्स उक्कस्सियं दिदि बंधदि त्ति वत्तम्वं, अण्णहा पुवकोडाउओ चेव बंधदि ति णियमस्त फला - भावादो। किमट्ठ पुवकोडाउओ चेव बंधाविज्जवि? तत्थ उक्कस्सजोगपरावत्तणवाराणं पउरमुवलंभादो । तं पि कुदो गव्वदे? अंतोमुत्तं मोतूण विदियपुवकोडिणिद्देसण्णहाणववत्तीदो। जदि एवं तो पुवकोडिआउएसु चेव भमाडिय तेजइयसरीरणोकम्मस्स उक्कस्ससंचओ किण्ण कीरदे ? ण, बहुवारं कालं कादूगुप्पज्जमाणस्स अपज्जत्तजोगेहि थोवदव्वसंचयप्पसंगादो । रइएसु दोहि पुवकोडीहि देसूणाहि ऊणतेत्तीससागरोवमाउअं बंधावेदव्वं, अण्णहा रइयचरिमसमए छावद्धिसागरोवमाणं परिसमत्तिविरोहादो।
कमेण कालगदसमाणो अधो सत्तमाए पुढवीए उववण्णो। ४६१ ।
करता हुआ है वही तैजसशरीर नोकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए, किन्तु जो पूर्वकोटिकी आयुवाला पर्याप्त और उत्कृष्ट योगवाला जीव आगे पूर्वकोटिके विभाग शेष रहनेपर सातवीं पृथिवीके नारकियोंकी आयुका बन्ध करने में समर्थ है वह तेजसशरीर नोकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । अन्यथा पूर्वकोटिकी आयुबाला बांधता है इस प्रकारके नियम करने का कोई फल नहीं रहता।
शंका- पूर्वकोटिकी आयु वाले जीवके ही तेजसशरीरकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध क्यों कराया है ?
समाधान- क्योंकि वहां पर उत्कृष्ट योगके परावर्तनके बार प्रचुरतासे उपलब्ध होते है। शंका- यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- अन्यथा अन्तर्मुहुर्तको छोडकर उससे भिन्न पूर्वकोटि पदका निर्देश नहीं बन सकता, इससे ज्ञान होता है कि उत्कृष्ट योगके परावर्तनके बार प्रचुरतासे वहीं पर उपलब्ध होते हैं।
__ शंका- यदि ऐसा है तो पूर्वकोटिकी आयुवालों में ही भ्रमण कराकर तेजसशरीर नोकर्म का उत्कृष्ट संचय क्यों नहीं प्राप्त करते ?
___ समाधान- नहीं, क्योंकि बहुत बार मरकर उत्पन्न होनेवाले जीवके अपर्याप्त योगोंके द्वारा स्तोक द्रव्यके संचयका प्रसंग प्राप्त होता है ।
नारकियोंकी आयुका बन्ध कराते समय कुछ कम दो पूर्वकोटि कम तेतीस सागप्रमाण आयकर्मका बन्ध कराना चाहिए, अन्यथा नारकीके अन्तिम समयमें छयासठ सागरकी परिसमाप्ति होने में विरोध आता हैं । वह क्रमसे मरा और नीचे सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ।। ४६१ ।।
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४१८ )
छपखंडागमे वग्गणा-
कदलीघादेण विणा जीविदूण मुदो त्ति जाणावणढें कमेण कालगदो त्ति भणिदं । सत्तमा पुढवी अधो चेव होदि ण अण्णत्थे त्ति जाणावणळं अधो णि देसो कदो। जत्थ आउअंबद्धं तत्थेव णियमेण उप्पज्जदि त्ति जाणावणठें बिदियसतमपुढविग्गहणं कदं । सत्तमपुढवीए चेव किमट्ठ उप्पाइदो ? ण, तत्थ संकिलेसेण बहुदव्वस्स उक्कडणुवलंभादो अण्णत्थ एवं विहसंकिलेसामावादो। आउअपमाणणिद्देसो किण्ण कदो ? तबाउअस्स देसूणत्तपदुप्पायणढें ।
तदो उवट्ठिदसमाणो पुणरवि पुधकोडाउएसुववण्णो ॥४६२॥
पुणो पुवकोडीए किमदमप्पाइदो। ण, तत्थ उक्कस्सजोगपरावतणवाराणं पउरमुवलंभादो । तं पि कुदो णव्वदे ? एवम्हादो चेव सुत्तादो ।
तेणेव कमेण आउअमणपालइत्ता तदो* कालगदसमाणो पण
रवि अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएस उववण्णो ॥ ४६३ ॥ कदलीघादेण ओवट्टणाघादेण च विणा जीविदूण मुदो त्ति जाणावणठें तेणेव
कदलीघातके बिना जीवन धारण कर मरा इस बातका ज्ञान कराने के लिए 'कमेण काल गदो' पदका कथन किया है। सातवीं पृश्निवी नीचे ही होती है अन्यत्र नहीं इस बात का ज्ञान कराने के लिए 'अधः' पदका निर्देश किया है। जहां की आयुका बंध करता है वहां ही नियमसे उत्पन्न होता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए दूसरी बार सप्तम पृथिवी पदका ग्रहण किया है।
शंका-- सातवीं पृथिवीमें ही क्यों उत्पन्न कराया है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, वहां पर संक्लेशके कारण बहुत द्रव्य का उत्कर्षण उपलब्ध होता है । तथा अन्यत्र इस प्रकारका संक्लेश नहीं पाया जाता ।
शंका-- आयुके प्रमाणका निर्देश किसलिए नहीं किया ?
समाधान-- उसकी आयु कुछ कम होती है इस बातका कथन करने के लिए आयु के प्रमाणका निर्देश नहीं किया है।
वहांसे निकलकर फिर भी पूर्वकोटिकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ ॥ ४६२ ।। शंका-- पुनः पूर्वकोटिकी आयुवालोंमें किसलिए उत्पन्न कराया है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, वहां पर उत्कृष्ट योगके परावर्तनके बार प्रचुरतासे पाये जाते हैं।
शंका -- यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -- इसी सूत्रसे जाना जाता है ।
उसी क्रमसे आयका पालन करके मरा और पुनः नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियोमें उत्पन्न हुआ।। ४६३ ।।
कदलीघात और अपरावर्तनाघातके बिना जीवन धारण कर मरा इस बातका ज्ञान कराने के
, ता. प्रतो । जाणावणठं कालगढो' इति पाठः । * का० प्रती ' तदो कालगदसमाणो' इत आरभ्य 'विदियगुढवि-' इत। पूर्व पाठो नास्ति ]
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५, ६, ४६७ )
योगद्दारे सरीरपरूवणाए पदममता
( ४१९
कमेण आउअमणुपालइत्ता त्ति भणिदं । बिदियपुव्वकोडिचरिमसमए तेत्तीस सागरोवमाणि समार्णिय णेरइएसु तेत्तीसं सागरोवमट्टिदिएसु उववण्णो त्ति भणिदं होदि । संपहि तिसु वि अपज्जत्तद्धासु आवासयपरूवणट्ठ उत्तरसुतं भणदि ।
तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण उक्कस्सजोगेण आहारिदो ॥। ४६४ ॥
एदेहि तीहि वि सुत्तेहि उववादजोगमाहप्पं जाणाविदं । विग्गहगदीए किरण उपाइदो ? पज्जत्तकालवड्डावणट्ठ ण उप्पाइदो
उक्कस्सियाए वड्ढीए वड्ढिो || ४६५ ॥
अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तयदों ||४६६ ॥ तत्थ य भवट्टिदि तेत्तीससागरोवमाणि आउअमणुपालइत्ता | ४६७॥ उक्कस्तदव्वं करेदित्ति भणिदं होदि । सेसं सुगमं । दोसु पुग्वकोडीसु दोसु णिरयाउएसु च आवासयपरूवणट्ठ उत्तरमुत्तं भणदि -
'
लिए ' उसी क्रमसे आयुका पालन कर यह पद कहा है । दूसरी पूर्वकोटिके अन्तिम समय में तेतीस सागर समाप्त करके तेतीस सागरकी आयुवाले नारकियोंम उत्पन्न हुआ यह उक्त कथन का तात्पर्य है । अब तीनों अपर्याप्त कालोंमें आवश्यकों का कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
प्रथम समय में आहारक हुए और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुए उसी जीवने उत्कृष्ट योगसे आहारको ग्रहण किया || ४६४ ॥
इन तीनों ही सूत्रोंके द्वारा उपपाद योगके माहात्म्यका ज्ञान कराया गया है ।
शंका - विग्रहगति में क्यों नहीं उत्पन्न कराया है ?
समाधान - पर्याप्त काल बढाने के लिए नहीं उत्पन्न कराया है ।
उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ ।। ४६५
सबसे अल्प अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ।। ४६६ ॥
वहां तेतीस सागर आयुप्रमाण मवस्थितिका पालन कर ॥ ४६७ ।
वह उत्कृष्ट द्रव्यको करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शेष दो पूर्वकोटियोंमें और दो नारक आयुओं में आवश्यकों का कथन सूत्र कहते हैं
ता० प्रती । आउअम गुपालइत्ता त्ति भणिदं होदि ' इति पाठः ।
कथन सुगम है। अब
करनेके लिए आगेका
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४२० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ४६८
बहुसो बहुसो उक्कस्सियाणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि ॥ ४६८ ।।
एत्थ उक्कस्से त्ति उत्ते आदेसुक्कस्स-ओघकस्ताणं दोण्णं पि गहणं कायध्वं । किमटुमुक्कस्सजोगेसु हिंडाविज्जदि ? बहुपोग्गलग्गहणढें ।
बहुसो बहुसो बहुसंकिलेसपरिणामो भवदि । ४६९ ।
संचिदपोग्गलाण मुक्कड्डणठें । ओरालिय-वेउब्बिय-आहारसरीरपोग्गलाणमुक्कड्डुणा त्थि । कथमेदं णवदे । तत्थ एदस्स सुत्तस्स अणवदेसादो। पुणरवि आदेसुक्कस्सजोगबिसेसपरूवगढमुत्तरसुत्त भणदि
एवं संसरिदूण थोवावसे से जीविदधए ति जोगजवमज्झस्स उवरिमंतोमुहुत्तद्धमच्छिदो । ४७० ।
चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो । ४७१ ।
दुचरिम-तिचरिमसमए उक्कस्ससंकिलेसं गदो। ४७२ ।
बहुत बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है । ४६८ ।
यहां पर उत्कृष्ट ऐसा कहने पर आदेश उत्कृष्ट और ओघ उत्कृष्ट दोनों ही का ग्रहण करना चाहिए।
शंका-- उत्कृष्ट योगवालों में किसलिए घुमाते हैं ? समाधान -- बहुत पुद्गलोंका संग्रह करनेके लिए । बहुत बहुत बार विपुल संक्लेश परिणामवाला होता है । ४६९ ।
संचित हुए पुद्गलोंका उत्कर्ष करने के लिए यह सूत्र आया है । औदारिकशरीर वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके पुद्गलोंका उत्कर्ष नहीं होता । __ शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है?
सपाधान-- क्योंकि, उन शरीरोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते समय इस सूत्रका उपदेश नहीं दिया है।
अब फिर भी आदेश उत्कृष्ट योगविशषका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
इस प्रकार परिभ्रमण करके जीवितव्यके स्तोत शेष रहने पर योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहरा । ४७० ।
अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहा । ४७१।
द्विचरम और त्रिचरम समयमें उत्कृष्ट संवलेशको प्राप्त हुआ। ४७२ ।
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५, ६, ४७४ ) बंषणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा (४२१
चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो ।। ४७३ ॥
तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स तस्स तेजइयसरीरस्स* उक्कस्सयं पदेसग्गं ।। ४७४ ।।
संपहि एत्थ उवसंहारे भण्णमाणे संचयाणगमो भागहारपमाणाणगमो समयपबद्ध. पमाणाणुगमो चेदि एदाणि तिणि अणुयोगद्दाराणि होति । एदेहि तिहि अणुयोगद्दा. रेहि उवसंहारो उच्चदे । तं जहा- कम्मट्टिदिपढमसमए जं बद्धं तेजइयसरीरणोकम्मपदेसगं तं सामित्तचरिमसमए* चरिमगोवच्छ मेत्तमत्थि । जं कम्मट्टिदिबिदियसमए पबद्धं णोकम्मपदेसग्गं तं सामित्तचरिमसमए चरिम-दुचरिमगोवुच्छमेत्तमस्थि । एवं यवं जाव कम्मटिदिचरिमसमओ त्ति । एवं संचयाणुगमो गदो । छावटिसागरोवमाणं पढमसमए जं बद्धं तेजइयसरीरणोकम्मपदेसग्गं तम्मि अंगुलस्स असंखे० भागेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेतं कम्मट्टिदिचरिमसमए अस्थि । तेजइयसरीरकम्मट्ठि दिअंतरणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थे कदे असंखेज्जाणि पलिदोवमाणि उप्पज्जति । पुणो एदेण अण्णोण्णब्भत्थरासिणा असंखेज्जपलिदोवमपढपवग्गमूलमेत्तदिवड्डगुणहाणोसु गुणिदासु भागहारो उप्पज्जदि त्ति भणिदं
चरम और द्विवरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ ।। ४७३ ॥
चरम समयवर्ती तद्भवस्थ वह जीव तैजसशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी है ॥ ४७४ ॥
अब यहां पर उपसंहारका कथन करने पर संचयानुगम, भागहारप्रमाणानुगम और समयप्रबद्धप्रमाणानुगम ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं। इन तीन अनुयोगद्वारोंका अवलम्बन लेकर उपसंहारका कथन करते हैं। यथा- कर्मस्थितिके प्रथम समयमें जो तैजसशरीर नोकर्मप्रदेशाग्र बन्धको प्राप्त हआ है, स्वामित्वके अन्तिम समयमें वह अन्तिम गोपूच्छमात्र शेष रहता है। जो कर्मस्थितिके द्वितीय समयमें नोकर्मप्रदेशाग्र बन्धको प्राप्त हुआ है वह स्वामित्वके अंतिम समयमें चरम और द्विचरम गोपुच्छ मात्र शेष रहता है । इस प्रकार कर्म स्थितिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार संचयानुगमका कथन समाप्त हुआ । छयासठ सागरके प्रथम सनयमें जो तैजसशरीर नोकर्मप्रदेशाग्र बन्धको प्राप्त हुआ है उसमें अगुलके असंख्यातवें भाग का भाग देने पर एक खण्डमात्र कर्म स्थितिके अन्तिम समय में शेष रहता है। तैजसशरीर नोकमंस्थिति अन्तर नानागुणहानि शलाकाओंका विरलन कर और विरलन राशि के प्रत्येक एकको दूना कर परस्पर गुणा करने पर असंख्यात पल्य उत्पन्न होते हैं। पुन: इस अन्योन्याभ्यस्त राशिसे असंख्यात पल्योंके प्रथमवर्गमूलप्रमाण डेढ गुणहानियोंके गुणित करने पर भागहार
*ता. प्रतो ' तस्स पत्तेय (तेजइय) सरीरस्स' अ.का. प्रत्यो 'तस्स पत्तेयसरीरस्स' इति पाठः । * प्रतिषु ' सामितं चरिमगमए ' इति पाठ। ता० प्रती -सागरोवमाणि (ण) इति पाठः ।
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४२२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ४७५ होदि । एवं भागहारो जाणिदूण परूवेयन्वो जाव कम्मढिदिचरिमसमओ ति । एवं भागहारपरूवणा गदा। तेजइयसरीरस्त छावद्विसागरोवमसंचिदसव्वदम्वे समयपबद्धपमाणेण कदे दिवगणहाणिमेत्तसमयपबद्धा होति । एवमुक्कस्सपदेसपरूवणा समत्ता।
तव्वदिरित्तमणुक्कस्सं ॥ ४७५॥ एत्थ ओकडणं बंधं च अस्तिदूण अणंताणमणक्कस्सटाणाणं परूवणा कायया । उक्कस्सपदेण कम्मइयसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स ॥४७६॥ सुगमं ।
जो जीवो बादरपुढविजीवेसु बेहि सागरोवमसहस्सेहि सादिरेगेहि ऊणियं कम्मट्ठिदिमच्छिदो ।। ४७७ ॥
जहा वेदणाए वेदणीयं तहा यव्वं ।। ४७८ ॥
जहा वेयणदव्वविहाणेण साणित्तपरूवणा कदा तहा एत्थ वि णिरवसेसा कायव्वा, विसेसाभावादो*। एवं पंचण्णं सरीराणं उक्कस्सं सामित्तं समत्तं।
उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार नोकर्मस्थितिके अन्तिम समय तक भागहारका जानकर कथन करना चाहिए। इस प्रकार भागहार प्ररूपणा समाप्त हुई । तैजसशरीरके छयासठ सागरके भीतर संचित हुए सब द्रव्यको समयप्रबद्धके प्रमाणसे करने पर डेढ गुणहानि मात्र समयप्रबद्ध होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशप्ररूपणा समाप्त हुई।
उससे तद्वयतिरिक्त अनुत्कृष्ट प्रदेशान है ।। ४७५ ॥
यहाँ पर उत्कर्षण और बन्धका आश्रय लेकर अनन्त अनुत्कृष्ट स्थानोंका कथन करना चाहिए। उत्कृष्ट पदको अपेक्षा कार्मणशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है ।४७६।
यह सूत्र सुगम है।
जो जीव बादर पृथिवी जीवोंमें दो हजार सागर कम कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा है वह कार्मणशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी है ।। ४७७ ।।
यहाँ शेष वेदनामें वेदनीयका जिस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व कहा है उस प्रकार जानना चाहिए ॥ ४७८ ।।
जिस प्रकार वेदनद्रव्यविधानकी अपेक्षा स्वामित्वका कथन किया है उस प्रकार यहां पर समग्र कथन करना चाहिए, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है ।
इस प्रकार पाँच शरीरोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन समाप्त हुआ।
४ ता० प्रती ' मणक्कस्साण ( ट्राणाणं ) ' इति पाठ।। * अ० प्रती ‘णिरवसेसा विसेसाभावादो' इति पाठः ।
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५, ६, ४८१ )
योगद्वारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा
( ४२३
जहणपदेण ओरालियसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं कस्स | ४६९ |
सुगमं
अण्णदरस्स हुमणिगोदजीव अपज्जत्तयस्स । ४८० |
ओगाहणादीहि पदेसग्गस्स संखाकयभेदो णत्थि त्ति अग्नदरग्गहणं कदं । बादर --- गिगोदादिजीव पडिसेहठ्ठे सुहुमणिगोदजीवणिद्देसो कदो । पज्जत्तपडिसेहट्ठ अपज्जतकदं । किमट्ठे सुहुमणिगोद अपज्जतेसु चेत्र जहण्णसामित्तं दिज्जदे ? ण, सुहुमणिगोद अपज्जत्तजहण्ण उववादजोगादो इदरेसि जहण्ण उववादजोगाणमसंखेज्जगुणत्तुवलंभ/ दो । तस्सेव सुहुमणिगोद अपज्जत्तयस्स विसेसपरूवणट्ठ उत्तरसुत्तं भणदिपढमसमय आहारस्स पढमसमय तब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स ओरालिय सरीरस्स जहण्णयं पदेसगं । ४८१ ।
बिदियादिसमय आहार पडिसेहट्टं पढमसमय आहारयस्स ति वृत्तं । किमहं तप्पडिसेहो कीरदे ? एयंता वडिआदिजोगेहि आगच्छमाण बहुपोग्गलप डिसेहट्ठ
जघन्य पदकी अपेक्षा औदारिकशरीर के जघन्य प्रदेशाग्र का स्वामी कौन है । ४७९ ।
यह सूत्र सुगम I
जो अन्यतर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव है । ४८०
T
अवगाहना आदिकी अपेक्षा प्रदेशाग्रका संख्याकृत भेद नहीं है, इसलिए 'अन्यतर' पदका ग्रहण किया है । बादर निगोद आदि जीवोंका प्रतिषेध करनेके लिए 'सूक्ष्म निगोद जींव' पदका निर्देश किया है । पर्याप्तकोंका प्रतिषेध करनेके लिए 'अपर्याप्त' पदका ग्रहण किया है ।
शंका - सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकों में ही जघन्य स्वामित्व किसलिए दिया जाता
समाधान- नहीं, क्योंकि, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकोंके जघन्य उपपाद योगसे दूसरे जीवोंके जघन्य उपपादयोग असंख्यातगुणे उपलब्ध होते हैं । अब उसी सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवके विशेषणोंका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
प्रथम समय में आहारक हुआ और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुआ जघन्य योगसे युक्त वह जीव औदारिकशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी है । ४८१
द्वितीय आदि समयों में आहारक होनेका निषेध करनेके लिए 'प्रथम समय में आहारक हुआ' पद कहा है ।
शंका - द्वितीय आदि समयोंमें आहारक होनेका प्रतिषेध किसलिए करते हैं ? समाधान - एकान्तानुवृद्धि आदि योगोंके द्वारा आनेवाले बहुत पुद्गलों का निषेध करने के...
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४२४ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खं
( ५, ६, ४८२
विदिय-तदिय-चउत्थसमयतब्भवत्थपढमसमयआहारयाणं पडिसेहटें पढमसमयतब्भवत्थस्से त्ति भणिदं किमळं विग्गहगदीए पडिसेहो कीरदे ? ण विग्गहगदीए आगदाणं सव्वजहण्णउववादजोगासंभवादो । तं कुदो णव्वदे? पढमसमयतब्भवत्थस्से त्ति सुत्तण्णहाणुववत्तींदो । उववादजोगा असंखेज्जवियप्पा अस्थि तेसि पडिसेहळें जहण्णजोगिस्से ति भणिदं ।
तन्वदिरित्तमजहणं ॥४८२ ॥ एवम्हादो वदिरित्तजहण्णदव्वं तमजहणं त्ति घेत्तव्वं । जहण्णपदेण वेउव्वियसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं कस्स ॥४८३॥ सुगम । अण्णदरस्स देव-णेरइयस्स असण्णिपच्छायदस्स ।। ४८४ ॥
असणिपच्छायदणिहेसो किमळं कीरदे? असण्णीहितो आगदस्सेव जहण्णववादजोगो होदि ण अण्णस्से त्ति कीरदे ।
लिए द्वितीय आदि समयोंमें आहारक होने का प्रतिषेध किया है ।
द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ समयमें तद्भवस्थ होकर प्रथम समयवर्ती आहारक होता है उसका निषेध करने के लिए 'प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुआ ' पद कहा है
शंका- विग्रहगतिका प्रतिषेध किसलिए करते है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, विग्रहगतिसे आये हुए जीवोंके सबसे जघन्य उपपादयोगका होना असम्भव है।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समधान- प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुआ यह सूत्र वचन अन्यथा बन नहीं सकता है । इससे जाना जाता है कि विग्रहगतिसे आये हुए जीवोंके जधन्य उपपादयोग नहीं होता।
उपपादयोगके असंख्यात विकल्प हैं उनका प्रतिषेध करने के लिए 'जघन्य योगवालेके' यह वचन कहा है।
उससे व्यतिरिक्त अजघन्य प्रदेशाग्र होता है ।। ४८२ ।।
इससे व्यतिरिक्त जो जघन्य द्रव्य है वह अजघन्य है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। जघन्य पदकी अपेक्षा वैक्रियिकशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है ।४८३॥
यह सूत्र सुगम है। असंज्ञियोंमेंसे आकर उत्पन्न हुआ जो अन्यतर देव और नारकी जीव है। ४८४ ।
शंका- 'असंज्ञियोंमेंसे आकर उत्पन्न हुआ' पदका निर्देश किसलिए करते हैं ?
समाधान- असंज्ञियोंमेंसे आये हुए जीवके ही जघन्य उपपादयोग होता है अन्यके नहीं इसलिए उक्त पदका निर्देश करते हैं।
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बंधाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा
( ४२५
पढमसमयआहारयस्स पढमसमय तब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स वेडव्वियसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं ॥। ४८५ ।।
एत्थ जथा ओरालियसरीरस्स परूवणा कदा तथा कायव्वा । ओरालियवेव्वियसरीराणं जहण्ण उववादजोगेण आगदएयसमयपबद्धत्तणेण भेदाभावादो । तव्वदिरित्तमजणं ॥ ४८६ ॥
५, ६, ४८९ )
सुगमं ।
जहण्णपदेण आहारसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं कस्स ।। ४८७ ॥ सुगमं
अण्णदरस्स पमत्तसंजदस्स उत्तरं विउव्विदस्त ।। ४८८ ।। सुगमं ।
पढमसमयआहारयस्स पढमसमयतन्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स आहारसरीरस्स जहण्णयं पदेसगं ॥ ४८९ ॥
कथमाहारसरीरग्गहणस्स भवसण्णा ?न, पूर्वशरीरपरित्यागद्वारेणोत्तरशरीरोपादानस्य भवव्यपदेशात् । जदि आहारसरीरग्गहणं भवो होदि तो तत्थ अपज्जत्त
प्रथम समय में आहारक हुआ और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुआ जघन्य योगवाला वह जीव वैक्रियिकशरीर के जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी है ।। ४८५ ।।
यहां पर जिस प्रकार औदारिकशरीरकी अपेक्षा कथन किया है उस प्रकार कथन करना चाहिए, क्योंकि, ओदारिकशरीर और वैक्रियिकशरीर में जघन्य उपपादयोगसे आये हुए एक समयबद्धपने की अपेक्षा कोई भेद नहीं है ।
उससे व्यतिरिक्त अजघन्य प्रदेशाग्र है || ४८६ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
जघन्यपदकी अपेक्षा आहारकशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है । ४८७ ।
यह सूत्र सुगम है ।
उत्तर विक्रियाकरनेवाला जो अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव है ॥ ४८८ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
प्रथम समय में आहारक हुआ और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुआ जघन्य योगवाला वह जीव आहारकशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी है ।। ४८९ ॥ शंका- आहारकशरीरग्रहणकी भव संज्ञा कैसे है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, यहां पूर्वशरीरका त्याग होकर उत्तर शरीरका ग्रहण होता है, इसलिए इसकी भव संज्ञा है ।
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४२६ )
छक्खंडागमे वगणा-खंडे
( ५, ६, ४९०
कालेण वि होदव्वं ? होदु णाम, आहारमिस्तकायजोगदाए तस्स अपज्जत्तभावब्भुवगमादो। जदि एवं तो भवस्स पढमसमए उववाबजोगेण होदव्वं ? सच्चमेदं, इच्छिज्जमाणतादो । जवि एवं तो पमत्तसंजदस्स दो जीवसमासा पावेंति ? होदु एवं पि: विरोहाभावादो। ण च जीवट्ठाणसुत्तेण सह विरोहो, तत्थ ओरालियसरीरे पज्जत्ते संते चेव संजमो उप्पज्जदि ण तम्मि अपज्जत्ते इदि मणम्मि कादण अपज्जत्तजीवसमासपडिसेहादो । सेसं सुगमं ।
तवदिरित्तमजहण्णं ।। ४९० ॥ एदं पि सुगमं ।
जहण्णपदेण तेजासरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं कस्स ॥ ४९१ ॥ सुगमं ।
अण्णदरस्स सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स एयंताणुवड्ढीए वड्ढमाणस्स जहण्णजोगिस्स तस्स तेयासरीरस्स जहण्णयं पदेसगं ॥ ४९२ ।।
शंका-- यदि आहारकशरीरका ग्रहण भव है तो वहाँ पर अपर्याप्त काल भी होना चाहिए।
समाधान-- होओ, क्योंकि, आहारकमिश्रकाययोगके कालके भीतर उसका अपर्याप्तभाव स्वीकार किया गया है।
शंका-- यदि ऐसा है तो भवके प्रथम समयमें उपपादयोग होना चाहिए ? समाधान-- यह कहना सत्य है, क्योंकि, यह बात हमें इष्ट है । शंका-- यदि ऐसा है तो प्रमत्तसंयत जीवके दो जीवसमास प्राप्त होते हैं ?
समाधान-- ऐसा भी होओ, क्योंकि, इसमें कोई विरोध नहीं है । ऐसा मानने पर जीवस्थानसूत्रके साथ विरोध नहीं आता, क्योंकि, वहाँ पर औदारिक शरीरके पर्याप्त होने पर ही संयम होता है, औदारिकशरीरके अपर्याप्त रहते हुए नहीं होता ऐसा मनमें विचार कर अपर्याप्त जीवसमासका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है।
उससे व्यवितरिक्त अजघन्य प्रदेशान है ॥ ४९० ।।
यह सूत्र भी सुगम है। जघन्य पदकी अपेक्षा तैजसशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है ।४९११
यह सूत्र सुगम है।
एकान्तानवद्धि योगसे वृद्धिको प्राप्त होनेवाला और जघन्य योगसे युक्त जो अन्यतर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव है वह तैजसशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी है ।। ४९२ ।।
४ ता० प्रती एवं गि' इति पाठः ।
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५, ६, ४९० ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा
(४२७ ___जहा इदरेसि सरीराणं जहण्णववादजोगम्मि चेव एगसमयपबद्धं घेत्तण जहण्ण. सामित्तं दिण्ण तहा तेयासरीरस्स किण्ण दिज्जदे ? ण, तत्थ पुव्वसंचिदसमयपबद्धाणं संभवेण तेयासरीरस्स जहण्णभावाणववत्तीदो। उवरि जहण्णएयंताणुवड्ढीए वड्डमा णस्स पदेसवड्ढी चेव होदि तदो एयंताणवडिअद्धाए अभंतरे कथं जहण्णसामित्तं दिज्जदे ? ण एस दोसो, एयंताणवडिजोगेण आगच्छमाणपदेसग्गादो परिणामजोगेणागदसमयपबद्धाणं गलमाणाणमसंखेज्जगुणत्तुवलंभादो। जदि एवं तो सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तं मोत्तण अण्णेसिमेयंताणवड्ढीए जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, णणेसि जहण्णएयंताणुवड्डिजोगेहि सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जहण्णएयंताणवड्डिजोगाणमसंखेज्जगणहीणत्तुवलंभादो। किं च सण्णिचिदियपज्जत्तएसु तेजइयसरीरणोकम्मउक्कस्सहिदी छावद्धिसागरोवममेत्ता, सुहमेइंदिएसु पुण अंत्तोमुत्तमेत्ता, अणंतगुणही. णकसायत्तादो। पंचिदियसमयपबद्धहितो सुहमेइंदियसमयपबद्धा असंखेज्जगणहीणा असंखेज्जगुणहीणजोगत्तादो । तेण सुहमणिगोदेसु* पंचिदियसमयपबद्ध गालिय तत्थ संचिदसमयपबद्धे परिणामजोगेणागदे अंतोमहुत्तमेते सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तएयंताणु
शंका-- जिस प्रकार इतर शरीरोंका जघन्य उपपादयोगमें ही एक समयप्रबद्धको ग्रहण कर जघन्य स्वामित्व दिया है उस प्रकार तैजसशरीरका क्यों नहीं दिया जाता ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, वहाँ पर पूर्वसंचित समयप्रबद्ध सम्भव होने से तैजसशरीरका जघन्यपना नहीं बन सकता ।
शंका-- ऊपर जघन्य एकान्तानुवद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होनेवाले जीवके प्रदेशवृद्धि ही होती है, इसलिए एकान्तानुवृद्धिके कालके भीतर जघन्य स्वामित्व कसे दिया जा सकता है ?
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एकान्तानुवृद्धि योगके द्वारा आनेवाले प्रदेशाग्रसे परिणामयोगसे आये हुए समयप्रबद्धोंके गलनेवाले प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे उपलब्ध होते हैं।
__ शंका-- यदि ऐसा है तो सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकको छोडकर अन्य जीवोंके एकान्तानुवद्धिके द्वारा जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, अन्य जीवोंके जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगसे सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवके जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणे हीन उपलब्ध होते हैं। दूसरे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें तैजसशरीर नोकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागरप्रमाण होती है परन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है, क्योंकि, उनके अनन्तगुणी हीन कषाय पाई जाती है । तथ पञ्चेन्द्रिय जीवके समयप्रबद्धसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके समयप्रबद्ध असंख्यातगुणे हीन होते हैं, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके असंख्यातगुणा हीन योग पाया जाता है, इसलिए सूक्ष्म निगोद जीवोंमें पञ्चेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धोंकों गलाकर वहाँ परिणामयोगसे आये हुए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण संचित हुए समयप्रबद्धोंको सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवके एकान्तानुवृद्धि योगकालके भीतर गलाकर एकान्तानुवृद्धियोगसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण समय
*ता. का. प्रत्योः '-अद्धाणं अब्भंतरे' इति पाठः। * ता० प्रतो । अणंतगणहीणकसायत्तादो 1 तेण सहमणिगोदेसु ' इति पाठः ।
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४२८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
गालिय अंतोमुहुत्तपमाण मेयंताणवडिजोगसमयपबद्धेसु गहिवेसु तेजासरीरस्स जहण्णदव्वं होदि ति वत्तव्वं । णिल्लेवणढाणाणं पमाणमुक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखे० भागो त्ति भणिदं तेण कम्मट्रिदीए असंखेज्जभागमेत्तसमयपबद्धाणं संचएण सामित्तचरिमसमए होदव्वमिदि ? ण, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि णिल्लेवणट्टाणाणि होति त्ति कम्मस्स परूविदत्तादो। ण च कम्म णोकम्माणमेयत्तं, कारण-कज्जाणमेयत्तविरोहादो। तेजासरीरणोकम्मस्स जहणदिदी एइंदियजीवसमासेसु सुहमणिगोदअपज्जत्तएयंताणवद्धिकालादो थोवे त्ति कुदो जव्वदे ? अण्णदरस्से ति वयणादो। अण्णहा विदकम्मंसियलक्खणेण सुहमणिगोदेसु हिडिदूण आगदो त्ति भणेज्ज ? ण च एवं, तदो णवदे जहाणदिदी एयंताणुवडिकालादो थोवे ति।
तव्वविरित्तमजहणं ॥ ४९३ ॥
सुगमं ।
जहण्णपदेण कम्मइयसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं कस्स ॥४९४॥ सुगम। अण्णदरस्स जीवो सहमणिगोदजीवेमु पलिदोवमस्स असंखे
प्रबद्धोंके ग्रहण करने पर तेजसशरीरका जघन्य द्रव्य होता है ऐसा यहाँ कहना चाहिए ।
शंका-- निर्लेपनस्थानोंका उत्कृष्ट प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा कहा है, इसलिए स्वामित्वके अन्तिम समयमें कर्मस्थिति के असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धोंका संचय होना चाहिए ।
समाधान-- नहीं, क्योंकि, पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपस्थान होते है यह कर्मकी अपेक्षा कथन किया है। और कर्म तथा नोकमं एक नहीं है, क्योंकि, कारण और कार्यको एक होनेमें विरोध आता है ।
शंका-- एकेन्द्रिय जीवसमासोंमें तेजसशरीर नोकर्मकी जघन्य स्थिति सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके एकान्तानुवद्धिकालसे स्तोक है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- 'अन्यतरके ' इस वचनसे जाना जाता है। अन्यथा क्षपितकर्माशिकलक्षणसे सूक्ष्म निगोद जीवोंमें घूमकर आया हुआ जीव ऐसा कहते । परन्तु ऐसा नहीं कहा है। इससे जाना जाता है कि जघन्य स्थिति एकान्तानुवृद्धिके कालसे स्तोक है ।
उससे व्यतिरिक्त अजघन्य प्रदेशाग्न है ।। ४९३ ।। यह सूत्र सुगम है। जघन्य पदकी अपेक्षा कार्मणशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है । ४९४। यह सूत्र सुगम हैं। अन्यतर जो जीव सूक्ष्म निगोद जीवोंमें पल्यका असंख्यातवां भाग कम
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घाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा
( ४२९
कम्मद्विविमच्छिदो । एवं जहा वेयणाए वेयणीयं वरि थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति चरिमसमयभवसिद्धिओ जादो तस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स तस्स कम्मइयसरी - रस्स जहण्णयं पदेसग्गं ।। ४९५ ।।
जहा वेयणाए जहण्णदव्वविहाणे परूविदं तहा परूवेयवं । तव्वदिरित्तमजहणं ॥। ४९६ ॥
सुगमं ।
५, ६, ४९८ )
ज्जदिभागेण ऊणयं तहा णेयव्वं ।
एवं पदमीमांसा समत्ता ।
अप्पा बहुए ति सव्वत्थोवं ओरालियसरीरस्स पदेसगं ॥ ४९७ ॥ कुदो ? साभावियादो
वेव्वियसरीरस्स पदेसग्गमसंखेज्जगुणं ॥ ४९८ ॥
को गुण ० ? सेडीए असंखे० भागो । एसो चेव गुणगारो होदित्ति कुदो road ? पुव्वं परुविद गुणगाराणुयोगद्दारादो ।
कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा। इस प्रकार जैसे वेदना अनुयोगद्वारमें वेदनीयकर्मकी अपेक्षा कहा है वैसे जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जीवितव्य के स्तोक प्रमाण में शेष रहने पर अन्तिम समयवर्ती भवसिद्ध हुआ वह अन्तिम समयवर्ती भवसिद्ध जीव कार्मणशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रका स्वामी है ।। ४९५ ॥
जिस प्रकार वेदना अनुयोगद्वार में जघन्य द्रव्यविधान प्ररूपणा के समय कहा है उस प्रकार कथन करना चाहिए ।
उससे व्यतिरिक्त अजघन्य प्रदेशाग्र है ।। ४९६ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
इस प्रकार पदमीमांसा समाप्त हुई ।
अल्पबहुत्वकी अपेक्षा औदारिकशरीरका प्रदेशाग्र सबसे स्तोक है ॥४९७॥ क्योंकि, ऐसा स्वभाव है ।
उससे वैक्रियिकशरीरका प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है ।। ४९८ । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है शंका-- यह ही गुणकार होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? पूर्व में कहे गये गुणकार अनुयोगद्वारसे जाना जाता है ।
समाधान-
०ता० प्रती जादो तस्स कम्मइयसरीरस्स' इति पाठा ]
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४३० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
आहारसरीरस्स पदेसग्गमसंखेज्जगुणं ॥ ४९९ ॥ को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जदिभागो । तेयासरीरस्स पदेसग्गमणंतगुणं ॥ ५०० ॥ को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अनंतगुणो सिध्दाणमणं भागो । कम्मइयसरीरस्स पदेसग्गमणंतगुणं ।। ५०१ ।। को गुणगारो ? अभवसिध्दिएहि अनंतगुणो सिध्दाणमणत भागो । एवमप्पा बहुए समत्ते सरीरपरूवणा समत्ता होदि ।
(५,६, ४९९
सरीरविस्सा सुवचयपरूवणदाए तत्थ इमाणि छ अनुयोगद्दाराणि अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गणपरूवणा फडुयपरूवणा अंतरपरूवणा सरीरपरूवणाए अप्पाबहुए त्ति ॥ ५०२ ॥
को विस्सासुवचओ णाम । पंचणं सरीराणं परमाणपोग्गलाणं जे निध्दादिगुणेहि तेसु पंचसरीरपोग्गलेसु लग्गा पोग्गला तेति विस्सासुवचओ त्ति सण्णा । तेि विस्सासुवचयाणं संबंधस्स जो कारणं पंचसरीरपरमाणुपोग्गलगओ निध्दादिगुणो तस्स वि विस्तासुवचओ त्ति सण्णा, कारणे कज्जुवयारादो । एदेहि छहि अणुयोग ---
उससे आहारकशरीरका प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है ।। ४९९ ।। गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवे भागप्रमाण गुणकार है । उससे तैजसशरीरका प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है ।। ५०० ।
गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है ।
उससे कार्मणशरीरका प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है ।। ५०१ ।।
गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है । इस प्रकार अल्पबहुत्व के समाप्त होने पर शरीरप्ररूपणा समाप्त होती है । शरीरविस्रसोपचयप्ररूपणाकी अपेक्षा वहां ये छह अनुयोगद्वोर होते हैं अविभागप्रतिच्छेदपरूवणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धक प्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ।। ५०२ ।।
शंका- विस्रसोपचय किसकी संज्ञा है ?
समाधान- पाँच शरीरोंके परमाणुपुद्गलों के मध्य जो पुद्गल स्निग्ध आदि गुणोंके कारण उन पांच शरीरोंके पुद्गलोंमें लगे हुए हैं उनकी वित्रसोपचय संज्ञा है । उन विस्रसोपचयों के सम्बन्धका पाँच शरीरोंके परमाणु पुद्गलगत स्निग्ध आदि गुणरून जो कारण है उसकी भी विसोपचय संज्ञा है, क्योंकि, यहां कारणमें कार्यका उपचार किया है ।
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५, ६, ५०५ ) मधणाणुयोगदारे सरीरविस्सासुवचयपरूवणा ( ४३१ दारेहि बंधणगुणस्स परूवणा कीरदे। कारणे अवगदे तक्कारणाणुसारिस्स कज्जस्स वि अवगमादो।
___ अविभागपडिच्छेदपरूवणदाए एक्कक्कम्मि ओरालियपदेसे केवडिया* अविभागपडिच्छेदा ।। ५०३ ॥
कि संखेज्जा किमसंखेज्जा किमणंता ति एदेण पुच्छा कदा ।
अणंता अविभागपडिच्छेदा सव्वजोवेहि अणंतगुणा ॥ ५०४॥
को अविभागपडिच्छेदो गाम ? एगपरमाणुम्हि जा जहणिया वड्ढी सो अविभागपडिच्छेदो णाम । तेण पमाणेण परमाणणं जहण्णगुणे उक्कस्सगुणे वा छिज्जमाणे अणंताविभागपडिच्छेदा सव्वजोवेहि अणंतगुणमेत्ता होति ।
एवडिया अविभागपडिच्छेदा ।। ५०५ ॥
जेत्तिया अविभागपडिच्छेदा एक्केक्कम्हि परमाणुम्हि विस्सासुवचयपरमाणू एक्केक्कम्हि परमाणुम्हि एगबंधणबद्धा तत्तिया चेव, कज्जस्स कारणाणुसारित्त--
अब इन छह अनुयोगद्वारोंका अवलम्बन लेकर बन्धनगुणका कथन करते हैं, क्योंकि, कारणका ज्ञान हो जाने पर उस कारणके अनुकूल कार्यका भी ज्ञान हो जाता है ।
अविभागप्रतिच्छेद प्ररूपणाकी अपेक्षा एक एक औदारिक प्रदेशमें कितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ।। ५०३ ।।
क्या संख्यात होते हैं, क्या असंख्यात होते हैं या क्या अनन्त होते हैं इस प्रकार इस सूत्र द्वारा पृच्छा की गई है।
अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं जो कि सब जीवोंसे अनन्तगुणे होते हैं ॥ ५०४ ।।
शंका-- अविभागप्रतिच्छेद किसे कहते हैं ? समाधान-- एक परमाणुमें जो जघन्य वृद्धि होती है उसे अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं।
उस प्रमाणसे परमाणुओंके जघन्य गुण अथवा उत्कृष्ट गुणका छेद करनेपर सब जीवोंसे अनन्तगुणे अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ।
इतने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ॥ ५०५ ॥
एक एक परमाणु में जितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, एक एक परमाणुमें एक बंधनबद्ध विस्रसोपचय परमाणु भी उतने ही होते हैं, क्योंकि, कार्य कारणके अनुसार देखा जाता है ।
अ. का. प्रत्यो: '-पदेसा केवडिया ' इति पाठः । *ता० प्रती 'जो जहणिया वढी अ० का प्रत्यो। 'जा जहणियसटठी ' इति पाठः ।
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४३२)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ५०६
दसणादो । एत्थ सव्वजोवेहि अणंतगणतं पडि सरिसत्तं, ण संखाए । कुदो ? जहण्णअणुभागेण लग्गथोव विस्तासुवचयणिफणजहण्णपत्तेयसरीरवाणादोजहण्णाणु. भागादो अणंतगुणाणुभागेणागदविस्तासुवचयणिप्फण्णउक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए अणंतगुणत्तप्पसंगादो। कथं विस्तासुवचयाणमविभागपडिच्छेदसण्णा ? कज्जे कारणु' वयारादो । अविभागपडिच्छेदकज्जविस्तासुवचयाणं पि तव्ववएससिद्धीए ।
वग्गणपरूवणदाए अणंता अविभागपडिच्छेदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा एया वग्गणा भवदि ॥ ५०६ ॥
जहण्णवग्गणाए उकस्सवग्गणाए अजहण्ण-अणुक्कस्सवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणं पमाणं सव्वजीवेहि अणंतगणमेतविस्सासुवचयाणमुवलंभादो ।
एवमणंताओ वग्गणाओ अभवसिद्धिएहि अगंतगुणा सिद्धाणमणंतभागो* ॥ ५०७ ॥
एत्तियाओ वग्गणाओ घेतण एगमोरालियसरीरद्वाणं होदि । एवमसंखेज्जलोगमेत्तसव्वट्ठाणाणं पत्तेयं पत्तेयं अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतभागमेत्तवग्गणाओ होति त्ति परूवेदव्वं । असंखज्जलोगमेत्तसव्वजोवरासीसु अटैकं पडि गुणगारसरूवेण यहाँ पर सब जीवोंसे अनन्तगुणत्वकी अपेक्षा समानता है, संख्याकी अपेक्षा नहीं, क्योंकि, जघन्य अनुभागके कारण लगे हए स्तोक विस्रसोपचयोंसे निष्पन्न जघन्य प्रत्येकशरीरवर्गणाकी अपेक्षा जघन्य अनुभागसे अनन्तगुणे अनुभागके कारण आये हुए विस्रसोपचयोंसे निष्पन्न उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर वर्गणाके अनन्तगुणे होने का प्रसंग आता है ।
शंका-- विस्रसोपचयोंकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा कैसे है ?
समाधान-- कार्य में कारणका उपचार करनेसे अविभागप्रतिच्छेदोंके कार्यरूप विस्रसोपचयोंकी वह संज्ञा सिद्ध होती है ।
वर्गणाप्ररूपणाकी अपेक्षा सब जीवोंसे अनन्तगणे ऐसे अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंको एक वर्गणा होती है ॥ ५०६ ॥
__ यह जघन्य वर्गणा, उत्कृष्ट वर्गणा और अजघन्य अनुत्कृष्ट वर्गणाका प्रमाग है, क्योंकि, सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणु उपलब्ध होते हैं।
इस प्रकार अभव्योंसे अनन्तगुणो और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण अनन्त वर्गणायें होती हैं ।। ५०७ ।।
इतनी वर्गणाओंका आश्रय लेकर एक औदारिकशरीरस्थान होता है। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण सब स्थानोंकी अलग अलग अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणायें होती हैं ऐसा कथन करना चाहिए। अष्टांकके प्रति असंख्यात लोकप्रमाण सब जीवराशियों
का० प्रतो'लग्ग थोवं ' इति पाठ'। ४ अ० प्रती -णिफण्णपत्तेयसरीरवग्गणादो 'इति पाठ:1 * ता० प्रती 'सिद्धाणमणंतभागा' इति पाठः ।
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५, ६, ५०९) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरविस्सासुवचयपरूवणा ( ४३३ पविट्ठासु वि वग्गणाओ अभवसिद्धिएहि अणंतगणाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ चेव होंति, जहण्णवग्गणअविभागपडिच्छेदेहितो तत्थ जहण्णएगेगवग्गणाए सव्वजोवेहि अणंतगुणमेत्तअविभागपडिच्छेदुवलंभादो ।
फडुयपरूवणवाए अणंताओ वग्गणाओ अभवसिद्धिएहि अणंगणो सिद्धाणमणंतभागो तमेग फड़यं भवदि ॥ ५०८ ॥
एत्तियाहि चेव वग्गणाहि एगं फड्डयं होदि त्ति कुदो णवदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । कि फड्डयं णाम ? जत्थ कमवड्ढी कमहाणी च दिस्सदि तं फड्डयं । को कमो ? पढमवग्गणादो बिदियवग्गणा जत्तिएण वड्डिदा तत्तियमेत्तेणेव अणंतरुवरिमवग्गणाए जा वड्ढी सो कमो णाम । जत्थ एसो कमो अस्थि तमेगं फड्डयं । एदम्हि कमे फिट्टे फड्डयंतरं होदि । एवं सव्वफड्डयाणं पि पत्तेयं पत्तेयं वत्तव्वं ।
एवमणंताणि फड्डयाणि अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमगंतभागो ॥ ५०९ ॥
एवडियाणि फड्डयाणि घेत्तूण एगेगमोरालियसरीरट्ठाणं होदि । एत्थ अणंत
के गुणकाररूपसे प्रविष्ट होने पर भी वर्गणायें अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण ही होती हैं, क्योंकि, जघन्य वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे वहाँ पर जघन्य एक एक वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद सब जीवोंसे अनन्तगुणे उपलब्ध होते हैं।
स्पर्धकप्ररूपणाको अपेक्षा अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण जो अनन्त वर्गणायें हैं वे मिलकर एक स्पर्धक होता है । ५०८ ॥
शंका-इतनी ही वर्गणायें मिलकर एक स्पर्धक होता है यह किस प्रमागसे जाना जाता है? समाधान- इसी सूत्रसे जाना जाता है। शंका-स्पर्धक किसे कहते हैं ? समाधान-जहाँ पर क्रमवृद्धि और क्रमहानि दिखाई देती है उसे स्पर्धक कहते हैं। शंका-क्रम क्या है ?
समाधान-प्रथम वर्गणासे द्वितीय वर्गणा जितने अविभागप्रतिच्छेदोंसे वृद्धिको प्राप्त हुई है उतने ही अविभागप्रतिच्छेदोंसे जो अनन्तर उपरिम वर्गणामें वृद्धि है वह क्रम है । जहां पर यह क्रम हैं वह एक स्पर्धक है । इस क्रमके बिगड़ने पर दूसरा स्पर्धक प्रारम्भ होता है। इस प्रकार सब स्पर्धकोंका अलग अलग कथन करना चाहिए।
इस प्रकार अभन्योंसे अनन्तगणे और सिध्दोंके अनन्तवें भागप्रमाण अनन्त स्पर्धक होते हैं ॥ ५०९ ॥
___इतने स्पर्धकोंको मिला कर एक एक औदारिकशरीरस्थान होता है । यहां पर अनन्त
४ ता० का. प्रत्यो; 'अणंतगुण-सिद्धाण-' इति पाठः 1
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( ५, ६, ५१०
भागवड्डि-असंखेज्जभागवडि· संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डि-असंखंज्जगुणवड्डि-अणं - गुणवड्ढीओ घेत्तूण एवं छट्टाणं होदि । एरिसाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि छट्टाणाणि होंति त्ति घेत्तव्वं । तेति परूवणाए कीरमाणाए जहा भावविहाणे परूविदं तहा परूवेदव्वं ।
अंतरपरूवणदाए एक्केक्कस्स फड्डयस्स केवडियमंतरं ॥ ५१० ॥ सुगमं
सव्वजीवेहि अनंतगुणा । एवडियमंतरं ।। ५११ ।।
एगेण दोहितीहि संखेज्जेहि असंखेज्जेहि वा अविभागपडिच्छेदेहि फड्डु - यंतरं ण निपज्जदि किंतु सव्वजीवेहि अनंत गुणमेत्त अविभागपडिच्छेदेहि चेव फड्डुयंतरं निप्पज्जदित्ति घेत्तव्वं । द्वाणंतरपरूवणा एत्थ किण्ण कदा ? ण, फडुयंतरे अवगदे द्वाणंतरस्स वि अवगमादो ।
सरपरूवणदाए अनंता अविभागपडिच्छेदा सरीरबंधणगुणपण्णच्छेदणणिप्पण्णा ।। ५१२ ।।
सरीरं सहावो सीलमिदि एयट्ठो । तस्स परूवणदाए अनंता अविभागपडिच्छेदा होंति त्ति पुव्वमविभागपडिच्छेद परूवणाए परूविदं । ते कत्तो निष्पण्णा ति पुच्छिदे भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये मिला कर एक षट्स्थान होता है । ऐसे असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान होते हैं ऐसे यहाँ ग्रहण करना चाहिए। उनका कथन करने पर जिस प्रकार भावविधान में कथन किया है उस प्रकार करना चाहिए ।
अन्तरप्ररूपणाकी अपेक्षा एक एक स्पर्धकका कितना अन्तर है । ५१० ॥
४३४ )
छखंडागमे वगणा - खंड
यह सूत्र सुगम है ।
सब जीवोंसे अनन्तगुणा अन्तर है । इतना अन्तर है ।। ५११ ।
एक, दो, तीन, संख्यात और असंख्यात अविभागप्रतिच्छंदों का आश्रय लेकर स्पर्धकोंका अन्तर नहीं उत्पन्न होता है किन्तु सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदों का आश्रय लेकर ही स्पर्धकोंका अन्तर उत्पन्न होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए ।
शंका -- यहाँ पर स्थानोंके अन्तरका कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि, स्पर्धकोंके अन्तरका ज्ञान होने पर स्थानोंके अन्तरका भी ज्ञान हो जाता है ।
शरीरप्ररूपणाकी अपेक्षा शरीरके बन्धनके कारणभूत गुणोंका प्रज्ञासे छेद करने पर उत्पन्न हुए अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ।। ५१२ ॥ शरीर, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची शब्द हैं । उसकी अविभागप्रतिच्छेद होते हैं ऐसा पहले अविभागप्रतिच्छेद
अनन्त
* प्रतिषु ' एगेगदोहि' इति पाठः ।
प्ररूपणा करने पर प्ररूपणा के समय
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५, ६, ५१४ ) बधणाणुयोगद्दारे सरीरविस्सासुवत्रयपरूवणा ( ४३५ सरीरबंधणगणपण्णच्छेदणणिप्पण्णा । अणंताणंतपोग्गलसमवाओ सरीरं । तेसि पोग्गलाणं जेण गुणेण परोप्परं बंधो होदि सो बंधणगणो णाम । तस्स गुणस्स पण्णच्छेदणेण बुद्धिच्छेदणेण णिप्पण्णा पुवुत्ता अविभागपडिच्छेदा होंति, गणेसु अण्णच्छेदाणमसंभवादो । पण्णच्छेदणे त्ति वयणेण सेसणवण्णं छेदणाणं पडिसेहो कदो । ताओ सेसणवण्णाओ छेदणाओ त्ति वुत्ते तासि परूवणटुमत्तरसुत्तं भणदि -
छेदणा पुण दसविहा ॥ ५१३ ॥
छिद्यते पृथक क्रियतेऽनेनेति छेदना । सा च दशविधा भवति संक्षेपण । तासि परूवणमुत्तरगाहामुत्तं मणदि
णाम ट्ठवणा दवियं सरीरबंधणगुणप्पदेसा य । वल्लरि अणुत्तडेसु य उप्पइया पण्णभावे य ॥ ५१४ ॥
तत्थ सचित्त-अचित्तदव्वाणि अण्णेहितो पुध काऊण गण्णा जाणावेदि त्ति णामच्छेदणा । टुवणा दुविहा सब्भावासब्मावट्ठवणाभेदेण । सा वि छेदणा होदि, ताए अण्णेसि दवाणं सरूवावगमादो । दवियं णाम उप्पाद-टिदि-भंगलक्खणं । तं पि छेदणा होदि, दव्वदो दव्वंतरस्स परिच्छेददंसणादो । ण च एसो असिद्धो, कुडवादो
कह आये हैं। वे किससे निष्पन्न होते हैं ऐसा पूछने पर वे शरीरबन्धके कारणभत गुणोंका प्रज्ञासे छेद करने पर उत्पन्न होते हैं यह कहा है। 'अनन्तानन्त पुद्गलोंके समवायका नाम शरीर है | उन पुद्गलोंका जिस गुण के कारण परस्पर बन्ध होता है उसका नाम बन्धनगुण है। उस गुणका प्रज्ञासे छेद करने के कारण अर्थात् बुद्धिसे छेद करनेके कारण निष्पन्न हुए पूर्वोक्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, क्योंकि, गुणों में अन्य किसी द्वारा छेदोंका होना सम्भव नहीं है। 'प्रज्ञाच्छेदन ' इस वचन द्वारा शेष नो प्रकारके छेदोंका निषेध किया है। वे नौ प्रकारके छेद कौनसे हैं ऐसा पूछने पर उनका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं---
परन्तु छेदना दस प्रकारकी है ।। ५१३ ॥
छिद्यते अर्थात् जिसके द्वारा पृयक किया जाता है उसकी छेदना संज्ञा है। वह संक्षेप में दस प्रकारकी होती है । उसका कथन करने के लिए आगेका गाथासूत्र कहते हैं---
नामछेदना, स्थापनाछेदना, द्रव्यछेदना, शरीरबन्धनगुणछेदना, प्रदेशछेदना, वल्लरिछेदना, अणुछेदना, तटछेदना, उत्पातछेदना और प्रज्ञाभावछेदना इसप्रकार छेदना दस प्रकारको है ॥ ५१४ ॥
उनमें से सचित्त और अचित्त द्रव्योंको अन्य द्रव्योंसे पृथक करके जो संज्ञाका ज्ञान कराती है वह नामछेदना है। स्थापना दो प्रकारकी है-सद्धावस्थापना और असद्धावस्थापना वह भी छेदना है, क्योंकि, उस द्वारा अन्य द्रव्योंके स्वरूपका ज्ञान होता है । जो उत्पाद, स्थिति और व्ययलक्षण
वाला है वह द्रव्य कहलाता है। वह भी छेदना है. क्योंकि, द्रव्यके दूसरे द्रव्यका ज्ञान होता हुआ
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४३६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ५१४
धण्णाणं तुलादो तगरादीणं दंडादो जोयणादीणं परिच्छेदुवलंभादो। पंचण्णं सरीराणं बंधणगुणो वि छेदणा णाम, पगाए छिज्जमाणतादो अविमागपडिच्छेदपमाणेण छिज्जमागत्तादो वा । पदेतो वि छेदणा होदि, उड्डाहोमज्झादिपदेसेहि सम्बदवाण छेददंसणादो। कुडारादीहि अडइरुक्खादिखंडणं वल्लरिच्छेदो णाम । परमाणुगदएगादिदव्वसंखाए अस दवाणं संखावगमो अणुच्छेदो णाम । अथवा पोग्गलागासादीणं णिविभागच्छेदो अणच्छेदो णाम । दोहि वि तडेहि णदीपमाणपरिच्छेदो अथवा दव्वाणं सयमेव छेदो तडच्छेदो णाम । ण च पदेसच्छदे * एसो पददि, तस्त बुद्धिकज्जत्तादो। ण वल्लरिच्छेदे पददि, तस्त पउरुसेयत्तादो। णाणुच्छेदे पददि, परमाणपज्जत्तच्छेदाभावादो। रत्तीए इंदाउह-धमके उआदीणमुप्पत्ती पडिमारोहो भमिकंप-रुहिरवरिसादओ च उप्पाइया छेदणा णाम, एतैरुत्पातैः राष्ट्रभड्ग नृपपातादितर्कणात्। मदि सुद-ओहि-मणपज्जव-केवलगाणेहि छद्दव्वावगमो पण्णभावच्छेदणा णाम । एदासु दससु छेदणासु णव छेदणाओ अवणिय सरीरबंधणगुणच्छेदणाए गहणं कदं, अण्णच्छेदणेहि एत्थ कज्जाभावादो। ओरालियसरीरस्सेव अविभागपडिच्छेदादि
देखा जाता है। यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, कुडव से धान्योंका, तुलासे तगर आदिका और दण्डसे योजन आदिका परिज्ञान होता हुआ उपलब्ध होता है । पाँच शरीरोंका बन्धनगुण भी छेदना है, क्योंकि, उसका प्रज्ञाद्वारा छेद किया जाता है। या अविभागप्रतिच्छेदके प्रमाणसे उसका छेद किया जाता है। प्रदेश भी छेदना होती है, क्योंकि, ऊर्ध्वप्रदेश, अधःप्रदेश और मध्यप्रदेश आदि प्रदेशोंके द्वारा सब द्रव्योंका छेद देखा जाता है । कूठार आदिके द्वारा जङ्गलके वृक्ष आदिका खण्ड करना वल्लरिछेदना कहलाती है। परमाणुगत एक आदि द्रव्योंकी संख्याद्वारा अन्य द्रव्योंकी संख्याका ज्ञान होना अणुच्छेदना कहलाती है। अथवा पुद्गल और आकाश आदिके निविभाग छदका नाम अणुच्छेदना है। दोनों हो तटोंके द्वारा नदीके परिमाणका परिच्छेद करना अथवा द्रव्योंका स्वयं ही छेद होना तटच्छेदना है। इसका प्रदेशछेदमें अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि, वह बद्धिका कार्य है। वल्लरिच्छेदमें भी अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि, वह पौरुषेय होता है। अणच्छदमें भी अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि, इसका परमाणु पर्यन्त छेद नहीं होता। रात्रिमें इन्द्रधनुष और धुमकेतु जादिकी उत्पत्ति तथा प्रतिमारोध, भूमिकम्प और रुधिरकी वर्षा आदि उत्पातछेदना है, क्योंकि, इन उत्पातोंके द्वारा राष्ट्रभङ्ग और राजाका पतन आदिका अनुमान किया जाता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययजान और केवलज्ञानके द्वारा छह द्रव्योंका ज्ञान होना प्रज्ञाभावछेदना है। यहाँ इन दस छेदनाओंमें से नौ छेदनाओंको छोडकर शरीरबन्धनगुणछेदनाका ग्रहण किया है ; क्योंकि, अन्य छेदनाओंसे यहां कोई प्रयोजन नहीं है।
शंका- यहां पर औदारिकशरीरके ही अविभागप्रतिच्छेद आदिका कथन किया है, शेष
ता० प्रती 'परमाणगम (द)एगादिदव्वसंखाए अ. का. प्रत्योः 'परमाणुगमएगादिदव्वसंखाए' इति पाठः1ता० प्रती वि तदी ( तडे ) हि 'अ. का. प्रत्योः ' वि तदीहि ' इति पाठः ।
* अ० प्रती 'पदेसे छेदे ' इति पाठः । अ० का० प्रत्यो ' बुद्धि कयत्ताटो' इति पाठः ।
'
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५, ६, ५१८ )
बंधणाणुयोगद्दारे सरीरविस्सासुवचयपरूवणा
परूवणा कदा सेससरीराणं किण्ण कदा ? ण, एककस्स परूवणदाए कदाए ततो चेव सेसाणं सरूवावगमादो । उवरि भण्णमाणअप्पाबहुगादो च णवदे जहा सेसाणं पि सरीराणं एसेव परूवणा होदि ति । तेसिमविभागपडिच्छेदाणमभावे उवरिमअप्पाबहुआणुववत्तीए।
अप्पाबहुए ति सम्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स अविभागपडिच्छेदा ॥ ५१५ ।।।
ओरालियसरीरस्स अणंतपरमाणूणं अविभागपडिच्छेदसमूहो थोवो होदि । कुदो ? साभावियादो।
वेउब्वियसरीरस्स अविभागपडिच्छेदा अणंतगुणा ॥ ५१६ ॥ को गुणगारो ? सबजोवेहि अणंतगुणो । आहारसरीरस्स अविभागपडिच्छेदा अगंतगुणा ।। ५१७ ।। को गण० ? सव्वजोवेहि अणंतगुण।। तेयासरीरस्स अविभागपडिच्छेदा अणंतगणा ॥ ५१८ ॥ को गण ? सव्वजोवेहि अणंतगणो ।
शरीरोंके अविभागप्रतिच्छेद आदिका कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, एकका कथन करने पर उसीसे शेषके स्वरूपका ज्ञान हो जाता है। तथा आग कहे जानेवाले अल्पबहुत्वसे भी जानते हैं कि शेष शरीरोंकी भी यही प्ररूपणा है। यदि उनके अविभागप्रतिच्छेद न हों तो आगे कहा जानेवाला अल्पबहुत्व नहीं बन सकता है।
अल्पबहुत्वको अपेक्षा औदारिकशरीरके अविभागप्रतिच्छेद सबसे स्तोक हैं ॥५१५ ।।
__ औदारिकशरीरके अनन्त परमाणुओंके अविभागप्रतिच्छेदोंका समूह स्तोक है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है।
उनसे वैक्रियिकशरीरके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगणे हैं ॥ ५१६ ।। गुगकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है। उनसे आहारकशरीरके अविभाग प्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं ॥ ५१७ ॥
गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है। उनसे तेजसशरीरके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगणे हैं ।। ५१८ ॥ गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है।
* ता० प्रती ' सरूवागमादो' इति पाठः
प्रत्योः - ववत्ती' इति पाठ ।
8 ता० प्रतो '-णुववत्ती (ए-)' अ० का०
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४३८)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
कम्मइयसरीरस्स अविभागपडिच्छेदा अणंतगुणा ।। ५१९ ।। ___को गुणगारो ? सव्वजोवेहि अणंतगणो। एवं छहि अणुयोगद्दारेहि बंधणगुणस्सेव परूवणा कदा । तत्थतणविस्तासुवचयाणं किण्ण परूवणा कीरदे? ण, तक्कारणपरूवणाए कदाए तेसि पि परूवणा कदा चेव होदि ति तेसि पुध परूवणा ण कीरदे। तम्हा सेसि विस्तासुवचयाणं पि एवं चेव अप्पाबहुअं परूवेदव्वं । ण च अविभागपडिच्छेदमेत्तविस्सासुवचएहि होदव्वं चेवे ति णियमो अस्थि, नावश्यं कारणानि कार्यवन्ति-भवन्तीति न्यायात् । एवं सरीरविस्सासुवचयपरूवणा समत्ता।
विस्सासुवचयपरूवणदाए एक्केक्कम्हि जीवपदेसे केवडिया विस्सासुवचया उवचिदा ॥ ५२० ॥ ____एसा विस्तासुवचयपरूवणा पुणरत्ता, सरीरविस्सासुवचयपरूवणाए चेव विस्तासुवचयाणं परविदत्तादो। तदो एसा ण परूवेदव्वा ति? ण एस दोसो, सरीरभदपंचण्णं सरीराणं विस्सासुवचयस्स सरीरविस्सासुवचयपरूवणाए परूवणा कदा । संपहि एदीए विस्सासुवचयपरूवणाए जीवेण मुक्काणं पंचण्णं सरीराणं पोग्गलाण
उनसे कार्मणशरीरके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं ॥ ५१९ ।। गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है ।
शका-- इस प्रकार छह अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर बन्धनगुणकी ही प्ररूपणा की है। वहां रहनेवाले विनसोपचयोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं करते ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, उनके कारणकी प्ररूपणा करने पर उनकी भी प्ररूपणा की गई के समान होती है, इसलिए उनकी अलगसे प्ररूपणा नहीं करते हैं। इसलिए उन विस्रसोपचयोंकी अपेक्षा भी यही अल्पबहुत्व कहना चाहिए। और विस्रसोपचय अविभागप्रतिच्छेदप्रमाण होने ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, कारण नियमसे कार्यवाले नहीं होते हैं ऐसा न्याय है ।
इस प्रकार शरीरविनसोपचयप्ररूपणा समाप्त हुई । विस्रसोपच यप्ररूपणाको अपेक्षा एक एक जीवप्रदेश पर कितने विस्रसोपचय उपचित हैं ५२० ॥
शंका-- यह विस्रसोपचयप्ररूपण। पुनरुक्त है, क्योंकि, शरीरविनसोपचय प्ररूपणाके समय ही विस्रसोपचयोंका कथन कर आये हैं, इसलिए इसका कथन नहीं करना चाहिए ?
समाधान -- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, शरीरभूत पाँच शरीरोंके विस्रसोपचयका शरीरविनसोपचयप्ररूपणाके समय कथन किया है। अब इस विस्रसोपचयप्ररूपणाके द्वारा जिन्होंने औदयिक भावको नहीं छोडा है और जो समस्त लोकाकाशके प्रदेशोंको व्याप्त कर
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५, ६, ५२२ ) बंधणाणुयोगदारे विस्सासुवचयपरूवणा
मच्चत्तओदइयभावाणं सव्वलोगागासपदेसमाऊरिय टियाणं विस्सासुवचयपरूवणा कीरदे, तदो पउणरुत्तियाभावादो परूवेदव्वा त्ति सिद्धं । एक्केक्कम्हि जीवपदेसे इदि उत्ते एक्केक्कम्हि परमाणुम्हि त्ति घेत्तन्वं । कधं परमाणुस्स जीवपदेसण्णा? आधेये आधारोवयारादो। ण च जीवादो अवेदाणमाधाराधेयभावो णत्थि, भदपुव्वर्गादणाएण तदुवलंभादो । जीव-पोग्गलाणमण्णोग्णाणुगयत्ते परमाणुस्स वि जीवपदेसववएसाविरोहादो वा । सेसं सुगमं ।
अणंता विस्सामवचया उचिदा सव्वजोवेहि अणंतगणा ॥५२१॥
पंचण्णं सरीराणं एक्केको परमाण जीवमक्को वि संतो सव्वजीवे अणंतगणमेत्तविस्सासुवचएहि उवचिदो होदि । तेण कारणेण एदे धवक्खंधसांतरणिरंतरवग्गणासु सरिसधणिया होदूण णिवदंति ।
ते च सवलोगागदेहि बद्धा ॥ ५२२ ।। किममिदं सुतं वुच्चदे ?
एयक्खेत्तोगाढं सव्वपदेसेहि कम्मणो जोग्गं ।
बंधइ जहुत्तहेऊ सादियमह अणादियं चेदि ।। २१ ।। इदि वयणादो जम्हि पदेसे जो जीवो टिदो तत्थ टिदा चेव पोग्गला मिच्छत्तादिस्थित हैं ऐसे जीवके द्वारा छोडे गये पाँच शरीरोंको विस्रसोपचयप्ररूपणा करते हैं, इसलिए पुनरुक्त दोषका अभाव होनेसे उसका कथन करना चाहिए यह सिद्ध होता है।
एक एक जीवप्रदेश पर ऐसा कहने पर एक एक परमाणुपर ऐसा ग्रहण करना चाहिए। शंका-- परमाणुकी जीवप्रदेश संज्ञा कैसे है ?
समाधान-- आधेयमें आधारका उपचार करनेसे परमाणुकी जीवप्रदेश संज्ञा है । यदि कहा जाय कि जो जीवके द्वारा नहीं वेदे जा रहे हैं उनमें आधार-आधेयभाव नहीं बन सकता, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, भूतपूर्व गतिन्यायके अनुसार आधार-आधेयभावकी उपलब्धि हो जाती है। अथवा जीव और पुद्गलोंके परस्परमें अनुगत होने पर परमाणकी भी जीवप्रदेश संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं आता।
शेष कथन सुगम है। अनन्त विस्रसोपचय उपचित हैं जो कि सब जीवोंसे अनन्तगुणे हैं ॥ ५२१॥
पाँच शरीरोंका एक एक परमाणु जीवसे मुक्त होकर भी सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचयोंसे उपचित होता है, इसलिए ये ध्रुवस्कन्धसान्तरनिरन्तर वर्गणाओं में समान धनवाले हो कर अन्तर्भावको प्राप्त होते हैं।
वे सब लोकमेंसे आकर बद्ध हुए हैं ॥ ५२२ ।। शंका-- यह सूत्र किसलिए कहते हैं ?
समाधान-- अपने अपने कहे गये हेतुके अनुसार कर्म के योग्य सादि, अनादि और सब जीवप्रदेशोंके साथ एक एक क्षेत्रावगाहीपनेको प्राप्त हुआ पुद्गल बँधता है ॥ २१ ॥
इस वचनके अनुसार जिस प्रदेश पर जो जीव स्थित है वहां स्थित जो पुद्गल हैं वे ही
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४४०)
छसंडागले वग्गणा-खर्ड
( ५, ६, ५२३
पच्चएहि जहा पंचसरूसेण परिणमंति तहा विस्सासुवचया वि कि तत्थ टिदा चेव बंधमागच्छंति आहो णागच्छंति ति पुच्छिदे तण्णिण्णयथमिदं सुत्तमागयं । ते पंचसरीरक्खंधा सवलोगागदेहि विस्तासुवचएहि बध्दा होति । सबलोगागासपदेसट्टिया पोग्गला समीरणादिवसेण गदिपरिणामेण वा आगंतूण तेहि सह बंधमागच्छंति ति भणिदं होदि । अहवा एदस्स सुत्तस्स अण्णहा अवयारो कीरदे । तं जहा- ते पंचसरीरपोग्गला जीवमुक्का होदण कत्थ अच्छंति त्ति वृत्ते तप्पदेसपरूवणमिदं सुत्तमागदं। सव्वलोगगदा णाम सव्वागासपदेसा, तेहि विरहिदआगासाभावादो। तेहि सव्वागासपदेसेहि ते बध्दा सह गदा होति । पंचसरीरपोग्गला जीवमक्कसमए चेव सव्वागासमावरिदूण अच्छंति ति भणिदं होदि। संपहि तत्थ तेसिमवढाणसरूवपरूवण?मुत्तरसुत्तमागदं--
तेसि चउविवहा हाणी-दबहाणो खेतहाणी कालहाणी भावहाणी चेदि ॥ ५२३ ॥
तेसि जीवादो विष्फट्टिय सव्वलोगं गदाणं चउविहाए हाणीए परूवणं कस्सामो, अग्णहा तस्विसणिण्णयाणुववत्तीदो ।
मिथ्यात्व आदि कारणोंसे जिस प्रकार पाँच रूपसे परिणमन करते हैं उसी प्रकार वहाँ पर स्थित हुए ही विस्रसोपचय भी क्या बन्धको प्राप्त होते हैं या बन्धको नहीं प्राप्त होते हैं, इस प्रकार इस बातका निर्णय करने के लिए यह सूत्र आया है।
वे पाँचों शरीरोंके स्कन्ध समस्त लोकमेंसे आये हुए विस्रसोपचयोंके द्वारा बद्ध होते हैं। सब लोकाकाशके प्रदेशोंपर स्थित हुए पुद्गल समीरण आदिके वशसे या गतिरूप परिणामके कारण आकर उनके साथ सम्बन्धको प्राप्त होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अथवा इस सूत्रका अन्य प्रकारसे अवतार कहते हैं। यथा-- वे पाँच शरीरोंके पुद्गल जीवसे मुक्त होकर कहाँ पर रहते हैं ऐसा पूछने पर उनके रहने के प्रदेशका कथन करने के लिए यह सूत्र आया है। 'सबलोगगदा' इस पदका अर्थ सब लोकाकाशके प्रदेश हैं. क्योंकि, उनसे रहित आकाशका अभाव है । आकाशके उन सब प्रदेशोंके साथ वे बद्ध हैं अर्थात् उनके साथ रहते हैं। पाँचों शरीरोंके पुद्गल जीवसे मुक्त होने के समयमें ही समस्त आकाशको व्याप्त कर रहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब वहाँ उनके अवस्थानके स्वरूपका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है ---
उनकी चार प्रकारको हानि होती है-- द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, कालहानि और भावहानि ॥ ५२३ ।।
जीवसे अलग हो कर सब लोकको प्राप्त हुए उन पुद्गलोंका चार प्रकारकी हानिद्वारा कथन करते हैं, अन्यथा उस विषयका निर्णय नहीं हो सकता।
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५, ६, ५२४ ) बंधणाणुयोगद्दारे विस्सासुवचयपरूवणा ( ४४१
दव्वहाणिपरूवणवाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसियवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।। ५२४ ॥
जे ओरालियसरीरणोकम्मपदेसा जीवादो विफट्टसमए चेव अण्णेहि परमाणूहि असंजुत्ता संता सव्वलोगमावरिय टिदा तेसि गहिदसलागाओ बहुगाओ । बहुत्तं कुदो णम्वदे ? एवम्हादो चेव सुत्तादो । ण च पमाणं पमाणतरमवेक्खदे, विरोहादो। जीवादो पुधभदाणं पंचसरीरपोग्गलाणमेसा परूवणा त्ति कुदो णव्वदे ? एयपदेसिय. वग्गणाए दवा बहुआ ति सुत्तादो। ण च पंचसरीरेसु जीवसहिदेसु एयपदेसियवग्गणाए दव्वमत्थि, अगहणाए गहणभावविरोहादो। अविरोहे वा अभेदो होज्ज, अणंताणंतपरमाणसमुदयसमागमेण विणा ओरालियसरीरभावविरोहादो। ते च परमाण अणंताणतेहि विस्तासुवचएहि पादेक्कं उचिदा, तत्थ अणंताणं बंधणगुणविभागपडिच्छेदाणं संभवादो। ण च परमाणुम्हि ओदइयभावे, संते अणंताणताणं बंधणगणाविभागपलिच्छेदाणमभावो होदि, विरोहादो*।
द्रव्यहानिप्ररूपणाको अपेक्षा औदारिकशरीरको एकप्रदेशी वर्गणाके जो द्रव्य हैं वे बहुत हैं जो कि अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५२४ ।।
जो औदारिकशरीरके नोकर्मप्रदेश जीवसे अलग होने के समयमें ही अन्य परमाणुओंसे असंयुक्त होकर सब लोकको व्याप्त कर स्थित हैं उनकी ग्रहण की गई शलाकायें बहुत हैं।
शंका-- इनका बहुत्व किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- इसी सूत्रसे जाना जाता है। और एक प्रमाण अन्य प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है।
शंका-- जीवसे पृथक् हुए पाँच शरीरोंके पुद्गलोंकी यह प्ररूपणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- एकप्रदेशी वर्गणाके द्रव्य बहुत हैं इस सूत्रसे जाना जाता है। और जीव सहित पाँच शरीरोंमें एकप्रदेशी वर्गणाका द्रव्य नहीं है, क्योंकि, अग्रहण योग्य वर्गणाके ग्रहगभावके होने में विरोध आता है। यदि अविरोध माना जाता है तो अभेद हो जायगा, क्योंकि, अनन्तानन्त परमाणुसमुदयसमागमके बिना उनके औदारिकशरीररूप होने में विरोध आता है।
वे परमाणु अलग अलग अनन्तानन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं, क्योंकि, उनमें बंधनगुणके अनंत अविभागप्रतिच्छेद सम्भव हैं। और परमाणु में औदयिकभावके रहते हुए बन्धनगुणके अनंतानंत अविभागप्रतिच्छेदोंका अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होनेका विरोध है।
४ ता० प्रती ' ओदइए ( हि ) भावे' इति पाठः ।
* का० प्रती बंधणगणाविभागपडिच्छेदाणमभावो होदि विरोहादो' इति पाठा]
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४४२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५,६,५२५
जे दुपदेसिय वग्गण (ए दव्वा ते विसेसहीणा अनंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५२५ ॥
जे ओरालिय सरीरपदेसा जीवादो विफट्टसमए चेव दो दो अण्णोष्णबंधगया सि दिसलागाओ पुव्वस लागाहितो विसेसहीणाओ । केत्तियमेत्तेण ? हेट्ठिमसलागाओ अभवसिद्धिएहि अनंतगुणेण सिद्धाणमणंतभागेण खंडिदूण तत्थ एयखंडमेत्तेण । एसो वि दोहं परमाणूणं समुदयसमागमो अणतेहि विस्सासुवचएहि पादेककमुवचिदो ।
एवं तिपदेसिय चदुपदे सिय-पंचपदेसिय-छप्पदेसिय-सत्तपदेसियअट्ठपदेसिय- नवपदे सिय-दस पदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसियअनंतपदेसिय अनंताणंतपदेसियवग्गणाए बव्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।। ५२६ ।।
एत्थ तिपदेसिय· चउपदेसादिसु पादेवकवग्गणाए दव्वा विसेसहीणा अणतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा त्ति संबंधो कायव्वो, अण्णहा सुत्तत्थाणुववत्तदो । अनंतविस्सासुवचएहि उवचिदतिपदेसि यवग्गणसला गाओ विसेसहीणाओ । तत्तो अनंतविस्सासुवचएहि उवचिदचदुष्पदेसियवग्गण सलागाओ विसेस होणाओ । एवं यव्वं
जो द्विप्रदेशी वर्गणा द्रव्य हैं वे विशेष होन हैं जो अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं । ५२५
जो ओदारिकशरीर के प्रदेश जीवसे अलग होते समय ही परस्पर में दो दो होकर बन्धको प्राप्त हैं उनकी स्थापित की गई शलाकायें पूर्वकी शलाकाओंसे विशेष हीन हैं। कितनी हीन हैं ? अधस्तन शलाकाओंको अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाणसे भाजित कर वहां जो एक भाग लब्ध आता है उतनी हीन हैं । यह दो दो परमाणुओंका समुदय समागम भी अलग अलग अनन्त त्रिस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ।
इसी प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पञ्चप्रदेशी, छहप्रदेशी, सातप्रदेशी, आठप्रदेशी, नौप्रदेशी, दसप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी, अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाके जो द्रव्य हैं वे विशेषहीन हैं जो प्रत्येक अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५२६ ॥
यहां पर त्रिप्रदेशी और चतुःप्रदेशी आदिमें प्रत्येक वर्गणा के द्रव्य विशेष हीन हैं और अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए, अन्यथा सूत्रका अर्थ नहीं बन सकता । अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित त्रिप्रदेशी वर्गणाशलाकायें विशेष हीन हैं। उनसे अनन्त विस्रसोपचयों से उपचित चतुःप्रदेशी वर्गणाशलाकायें विशेष हीन हैं। इस प्रकार अनन्त
* ता० का० प्रत्योः ' सुत्तट्ठाणुववत्तीदो' इति पाठः ।
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५, ६, ५२७ ) बधणाणुयोगद्दारे सरीरविस्सासुवचयपरूवणा । जाव अणंतविस्सासुवचएहि उचिवअणंतागंतपदेसियवग्गणाए दवे ति । सव्वस्थ एत्थ भागहारो अभवसिध्दिएहि अणतगुणो सिध्दाणमणंतभागमेत्तो। सो किमवट्टिदो अणवट्टिदो त्ति ण णव्वदे, गुरूवदेसाभावादो।।
तदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण तेसि पंचविहा हाणीअणंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणी ॥ ५२७ ।।
एवमगंतभागहाणीए चेवर अणंताणि ढाणाणि गंतूण तदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तदव्ववियप्पेसु गदेसु जो विही तप्परूवणट्टमेदं सुत्तमागदं । तत्थ अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तवव्ववियप्पे सेसे सलागाणं पंच हाणीओ होति । तत्थ एक्केक्किस्से हाणीए अद्धाणमंगलस्स असंखेज्जविभागो। तं कुदो णव्वदे ? अंगुलस्स असंखे. ज्जदिभागं गंतूण पंच हाणीओ होंति त्ति वयणादो। अणंतभागहाणीए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं णिरुध्वट्ठाणादो गंतूण सलागाणं असंखेज्जभागहाणी होदि। तदो पहुडि असंखेज्जभागहाणीए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तद्धाणं णिरंतरं गंतूण संखेज्ज
विस्रसोपचयोंसे उपचित अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाके द्रव्योंके प्राप्त होने तक जानना चाहिए । यहां पर सर्वत्र भागहार अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है। वह क्या अवस्थित है या अनवस्थित है यह ज्ञात नहीं है, क्योंकि, इस विषय में गुरुका उपदेश नहीं पाया जाता।
उसके बाद अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर उनकी पाँच प्रकार की हानि होती है- अनन्तभागहानि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि ॥ ५२७ ॥
इस प्रकार अनन्तभागहानिके द्वारा ही अनन्त स्थान जाकर उसके बाद अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यविकल्पोंके जाने पर जो विधि है उसका कथन करनेके लिए यह सूत्र आया है। वहां अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यविकल्पोंके शेष रहने पर शलाकाओंकी पाँच हानियाँ होती हैं। उनमें से एक एक हानिका अध्वान अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
शंका--- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- अगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर पाँच हानियाँ होती हैं इस वचनसे जाना जाता है।
विवक्षित स्थानसे अनन्तभागहानिद्वारा अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर शलाकाओंकी असंख्यातभागहानि होती है। वहाँसे लेकर असंख्यातभागहानिद्वारा अंगुलके
४ अ० प्रती -भागहाणी चेव ' इति पाठः।
अ० का० प्रत्यो) ! दववियप्पेस जो विही ' इति पाठः ।
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४४४ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६,५२८
भागहाणी होदि । तदो पहुडि संखेज्जभागहाणीए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तमद्वाणं गंतूण सलागाणं संखेज्जगुणहाणी होदि । तदो पहूडि संखेज्जगुणहाणीए निरंतर मंगलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण असंखेज्जगुणहाणी होदि । तदो पहुडि असंखेज्जगुणहाणी ताव गच्छदि जाव अंगुलस्त असंखेज्जदिभागो त्ति उवरि ण गच्छदि, दव्ववियप्पाभावादो त्ति भणिदं होदि । एदेसि पि भागहाराणं पमाणमेत्तियमिदि ण नव्वदे अंगुलस्स असंखेज्जदिभागाणं चदुष्णं विसरिसत्तमसरिसत्तं चण वदे, विट्ठवएसाभावादो ।
एवं चदुष्णं सरीराणं ।। ५२८ ॥
जहा ओरालियसरीरस्स पंचविहा हाणी परुविदा तहा एदेसि पि चदुष्णं सरीराणं जीवादो विफट्टपोग्गलाणं पंचविहा हाणि परूवेधन्वा, विसेसाभावादो ।
खेत्तहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसियखेत्तो गाढवग्गणाए दव्वा ते बहुगा अणतेहि विस्सा सुवचएहि उवचिदा ॥ ५२९ ॥
जे जीवादी अवेदा ओरालियसरीरणोकम्मपदेसा एगो वा दो वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा एगबंधणबद्धा होदूण एगेगागासपदेसे अच्छंति तेसि ट्ठविद
असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान निरन्तररूपसे जाकर संख्यात भागहानि होती है । वहाँ से लेकर संख्यात भागहामिद्वारा अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर शलाकाओं की संख्यातगुणहानि होती है | वहाँसे लेकर संख्यातगुणहानिद्वारा निरन्तररूपसे अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर असंख्यातगुणहानि होती है। वहाँसे लेकर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने तक असंख्यातगुणहानि होती है । इससे आगे असंख्यातगुणहानि नहीं होती है, क्योंकि, आगे द्रव्यविकल्पोंका अभाव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इन भागहारों का भी प्रमाण इतना हैं यह ज्ञात नहीं है । तथा चारों अंगुलके असंख्यातवें भागों का भी प्रमाण सदृश है या असदृश है यह ज्ञात नहीं है, क्योंकि, इस विषय में विशिष्ट उपदेशका अभाव है।
इसी प्रकार चार शरीरोंकी प्ररूपणा करनी चाहिए ॥ ५२८ ॥
जिस प्रकार औदारिकशरीरकी पाँच प्रकारकी हानि कही है उसी प्रकार इन चार शरीरोंके भी जीवसे अलग हुए पुद्गलोंकी पाँच प्रकारकी हानि कहनी चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है ।
क्षेत्रहानिप्ररूपणाकी अपेक्षा औदारिकशरीरके जो एक प्रदेश क्षेत्रावगाही वर्गणा द्रव्य हैं वे बहुत हैं और वे अनन्त विस्र सोपचयोंसे उपचित हैं ।।५२९ ॥ जो जीवसे अवेद औदारिकशरीरनोकर्मप्रदेश हैं वे एक, दो, संख्यात, असंख्यात और अनन्त एकबन्धप्रबद्ध होकर एक एक आकाशप्रदेशमें स्थित हैं । उनकी स्थापित की गई
* अ० प्रती 'एदेसि चदुष्णं' इति
पाठः ।
'
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५, ६, ५३१ )
बंधणानुयोगद्दारे सरीरविस्सा सुवचयपरूवणा
( ४४५
सलागाओ बहुगाओ । ते च पादेक्कमणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा । एगपदेसिस्स पोग्गलस्स होदु णाम एगागासपदेसे अवद्वाणं, कथं दुपदेसिय- तिपदेसिय संखेज्जासंखेज्ज- अनंतपदेसियवखंधाणं तत्थावद्वाणं ? ण, तत्थ अणतो गाहणगुणस्स संभवाद । तं पि कुदो नव्वदे जीव-पोग्गलाणमाणंत्तियत्तण्ण हाणुवदत्तदो ।
जे दुपदेसियक्खेत्तो गाढवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अनंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५३० ॥
जे जीवादी अवेदा संता ओरालियसरीरणोकम्मक्खंधा दुपदेसियखेत्तमोगा हिदूण द्विदा तसि गहिदसला गाओ पुव्विल्लसलागाहितो विसेसहीणाओ । केत्तियमेत्तेण ? अनंत र हेट्टिमसलागाणमसंखेज्जदिभागेण । को पडिभागो ? तप्पा ओग्गअसंखेज्जरूवपडिभागो । एदेवि अनंतेहि विस्सासुवचएहि पादेक्कमुवचिदा |
एवं ति चदु-पंच-छ- सत्त - अट्ठ - णव - दस - संखेज्ज - असंखेज्जपदेसियखेत्तो गाढवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अनंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।। ५३१ ।।
शलाकायें बहुत हैं । और वे प्रत्येक अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ।
शंका -- एकप्रदेशी पुद्गलका एक आकाशप्रदेश में अवस्थान होओ परन्तु द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धोंका वहाँ अवस्थान कैसे हो सकता है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि, वहाँ अनन्तको अवगाहन करनेका गुण सम्भव है ।
शंका-- यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- यदि एक आकाशप्रदेश में अनन्त के अवगाहन करनेका गुण न हो तो जीवों और पुद्गलोंकी संख्या अनन्त नहीं बन सकती है ।
जो द्विप्रदेशी क्षेत्रावगाही वर्गणाके द्रव्य हैं वे विशेष होन हैं और वे अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५३० ।।
जो जीवसे अवेद होते हुए औदारिकशरीरके नोकर्मस्कन्ध द्विप्रदेशी क्षेत्रका अवगाहन कर अवस्थित हैं उनकी ग्रहण की गई शलाकायें पहिलेकी शलाकाओंसे विशेष हीन हैं। कितनी हीन हैं ? अनंतर अधस्तन शलाकाओंके असंख्यातवें भागप्रमाणहीन हैं । प्रतिभाग क्या है ? तत्प्रायोग्य असंख्यात अङ्क प्रतिभाग है । ये प्रत्येक भी अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ।
इस प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पञ्चप्रदेशी, षट्प्रदेशी, सप्तप्रदेशी, अष्टप्रदेशी, नवप्रदेशी, दसप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी और असंख्यातप्रदेशी क्षेत्रावगाही वर्गके जो द्रव्य हैं वे विशेष हीन हैं और अनन्त विस्त्रसोपचयोंसे उपचित हैं । ५३१
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छक्खंडागमे वग्गणा-खं
( ५, ६, ५३२. ___एत्थ तियादिसु पादेक्कं पदेसियक्खेत्तोगाढवग्गणाए दवा विसेसहीणा अणतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा त्ति संबंधो कायवो । तं जहा- तिपदेसियखेतोगाढ --- वग्गणाए दवा विसेसहीणा असंखेज्जदिभागेण अणतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा। चदुपदेसियखेत्तोगाढवग्गणाए दवा असंखे० भागहीणा, अणंतेहि विस्सासुबचएहि उचिदा। एवं यव्वं जाव असंखेज्जपदेसियखेत्तोगाढवग्गणाए दव्वा त्ति । एत्थ सव्वत्थ णिरंतरमसंखेज्जभागहाणी चेव ट्रविदसलागाणं होदि त्ति घेत्तव्वं । एवं णिरंतरकमेण असंखेज्जभागहाणीए आगदसव्वद्धाणमंगलस्स असंखेज्जदिभागो। कुदो? आहार-तेजा-कम्मइयसरीरउक्कस्सवग्गणाणं पि अंगलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताए चेव ओगाहणाए उवलंभादो। खेत्तवियप्याणमंगलस्स असंखेज्जविभागावसेसे असंखेज्जदिभागहाणिस्स असंखेज्जदिभागे जो विही तप्परूवणठें उत्तरसुत्तं भणदि
तदो अंगुलस्स असंखेज्जविभागं गंतूण तेसि चउविहाहाणीअसंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणी ॥ ५३२॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे-तदो तप्पाओग्गणिरुध्दट्ठाणादो असंखेज्जभागहाणीए
यहां पर प्रत्येक तीन आदि प्रदेशरूप क्षत्र में अवगाही वर्गणाके द्रव्य विशेष हीन हैं और अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए । यथा त्रिप्रदेशी क्षेत्रमें अवगाही वर्गणाके द्रव्य विशेष हीन है। विशेषका प्रमाण असंख्यातवां भाग है। ये अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं । चतुःप्रदेशी क्षेत्र में अवगाही वर्गणाके द्रव्य असंख्यातवें भागहीन हैं और वे अनन्त विस्रसोपचयोंसे उचित हैं। इस प्रकार असंख्यातप्रदेशी क्षेत्रमें अवगाहना करके स्थित हुए वर्गणाके द्रव्यों के प्राप्त होनेतक ले जाना चहिए । यहां पर सर्वत्र स्थापित की गई शलाकाओंकी निरन्तर असंख्यात भागहानि ही होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार निरन्तर क्रम से असंख्यातभागहानिरूपसे आया हुआ सर्वअध्वान अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, आहारकशरीर, तेजसशरीर और कार्मणशरीरकी उत्कृष्ट वर्गणाओंकी भी अवगाहना अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण ही उपलब्ध होती है । अब क्षेत्र विकल्पोंके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण शेष रहने पर असंख्यातभागहानिके असंख्यातवें भागमें जो विधि होती है उसका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
उससे अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर उनको चार प्रकारको हानि होती है- असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि ॥ ५३२ ।।
अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-- उससे अर्थात् तत्प्रायोग्य निरुद्ध क्षेत्रसे असंख्यात
"म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु ' असंग्वे-गुणहीणा ' इति पाठ।।
' |
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५, ६, ५३४ ) बघणाणुयोगदारे सरीरविस्सासुवत्रयपरूवणा ( ४४७ णिरंतरमंगलस्स असंखे० भागं गंतूण सलागाणं संखेज्जभागहाणी होदि । तदो संखेज्जभागहाणीए उवरि णिरंतर मंगलस्स असंखे० भागं गंतूण पुणो संखे० गुणहाणी होदि । तदो संखेज्जगणहाणीए उवरि णिरंतरमंगलस्स असंखे० भागं गंतूण असंखेज्जगुणहाणी होदि । तदो उवरि णिरंतरमसंखेज्जगुणहाणी अंगुलस्सर असंखे० भागं गच्छदि जाव खेत्तवियप्पाणं पज्जवसाणे ति ।
एवं चतुण्णं सरोराणं ॥ ५३३ ॥
जहा ओरालियसरीरस्स चउविहा खेत्तहाणी परूविदा तहा सेसचदुण्णं सरीराणं पि परूवेयध्वं, विसेसाभावादो।
कालहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे* एगसमयट्ठिदिवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा (१५३४॥
___ जे जीवादो अवेदा ओरालियणोकम्मपरमाण एयसमयमोदइयभावेण अच्छिय विदियसमए पारिणामियभावं गच्छति तेसि दृविदसलागाओ बहुगाओ ते च अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा, बंधणगुणस्स तत्थ अणंताविभागपडिच्छेदाणं संभवादो।
भागहानिके निरन्तर रूपसे अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने पर संख्यातभागहानि होती है। फिर आगे संख्यातभागहानिके निरन्तर रूपसे अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने पर संख्यातगुणहानि होती है। फिर आगे सख्यातगुणहानिके निरन्तररूपसे अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाग स्थान जाने पर असंख्यातगुणहानि होती है। फिर आगे निरन्तररूपसे संख्यातगुणहानि अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान होकर क्षेत्रविकल्पोंके समाप्त होनेतक जाती है।
इसी प्रकार चार शरीरोंकी क्षेत्रहानि कहनी चाहिए ॥ ५३३ ॥
जिस प्रकार औदारिकशरीरकी चार प्रकारको क्षेत्रहानि कही है उसी प्रकार शेष चार शरीरोंकी भी कहनी चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
__कालहानिप्ररूपणाको अपेक्षा औदारिकशरीरके जो एक समय स्थितिवाले वर्गणाके द्रव्य हैं वे बहुत हैं और अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ।। ५३४ ।।
जो जीवसे अवेद औदारिकशरीरनोकर्मपरमाणु एक समय तक औदयिक भावरूपसे रह कर दूसरे समयमें पारिणामिकभावको प्राप्त होते है उनकी स्थापित की गई शलाकायें बहुत हैं और वे अनन्त विनसोपचयोंसे उपचित हैं, क्योंकि, उनमें बन्धनगुणके अनन्त अविभागप्रतिच्छेद सम्भव हैं।
आ० प्रती-हाणीए णिरंतर-' इति पाठा। .म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिष ' गंतूण संखे०गणहाणी ' इति पाठः । ४ ता० प्रती '-गणहाणी (ए) असंखे० अ० का प्रत्यो। 'गणहाणीए असंखे० ' इति पाठः । * अ० प्रती 'जो' इति पाठः ।
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४४८) छक्खंडागमे दम्गणा-खडं
( ५, ६, ५३५ जे दुसमयट्ठिदिवग्गणाए दवा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५३५ ।।
जे ओदइयभावेण दुसमयमच्छिण पारिणामियभावं गच्छंति ओरालियपोग्गला अणंतेहि विस्सासुवचएहि उचिदा तेसि मेलाविदसलागाओ असंखेज्जभागहीणाओ। एत्थ भागहारो एत्तिओ ति ण णव्वदे ।
एवं ति-च-पंच-छ-सत्त-अठ-व-दस-संखेज्ज-असंखेज्जसमयठिदिवग्गणाए दवा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५३६ ॥
एत्थ तियादिसु सव्वत्थ समयद्विदिवग्गणाए दवा विसेसहीणा अणंतेहि विस्सा. सुवचएहि उवचिदा त्ति संबंधो कायव्वो। तं जहा- तिसमयद्विदिवग्गणाए दव्या दुसमयट्टिदिदव्यवग्गणसलाहितो असंखेज्ज० भागहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा । चदुसमयढिदिवग्गणाए दवा तिसमयटिदिदग्धवग्गणसलागाहि असंखे. भागहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा। एवं णिरंतरं असंखे०भागहाणी वत्तव्वा जाव असंखेज्जलोगमेत्तट्टाणेसु अंगुलस्त असंखे० भागमेत्तट्ठाणाणि सेसाणि त्ति ।
जो दो समय स्थितिवाली वर्गणाके द्रव्य हैं वे विशेष हीन हैं और अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५३५ ।
जो औदयिकभावके साथ दो समय तक रहकर पारिणामिकभावको प्राप्त होते हैं वे औदारिक पुद्गल अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं। उनकी मिलाकर इकट्ठी की गई शलाकायें असंख्यातभागहीन हैं। यहाँ पर भागहारका प्रमाण इतना है यह ज्ञात नहीं है।
इस प्रकार तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दस, संख्यात और असंख्यात समय तक स्थित रहनेवाली वर्गणाके द्रव्य हैं वे विशेष हीन हैं और प्रत्येक अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ।। ५३६ ।।
यहाँ पर सर्वत्र तीन आदि समयकी स्थितिवाली वर्गणाके द्रव्य विशेष हीन हैं और अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ऐसा संबंध करना चाहिए । यथा- तीन समयकी स्थितिवाली वर्गणाके द्रव्य दो समयकी स्थितिवाली द्रव्यवर्गणाओंकी शलाकाओंसे असंख्यातभागहीन हैं और अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं। चार समयकी स्थितिवाली वर्गणाके द्रव्य तीन समयकी स्थितिवाली द्रव्यवर्गणाकी शलाकाओंसे असंख्यातभागहीन है और वे अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण स्थानोंमें अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानोंके शेष रहने तक निरन्तररूपसे असंख्यातभागहानि कहनी चाहिए।
8 ता० प्रतो 'दव्वा ( तिसमयट्ठिदिदव्ववग्गण-) सलागाहि ' अ० का० प्रत्यो! — दवा सलागाहि'
इति पाठः
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५, ६, ५३८ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरविस्सासुवचयपरूवणा ( ४४९
तदो अंगुलस्स असंखेज्जविभागं गंतूण तेसि चउन्विहा हाणीअसंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणी ॥ ५३७ ॥
असंखेज्जभागहाणिअद्धाणस्स असंखे० भागे अंगलस्स असंखे० भागे सेसे जो विही तस्स परूवणमिदं सुत्तमागयं । अप्पिदाणादो असंखे० भागहाणीए अंगुलस्स असंखे० भागमेत्तद्धाणमुबरि गंतूण संखेज्जभागहाणी होदि । तदो संखेज्जभागहाणीए अंगलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तद्धाणमुवरि गंतूण संखेज्जगणहाणी होदि । पुणो संखेज्जगणहाणीए अंगुलस्स असंखे० भागमेत्तमद्धाणमुवरि गंतूण असंखेज्जगुणहाणी होदि । तदो असंखे० गणहाणीए अंगुलस्स असंखे० भागमेत्तद्धाणं गंतूण असंखे० गुणहाणी समप्पदि, उवरि दव्वाभावादो। अंगुलस्त असंखे० भागं गंतूण चउविहा हाणी होदि त्ति सुत्तादो च णव्वदे जहा जीवादो अवेदाणं चेव पोग्गलाणमेसा परूवणा ति, जीवसहिदाणं ओरालियसरीरादीणमंगुलस्स असंखे० भागमेत्तकालद्विदीए अभावादो।
एवं चदुण्णं सरीराणं ॥ ५३८ ॥ जहा ओरालियसरीरस्स परूवणा कदा तहा चदुण्णं सरीराणं परूवणा
उससे अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर उनकी चार प्रकारको हानि होती है-- असंख्यातमागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि ।। ५३७ ।।
____ असंख्यातभागहानि अध्वानके असंख्यातवें भागके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण शेष रहने पर जो विधि है उसका कथन करने के लिए यह सूत्र आया है । विवक्षित स्थानसे असंख्यातभागहानिके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान ऊपर जानेपर संख्यातभागहानि होती है। पुनः संख्यातभागहानिके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान ऊपर जानेपर संख्यातगणहानि होती है। पुनः संख्यातगुणहानिके अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान ऊपर जानेपर असंख्यातगुणहानि होती है। पुनः असंख्यातगुणहानिके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जानेपर असंख्यातगुणहानि समाप्त होती है, क्योंकि, इससे आगे द्रव्यका अभाव है। अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर चार प्रकारकी हानि होती है इस सूत्रसे जाना जाता है कि जीवसे अवेदरूप पुद्गलोंकी ही यह प्ररूपणा है, क्योंकि, जीवसहित औदारिकशरीर आदिकी स्थिति अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक नहीं पायी जाती।
इसी प्रकार चार शरीरोंको प्ररूपणा करनी चाहिए ॥ ५३८ ॥
जिस प्रकार औदारिकशरीरकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार चार शरीरोंकी प्ररूपणा 8 ता० प्रती 'सखेज्जगुण ( भाग ) हाणी ' इति पाठः ।
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४५० ) छपखंडागमे वगणा-खंड
( ५, ६, ५३९. कायव्या, विसेसाभावादो।
भावहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयगुणजुत्तवग्गणाए दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिवा- ५३९।
एयगुणजुत्तवग्गणाए अणंसेहि विस्सासुवचएहि उचिदाए दवा सलागाहि बहुआ । एत्थ सलागाहि त्ति अज्झाहारो कायक्वो, अण्णहा सुत्तत्थाणुववत्तीदो । एयगुणं ति किं घेप्पदि ? जहण्णगणस्स सो गहणं। च जहण्णगणो अणंतेहि अविभागपडिच्छेदेहि णिप्पणो । तं कथं णव्वदे? सो अणंतविस्सासुवचएहि उवचिदो ति* सुत्तण्णहाणुववत्तीदो । ण च एक्कम्हि अविभागपडिच्छेदे संते एगविस्सासुवचयं मोत्तूण अणंताणं विस्सासुवचयाणं तत्थ संभवो अस्थि, तेसि संबंधस्स णिप्पच्चयत्तप्पसंगादो। ण च तस्स विस्सासुवचएहि बंधो वि अत्थि, जहण्णवज्जे त्ति सुत्तेण सह विरोहादो।
जे दुगुणजुत्तवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा।। ५४० ॥ करनी चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
भावहानिप्ररूपणाको अपेक्षा औदारिकशरीरके जो एक गणयुक्त वर्गणाके द्रव्य हैं वे बहुत हैं और वे अनन्त विनसोपचयोंसे उपचित हैं ॥ ५३९ ॥
अनन्त विस्रसोपचोंसे उपचित एक गुणयुक्त वर्गणाके द्रव्य शलाकाओंकी अपेक्षा बहुत हैं । यहाँ पर — सलागाहि' पदका अध्याहार करना चाहिए, अन्यथा सूत्रका अर्थ नहीं बन सकता है।
शंका-- एक गुणसे क्या ग्रहण किया जाता है ? समाधान-- जघन्य गण ग्रहण किया जाता है। वह जघन्य गुण अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न होता है । शंका--- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ।
समाधान-- वह अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित है यह सूत्र अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है कि वह अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदों से निष्पन्न होता है।
यदि कहा जाय कि एक अविभागप्रतिच्छेदके रहते हुए वहाँ केवल एक विस्रसोपचय न होकर अनन्त विनसोपचय सम्भव हैं सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसी अवस्थामें उनका सम्बन्ध बिना कारणके होता है ऐसा प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि उसका विस्रसोपचयोंके साथ बन्ध भी होता है सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, 'जघन्य गुणवालेके साथ बन्ध नहीं होता ' इस सूत्र के साथ विरोध आता है।
जो दो गुणयक्त वर्गणाके द्रव्य है वे विशेषहीन हैं और वे अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं ५४० ॥
४ ता० प्रती · जो' इति पाठः। अ० प्रती ' अचिदा ' का० प्रती · अवचिदा ' इति पाठ।। * प्रतिषु 'सुत्तट्ठाणववत्तीदो' इति पाठ।। * अ० का० प्रत्यो: ' अचिदो त्ति ' इति पाठः ।
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५, ६, ५४० ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरविस्सासुवचयपरूवणा
जदि अणंतेहि अविभागपडिच्छेदेहि सहिदजहण्णगुणे एगगुणसद्दो वट्टदे तो दोसु जहण्णगुणेसु दुगुणसद्देण पयट्टियव्वं, अण्णहा दुसद्दपउत्तीए अणुवलंभादो ? ण एस दोसो, जहण्णगुणस्सुवरि एगाविभागपडिच्छेदे वड्डिदे दुगुणभावदंसणादो । कथमेक्कस्सेव अविभागपडिच्छेदस्स बिदियगणतं ? ण, तेत्तियमेत्तस्सेव गुणंतरस्स दव्वंतरे वडिदसणादो। गणस्स* बिदियो अवस्थाविसेसो बिदियगणो णाम । तदियो अवस्थाविसेसो तदियगणो णाम। तेण जहण्णगणेण सह दुगण-तिगणत्तमेत्थ जज्जदे, अण्णहा दुगणगुणजुत्तवग्गणाए दव्वा त्ति सुत्तं होज्ज । ण च एवं, अणुवलंभादो । एवंविहदुगणजुत्तवग्गणाए दवा सलागाहि पुवसलागाहिंतो अणंतभागहीणा। जहा पारिणामियभावेण ट्रिदपरमाणपोग्गलाणमेगपरमाणसंबंधणिमित्तवग्गणगणो संभवदि तहा एदेसिमोरालियसरीरपोग्गलाणं जीवादो अवेदाणं किण्ण संभवदि ? ण, मिच्छत्ताविपच्चएहि बज्झमाणसमए चेव सव्वजोवेहितो अणंतगुणत्तेण वडिदबंधणगणाणमोरालियादिपरमाणूणं जीवमुक्काणं पि अच्चत्तओदइयभावाणमणंतबंधणगणस्सुवलंभादो।
शंका-- यदि अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंसे युक्त जघन्य गुणमें 'एक गुण ' शब्द प्रवृत्त रहता है तो दो जघन्य गुणोंमें दो गुण' शब्दकी प्रवृत्ति होनी चाहिए, अन्यथा 'दो' शब्दकी प्रवृत्ति नहीं उपलब्ध होती ?
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जघन्य गुणके ऊपर एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि होने पर दो गुणभाव देखा जाता है ।
शंका-- एक ही अविभागप्रतिच्छेदकी द्वितीय गुण संज्ञा कैसे है ? समधान-- क्योंकि, मात्र उतने ही गुणान्तरकी द्रव्यान्तरमें वृद्धि देखी जाती है ।
गुणके द्वितीय अवस्थाविशेषकी द्वितीय गुण संज्ञा है और तृतीय अवस्था विशेषकी तृतीय गुण संज्ञा है। इस लिए जघन्य गुणके साथ द्विगुणपना और त्रिगुणपना यहाँ बन जाता है। अन्यथा 'द्विगुणयुक्त वर्गणाके द्रव्य' ऐसा सूत्र प्राप्त होगा। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, इस प्रकारका सूत्र उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार दोगुण युक्त वर्गणाके द्रव्य शलाकाओंकी दृष्टिसे पूर्वकी शलाकाओंसे अनन्तभागहीन हैं ।
शंका-- जिस प्रकार परिणामिकभावरूपसे स्थित हुए परमाणु पुद्गलोंमें एक परमाणुके सम्बन्धका निमित्तभूत वर्गणागुण सम्भव है उस प्रकार जीवसे अवेदरूप इन औदारिकशरीर पुद्गलोंमें क्यों सम्भव नहीं है ?
__ समाधान-- नहीं, क्योंकि, मिथ्यात्व आदि कारणोंसे बन्ध होते समय ही जिनमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे बन्धनगुण वृद्धि को प्राप्त हुए हैं तथा जीवसे पृथक् होकर भी जिन्होंने औदारिकभावका त्याग नहीं किया है ऐसे औदारिक परमाणुओंमें अनन्त बन्धनगुण उपलब्ध होते हैं।
अ. का. प्रत्योः ' ते दोसु ' इति पाठ।। * अ० का० प्रत्योः ' वड्डिदसण गुणस्स ' इति पाठ! ।
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४५२ )
छपखंडागमे वग्गणा - खंड
एवं ति चदु-पंच-छ- सत्त- अट्ठ- णव- बस अनंत अनंतानंतगुणजुत्तवग्गणाए दव्वा ते विस्सासुवचएहि उवचिदा ॥ ५४१ ॥
( ५, ६, ५४१
संखेज्ज- असंखेज्जविसेसहीणा अनंतेहि
तिगुणजुत्तवग्गगाए दव्वा अणतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ते विसेसहीणा ति एत्थ संबंधी पुण्वं व कायव्वो । एवं पादेवकं भणिऊण णेयव्वं जाव सेचीयादो सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्तट्ठाणेसु अंगुलस्स असंखे ० भागमेत्तभावद्वाणाणि सेसाणिति । fig एत्थ सव्वत्थ अनंतभागहाणी चेव ।
तदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण तेसि छव्विहा हाणी --
विशेषार्थ -- यहांपर औदारिकशरीरकी एक गुणयुक्त वर्गणा के द्रव्यसे दो गुणयुक्त वर्गणाका द्रव्य विशेषहीन बतलाया हैं । इस पर यह शंका की गई है कि जब कि एक गुणयुक्त वर्गाका अर्थ एक अविभाग प्रतिच्छद युक्त वर्गणा न होकर अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंसे युक्त जघन्य वर्गणा है ऐसी अवस्था में इससे एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदवाली वर्गणाके द्रव्यको दो गुणयुक्त कैसे कह सकते हैं, क्योंकि, यहां पर दूने अविभागप्रतिच्छेदों की वृद्धि नहीं हुई है। वीरसेन स्वामीने इस शंकाका जो समाधान किया है उसका आशय यह है कि यहां पर जघन्य गुणको एक मान लिया है और उसपर एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि होने पर उसे दो गुणयुक्त कहा है, क्योंकि, जघन्य गुणयुक्त द्रव्यसे भिन्न द्रव्यमें उतनी ही वृद्धि देखी जाती है । आगे तीन गुणयुक्त द्रव्यमें भी इसी प्रकार एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि जाननी चाहिए । यह पूछने पर कि यह अर्थ कैसे फलित किया गया है वीरसेनस्वामी ने यह उत्तर दिया है कि सूत्र में ' दुगुणजुत्त' पदको देखकर यह अर्थ फलित किया है। यदि सूत्रकारको जघन्य गुणसे दूना अर्थ इष्ट होता तो वे ' दुगुणजुत्त' पदके स्थान में ' दुगुणगुणजुत्त' ऐसे पदका प्रयोग करते । पर उन्होंने जब ऐसे पदका प्रयोग न करके ' दुगुणजुत्त पदका ही प्रयोग किया है । इससे ज्ञात होता हैं कि उन्हें जघन्य गुणके ऊपर एक अविभागप्रतिच्छेदकी वृद्धि इष्ट है और उसे ही वे दुगुणजुत्त अर्थात् दो गुणयुक्त शब्द द्वारा व्यक्त कर रहे हैं । और यह मानना ठीक नहीं है कि यहां पर जघन्य गुणसे एक परमाणु में सम्भव जघन्य गुण ले लिया जाय, क्योंकि, मिथ्यात्व आदि कारणोंसे ये औदारिक शरीर की वर्गणायें जीवके साथ बन्धको प्राप्त हुई हैं, इसलिए जीवसे अलग होनेपर भी इनमें एक परमाणुका गुण सम्भव नहीं हो सकता ।
,
इसी प्रकार तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ, दस, संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त गुणयुक्त वर्गणाके जो द्रव्य हैं वे विशेष होन हैं और वे अनन्त वित्रसोपचयोंसे उपचित हैं ।। ५४१ ॥
तीन गुणयुक्त वर्गणा द्रव्य अनन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित हैं और वे विशेष हीन हैं इस प्रकार यहाँ पर पहले के समान सम्बन्ध करना चाहिए । इसप्रकर सेचीयकी अपेक्षा सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थानों में अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान शेष रहने तक प्रत्येक स्थानका कथन करके ले जाना चाहिए। किन्तु यहाँ सर्वत्र अनन्तभागहानि ही होती है । उससे अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर उनकी छह प्रकारकी
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५, ६, ५४३ )
घाणुयोगद्दारे सरीरविस्सा सुवचयपरूवणा
( ४५३
अनंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणी अनंतगुणहाणी ॥ ५४२ ॥
अपणादो अर्णत भागहाणीए अंगूलस्स असंखे० भागमेत्तमद्वाणं गंतूण सलागाणमसंखेज्जभागहाणी होदि । तदो असंखेज्जभागहाणीए अंगुलस्स असंखे ०. भागमेत्तमद्वाणं उवरि गंतूण संखेज्जभागहाणी होदि । तदो संखेज्जभागहाणीए अंगुलस्स असंखे० भागमेत्तमद्वाणमुवरि गंतूण संखेज्जगुणहाणी होदि । तदो संखेज्जगुणहाणीए अंगुलस्स असंखे० भागमेत्तमद्वाणमुवरि गंतूण असंखेज्जगुणहाणी होदि । तदो असंखेज्जगुणहाणीए अंगुलस्स असंखे० भागमेत्तमद्वाणमुवरि गंतॄण अनंत गुणहाणी होदि । पुणो अनंतगुणहाणीए अंगुलस्स असंखे० भागमेत्तमद्वाणमुवरि गंतॄण द्वाणाणि समप्पंति ।
एवं चदुष्णं सरीराणं ॥ ५४३ ।।
जहा ओरालियसरीरस्स परूविदं तहा सेससरीराणं पि परूवेयव्वं, विसेसाभावादो | संपहि जीवादी अवेदाणं पंचसरीरपोग्गलाणं विस्तासुवचयस्स माहप्प --- परूवणट्ठ उवरिममप्पाबहुअं भणदि
ओरालियसरीरस्स जहष्णयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सा
हानि होती है- अनंतभागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अनन्तगुणहानि । ५४२ ।
विवक्षित स्थान से अनन्तभागहानिके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर शलाकाओं की असंख्यात भागहानि होती है । फिर वहाँसे आगे असंख्यात भागहानिके अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर संख्यातभागहानि होती है । पुनः वहाँसे आगे संख्यातभागहानिके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर संख्यातगुणहानि होती है । पुनः वहाँ से आगे संख्यातगुणहानिके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर असंख्यातगुणहानि होती है । पुनः वहाँसे आगे अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाणं स्थान जाकर अनन्तगुणहानि होती है । पुनः अनन्तगुणहानिके अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान आगे जाकर स्थान समाप्त होते हैं ।
इसी प्रकार चार शरीरोंकी अपेक्षा प्ररूपणा करनी चाहिए । ५४३ ।
जिस प्रकार औदारिक शरीरका कथन किया है उसी प्रकार शेष शरीरोंका भी कथन करना चाहिए, क्योंकि, उससे यहाँ पर कोई विशेषता नहीं है ।
अब जीवसे अवेदरूप पाँच शरीरपुद्गलोंके विस्रसोपचयके माहात्म्यका कथत करने के लिए आगेका अल्पबहुत्व कहते हैं---
जघन्य औदारिकशरीरका जघन्य पदमें जघन्य वित्रसोपचय सबसे स्तोक
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४५४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ५४४ सुवचओ थोवो ॥५४४॥
ओरालियसरीरस्स जहण्णयस्स जहण्णपदं ति वृत्ते जीवादो अवेदो एमो ओरालियपरमाणू घेत्तवो, तस्स विस्सासुवचओ थोवो अप्पे त्ति भणिदं होदि ।
__ तस्सेव जहण्णयस्स उक्कस्सपदे उक्कस्सओ विस्सासुवचओ अणंतगुणो ॥५४५॥
___तस्सेव एगोरालियपरमाणुस्स उक्कस्सविस्सासुवचओ अणंतगुणो, एगपरमाणुजहण्णबंधणगुणादो तत्थेव उक्कस्सबंधणगुणस्स अणंतगुणत्तदंसणादो। को गणगारो? सव्वजोवेहि अणंतगुणो ।
तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अणंतगुणो ॥५४६॥
ओरालियसरीरपरमाणणं जीवादो पुधभदाणं सवक्कस्सो समुदयसमागमो ओरालियसरीरुक्कस्सं णाम । तस्स जहण्णओ विस्तासुवचओ अणंतगुणो । को गुण० ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो ।
तस्सेव उक्कस्सयस्स उक्कस्सपदे उक्कस्सओ विस्सासुवचओ अणंतगुणो ॥५४७॥
है ॥५४४॥
जघन्य औदारिकशरीरका जघन्यपद ऐसा कहनेपर जीवसे अवेदरूप एक औदारिक परमाणु ग्रहण करना चाहिए। उसका विस्रसोपचय स्तोक अर्थात् अल्प है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
उसी जघन्यका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है ।।५४५॥
उसी एक औदारिक परमाणुका उत्कृष्ट विनसोपचय अनन्तगुणा है, क्योंकि, एक परमाणुके जघन्य बन्धनगुणसे वहीं पर उत्कृष्ट बन्धनगुण अनन्तगुणा देखा जाता है । गुणकार क्या है? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है।
उसीके उत्कृष्टका जघन्य पदमें जघन्य विनसोपचय अनन्तगुणा है ।।५४६।।
__ जीवसे पृथग्भूत औदारिकशरीर परमाणुओंका सबसे उत्कृष्ट समुदायसमागम उत्कृष्ट औदारिकशरीर कहलाता है । उसका जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है ।
उसीके उत्कृष्टका उत्कृष्ट पदमें उकृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है ॥५४७॥
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५, ६, ५४८ ) बंधणाणुयोगदारे विस्सासुवचयपरूवणा
कुदो ? उक्कस्सदवजहण्णबंधणगणादो तस्सेव उक्कस्सबंधणगुणस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो । को गुण०? सव्वजोवेहि अणंतगुणो ।
एवं वेउविय-आहार-तेजा-कम्मइयसरीरस्स ! ५४८ ।
जहा ओरालियसरीरस्स जहण्णुक्कस्सभेवभिण्णचदुहि पदेहि अप्पाबहुअं परूविदं तहा एदेसि चदुण्णं पि सरीराणं परवेयव्वं । एदेण सत्थाणप्पाबहुअपरूवणा कदा होदि । संपहि परस्थाणप्पाबहुअपरूवणठें उत्तरसुत्तं भणदि
जहण्णयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अणंतगुणो ॥ ५४९ ॥
पुव्वसुत्तादो वेउब्वियसरीरस्से ति अणवट्टदे। तेणेवं पदसंबंधो कायव्वो। तं जहा- ओरालियउक्कस्सपदेसग्गउक्कस्तविस्तासुवचयादो वेउब्वियसरीरस्स जहण्णयस्स जहणओ विस्सासुवचओ अणंतगुणो । जहण्णे त्ति उत्ते जीवादो पुधभूदेगवेउवियपरमाणू घेतव्यो । को गुण०? सव्वजोवेहि अणंतगुणो । कुदो? साभावियादो।
तस्सेव जहण्णयस्सुक्कस्सपदे उक्कस्सओ विस्सासुवचओ अणंतगणो || ५५० ॥
क्योंकि, उत्कृष्ट द्रव्यके जघन्य बन्धनगुणसे उसीका उत्कृष्ट बन्धनगुण अनन्त गुणा उपलब्ध होता है । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है ।
इसी प्रकार वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरको अपेक्षा जानना चाहिए। ५४८ ।
___ जिस प्रकार औदारिकशरीरका जघन्य और उत्कृष्ट भेदसे भेदको प्राप्त हुए चार पदोंके द्वारा अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार इन चार शरीरोंका भी कहना चाहिए। इसके द्वारा स्वस्थान अल्पबहुत्वप्ररूपणा को गई है। अब परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
जघन्यका जघन्य पदमें जघन्य विनसोपचय अनन्तगणा है । ५४९ ।
पूर्वके सूत्रसे वैक्रियिकशरीर ' पदकी अनुवत्ति होती है। इसलिए इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए । यथा- औदारिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रके उत्कृष्ट विनसोपचयकी अपेक्षा जघन्य वैक्रियिकशरीरका जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है। जघन्य ऐसा कहनेपर जीवसे अलग हुए वैक्रियिकशरीरका एक परमाणु लेना चाहिए। गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है।
उसीके जघन्यका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विनसोपचय अनन्तगुणा है ।५५० ।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
४५६ )
( ५, ६, ५५१ तस्सेव वे उब्वियएगपरमाणुस्स उक्कस्सविस्सासुवचओ अणंतगुणो । को गुण ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो।
तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अणंतगुणो ॥ ५५१ ॥
वेउवियपरमाणणं जीवादो पुधभदाणमुक्कस्सो समदायसमागमो उक्कस्सं णाम । तस्स जहग्णओ विस्सासुवचओ एगपरमाणुउक्कस्सविस्सासुवचयादो अणंतगुणो। एत्थ गुणगारो सव्वजोवेहि अणंतगुणो।
तस्सेव उक्कस्सयस्स उक्कस्सपदे उक्कस्सओ विस्सामुवचओ अणंतगुणो ।। ५५२॥ ___को गुण ? सव्वजीवेहि अणंतगणो । कुदो? साभावियादो । एदेसि सुत्ताणमावत्ति कादूण उवरिमसरीराणमप्पाबहुअं वुच्चदे । तं जहा-वेउव्वियसरीरउक्कस्सविस्सासुवचयादो आहारसरीरस्स जहण्णयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अणंतगुणो । तस्सेव जहण्णयस्स उक्कस्सपदे उक्कस्तओ विस्सासुवचओ अणंतगणो। तस्सव उक्कस्सयस जहण्णपदे जहण्णओ विस्तासुवचओ अणंतगुणो। तस्सेव उक्कस्सयस्स उक्कस्सपदे उक्कस्सओ विस्सासुवचओ अणंतनुणो । तेजासरीरस्स जहण्णयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अणंतगणो । तस्सेव जहण्णयस्स उक्कस्सपदे
उसी वैक्रियिकशरीरके एक परमाणुका उत्कृष्ट विस्र सोपचय अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है।
उसी उत्कृष्टका जघन्य पदमें विस्रसोपचय अनन्तगुणा है ।। ५५१ ।।
जीवसे अलग हए वैक्रियिकशरीरके परमाणुओंके समुदयसमागमको उत्कृष्ट कहते हैं । उसका जघन्य विस्रसोपचय एक परमाणुके उत्कृष्ट विस्रसोपचयसे अनन्तगुणा है। यहां पर गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा है ।
उसीके उत्कृष्टका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विनसोपचय अनन्तगुणा है ।५५२ ।
गुणकार क्या है? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है, क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है । अब इन सूत्रोंकी आवृत्ति करके आगेके शरीरोंका अल्पबहुत्व कहते हैं । यथा वैक्रियिकशरीसके उत्कृष्ट विस्रसोपचयसे जघन्य आहारकशरीरका जघन्य पदमें जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसी जघन्यका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसी उत्कृष्टका जघन्य पदमें जघन्य विनसोपचय अनन्तगुणा है। उसी उत्कृष्टका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । जघन्य तैजसशरीरका जघन्य पदमें जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसी
8 अ० का० प्रत्यो: ' जहण्णओ विस्सासुवनओ अनंतगुणो | तेजासरीरस्म इति पाठ! ।
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५, ६, ५५२ )
बंणाणुयोगद्दारे सरीरविस्सा सुवचयपरूवणा
( ४५७
उक्कस्सओ विस्तासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विसासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्कस्सयस्स उक्कस्सपदे उक्कस्सओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । कम्मइयसरीरस्स जहण्णयस्त जहण्णपदे जहग्णओ विस्तासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव जहण्णयस्स उवकस्सपदे उक्कस्सओ विस्सासुनचओ अणंतगुणो | तस्सेव उक्कस्तयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्कस्सयस्स उक्कस्सपदे उक्कस्सओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । सव्वत्थ गुणगारो सजीवेहि अनंतगुणो । एदमप्पाबहुगं बाहिरवग्गणाए पुधभूदं ति काऊण के वि आइरिया जीवसंबद्ध पंचण्णं सरीराणं विस्सासुवचयस्सुवरि परूवेंति तण्ण घडदे, जहण्णत्तेय सरीरवग्गणादो उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए अनंतगुणत्तप्पसंगादो। उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणादो जहण्गसुहुमणिगोढवग्गणाए अनंतगुणहीणत्तप्पसंगादो च । तम्हा सव्वत्थोवो ओरालियसरीरस्स जहण्णयस्स जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो । तस्सेव उक्कस्सओ विस्तासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पलिदोवस्त असंखेज्जदिभागो । तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्णओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । तस्पेव उक्कस्तओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्त असंखेज्जदिभागो । वेउविवयसरीरस्स जहण्णयस्स जहण्णओ विस्सासुवच मो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ?
जघन्यका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके उत्कृष्टका जघन्य पद जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसी उत्कृष्टका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनंतगुणा है । जघन्य कार्मणशरीरका जघन्य पद में जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसी जघन्यका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है । उसीके उत्कृष्टका जघन्य पद में जघन्य विसोपचय अनन्तगुणा है । उसी उत्कृष्टका उत्कृष्ट पदमें उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनंतगुण है । सर्वत्र गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा है । यह अल्पबहुत्व बाह्य वर्गणासे पृथग्भूत है ऐसा मानकर कितने ही आचार्य जीवसम्बद्ध पांच शरीरोंके विस्रसोपचयके ऊपर कथन करते हैं परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर जघन्य प्रत्येकशरीस्वर्गणासे उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणा अनन्तगुणे होने का प्रसंग प्राप्त होता है तथा उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा से जघन्य सूक्ष्मनिगोदवर्गणा के अनन्तगुणे हीन होने का प्रसंग प्राप्त होता है । इसलिए जघन्य औदारिकशरीरका जघन्य पद में जघन्य विस्रसोपचय सबसे स्तोक होकर भी अनन्तगुणा है । उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उसीके उत्कृष्टका जघन्य विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है | गुणकार क्या है ? गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । उसी उत्कृष्टका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्या - तगुणा हैं । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । वैक्रियिकशरीरके
० अ० का० प्रत्यो: ' जहण्णो विस्सासुवचओ अनंतगुणो । उक्कस्सयस्स अ० प्रती । उक्कस्सयस्स उक्कस्सओ' इति पाठा
इति पाठा ।
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४५८ )
छक्खंडागमे वाणा-खं
( ५, ६, ५५२
सेडीए असंखेज्जदिभागो। तस्सेव जहण्णयस्स उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो। को गणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्णओ विस्तासुवचओ असंखेज्जगणो । को गणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तस्सेव उक्कस्सओ विस्तासुवचओ असंखेज्जगणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो। आहारसरीरस्स जहण्णयस्स जहण्णओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगणो । को गुणगारो? सेडीए असंखेज्जदिभागो । तस्सेव उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगणो। को गुणगारो? पलिदोवमस्त असंखेज्जदिभागो। तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्णओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो। को गणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । तस्सेव उक्कस्सयस्स उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगणो । को गुणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तेजासरीरस्स जहण्णयस्स जहण्णओ विस्सासुवचओ अणंतगुणो। को गणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगणो सिद्धाणमणंतभागो। तस्सेव उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगणो । को गुणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तस्सेव उक्कस्सयस्स जहग्णओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो । तस्सेव उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो । कम्मइयसरीरस्स जहण्णयस्स जहण्णओ विस्सासुवचओ अणंतगणो । को गणगारो ? अभवसिद्धिएहि जघन्यका जघन्य विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उसीके जघन्यका उत्कृष्ट विनसोपचय असंख्यतागुणा है । गुणकार क्या है? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गणकार है। उसीके उत्कृष्टका जघन्य विस्रसोपच असंख्यातगुणा है। गुगकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगणा है। गुणकार क्या है ? पल्यके असख्यान गणकार है। आहारकशरीरके जघन्यका जघन्य विनसोपचय असंख्यातगणा है।
। गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गणकार है। उसीका उत्कृष्ट विनसोपचय असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उसी के उत्कृष्ट का जघन्य विनसोपचय असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उसीके उत्कृष्ट का उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। तैजसशरीरके जघन्यका जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है । उसीका उत्कृष्ट विनसोपचय असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उसीके उत्कृष्टका जघन्य विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। कार्मणशरीरके जघन्यका जघन्य विस्रसोपचय अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ?
अ० का० प्रत्यो: ' अणंतगुणो तस्सेव ' इति पाठ। ।
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५, ६, ५५२ )
बंधणाणुयोगद्दारे विस्सासुवचयपरूवणा ( ४५९ अणंतगणो सिद्धाणमणंतभागो । तस्सेव उक्कस्सओ विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो। तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्णओx विस्सासुवचओ असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तस्सेव उक्कस्सओ विस्तासुवचओ असंखेज्जगणो। को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो ति। जीवसहियाणं पंचण्णं सरीराणं विस्सासुवचयस्स एदेण अप्पाबहुएण होदवं, अण्णहा सचित्त-अचित्तवग्गणाणं गणगारेण सह विरोहादो। जीवसहियाणं विस्सासुवचयस्स जहा अप्पाबहुअं परविदं तहा जीवादो पुधभूदाणं विस्सासुवचयस्स किण्ण वुच्चदे ? ग, जीवादो पुधभावेण गढ़पुग्विल्लबंधणगुणाणं जहण्णस्स उक्कस्ससामित्तेण सरीरोगाहणमावण्णाणं समयपबद्धप्पाबहुअं मोत्तण अण्णस्स अप्पाबहुअस्स असंभवादो। ण च जुत्तीए सुत्तं बाहिज्जदि, सयलबाहादीवस्स वयणस्स सुत्तववएसादो। संपहि विस्सासुवचयस्स जीवपडिबद्धस्त जहण्णस्स उक्कस्ससामित्तपरूवणढें तेति थोवबहुत्तपरूवणठं च उत्तरसुत्तं भगदि--
बादरणिगोदवग्गणाए जहणियाए चरिमसमयछदुमत्थस्स सवजहणियाए सरीरोगाहणाए वट्टमाणस्स जहण्णओ विस्सासुव
-
अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है । उसीका उत्कृष्ट विस्रसोपचय असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उसीके उत्कृष्टका जघन्य विनसोपचय असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उसीका उत्कृष्ट विनसोपचय असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। जीवसहित पाँच शरीरोंके विस्रसोपचयका यह अल्पबहुत्व होना चाहिए, अन्यथा सचित्त अचित्त वर्गणाओंके गुणकारके साथ विरोध आता है।
शंका-- जीवसहित शरीरोंके विस्रसोपचयका जिस प्रकार अल्पबहुत्व कहा है उस प्रकार जीवसे पृथग्भूत शरीरोंके विस्रसोपचयका अल्पबहुत्व क्यों नहीं कहते ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, जीवसे पृथक् होनेके कारण जिनका पहलेका बन्धन गुण नष्ट हो गया है और जो जघन्य तथा उत्कृष्ट स्वामित्वकी अपेक्षा शरीरोंकी अवगाहनाको प्राप्त हैं उनके समय प्रबद्ध सम्बन्धी अल्पबहुत्वको छोड़कर अन्य अल्पबहुत्व सम्भव नहीं है। और युक्तिके द्वारा सूत्र बाधित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि, समस्त बाधाओंसे रहित वचन की सूत्र संज्ञा है।
अब जीव प्रतिबद्ध जघन्य विस्रसोपचयके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करनेके लिए और उनके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते है--
शरीरको सबसे जघन्य अवगाहनामें विद्यमान अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ जीवके
४ अ. का. प्रत्यो: ' सरीरगाहणागमावण्णाणं ' इति पाठः ।
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४६० )
चओ थोवो ॥ ५५३ ॥
चरिमसमयछदुमत्यस्स सव्वजहणियाए सरीरोगाहणाए वट्टमाणस्स जहणिया बादरणिगोदवग्गणा होदि त्ति एत्थ पदसंबंधो कायव्वो । एदेण जहण्णबादरणिगोदवग्गणसामित्तपरूवणदुवारेण जहण्णविस्सासुवचयस्स सामी परुविदो । चरिमसमयछदुमत्थाणं गहणं किमट्ठ कीरदे? ण, तत्थ गुणसेडिमरणेण मदावसिद्वाणमावलियाए असंखे० भागमेत्तपुलवियाणं गहणट्ठे तक्करणादो । असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मपदेसाणं तत्थतणविस्तासुवचयाणं च गलणट्ठे पि चरिमसमयछदुमत्थग्गहणं कोरदे । सव्वजहणियाए सरीरोगाहणाए त्ति वृत्ते अद्धट्ठरयणिपमाणोगाहणाए गहणं कायव्वं । किमठ्ठे तग्गहणं कीरदे ? यो विस्सासुवचयगहणट्ठे । रस- रुहिर मांस-मेदट्ठि मज्ज सुक्काणि विस्सासुवचओ णाम । ते च थोवा जहण्णोगाहणाए चेव होंति ण महंतीए, सेसि बहुत्ते विणा ओगाहणाए बहुत्तविरोहादो । तत्थोवत्तं पि बादरणिगोदाणं थोवत्तविहाणट्ठ । तम्हा अधुट्ठरयणिपमाणुस्सेहो विविहोववासेहि ज्झडिदणिस्सेसरोमाहियमंसो ज्झाणावूरणेण थोवीकयबादरणिगोदपुल विकलावो चरिमसमयखीणकसाओ जहण्णबादरणिगोदवग्गणाए जहण विस्सासुवचयाणं सामी होदित्ति सिद्धं । जघन्य बादरनिगोद वर्गणाका जघन्य विस्रसोपचय स्तोक है ।। ५५३ ।।
शरीरकी सबसे जघन्य अवगाहनामें विद्यमान अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ जीवके जघन्य बादर्शनगोदवर्गणा होती है इस प्रकार यहाँ पर पदसम्बन्ध करना चाहिए। इसके आश्रय से जघन्य बादरनिगोदवर्गणा के स्वामित्वकी प्ररूपणाद्वारा जघन्य विस्रसोपचयका स्वामी कहा है । शंका -- अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थोंका ग्रहण किसलिए करते हैं ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि, वहाँ पर गुणश्रेणि मरणसे मरनेके बाद बची हुई आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंके ग्रहण करनेके लिए तथा असंख्यात गुणित श्रेणिरूप से कर्मप्रदेशोंकी और तत्रस्थ विस्रसोपचयोंकी निर्जरा करनेके लिए अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थोंका ग्रहण करते हैं ।
छखंडागमे वग्गणा-खंड
( ५,६, ५५३
सबसे जघन्य शरीरकी अवगाहनामें ऐसा कहने पर साढे तीन हाथप्रमाण अवगाहनाका ग्रहण करना चाहिए ।
शंका-- उसका ग्रहण किसलिए करते हैं ?
समाधान -- स्तोक विस्रसोपचयका ग्रहण करने के लिए ।
रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि मज्जा और शुक्र इनकी विस्रसोपचय संज्ञा है । वे जघन्य अवगाहनामें स्तोक ही होते हैं, बडी अवगाहनामें नहीं, क्योंकि, उनका बहुत्व हुए बिना अवगाहनाका बहुत्व होने में विरोध है । वह स्तोकपना भी बादरनिगोदके स्तोकपनेका विधान करने के लिए वहाँ ग्रहण किया है। इसलिए मनुष्य के मानसे जिसका साढे तीन अरत्निप्रमाण उत्सेध है, नानाप्रकारके उपवासों द्वारा जिसने समस्त रोम और अधिक मांसको गला डाला है और ध्यानसमाधि द्वारा जिसने बादरनिगोद पुलविकलापको स्तोक कर दिया है ऐसा अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय जीव जघन्य बादरनिगोद वर्गणाके जघन्य विस्रसोपचयोंका स्वामी होता
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५, ६, ५५४ )
धानुयोगद्दारे सरीरविस्सा सुवचयपरूवणा
( ४६१
एवं बादरणिगोदवग्गणाए जहणियाए जहण्णओ विस्तासुवचओ थोवो अप्पो ति भणिदं होदि । एवं सुत्तं बाहिरवग्गणाए ण होदि, जहण्णबादरणिगोववग्गणाए सामित्तपदुप्पायनादो ? ण, विस्सासुवचयसामित्तं मोत्तूण बादरणिगोदवग्गणाए पहाणत्ताभावादो ।
सुहुमणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए छष्णं जीवणिकायाणं एयबंधणबद्धाणं सविडिवाणं संताणं सव्वक्कस्सियाए सरीरोगाहणाए वट्टमाणस्स उक्कस्सओ विस्सासुवचओ अनंतगुणो ॥ ५५४ ॥
एदेण सुत्तेण सुमणिगोव उक्कस्तवग्गणाए सामित्तपरूवणदुवारेण उक्कस्सविस्सासुवचयस्त सामित्तं परुविदं । तं जहा सव्बुक्कस्सियाए सरीरोगाहणाए वट्टमाणस्स महामच्छस्स उक्कस्सिया सुहुमणिगोदवग्गणा होदि । कुदो? छष्णं जीवनिकायाणं एयबंधणबद्वाणं सविडिदाणं संताणं तत्थुवलंभादो । छष्णं जीवणिकायाणं सरीरसमवाओ एयबंधणं णाम । तेण एयबंधणेण बद्धाणं सपिडिदाणमवबद्धाणं च जीवाणं गहणं कायव्वं । संपहि पुणो एवंविहसुहुमणिगोदवग्गणाए arataयाए उक्कस्सओ विस्सासुवचओ होदि । कुदो? तत्थतणाणंतजीवतिसरीरापंतपरमाणुपोग्गलाणं बंधणगुणेण संबद्धणोकम्मपोग्गलाणं बहुत्तुवलंभादो । सो च
है यह सिद्ध हुआ । इस प्रकार जघन्य बादर निगोद वर्गणाका जघन्य विस्रसोपचय स्तोक अर्थात् अल्प होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका -- यह सूत्र बाह्य वर्गणाके विषय में नहीं है, क्योंकि, इस द्वारा जघन्य बादर निगोदवर्गणाका स्वामी कहा गया है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि, विस्रसोपचयके स्वामीको छोडकर बादर निगोद वर्गणाकी प्रधानता नहीं है ।
एक बन्धनबध्द और पिण्ड अवस्थाको प्राप्त हुए जीवोंकी सर्वोत्कृष्ट शरीर अवगाहनामें विद्यमान जीवकी उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणाका उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है ।। ५५४ ॥
इस सूत्र द्वारा सूक्ष्म निगोद उत्कृष्ट वर्गणा के स्वामित्वकी प्ररूपणा द्वारा उत्कृष्ट विस्रसोपचयका स्वामित्व कहा है । यथा - सबसे उत्कृष्ट शरीरकी अवगाहनामें विद्यमान महामत्स्यकी उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा होती है, क्योंकि, वहाँ पर एक बन्धनबद्ध और पिण्डीभूत छह जीवनिकाय उपलब्ध होते हैं। छह जीवनिकायोंके शरीरसमवायकी एकबन्धन संज्ञा है। इसलिए एक बन्धनरूपसे बँधे हुए और पिण्डीभूत होकर सम्बद्ध हुए जीवका ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार इस तरहकी उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा में उत्कृष्ट विस्रसोपचय होता हैं, क्योंकि, वहाँ के अनन्त जीवोंके तीन शरीरके अनन्त परमाणु पुद्गलोंके बन्धनगुणके कारण सम्बन्धको प्राप्त हुए
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४६२)
छक्खंडागमे वग्गणा-खं
( ५, ६, ५५५.
उक्कस्सओ विस्सासुवचओ बादरणिगोदजहण्णविस्तासुवचयादो अणंतगुणो । बादरणिगोदवग्गणाए आवलियाए असंखे० भागमेत्तपुलवियासु अणंतजीवा अस्थि । सुहमणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए वि अणंता जीवा अत्थि किंतु बादरणिगोदवग्गणजीवे. हिंतो महामच्छदेहट्टिदजीवा असंखेज्जगणा होता वि विस्सासुवचएण अणंतगुणा । तिण्णं सचित्तवग्गणाणं मज्झे जहण्णबादरणिगोववग्गणादो उक्कस्ससुहमणिगोदवग्गणा असंखेज्जगणा त्ति जं मणिदं तेण सह एवं सुत्तं किण्ण विरुज्झदे ? " विरुज्झदे, जहण्णबादरणिगोदवग्गणादो उक्कस्ससुहमणिगोदवग्गणा अणंतगुणे ति एत्थ णिद्देसाभावावो । किंतु जहण्णबादरणिगोदवग्गणसामियस्स जहण्णविस्सासुवचयादो उक्कस्ससुहमणिगोदवग्गणाए आधारभूदमहामच्छट्टिदअणंतजीवाणं विस्सासवचयकलाओ अणंतगुणो त्ति भणिदं । ण च तत्थ द्वियसव्वे जीवा सहमणिगोदवग्गणा होंति, बावराणं अण्णोण्णण असंबद्धसुहमणिगोदवग्गणाणं च उक्कस्ससुहमणिगोदवग्गणत्तविरोहादो।
एसि चेद परूवणट्ठदाए तत्थ इमाणि तिणि अणुयोगद्दाराणि जीवपमाणाणुगमो पदेसपमाणाणुगमो अप्पाबहुए त्ति । ५५५ ॥
एदेसि विस्सासुवचयाणं अणंतगणतसाहणठें इमाणि तिणि अणुयोगद्दाराणि एत्थ हवंति ।
___ बहुत नोकर्म परमाणु पुद्गल उपलब्ध होते हैं। वह उत्कृष्ट विस्रसोपचय बादर निगोद जघन्य विस्रसोपचयसे अनन्तगुणा है। बादर निगोद वर्गणाकी आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंमें अनन्त जीव होते हैं तथा उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणामें भी अनन्त जीव होते हैं। किन्तु बादरनिगोदवर्गणाके जीवोंसे महामत्स्यके देहमें स्थित जीव असंख्यातगुणे होते हुए भी विस्रसोपचयकी अपेक्षा अनन्तगुण हैं।
शंका- तीन सचित्त वर्गणाओंके मध्य में जघन्य बादरनिगोदवर्गणासे उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणा असंख्यातगुणी है यह जो कहा है उसके साथ यह सूत्र विरोधको क्यों नहीं प्राप्त होता ?
समाधान- विरोधको नहीं प्राप्त होता, क्योंकि, जघन्य बादरनिगोदवर्गणासे उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणा अनन्तगुणी है इस प्रकारका यहां पर निर्देश नहीं पाया जाता। किन्तु जघन्य बादरनिगोदवर्गणाके स्वामीके जघन्य विस्रसोपचयसे उत्कृष्ट सक्ष्मनिगोदवर्गणाके आधारभूत महामत्स्यमें अनन्त जीवोंका विस्रसोपचयकलाप अनन्तगुणा है ऐसा कहा है। परन्तु वहां पर स्थित सब जीव सूक्ष्मनिगोदवर्गणा नहीं हैं, क्योंकि, बादरोंके और परस्परमें सम्बन्धको नहीं प्राप्त हुए सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंके उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोदवर्गणा होने में विरोध आता है ।
इनकी ही प्ररूपणा करनेपर वहां ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं - जीवप्रमाणानुगम, प्रदेशप्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व ।। ५५५ ।।
इन विस्रसोपचयोंके अनन्तगुणत्वकी सिद्धि करनेके लिए यहाँ ये तीन अनुयोगद्वार
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पंधणामुयोगदारे विस्सासुवचयपरूवणा जीवपमाणाणुगमेण पुढविकाइया जीवा असंखेज्जा ।। ५५६ ॥ असंखेज्जलोगमेत्ता भणि होदि ।
आउक्काइया जीवा असंखेज्जा ॥ ५५७ ।। तेउक्काइया जीवा असंखेज्जा ॥ ५५८ ॥ वाउक्काइया जीवा असंखज्जा ॥ ५५९ ।। एदे चत्तारि वि जीवणिकाया असंखेज्जलोगमेत्ता। वणप्फदिकाइया जीवा अणंता ॥ ५६० ॥ तसकाइया जीवा असंखेज्जा ॥ ५६१ ।। जगपदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता । एवं जीवपमाणाणगमो समतो। पदेसपमाणाणगमेण पुढविकाइयजीवपदेसा असंखेज्जा । ५६२ ।
पुढविकाइयजीवे पुवपरूविदे एगेणघणलोगेण गुणिदे जीवपदेसपमाणुप्पत्तीदो। जीवपमाणादो चेव विस्तासुवचयाणं पमाणे अवगदे संते जीवपदेसाण पमाणं किमळं होते हैं।
जीवप्रमाणानुगमको अपेक्षा पृथिवीकायिक जीव असंख्यात हैं ।। ५५६ ॥ असंख्यात लोकप्रमाण हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। जलकायिक जीव असंख्यात हैं ।। ५५७॥ अग्निकायिक जीव असंख्यात हैं ॥ ५५८ ॥ वायुकायिक जीव असंख्यात हैं । ५५९ । ये चारों ही जीवनिकाय असंख्यात लोकप्रमाण हैं। वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं। ५६० । त्रसकायिक जीव असंख्यात हैं। ५६१ । त्रसकायिक जीव जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं।
__इस प्रकार जीवप्रमाणानुगम समाप्त हुआ। प्रदेशप्रमाणानुगमकी अपेक्षा पृथिवीकायिक जीवोंसे प्रदेश असंख्यात हैं। ५६२ ।
पहले कहे गये पृथिवीकायिक जीवोंको एक घनलोकसे गुणित करनेपर पृथिवीकायिक जीवोंके प्रदेशोंका प्रमाण उत्पन्न होता है ।
शंका-- जीवोंके प्रमाणसे ही विस्रसोपचयोंके प्रमाणका ज्ञान हो जानेपर यहाँ पर जीवोंके प्रदेशोंका प्रमाण किस लिए कहा है ?
अ० का प्रत्योः · पुढ विकाइयपदेसा ' इति पाठः ।
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४६४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ५६३ एत्थ वुच्चदे ? ण, एक्केक्कम्हि जीवपदेसे अणंतओरालिय-तेजा-कम्मइयपरमाणू अस्थि, एक्केक्कम्हि परमाणुम्हि अणंताणंता विस्सासुवचया च अत्थि, एक्केक्कम्हि जीवे एगेगघणलोगमेत्ता चेव जीवपदेसा अस्थि त्ति जाणावणळं जीवपदेसपमाणपरूवणा कोरदे। एक्केक्कम्हि जीवपदेसे एगपरमाणुणा विणा कथमणता परमाणू सम्मांति*? ण, कम्मपरमाणणमाणंतियं फिट्टियण तेसिमसंखेज्जपमाणत्तप्पसंगादो । ण च एवं, सव्वसुत्तेहि सह विरोहप्पसंगादो तम्हा । जत्तीए विणा सुत्तबलेणेव एक्केकम्हि जीवपदेसे अणंताणंतपरमाणणमस्थित्तपरूवणढें पदेसपमाणाणुगमो आगद।।
आउक्काइयजीवपदेसा* असंखेज्जा ।। ५६३ ।। तेउक्काइयजीवपदेसा असंखेज्जा ॥ ५६४ ॥ वाउकाइयजीवपदेसा असंखेज्जा ॥ ५६५ ।। वणप्फदिकाइयजीवपदेसा अणंता ॥ ५६६ ।। तसकाइयजीवपदेसा असंखेज्जा।। ५६७ ।। सुगमाणि एदाणि सुत्ताणि । एवं पदेसपमाणाणगमो समत्तो ।
समाधान- नहीं, क्योंकि, एक एक जीवप्रदेश में अनन्त औदारिक, तैजस और कार्मण परमाण हैं तथा एक एक परमाणपर अनन्तानन्त विस्रसोपचय हैं इस प्रकार इस बात का ज्ञान करानेके लिए तथा एक एक जीवके एक एक घनलोकप्रमाण ही जीवप्रदेश है इस बात का ज्ञान करानेके लिए यहां पर जीवके प्रदेशोंके प्रमाणका कथन किया है।
शंका- एक एक जीवप्रदेश पर एक परमाणुके बिना अनन्त परमाणु कैसे समाते है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर कर्मपरमाणुओंकी अनन्तता नष्ट होकर उनके असंख्यातप्रमाण प्राप्त होने का प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर सब सूत्रोंके साथ विरोध होने का प्रसंग प्राप्त होता है । इसलिए युक्ति के बिना सूत्रके बलसे ही एक एक जीवप्रदेश पर अनन्तानन्त परमाणुओंके अस्तित्वका कथन करने के लिए प्रदेशप्रमाणानुगम आया है।
अप्कायिक जीवों के प्रदेश असंख्यात हैं ॥ ५६३ ।। अग्निकायिक जीवोंके प्रदेश असंख्यात हैं ।। ५६४ ॥ वायकायिक जीवोंके प्रदेश असंख्यात हैं ।। ५६५ ।। वनस्पतिकायिक जीवोंके प्रदेश अनन्त हैं ।। ५६६ ।। त्रसकायिक जीवोंके प्रदेश असंख्यात हैं ।। ५६७ ।। ये सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार प्रदेशप्रमाणानुगम समाप्त हुआ।
*ता प्रती · सम्मति ' इति पाठः ।
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बंधणाणुयोगद्दारे विस्सासुवचयपरूवणा अप्पाबहुअं दुविहं--जीवअप्पाबहुअं चेव पदेसअप्पाबहुअं चेव ॥ ५६८ ॥
एवमप्पाबहुअं एत्थ दुविहं चेव होदि । जीवअप्पाबहुगादो चेव पदेसअप्पा - बहुअं णज्जदि तेण तण्ण वत्तत्वं त्ति? ण, सन्वेसि जीवाणं जीवपदेसा सरिसा चेव होति ति जाणावणठें तप्परूवणादो । गुरूवदेसादो चेव तण्णादमिदि तप्परूवणा ण णिरत्थिया, सुत्तेण विणा गुरूवएसस्स अप्पवृत्तीए ।
जीवअप्पाबहुए त्ति सव्वत्थोवा तसकाइयजीवा ॥ ५६९ ।। जगपदरस्स असंखेज्जदिमागत्तादो। तेउक्काइयजीवा असंखेज्जगुणा ॥ ५७० ॥ को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा।
पुढविकाइया जीवा विसेसाहिया ।। ५७१ ।।
केत्तियमेत्तो विसेसो? असंखेज्जा लोगा, तेउक्काइयजीवाणमसंखेज्जविभागो। को पडिभागो? असंखेज्जा लोगा। एवं सम्वत्थ वत्तव्वं ।
अल्पबहुत्व दो प्रकारका है- जीवअल्पबहुत्व और प्रदेशअल्पबहुत्व । ५६८० इस प्रकार अल्पबहुत्व यहाँ पर दो प्रकारका ही होता है।
शंका-- जीवअल्पबहुत्वसे ही प्रदेश अल्पबहुत्वका ज्ञान हो जाता है, इसलिए उसका कथन नहीं करना चाहिए ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, सब जीवोंके जीवप्रदेश समान ही होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए उसका कथन किया है। गुरुके उपदेशसे ही उसका ज्ञान हो जाता है, इसलिए उनका कथन करना निरर्थक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, सूत्रके विना गुरुके उपदेशकी प्रवृत्ति नहीं होती।
जीवअल्पबहुत्वकी अपेक्षा त्रसकायिक जीव सलसे स्तोक हैं । ५६९ । क्योंकि, वे जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण है। उनसे तैजस्कायिक जीव असंख्यातगणे हैं। ५७० । गणकार क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण गुणकार है। उनसे पृथिवीकायिक जीव विशेष अधिक हैं। ५७१ ।
विशेषका प्रमाण कितना है ? तेजस्कायिक जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण जो असंख्यात लोक है उतना विशेषका प्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? असंख्यात लोक प्रतिभाग है। इसी प्रकार सर्वत्र कथन करना चाहिए ।
४ अ० प्रती 'पुढविकाइया जीवा' इति पाठः ।
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४६६ )
उपखंडागमे वग्यणा-खंच
आउकाइयजीवा विसेसाहिया ।। ५७२ ।। केत्तियमेत्तो विसेसो ? असंखेज्जा लोगा । वाउक्काइया जीवा विसेसाहिया ।। ५७३ ।।
केत्तियमेत्तो विसेसो ? असंखेज्जा लोगा ।
autoविकाइया जीवा * अनंतगुणा ।। ५७४ ॥
को गुणगारो ? सव्वजीवरासिस्स असंखेज्जदिभागो । एवं जीव अप्पा बहुअं
समत्तं ।
( ५, ६,५७२
पदेसअप्पा बहुए त्ति सव्वत्थोवा तसकाइयपदेसा ।। ५७५ ।। घणलोग गुणिदतत्थतणतसजीवपमाणत्तादो । तेक्काइयपदेसा असंखेज्जगुणा ॥ ५७६ ॥ पुढविकाइयपदेसा विसेसाहिया । ५७७ । आउक्काइयपदेसा विसेसाहिया । ५७८ । वाक्कायपदेसा विसेसाहिया । ५७९ । arthविकाइयपदेसा अनंतगुणा । ५८० ।
उनसे अकायिक जीव विशेष अधिक हैं ।। ५७२ ॥ विशेषका प्रमाण कितना है ? विशेषका प्रमाण असंख्यात लोक है । उनसे वायुकायिक जीव विशेष अधिक हैं | ।। ५७३ ।। विशेषका प्रमाण कितना है ? विशेषका प्रमाण असंख्यात लोक है । उनसे वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुणे हैं ।। ५७४ ।।
गुणकार क्या है ? सब जीवराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । इस प्रकार जीव अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
प्रदेश अल्पबहुत्वकी अपेक्षा त्रसकायिक जीवोंके सबसे स्तोक हैं । ५७६ ।
यहाँ स जीवोंके प्रमाणको घनलोकसे गुणित करनेपर उनके प्रदेशों का प्रमाण प्राप्त होता है। उनसे अग्निकायिक जीवोंके प्रदेश असंख्यातगुणे हैं । ५७६ ।
उनसे पृथिवीकायिक जीवोंके प्रदेश विशेष अधिक हैं । ५७७ । उनसे अकायिक जीवोंके प्रदेश विशेष अधिक हैं । ५७८ । उनसे वायुकायिक जीवोंके प्रदेश विशेष अधिक हैं । ५७९ । उनसे वनस्पतिकायिक जीवोंके प्रदेश अनन्तगुणे हैं । ५८० ।
XxX अ० प्रती 'वाउक्काइया' इति पाठा 1
अ० का० प्रतो' वगष्फदिकाइया' इति पाठः ।
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५, ६, ५८० ) बंधणाणुयोगद्दार सरीरविस्सासुवचयपरूवणा (४६७
एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । जेणेवं महामन्छसरीरे अणंता जीवा अणंताणंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा जहण्णबादरणिगोदवग्गणजीवेहितो असंखेज्जगुणा अस्थि तेण विस्सासुवचएण एत्थ तत्तो अणंतगणेण होदव्वमिवि जहण्ण बादरणिगोदवग्गणजीवेहितो महामच्छदेहदिवजीवा* असंखेज्जगणा चेव, बादरणिगोदवग्गणाए एगणिगोदसरीरे वि सम्वजीवरासीए असंखेज्जदिभागमेत्तजीवोवलंभादो। ण च तत्थ तिस्से अणंतिमभागमेत्तजीवा होंति, बादरणिगोदजहण्णवग्गणादो उक्कस्ससुहमणिगो. दवग्गणाए अणंतगुणत्तप्पसंगादो । ण च एवं, पुवुत्तगुणगारेण सह विरोहादो । जहणबादरणिगोदवग्गणाए जहण्णविस्तासुवचयादो उक्कस्ससुहमणिगोदवग्गणाए उक्कस्सविस्सासुवचओ वि असंखेज्जगणो चेव, अग्णहा जहण्णबादरणिगोदवग्गणादो उक्कस्ससुहुमणिगोदवग्गणाए अणंतगणत्तप्पसंगादो। ण च महामच्छ उक्कस्सविस्सासुवचओ अणंतगुणो होदि, जहण्णवादरणिगोदवग्गणादो उकक्स्ससुहमणिगोदवग्गणाए अणंतगणत्तप्पसंगादो । तम्हा एदेण जीवेण अप्पाबहुएण महामच्छदेह उक्कस्सविस्सासुवचयस्स अणंतगुणत्तं ण साहिज्जदि त्ति सिद्धं? एत्थ परिहारो उच्चदे ! तं जहा- एसो महामच्छाहारो पोग्गलकलावो पत्तेयसरीरबादर-सुहमणिगोद - वग्गणसमूहमेत्तो ण होदि किंतु तस्स पुट्ठीए संभूदउट्ठियकलावो ततो
ये सूत्र सुगम है।
शंका-- चूंकि यह बात हैं कि महामत्स्यके शरीरमें अनन्त जीव अनन्तानन्त विस्रसोपचयों से उपचित होते हैं तो भी जवन्य बादरनिगोदवर्गणाके जीवोंसे असंख्यातगुणे होते हैं, इसलिए विस्रसोपचयको यहाँपर उनसे अनन्तगुणा होना चाहिए, अतः जघन्य बादरनिगोद वर्गणाके जीवोंसे महामत्स्यके शरीरमें स्थित जीव असंख्यातगुणे ही होते हैं, क्योंकि, बादरनिगोदवर्गणाके एक निगोदशरीरमें भी सब जीवराशिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव उपलब्ध होते हैं। वहाँ उसके अनन्तवें भागप्रमाण जीव होते हैं यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर जघन्य बादरनिगोदवर्गणासे उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणाके अनन्तगुणे होने का प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा है नहीं. क्योंकि, ऐसा मानने पर पूर्वोक्त गुणकारके साथ विरोध आता है। जघन्य बादरनिगोदवर्गणाके जघन्य विनसोपचयसे उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोदवर्गणाका उत्कृष्ट विस्रसोपचय भी असंख्यातगुणा ही है, अन्यथा जघन्य बादरनिगोदवर्गणासे उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोदवगणाके अनन्तगुणे होने का प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु महामत्स्यका उत्कृष्ट विनसोपचय अनन्तगुणा नहीं है, क्योंकि, जघन्य बादरनिगोदवर्गणासे उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोदवर्गणाके अनन्तगुणे होने का प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिए इस जीव अल्पबहुत्वसे महामत्स्यके देहका उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा नहीं सिद्ध किया जा सकता है यह बात सिद्ध होती है ?
समाधान-- यहाँ इस शंकाका परिहार करते हैं। यथा- यह महामत्स्यका आहाररूप जो पुद्गलकलाप है वह प्रत्येकशरीर, बादरनिगोदवर्गणा और सूक्ष्म निगोदवर्गणाका समुदायमात्र नहीं होता है किन्तु उसकी पीठपर आकर जमी हुई जो मिट्टीका प्रचय है वह और उसके कारण
* ता० प्रती 'उचिदा जहण्णबादरणिगोदवग्गणजी।हितो महामच्छदेहट्रिदजीवा ' इति पाठः। ४ ता० का. प्रत्योः 'अणंत गणो होदि । तम्हा एदेण ' इति पाठः ।
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४६८ )
पखंडागमे वग्गणा ड
( ५, ६,५८०
समुच्छिद पत्थर सज्जज्जुण-निब कथं बंब- जंबु - जंबीर- हरि-हरिणादओ च विस्स सोवच - यंत भूदा टुव्वा ण च तत्थ मट्टियादीणमुत्पत्ती असिद्धा, सइलोदए पदिपग्णा वि सिलाभावेण परिणामदंसणादो सुत्तिवुडपदिदोर्दाबदृणं मुत्ताहलागारेण परिणामवलंभादो । ण च तत्थ सम्मुच्छिमपंचिदियजीवाणमुप्पत्ती असिद्धा, पाउसपारंभवासजलधरनिसंबंधेण भेगुंदर मच्छ- कच्छवादीणमुप्पत्तिदंसणादो। ण च एदेसि विस्सासुवचयत्तमसिद्धं, कम्मोदयमंतरेणुवचिदाणं विस्सासुवचयत्तं पडि विरोहा भावादो। ण च एवेसि महामच्छत्तमसिद्धं, माणुसजड रुप्पण्णगंडवालाणं पि माणुसववएसुवलंभादो । सव्वे सिमेदेसि गहणादो सिद्धं उक्कस्तविस्सासुवचयस्स अनंतगुणत्तं । अथवा ओरालियतेजा - कम्मइयपरमाणुपोग्गलाणं बंधणगुणेण जे एयबंधणबद्धा पोग्गला विस्सासुवचयसणिया तेसि सचित्तवग्गणाणं अंतब्भावो होदि, जीवेण सह तेसि मण्णोष्णानुगयत्तदंसणादो । जे पुण तेसि सचित्तवग्गणसण्णिदपोग्गलाणं बंधणगुणण तत्थ समवेदा पोग्गला जे च सीसवालदंता इव तज्जोणिभावेणुप्पण्णा च जीवेण अणणुगयभावादो अलद्धसचित्तवग्गणववएसा ते एत्थ विस्सासुवचया घेत्तव्बा । ण च णिज्जीवविस्सासुवचयाणं अत्थित्तमसिद्धं, रुहिरर-वस- सुक्क-रस सेंभ- पित्त- मुत्त खरिस-मत्थुलिंगादीनं जीववज्जियाणं विस्सासुवचयाणमुवलंभादो । ण च दंतहड्डवाला इव सव्वे विस्तासुव
उत्पन्न हुए पत्थर, सर्ज नामके वृक्षविशेष, अर्जुन, नीम, कदम्ब, आम, जामुन, जम्बीर, सिंह और हरिण आदिके ये सब विस्रसोपचय में अन्तर्भूत जानने चाहिए। वहाँ मिट्टी आदिकी उत्पत्ति प्रसिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, शैलके पानी में गिरे हुए पत्तोंका शिलारूपसे परिणमन देखा जाता है तथा शुक्तिपुट में गिरे हुए जलबिन्दुओं का मुक्ताफलरूपसे परिणमन उपलब्ध होता है । वहाँ पञ्चेन्द्रिय सम्पर्च्छन जीवोंकी उत्पत्ति असिद्ध है यह बात भी नहीं है, क्योंकि, वर्षाकालके प्रारंभ में वर्षा के जल और पृथिवी के संबंध से मेंढक, चूहा, मछली और कछुआ आदिकी उत्पत्ति देखी जाती है। इनका विस्रसोपचयपना असिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कर्मोदयके बिना उपचित हुए पुद्गलोंके विस्रसोपचय होने में कोई विरोध नहीं आता है । इनका महामत्स्य होना असिद्ध है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, मनुष्य के जठरमें उत्पन्न हुई कृमिविशेषकी भी मनुष्य संज्ञा उपलब्ध होती है। इन सबके ग्रहण करनेसे उत्कृष्ट विस्रसोपचय अनन्तगुणा है यह बात सिद्ध होती है । अथवा औदारिक, तैजस और कार्मण परमाणु पुद्गलों के बन्धन गुण के कारण जो एक बन्धनबद्ध विस्रसोपचय संज्ञावाले पुद्गल हैं उनका सचित्तवर्गणाओं में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, उनका जीवके साथ परस्परमें अनुगतपना देखा जाता है । परन्तु उन सचित्तवर्गणा संज्ञावाले पुद्गलों के बन्धन गुणके कारण जो पुद्गल वहाँ समवेत होते हैं और जो सीसपाल में दाँतों के समान उनके योनिरूपसे उत्पन्न हुए हैं वे जीवसे अनुगत नहीं होनेके कारण सचित्तवर्गणा संक्षाको नहीं प्राप्त होते, इसलिए उन्हें यहाँ विस्रसोपचयरूप से ग्रहण करना चाहिए । निर्जीव विस्रसोपचयोंका अस्तित्व असिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, जीवरहित रुधिर, वसा, शुक्र, रस, कफ, पित्त, मूत्र, खरिस और मस्तक मेंसे निकलनेवाले चिकने द्रवरूप विस्रसोपचय उपलब्ध होते हैं । दाँतों की हड्डियोंके समान सभी विस्र सोपचय
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५, ६, ५८२ )
बंघणानुयोगद्दारे चूलिया
( ४६९
·
चया णिज्जीवा पच्चक्खा चेव, अणुभावेण अनंताणं विस्सासुवचयाणं आगमचक्खु - गोयराणमुवलंभादो । एदे विस्सासुवचया महामच्छदेहभूद छज्जीवणिकाय विसया अणंतगुणा त्ति घेत्तव्वा । किंफला एसा परूवणा? दुविहविस्सासुच च यपटुप्पाय णफला । एवं विस्सासुवचयपरूवणाए समत्ताए बाहिरिया वग्गणा समत्ता होदि ।
चूलिया
एत्तो उवरिमगंथो चूलिया णाम ||५८१ ॥
पुव्वं सूचिदअत्थाणं विसेसपरूवणादो । संपहि ' जत्थेय मरदि जीवो तत्थ दु मरणं भवे अनंताणं । वक्कमदि जत्थ एयो वक्कमणं तत्थणंताणं ।' एबिस्से गाहाए पुव्वं परुविदाए? पच्छिमद्धस्स अत्थविसेसणमुत्तरसुतं भणदि
जो णिगोदो पढमदाए वक्कममाणो अनंता वक्कमंति जीवा । एयसमएण* अनंताणंतसाहारणजीवेण घेत्तूण एगसरीरं भवदि असंखेज्जलोगमेत्तसरीराणि घेत्तूण एगो निगोदो होवि ॥ ५८२ ॥ ॥
प्रयक्षसे निर्जीव ही होते हैं यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, अनुभाव के कारण आगमचक्षुके विषयभूत अनन्त विसोपचय उपलब्ध होते हैं । महामत्स्यके देहमें उत्पन्न हुए छह जीवनिकायोंको विषय करनेवाले ये विस्रसोपचय अन्तन्तगुणे होते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए ।
शंका- इस प्ररूपणाका क्या फल है ?
समाधान- दो प्रकारके विस्रसोपचयोंका कथन करना इसका फल है ।
1
इस प्रकार विस्रसोपचयप्ररूपणा के समाप्त होनेपर बाह्य वर्गणा समाप्त होती है ।
चूलिका
इससे आगेका ग्रन्थ चूलिका है ||५८१||
क्योंकि, इसमें पहिले सूचित किये गये अर्थों का विशेषरूपसे कथन किया है। अब ' जहां एक जीव मरता है वहां अनन्त जीवोंका मरण होता है और जहां एक जीव उत्पन्न होता है वह अनन्त जीवोंका उत्पाद होता है । ' पहले कही गई इस गाथा के उत्तरार्ध के अर्थ में विशेषता दिखलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
प्रथम समययें जो निगोद उत्पन्न होता है उसके साथ अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं । यहाँ एक समय में अनन्तानन्त साधारण जीवोंको ग्रहण कर एक शरीर होता है। तथा असंख्यात लोकप्रमाण शरीरों को ग्रहण कर एक निगोद होता है ।।५८२ ॥
अ० प्रती 'णिजीवा' इति पाठः ।
अ० का० प्रत्यो 'पुत्र परूवणदाए' इति पाठा | ता० प्रती वक्कमंति जहा एयसमएण ' इति पाठः ।
'
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४७०) छवखंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ५८३ ___णिगोदो पुलिया ति एयट्ठो। तस्संतो अच्छंति जाणि सरीराणि सरीराणमंतो जे वसंति अणंताणंता जीवा तेसि सम्वेसि पिणिगोदा ति सण्णा, आधेये आधारोवयारादो। जो गिगोदो त्ति भनिदे णिगोदजीवो एगो घेत्तव्यो । पुलवियाणं सरीराणं वा गहणं ण होदि, तेसिमाणंतियाभावादो । पढमदाए उप्पत्तीए पढमभावेण वक्कममाणो उप्पज्जिममाणो जो णिगोदो तेण सह अणंता जीवा वक्कमंति । एगस. मएण जम्हि समए अणंता जीवा उप्पज्जति तम्मि चेव समए सरीरस्स पुलियाए च उत्पत्ती होदि, तेहि विणा तेसिमप्पत्तिविरोहादो । कत्थ वि पुलवियाए पुग्दं पि उप्पत्ती होदि, अणेगसरीराधारतादो । एसा परूवणा किमेगसरीरमाहारं काऊण परूविज्जदि आहो एगपुलवियमाहारं काऊण परूविज्जदि त्ति ? उभयमवि आहारं काऊण परूवणा कीरदे । एदं कुदो णवदे ? अंतोमहत्तमस्सिदूण उत्पत्तिकालपरूवणादो । ण च खंधेसु कमाकमेहि उप्पज्जमाणाणेगपुलविएसु अंतोमहुत्तालंबण जुत्तं, गलोइ थहल्लयादीणं बादरणिगोदक्खंधाणं पुलविमयाणं अणेगकालावट्ठाणदसणादो।
बिवियसमए असंखेज्जगुणहीणा वक्कमंति ॥ ५८३ ।। ____ निगोद और पुलवि ये एकर्थवाची शब्द है। उनके भीतर जो शरीर रहते हैं और शरीरोंके भीतर जो अनन्तानन्त जीव रहते हैं उन सभी की आधार में आधेयका उपचार होनेसे निगोद संज्ञा है। सूत्र में जो निगोदो' ऐसा कहने पर एक निगोद जीव लेना चाहिए । इससे पुलवियों और शरीरोंका ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि, वे अनन्त नहीं हैं । ' पढमदाए' अर्थात् उत्पत्ति की प्रथम अवस्थारूपसे उत्पन्न होने वाला जो निगोद जीव है उसके साथ अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं। 'एगसमएण' अर्थात् जिस समयमें अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं उसी समयमें शरीर की और पुलविकी उत्पत्ति होती है, क्योंकि, इनके विना अनन्त जीवोंकी उत्पत्ति होने में विरोध है। कहीं पर पुलविकी पहले भी उत्पत्ति होती है, क्योंकि, वह अनेक शरीरोंका आधार है।
शंका-- यह प्ररूपणा क्या एक शरीरको आधार करके की जा रही है या एक पुलविको आधार करके की जा रही है ?
समाधान-- दोनोंको ही आधार करके यह प्ररूपण की जा रही है। शंका--- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- अन्तर्मुहूर्तका आश्रय लेकर चूंकि उत्पत्तिकालकी प्ररूपणा की गई है इससे जाना जाता है कि दोनोंका आधार बनाकर यह प्ररूपणा की जा रही है। और स्कन्धोंमें क्रप और अक्रम से उत्पन्न होने वाली अनेक पुलवियोंमें अन्तर्मुहुर्तका अवलम्बन करना युक्त नहीं है, क्योंकि, गिलोय, थूवर और आदा आदि बादर निगोद स्कन्धोंमें पुलवियोंका अनेक काल तक अवस्थान देखा जाता है।
दूसरे समयमें असंख्यातगुणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ॥५८३॥ * अ० प्रतौ ‘णिगोद ति इति पाठ |
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५, ६. ५८६ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ४७१ तम्हि चेव सरीरे पढमसमयउप्पण्णजीवेहितो बिदियसमए उप्पज्जमाणजीवा असंखेज्जगुणहीणा । को भागहारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो।
तदियसमए असंखेज्जगुणहीणा वक्कमंति । ५८४ । ___ तत्थेव सरीरे बिदियसमए वक्तजीवेहितो तदियसमए उप्पज्जंतजीवा असं-- खेज्जगुणहीणा । भागहारो सव्वत्थ आवलियाए असंखेज्जविभागो।
एवं जाव असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए गिरंतरं वक्कमंति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो । ५८५ ।
एत्थतण आवलियाए असंखेज्जविभागस्स पमाणमावलियपढमवग्गमलस्स असंखेज्जविभागो । कुदो एवं जयदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो। एदेण सुत्तेण पढमकंदयपरूवणा कदा।
तदो एक्को वा दो वा तिणि वा समए अंतरं काऊण णिरंतरं वक्कमंति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जविभागो। ५८६ ।
एक्को वा दो वा तिणि वा समए जावक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जविभागो अंतरं काऊणे ति पदसंबंधो कायन्वो। आवलियाए असंखेज्जविभागसद्दो अंतरकाले
उसी शरीर में प्रथम समयमें उत्पन्न हुए जीवोंसे दूसरे समयमें उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हीन होते हैं। भागहार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहार है ।
तीसरे समयमें असंख्यातगणे हीन निगोद जीव उत्पन्न होते हैं । ५८४ ।
उसी शरीरमें दूसरे समय में उत्पन्न होनेवाले जीवोंसे तीसरे समयमें उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हीन होते हैं। सर्वत्र भागहार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है।।
इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक निरन्तर असंख्यातगुण हीन श्रेणिरूपसे निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।। ५८५ ॥
यहाँ पर आवलिके असंख्यातवें भागका प्रमाण आवलिके प्रथम वर्गमलका असंख्यातवाँ भाग हैं।
शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है। इस सूत्रके द्वारा प्रथम काण्डककी प्ररूपणा की।
उसके बाद एक, दो और तीन समयसे लेकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका अन्तर करके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक निरन्तर निगोद जीव उत्पन्न होते हैं ।। ५८६ ॥
एक, दो और तीन समयसे लेकर उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका अन्तर करके ऐसा यहाँ पदसम्बन्ध करना चाहिए ।
* ता० प्रती ' अंतरकालो (ले ) ' इति पाठ। 1
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४७२ )
छक्खंडागमे वग्गणा
। ५ ६, ५८६
, वक्कमणकाले च संबंधिज्जवि त्ति कुदो णवदे ? अविरूद्धाइरियवयणादो । अंतरमेगसमओ वि दो समया वि होति उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो। एवं सव्वंतराणं पमाणपरूवणा कायव्वा, एदिस्से अंतरपरूवणाए देसामासियत्तादो । एवमंतरं* काऊण अणंतरसमए असंखेज्जगणहीणा जीवा उप्पज्जति । एवमेगदोसमयमादि काऊण ताव गिरंतरं उप्पज्जति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जविभागो त्ति । एवं विदियणकंदयमबलक्खणं काऊण सेसकंदयाणं पि आवलियाए असंखेज्जविभागमेताणं परूवणा कायव्वा । णवरि पढमकंदयपमाणं जहण्णं उक्कस्स पि आवलियाए असंखेज्जविभागो। सेसवक्कमणकंदयाणमंतरकंवयाणं च पमाणं जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो । अंतराणि एगादिसमइयाणि होंतु णाम, तत्थ एगो वा दो वा तिणि वा ति अंतरपमाणपरू वणवलंभादो । ण वक्कमणकंदयमेगसमइयं, तत्थ तदणवलंभादो ति? ण, अंतरम्हि वृत्तएगादिसमयाणं वक्कमणसुत्तस्स अवयवभावेण पत्तिदसणादो । एवमेदेण सुत्तेण वक्कमंतजीवाणं तक्कालंतराणं च परूवणा कदा।
शंका-- 'आवलिके असंख्यातवें भाग' शब्दका अन्तरकाल और उत्पत्तिकाल दोनोंसे सम्बन्ध हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता ?
समाधान-- अविरुद्ध आचार्य वचनसे जाना जाता है
अन्तर एक समय भी होता है, दो समय भी होता है और उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। इस प्रकार सब अन्तरों के प्रमाणका कथन करना चाहिए, क्योंकि, यह अन्तरप्ररूपणा देशामर्षक है। इस प्रकार अन्तर करके अनन्तर समयमें असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार एक और दो समयसे लेकर उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निरन्तर उत्पन्न होते हैं। इस दुसरे काण्डकको उपलक्षण करके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण शेष काण्डकोंकी भी प्ररूपणा करनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि जघन्य और उत्कृष्ट प्रथम काण्डकका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष उपक्रमणकाण्डकों और अन्त रकाण्डकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आबलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
शंका-- अन्तर एक आदि समयवाले होवें क्योंकि, उस विषयमें एक, दो और तीन इस प्रकार अन्तरके प्रमाणकी प्ररूपणा उपलब्ध होती है, उपक्रमण काण्डक एक समयवाला नहीं हो सकता, क्योंकि, इसके विषयमें इस प्रकारकी कोई प्ररूपणा नहीं उपलब्ध होती ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, अन्तरके विषयमें कहे गये एक आदि समयोंकी उत्पत्तिसूत्रके अवयवरूपसे प्रवृत्ति देखी जाती है।
इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी और उनके कालके अन्तरोंकी प्ररूपणा की है।
ता. प्रनो' सव्वंतराणि (ण) परवगा अ. का. प्रत्योः 'मवंतराणि पमाणावगा । इति पाठ।। * अ० का० प्रत्योः 'एदमंतरं इति पाठः । * ता० प्रती एवं विदिय- ' इति पाठः। ० अ० का. प्रत्यो। '- कंदयाणमंतरं कंदयाणं ' इति पाठ)
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५, ६. ५८६ ) बंधणागुयोगद्दारे चूलिया
४७३ __संपहि एदेण सूचिदपमाणसेडीओ भणिस्सामो- पढमसमए वक्कमति जीवा केवडिया ? अणंता । विदियसमए वक्कमति जीवा केवडिया? अणंता । एवं णेयव्वं जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तकालो त्ति । तदो एक्कं वा दो वा समयं आदि कादूण अंतरं होदि जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तकालो त्ति । तदो उवरिमसमए अणंता जीवा वक्कमति । एवमेगसमयमादि कादूण वक्कमंति जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तकालो त्ति । एवं सांतरणिरंतरकमेण वकमाणजीवाणं पमाणं वत्तव्वं जाव वक्कमणकाल चरिमसमओ त्ति । वक्कमणकालपमाण पुण अंतोमहत्तं, तत्तो उरि उप्पत्तिसंभवाभावादो। पमाणपरूवणा गदा ।
___ सेडिपरूवणा दुविहा- अणंतरोणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधा एक्किस्से पुलवियाए एगसरीरे वा पढ मसपए वक्कमति जीवा बहुआ। विदिया समए वक्कमति जे जीवा ते असंखेज्जगणहीणा । तदियसमए जे वक्कमति जीवा ते असंखेज्जगणहीणा । एवं आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपढमकंदयचरिमसमओ त्ति । तदो आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तमंतरं होदि । तदो विदियकंदयआदिसमए वक्कमति जीवा* पढमकंदयचरिमसमए वक्कमदिजीवेहितोल असंखेज्जगुणहीणा । एवं णिरंतरं णेयव्वं जाव विदियिकंदयचरिमसमओ त्ति । एवमावलियाए असंखेज्ज
___ अब इसके द्वारा सूचित होनेवाली प्रमाणश्रेणियोंका कथन करेंगे-- प्रथम समयम उत्पन्न होनेवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। दूसरे समयमें उत्पन्न होनेवाले जीव कितने हैं? अनन्त हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे आवलिके असंख्यातवेंभागप्रमाण काल तक ले जाना चाहिए। उसके बाद एक या दो समयसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण
ल तक अन्तर होता है। उसके अगले समयमें अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार एक समयसे लेकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक जीव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सान्तर-निरन्तर क्रमसे उत्कृष्ट कालके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रमाण कहना चाहिए। तथा उपक्रमणकालका प्रमाण अन्तर्मुहुर्त है, क्योंकि, उसके आगे उत्पत्ति सम्भव नहीं है । इस प्रकार प्रमाण प्ररूपणा समाप्त हुई।
श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारकी है- अनंतरोपनिधा और परंपरोपनिधा। उनमेंसे अनंतरोपनिधा की अपेक्षा एक पुलविमें या एक शरीरमें प्रथम समय में बहुत जीव उत्पन्न होते हैं। दूसरे समयम जो जीव उत्पन्न होते हैं वे असंख्यातगुणे हीन होते हैं। तीसरे समय में जो जीव उत्पन्न होते हैं वे असंख्यातगुणहीन होते हैं। इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रथम कांडकके अन्तिम समय तक जानना चाहिए। उसके बाद आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका अंतर होता है। उसके बाद दूसरे कांडकके प्रथम समयमें जो जीव उत्पन्न होते हैं वे प्रथम कांडकके अंतिम समयमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंसे असंख्यातगणे हीन होते हैं। इस प्रकार दूसरे कांडकके अंतिम समय तक निरन्तर क्रमसे ले जाना चाहिए। इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण
8 अ० का०प्रत्यो: ' वक्कमणं जीवाण इति पाठः । ता० प्रती 'जावुक्कस्सकाल-इति पाठ।
* ता० प्रती 'जीवा असंखेज्जगुणहीगा' इति पाठः । * ता० प्रतो 'वक्कमति ( त ) जीवा' इति पाठ 18 ता० प्रती 'वक्कमदि (मंत) जीवेहिती ' अ. का. प्रत्यो 'वक्कमिदिजीवेहितो' इति पाठ ।
.
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हमखंडागमे वग्वणा - खंड
( ५, ६,५८७
दिभागमेत्तवक्कमणकंडयाणमणंतरोवणिधा वत्तव्वा । भागहारो सव्वत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो वक्कमंतजीक्वमाजुप्पाघणे होदि । परंपरोवणिधा णत्थि । कुबो ? समयं पडि असंखेज्जगुणहीनाए सेडीए जीवाणं वक्कमणुवलंभादो । अप्पाबहुअं दुविहं-- अद्धाअध्याबहुअं चेव जीवअप्पाबहुअं चेव ॥ ५८७ ॥
एवमप्पा बहुअं दुविहं चेव होदि, तदियादीणमसंभवादो ।
अद्धाअप्पा बहुए त्ति सव्वत्थोवो सांतरसमए वक्कमणकालो ॥ ५८८ ॥
४७४ )
को सांतरसमए वक्वणमकालो* णाम | पढमवक्कमणकंडयकालं मोतृण विदियादिवक्कमणकंडयाणं सयलकालकलावो ।
निरंतरसमए वक्कमणकालो असंखेज्जगुणो ॥ ५८९ ॥
को निरंतरसमए वक्कमणकालो ? पडमवक्कमण कंडयद्धाणं, तत्थंतराभावादो । को गुण ०? आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
उपक्रमण काण्डकों की अनन्तरोपनिधा कहनी चाहिए। सर्वत्र उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रमाण उत्पन्न करने के लिए भागहार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । परंपरोपनिधा नहीं है, क्योंकि, प्रत्येक समय में असंख्यातगुणे हीन श्रेणिरूपसे जीवोंकी उत्पत्ति उपलब्ध होती है ।
अल्पबहुत्व दो प्रकारका है- अद्धाअल्पबहुत्व और जीव अल्पबहुत्व । ५७८ । इस प्रकार अल्पबहुत्व दो प्रकारका ही होता है, क्योंकि, तृतीय आदिका अभाव है । अद्धा अल्पबहुत्वकी अपेक्षा सांतर समय में उपक्रमणकाल सबसे स्तोक है । ५८८ | शंका -- सान्तर समय में उपक्रमणकाल किसे कहते हैं ?
समाधान -- प्रथम उपक्रमण काण्डकके कालको छोडकर द्वितीय आदि उपक्रमणकाण्डकोंके समस्त कालकलापको सान्तर समय में उपक्रमणकाल कहते हैं ।
निरन्तर समयमें उपक्रमणकाल असंख्यातगुणा है । ५८९ । शंका -- निरन्तर समय में उपक्रमण काल किसे कहते हैं ?
समाधान -- प्रथम उपक्रमण काण्डकके कालको निरन्तर समय में उपक्रमणकाल कहते हें क्योंकि, वहां पर अन्तरका अभाव है ।
गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है ।
अ० का० प्रत्योः इति पाठ: ।
इति पाठ ।
-
अस्थि ' इति पाठ! |
प्रतिष्
ॐ अ० का० पत्योः सांतरसमयवक्कमणकालो बक्कमणकालो णाम ? पढमवक्कम कालो णाम
·
परमवक्कमण
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बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ४७५ सांतरणिरंतरसमए वक्कमणकालो विसेसाहिओ ॥ ५९० ॥
केत्तियमेत्तेण ? बिदियादिवक्कमणकंदयकालमत्तेण । एदेण सुत्तेण सूचिदविसेसप्पाबहुअं वत्तइस्सामो ।
सव्वत्थोवो सांतरसमयवक्कमणकालविसेसो ॥ ५९१ ॥
उक्कस्ससांतर उवक्कमणकालम्मि जहण्णसांतर उवक्कमणकाले सोहिदे जो सुद्धसेसो सो सांतरसमयवक्कमणकालविसेसो णाम । सो थोवो होदि ।
णिरंतरसमयवक्कमणकालविसेसो असंखेज्जगणो । ५९२ ॥
पढमतणवक्कमणकंदयं जिरंतरसमयवक्क्रमणकालो णाम । सो जहण्णो वि अस्थि उक्कस्सो वि। जहण्णकाले उक्कस्सकालादो* सोहिदे जिरंतरसमयवक्कमणकालविसेसो होदि । सो पुविल्लविसेसादो असंखेज्जगणो। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जविभागो।
सांतरणिरंतरवक्कमणकालविसेसो विसेसाहिओ ॥ ५९३ ॥
केत्तियमेत्तेण? सांतरवक्कमणकालविसेसमेतेण । बिदियादिवक्कमणकंदयाणमुक्कस्सकालम्मि समुदिदम्मि तेसि चेव जहग्णकालसमूहे सोहिदे सुद्धसेसो वक्कमण
सान्त रनिरन्तर समयमें उपक्रमणकाल विशेष अधिक है ॥ ५९० ॥
कितना अधिक है ? द्वितीय आदि उपक्रमण काण्डकोंका जितना काल है उतना अधिक है । अब इस सूत्र द्वारा सूचित होनेवाले विशेष अल्पबहुत्वको बतलाते हैं--
सान्तर समयमें उपक्रमण कालविशेष सबसे स्तोक है । ५९१ ।
उत्कृष्ट सान्तर उपक्रमण कालमेंसे जघन्य सान्तर उपक्रमण कालको कम कर देने पर जो शेष रहता है उसे सान्तर समय सम्बन्धी उपक्रमण कालविशेष कहते हैं। वह स्तोक है।
निरन्तर समयमें उपक्रमण कालविशेष असंख्यातगुणा है । ५९२ ।
प्रथमतन उपक्रमणकाण्डकका नाम निरन्तर समय उमक्रमण काल है। वह जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। उत्कृष्ट कालमेंसे जघन्य कालके कम करने पर निरन्तर समय उपक्रमणकाल विशेष होता है। वह पहलेके विशेषसे असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
सांतर-निरन्तर उपक्रमण कालविशेष विशेष अधिक है। ५९३ ।
कितना अधिक है ? सान्तय उपक्रमण कालविशेषका जितना प्रमाण हैं उतना अधिक है। द्वितीय आदि उपक्रमण काण्डकोंके समुदित उत्कृष्ट काल में से जघन्य काल समहके कम कर देने
४ ता० का. प्रत्योः 'णिरंतरवक्कमण-' इति पाठः ।
* अ. का. प्रत्यो 'जहाणेव उक्करमकालादो' इति पाठः)
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४७६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ५९४ कालविसेसो णाम । तत्तियमेत्तेण अहियमिति भणिदं होदि ।
जहण्णपदेण सम्वत्थोवो सांतरवक्कमण सवजहण्ण कालो ॥५९४॥
बिदियादिवक्कमणकंडयाणमावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणं सवजहण्णकालकलावो सांतरवक्कमणजहण्णकालो णाम । सो थोवो ।
उक्कस्सपदेण उक्कस्सओ सांतरसमयवक्कमणकालो विसेसाहिओ ॥ ५९५ ॥
बिदियाधिवक्कमणकंडयाणमावलियाए असंखेज्जविभागमेत्ताणं उक्कस्सकालकलावो उक्कस्सगो सांतरवक्कमणकालो णाम । सो वितेसाहिओ। केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तेण ।
जहण्णपदेण जहण्णगो णिरंतरवक्कमणकालो असंखेज्जगुणो ॥ ५९६ ।।
पढमवक्कमणकंडयकालो जहण्णओ वि अस्थि उक्कस्सओ वि अस्थि । तत्थ जो जहण्णओ णिरंतरवक्कमणकालो सो असंखेज्जगणो । को गुणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिभागो।
पर जो शेष रहता है वह उपक्रमण कालविशेष है । उतना अधिक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
जघन्य पदकी अपेक्षा सांतर उपक्रमण सबसें जघन्य काल सबसे स्तोक है ।५९४।
___ आवलिके असंख्यातवें भाप्रमाण द्वितीय आदि उपक्रमण काण्डकों के सबसे जघन्य कालकलापकी सान्तर उपक्रमण जघन्य काल संज्ञा है। वह स्तोक है। उष्कृष्ट पदको अपेक्षा उत्कृष्ट सांतर समय उपक्रमणकाल विशेष अधिक है।५९५।
आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्वितीय आदि उपक्रमण काण्डकोंके उत्कृष्ट कालकलापकी उत्कृष्ट सान्तर उपक्रमण काल संज्ञा है। वह विशेष अधिक है। कितना अधिक है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक है।
जघन्य पदकी अपेक्षा जघन्य निरन्तर उपक्रमण काल असंख्यातगुणा है ।५९६।
प्रथम उपक्रमण काण्डक काल जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी हैं। उसमें जो जघन्य निरन्तर उपक्रमण काल है वह असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
8 ता. प्रतौ ' सांतर ( समय ) वक्कमण-' इति पाठः ।
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५, ६, ६०० )
बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया.
( ४७७
उक्कस्सपदेण उक्कस्सओ णिरंतरवक्कमणकालो विसेसाहिओ । ५९७।
केत्तियमेत्तेण? आवलियाए असंखेज्जविभागमेतेण ।
जहण्णपदेणसांतरणिरंतरवक्कमणसवजहण्णकालो विसेसाहिओ । ५९८।
केत्तियमेतेण? णिरंतरवक्कमणकालविसेसेण परिहीणजहण्णसांतरवक्कमणकालमत्तेण । सो पुण आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तो विसेसो होदि।
उक्कस्सपर्वण सांतरणिरंतरवक्कमणकालो विसेसाहिओ ।५९९।
केत्तियमेत्तेण ? जहण्णवक्कमणकाले उक्कस्सवक्कमणकाल म्मि सोहिदे सुद्धसेसमेत्तेण ।
सम्वत्थोवो सांतरवक्कमणकालविसेसो ॥६०० ।। बिदयकंडयप्पहुडि जाव आवलियाए अखेसंज्जविभागमेत्तवक्कमणकंडयाणं कालकलावो सांतरवक्कमणकालो णाम । सो जहण्णओ वि अत्थि उक्कस्सओ वि अत्थि। तत्थ जदण्णे उक्कस्सादो सोहिदे सुद्धसेसो सांतरवक्कमणकालविसेसो णाम। सो थोवो।
उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा निरन्तर उपक्रमण काल विशेष अधिक है। ५९७ । । कितना अधिक है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक है।
जघन्य पदकी अपेक्षा सान्तर-निरन्तर उपक्रमण सबसे जघन्य काल विशेष अधिक है ॥ ५९८ ॥
कितना अधिक है ? निरन्तर उपक्रमण काल विशेषसे हीन जघन्य सान्तर उपक्रमण कालका जितना प्रमाण है उतना अधिक है। और वह विशेष आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा सान्तर निरन्तर उपक्रमणकाल विशेष अधिक है। ५९९ ।
कितना अधिक है। उत्कृष्ट उपक्रमणकालमेंसे जघन्य उपक्रमणकालके कम करने पर जो शेष रहे उतना अधिक है।
सान्तर उपक्रमणकालविशेष सबसे स्तोक है । ६०० ।
द्वितीय काण्डकसे लेकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण उपक्रमण काण्डकोंके कालकलापको सान्तर उपक्रमण काल कहते हैं। वह जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। वहाँ उत्कृष्ट में से जघन्यको कम करने पर जो शेष रहे वह सान्तर उपक्रमण कालविशेष कहलाता है। वह स्तोक है।
* अ० का० प्रत्योः 'जहण्णपदेण ' इति पाठो नास्ति। * अ० प्रती · जहण्णेण ' इति पाठ: 1
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.४७८)
छपखंडागमे बग्वणा-खंड
( ५, ६, ६०१
..... णिरंतरवक्कमणकालविसेसो असंखेज्जगुणो ॥ ६०१ ।।
पढमवक्कमणकंदयजहणकाले तस्सेव उक्कस्सकालम्हि सोहिदे सेसो णिरंतर. वक्कमणकालविसेसो णाम । सो असंखेज्जगणो । को गुणगारो? आवलियाए असं - खेज्जदिभागो । . .
सांतरणिरंतरवक्कमणकालविसेसो विसेसाहिओ ।। ६०२ ॥ केत्तियमेत्तेण ? सांतरवक्कमणकालविसेसमेत्तेण । जहण्णपदेण सांतरसमयवक्कमणकालो असंखेज्जगुणो। ६०३ । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । उक्कस्सपदेण सांतरसमयवक्कमणकालो विसेसाहिओ । ६०४ । केत्तियमेत्तेण ? सांतरवक्कमणकालविसेसमेत्तेण । जहण्णपदेण णिरंतरसमयवक्कमणकालो असंखेज्जगुणो ।६०५। को गुणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । उक्कस्सपदेण* णिरंतरसमयवक्कमणकालो विसेसाहिओ।६०६। केत्तियमेत्तेण ? णिरंतरवक्कमणकालविसेसमेतण ।
निरन्तर उपक्रमण कालविशेष असंख्यातगुणा हैं ।। ६०१ ।।
प्रथम उपक्रमण काण्डकके जघन्य कालको उसीके उत्कृष्ट कालमें से घटा देने पर जो शेष रहे वह निरन्तर उपक्रमण काल विशेष कहलाता है। वह असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है ।
सांतर-निरन्तर उपक्रमण कालविशेष विशेष अधिक है। ६०२ ।। कितना अधिक है ? सान्तर उपक्रमण कालविशेषका जितना प्रमाण है उतना अधिक है। जघन्य पदकी अपेक्षा सान्तर समय उपक्रमणकाल असंख्यातगणा है । ६०३ ' गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा सान्तर समय उपक्रमण काल विशेष अधिक है ।६०४। कितना अधिक है ? सांतर उपक्रमण कालविशेषका जितना प्रमाण है उतना अधिक है। जघन्य पदकी अपेक्षा निरन्तर समय उपक्रमण काल असंख्यातगणा है।६०५। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा निरन्तर समय उपक्रमण काल विशेष अधिक है।६०६॥ कितना अधिक है ? निरन्तर उपक्रमण कालविशेषका जितना प्रमाण है उतना अधिक है।
* अ० प्रती 'उक्करमपदे ' इति पाठः ।
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५, ६, ६११ )
बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ४७९
जहण्णपदेण सांतरणिरंतरवक्कमणकालो विसेसाहिओ ॥६०७॥ सुगम । उक्कस्सपदेण सांतरणिरंतरवक्कमणकालो विसेसाहिओ ।६०८५ एवं पि सुगमं । उक्कस्सयं वक्कमणंतरमसंखेज्जगुणं ।। ६०९॥
एगपुलवियाए सरीरे वा उप्पज्जमाणजीवाणं आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तंतरकंडएसु जमक्कस्सं वक्कमणंतरं तमसंखेज्जगणं । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
अवक्कमणकालविसेसो असंखेज्जगुणो ॥ ६१० ॥
को अवक्कमणकालो ? अंतरं । आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तजहण्णंतरकंडएसु उक्कस्संतरकंडएहितो सोहिदेसु सुद्धसेसवक्कमणंतरविसेसो । तमावलियाए असंखेज्जदिभागगुणं त्ति भणिदं होदि ।
पबंधणकालविसेसो विसेसाहिओ ।। ६११ ॥
जघन्य पदकी अपेक्षा सान्तर-निरन्तर उपक्रमण काल विशेष अधिक है । ६०७ ।
___ यह सूत्र सुगम है। उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा सान्तर निरन्तर उपक्रमण काल विशेष अधिक है। ६०८ ।
यह सूत्र भी सुगम है। उत्कृष्ट उपक्रमण अंतर असंख्यातगुणा है । ६०९ ।
एक पुलवि या एक शरीर में उत्पन्न होनेवाले जीवोंके जो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरकाण्डक होते हैं उनमें जो उत्कृष्ट उत्पन्न होनेका अन्तर है वह असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। अप्रक्रमण कालविशेष असंख्यातगुणा है । ६१० ।
शंका-- अप्रक्रमणकाल किसे कहते हैं ? समाधान-- अन्तरको अप्रक्रमणकाल कहते है।
आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जघन्य अन्तर काण्डकोंको उत्कृष्ट अन्तर काण्डकोंमेंसे घटा देनेपर शेष अप्रक्रमण अन्तर विशेष होता है। वह आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
प्रबन्धनकालविशेष विशेष अधिक है। ६११ ।
अ० प्रती ' असंखे० भागमेत्तकालाणं जहण्णत रकंदएसु ' इति पाठः ।
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४८०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंच
( ५, ६, ६१२ वक्कमणादक्कमणकालाणं समासो पबंधणकालो णाम। सो जहण्णओ वि अस्थि उक्कस्सओ वि अस्थि । तत्थ जहण्णो उक्कस्सादो सोहिदे पबंधणकालविसेसो होदि । सो विसेसाहियाओ । केत्तियमेत्तण ? जहण्णवक्कमणकाले उक्कस्सवक्कमणकालम्मि सोहिदे सुद्धसेसमेत्तेण । आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तेण ति भणिदं होदि ।
जहण्णपदेण जहण्णओ अवक्कमणकालो असंखेज्जगुणो ।६१२। को गुणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।
जहण्णपदेण जहण्णओ पबंधणकालो विसेसाहिओ ॥ ६१३ ॥ केत्तियमेत्तेण? जहण्णवक्कमणकालमत्तेण ।
उक्कस्सपदेण उक्कस्सओ अवक्कमणकालो विसेसाहिओ।६१४। केत्तियमेत्तो विसेसो ? जहण्णवक्कमणकालेणूणअवक्कमणकालवितेसमेत्तो ।
उक्कस्सपदेण उक्कस्सओ पबंधणकालो विसेसाहिओ ।६१५। केत्तियमेत्तेण ? उक्करसवक्कमणकालमत्तेण ।
एवं कालअप्पाबहुअं समत्तं ।
प्रक्रमण और अप्रक्रमण कालोंका समुदाय प्रबन्धन काल है। वह जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। वहाँ उत्कृष्टमें से जघन्यको कमकर देनेपर प्रबन्धनकालविशेष होता है। वह विशेष अधिक है। कितना अधिक है? उत्कृष्ट प्रक्रमण कालमेंसे जघन्य प्रक्रमणकालको घटा देनेपर जो शेष रहे उतना अधिक है। वह आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
जघन्य पदकी अपेक्षा जघन्य अप्रक्रमण काल असंख्यातगुणा है ।। ६१२ ।।
गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । जघन्य पदको अपेक्षा जघन्य प्रबन्धनकाल विशेष अधिक है ।। ६१३ ॥
कितना अधिक है ? जघन्य प्रक्रमणकालका जितना प्रमाण है उतना अधिक है। उत्कृष्ट पदको अपेक्षा उत्कृष्ट अप्रमणकाल विशेष अधिक है ।। ६१४ ।।
विशेषका प्रमाण कितना है ? जघन्य उपक्रमकालसे न्यून अप्रक्रमणकाल विशेषका जितना प्रमाण है उतना विशेष का प्रमाण है।
उत्कृष्ट पदको अपेक्षा उत्कृष्ट प्रबन्धनकाल विशेष अधिक है ।। ६१५ ॥ कितना अधिक है ? उत्कृष्ट प्रक्रमणकालका जितना प्रमाण है उतना अधिक है।
सइप्रकार काल अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
४ ता० प्रती — उक्कस्सपबंधणकालो ' इति पाठः ।
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( ४८१
५, ६, ६२१ )
बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया जीवअप्पाबहुए त्ति ॥ ६१६ ॥ __जं जीवअप्पाबहुअं भणिदं तमेगकंडयं जाणाकंडयाणि च अस्सिऊण वत्तइस्सामो। तत्थ ताव एगकंडयमस्सिऊण वुच्चदे--
सम्वत्थोवा चरिमसमए वक्कमति जीवा ।।६१७॥
पढमकंडयस्स चरिमसमए जे उप्पज्जमाणा जीवा ते अणंता होदूण थोवा होंति, असंखेज्जगणहीणकमेण पढमसमयप्पहुडि णिरंतरमुप्पत्तीदो।
अपढम-अचरिमसमएस वक्कमति जीवा असंखेज्जगुणा [६१८॥
पढमकंडयस्स पढम-चरिमसमएसु उप्पण्णजीवे मोत्तण सेसमज्झिमसमएसु वक्कमिदजीवा अपढम-अचरिमसमएसु वक्क मिदजीवा होंति । ते असंखेज्जगुणा । को गणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ।
अपढमसमए वक्कमति जीवा विसेसाहिया ॥६१९।। केत्तियमेत्तेण ? पढमकंडयस्स चरिमसमए वक्कमिदजीवमेत्तेण । पढमसमए वक्कमंति जीवा असंखेज्जगुणा ॥६२०।। को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जविभागो । अचरिमसमएम वक्कमति जीवा विसेसाहिया ॥६२१॥
जीव अल्पबहुत्वका प्रकरण है ॥६१६।।
जो जीव अल्पबहुत्व कहा है उसे एककाण्डक और नाना काण्डकोंका आश्रय लेकर बतलावें गे। उनमेंसे पहले एक काण्डकका आश्रय लेकर कहते हैं
अन्तिम समयमें उत्पन्न होनेवाले जीव सबसे थोडे है ।।६१७ ॥
प्रथम काण्डकके अन्तिम समयमें जो उत्पन्न हुए जीव हैं वे अनन्त होकर भी स्तोक हैं, क्योंकि, प्रथम समयसे लेकर वे निरन्तर असंख्यातगुणे हीन क्रमसे उत्पन्न होते हैं।
अप्रथम-अचरम समयोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगणे हैं ॥६१८॥
प्रथम काण्डकके प्रथम समय और अन्तिम समयमें उत्पन्न जीवोंको छोड कर शेष बीचके समयोंमें उत्पन्न हुए जीव अप्रथम-अचरम समयों में उत्पन्न हुए जीव होते हैं। वे असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
अप्रथम समयमें उत्पन्न होनेवाले जीव विशेष अधिक हैं ॥६१९॥
कितने अधिक हैं ? प्रथम काण्डकके अन्तिम समयमें उत्पन्न हुए जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं।
प्रथम समयमें उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगणे हैं ॥६२०॥
गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। अचरम समयोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव विशेष अधिक हैं ।।६२१॥
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४८२ ) उपखंडागमे वग्गणा-खं
( ५, ६, ६२२ केत्तियमेत्तेण ? अपढम-अचरिमसमएस वक्कमिदजीवमेतेण । सव्वेस समएस वक्कमति जीवा विसेसाहिया ॥ ६२२ ॥
केत्तियमेत्तेण ? चरिमसमए वक्कमिदजीवमेत्तेण । एवं पढमकंडयजीवअप्पाबहुअं परूविदं । जहा पढमकंडयस्स एवं जीवअप्पाबहुअं परूविदं तहा सेससव्वकंडयाणं पि परवेदव्वं, विसेसाभावादो। संपहि णाणाकंडयजीवअप्पाबहुअं वत्तइस्सामो । तं जहा---
सव्वत्थोवा चरिमसमए वक्कमंति जीवा ॥ ६२३ ॥
आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तसांतरवक्कमणकंडयाणं चरिमकंडयचरिमसमए वक्कमिदजीवा थोवा ।
अपढम-अचरिमसमएस वक्कमंति जीवा असंखेज्जगुणा ।६२४॥
पढमकंडयपढमसमए चरिमकंडयारमसमए वक्कमिदजीवे मोत्तण सेसआवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तकंडयाणं जीवा अपढम-अचरिमसमएसु वक्ता णाम । ते असंखेज्जगणा। को गणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो।
अपढमसमए वक्कमंति जीवा विसेसाहिया ॥ ६२५ ॥
कितने अधिक हैं ? अप्रथम-अचरम समयोंमें उत्पन्न हुए जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं।
सब समयोंमें उत्पन्न होनेवाले जीव विशेष अधिक हैं ॥ ६२२ ॥
कितने अधिक हैं ? अन्तिम समयमें उत्पन्न हुए जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं। इस प्रकार प्रथम काण्डकसम्बन्धी जीव अल्पबहुत्वका कथन किया। जिस प्रकार प्रथमकांडकका यह जीव अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार शेष सब कांडकोंके जीव अल्पबहत्वोंका भी कथन करना चाहिए। अब नाना कांडकसंबंधी जीव अल्पबहुत्वको बतलावेंगे । यथा--
अन्तिम समयमें उत्पन्न होनेवाले जीव सबसे थोडे हैं ।। ६२३ ।।
सान्तर उपक्रमणकाण्डक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। उनके अन्तिम काण्डकके अन्तिम समयमें उत्पन्न हुए जीव थोडे हैं ।
अप्रथम-अचरम समयमें उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं ।। ६२४ ।।
प्रथम काण्डकके प्रथम समयमें और अन्तिम काण्डकके अन्तिम समयमें उत्पन्न हुए जीवोंको छोडकर शेष आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काण्डकोंके जीव अप्रथम-अचरमसमयों में उत्पन्न होनेवाले कहलाते हैं। वे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है ।
अप्रथम समयमें उत्पन्न होनेवाले जीव विशेष अधिक हैं ।। ६२५ ॥
४ अ० प्रती 'जीवा ' इति स्थाने ' जीवा विसेसाहिया' इति पाठः ।
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५, ६, ६२९ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ४८३ केत्तियमेत्तेण चरिमकंडयचरिमसमए वक्कमिदजीवमेतेण । पढमसमए वक्कमति जीवा असंखेज्जगुणा ।। ६२६ ॥ को गणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिभागो।
अचरिमसमएस वक्कमंति जीवा विसेसाहिया ॥ ६२७ ॥ केत्तियमेत्तेण ? अपढम-अचरिमसमएसु वक्कमिदजीवमेत्तेण ।
सम्वेसु समएस वक्कमिदजीवा विसेसाहिया ॥ ६२८ ।। केत्तियमेत्तेण ? चरिमसमए वक्कमिदजीवमेत्तेण ।
एवं जीवअप्पाबहुअं समत्तं । सम्वो बादरणिगोदो पज्जत्तो वा वामिस्सो वा ॥ ६२९ ।।
खधंडरावासपुलवियाओ अस्सिदूण एवं सुत्तं परूविदं ण सरीरं, एगम्मि सरीरे पज्जत्तापज्जत्तजीवाणमवढाणविरोहादो । किमट्टमिदं सुत्तमागदं ? खंधंडरावासपुलवियासु कि बादर-सुहमणिगोदजीवा सुद्धा पज्जत्ता चेव होंति आहो अपज्जत्ता चेव कि वामिस्सा ति पुच्छिदे एवं होति त्ति जाणावगळं इदं सुत्तमागदं । सव्वो बादरणिगोदो
कितने अधिक हैं ? अन्तिम काण्डकके अन्तिम समयमें उत्पन्न हुए जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं।
प्रथम समयमें उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ६२६ ॥ गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। अचरम समयों में उत्पन्न होनेवाले जीव विशेष अधिक हैं ॥ ६२७ ।।
कितने अधिक हैं ? अप्रथम-अचरम समयोंमें उत्पन्न हुए जीवोंका जितना प्रमाण हैं उतने अधिक है।
सब समयोंमें उत्पन्न हुए जीव विशेष अधिक हैं ॥ ६२८ ॥
कितने अधिक हैं ? अन्तिम समयमें उत्पन्न हुए जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं।
इस प्रकार जीव अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। सब बादर निगोद पर्याप्त है या मिश्ररूप है । ६२९ ॥
स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियों का आश्रय लेकर यह सूत्र कहा गया है, शरीरोंका आश्रय लेकर नहीं कहा गया है, क्योंकि, एक शरीरमें पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अवस्थान होने में विरोध है ।
शंका-- यह सूत्र किसलिए आया है ?
समाधान-- स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियोंमें क्या बादर और सूक्ष्म निगोद जीव केवल पर्याप्त ही होते हैं या अपर्याप्त ही होते हैं या क्या मिश्र होते हैं ऐसा पूछनेपर इस प्रकार होते हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए यह सूत्र आया है।
४ अ० प्रती ' पढमए' इति पाठः ।
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४८४ ) छपखंडागमे वग्गणा-खं
( ५, ६, ६३० पज्जत्तो वा होदि । कुदो ? बादरणिगोदपज्जतेहि सह खंधंडरावासपुलवियासु उप्पण्णबादरणिगोदअणंतापज्जत्तएसु अंतोमहत्तेण कालेण णिस्सेसं मदेसु सुद्धाणं बादरणिगोदपज्जत्ताणं चेव तत्थावट्ठाणदंसणादो। किमढमपज्जत्ताणं पुव्वं चेव सवेसि मरणं होदि। पज्जत्ताउआदो अपज्जत्ताउअस्स थोवत्तवलंभादो अपुवाणं बादरणिगोवाणं उप्पत्तीए विणटजोगत्तादो च । एत्तो हेढा पुण बादरणिगोदो वामिस्सो होदि, खंधंडरावासपुलवियासु बादरणिगोदपज्जतापज्जत्ताणं अणंताणं सहावट्ठाणदंसणादो।
सुहमणिगोदवग्गणाए पुण णियमा वामिस्सो* ।। ६३० ।। सुहमणिगोदवग्गणाए पज्जत्तापज्जत्ता च जण सत्वकालं संभवंति तेण सा णियमा पज्जत्तापज्जत्तजीवेहि वामिस्सा होदि । किमळं सव्वकालं संभवंति ? सुहमणिगोद. पज्जत्तापज्जत्ताणं वक्कमणपदेस-कालणियमाभावादो । एत्थ पदेसे एत्तियं चेव कालमुप्पत्ती परदो ण उप्पज्जति त्ति जेण णियमो स्थि* तेण सा सव्वकाले वामिस्सा त्ति भणिदं होदि। 'वक्कमदि जत्थ एयो वक्कमणं तत्थणंताणं' एदस्स गाहापच्छि
सब बादर निगोद जीव पर्याप्त होते हैं, क्योंकि, बादर निगोद पर्याप्तकोंके साथ स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियों में उत्पन्न हुए अनन्त बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर सबके मर जानेपर वहाँ केवल बादर निगोद पर्याप्तकोंका ही अवस्थान देखा जाता है।
शंका--- सब अपर्याप्तकोंका पहले ही मरण क्यों होता है ?
समाधान-- क्योंकि, पर्याप्तकोंकी आयुसे अपर्याप्तकोंकी आयु स्तोक उपलब्ध होती है और अपूर्व बादर निगोदोंकी उत्पत्तिके कारणभूत योगका नाश हो जाता है ।
परन्तु इससे पूर्व बादर निगोद व्यामिश्र होता है, क्योंकि, स्कंध, अण्डर, आवास और पुलवियोंमें अनंत बादर निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका एक साथ अवस्थान देखा जाता है।
परन्तु सूक्ष्मनिगोदवर्गणामें नियमसे मिश्ररूप है ।। ६३० ।।
यतः सूक्ष्मनिगोदवर्गणामें पर्याप्त और अपर्याप्त जीव सर्वदा सम्भव हैं, इसलिए वह नियमसे पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंसे मिश्ररूप होती है।
शंका-- उसमें सर्वकाल किसलिए सम्भव है ?
समाधान-- क्योंकि, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंकी उत्पत्ति के प्रदेश और कालका कोई नियम नहीं है। इस प्रदेशमें इतनी ही कालतक उत्पत्ति होती है आगे उत्पत्ति नहीं होती इस प्रकारका चूंकि नियम नहीं है इसलिए वह सूक्ष्मनिगोदवर्गणा सर्वदा मिश्ररूप होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
इस प्रकार वक्कमदि ‘जत्थ एयो वक्कमणं तत्थणंताणं' गाथा के इस पश्चिमार्धके अर्थका कथन
ब ता० प्रती '-पज्जतापज्जत्ताणं (पज्जताणं) अणंजाणं' अ. का. प्रत्यो। । पज्जत्ताज्जत्ताणं
पज्जत्ताणं ' इति पाठ ।* ता० प्रतौ 'वामिस्सा' इति पाठः । *अ०का प्रत्योः ' अस्थि इति पाठः।
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५, ६, ६३१ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ४८५ मस्स अत्थपरूघणा समत्ता। 'जत्थेय मरदि जीवो तत्थ दु मरणं भवे अणताणं' एस्स गाहापढमद्धस्स अस्थपरूवणटुमत्तरसुत्तं भणदि --
जो णिगोदो जहण्णएण वक्कमणकालेण वक्कमंतो जहण्णएण पबंधणकालेण पबद्धो तेसिं बादरणिगोवाणं तहा पबद्धागं मरणक्कमेण णिग्गमो होदि ॥ ६३१ ।।
बादरणिगोदाणं वक्कमणकालो उत्पत्तिकालो जहण्णओ वि अस्थि उक्कस्सओ वि अस्थि । तत्थ जो णिगोदो जहण्णण उप्पत्तिकालेण उप्पज्जमाणो तस्स पबंधणकालो जहण्णओ वि अस्थि उक्कस्सओ वि अत्थि । तत्थ जहण्णएण पबंधणकालेण जो पबद्धो। जो णिगोदो जहण्णेण बक्कमणकालेण वक्कममाणो जहण्णण पबंधणकालेण पबद्धो तस्स मरणक्कम परूवेमि त्ति भणिदं होदि । अणंताणं णिगोदाणं कथमेगवयणेण णिहेसो ? ण, सरीरदुवारेण तेसिमेयत्तमत्थि त्ति एगवयणेण णिद्देसाविरोहादो । को पबंधणकालो णाम? प्रबध्नन्ति एकत्वं गच्छन्ति अस्मिन्निति प्रबन्धनः । प्रबन्धनश्चासौ कालश्च प्रबन्धनकालः । तेण पबंधणकालेण पबद्धाणं बादरणिगोदाणं मरणक्कमेण णिग्गमो होदि । केरिसाणं बावरणिगोवाणं ति भणिदे 'तहा
-
किया। अब इसी गाथाके ' जत्थेव मरदि जीवो तत्थ दु मरणं भवे अणंताणं ' इस पूर्वार्धके अर्थका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
___ जो निगोद जघन्य उत्पत्तिकालके द्वारा उत्पन्न होकर जघन्य प्रबन्धनकाल के द्वारा बन्धको प्राप्त हुआ है उन बादर निगोदोंका उस प्रकारसे बन्ध होनेपर मरणके क्रमानुसार निर्गम होता है । ६३१ ।
बादर निगोदोंका प्रक्रमणकाल अर्थात् उत्पत्तिकाल जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। वहाँ जो निगोद जघन्य उत्पत्ति कालके द्वारा उत्पन्न होता है उसका प्रबन्धनकाल जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है । उनमेंसे जघन्य प्रबन्धनकालके द्वारा जो बन्धको प्राप्त हुआ अर्थात जो निगोद जघन्य उत्पत्तिकालके द्वारा उत्पन्न होकर जघन्य प्रबन्धन कालके द्वारा बन्धको प्राप्त होता है उसके मरणके क्रमका कथन करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका- अनन्त निगोदोंका एक वचनके द्वारा निर्देश कैसे किया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, शरीर द्वारा उनका एकत्व है इसलिए एक वचन द्वारा निर्देश करने में विरोध नहीं है।
शंका- प्रबन्धनकाल किसे कहते हैं ?
समाधान- बंधते हैं अर्थात् एकत्वको प्राप्त होते हैं जिसमें उसे प्रबन्धन कहते हैं। तथा प्रबन्धनरूप जो काल वह प्रबन्धनकाल कहलाता है ।
उस प्रबन्धनकालके द्वारा प्रबद्ध हुए बादर निगोदोंका मरणके क्रमसे निर्गम होता है। किस प्रकारके बादर निगोदोंका ऐसा पूछनेपर कहा हैं- 'तहा पबद्धाणं ' अर्थात् उस पहले कहे गये
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४८६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५,६ ६३१
पबद्धाणं' तेण पुवमणिदपयारेण असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए पबद्धाणं समुप्पण्णाणमुष्पत्तिकमेण असंखेज्जगणहीणाए सेडीए णिग्गमो स्थि किंतु मरणक्कमेण णिग्गमो होदि त्ति भणिदं होदि । कत्तो तेसि णिग्गमो ? एगसरीरादो । जहण्णसंचयकालेण संचिदाणं अण्णोण्णाणुगयभावेण जहण्णकालमवदिवाणं मरणक्कमेण णिग्गमो होदि । उप्पत्तिकमेण ण होदि ति किमळं वच्चदे ? ण, एत्थ जहण्णवक्कमणकालेण सचिदागं जहाणपबंधणकालेण पबद्धाणं चेव मरणक्कमेण णिग्गमो होदि ति णियमाभावादो। किंतु जहण्णवक्कमण-जहण्णपबंधणकालवयणं देसामासियं तेण सव्ववक्कमणकालेसु संचिदाणं सव्वपबंधणकालेसु पबद्धाणं उप्पत्तिकमेण णिग्गमो ण होदि। किंतु मरणक्कमेण होदि ति पत्तेयं पत्तेयं परूवणा कायवा । एक्कम्हि सरीरे उप्पज्जमाणबादरणिगोदा किमक्कमेण उप्पज्जति आहो कमेण । जदि अक्कमेण उप्ज्ज्जंति तो अक्कमेणेव मरणेण वि होदव्वं, एक्कम्हि मरते सते असि मरणाभावे साहारणत्तविरोहादो । अह जइ* कमेण असंखेज्जगणहीणाए सेडीए उज्पण्जंति तो मरणं पि जवमज्झगारेण ण होदि, साहारणत्तस्स विणासप्पसंगादो त्ति । एत्थ परिहारो प्रकारके अनुसार असंख्यातगुणी हीन श्रेणिरूपसे बँधे हुए और उत्पन्न हुए निगोदोंका उत्पत्तिके क्रमसे अर्थात् असंख्यातगुणी हीन श्रेणिरूपसे निर्गम नहीं होता किन्तु मरणके क्रमसे निर्गम होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका-- किससे उनका निर्गम होता है ? समाधान-- एक शरीरसे ।
शंका-- जघन्य संचयकाल द्वारा संचयको प्राप्त हुए और परस्पर अनुगतरूपसे जघन्य कालतक अवस्थित हुए जीवोंका मरणके क्रमसे निर्गम होता है, उत्पत्तिके क्रमसे नहीं होता है यह किसलिए कहते हैं ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, यहाँपर जघन्य उत्पत्तिकालके द्वारा संचित हुए और जघन्य प्रबन्धनकालके द्वारा बन्धको प्राप्त हुए जीवोंका ही मरणके क्रमसे निर्गम होता है इस प्रकारका नियम नहीं है। किन्तु जघन्य उत्पत्तिकाल और जघन्य प्रबन्धनकाल वचन देशामर्षक है। इससे सब उत्पत्ति कालोंमें संचित हुए और सब प्रबन्धन कालोंमें बन्धको प्राप्त हुए जीवोंका उत्पत्तिके क्रमसे निर्गम नहीं होता है, किन्तु मरणके क्रमसे निर्गम होता है, इस प्रकार अलग अलग प्ररूपणा करनी चाहिए।
शंका-- एक शरीर में उत्पन्न होने वाले बादर निगोद जीव क्या अक्रमसे उत्पन्न होते हैं या क्रमसे ? यदि अक्रमसे उत्पन्न होते हैं तो अक्रमसे ही मरण होना चाहिए, क्योंकि, एकके मरनेपर दूसरों का मरण न होनेपर उनके साधारण होने में विरोध आता है। और यदि क्रमसे असंख्यातगुणी हीन श्रेणिरूपसे उत्पन्न होते हैं तो मरण भी यवमध्य के आकाररूपसे नहीं हो सकता है, क्योंकि, साधारणपने के विनाशका प्रसंग आता है ?
णिग्गमो होदि ' इति
४ मप्रतिपाठोऽयम् । अ० प्रती - णिग्गमो (ण) होदि ' अ. का. प्रत्योः
पाठ 1 * मप्रतिपाठोयम् । प्रतिष 'अइ जइ' इति पाठः ।
'
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५, ६, ६३२ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ४८७ वुच्चदे- असंखेज्जगणहीणाए सेडीए कमेण वि उप्पज्जति अक्कण वि अणंता जीवा एगसमए उप्पज्जति । ण च साहारणत्तं फिट्टदि ।
साहारणआहारो साहारणआणपाणगहणं च ।
साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥ २२ ।। एदीए गाहाए भणिदलक्खणाणमभावे साणारणत्तविणासादो । तदो एगसरीरुप्पण्णाणं मरणक्कमेण णिग्गमो होदि त्ति एवं पि ण विरुज्झदे । ण च एगसरीरुप्पण्णा सवे समाणाउआ चेव होंति त्ति णियमो अस्थि जेण अक्कमेण तेसि मरणं होज्ज । तम्हा एगसरीरटिदाणं पि मरणजवमज्झं समिलाजवमज्झं च होदि त्ति घेत्तव्वं । संपहि सो मरणक्कम्मो दुविहो जवमझकमेण अजवमझकमेण चेदि । तत्थ जवमज्झकमेण मरणविहाणमवरि भणिस्सदि। अजवमज्झकमेण जो णिग्गमो तप्परूवणळं उत्तरसुत्तं भणदि
__ सन्वुक्कस्सियाए गुणसेडीए मरणेण मवाणं सवचिरेण कालेण जिल्लेविज्जमाणाणं तेसिं चरिमसमए मदावसिट्ठाणं आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तो णिगोदाणं ।। ६३२ ।।
मरणगुणसेडी जहण्णा वि अस्थि उक्कस्सा वि अस्थि । तत्थ जहण्णगणसेडि
समाधाव-- यहां इस शंका का परिहार करते हैं-- असंख्यातगुणी हीन श्रेणिके क्रमसे भी उत्पन्न होते हैं और अक्रमसे भी अनन्त जीव एक समयमें उत्पन्न होते हैं। और साधारणपना भी नष्ट नहीं होता है, क्योंकि--
साधारण आहार और साधारण श्वास-उच्छ्वासका ग्रहण यह साधारण जीवोंका साधारण लक्षण कहा है ।। २२ ॥
इस प्रकार इस गाथा द्वारा कहे गये लक्षणोंके अभावमें ही साधारणपने का विनाश होता है। इसलिए एक शरीरमें उत्पन्न हुए निगोदोंका मरणके क्रमसे निर्गम होता है इस प्रकार यह कथन भी विरोधको नहीं प्राप्त होता। और एक शरीरमें उत्पन्न हुए सब समान आयुवाले ही होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है, जिससे अक्रमसे उनका मरण होवे, इसलिए एक शरीरमें स्थित हुए निगोदोंका मरण यवमध्य और शमिलायवमध्य है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। वह मरण दो प्रकारका है- यवमध्यके क्रमसे और अयवमध्यके क्रमसे। उनमें से यवमध्यके क्रमसे मरणविधिका कथन आगे करेंगे। अयवमध्यके क्रमसे जो निर्गम है उसका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं---
सर्वोत्कृष्ट गुणश्रेणि द्वारा मरणसे मरे हुए तथा सबसे दीर्घ काल द्वारा निर्लेप्यमान होनेवाले उन जीवोंके अन्तिम समयमें मृत होनेसे बचे हुए निगोदोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ ६३२ ।। __ मरणगुणश्रेणि जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। उनमें से जघन्य गुणश्रेणिमरणका
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४८८ )
छाखंडागमे वग्गणा-खं
मरणणिवारणहें सवुक्कस्सियाए गुणसेडीए मरणं तेण मरणेण मदाणं ति भणिदं । पिल्लेवणकालो जहण्णओ वि उक्कस्सओ वि अस्थि । तत्थ जहण्णपिल्लेवणकालणिवारणठे सव्वचिरेण कालेण णिल्लेविज्जमाणाणं ति भणिदं । तेसि चरिमसमए मदावसिट्ठाणं आवलियाए असंखेज्जदिभागो णिगोदाणं ति भणिदे खीणकसायचरिम. समए मदावसिटाणं जीवाणं आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तो णिगोदाणं पुलवियाणं पमाणं होदि त्ति भणिदं होदि । खीणकसायचरिमसमए असंखेज्जविभागमेत्तणिगोदसरीराणि होति । तत्थ एक्केक्कम्हि सरीरे मवावसिद्धजीवा अणंता भवंति । तेसिमाधारभूदपुलवियाओ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेताओ होंति त्ति । एदेण जहण्णबादरणिगोदवग्गणापमाणपरूवणा कदा ।
एत्थ चत्तारि अणयोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति-- परूवणा पमाणं सेडि अप्पाबहुअं चेदि । एदहि चदुहि अणयोगद्दाराणि खीणकसायकालभंतरे बज्झमाण*. थूहल्लयादिसु वा मरंतजीवाणं परूवणा कीरदे । तं जहा- अस्थि खीणकसायपढमसमए मदजीवा। बिदियसमए मदजीवा वि अस्थि । तदियसमए मरणंतजीवा वि अस्थि . एवं णेयव्वं जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति । एवं परूवणा गदा ।
खीणकसायपढमसमए मदजीवा केत्तिया ? अणंता। बिदियसमए मदजीवा केत्तिया? अणंता । तदियसमए मदजीवा केत्तिया ? अणंता । एवं णेयव्वं जाव खीण
निवारण करने के लिए सर्वोत्कृष्ट गुणश्रेणि द्वारा जो मरण है उस मरणसे मरे हुए जीवोंका ऐसा कहा है। निर्लेपनकाल जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है । उनमें से जघन्य निर्लेपनकालका निवारण करने के लिए सबसे दीर्घ काल के द्वारा निर्लेप्यमान हुए जीवोंका ऐसा कहा है । ' तेसिं चरिमसमए मदावसिट्टाणं आवलियाए असंखे० भागो णिगोदाणं' ऐसा कहने पर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें मरने के बाद बचे हुए जीवोंमें निगोद अर्थात् पुलवियों का प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। क्षीणकषायके अन्तिम समयमें असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीर होते हैं । वहाँ एक एक शरीरमें मरने के बाद बचे हुए जीव अनन्त होते हैं। तथा उनकी आधारभूत पुलवियां आवलिके असंख्यात भागप्रमाण होती हैं । इस द्वारा जघन्य बादर निगोद वर्गणाके प्रमाणकी प्ररूपणा की गई है।
यहां चार अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि और अल्पबहुत्व। इन चार अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर क्षीणकषायकालके भीतर मरनेवाले अथवा थवर और आर्द्रक आदिमें मरनेवाले जीवोंकी प्रस्मणा करते हैं। यथा- क्षीण कषायके प्रथम समय में मरे हुए जीव हैं । दूसरे समयमें मरे हुए जीव हैं और तिसरे समय में मरनेवाले जीव है। इस प्रकार क्षीणकषायके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई।
क्षीणकषायके प्रथम समयमें मरे हए जीव कितने हैं? अनन्त हैं। दूसरे समयमें मरे हए जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। तीसरे समय में मरे हुए जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इस प्रकार
* अ० का प्रत्योः । दज्झमाण-' इति पाठ 1 Jain Education Internetronal
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५, ६, ६३२ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ४८९ कसायचरिमसमओ ति । एवं पमाणाणगमो समत्तो ।
सेडिपरूवणा दुविहा- अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधा वुच्चदे । तं जहा खीणकसायपढमसमए मरंता जीवा थोवा । बिदियसमए मरंता जीवा विसेसाहिया। तवियसमए मरंता जीवा विसेसाहिया। एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव आवलियपुधत्तं ति । विसेसो पुण आवलियाए असंखेज्जविभागेण होति । तदणंतरउवरिमसमयप्पहुडि संखेज्जदिभागब्भहिया जाव विसेसाहियमरणचरिमसमओ त्ति । विसेसो पुण संखेज्जरूवपडिभागेण । तदो खीणकसायकालस्स असंखज्जविभागे आवलियाए असंखेज्जविभागे सेसे गणसेडिमरणं होदि । तदो विसेसाहियमरणचरिमसमए मदजीहितो गुणसेडिमरणपढमसमए मरंता जीवा असंखेज्जगणा । को गणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। विदियसमए मरंता जीवा असंखेज्जगणा । एवमसंखेज्जगुणा असंखेज्जगणा मरंति जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति । के वि आइरिया जीवे मोत्तूण पुलवियाणमुवरि इमं परूवणं कुणंति तेसि गणगारपमाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो वि ण होदि । कुदो? आवलियाए असंखेज्जदिमागेसु जहण्णपरित्तासंखेज्जमेत्तेसु वि अण्णोणगुणिदेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतपुलवियाणमुप्पत्तीदो । एवमणंतरोवणिधा समत्ता। क्षीणकषायके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ।
श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारकी है- अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। उनमें से पहले अनन्तरोपनिधाका कथन करते हैं। यथा- क्षीणकषायके प्रथम समयमें मरनेवाले जीव स्तोक हैं। दुसरे समयमें मरनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। तीसरे समयमें मरनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार आवलिपृयक्त्वप्रमाण कालतक उत्तरोत्तर प्रत्येक समयमें मरनेवाले जीव विशेष अधिक विशेष अधिक हैं। परन्तु विशेषका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेसे प्राप्त होता है । आवलिपृथक्त्वके बाद अगले समयसे लेकर विशेष अधिकके क्रमसे मरनेवाले जीवोंके अन्तिम समयतक उत्तरोत्तर प्रत्येक समयमें संख्यातवें भाग अधिक संख्यातवें भाग अधिक जीव मरते हैं। यहाँ विशेषका प्रमाण संख्यातका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना है। अनन्तर क्षीणकषायके कालके असंख्यातवें भागप्रमाण अर्थात् आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण शेष रहनेपर गणश्रेणिमरण होता है। अतः विशेष अधिक मरण के अन्तिम समय में मरे हुए जीवोंसे गुणश्रेणि मरणके प्रथम समयमें मरनेवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गणकार है। दूसरे समयमें मरनेवाले जीव तगुण होते हैं। इस प्रकार क्षीणकषायके अन्तिम समयके प्राप्त होनेतक प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणे असंख्यात गुणे जीव मरते हैं। कितने ही आचार्य जीवोंको छोडकर पुलवियोंका अवलम्बन लेकर यह प्ररूपणा करते हैं । उनके मतमें गुणकारका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण भी नहीं होता है, क्योंकि, जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण भी आवलिके असंख्यातवें भागोंके परस्पर गुणा करनेपर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंकी उत्पत्ति होती है । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई।
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४९० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ६३२
खीणकसायपढमसमए मदजीवेहितो आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तमद्धाणं गंतूण दुगुणवड्ढी होदि। एवमेत्तियमेत्तियमवद्विदमद्धाणं गंतूण दुगणवड्ढी होदि। जाव असंखेज्जदिमागभहियमरणचरिमसमओ ति! तत्तो उवरि संखेज्जसमयमेत्तमद्धाणं गंतूण दुगणवड्ढी होदि जाव संखेज्जविभागभहियमरणचरिमसमओ ति। तेण परं णिरंतरकमेण असंखेज्जगणा असंखेज्जगणा जाव खीणकसायचरिमसमओ ति। एत्थ तिणि अणुयोगद्दाराणि-परूवणा पमाणमप्पाबहुअं चेदि। परूवणदाए एगपदेसगुणहाणिटाणंतरं णाणागणहाणिट्टाणंतरसलागाओ च अस्थि । पमाणं- असंखेज्जभागब्भहियमरणम्मि एगजीव-दुगणवडिट्ठाणंतरमावलियाए असंखेज्जविभागो। संखेज्जभाग
भहियमरणम्मि एगजीवदुगुणवड्डिअद्धाणं संखेज्जसमयमेत्तं होदि । णाणागणहाणिसलागपमाणमावलियाए संखेज्जदिभागो। अप्पाबहुअं सव्वत्थोवं एगजीवदुगणवधिटाणंतरं । णाणागुणहाणिसलागाओ असंखेज्जगणाओ। एवं परम्परोवणिधा समत्ता।
अप्पाबहुअं- सव्वत्थोवा खीणकसायपढमसमए मदजीवा । अपढम-अचरिमसमएसु मदजीवा असंखेज्जगणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो। कुदो ? खीणकसायपढम-चरिमसमएसु मदजीवे मोत्तण तत्थ सेसासेसमदजीवग्गहणादो । अचरिमसमए मदजीवा विसेसाहिया। केत्तियमेत्तेण ? पढमसमए मदजीवमेत्तेण । चरिमसमए मदजीवा असंखेज्जगुणा। को गुणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो।
क्षीणकषायके प्रथम समयमें मरे हुए जीवोंसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर दूनी वृद्धि होती है। इस प्रकार इतने इतने अवस्थित स्थान जाकर दूनी वृद्धि होती है और यह दूनी वृद्धिका क्रम असंख्यातवें भाग अधिक मरणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक जानना चाहिये । उसके आगे संख्यात समय प्रमाण स्थान जाकर दूनी वृद्धि होती है और यह क्रम संख्यातवें भाग अधिक मरणके अन्तिम समय तक जानना चाहिए। उसके आगे मिरन्तरक्रमसे क्षीणकषाय के अन्तिम समयके प्राप्त होने तक प्रत्येक समयमें असंख्यातगणे असंख्यातगुणे होते हैं। यहां तीन अनुयोगद्वार हैं- प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व। प्ररूपणा की अपेक्षा एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर है और नानागुणहानिस्थानान्तर शलाकायें हैं । प्रमाणअसंख्यातभागवृद्धिरूप मरणमें एकजीवद्विगुणवृद्धिस्थानान्तर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । संख्यातभागवृद्धिरूप मरणमें एकजीवद्विगुणवृद्धिअध्वान संख्यात समयप्रमाण है । नानागुणहानिशलाकाओंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अल्पबहुत्व- एकजीवद्विगुणवृद्धिस्थानान्तर सबसे स्तोक है। नानागुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी हैं। इस प्रकार परम्परोपनिधा समाप्त हुई।
___अल्पबहुत्व- क्षीणकषायके प्रथम समयमें मृत जीव सबसे थोडे हैं । अप्रथम-अचरम समयोंमें मृत जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, क्षीणकषायके प्रथम और अन्तिम समयमें मरे हुए जीवोंको छोडकर वहाँ शेष समस्त मृत जीवोंको ग्रहण किया है । अचरम समयमें मृत जीव विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं? प्रथम समयमें मत जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं। अन्तिम समयमें मत जीव
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५, ६, ६३५ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ४९१ अपढ़मसमए मदजीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? अपढम-अचरिमसमएसु मदजीवमेत्तेण । सव्वेसु समएसु मदजीबा विसेसाहिया। केत्तियमेतेण ? पढमसमए मदजीवमेत्तेण । एवं अप्पाबहुअं समत्तं ।
संपहि खीणकसायकाले जहण्णाउअमेत्ते सेसे बादरणिगोदा ण उप्पज्जति खोणकसायसरीरे । कुदो ? जीवणियकालाभावादो । एदस्स अत्थस्स जाणावणठें आउआणमप्पाबहुअं भगदि ।
एत्थ अप्पाबहुअं--सव्वत्थोवं खुद्दाभवग्गहणं ॥६३३॥
कुदो? एइंदियस्स बंधणिसेयखुद्दाभवग्गहणं घादिय उप्पइदसव्वजहण्णजीवणियकालग्गहणादो । खोणकसायकाले एत्तियमेत्ते सेसे बादर-सुहमणिगोदजीवा णियमा ण उप्पज्जति ति घेत्तव्वं ।
एइंदियस्स जहणिया णिवत्ती संखेज्जगुणा ॥६३४॥
कुदो ? बादर-सुहमणिगोदअपज्जत्ताणं घादेण विणा जहण्णजीवणियकालगगणादो। को गुणगारो ? संखेज्जा समया। .
सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया ॥६३५॥
असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? पत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । अप्रथम समयमें मत जीव विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं? अप्रथम-अचरम समयोंमें मत जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं। सब समयोंमें मत जोव विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं ? प्रथम समय में मृत जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
__ अब क्षीणकषायके कालमें जघन्य आयुप्रमाण कालके शेष रहनेपर क्षीणकषायके शरीरमें बादर निगोद जीव नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, जीवनीय कालका अभाव है । इस प्रकार इस अर्थका ज्ञान कराने के लिए आयुओंका अलाबहुत्व कहते हैं--
यहाँ अल्पबहुत्व- क्षल्लकभवग्रहण सबसे स्तोक है ।। ६३३ ।।
क्योंकि, एकेन्द्रियके बन्धको प्राप्त हुए निषेकरूप क्षुल्लक भवग्रहणका घात करके उत्पन्न कराये गए सबसे जघन्य जीवनीयकालका यहां ग्रहण किया है । क्षीणकषायके कालमें इतने कालके शेष रहनेपर बादरनिगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव नियमसे नहीं उत्पन्न होते हैं यह यहाँपर ग्रहण करना चाहिए ।
एकेन्द्रियकी जघन्य निर्वृत्ति संख्यातगुणी है ॥ ६३४ ।।
क्योकि, बादर और सूक्ष्म मिगोद अपर्याप्तकोंके घात हुए बिना प्राप्त हुए जघन्य जीवनीय कालका ग्रहण किया है । गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है।
वही उत्कृष्ट निर्वत्ति विशेष अधिक है ॥ ६३५ ॥
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.. .४९२)
• छक्खंडागमे वमाणा-खंडं
( ५, ६. ६३६
केत्तियमेत्तो विसेसो ? आबलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो । जहण्णाउआदो - उक्कस्साउअं असंखेज्जगणमिदि के वि आइरिया भणंति तमेदेण सह किण्ण विरु... ज्झदे? ण, वक्खामेण सुत्तस्स बाधाभावादो । जबमज्झमरणचरिमसमए मोत्तूण-गुण
सेडिमरणचरिमसमए चेव जहणिया बादरणिमोदवग्गणा होदि त्ति जाणावणठें - . उत्तरसुत्तं भणदि
बावरणिगोदवग्गणाए जहणियाए. आवलियाए असंखेज्जदि.. भागमेत्तो णिगोदाणं ॥ ६३६ ॥
खीणकसायचरिमसमए जहणिया बांधरणिगोदवग्गणा होदि । तत्थ णिगोदाणं पमाणं आवलियाए असंखेन्जविभागो। के "णिगोदा णाम ? पुलवियाओत्र 'एदेण
पल्लंगल-जगसेडि-पदरादीणमसंखेज्जदिभागो पडिसिद्धो । सुत्तेण विणा जणिया , · बादरणिगोदवग्गणा खोणकसायचरिमसमए चेव होदि ति कुदो गव्वदे? सुत्ताविरुध्दाई' इरियवयणादो। जहण्णसुहमणिगोदवग्गणाए पमाणपरूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि
विशेषका प्रमाण कितना है ? विशेषका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागमात्र है।
.: शंका--- जघन्य आयुसे उत्कृष्ट आयु: असंख्यातगुणी है ऐसा- कितने ही आचार्य कहते __ . हैं। उसके साथ विरोध कैसे नहीं होता ? |
. . . समाधाम-- नहीं, क्योंकि व्याख्यानसे सूत्र में बाधा नहीं आती।।
अब यवमध्यमरणके अन्तिम समयको छोडकर गुणश्रेणिमरणके अन्तिम समय में ही - जघन्य बादर निगोद वर्गणा होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
7 जघन्य बादर निगोद वर्गणामें निगोदोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें.भाग' मात्र होता है ।। ६३६ ॥
क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य बादर निगोद वर्गणा होती है। वहाँ निगोदोंका . प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागमात्र है।
शंका-- निगोद कौन है ? - समाधान-- पुलवियाँ ।
इस वचन के द्वारा पल्य. : अङ्गुल, जगश्रेणि और जगप्रतर आदिके असंख्यातवें • भागका प्रतिषेध हो जाता है।
शंका-- सूत्रके बिना जघन्य बादर मिगोद वर्गणा क्षीणकषायके अन्तिम समय में ही होती है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- सूत्राविरूद्ध आचार्योंके वचनसे जाना जाता है। अब जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणाके प्रमाणका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
* अ० प्रती ' असंखेमागो भागमेत्तो ' इति पाठ।
४ अ० प्रती 'उक्कस्साउअ संखेज्जगणमिदि ' इति पाठ: ।
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५, ६, ६३९ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
(३४९३ "सुहमणिगोदवग्गणाए जहणियाए आवलियाए: - असंखेज्जदिभागमेसो णिगोदाणं ॥ ६३७ ॥
एसा जहणिया सहमणिगोदवग्गणा जले थले आगासे वा होदि, वव्व खेत्तकाल-भावणियमाभावादो । एदिस्से वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवियाओ
अणंताणंतजीवावूरिदअसंखेज्जलोगमेत्तसरीराओ होति । संपहि सुहमणिगोदुक्कस्स। वग्गणाए पमाणपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि
सुहमणिगोववग्गणाए उक्कस्सियाए आवलियाए असंखेज्जदि। भागमेत्तो 'णिगोवाणं ।। ६३८ ।।
• जा उक्कस्सिया ' सुहमणिगोदवग्गणा तत्थ पुलवियाणं पमाणमावलियाए असंखेज्जदिभागो चेव । एदेण पल्लस्स असंखेज्जविभागादिसंखापडिसेहो कदो। एस। पुण सुहमणिगोदुक्कस्सवग्गणा महामच्छसरीरे चेव होंति ण अण्णत्थ, उवदेसाभावादो। 'संपहि बादरणिगोदुक्कस्सवग्गणाए पमाणपरूवणठें उत्तरसुत्तं भणदि
बादरणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए सेडीए असंखेज्जविभागमेसो णिगोदाणं ॥ ६३९ ।।
- जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणामें निगोदोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागमात्र है ॥ ६३७ ॥
यह जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणा जलमें, स्थल में और आकाशमें होती है, इसके लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका कोई नियम नहीं है। इसका भी अनन्तानन्त जीवोंसे व्याप्त असंख्यात लोकप्रमाण पारीरवाली आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियाँ होती हैं। अब उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणाके प्रमाणका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणामें निगोदोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागमात्र हैं।। ६३८ ।।
जो उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा है उसमें पुलक्यिोंका प्रमाण आवलिके' असंख्यातवें भागमात्र ही है। इस वचन द्वारा पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण आदि संख्याका प्रतिषेध किया है। परन्तु यह उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा महामत्स्यके शरीरमें ही होती है, अन्यत्र नहीं होती, क्योंकि, अन्यत्र होती है ऐसा उपदेश नहीं पाया जाता। अब उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणाके प्रमाणका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणामें निगोदोंका प्रमाण जगणिके असंख्यातवें भागमात्र है ।। ६३९ ॥
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४९४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ६४० मूलय-थूहल्लयादिसु सेडीए असंखेज्जविभागमेत्तपुलवीओ अणंतजीवावूरिदअसंखेज्जलोगसरीराओ घेत्तण बादरणिगोदुक्कस्सवग्गणा होदि । णिगोदवग्गणाणं कारणपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं पणदि
एदेसिं चेव सव्वणिगोदाणं मूलमहाखंधट्ठाणाणि ॥६४०॥
सव्वणिगोदाणमिदि वृत्ते सव्वबादरगिगोदाणमिवि घेतव्वं । सुहमणिगोदा किण्ण गहिदा? ण एत्थेव ते उप्पज्जति अण्णत्थ ण उप्पज्जति त्ति णियमाभावादो। महाक्खंधस्स हाणाणि त्ति भणिदे महावखंधस्स अवयवा त्ति घेत्तध्वं, ढाणसहस्स सरूवपज्जायस्स दंसणादो । तेण महाक्खंधावयवा सव्वणिगोदाणमुप्पणा मूलं कारणमिदि भणिदं होदि ण च मलसद्दो कारणत्थे अप्पसिद्धो, 'स्त्रियो मूलमनर्थानाम्' इत्यत्र मूलशब्दस्य कारणपर्यायस्योपलभ्भात् । महाक्खंधस्स द्वाणाणं परूवणठें उत्तरसुत्तं भणदि--
___ अट्ठ पुढवीओ टंकाणि कडाणि भवणाणि विमाणाणि विमाणिदियाणि विमाणपत्थडाणि णिरयाणि णिरइंदियाणि णिरय
मूली, थूवर और आर्द्रक आदिमें अनन्त जीवोंसे व्याप्त असंख्यात लोकप्रमाण शरीरवाली जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियाँ होती हैं । इन्हें ग्रहण कर बादरनिगोद उत्कृष्ट वर्गणा होतो है । अब निगोद वर्गणाओंके कारणका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
इन्हीं सब निगोदोंका मूल महास्कंधस्थान हैं ॥ ६४० ।। सब निगोदोंका ऐसा कहनेपर सब बादर निगोदोंका ऐसा कहना चाहिए । शंका- सूक्ष्म निगोदोंका ग्रहण क्यों नहीं किया है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, यहाँ ही वे उत्पन्न होते हैं, अन्यत्र उत्पन्न नहीं होते ऐसा कोई नियम नहीं है।
महास्कन्धके स्थान ऐसा कहनेपर महास्कन्ध के अवयव ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, स्थान शब्द स्वरूप पर्यायवाची देखा जाता है। इसलिए महास्कन्धके अवयव सब निगोदोंकी उत्पत्तिमें मल अर्थात् कारण हैं यह उक्त कथन का तात्पर्य है । मल शब्द कारणरूप अर्थमें अप्रसिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है. क्योंकि, 'स्त्रियो मूलमनर्थानाम् ' अर्थात् स्त्रियां अनर्थों का मल है इस वचनमें मल शब्द कारणवाची उपलब्ध होता है । अब महास्कन्धके स्थानोंका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
आठ पृथिवियां टङ्क, कूट, भवन, विमान, विमानेन्द्रक, विमानप्रस्तर, नरक
ता०प्रती · चेव ( मध- ) णिगोदाणं अका० प्रत्योः ' चे व णिगोदाणं ' इति पाठ ।
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५, ६, ६४१ )
घाणुयोगद्दारे चूलिया
( ४९५
पत्थडाणि गच्छानि गुम्माणि * वल्लीणि लदाणि तणवणफदिआदीणि ।। ६४१ ॥
धम्मादिसत्तणिरय पुढवीओ ईसप्पभारपुढवीए सह अट्ठ पुढवीओ महाखंधस्स द्वाणाणि होति । सिलामयपव्वएसु उक्किण्णवावी कूण तलाय - जिणघरावीणि टंकाणि णाम । मेरु- कुलसेल - बिझ-सज्झादिपव्वया कूडाणि णाम । वलहि-कूडविवज्जिया सुरणरावासा भवणाणि णाम । वलहि-कूडसमणिदा पासादा विमाणाणि णाम । उ आदीणि विमणानिदियाणि णाम । सग्गलोअसे डिबध्द-पइण्णया विमाणपत्थडणि नाम । णिरयसे डिबद्धाणि णिरयाणि णाम । सेडिबद्धाणं मज्झिमणिरयावासा णिरइंदयाणि णाम । तत्थतणपइण्णया निरयपत्थडाणि गाम । गच्छ गुम्म तणवणाफ दि लदावल्लीणमत्थो जाणिय वत्तव्वो । एदाणि महाक्खंधद्वाणाणि । एवेण महाखंधस्स इंदिय गेज्झाणमवयवाणं परूवणा कदा । जे पुण इंदियाणमगेज्झा सुहुमा महाक्खंधावयवा एदेहि समवेदा ते वि आगमचक्खूहि दट्टव्वा । सचित्तवग्गणाओ एवं जहण्णाओ एवं च उक्कस्साओ । महाखंधवग्गणाए जहण्णुक्कस्तभावा एवं होंति त्ति जाणावट्ठ उत्तरसुत्तं भणवि
नरकेन्द्रक, नरक प्रस्तर, गच्छ, गुल्म, वल्ली, लता और तृणवनस्पति आदि महास्कन्धस्थान हैं । ६४१ ।।
ईषत्प्राग्भार पृथिवी के साथ धर्मा आदि सात नरक पृथिवियाँ मिलकर आठ पृथि - वियाँ महास्कन्धके स्थान हैं। शिलामय पर्वतों में उकीरे गए वापी, कुआ, तालाब और जिनघर आदि टङ्क कहलाते हैं। मेरुरवंत, कुलपर्वत, विन्ध्यपर्वत और सह्यपर्वत आदि कूट कहलाते 1 वलभि और कूटसे रहित देवों और मनुष्योंके आवास भवन कहलाते हैं । वलभि और कूटसे युक्त प्रासाद विमान कहलाते हैं । उडु आदिक विमान इन्द्रक कहलाते हैं । स्वर्गलोकके श्रेणिबद्ध और प्रकीर्णक विमान विमानप्रस्तर कहलाते हैं । नरकके श्रेणिबद्ध नरक कहलाते हैं । श्रेणिबद्धोंके मध्य में जो नरकवास हैं वे नरकेन्द्रक कहलाते हैं । तथा वहाँ के प्रकीर्णक नरकप्रस्तर कहलाते हैं । गच्छ, गुल्म, तृण वनस्पति, लता और वल्लीका अर्थ जानकर कहना चाहिए। ये महास्कन्धस्थान हैं । इस सूत्र द्वारा महास्कन्धके इन्द्रियग्राह्य अवयवोंका कथन किया है । परन्तु जो इन्द्रिय अग्राह्य सूक्ष्म महास्कन्धके अवयव हैं जो कि निगोदोंसे समवेत हैं वे भी आगमचक्षुओंसे जानने चाहिए। सचित्तवर्गणायें इस प्रकार जघन्य और इस प्रकार उत्कृष्ट होती हैं । महास्कन्धवर्गणामें जघन्य और उत्कृष्टभाव इस प्रकार होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
* अ० का० प्रत्योः गुणाणि' इति पाठा |
XxX अ० का० प्रत्योः ' धम्मादिसव्वणिरय-' इति पाठा |
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४९६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ६४२ ___ जदा मूलमहाक्खंधठ्ठाणाणं जहण्णपदे तवा बावरतसपज्जत्ताणं उक्कस्सपदे ॥ ६४२ ॥
जदा मलमहाक्खंघट्टाणाणं जहण्गमावो होदि तदा बावरतसपज्जत्ताणं उक्क - स्सभावो होदि । कुदो ? बादरतसपज्जत्ताणं कर-चरण- सरीराणं छेदण-भेदणादिवावारेण महाक्खंधावयवाणं भेदप्पसंगादो।
जवा बादरतसपज्जत्ताणं जहण्णपदे तदा मलमहाक्खंधट्ठाणाणमुक्कस्सपदे ॥ ६४३॥ ., कुदो ? तसबादरजीवेसु थोवेसु संतेसु कर चरणादिवावारेण महाक्खंधस्स घादाभावादो । संपहि मरणजवमज्झ-समिलाजवमज्झादीणं परूवणठें एसा संदीट्ठी जहाकमेण 8वेदव्वा
एसो बिदियतिभागो णत्थि > एसो पढमतिभागो- > एत्य आवासयाणि )
बा० सु० णिगोदअपज्जताणं बा० सु० णि० अपज्जत्ताणं चत्तारिअपज्जत्ताणं णिवत्ति- आउअबंधजवमझभेदं
जवमज्झमेदं । जब मल महास्कन्धस्थानोंका जघन्य पद होता है तब बादर त्रस पर्याप्तकोंका उत्कृष्ट पद होता है ।। ६४२ ॥
जब मल महास्कन्धस्थानोंका जघन्यभाव होता है तब बादर सपर्याप्तकोंका उत्कृष्ट भाव होता है, क्योंकि, बादर त्रसपर्याप्तकोंके हाथ, पैर, और शरीरोंके छेदन, भंदन आ'द व्यापारद्वारा महास्कन्धके अवयवोंका भेद प्राप्त होता है ।
जब बादर त्रसपर्याप्तकोंका जघन्य पद होता है तब मल महास्कन्धोंका उत्कृष्ट पद होता है ।। ६४३ ।।
__ क्योंकि, त्रसबादर जीवोंके स्तोक होनेपर हाथ और पैर आदिके व्यापार द्वारा महास्कन्धका घात नहीं होता। अब मरणयवमध्य और शमिलायवमध्य आदिका कथन करने के लिए यह संदृष्टि क्रमसे स्थापित करनी चाहिए. -
यह द्वितीय विभाग यहाँ आवश्यक
यह प्रथम त्रि०
यह तृतीय त्रि०
जघन्य अफ
यह भासंपाद्वाNयाप्त निच बा० सू० निगोद बा० सू० अ० क्षुल्लकभवग्रहण बा. सू० निगोद अपअपर्याप्तकोंकी चार निगोदोका
प्तिकोका यह मरणअपर्याप्तियोंका यह यह आयु बन्ध
यवमध्य है। निर्वृत्ति यवमध्य है यवमध्य है
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________________
[४६७
५, ६, ६४२ ]
बंधणाणियागहारे चूलिया
जहणिया अपज्जत्तएसो तदियतिभागो
णिवत्ती असंखेपद्धा एसा W खुद्दाभवगहणं
बाद० सु० णि. अपज्जत्ताणं मरणनवमझमेदं।
सु० णि० अपज्जत्ताणं उक्कस्सणिव्यत्ति- | बादरणिगोदअपज्जत्ताणं उक्कस्सहाणाणि एदाणि
णिव्वत्तिहाणाणि एदाणि
एसो विदियतिभागो, णस्थि एसो पढमतिभागो
रक्तवणे
स्त
एत्थ आवासयाणि
।
वादरमुहुमणिगोदपज्जताणं सरीर
णिव्वत्तिजवमज्झमेदं । एसो तदितिभागो
वा० सु. णिगोदपज्जताणं आउअबंधजवमज्झमेदं ।
रक्तवर्ण
बादरमुहुमणिगोदपज्जताणं मरणजवमझमेदं ।
०००००००००००० ये सूक्ष्म निगाद अपर्याप्तकों के | ये बादर निगोद अपर्याप्तकों के
उत्कृष्ट निवृत्तिस्थान हैं ___ उत्कृष्ट निवृत्तिस्थान हैं
यह द्वितीय त्रिभाग यहाँ आवश्यक नहीं है
रक्तवर्ण
यह प्रथम त्रि०
यह तृ. त्रि०
बा० सू० निगोद पर्याप्तकों का यह शरीर निवृत्ति यवमध्य है।
बा० सू० निगाद पर्याप्तकोंका यह आयु यवमध्य है।
बा० सू. निगाद पर्याप्तकोंका यह मरण यवमध्य
छ८५४-६३
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४९८ )
( १ ) एदमंतरं -
अंतरं
आहारसरीरणिव्वत्ति
आहारसरी रिदिय
आहारसरीर आणापाण
द्वाणाणि दाणि . णिव्यत्तिद्वाणाणि एदाणिणिव्यत्तिद्वाणाणि एदाणि
अंतरं
००००००००
(२) एदमंतरं
आहारसरीरभासाणिव्वत्तिद्वाणाणि एदाणिणिव्वतिट्ठाणाणि एदाणि
००००००००
यह अन्तर
००००००००
अन्तर
ये आहारशरीर निर्वृत्तिस्थान हैं
००००००००
वेव्वियसरीर- वेउव्वियसरीरइंदियव्वित्तिद्वाणाणि एदाणि गिव्वत्तिद्वाणाणि एदाणि
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
२ यह अन्तर है ।
००००००००
अन्तर
i
आहारसरीरमण
ये आहारशरीरभाषा निर्वृत्तिस्थान हैं अन्तर
००००००००
00000000
००००००००००
ये आहारशरीरेन्द्रिय निर्वृत्तिस्थान हैं अन्तर
००००००००
अतर
अंतरं
००००००००००
ये आहारशरीरमन निर्वृत्तिस्थान हैं
००००००००
( ५, ६, ६४२
००००००००
आहारसरीरणिल्लेवाणि दाणि
०००००००००
०००००००००
वेजव्वियसरीरआणापाण णिव्वत्तिद्वाणाणि एदाणि
ये आहारशरीरश्वासोच्छ्वास निर्वृत्तिस्थान हैं -
००००००००
00000000
000000000
ये वैशिरी अन्तर ये वैक्रियिकशरीरेन्द्रिय अन्तर ये वैक्रियिकशरीरश्वासोच्छ्वास
निर्वृत्तिस्थान हैं
निर्वृत्तिस्थान हैं
निर्वृत्तिस्थान हैं
ये आहारशरीर निर्लेपनस्थान हैं
00000000
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५, ६, ६४२ )
(३) एदमंतरं
000000000
०००००००००
०००००००
अंतरं वेव्वियसरीराभासा- अंतरं वेउव्वियमणणिव्वत्ति अंतरं वेउव्वियसरीरणिल्लव्वित्तिद्वाणाणि एदाणि
-हाणाणि दाणि
| वणट्टाणाणि एदाणि
ओरालिय सरीरणिव्वत्ति - द्वाणाणि दाणि
००००००००००
३ यह अन्तर है
०००००००००
०००००००
ओरालि यसरीरभासा- ओरालियसरीरमणव्वित्तिद्वाणाणि दाणिणिव्वत्तिट्ठाणाणि एदाणि
ये औदारिकशरीर निर्वृत्तिस्थान हैं
बंधाणुयोगद्दारे चूलिया
अंतर
०००००००००
अन्तर ये वैऋियिकशरीरभाषा अन्तर वे वैक्रियिकशरीरमन
निर्वृत्तिस्थान हैं
निर्वृत्तिस्थान हैं
०००००००००००
०००००००००००
निर्वृत्तिस्थान हैं
ओरालियस रीरइंदियव्वित्तिद्वाणाणि एदाणि
०००००००
०००००००००००
अतर
०००००००
अंतरं
अन्तर ये औदारिकशरीर भाषा अन्तर ये औदारिकशरीरमन अन्तर
निर्वृत्तिस्थान हैं
( ४९९
०००००००००००
ओरालियस रीरआणावाण - णिव्वत्तिद्वाणाणि एदाणि
अन्तर
०००००००००००
अन्तर ये औदारिकशरीरेन्द्रिय अन्तर ये औदारिकशरीरोच्छ्वास
निर्वृत्तिस्थान हैं
निर्वृत्तिस्थान हैं
०००००००००००००
ओरालि यसरीरणिल्लेवाणि दाणि
०००००००००००
ये वैयिकशरीर निर्लेपनस्थान हैं
०००००००००००
००००००००००००
ये औदारिकशरीर निर्लेपनस्थान हैं
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५०० )
00000000000000
सुहुमणिगोदपज्जत्ताणं
000000000000
एइंदियपज्जत्ताणं उक्कस्सबावीस सहसाणि
००००००००००
गन्भोवक्कं तियाण मुक्कस्स- - तिणिपलिदोवमाणि
00000000000000
सूक्ष्म निगोद पर्याप्त कोंकी
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
००००००००००००००
बादरणिगोदपज्जत्ताणं
औपपादिकोंकी उत्कृष्ट तेतीस सागर
००००००००००००
सम्मुच्छिमपज्जत्ताणमुक्कसपुचकोडी
एवं बादर - सुहुमणिगोदअपज्जत्ताणं तेसि पज्जत्ताणं च चत्तारि संदिट्ठीओ विय ' जत्थेय मरइ जीवो तत्थ दु मरणं भवे अणंताणं । वक्कमदि जत्थ एयो वक्कमणं तत्थणंताणं ॥ एदीए गाहाए सूचिदणिव्वत्तिजवमज्झ-मरणजवमज्झआउ अबंधजवमज्झाणं तिष्णं सरीराणं पज्जत्तिणिव्वत्तिद्वाणादीणं परूवण च उत्तरगंथो आगदो
००००००००००००००००
000000 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0
उववादियाणमुक्कस्सतेत्तीस सागरोवमाणि
वादरनिगोद पर्याप्तकों के
000000 0 0 0 0 0 0
एकेन्द्रियपर्याप्तकों के सम्मूर्छन पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट २२ हजार वर्ष
000000 0 0 0 0 0 0 *****
उत्कृष्ट पूर्वकोटि
00000000000000000000000000000000
०००००
(५, ६, ६४२
०००००००००००००
पत्तेयसरीरपज्जत्ताणं
०००००
co०००००००००००
प्रत्येक शरीरपर्याप्तकों के
००००००००००
एस प्रकार बादर निगोद अपर्याप्त और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त तथा उनके पर्याप्तकों की चार संदृष्टियाँ स्थापित कर 'जहाँ एक जीव मरता है वहाँ अनन्त जीवोंका मरण होता है और जहाँ एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती है।' इस गाथा द्वारा सूचित हुए निर्वृत्तियवमध्य, मरणयवमध्य और आयुबन्ध यवमध्योंका तथा तीन शरीरोंके पर्याप्तिनिर्वृत्ति स्थानादिकों का कथन करनेके लिए आगेका ग्रन्थ आया है
गर्भजोंकी उत्कृष्ट तीन पल्य
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५, ६, ६४४ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
५०१ ) एत्तो सब्वजीवेस महादंडओ कायमेवो भवदि ॥ ६४३ ॥
सव्वत्थोवं खुद्दाभवग्गहणं । तं तिधा विहत्तं-हेल्लिए तिभाए सव्वजीवाणं जहणिया अपज्जत्तणिवत्ती। मज्झिल्लए तिभाए णत्थि आवासयाणि । उवरिल्लए तिभागे आउअबंधो जवमज्झं समिलामज्झे ति वुच्चदि ॥ ६४४ ॥ ___जं सव्वत्थोवं खुद्दाभवग्गहणं तं तिधिहत्तं कायव्वं । किमळं तिधा विहज्जदे ? तत्थ तिसु भागेसु आवासयपरूवणठें। सव्वजहण्णखुद्दाभवग्गहणं त्ति वुत्ते घातखुद्दाभवग्गहणं घेत्तव्वं, अण्णत्थ आउअस्स खुद्दभावाणुववत्तीदो। हेट्ठिलए तिभागे सव्वजीवाणं जहणिया अपज्जत्तणिव्वत्ति त्ति भणिदे जम्हि बादर-सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तेहि आहार-सरीरिदिय-आणपाणचत्तारिअपज्जत्तीओ णिव्वत्तिज्जंति जवमज्झसरूवेण सो पढमतिभागो णाम। उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि पढमतिभागस्त संखेज्जदिभागमेत मद्धाणमवरि गंतूण जेण सुहम-बादरणिगोदअपज्जत्ताणं आहार-सरीरिदिय-आणपाणपज्जत्तीओ समाणिज्जति जवसरूवेण ठ्ठिदजीवेहि तेण हेठिल्लए तिभागे सव्वजीवाणं जहणिया
यहांसे आगे सब जीवोंमें महादण्डक करना चाहिए ॥ ६४३ ।।
क्षुल्लकभवग्रहण सबसे स्तोक है। वह तीन प्रकारका है- अधस्तन विभागम सब जीवोंकी जघन्य अपर्याप्तनिर्वृत्ति होती है, मध्यम त्रिभागमें आवश्यक नहीं होते और उपरिम त्रिभागमे यवमध्य होता है। उसे शमिलायवमध्य कहा जाता है॥ ६४४ ॥
जो सबसे स्तोक क्षुल्लकभवग्रहण है उसके तीन भेद करने चाहिए। शंका - उसके तीनों भेद किसलिए करते हैं ? । समाधान- उसके तीनों भेदों में आवश्यकोंका कथन करने के लिए उसके तीन भेद करते हैं।
सबसे जघन्य क्षुल्लकभवग्रहण ऐसा कहनेपर घातक्षुल्लक भवग्रहण लेना चाहिए, क्योंकि, अन्यत्र आयुका क्षुल्लकपना नहीं बन सकता है। अधस्तन विभागमें सब जीवोंको जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्ति ऐसा कहनेपर जिसमें बादर निगोद अपर्याप्त जीव और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास इन चार अपर्याप्तिकोंको यवमध्यरूपसे रचते हैं वह प्रथम विभाग है।
शंका – उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर प्रथम विभागके संख्यातवें भागप्रमाण स्थान ऊपर जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त और बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंकी आहार, शरीर,इन्द्रिय और श्वासोच्छावास पर्याप्तियां यतः यवमध्यरूपसे स्थित जीवोंके द्वारा समाप्त की जाती हैं अतः
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५०२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ६४४ अपज्जत्तणिव्वत्ति ति ण घडदे ? ण एस दोसो, विसयसत्तमिमस्सिदण सुत्तपत्तीदो। पढमतिभागविसए जहणिया अपज्जत्तणिवत्ती होदि त्ति जं भणिदं होदि । ण च विसयसत्तमी असिद्धा,
औपश्लेषिकवैषयिकाभिव्यापक इत्यपि ।
आधारस्त्रिविधः प्रोक्तः कटाकाशतिलेषु च ।। २३ ।। इति वचनाताअथवा पढमतिभागस्स संखेज्जदिभागो पढमतिभागो विपढमतिभागोणाम 'ग्रामो दग्धः पटो दग्धः' इत्येवमादिषु समुदायेषु प्रवृत्तानां शब्दानामवयवेष्वपि वृत्तिदर्शनात् । मज्झिल्लए तिभाए णत्थि आवासयाणि त्ति भणिदे पढमतिभागस्स संखेज्जा भागा बिदियतिभागो सयलो च एसो मज्झिल्लतिभागो णाम। कथमेदस्स किंचूणदोतिभागस्स मज्झिल्लतिभागववएसो? ण एस दोसो, तिण्णं खंडाणं समविवक्खाभावादो। एत्थ एवं विहे तिभागे मरणजवमज्झ-आउअबंधजवमझ-णिव्वत्तिजवमज्झावासयाणि णत्थि ति भणिदं होदि । उवरिल्लए तिभागे आउअबंधो जवमझं त्ति वुत्ते तदियतिभागे सुहुम-बादरअपज्जत्ताणमाउअबंधोहोदि। सो चेव जवमशं होदि। कुदो? जीवेहि जवमज्झागारेण अवट्ठाणादो। जवस्स मज्झिमपदेसो जवमज्झं त्ति एत्थ ण घेत्तव्वं अधस्तन त्रिभागमें सब जीवोंकी जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्ति होती है यह कथन घटित नहीं होता?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, विषयरूप सप्तमीका आश्रय लेकर सूत्रकी प्रवति हुई है। प्रथम विभागको विषय करके जघन्य अपर्याप्त निर्वत्ति होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और विषय सप्तमी असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि
कट, आकाश और तिलमें औपश्लेषिक, वैषयिक और अभिव्यापक इस प्रकार आधार तीन प्रकारका कहा है ।। २३ ।।
ऐसा वचन हैं । अथवा प्रथम विभागका संख्यातवां भाग भी प्रथम विभाग कहलाता है। यथा- ग्राम जला, वस्त्र जला इत्यादि प्रयोगोंके करने पर समुदायमें प्रवृत्त हुए शब्दोंकी वृत्ति अवयवों में भी देखी जाती है। मध्यके त्रिभागमें आवश्यक नहीं है ऐसा कहनेपर प्रथम विभागका संख्यात बहुभाग और पूरा द्वितीय विभाग यह सब मध्यका त्रिभाग कहलाता है।
शंका - कुछ कम दो त्रिभागकी मध्यका त्रिभाग संज्ञा कैसे हो सकती है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, तीनों खण्ड समान होते है ऐसी विवक्षा
नहीं है।
यहां इस प्रकारके त्रिभागमें मरणयवमध्य, आयुबन्धयवमध्य और निर्वृत्तियवमध्य ये आवश्यक नहीं हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उपरिम विभागमें आयुबन्ध यवमध्य है ऐसा कहने पर उसका आशय हैं कि तीसरे त्रिभागमें सूक्ष्म अपर्याप्त और बादर अपर्याप्त का आयुबंध होता है और वही यवमध्य होता है, क्योंकि जीव यवमध्यके आकारसे अवस्थित हैं। यहां पर यवमध्य पदसे यवका मध्यम प्रदेश ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए किन्तु यवका मध्य अर्थात
( अ० प्रतौ । किचण तिभागस्स ' इति पाठः ।
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५, ६, ६४५. ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५०३ किंतु जवस्स मज्झमभंतरमंतो ति घेत्तव्वं । अथवा समिलामझे त्ति वुच्चदि, जुवखोली समिला णाम । दोण्णं समिलाणं मज्झं समिलामज्झं तेण समाणत्तादो समिलामज्झं । एवं सव्वेसि जवमज्झाणं जवमझं समिलामज्झे त्ति दोणामाणि होति । तदियतिभागसमयप्पहुडि जाव असंखेपद्धाए पढमसमओ ति ताव उवरिमतिभागस्स संखेज्जा भागा जेण आउअबन्धजवमज्झस्स विसओ तेण उवरिल्लए तिभाए आउअबंधजवमज्झमिदि ण घडदे ? न, 'एकदेशविकृतमनन्यवदत्' इति न्यायात्तदियतिभागस्स संखेज्जाणं भागाणं पि किंचणाणं तदियतिभागववएसेण सह विरोहाभावादो। एसा परूवणा सरीरखधंडरावासपुलवियाओ अस्सिदूण ण परूवेयव्वा, तत्थ णियमाणुवलंभादो। किंतु जहण्णमाउअमस्सिदण णिध्वत्तिसमिला जवमज्झाणि परूवेयवाणि । मरणजवमझं पुण णाणाउअविसयं चेव, समाणाउआणं कमेण मरणाणुववत्तीदो।
तस्सवरिमसंखेपद्धा* ॥ ६४५ ।। जहण्णओ आउअबंधकालो जहण्णविस्समणकालपुरस्सरो असंखेपद्धा णाम । सो जवमझचरिमसमयप्पहुडि ताव होदि जाव जहण्णाउअबंधकालचरिमसमओ त्ति । एसा वि असंखेपद्धा तदियतिभागम्मि चेव होदि, अज्जवि खुद्दाभवग्गहणस्स संभवादो। भीतरी भाग ऐसा ग्रहण करना चाहिए । अथवा शमिलामध्य ऐसा कहते हैं युगकीलीका नाम शमिला है और दो शमिलाओंके मध्यका नाम शमिलामध्य है। उसके समान होनेसे उसे शमिलामध्य कहते हैं । इस प्रकार सब यवमध्यके यवमध्य और शमिलामध्य ये दो नाम हैं।
शंका - तीसरे विभागके प्रथम समयसे लेकर आसंक्षेपाद्धाके प्रथम समय तक उपरिम त्रिभागका संख्यात बहुभाग यतः आयुबंधयवमध्यका विषय है अतः उपरिम त्रिभागमें आयुबंधयवमध्य घटित नहीं होता है ?
__समाधान - नहीं, क्योंकि, एकदेश विकृत वस्तु अनन्यके समान अर्थात् उसीके समान होती है इस न्यायके अनुसार तृतीय त्रिभागके कुछ कम संख्यात बहुभागोंकी तृतीय त्रिभाग संज्ञा रखने में कोई विरोध नहीं आता हैं।
___ यह प्ररूपणा शरीरके स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियोंका आश्रय लेकर नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, वहां कोई नियम नहीं उपलब्ध होता। किंतु जघन्य आयुका आश्रय लेकर निर्वत्ति शमिला यवमध्योंकी प्ररूपणा करनी चाहिए। परन्तु मरणयवमध्य नाना आयुओंको ही विषय करता है, क्योंकि, समान आयुवालोंका क्रमसे मरण नहीं बन सकता ।
उसके ऊपर आसंक्षेपाद्धा है । ६४५ ॥
जघन्य विश्रमणकाल पूर्वक जघन्य आयुबन्धकाल आसंक्षेपाद्धा कहा जाता है। वह यबमध्यके अन्तिम समयसे लेकर जघन्य आयुबन्धकालके अन्तिम समय तक होता है । यह आसंक्षेपाद्धा तृतीय त्रिभागमें ही होता है, क्योंकि अभी भी ऊपर क्षुल्लक भवग्रहण सम्भव है ।
* प्रतिषु ' तस्सुवरिमसंखेयदा' इति पाठ ।
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५०४ )
छवखंडागमे वग्गणा-खंड
असंखेपद्धस्सुवरि खुद्दाभवग्गहणं ।। ६४६ ॥
आउ अबंधे संते जो उवरि विस्समणकालो सव्वजहण्णो तस्स खुद्दा * भवग्गहणं ति सण्णा । सो तत्तो उवरि होदि । कथमेदस्स खुद्दाभवग्गहणववएसो ? 'समुदायेषु प्रवृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्ते' इति न्यायेन तस्य तदविरोधात् । एदं पि खुद्द भवग्गहण तदितिभागे चेव, एदेण विणा तदियतिभागस्स संपुण्णत्ताणुववत्तीदो । अथवा असंखेपद्धस्सुवरि खुद्दाभवग्गहणं ति वुत्ते जहण्णाउअबंधकालचरिमसमयादो उवरि अंतमुत्तं गंतून हेट्ठिल्लभागेण सह घादखुद्दाभवग्गहणं होदि त्ति घेत्तव्वं ।
( ५, ६, ६४६.
खुद्दाभवग्गहणस्सुवरि जहणिया अपज्जत्तणिव्वत्ती ।। ६४७ ।। घादखुद्दाभवग्गहणस्सुवरि ततो संखेज्जगुणं अद्धाणं गंतूण सुहुमणिगोदजीवअपज्ज - ताणं बंधे जहणं जं णिसेयखुद्दाभवग्गहणं तस्स जहणिया अपज्जत्तणिव्वत्तित्ति सण्णा । एत्थं विपुवं व दोहि पयारेहि वक्खाणं कायव्वं ।
जहणियाए अपज्जत्तणिव्वत्तीए उवरिमुक्कस्सिया अपज्जत्तणिव्वत्ती अंतोमुहुत्तिया ॥। ६४८।।
आसंक्षेपाद्धा के ऊपर क्षुल्लकभवग्रहण है ॥ ६४६ ॥
बन्ध होने पर जो सबसे जघन्य विश्रमणकाल है उसकी क्षुल्लकभवग्रहण संज्ञा है । वह आयुबन्धकाल के ऊपर होता है ।
शंका- इसकी क्षुल्लक भवग्रहण संज्ञा कैसे है ?
समाधान-समुदायोंमें प्रवृत्त हुए शब्द उनके अवयवों में भी प्रवृत्ति करते हैं इस न्याय के अनुसार इसकी क्षुल्लकभवग्रहण संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं आता है ।
यह क्षुल्लकभवग्रहण भी तृतीय त्रिभाग में ही होता है क्योंकि, इसके विना तृतीय त्रिभाग सम्पूर्ण नहीं होता । अथवा आसंक्षेपाद्धाके ऊपर क्षुल्लक भवग्रहण है ऐसा कहने पर जघन्य आयुबन्धकालके अन्तिम समयसे ऊपर अन्तर्मुहूर्त जा कर नीचे के भाग के साथ घात क्षुल्लक भवग्रहण होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।
क्षुल्लकभवग्रहण के ऊपर जघन्य अपर्याप्त निवृति होती है ।। ६४७ ॥
घात क्षुल्लक भवग्रहण के ऊपर उससे संख्यातगुणा अध्वान जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके बन्धसे जो जघन्य निषेक क्षुल्लक भवग्रहण होता है उसकी जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्ति संज्ञा है। यहां पर भी पहले के समान दो प्रकारसे व्याख्यान करना चाहिए ।
जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्तिके ऊपर उत्कृष्ट अपर्याप्त निवृत्ति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है । ६४८ ॥
प्रतिपु' असखेयस्सुवरि' इति पाठः ।
अ० प्रती ' तस्सखुद्दा ' इति पाठः ।
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बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
(५०५
जिसेयखद्दाभवग्गहणस्सुवरि समउत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तणिव्वत्तिटाणाणि गंतूण सुहमणिगोदअपज्जत्ताणमुक्कस्साउअं होदि । सा च अपज्जत्तणिवत्ती अंतोमहुत्तिया, पढमसमयप्पहुडि सव्वकालग्गहणादो । घादखुद्दाभवग्गहणचरिमसमयप्पहुडि जाव णिसेयखुद्दाभवग्गहणचरिमसमओ ति ताव गिसेय. खद्दाभवग्गहणस्त संखेज्जेसु भागेसु मरणजवमज्झं होदि, तमेत्थ किग्ण परूविदं ? " एस दोसो, जवमज्झमिदि अणवट्टदे तेणेवं संबंधो कायवो जहणिया अपज्जत्तणिवत्ती जवमज्झं होदि त्ति । तेण जवमज्झस्स एत्थ अस्थित्तं परविदं चेव । हेटिल्लए विभागजहणियाए अपज्जत्तणिप्पत्ती जवमझं होवि ति, एवमदिक्कते सुत्ते वि संबंधो कायवो, जवमज्झस्स मज्झदीवयत्तेण अवटाणवलंभादो । एसा सव्वा वि परूवणा बादरणिगोदाणं । संपहि सुहमणिगोदाणं परूवण?मत्तरसुत्तं भणदि । तं चेव सुहमणिगोवजीवाणं जहणिया अपज्जत्तणिवत्ती । ६४९ ।
तम्हि चेव बादरणिगोदणिवत्तिजवमज्झस्स गन्भे बादरजवमज्झस्स पढम-- चरिमसमए आवलियाए असंखेज्जभागेण अपावेदूण सुहमणिगोदजीवाणं जहणिया अपज्जत्त णिवत्ती होदि ।
निषेकक्षुल्लक भवग्रहणके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वत्तिस्थान जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट आयु होती है। वह अपर्याप्तनिर्वत्ति अन्तर्मुहुर्तप्रमाण होती है, क्योंकि, यहां पर प्रथम समयसे लेकर समस्त कालका ग्रहण किया है।
शंका-- घात क्षुल्लक भवग्रहणके प्रथम समयसे लेकर निषेक क्षुल्लक भवग्रहणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक उसमें निषेक क्षुल्लक भवग्रहणके संख्यात बहुभागोंमें मरणयवमध्य होता है उसका यहां पर कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान --- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यवमध्य पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिए इस प्रकार सम्बन्ध कर लेना चाहिए कि जघन्य अपर्याप्त निर्वत्ति यवमध्य होता है । इसलिए यवमध्यका यहाँ पर अस्तित्व कहा ही है। अधस्तन भागमें जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्ति यवमध्य होता है। इसी प्रकार पिछले सूत्र में भी सम्बन्ध करना चाहिए, क्योंकि, यवमध्यका मध्यदीपकरूपसे अवस्थान उपलब्ध होता है।
___ यह सब प्ररूपणा बादर निगोदोंकी है। अब सूक्ष्म निगोदोंका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं --
वही सूक्ष्म निगोद जीवोंकी जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्ति है । ६४९ ।
उसी बादर निगोद निर्वृत्ति यवमध्यके भीतर बादर यवमध्यके प्रथम और अन्तिम समयको आवलिके असंख्यातवें भागद्वारा प्राप्त न कर सूक्ष्म निगोद जीवोंकी जघन्य अपर्याप्त निवृत्ति होती है ।
O ता० प्रती -मिदि वृत्ते अणुवट्टदे नेणेव मंबंधो ' इति पाठः ।
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५०६ ) छपखंडागमे वगणणा खंड
( ५, ६, ६५० उवरिमुक्कस्सिया अपज्जत्तणिवत्ती अंतोमुहुत्तिया ॥६५०।। सुगमं । तत्थ इमाणि पढमदाए आवसयाणि होति ॥६५१॥
पढमदाए पढमसमयप्पहुडि जाव सुहमणिगोदजीवाणं उक्कस्सिया अपज्जत्तणिवत्ती तत्थ इमाणि उवरि भण्णमाणआवासयाणि होति, ण अण्णत्थ, असंभवादो । एदाणि पढमदाए वत्तवाणि, एदेहितो सेसावासयाणं सिद्धीए ।
तदो जवमज्झं गंतण सहमणिगोदअपज्जत्तयाणं णिल्लेवणट्ठाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥६५२॥
तदो इदि वुत्ते उप्पण्णपढमसमयप्पहडि अंतोमहत्तं गंतूण जवमज्झस्स पढमसमयो होदि त्ति वत्तन्वं । कुदो? पढमसमयप्पहुडि उवरि ताव संखेज्जावलियाओ त्ति तत्थ पिल्लेवणढाणाणमभावादो*।तत्थ ताणि त्थि त्ति कुदो णव्वदे? अपज्जत्तणिवत्तणकालो जहण्णओ वि संखेज्जावलियमेत्तो चेव होदि ति गुरूवएसादो । जवमज्झमिति किरियाविसेसणं, तेग जहा जवमझं होदि तहा गंतू ग सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयाण
उपरिम उत्कृष्ट अपर्याप्त निर्वत्ति अन्तर्मुहर्तप्रमाण है ।६५०॥ यह सूत्र सुगम है। वहाँ प्रथम समयसे लेकर ये आवश्यक होते हैं ॥६५१॥
पढमदाए अर्थात् प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्म निगोद जीवोंकी उत्कृष्ट अपर्याप्त निर्वृत्ति तक वहाँ ये आगे कहे जानेवाले आवश्यक होते हैं अन्यत्र नहीं होते, क्योंकि, अन्यत्र उनका होना असम्भव है। ये प्रथम समयसे कहने चाहिए. क्योंकि, इनसे शेष आवश्यकोंकी सिद्धि होती है।
___तदनन्तर यवमध्यके व्यतीत होनेपर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्पकोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान होते हैं ।। ६५२।।
तदो ऐसा कहनेपर उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्महुर्त जाकर यवमध्यका प्रथम समय होता है ऐसा यहाँ कहना चाहिए, क्योंकि, प्रथम समयसे लेकर कार संख्यात आवलि काल तक वहाँ निर्लेपनस्थानोंका अभाव है।
शंका-- वहाँ वे नहीं हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- क्योंकि, अपर्याप्त निर्वृत्तिकाल जघन्य भी संख्यात आवलिप्रमाण ही है ऐसा गुरुका उपदेश है। इससे जाना जाता है कि प्रथम समयसे लेकर संख्यात आवलिप्रमाण काल होने तक निर्लेपनस्थान नहीं होते ।
यवमध्य यह क्रियाविशेषण हैं, इससिए जिस प्रकार यवमध्य होता है उस प्रकार जाकर
है ता० प्रती -णिगोदअपज्जत्तयाणं' इति पाठः । * अ० प्रती 'ट्राणाणि समभावादो' इति पाठ: 1
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५, ६, ६५२) बंधणाणुयोगदारे चूलिया
( ५०७ जिल्लेवणढाणाणि होति ति भाणिदव्वं । कि णिल्लेवणं णाम? आहार-सरीरिदियआणपाणअपज्जत्तीणं णिवत्ती पिल्लेवणं णाम । जदि अपज्जत्ती ण तिस्से णिवत्ती अस्थि, विप्पडिसेहादो? ण अपज्जत्तीए वि अपज्जत्तिसरूवेण णिप्पत्ति पडि विरोहाभावादो। ताणि च णिल्लेवणढाणाणि जवमझं गदाणि आवलियाए असंखेज्जदिभाग. मेत्ताणि होति । एवं कुदो वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। ण च पमाणं पमागंतरमवेक्खदे, अगवत्थापसंगादो । एत्थ जवमझसरूवपरूवणा कीरदे । तं जहाउप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमत्तं गंतूण चदुण्णमपज्जत्तीर्ण सिग्धं णिवत्तया सुहमणिगोदअपज्जत्तया थोवा । ण च चत्तारि अपज्जत्तीओ वि जुगवं ण णिल्लेविज्जंति*, आहार सरीरिदिय-आणपाणपज्जत्तीणं कमेण: णिप्पण्णाणमक्कमेण पच्छा पिल्लेवणुवलंभादो । णिप्पत्ति-णिल्लेवणाणं भेदमरि भणिस्सामो। तदो सम. उत्तराए दिदीए णिवत्तिया विसेसाहिया । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव आवलियाए असंखेज्जभागमेत्तमद्धाणं गदं ति । पुणो तत्थ जवमज्झं होदि ।
सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके निर्लेपनस्थान होते हैं ऐसा कहलाना चाहिए ।
शंका-- निर्लेपन किसे कहते हैं ?
समाधान-- आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोछ्वास अपर्याप्तियोंकी निर्वृत्तिको निर्लेपन कहते हैं।
शंका-- यदि अपर्याप्त है तो उसकी निर्वृत्ति नहीं होती, क्योंकि, अपर्याप्तिकी निर्वृत्ति होने का निषेध है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, अपर्याप्तिकी भी अपर्याप्तिरूपसे निष्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं हैं।
वे निर्लेपनस्थान यवमध्यको प्राप्त हुए आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। शंका-- इस प्रकार किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- इसी सूत्रसे जाना जाता है। और एक प्रमाण दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि, ऐसा मानने पर अनवस्थाका प्रसंग आता है।
यहाँ पर यवमध्यके स्वरूपकी प्ररूपणा करते हैं। यथा- उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहर्त जाकर चार अपर्याप्तियोंके शीघ्र निर्वर्तक सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव थोडे हैं। चार अपर्याप्तियाँ एक साथ निर्लेपनभावको नहीं प्राप्त होती यह कहना ठीक नहीं हैं क्योंकि, क्रमसे निष्पन्न हुई आहार, शरीर, इन्द्रिय और आनापान पर्याप्तियोंका बादमें अक्रमसे निर्लेपन भाव देखा जाता है । निष्पत्ति और निर्लेपनमें जो भेद है उसे आगे कहेंगे। उससे एक समय अधिक स्थितिके निवर्तक जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने तक विशेष अधिक विशेष अधिक हैं। पुनः वहाँ पर यवमध्य होता है। यवमध्यके उपरिम समयमें चार
४ ता० प्रती एवं कुदो' इति पाठ * ता० प्रती । जिल्ले विज्जदि ' इति पाउ: 1
ता. प्रतो '-पज्जतीणि (ण) कमेग' का० प्रती -जतीणि कमेग' इति पाठ।।
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५०४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६ ६५२ जवमज्झस्सुवरिमसमए चत्तारि अपज्जतिमिल्लेवया जीवा विसेसहीणा। एवं विसेसहीणा विसेसहीणा होदूण उवरि आवलि. असंखे०भागमेत्तमद्धाणं गंतूण चत्तारिअपज्जत्तिपिल्लेवया जीवा समप्पंति । उप्पण्णसमयप्पहुडि आहारवग्गणादो अभवसिद्धिएहि अणंतगणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तं पदेसपिडं घेत्तूण आहार-सरीरिदिय आणापाणपज्जत्तीओ जगवदेव पारंभिय तदो अंतोमहत्तं गंतूण आहारअपज्जत्ति समाणिय तदो अंतोमहत्तं गंतूण सरीरअपज्जत्ति समाणेदि । तदो अंतोमहुत्तं गंतूण पासिदियअपज्जत्ति समादि । तदो अंतोमहत्तं गंतूण आणपाणअपज्जत्ति समादि । तदो अंतोमहत्तं गंतूण चत्तारि वि अपज्जत्तीओ जगवं पिल्लेवेदि त्ति भणिदं होदि । एवं सव्वणिल्लेवणढाणाणं अत्थपरूवणा पुध पुध कायस्वा । एत्थ गुणहाणिअद्धाणस्स णाणागणहाणिसलागाणं च पमाणमावलि० असंखे० भागो। एत्थ एगा वि गुणहाणी गत्थि त्ति के वि आइरिया भणंति । एत्थ जवमज्झहेटिमअद्धाणादो उवरिमअद्धाणं सरिसमिदि के वि आइरिया भणंति । के वि विसेसाहियमिदि भणंति। के वि संखेज्जगणं, के वि असंखे०गणं ति। तेणेत्थ अम्हाणं ण णिच्छओ अस्थि । तदो जाणिऊण वत्तव्वं ।
तदो जवमज्झं गंतण बावरणिगोदजीवअपज्जत्तयाण* पिल्लेअपर्याप्तियों के निर्लेपन करनेवाले जीव विशेष हीन हैं। इस प्रकार विशेष हीन विशेष हीन होते हुए आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर चार अपर्याप्तियोंका निर्लेपन करनेवाले जीव समाप्त होते हैं। उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर आहारवर्गणामेंसे अभव्योंसे अनंतगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण प्रदेशपिण्डको ग्रहण कर आहार, शरीर, इन्द्रिय और आनापान पर्याप्तियोंको एकसाथ प्रारम्भ करके अनन्तर अन्तर्महुर्त जाकर आहार अपर्याप्तिको समाप्त कर फिर अन्तर्मुहुर्त जाकर शरीर अपर्याप्तिको समाप्त करता है। फिर अन्तर्मुहुर्त जाकर स्पर्शनेन्द्रिय अपर्याप्तिको समाप्त करता है। फिर अन्तर्मुहुर्त जाकर आनापान अपर्याप्तिको समाप्त करता है। फिर अन्तर्मुहर्त जाकर चारों ही अपर्याप्तियोंको एकसाथ निर्लेपित करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार सब निर्लेपनस्थानोंकी अर्थप्ररूपणा अलग अलग करनी चाहिए । यहाँ पर गुणहामिअध्वान और नानागुणहानिशलाकाओंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। यहाँ पर भी गुणहानि नहीं है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। तथा यहाँ पर यवमध्यका उपरिम अध्वान अधस्तन अध्वानके समान है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । तथा कितने ही आचार्य विशेष अधिक है ऐसा कहते हैं। तथा कितने ही संख्यातगुणा और कितने ही असंख्यातगुणा कहते हैं, इस लिए इस विषयमें हमारा कोई निश्चय नहीं है, इसलिए जानकर कथन करना चाहिए ।
अनन्तर यवमध्य जाकर बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके आवलिके असख्यातवें
है ता० प्रती 'विसेसाहिया 1 एवं ' इति पाठः ।
ता० प्रती -णिगोदअपज्जत्तयाणं ' इति पाठा।
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५, ६, ६५३ )
योगद्दारे चूलिया
(५०९
वणट्ठाणाणि आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्ताणि ॥ ६५३ ॥ तदो इदि जिसो मिट्ठे कदो ? उप्पण्णपढमसमए चेव चत्तारि अपज्जत्तीओ अक्क मेण आढप्पतित्ति जाणावणट्ठे कदो । उप्पण्णपढमसमए चेव चत्तारि अपज्जत्तीओ अक्कमेणाढाविय उवरि अंतोमृहुत्तं गंतून सुहुमणिगोदअपज्जत्ताणं वृत्तविहाणेण कमेण समाजिय तेसि पिल्लेविज्जमाणद्वाणाणि आवलि० असंखे ० भागमेत्ताणि । तेसु द्वाणेसु विजीवा जवमज्झागारेण होंति त्ति एदेण सुत्तेण जाणाविदं । सेसं जहा सुहुमणिगोदअपज्जत जिल्लेवणट्ठाणाणं परूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा । णवरि सुहुमणिगोदजवमज्झस्स पढमणिल्लेवणद्वाणादो हेट्ठा आवलियाए असंखे० भागमेत्ताणि पिल्लेवणद्वाणि ओसरिण बादरणिगोदअपज्जतपढमणिल्लेवणद्वाणं होदि । सुहुमणिगोदअपज्जत निल्लेवणटुणजत्रमज्झादो बादरणिगोदअपज्जत्तणिल्लेवणट्ठाणजवमज्झं पुण्वं चेव आरंभदिति भणिदं होदि । सुहुमणिगोदजवमज्झस्स चरिमणिल्लेवणद्वाणादो आवलिया असंखे० भागमेत्तणिल्लेवणद्वाणाणि उवरि गंतून बादरणिगोदअपज्जत्तस्स चरिमजिल्लेवणद्वाणं होदि । सुहुमणिगोदअपज्जत्तजवमज्झादो आवलि० असंखे ० भागमेत्तजिल्लेद्वाणाणि उवरि गंतूण बादरणिगोदअपज्जत्तजवमज्झं होदि । एदं सुत्तेण
भागप्रमाण निर्लेपनस्थान होते हैं ।। ६५३ ॥
शंका- तदो यह निर्देश किसलिए किया है ?
समाधान -- उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही चार अपर्याप्तियोंको युगपत् प्रारम्भ करता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए तदो यह निर्देश किया है ।
उत्पन्न होने के प्रथम समयमें ही चार अपर्याप्तियोंको युगपत् आरम्भ करके ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकोंके उक्त विधि से क्रमसे समाप्त करके उनके निर्लेपस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण और उन स्थानों में स्थित जीव यवमध्यके आकारसे होते हैं इस बातका इस सूत्र द्वारा ज्ञान कराया गया है । शेष जिस प्रकार सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकोंके निर्लेपनस्थानोंका कथन किया है उस प्रकार यहां भी करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्म निगोद यवमध्यके प्रथम निर्लेपनस्थानसे नीचे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान उतरकर बादर निगोद अपर्याप्तकोंका प्रथम निर्लेपनस्थान होता है । सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त के निर्लेपनस्थान यवमध्यसे बादर निगोद अपर्याप्तकका निर्लेपनस्थान यवमध्य पहले ही आरंभ होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके अन्तिम निर्लेपनस्थान से आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपन स्थान ऊपर जाकर बादर निगोद अपर्याप्तका अंतिम निर्लेपनस्थान होता है। सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके यवमध्यसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान ऊपर जाकर बादर निगोद अपर्याप्तकोंका यवमध्य होता है ।
★ ता० प्रतो' आढवंति इति पाठः ।
४) ता० का० प्रत्यो।' चरिमगिल्लेवणद्वाणं होदि ] सुहु मणिगोद अपज्जत्तजवमज्झादो एवं ' इति पाठ ! 1
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५१० ) छपखंडागभे वग्गणा खंड
( ५, ६, ६५४ विणा कुदो णव्वदे? अविरुद्धाइरियवयणादो । तदो सुहमणिगोदजीवादो तम्मज्झादो च उवरि जवमज्झं गंतूण बादरणिगोदजीवअपज्जताणं पिल्लेवणढाणाणि आवलि. असंखे० भागमेत्ताणि होति त्ति सुत्तद्वत्तादो वा एसो विसेसोवगम्मदे । हेट्ठिमभागस्स आवलियाए असंखे० भागमेत्तमेदेणेव देसामासियसुत्तेणावगंतव्वं ।।
तदो अंतोमहत्तं गंतूण सुहमणिगोवजीवअपज्जत्तयाणमाउअबंधजवमज्झं ॥६५४॥
तदो जवमज्झं गंतूणे त्ति अभणिय तदो अंतोमहत्तं गंतूण आउअबंधजवमज्झमिदि किमळं भणिदं ? जहा आहारादिपज्जत्तीणं उप्पणपढमसमए चेव पारंभो होदि तहा आउअबंधस्स पारंभो ण होदि किंतु उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि सगजहण्णजीवियस्स वेतिभागे गंतूण तिभागावसेसे आउअबंधो होदि त्ति जाणावणठं भणिदं। एत्थ जवमज्झसरूवपरूवणा कीरदे । तं जहा- तदियतिभागपढमसमए आउअबंधया जीवा जदि वि अणंता तो वि उवरिमजीवे पेक्खिदूण थोवा । बिदियसमए आउअबंधया जीवा विसेसाहिया । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया होदूण आउअं बधंति जवमझे त्ति । तदो अणंतरउवरिमसमए विसेसहीणा विसेसहीणा जाव सुहुमणिगोद
शंका-- सूत्रके बिना यह किस प्रमाणसे जाान जाता है ? समाधान-- अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है।
अथवा सूक्ष्म निगोदके यवसे और उसके मध्यसे ऊपर यवमध्य जाकर बादर निगोद अपर्याप्त जीव के निर्लेपनस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं इस प्रकार यह विशेष सूत्रके अर्थका परामर्श करनेसे जाना जाता है। अधस्तन भाग का जो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है वह इसी देशामर्षक सूत्रसे जानना चाहिए ।
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंका आयुबन्ध यवमध्य होता है ।। ६५४ ॥
शंका-- उसके बाद यवमध्य जाकर ऐसा न कहकर उसके बाद अन्तर्महतं जाकर ऐसा किसलिए कहा है ?
समाधान-- जिस प्रकार आहार आदि पर्याप्तियोंका उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही प्रारम्भ होता है उस प्रकार आयुबन्धका प्रारम्भ नहीं होता किन्तु उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर अपने जघन्य जीवित रहने के दो त्रिभाग जाकर एक त्रिभाग शेष रहने पर आय बन्ध होता है इस बात का ज्ञान कराने के लिए कहा है।
यहां पर यवमध्यके स्वरूपका कथन करते हैं । यथा- तृतीय त्रिभागके प्रथम समयमें आयुका बन्ध करनेवाले जीव यद्यपि अनन्त हैं तो भी आगेके जीवोंको देखते हुए थोडे हैं। दूसरे समयमै आयुका बन्ध करनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक विशेष अधिक विशेष अधिक जीव आयुका बन्ध करते हैं। उसके बाद अनन्त र उपरिम समयोंमें विशेष हीन विशेष हीन जीव आयु का बन्ध करते हैं। इस प्रकार यह क्रम सुक्ष्म निगोद
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५, ६, ६५६ )
पंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५११
अपज्जताणं असंखेपद्धाए पढमसमओ त्ति । एत्थ जवमज्झस्स हेडा आवलियाए असंखेज्जविभागो उवरि अंतोमहत्तं एगगुणहाणिअद्धाणं णाणागणहाणिसलागाओ च आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ त्ति के वि आइरिया भणंति । के वि पुण एत्थ एग पि दुगुणवडिपमाणं णस्थि त्ति भणंति ।
तदो अंतोमुत्तं गंतूण बावरणिगोवजीवअपज्जत्तयाणमाउअबंधजवमझं ॥ ६५५ ॥
एस्थ जथा सुहमणिगोदअपज्जत्ताणमाउअबंधजवमज्झस्स परूवणा कदा तहा कायव्वा । परि सुहमणिगोदअपज्जत्तजवमज्झस्त जहण्णट्ठाणादो हेट्ठा आवलि० असंखे०भागमेत्तट्टाणाणि ओसरिदूण बादरणिगोदअपज्जत्ताणं पढम आउअबंधढाणं होदि । सुहमणिगोदअपज्जत्तजवमज्झस्स चरिमट्ठाणादो उवरि आवलियाए असंखे०भागट्टाणाणि गंतूण बादरणिगोद अपज्जत्ताणं जवमज्झस्त चरिमट्ठाणं होदि । एवं जवमझदेसस्स वि वत्तव्वं ।
तदो अंतोमुहत्तं गंतूण सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयाणं मरणजवमझं ॥ ६५६ ।।
तदो अंतोमहुत्तमिदि वृत्ते उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि जाव खुद्दाभवरगहणचरिम
अपर्याप्तकोंके आसंक्षेपाद्धाके प्रथम समयके प्राप्त होने तक चालू रहता है । यहां पर एकगुणहानिका अध्वान यवमध्यके नीचे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है और ऊपर अन्तर्मुहर्तप्रमाण है । तथा नानागुणहानिशलाकायें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परन्तु कितने ही आचार्य यहां पर एक भी द्विगुणवृद्धि का प्रमाण नहीं है ऐसा कहते हैं।
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंका आयुबन्ध यवमध्य होता है । ६५५ ।
यहां पर जिस प्रकार सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके आयु बन्धयवमध्यका कथन किया हैं उस प्रकार करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके यवमध्यके जघन्य स्थानसे नीचे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान सरककर बादर निगोद अपर्याप्तकोंका प्रथम आयुबन्धस्थान होता है। तथा सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकोंके यवमध्यके अन्तिम स्थानसे ऊपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर बादर निगोद अपर्याप्तकोंके यवमध्यका अन्तिम स्थान होता है। इसी प्रकार यवमध्यदेशका भी कथन करना चाहिए ।
__उसके बाद अन्तर्मुहुर्त जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंका मरणयवमध्य होता है । ६५६ ।
उसके बाद अन्तर्मुहुर्त ऐसा कहने पर उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर क्षुल्लकभव
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५१२ )
पखंडागमे वगणा-ख
समओ त्ति ताव एत्तियमद्धाणं गंतण मरणजवमज्झस्त पारंभो होदि त्ति घेत्तन्वं । एत्थ जवमज्झसरूवपरूवणा कीरदे । तं जहा-खद्दाभवग्गहणचरिमसमए मरंता जीवा अणंता वि होदूण उवरिमेहितो थोवा । तदणंतरउवरिमसमए मरंता जीव विसेसाहिया। एवं विसेसाहिया विसेसाहिया मरंति जाव जवमज्झे ति। तेण परं विसेसहीणा होदण मरंति जाव गिसेयखुद्दाभवग्गहणचरिमसमओ त्ति । एत्थ मरणजवमज्झस्स हेट्ठिमउवरिमअद्धाणं सव्वं णिसेयखद्दाभवग्गहणस्त संखेज्जा भागा। किंतु हेट्ठा आवलि. असंखे० भागो उवरि अंतोमहत्तं । एत्थ वि गुणहाणिअद्धाण-णाणागणहाणिसलागासु आइरियाणं पुव्वं व विप्पडिवती परूवेयव्वा । एदेसि तिण्ण जवमज्झाणमभंतरे एगा वि दुगुणवड्ढी णत्थि एसो अत्थो जत्तिमंतो । कुदो? सुत्तम्मि णाणागुणहाणिसलागाणमेगगुणहाणिअद्धाणस्स च पमाणपरूवणाभावादो । ण च संतमत्थं सुत्तं वक्खाणाणि वा ण परूवेंति, विरोहादो।
तदो अंतोमहत्तं गंतण बादरणिगोदजीवअपज्जत्तयाणं मरण -- जवमज्झं । ६५७ ।
जहा सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयाणं मरणजवमज्झस्स परूवणा कदा तहा
ग्रहणके अन्तिम समय तक इतना स्थान जाकर मरणयवमध्य
ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यहाँ पर यवमध्यके स्वरूपका कथन करते है। यथा-क्षल्लकभवग्रहणके अन्तिम समयमें मरने वाले जीव अनन्त होकर भी आगेके जीवोंसे स्तोक होते है। उससे अनन्तर उपरिम समयमें मरनेवाले जीव विशेष अधिक होते हैं । इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक मरनेवाले जीव प्रति समय में विशेष अधिक विशेष अधिक होते हैं। उसके बाद निषेक क्षुल्लकभवग्रहणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक प्रत्येक समय में विशेष हीन विशेष हीन जीव मरते हैं। यहाँ पर मरण यवमध्यका अधस्तन और उपरिम सब अध्वान निषेक क्षुल्लक भवग्रहणका संख्यात बहभागप्रमाण होता है। किन्त अधस्तन अध्वान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उपरिम अध्वान अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है। यहाँ पर गुणहानिअध्वान और नानागुणहानिशलाकाओंके विषयमें आचार्यों में विवाद है सो इसका कथन पहले के समान करना चाहिए। इन तीनों ही यवमध्योंके बीच में एक भी द्विगुणवृद्धि नहीं है यह अर्थ युक्तिको लिए हुए है, क्योंकि, सूत्रमें नानागुणहानिशलाकाओंके और एक गुणहानिअध्वानके प्रमाणका कथन नहीं किया है। सूत्र व व्याख्यान सद्रूप अर्थका व्याख्यान नहीं करते हैं ऐसा नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है ।
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंका मरणयवमध्य होता है ।। ६५७ ॥
जिस प्रकार सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके मरणयवमध्यका कयन किया है उस प्रकार
* ता. प्रतो 'परूवेति ति, 'विरोहादो ' इति पाठः ।
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५, ६, ६५८
बंधानुयोगद्दारे चूलिया
( ५१३
बादरणिगोदजीव अपज्जत्ताणं पि मरणजवमज्झस्स परूवणा कायव्वा । णवरि बादरणिगोदअपज्जत्ताणं मरणजवमज्झे पारंभिय आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तद्वाणे गदे संते पच्छा हुमणिगोदअपज्जत्तजवमज्झस्स पारंभो होदि । सुहुमणिगोदअपज्जतजवमज्झे समत्ते संते पच्छा उवरि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तद्वाणं गंतूण बादरणिगोदअपज्जत्ताणं मरणजवमज्झं समप्यदि । के वि अंतोमृहुत्तमिदि भांति ! एवं दोष्णं जवाणं मज्झे देसपरूवणा जाणिवण कायव्वा । जहण्णाउअम्मि संचय गदहुमणि गोदअपज्जत्तएसु कालं काढूण णिट्टिदेसु जहण्णाउअम्मि संचयं गवबादरणिगोद अपज्जत्ता पच्छा कालं काऊण समप्यंति त्ति भणिदं होदि ।
तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमणिगोदजीव अपज्जत्तयाणं णिव्वत्तिट्ठाणाणि आवलि० असंखेज्ज० भागमेत्तानि ।। ६५८ ।।
तदो अंतोमुहुत्तं गंतणे त्ति वृत्ते मरणजवमज्झचरिमसमयादो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतून निव्वत्तिद्वाणाणि होंति त्ति ण घेत्तव्वं । किंतु उप्पण्णपढमसमय पहुडि अंत्तोमुहुत्तं गंतून मरणजवमज्झचरिमसमयप्पहूडि निव्वत्तिद्वाणाणि उवरि आवलि० असंखे० भागमेत्ताणि होंति त्ति घेत्तव्वं । कुदो ? सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तआउअस्स जिसे यट्टिदिवियप्पाणं णिव्यत्तिट्ठाण त्तन्भुवगमादो । तं जहा - सुहुमणिगोदजीवबादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके भी मरणयवमध्यका कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि बाहर निगोद अपर्याप्तकों के मरणयवमध्यको प्रारम्भ करके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने पर बादमें सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकों के यवमध्यका प्रारम्भ होता है । सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकों के यवमध्यके समाप्त होनेपर बाद में ऊपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर बादर निगोद अपर्याप्तकों का मरण यवमध्य समाप्त होता है । यहाँ कितने ही आचार्य अन्तर्मुहूर्त काल कहते है । इस प्रकार दोनों यवोंके मध्य में देशप्ररूपणा जानकर करनी चाहिए | जघन्य आयुके भीतर संचित हुए बादर निगोद अपर्याप्तकों के मरकर समाप्त होने के बाद जघन्य आयुके भीतर संचित हुए बादर निगोद अपर्याप्त जीव मरकर समाप्त होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वृत्तिस्थान होते हैं ।। ६५८ ॥
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर ऐसा कहने पर मरणयवमध्यके अन्तिम समय से ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर निर्वृत्तिस्थान होते हैं ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए | किन्तु उत्पन्न होने के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त जाकर मरणयवमध्यके अन्तिम समयसे लेकर निर्वृत्तिस्थान ऊपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकी आयुके जो निषेकस्थितिविकल्प हैं उन्हें निर्वृत्तिस्थानरूपसे स्वीकार किया है ।
* अ० का० प्रत्यो - णिगोदअरज्जत्ताणं इति पाठ । ता० प्रतो त्रित्तिद्वाणत्वगमादो' इति पाठ |
"
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५१४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ६५९ अपज्जत्तयस्स सम्वजहण्णं णिसेयखद्दाभवग्गहणं तमेगं णिवत्तिटाणं । पुणो जं समउत्तरं णिसेयखुद्दाभवग्गहणं तं बिदियणिवत्तिद्वागं । जं दुसमउत्तरं गिसेयखुद्दाभवग्गहणं तं तदियणिवत्तिद्वाणं । एवं तिसमयउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे० भाग मेत्तणिव्वत्तिद्वाणाणि जिरंतरमरि गंतूण सहमणिगोदजीवअपज्जत्ताणं सवुक्कस्सआउणिव्वत्तिढाणं होदि त्ति सिद्धं ।
तदो अंतोमहत्तं गंतूण बावरणिगोदजीवअपज्जत्तयाण* णिवत्तिट्ठाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ।। ६५९ ।।
तदो अंतोमहुत्तं गंतूणे ति वृत्ते एत्थ वि उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि जाव मरगजवमज्झचरिमसमओ ति ताव एदमतोमहत्तमेतद्धाणं गंतूण मरणजवमज्झचरिमसमयप्पहुडि उवरि आवलि. असंखे० भागमेत्ताणि बादरणिगोदजीवअपज्जत्ताणं णिवत्तिट्ठाणाणि होति त्ति घेत्तव्वं । णवरि एदाणि बादरणिगोदअपज्जत्तणिव्वत्तिद्वाणाणि सुहमणिगोदअपज्जत उक्कस्सणिव्वत्तिद्वाणादो उरि आवलि० असंखे०भागमेत्तमद्धाणं* गंतूण द्विदाणि त्ति घेत्तव्वं । कुदो एवं जव्वदे ? ततो पच्छा एदस्स सुत्तस्स णिद्देसण्णहाणुववत्तीदो ।
यथा- सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवका सबसे जघन्य जो निषेक क्षुल्लक भवग्रहण है वह एक निर्वत्तिस्थान है । पुनः जो एक समय अधिक क्षुल्लकभवग्रहण है वह दूसरा निर्वत्तिस्थान है । जो दो समय अधिक निषेक क्षुल्लक भवग्रहण है वह तिसरा निर्वत्तिस्थान है। इस प्रकार एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वत्तिस्थान निरन्तर ऊपर जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंका सर्वोत्कृष्ट आयुनिर्वृत्तिस्थान होता है यह सिद्ध हुआ।
उसके बाद अन्तर्महर्त जाकर बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वत्तिस्थान होते हैं ।। ६५९ ॥
उसके बाद अन्तर्मुहर्त जाकर ऐसा कहने पर यहाँ भी उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर मरणयवमध्यके अन्तिम समयतक यह अन्तर्मुहुर्तप्रमाण अध्वान जाकर मरणयवमध्य के अन्तिम समयसे लेकर ऊपर बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वत्तिस्थान होते हैं ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि बादर निगोद अप
प्ति जीवोंके ये निर्वत्तिस्थान सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकों के उत्कृष्ट निर्वृत्तिस्थानसे ऊपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अध्वान जाकर स्थित हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए ।
शंका-- यह कित प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- क्योंकि, उसके बाद इस सूत्रका निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है।
४ ता० का० प्रत्यो: ' एवं तिसमउत्तरादिकमेण ' इति पाठः । * ता० प्रती · बादरणिगोदअप्पज्जत्तयाणं ' इति पाठः। ता० प्रती गंतुणे ति एत्थ ' इति पाठ:1:का० प्रती 'मेतद्धाणं ' इति पाए।
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५, ६, ६६० )
घणानुयोगद्दारे चूलिया
( ५१५
तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सव्वजीवाणं णिव्वत्तीए अंतरं ॥ ६६० ॥ बादरणिगोदअपज्जत्त उक्कस्सणिव्वत्तिमेत्तमद्वाणं उपणपढमसमय पहुडि उवरि गंतूण सव्त्रबादरसुहुमणिगोदअपज्जत्ताणं णिव्वत्तीए अंतरं होदि । बादरणिगोदअपज्जत्त उक्कस्साउआदो उवरि सव्वेसिमपज्जत्ताणमुक्कस्साउअं णत्थि त्ति भणिदं होदि । कथमेदं णव्वदे ? 'सव्वजीवाणं णिव्वत्तीए अंतरं' इदि वयणादो । जदि पंचिदियअपज्जत्तादीणमुक्कस्साउअं बादरणिगोदअपज्जत्तउक्कस्साउआदो अहियं होज्ज तो 'सव्वजीवाणं निव्वत्तीए अंतरं ' ति वयणं णिरत्थयं जाएज्ज । ण, ण च एवं सुत्तस्स निरत्ययं विरोहादो । एदेण मन्त्रदे जहा सव्वेसिमपज्जत्ताणमुक्कस्साउअं सरिसं ति । एदस्स अंतरस्त प्रमाणमंतोमृहुत्तं कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयगादो । एत्तियमेत्तमंत रिण उवरि ओरालियसरीरस्स जहण्णणिव्यत्तिठ्ठाणं होदित्ति घेत्तव्वं । एगो बादरणिगोद अपज्जत्तसु दीहाउएसु जीवो उबवण्णो । अण्णेगो जीवो तम्हि चेव समए सुहुमणिगोदपज्जत्तएसु सव्वजहण्णाउएसु उबवण्णो । पुणो एसो सुहुमणिगोदपज्जत्तो जाव सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदो ण होदि ताव पुव्वं चेव बादरणिगोदअपज्जत्तो अंतोमुहुत्तमस्थि त्ति कालं काढूण भवांतरं गच्छदित्ति भणिदं होदि ।
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सब जीवोंकी निर्वृत्तिका अन्तर होता है । ६६० |
उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर बादर निगोद अपर्याप्तकोंके उत्कृष्ट निर्वृत्तिप्रमाण स्थान ऊपर जाकर बादर निगोद अपर्याप्त और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंकी निर्वृत्तिका अन्तर होता है । बादर निगोद अपर्याप्तकों की उत्कृष्ट आयुसे ऊपर सब अपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट आयु नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- सब जीवोंकी निर्वृत्तिका अन्तर होता है इस वचनसे जाना जाता है । यदि पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त आदिको उत्कृष्ट आयु बादर निगोद अपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट आयु से अधिक होवे तो सब जीवोंकी निर्वृत्तिका अन्तर होता है यह वचन निरर्थक हो जाता । परन्तु इस प्रकार सूत्र निरर्थक नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होने में विरोध आता है । इससे जाना जाता है कि सब अपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट आयु समान होती है ।
शंका-- इस अन्तरका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -- अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है ।
इतना अन्तर देकर ऊपर औदारिकशरीरका जघन्य निर्वृत्तिस्थान होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए । दीर्घ आयुवाले बादर निगोद अपर्याप्तकों में एक जीव उत्पन्न हुआ । तथा अन्य एक जीव उसी समय सबसे जघन्य आयुवाले सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ । पुनः यह सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीव जबतक शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त नहीं होता है उसके पूर्व तक ही बादर निगोद अपर्याप्त सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त है इसलिए वह मरकर भवान्तरमें चला जाता है
* का० प्रती 'णिरत्ययविरोहादो' इति पाठ: 1
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५१६ )
पखंचागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ६६१
तत्थ इमाणि पढमदाए आवासयाणि भवंति ॥६६॥
इमाणि उरि भणिस्समाणाणि पढमदाए पढमं चेव आवासयाणि होति । केसिमेदाणि पढमं चेव आवासयाणि? पज्जत्तजीवाणं । ण च अपज्जत्ताणं सरीरादीणं पज्जतिढाणाणि संभवंति, अपज्जत्तणामकम्मोदयपरतंत्ताणं पज्जत्तभावविरोहादो।
तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण तिण्णं सरीराणं णिवत्तिट्ठाणागि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥६६२॥
उप्पण्णपढमसमयप्पहडि बादरणिगोवअपज्जत उक्कस्साउअमेत्तं पुणो अण्णेगमंतोमुत्तमेत्तं च उवरि गंतूण ओरालिय-उन्विय-आहारसरीराणं णिव्वत्तिट्ठाणाणि आवलि० असंखे० भागमेत्ताणि चेव होंति वडिमाणि ऊणाणि वा ण होति त्ति भणिदं होदि। सरीरणिवत्तिट्टाणं गाम कि वृत्तं होदि ? सरीरपज्जत्तीए पज्जतिणिवत्ती सरीरणिव्वत्तिद्वाणं णाम । आहारपज्जत्तीए णिवत्तिढाणाणि किण्ण परूविदाणि ? ण, तेसि सरीरपज्जत्तीए अंतब्भावेण पुधपरूवणाकरणादो । तेसि तिग्णं सरीराणं
यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
वहां सर्व प्रथम ये आवश्यक होते हैं ।। ६६१ ॥ ये ऊपर कहे जानेवाले आवश्यक पढमदाए अर्थात् पहले ही होते हैं । शंका- किनके ये सर्व प्रथम आवश्यक होते हैं ?
समाधान- पर्याप्त जीवोंके होते हैं । यह कहना ठीक नहीं है कि अपर्याप्त जीवोंके शरीर आदिके पर्याप्तिस्थान सम्भव हैं, क्योंकि, वे अपर्याप्त नामकर्मके उदय के अधीन होते हैं, इसलिए उनके पर्याप्तभावके होने में विरोध है ।
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर तीन शरीरोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वृत्तिस्थान होते हैं ।। ६६२ ।।
उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर बादर निगोद अपर्याप्तकोंके उत्कृष्ट आयुप्रमाण तथा अन्य एक अन्तर्मुहुर्तप्रमाण ऊपर जाकर औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके निर्वत्तिस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं। न वृद्धिको लिए होते हैं न कम ही होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका- शरीरनिर्वत्तिस्थान इसका क्या तात्पर्य है ? समाधान- शरीरपर्याप्तिकी निर्वृत्तिका नाम शरीरनिर्वृत्तिस्थान है । शंका- आहारपर्याप्तिके निर्वत्तिस्थान क्यों नहीं कहे ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, उनका शरीरपर्याप्तिमें अन्तर्भाव हो जाने के कारण उनका अलगसे कथन नहीं किया है।
ता० प्रती 'पज्जत्तट्टाणाणि' इति पाठ।।9 अका.प्रत्योः 'पज्जत्ती णिव्यत्ती ' इति पाठः।
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५, ६, ६६३ )
suryaगद्दारे चूलिया
व्वितिट्ठाणाणि सरिसाणि न होंति त्ति जाणावणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि -
ओरालिय- वेउब्विय- आहारसरीराणं
हियाणि ॥ ६६३ ॥
जहाकमेण जिद्दिपरिवाडीए विसेसाहियाणि । तं जहा एक्को जीवो तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उववण्णो । पुणो तम्हि चेव समए अण्णेगो जीवो देवेसु णेरइएसु वा उववण्णो । पुणो तम्हि चेव समए अण्णेगेण पमत्तसंजदेण आहारसरीरमुट्ठावे दुमाढत्तं । तदो एवेतिणि जणा एगसमए चेव आहारसरीरवग्गणादो पदेसपिडं घेतून सगसगछपज्जत्तीओ पढमसमयप्पहुडि णिव्वत्तंति । एवं निव्वत्तयमाणाणं जहणणिव्वत्तिकालो व अतिथ उक्कस्सणिव्वत्तिकालो वि अस्थि । तत्थाहारसरीरस्स जहण्णणिव्वत्तिअद्धा थोवा । वेउव्वियसरीरस्स जहण्णणिव्वत्तिअद्धा विसेसाहिया । ओरालियसरस्स जहण्णणिव्वत्तिअद्धा विसेसाहिया । तेण कारणंण आहारसरीरस्स सरीरपज्जत्तीए जहणवित्तिद्वाणं पुव्वं चेव होदि । पुणो एदम्हादो समउत्तरं पि आहारसरणिव्वत्तिद्वाणमत्थि एदम्हादो वि बिसमयउत्तरं पि आहारणिव्वत्तिद्वाणं अस्थि ।
ता० प्रतौ ' जीवा तिरिक्खेसु' इति पाठः । * तार प्रतो' णिव्वत्तं ति' इति पाठ: 1
( ५१७
उन तीन शरीरोंके निर्वृत्तिस्थान समान नहीं होते इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं---
औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर के यथाक्रमसे विशेष अधिक हैं ।। ६६३ ।।
यथाक्रम से अर्थात् निर्दिष्ट की गई परिपाटीके अनुसार विशेष अधिक हैं। यथा- एक जीव तिर्यञ्चों में या मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । पुनः उसी समय अन्य एक जीव देवों या नारकियों में उत्पन्न हुआ। पुनः उसी समय अन्य एक जीवने आहारकशरीरको उत्पन्न करनेके लिए प्रारम्भ किया । अतः ये तीनों जीव एक समय में ही आहारकशरीरवर्गणा में से प्रदेशपिण्डको ग्रहण कर अपनी अपनी छह पर्याप्तियोंकी प्रथम समयसे लेकर रचना करते हैं । इस प्रकार रचना करनेवाले जीवोंका जघन्य निर्वृत्तिकाल भी होता है और उत्कृष्ट निर्वृत्तिकाल भी होता है । उनमें से आहारकशरीरका जघन्य निर्वृत्तिकाल स्तोक होता है । उससे वैक्रियिकशरीरका जघन्य निर्वृत्तिकाल विशेष अधिक होता है । उससे औदारिकशरीरका जघन्य निर्वृत्तिकाल विशेष अधिक होता है । इस कारण से आहारकशरीरकी शरीरपर्याप्तिका जघन्य निर्वृत्तिस्थान पहले ही होता है । पुनः इससे एक समय अधिक भी आहारकशरीरका निर्वृत्तिस्थान होता है । इससे दो समय अधिक भी आहारकशरीरका निर्वृत्तिस्थान होता है। इस प्रकार तीन समय अधिक
जहाकमं विसेसा---
ता० प्रती 'रइएसु उववण्णो इति पाठः ता० प्रतो णिव्वत्तपमाणाणं ' इति पाठ: 1
ता० प्रती 'जहण्णणिव्वती अद्धा' इति पाठा ।ता० प्रतो 'जहण्णणिव्वती अद्धा' इति पाठ ]
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५१८ )
छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६ ६६४
एवं
0
तिसमउत्तरादिकमेण आवलियअसंखे० भागमेत्तआहारसरीरनिव्वत्तिट्ठाणेसु उप्पण्णेसु तत्थ वेडव्वियसरीरपज्जत्तीए सव्वजहग्गणिव्वत्तिद्वाणं होदि । तत्तो उवरि वे उब्वियआहारसरीराणं णिव्वत्तिद्वाणाणि समउत्तरादिकमेण आवलियाए असंखे ० मत्तमद्वाणं सह गच्छति । तदो उवरिमसमए ओरालिय सरीरपज्जत्तीए सव्वजहण्णवित्ताणं होदि । एत्तो पहुडि तिष्णं पि सरीराणं णिव्वत्तिट्ठाणेसु समउत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेषु सह गदेसु आहारसरीरस्त सरीरपज्जत्तिfoodfornarari थक्कदि । पुणो जम्हि आहारसरीरस्स उक्कस्पणिव्वत्तिद्वाणं थक्कं तत्तो उवर समउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे ० भागमेत्तेसु ओरालिय-वेउव्वियसरीराणं णिव्वत्तिद्वाणेषु गदेसु वेडब्बियसरीरस्स उक्कस्स णिव्वत्तिद्वाणं * थक्कदि । पुणो जम्हि वेउव्वियसरीरस्स उक्कस्सणिव्यत्तिद्वाणं थक्कं । तत्तो हुडि उवरि समउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे ० भागमेत्तनिव्वत्तिट्ठाणेसु गदेसु ओरालिपसरीरस्स उक्कस्सणिव्त्रत्तिद्वाणं थक्कदि । एवमेवेण कर्मणुप्पण्णतिपरीरसव्वति - द्वाणाणि पत्तेयमावलि असंखे० भागमेत्ताणि होतॄण जहाक्रमेण विसेसाहियाणि होंति । एदेण सुत्तेण कहिदत्थस्स गिण्णयद्वमुत्तरसुत्तं मणदि ।
एत्थ अप्पा बहुअं - - सव्वत्थोवाणि ओरालियसरीरस्स णिव्वत्तिट्ठाणाणि ।। ६६४॥
आदिके क्रमसे आहारकशरीरके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वृत्तिस्थानोंके उत्पन्न होने पर वहां वैक्रियिकशरीर पर्याप्तिका सबसे जघन्य निर्वृत्तिस्थान होता है । उसके आगे वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर के निर्वृत्तिस्थान एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान तक साथ जाते हैं। उससे उपरिम समय में औदारिकशरीरपर्याप्तिका सबसे जघन्य निर्वृत्तिस्थान होता है। उससे आगे तीनों ही शरीरोंके निर्वृतिस्थानों के एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक एक साथ जानेपर आहारकशरीरका उत्कृष्ट शरीरपर्याप्तिनिर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है । पुनः जिस स्थान में आहारकशरीरका उत्कृष्ट निर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है उससे आगे एक समय अधिक आदिके क्रम से
दारिकशरीर और वैक्रियिकशरीर के आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वृत्तिस्थानोंके जाने पर वैक्रियिकशरीरका उत्कृष्ट स्थान श्रान्त होता है । पुनः जिस स्थान में क्रियिकशरीरका उत्कृष्ट निर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है उससे लेकर आगे एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वृत्तिस्थानोंके जाने पर औदारिकशरीरका उत्कृष्ट निर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है । इस प्रकार इस क्रमसे उत्पन्न हुए तीनों शरीरोंके सब निर्वृत्तिस्थान प्रत्येक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर भी क्रमसे विशेष अधिक होते हैं । अब इस सूत्रद्वारा कहे गये अर्थका निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं---
इनके विषय में अल्पबहुत्व -
औदारिक शरीरके निर्वृत्तिस्थान सबसे स्तोक
ता० प्रती
-
उक्कट्ठाणं ' इति पाठः ।
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५, ६. ६६७ )
योगद्दारे चूलिया
( ५१९
कुदो ? वेउव्वियसरीरणिव्वत्तिद्वाणाणमंतो पविसिय ओरालियस रीरजहण्णव्वित्तिद्वाणमुत्पत्ती दो ओरालियसरीरस्स उवरिमणिव्वत्तिट्टाणेहितो ओरालियविद्वाणादो हेमिवे उव्वियसरी रणिव्वत्तिद्वाणाणं विसेसाहियत्तदंसणादो ।
वे उब्विय सरीरस्स निव्वत्तिट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६६५ । केत्तियमेते ? आवलि. असंखे० भागमेत्तेण । कारणं पुव्वमेव परुविदं । आहारसरीरस्स णिव्वत्तिट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।।६६६ ॥ केत्तियमेत्तेण ? आवलि. असंखे ० भागमेत्तेण । आहारसरीरउक्कस्सणिव्वत्तिट्ठाणादो उबरिमवे उब्वियणिव्वत्तिद्वाणेहि सुद्धहेट्टिम आहारणिवदत्तिट्ठाणेहि वा विसेसाहियाणि ।
तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण तिष्णं सरीराणमंदियणिव्वत्तिट्ठाणाणि आवलिया असंखेज्जविभागमेत्ताणि ॥ ६६७ ।।
ओरालियरीरस्स उक्कस्ससरीरणिव्वत्तिद्वाणादो अंतोमृहुत्तमेत्तअद्वाणं गंतूण तिष्णं सरीरार्णामदिय निव्वत्तिद्वाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि होंति । सरीरपज्जतीए पज्जत्तयदो होदूण जाव अंतोमृहुत्तं ण गदो ताव सव्वो जीवो इंदिय - पज्जत्तीए पज्जत्तयदो ण होदित्ति भणिदं होदि ।
होते हैं ।। ६६४ ।।
क्योंकि, वैक्रियिकशरीर के निर्वृत्तिस्थान भीतर प्रविष्ट होकर औदारिकशरीरका जघन्य निर्वृत्तिस्थान उत्पन्न होता है । तथा औदारिकशरीरके उअरिम निर्वृत्तिस्थानों से औदारिकशरीर के निर्वृत्तिस्थानोंकी अपेक्षा अधस्तन वैक्रियिकशरीर के निर्वृत्तिस्थान विशेष अधिक देखे जाते हैं ।
किशरीर के निर्वृत्तिस्थान विशेष अधिक हैं । ६६५ ।
कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं । कारणका कथन पहले ही किया है ।
आहारकशरीर के निर्वृत्तिस्थान विशेष अधिक हैं । ६६६ ।
कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं। आहारकशरीर के उत्कृष्ट निर्वृत्तिस्थानकी अपेक्षा तथा उपरिम वैक्रियिकशरीर के निर्वृत्तिस्थानों की अपेक्षा अथवा केवल अघस्तन आहारकशरीर के निर्वृत्तिस्थानोंकी अपेक्षा विशेष अधिक हैं ।
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर तीन शरीरोंके इन्द्रियनिर्वृत्तिस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । ६६७ ।
औदारिकशरीर के उत्कृष्ट शरीरनिर्वृत्तिस्थानसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अध्वान जाकर तीन शरीरोंके इंद्रियों के निर्वृत्तिस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होकर जबतक अन्तर्मुहूर्त नहीं गया है तबतक सब जीवराशि इन्द्रियपर्याप्तिसे पर्याप्त नहीं होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
X का० प्रती - द्वाणाणमावलि ०'
इति पाठ ।
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५२० ) छक्खंडागमे वग्पणा-ख
( ५, ६, ६६८ _____ ओरालिय--वेउम्विय--आहारसरीराणं जहाकम विसेसाहियाणि ।। ६६८ ॥
तं जहा-ओरालियसरीरउक्कस्सणिव्वत्तिट्टाणादो सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमेत्तमद्धाणं गंतूण आहारसरीरस्स सव्वजहणमिदियणिवत्तिटाणं होदि । तदो समउत्तरदुसमउत्तरादिकमेण आवलि. असंखे०भागमेत्तेसु आहार-सरीरिदियणिव्वत्तिटाणेसु गदेसु तदो वेउब्वियसरीरस्स सव्वजहणमिदियणिव्वत्तिट्ठाणं होदि । एत्तो प्पहुडि वेउम्विय-आहारसरीराणमिदियणिव्वत्तिद्वाणाणि आवलि. असंखे० भागमेत्ताणि समउत्तर-दुसमउत्तरादिकमेण उवरि गंतूण तदो ओरालियसरीरस्स सव्वजहणमिदियणिव्वत्तिट्ठाणं होदि । पुणो ओरालिय वे उब्धिय-आहारसरीराणं सम उत्तर-दुसमउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे० भागमेत्तेसु इंदिणिव्वत्तिट्ठाणेसु उवरि गदेसु आहारसरीरस्स सव्वक्कस्समिदियणिव्वत्तिट्टाणं थक्कदि । पुणो तदणंतरउवरिमसमय पहुडि समउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे० भागमेत्तेसु ओरालियसरीर-वे उब्वियसरीराणमिदियणिव्वत्तिट्टाणेसु गदेसु वेउब्वियसरीरस्त सव्वक्कमिदियणिवत्तिट्टाणं थक्कदि। तको उवरि समउत्तर-दुसमउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे० भागमेत्तेसु ओरालियसरीरस्स इंदियणिव्वत्तिदाणेसु गदेसु सव्वक्कस्समोरालियसरीरस्स इंदियणिवत्तिट्टाणं थक्कदि । तेणेदाणि अण्णोण्णं पेक्खि दूण जहाकमेण विसेसाहियाणि ति सिद्धं । एदस्सेव
ये इन्द्रियनिर्वत्तिस्थान औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके क्रमसे विशेष अधिक हैं।। ६६८ ।
यथा- औदारिकशरीरके उत्कृष्ट निर्वत्तिस्थानसे सबसे जघन्य अन्तर्मुहुर्तमात्र अध्वान जाकर आहारकशरीरका सबसे जघन्य इन्द्रियनिर्वत्तिस्थान होता है। उससे एक समय अधिक और दो समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण आहारकशरीर सम्बन्धी इन्द्रियनिर्वृत्तिस्थानोंके जानेपर वैक्रियिकशरीरका सबसे जघन्य इन्द्रियनिर्वृत्तिस्थान होता है । उससे आगे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अध्वान होने तक समय अधिक और दो समय अधिक आदिके क्रमसे ऊपर वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके इन्द्रिय निर्वृत्तिस्थान जाकर उसके आगे औदारिकशरीरका सबसे जघन्य इन्द्रियनिर्वत्तिस्थान होता है। पुनः औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके एक समय अधिक और दो समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण इन्द्रियनिर्वत्तिस्थानोंके ऊपर जानेपर आहारकशरीरका सबसे उत्कृष्ट इन्द्रियनिर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है । पुन: उसके आगे उपरिम समयसे लेकर एक समय अधिक आदिके क्रमसे औदारिकशरीर और वैक्रियिकशरीरके इन्द्रियनिर्वत्तिस्थानोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जानेपर वैक्रियिकशरीरका सबसे उत्कृष्ट इन्द्रियनिर्वृत्तिस्थान प्रान्त होता है। उसके आगे औदारिकशरीर इन्द्रियनिर्वत्तिस्थानोंके एक समय अधिक, दो समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होने पर औदारिकशरीरका सबसे उत्कृष्ट
इन्द्रियनिर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है। इसलिए इन्हें परस्पर देखते हुए ये यथाक्रमसे विशेष अधिक
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५, ६, ६७२) बंघणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५२१ सुत्तस्स णिण्णयटमृत्तरसुत्तं भणदि--
एत्थ अप्पाबहुअं- सव्वत्थोवाणि ओरालियसरीरस्स इंदियजिव्वत्तिट्ठाणाणि ॥ ६६९ ॥
___ कुदो ? साहावियादो। ण च सहावो परपज्जणियोगारहो, अव्ववत्थावत्तीदो। वेउव्वियसरीरस्स इंदियणिवत्तिट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।६७०।
केत्तियमेत्तेण ? आवलि० असंखे०भागमेतेण । ओरालियउवरिमइंदियणिव्वत्तिट्टाणेहि ऊणवेउवियहेट्टिमइंदियणिव्वत्तिट्टाणेहि विसेसाहियाणि । एदमत्थपदमुवरि सव्वत्थ वत्तव्वं । आहारसरीरस्स इंदियणिवत्तिट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६७१ । केत्तियमेतेण ? आवलि० असंखे०भागमेत्तेण ।
तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण तिण्णं सरीराणं आणापाण-भासामणणिवत्तिटठाणाणि आवलि० असंखे०भागमेत्ताणि ।। ६७२ ॥
ओरालियसरीरस्स उक्कस्सइंदियणिवत्तिढाणादो उवरि अंतोमहुत्तमेत्तमद्वाणं गंतूण ओरालिय वेउन्विय आहारसरीराणमाणावाणणिवत्तिटाणाणि आवलि.
हैं यह सिद्ध हुआ। अब इसी सूत्रका निर्णय करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
यहाँ अल्पबहुत्व-औदारिकशरीरके इन्द्रियनिर्वत्तिस्थान सबसे थोडे हैं।६६९।
क्योंकि, ऐसा होना स्वाभाविक है । और स्वभाव दूसरेके प्रश्न के योग्य नहीं होता, क्योंकि, ऐसा होनेपर अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है।
वैक्रियिकशरीरके इन्द्रियनिर्वृत्तिस्थान विशेष अधिक हैं ॥६७०।।
कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक है । वैक्रियिकशरीरके अधस्तन इन्द्रियनिर्वत्तिस्थानोंमेंसे औदारिकशरीरके उपरिम इन्द्रियनिर्वत्तिस्थानोंका कम कर देने पर जितने शेष रहते हैं उतने अधिक होते हैं । यह अर्थपद आगे सर्वत्र कहना चाहिए ।
आहारकशरीरके इन्द्रियनिर्वृत्तिस्थान विशेष अधिक हैं ॥६७१।। कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं।
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर तीन शरीरोंके आनापान, भाषा और मननिर्वत्तिस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ।। ६७२।।
औदारिक शरीरके उत्कृष्ट इन्द्रियनिर्वृत्तिस्थानसे ऊपर अन्तर्मुहुर्त अध्वान जाकर औदारिक शरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके आनापाननिर्वत्तिस्थान आवलिके असंख्यातवें
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५२२ )
छवखंडागमे वग्गणा - खंड
( ५,६६७३
नादो
असंखे ० भागमेत्तानि होंति । तदो ओरालियसरीरस्स उक्कस्सआगापाणणिव्यसिट्टाअंतोमुहुत्तमेत्तमद्वाणमुवरि गंतॄण ओरालिय वेड व्विय- आहारसरीराणमावलि० असंखे ० भागमेत्ताणि भासाणिव्वत्तिट्टणाणि होंति । तदो अंतोमहुत्तमेत्तद्वाणमुवरि गंतूण ओरालिय- चेउब्विय- आहारसरीराणमावलि० असंखे ० भागमेत्ताणि मणिवत्तिद्वाणाणि होंति त्ति घेत्तव्वं ।
ओरालिय- वेउब्विय - आहारसरीराणि जहाकमं विसेसाहियाणि । ६७३ ।
ओरालिय सरीरस्स सब्बुक्कस्स इंदियणिव्वत्तिद्वाणादो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतून आहारसरीरस्स आणापाणपज्जत्तीए सव्वजहणणिवत्तिद्वाणं होदि । तदो समउत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेसु आहारसरीरस्स आणापाणपज्जत्तीए निव्वत्तिट्ठाणे उवरि गदेसु तदो वेउव्दियसरीरस्स सव्वजहण्णमाणापानपज्जत्तीए णिव्वत्तिद्वाणं होदि । तत्तो उवरि वेउव्विय- आहारसरीराणं समउत्तर दुसमउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे ० भागमेत्तेसु आणापाणपज्जत्तीए णिण्वत्तिट्ठाणेसु गदेसु ओरालियस - रस्स सव्वजहण्णमाणापाणपज्जत्तीए निव्वत्तिद्वाणं होदि । तदो उवरिमोरालियवे उव्विय- आहारसरीराणं तिन्हं पि समउत्तरादिकमेण आवलियाए असंखे ० भागभागप्रमाण होते हैं । फिर औदारिकशरीर के उत्कृष्ट आनापान निर्वृत्तिस्थानसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अध्वान ऊपर जाकर औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर के आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण भाषानिवृत्तिस्थान होते हैं । फिर अन्तर्मुहूर्त मात्र अध्वान ऊपर जाकर औदारिकशरीर वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण मननिर्वृत्तिस्थान होते हैं ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए ।
ये निर्वृत्तिस्थान औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर के क्रमसे विशेष अधिक होते हैं ।। ६७३ ॥
औदारिकशरीर के सबसे उत्कृष्ट इन्द्रियनिर्वृत्तिस्थानसे ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर आहारकशरीर की आनापानपर्याप्तिका सबसे जघन्य निर्वृत्तिस्थान होता है । उससे आहारकशरीर की आनापानपर्याप्ति के निर्वृत्तिस्थानोंके एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ऊपर जाने पर उसके बाद वैक्रियिकशरीरकी सबसे जघन्य आनापानपर्याप्तिका निर्वृत्तिस्थान होता है । उसके बाद ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके आनापानपर्याप्ति के निर्वृत्तिस्थानोंके जानेपर औदारिकशरीरकी सबसे जघन्य आनापानपर्याप्तिका निर्वृत्तिस्थान होता है । उसके बाद ऊपर औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर इन तीनोंके ही एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण आनापानपर्याप्तिके निर्वृत्ति
० का० प्रती ' उक्कस्स इंदियणिव्वत्तिद्वाणादो' इति पाठः । का० प्रतो सव्वजहणं णिव्वत्तिद्वाणं' इति पाठा |
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५, ६, ६७३ )
बंणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५२३
मत्तेसु आणापाणपज्जत्तीए णिव्वत्तिट्ठाणेसु गदेसु तदो आहारसरीरस्स उक्कस्स आणापागपज्जत्तिव्वितिट्ठाणं थक्कदि । तदो उवरि ओरालिय- वे उव्वियसरीराणं समउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे-भागमेत्तेसु आणापाणपज्जत्तीए णिव्वतिट्ठाणेसु गदेसु तदो वेउव्वियसरीरस्स आणापाणपज्जत्तीए उक्कस्सणिव्वत्तिद्वाणं थक्कदि । तदो उवरि समउत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेसु ओरालियसरी रस्स आणापाणपज्जत्तीए णिव्वत्तिट्ठाणेसु गदेषु तदो ओरालिय सरीरस्स उक्कस्तआणापाणपज्जत्तीए निव्वत्तिद्वाणं थक्कदि । तेणेदाणि द्वाणाणि जहाकमेण विसेसाहियाणि ।
तदो एसिमुक्कट्टाहतो उवरिमंतोमृहुत्तं गंतून आहारसरीरस्स मासाप - ज्जत्तीए जहणणिव्वत्तिद्वाणं होदि । तदो उवरि समउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे ०भागमेत्तेसु आहारसरीरस्ल भालापज्जत्तीए निव्वत्तिट्ठाणेसु गदेसु वे उव्वियसरीरस्स भासापज्जत्तीए सव्वजहण्णणिव्वत्तिद्वाणं होदि । तदो उवरि वेउध्वियआहारसरीराणं समउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे ० भागमेत्तेसु भासाणिव्वत्तिट्ठाणेसु गदेसु ओरालियसरीरस्स सव्वजहणं भासाणिव्वत्तिद्वाणं होदि । तदो उवरि ओरालिय-वेउब्वियआहारसरीराणं भासाणिव्वत्तिट्ठाणेसु आवलि० असंखे ० भागमेत्तेसु गदेसु आहारसरीरस्स भासापज्जतीए उक्कस्सणिव्वत्तिद्वाणं थक्कदि । तदो ओरालिय-वेउविवयसरीराणं समउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे० भागमेत्तेसु भासावज्जत्तीए
स्थानोंके जानेपर उसके बाद आहारकशरीरकी आनापानपर्याप्तिका उत्कृष्ट निर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है । उसके बाद ऊपर औदायिकशरीर और वैक्रियिकशरीरके एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण आनापान पर्याप्ति के निर्वृत्तिस्थानोंके जाने पर उसके बाद वैयिकशरीरकी आनापान पर्याप्तिका उत्कृष्ट निर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है । उसके बाद ऊपर औदारिकशरीरकी आनापानपर्याप्तिके निर्वृत्तिस्थानोंके एक समय अधिक आदिके क्रम से आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जाने पर उसके बाद औदारिकशरीरका आनापानपर्याप्तिका उत्कृष्ट निर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है । इसलिए ये स्थान क्रम से विशेष अधिक हैं ।
अनन्तर इनके उत्कृष्ट स्थानोंसे ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर आहारकशरीरकी भाषापर्याप्तिका जघन्य निर्वृत्तिस्थान होता है । इसके बाद ऊपर आहारकशरीर के भाषापर्याप्तिनिर्वृत्तिस्थानों के एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जाने पर वैक्रियिकशरीरकी भाषापर्याप्तिका सबसे जघन्य निर्वृत्तिस्थान होता है । उसके बाद ऊपर वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण भाषानिर्वृतिस्थानोंके जाने पर औदारिकशरीरका सबसे जघन्य भाषानिवृत्तिस्थान होता है । उसके बाद ऊपर औदारिकशरोग, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके भाषानिर्वृत्तिस्थानों के आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जानेपर आहारकशरीरकी भाषापर्याप्तिका उत्कृष्ट निर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है। उसके बाद औदारिकशरीर और वैक्रियिकशरीरकी भाषापर्याप्ति के निर्वृत्तिस्थानोंके एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यतावें भागप्रमाण ऊपर जाने पर वैक्रियिकशरीर की
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५२४ ।
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ६७३
गिवत्तिटाणेसु उवरि गदेसु वेउब्वियसरीरस्स भासापज्जत्तीए उक्कस्तणिव्यत्तिढाणं थक्कदि । तदो उवरि समयउत्तरादिकमेण आवलि. असंखे०भागमेत्तेसु भासापज्जत्तीए णिव्वत्तिट्ठाणेसु गदेसु ओरालियसरीरस्स भासापज्जत्तीए उकस्सणिवत्तिद्वाणं थक्कदि । तेणेदाणि जहाकमेण विसेसाहियाणि ।
पुणो ओरालिय-वेउविय आहारसरीरउक्कस्सभासापज्जत्तिद्वाणाणमुवरि अंतोमहत्तं गंतूण आहारसरीरस्स मणपज्जत्तीए सव्वजहण्णं णिव्वत्तिट्टाणं होदि । तदो उवरि समय उत्तरादिकमेण आवलि० असंखे० भागमेत्तेसु आहारसरीरस्स मणणिव्वत्तिट्ठाणेसु गदेसु वेउब्वियसरीरस्स सव्वजहणं मणणिवत्तिट्ठाणं होदि । तदो उर्वार वेउव्वियआहारसरीराणं समय उत्तराविकमेण आवलि० असंखे० भागमेत्तेसु मणणिव्वतिहाणेसु गदेसु ओरालियसरीरस्स सवजहणं मणणिव्वत्तिद्वाणं होदि । तदो उवरि ओरालिय-वेउम्विय-आहारसरीराणं समयउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे० भागमेत्तेसु मणणिव्वत्तिटाणेसु गदेसु तदो आहारसरीरस्स उक्कस्समणणिन्वत्तिद्वाणं थक्कदि । तदो उरि ओरालिय-वेउब्वियसरीराणं समयउत्तरादिकमेण आवलि० असंखेभागमेत्तेसु मणिव्वत्तिट्टाणेसु गदेस वेउब्वियसरीरस्त उक्कस्समणणिवत्तिढाणं थक्कदि । तदो उरि समय उत्तरादिकमेण आवलि.असंखे० भागमेत्तेस मणिबत्तिट्टाणेस गदेसु ओरालियसरीरस्स उक्कस्सं मणणिवत्तिट्टाणं थक्कदि । एदाणि वि जहाकमेण भाषापर्याप्तिका उत्कृष्ट निर्वत्तिस्थान श्रान्त होता है । उसके बाद ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण भाषापर्याप्तिनिर्वत्तिस्थानोंके जानेपर औदारिक शरीरकी भाषापर्याप्तिका उत्कृष्ट निर्वत्तिस्थान श्रान्त होता है। इसलिए ये क्रमसे विशेष अधिक है।
पुनः औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके उत्कृष्ट भाषापर्याप्तिनिर्वृत्तिस्थानोंके ऊपर अन्तर्मुहुर्त जाकर आहारकशरीरकी मनःपर्याप्तिका सबसे जघन्य निर्वृत्तिस्थान होता है। इसके बाद ऊपर आहारकशरीरके मनःनिर्वृत्तिस्थानों के एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जाने पर वैक्रियिकशरीरकी मनःपर्याप्तिका सबसे जघन्य निर्वात्तस्थान होता है। उसके बाद ऊपर वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर सम्बन्धी मनःपर्याप्ति निर्वृत्तिस्थानोंके एक समय अधिक आदिके क्रम से आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जानेपर औदारिकशरीर की मनःपर्याप्तिका सबसे जघन्य निर्वत्तिस्थान होता है। उसके बाद ऊपर औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर सम्बन्धी मन:निर्वत्तिस्थानोंके एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असख्यातवें भागप्रमाण जाने पर आहारकशरीरका उत्कृष्ट मनःपर्याप्तिनिर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है। उसके बाद ऊपर औदारिकशरीर और वैक्रियिकशरीर सम्बन्धी मनःपर्याप्तिनिर्वृत्तिस्थानों के एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असख्यातवें भागप्रमाण जाने पर वैक्रियिक शरीरका उत्कृष्ट मनःपर्याप्तिनिर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है। उसके बाद एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण मन:पर्याप्तिनिर्वृत्तिस्थानोंके जाने पर औदारिकशरीरका उत्कृष्ट मनःपर्याप्तिनिर्वृत्तिस्थान श्रान्त होता है। ये
ता० प्रतो सरीरस्स मणणिव्वत्तिट्ठाणं ' इति पाठः ।
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( ५२५
बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया सत्थाणे विसेसाहियाणि ।
एत्थ अप्पाबहुअं- सम्वत्थोवाणि ओरालियसरीरस्स आणा -- पाणभासा-मणणिव्वत्तिट्ठाणाणि ॥ ६७४ ॥
कारणं सुगमं ।
वेउव्वियसरीरस्स आणापाण-भासा-मणणिवत्तिट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ॥ ६७५ ।।
ओरालियसरीरस्स आणापाणणिवत्तिट्टाणेहितो वेउब्वियसरीरस्स आगापागणिवत्तिट्टाणाणि विसेसाहियाणि । ओरालियसरीरस्स भासाणिव्वत्तिवाहितो वेउब्वियसरीरस्स भासाणिवत्तिट्टाणाणि विसेसाहियाणि । ओरालियसरीरस्स मणणिवत्तिट्राणेहितो वेउब्वियसरीरस्स मणणिवत्तिढाणाणि विसेसाहियाणि । सव्वत्थ विसेसपमाणमावलि. असंखेज्जदिभागो।
आहारसरीरस्स आणापाण-भासा-मणणिवत्तिट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ॥ ६७६ ।।
वेउब्वियसरीरस्स आणापाणणिव्वत्तिट्टाणेहितो आहारसरीरस्स आणापाणणिवत्तिट्ठाणाणि विसेसाहियाणि विउव्वियसरीरस्स भासाणिवत्तिट्ठाणेहितो आहार
भी स्वस्थानमें क्रमसे विशेष अधिक हैं ।
यहाँ अल्पबहुत्व- औदारिकशरीरके आनापान, भाषा और मनोनिवृत्तिस्थान सबसे स्तोक हैं ॥६७४।।
__ कारण सुगम है।
वैक्रियिकशरीरके आनापान, भाषा और मनोनिर्वत्तिस्थान विशेष अधिक हैं ॥६७५।।
__ औदारिकशरीरके आनापान निवृत्तिस्थानोंसे वैक्रियिकशरीरके आनापाननिर्वृत्तिस्थान विशेष अधिक है। औदारिकशरीरके भाषानिर्वत्तिस्थानोंसे वैक्रियिकशरीरके भाषानिर्वृत्तिस्थान विशेष अधिक है। तथा औदारिकशरीरके मननिर्वत्तिस्थानोंसे वैक्रियिकशरीरके मननिर्वत्तिस्थान विशेष अधिक हैं । सर्वत्र विशेषका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
___ आहारकशरीरके आनापान, भाषा और मनोनिवृत्तिस्थान विशेष अधिक हैं ॥६७६॥
वैक्रियिकशरीरके आनापाननिर्वृत्तिस्थानोंसे आहारकशरीरके आनापाननिर्वृत्तिस्थान विशेष अधिक हैं । वैक्रियिकशरीरके भाषानिर्वृत्तिस्थानोंसे आहारकशरीरके भाषानिर्वृत्तिस्थान
* ता० प्रती ' आणापाणभामाणिव्वत्तिट्ठाणाणि' इति पाठः ।
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५२६ ) छवखंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६ ६७७ सरीरस्स भासाणिवत्तिटाणाणि विसेसाहियाणि । वे उब्वियसरी रस्स मणणिवत्तिठाणेहितो आहारसरीरस्स मणिबत्तिट्राणाणि विसेसाहियाणि । सव्वत्थ विसेसपमाणमावलियाए असंखेज्जदिभागो। सरीरिदियपज्जत्तीण पुध परूवणं किमळं कदं? एवं सत्थाणअप्पाबहुअ चेव परत्थाणप्पाबहुअं ण होदि त्ति जाणावळं । सम्वेसिमेगवारेण णि देसे कीरमाणे पुण ओरालियसरीरस्स सरीरिदिय-आणापाणभासा-मणणिवत्तिट्टाणाणमरि वेउब्वियसरीरस्त सरीरिदिय-आणापाण भासा मण. णिवत्तिढाणागि किण्ण विसेसाहियाणि ति आसंका उप्पज्जज्ज । तणिराकरणट्ठ पुणो णिद्देसो कदो । ओरालियसरीरस्स पुण सरीरिदिय-आणापाण-भाता-मणिव्वत्तिट्ठाणाणि अण्णोण्णण सरिसाणि । कुदो एवं णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । एवं सव्वसरीरपज्जत्तीणं पि सत्थाणे सरिसत्तं भाणियन्वं ।
तदो अंतोमुत्तं गंतण तिष्णं सरीराणं णिल्लेवणट्ठाणाणि आवलियाए अखेसंज्जदिभागमेत्ताणि ।। ६७७ ।।
तिण्णं सरीराणमुक्कस्लमणणिवत्तिट्टाणाणमुवरि अंतोमहत्तं गंतूण तिग्णं सरीराणं पिल्लेवणटाणाणि आवलियाए असंखेजविभागमेत्ताणि होति । कि पिल्लेवण
विशेष अधिक हैं । वैक्रियिकशरीरके मनोनिर्वत्तिस्थानोंसे आहारकशरीरके मनोनिवत्तस्थान विशेष अधिक हैं । सर्वत्र विशेषका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
शंका- शरीरपर्याप्ति और इन्द्रियपर्याप्तिकी अलगसे प्ररूपणा किसलिए की है ?
समाधान- यहां पर स्वस्थान अल्पबहुत्व ही है, परस्थान अल्पबहुत्व नहीं है इस बातका ज्ञान कराने के लिए उनकी अलगसे प्ररूपणा की है। सबका एक बार निर्देश करने पर पुनः औदारिकशरीरके शरीर, इन्द्रिय, आनापान, भाषा और मनोनिर्वत्तिस्थानोंके ऊपर वैक्रियिकशरीरके शरीर, इन्द्रिय, आनापान, भाषा और मनोनिवृत्तिस्थान क्यों विशेष अधिक नहीं हैं ऐसी आंशका उत्पन्न हो सकती थी अतः उसका निराकरण करने के लिए फिरसे निर्देश किया है।
परन्तु औदारिकशरीरके शरीर इन्द्रिय, आनापान, भाषा और मनोनिर्वत्तिस्थान परस्पर में समान हैं।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है । इसीप्रकार सब शरीरोंकी पर्याप्तियोंकी भी स्वस्थानमें समानता कहलानी चाहिए ।
उसके बाद अन्तर्महर्त जाकर तीन शरीरोंके निर्लेपनस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ।। ६७७ ।।
तीन शरीरोंके उत्कृष्ट मनोनिर्वृत्तिस्थानोंके ऊपर अन्तर्मुहुर्त जाकर तीन शरीरों के निर्ले - पनस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं।
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५, ६, ६७७ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५२७ द्वाणं णाम? जत्थ अप्पज्जत्तिणिमित्तं पोग्गलाणमागमो थक्कदि तण्णिल्लेबणाणं णाम। छसु पज्जत्तीसु णिप्पण्णासु पुणो जो घेप्पदि पोग्गलपिंडो सो सरीरस्स चेव होदि ग पज्जत्तीणं, णिप्पण्णाणं णिप्पत्तिविरोहादो त्ति । एत्थ परिहारो उच्चदे। तं जहाआगदपोग्गलेसु अंतोमहत्तेण सत्तधादुसरूवेण परिणदेसु सरीरपज्जत्ती णाम । ण च तम्हि काले- सरीरणिप्पत्ती अस्थि चम्म-रोम-णह कालेज्ज-फुफ्फुसादीणं णिप्पत्तीए तदो अभावादो। सज्छेसु* पोग्गलेसु मिलिदेसु तब्बलेण बज्झत्थगहणसत्तीए समुप्पत्ती इंदियपज्जत्ती णाम । ण च तम्हि काले बज्झिदियाणिप्पत्ती अत्थि, बज्झिदिएसु अद्धणिप्पण्णेसु चेव सगसगविसयग्गहणसत्तीए समप्पत्तीदो। ण च अंतोमुत्तकालेणेव अज्छिमंद चक्खु गोलियादीणं णिप्पत्ती अस्थि, मोरंडयरसेसु तहाणवलंभादो । एवं सेसपज्जत्तीओ वि सगसगदन्वेसु अद्धणिप्पण्णेसु चेव णिप्पज्जति ति वत्तव्वं । तासि दव्वपज्जत्तीणमणिप्पण्णाणं णिप्पत्तिणिमित्तं पोग्गलपिडो पज्जत्तयदस्स वि आगच्छदि । एवमागच्छमाणे जत्थ पंचण्णं पज्जत्तीणं दव्ववयरणाण मक्कमेण णिप्पत्ती होदि तण्णिल्लेवणटाणं णाम । जेण छप्पपज्जत्तिमयं सरीरं तेण गिल्लेविदे संते पच्छा आगच्छमाणपोग्गलक्खंधो वि छष्णं पज्जत्तीणं चेव आगच्छदि ति पिल्लेवण
शंका - निर्लेपनस्थान किसे कहते हैं ? जहां पर छह पर्याप्तियोंके लिए पुद्गलोंका आना रुक जाता है उसे निर्लेपनस्थान कहते हैं। इसलिए छह पर्याप्तियोंके निष्पन्न होने पर पुनः जो पुद्गलपिण्ड ग्रहण किया जाता है वह शरीरका ही होता है पर्याप्तियोंका नहीं होता, क्योंकि, निष्पन्नोंकी निष्पत्ति मानने में विरोध आता है ?
___समाधान-- यहां पर इस शंकाका समाधान करते हैं। यथा- आये हुए पुद्गलोंके अन्तर्महर्त कालद्वारा सात धातुरूपसे परिणत होने पर शरीरपर्याप्ति कहलाती हैं। उस कालमें शरीरकी निष्पत्ति नहीं है, क्योंकि, उससे चर्म, रोम, नख, कलेजा और फुप्फुस आदिकी निष्पत्ति नहीं होती। स्वच्छ पुद्गलोंके मिलने पर उनके बलसे बाह्य अर्थके ग्रहण करनेकी शक्तिका उत्पन्न होना इन्द्रियपर्याप्ति कहलाती है। उस काल में बाह्य इन्द्रियोंकी निष्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि, इन्द्रियोंके अर्ध निष्पन्न होने पर ही अपने अपने विषयको ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। और अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा ही अक्षिपुट और चक्षुगोलक आदिकी निष्पत्ति हो नहीं सकती, क्योंकि, मोर जो अण्डे देती है उनसे रसों में उस प्रकारकी उपलब्धि नहीं होती। इसी प्रकार शेष पर्याप्तियां भी अपने अपने द्रव्योंके अर्ध निष्पन्न होने पर ही निष्पन्न हो जाती हैं ऐसा कहना चाहिए। उन अर्धनिष्पन्न द्रव्यपर्याप्तियोंकी निष्पत्तिके लिए पर्याप्त जीवके भी पुद्गलपिंड आता है । इस प्रकार पुद्गल पिण्डके आने पर जहां पर पांच पर्याप्तियोंके द्रव्य उपकरणोंकी युगपत् निष्पत्ति होती है उसे निर्लेपनस्थान कहते हैं । यतः शरीर छह पर्याप्तिमय हैं, अतः निर्लेपित होने पर बादमें आनेवाला पुद्गलस्कन्ध भी छह पर्याप्तियोंके लिये ही आता है, इसलिए वहाँ
है ता० प्रती णाम तम्हि काले इति । ४ ता. प्रतो अ (ण) त्थि इति पाठः। * का प्रती सम्वेसु इति पाठः * ता० प्रती समप्पज्जती इति पाठः । का० प्रती वजिंदियाणं इति पाठः । N म० प्रतिपाठोऽयम् 1 ता० प्रती अत्थि चक्खु- का• प्रतो अत्थिकुडचक्खु- इति पाठः1 म. प्रतिपाठोऽयम् । प्रत्यो पज्जयदस्स इति पाठ:1 . का० प्रतो दव्वयरणाण इति पाठः।
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५२८ )
छवखंडागमे वग्गणा - खंड
( ५,६६७८
णाभावो ण वोत्तुं सविकज्जदे, पुव्वमागदपोग्गलक्खंधेहि व पच्छा गहिदपोग्गल - क्खंधेहि दव्वपज्जत्तीणं संठाणंतरस्त अवयवंतरस्स वा अणुवलंभेण तेसि तत्थ वावाराभावादो । तेण कारणेण जिल्लेविदे संते जं पोग्गल गहणं सरीरट्ठं पुव्विल्लं पज्जतिनिमित्तमिदि वृत्ते परमत्थदो पुण सव्वं पोग्गलग्गहणं सरीरट्ठ चेव, सरीरवदिरित्तपज्जत्तीणमभावादो ।
ओरालिय- वेउब्विय - आहारसरीराणं जहाकमेण विसेसा -- हियाणि ॥ ६७८ ॥
ओरालिय-उब्विय- आहारसरी राणमुक्कस्समणणिव्वत्तिद्वाहितो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतून आहारसरीरस्स जहण्णं पिल्लेवणद्वाणं होदि । तदो समउत्तराविकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेसु आहारसरी रजिल्लेवणट्ठाणेसु उवरि गदेसु वेउव्वियसरीरस्स जहण्णणिल्लेवणद्वाणं होदि । तदो वेउब्विय- आहारसरीराणं समउत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्त जिल्लेवणट्ठाणेसु गदेसु ओरालियसरीरस्स जहण्णणिल्लेवणद्वाणं दिस्सदि । तदो समउत्तरादिकमेण तिष्णं सरीराणं णिल्लेagr आवलिया असंखेज्जदिभागमेत्तेसु गदेसु आहारसरीरस्स उक्करसपिल्लेवाणं थक्कदि । तदो समउत्तरादिकमेण उवरि ओरालिय- वे उव्वियसरीराणं
निर्लेपनस्थानोंका अभाव कहना शक्य नहीं हैं, क्योंकि, पहले आए हुए पुद्गलस्कन्धोंके समान बाद में ग्रहण किये गये पुद्गलस्कन्धोंद्वारा द्रव्यपर्याप्तियोंके संस्थानान्तरकी या अवयवान्तरकी उपलब्धि नहीं होने से उनका उनके निर्माण में व्यापार नहीं होता । इस कारण निर्लेपित होने पर जो पुद्गलोंका ग्रहण होता है वह शरीर के लिए होता है या पूर्व पर्याप्तियोंके लिए होता है ऐसा पूछने पर उसका उत्तर यह है कि परमार्थसे सब पुद्गलोंका ग्रहण शरीर के लिए ही होता है, क्योंकि, शरीरको छोड़कर पर्याप्तियोंका अभाव है ।
वे निर्लेपनस्थान औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर के क्रमसे विशेष अधिक हैं ।। ६७८ ।।
औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर के उत्कृष्ट मनोनिर्वृत्तिस्थानों के आगे अन्तर्मुहूर्त जाकर आहारकशरीरका जघन्य निर्लेपनस्थान होता है । उसके बाद आहारकशरीरसम्बन्धी निर्लेपनस्थानोंके एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ऊपर जाने पर वैक्रियिक शरीरका जघन्य निर्लेपनस्थान होता है । उसके बाद क्रियिक और आहारक शरीरसम्बन्धी निर्लेपनस्थानोंके एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जानेपर औदारिकशररीका जघन्य निर्लेपनस्थान दिखलाई देता है । उसके बाद तीनों शरीरोंके निर्लेपनस्थानोंके एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जाने पर आहारकशरीरका उत्कृष्ट निर्लेपनस्थान श्रान्त होता है । उसके बाद औदारिकशरीर
X का० प्रती 'पज्जत्तनिमित्तमिदि' इति पाठः ।
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५, ६. ६८२ )
बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया णिल्लेवणटाणेसु आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेसु गदेसु वेउब्वियसरीरस्स उक्कस्सजिल्लेवणढाणं थक्कदिक । तदो समउत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तेसु पिल्लेवणट्टाणेसु गदेसु ओरालियसरीरस्स उक्कस्सपिल्लेवट्ठाणं थक्कदि । तेण जहाकम दिसेसाहियाणि ।
एस्थ अप्पाबहुगं- सव्वत्थोवाणि ओरालियसरीरस्स णिल्लेवट्ठाणाणि ॥ ६७९॥
कारणं सुगमं ।
वेउब्वियसरीरस्स गिल्लेवणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।६८०। केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेण ।
आहारसरीरस्स गिल्लेवणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६८१ ।
केत्तियमेत्तेण? आवलियाए असंखेज्जविभागमेतेण । एवं गंथमस्सिदूण पढमसंदिट्ठी परूवेयत्वा । संपहि बादर-सुहमणिगोदपज्जत्ते अस्सितूण मरणजवमझादीणं परूवणठें उत्तरसुत्तं भणदि।
तत्य इमाणि पढमवाए आवासयाणि होति ॥ ६८२ ॥
और वैक्रियिकशरीरके निर्लेपनस्थानोंके एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जानेपर वैक्रियिक शरीरका उत्कृष्ट निर्लेपनस्थान श्रान्त होता है। उसके बाद एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थानोंके जाने पर औदारिकशरीरका उत्कृष्ट निर्लेपनस्थान श्रान्त होता है। इसलिए ये यथाक्रम विशेष अधिक हैं।
यहांपर अल्पबहुत्व- औदारिकशरीरके निर्लेपनस्थान सबसे स्तोक हैं ।६७९। कारणका कथन सुगम है। वैक्रियिकशरीरके निलेपनस्थान विशेष अधिक हैं ॥ ६८० ॥ कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक है। आहारकशरीरके निर्लेपनस्थान विशेष अधिक हैं ।। ६८१ ॥
कितनेमात्र अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं। इस प्रकार ग्रंथका आश्रय लेकर प्रथम संदृष्टिका कथन करना चाहिए। अब बादर निगोद पर्याप्त और सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंका आश्रय लेकर मरणयवमध्य आदिका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
वहां सर्वप्रथम ये आवश्यक होते हैं ।। ६८२ ॥
४ का० प्रती '-णिल्लेवणं धक्कदि ' इति पाठ।।
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५३० )
छवखंडागमे वग्गणा - खंड
( ५, ६ ६८३
बादर - सुहुमणिगोदपज्जत्ताणं * पढमदाए पढमं चेव एदाणि भग्नमाणावासयाणि होंति, सेसाणि पञ्छा होंति त्ति भणिदं होदि ।
तदो जवमज्झं गंतूण सहमणिगोदजीवपज्जत्तयाणं निव्वतिट्ठाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥ ६८३ ||
बादर-सुहुमणिगोदपज्जत्ताणं सव्वजहण्णाअं तिणि भागे काढूण तत्थ पढमतिभागस्स संखेज्जदिभागे जाणि आवासयाणि त्ताणि भणिस्सामो । तदो जवमज्झं गंतणे त्ति भणिदे उप्पण्णपढमसमयप्पहूडि पज्जतीणं पारंभं कादूण तदो अंतोमुहुत्तमुवरि जहा जवमज्झं तहा गंतूण सुहुमणिगोदजीवपज्जत्ताणं णिव्वत्तिद्वाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि होंति । का णिव्त्रत्ती णाम? चदुष्णं पज्जत्तीणं पिल्लेवणं निव्वत्ती । णिव्वत्ति त्ति भणिदे एत्थ जवमज्झकमो वुच्चदे । तं जहा- चत्तारि पज्जत्तीओ सव्वलहुएण कालेण निव्वत्तया जीवा थोवा । तदुवरिमसमए निव्वत्तया विसेसाहिया । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया होङ्कण गच्छंति जाब सुहुमणिगोदणिल्लेब
जीवजवमज्झति । तेण परं विसेसहीणा विसेसहीणा होण गच्छंत जाव चदुष्णं पज्जत्तीणमुक्कस्स पिल्लेवणद्वाणं ति । जवमज्झस्स हेट्ठिम उवरिमाणि चदुष्णं पज्जतीणं
बादर निगोद पर्याप्त और सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंके पढमदाए अर्थात् प्रथम ही ये कहे जानेवाले आवश्यक होते हैं। शेष आवश्यक बादमें होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
उसके बाद यवमध्य जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंके निर्वृत्तिस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ॥ ६८३ ॥
बादर निगोद पर्याप्त और सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंकी सबसे जघन्य आयुके तीन भाग करके वहाँ प्रथम त्रिभागके असंख्यातवें भाग में जो आवश्यक होते हैं उन्हें कहेंगे । उसके बाद यवमध्य जाकर ऐसा कहने पर उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर पर्याप्तियोंका प्रारम्भ करके उसके बाद अन्तर्मुहूर्त ऊपर जिस प्रकार यवमध्य है उस प्रकार जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंके निर्वृत्तिस्थान भावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ।
शंका -- निर्वृत्ति किसे कहते हैं ?
समाधान-- चार पर्याप्तियोंके निर्लेपनको निर्वृत्ति कहते है ।
निर्वृत्ति ऐसा कहने पर यहाँ यवमध्य के क्रमका कथन करते हैं। यथा- चार पर्याप्तियों के सबसे अल्प कालके द्वारा निर्वत्तक जीव सबसे थोडे हैं । उसके उपरिम समय में निर्वत्तक जीव विशेष अधिक हैं । इस प्रकार सूक्ष्म निगोद निर्लेपनस्थान जीव यवमध्यके प्राप्त होने तक जीव विशेष अधिक विशेष अधिक होकर जाते हैं। उसके बाद चार पर्याप्तियोके उत्कृष्ट निर्लेपनस्थानके
Xx ता० प्रतौ
1
बादरहमणिगोदपज्जत्ताणं' अय पाठ: सूत्रत्वेन निर्दिष्टः ।
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५, ६, ६८४ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५३१ जिल्लेवणटाणाणि आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्ताणि । एत्थ एगा वि गुणहाणी त्थि । कुदो? सुत्ते गुणहाणिपमाणपरूवणाभावादो ।
तदो जवमझं गंतूण बावरणिगोदजीवपज्जत्तयाणं णिव्वत्तिट्ठाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ।। ६८४ ।।
उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमहुत्तमुवरि गंतूण सुहमणिगोदसव्वजहण्णणिल्ले. वणट्टाणादो हेढा आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तमोसरिदूण बादरणिगोदपज्जत्तजीवा चदुण्णं पज्जत्तीणं णिवत्तया थोवा। तदुवरिमसमए णिवत्तया विसेसाहिया। एवं विसेसाहिया विसेसाहिया होदूण गच्छंति जाव आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तजिल्लेवणटाणाणि त्ति । ताधे सुहमणिगोदपज्जत्तसव्वजहण्णणिल्लेवणट्टाणेण बादरणिगोदपज्जत्तपिल्लेवणट्ठाणं सरिसं होदि। तदुवरिमसमए बादरणिगोदपज्जत्तजीवा चदुण्णं पज्जत्तीणं णिवत्तया विसेसाहिया । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया होदूण गच्छंति जाव सुहमणिगोदपज्जत्तजवमज्झं ति। तदुवरिमसमए बादरणिगोदपज्जत्ता चदुग्णं पज्जत्तीणं णिवत्तया विसेसाहिया । एवं विसेसाहिय-विसेसाहियकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपिल्लेवणटाणाणि उवरि गंतूण बादरणिगोदपज्जत्ताणं जवमज्झं होदि । तदुवरि विसेसहीणा विसेसहीणा होदूण गच्छंति जाव सुहमणिगोद
प्राप्त होनेतक विशेष हीन विशेष हीन होकर जाते हैं। चार पर्याप्तियोंके यवमध्यके अधस्तन और उपरिम निर्लेपनस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। यहाँ पर एक भी गुणहानि नहीं है, क्योंकि, सूत्र में गुणहानिके प्रमाणका कथन नहीं किया है ।
उसके बाद यवमध्य जाकर बादर निगोद पर्याप्त जीवोंके निर्वत्तिस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ।। ६८४ ।।
उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्महुर्त ऊपर जाकर सूक्ष्म निगोदोंके सबसे जघन्य निर्वत्तिस्थानसे नीचे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण सरककर चार पर्याप्तियोंके निर्वत्तक बादर निगोद पर्याप्त जीव थोडे हैं। उससे उपरिम समयमें निर्वत्तक जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान जाने तक निर्वत्तक जीव विशेष अधिक विशेष अधिक होकर जाते हैं। तब जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंके सबसे जघन्य निर्लेपनके साथ बादर निगोद पर्याप्त जीवोंका निर्लेपनस्थान समान होता है। उससे उपरिम समयमें चार पर्याप्तियोंके निर्वत्तक बादर निगोद पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार सूक्ष्म निगोद पर्याप्त यवमध्यके प्राप्त होने तक विशेष अधिक विशेष अधिक होकर जाते हैं। उससे उपरिम समयमें चार पर्याप्तियोंके निर्वत्तक बादर निगोद पर्याप्त जीव विशेष अधिक है। इस प्रकार विशेष अधिक विशेष अधिकके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान ऊपर जाकर बादर निगोद पर्याप्तकोंका यवमध्य होता है। उससे ऊपर सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंके उत्कृष्ट निर्लेपमस्थान प्राप्त होने तक विशेष हीन विशेष हीन होकर जाते हैं। उससे ऊपर विशेष हीन क्रमसे
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५३२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६ ६८५ पज्जत्तउक्कस्सपिल्लेवणट्ठाणे ति । तदुवरि विसेसहीणकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तमद्धाणं गंतूण बादरणिगोदपज्जत्ताणमुक्कस्सपिल्लेवणढाणं होदि । होत पि पढमतिभागस्स चरिमसमयादो हेट्ठा अंतोमहुत्तमोसरिदूण भवहि । संपहि बादरणिगोदपज्जत्तउक्कस्सणिल्लेवणट्टाणादो उवरिमेदे पढमतिभागस्स संखेज्जेसु भागेसु बिवियतिभागे सयले च णत्थि आवासयाणि, तत्थ आउअबंधाभावादो।
तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहमणिगोदजीवपज्जत्तयाणमाउअबंधजवमज्झं ॥ ६८५ ॥
उप्पण्णपढमसमए आउअबंधस्स पारंभो ण होदि, पिच्छएण सगजहणाउअबेतिभागे गंतूण चेव आउअबंधो होदि ति जाणावणटुमंतोमहत्तग्गहणं कदं । एत्थ जवमज्झसरूवपरूवणा कीरदे। तं जहा-उप्पणपढमसमयप्पहुडि पढमबिदियतिभागे बोलेदूण तवियतिभागपढमसमए आउअबंधया सुहमणिगोदपज्जत्तजीवा थोवा । तदुवरिमसमए आउअबंधया जीवा विसेसाहिया। एवं विसेसाहिया विसेसाहिया होदूण ताव गच्छंति जाव आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तमद्धाणं गंतूण सुहमणिगोदपज्जत्ताणमाउअबंधजवमज्झटाणमप्पण्णं तितेण परं विसेसहीणा होदण गच्छंति जाव अंतोमहुत्तमेत्तमद्धाणमुवरि गंतूण सहमणिगोदपज्जत्ताणं चरिमआउअबंधट्ठाणं ति।
आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अध्वान जाकर बादर निगोद पर्याप्तकोंका उत्कृष्ट निर्लेपनस्थान होता है । ऐसा होता हुआ भी प्रथम विभागके अन्तिम समयसे पीछे अन्तर्मुहूर्त सरक कर होता है। अब बादर निगोद पर्याप्तकोंके उत्कृष्ट निर्लेपनस्थानसे प्रथम त्रिभागके उपरिम संख्यात बहुभागोंमें और सम्पूर्ण द्वितोय त्रिभागमें आवश्यक नहीं हैं, क्योंकि, वहाँ आयुका बन्ध नहीं होता।
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंका आयबन्धयवमध्य होता है ।। ६८५ ॥
उत्पन्न होने के प्रथम समय में आयुबन्धका प्रारम्भ नहीं होता है । निश्चयसे अपनी जघन्य आय के दो विभाग जाकर ही आयुका बन्ध होता है इस बात का ज्ञान कराने के लिए ' अन्तर्महर्त ' पदका ग्रहण किया है। यहाँ पर यवमध्यके स्वरूपका कथन करते हैं। यथाउत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर प्रथम और द्वितीय विभागको बिताकर तीसरे त्रिभागके प्रथम समयमें आयुका बन्ध करनेवाले सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीव थोडे हैं। उससे उपरिम समयमें आयुका बन्ध करनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अध्वान जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंके आयु बन्धयवमध्यस्थानके उत्पन्न होने तक विशेष अधिक विशेष अधिक होकर जाते हैं। उसके बाद अन्तर्मुहर्त अध्वान ऊपर जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकों के अन्तिम आयुबन्धस्थानके प्राप्त होने तक विशेष हीन होकर जाते हैं।
४ का० प्रतो :-वेत्तिभागे' इति पाठः ।
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५, ६, ६८६ )
बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण बादरणिगोदजीवपज्जत्तयाणं आउअबंधजवमज्झं ।। ६८६ ॥
उप्पण्णपढमसमयप्पडिसगजहण्णाउअस्स बेतिभागमेतमद्धाणं गंतूण तदियतिभागपढमसमए बादरणिगोदपज्जत्तजीवा आउअबंधया थोवा होता वि सुहमणिगोदपज्जत्ततवियतिभागपढमसमयादो अंतोमहत्तं हेट्ठा ओसरिदूण एदमाउअबंधढाणं होदि । किं कारणं? जेण नादरणिगोदो घादेण थोवमाउअं टुवेदि ति। तदुवरिमसमए बादरणिगोदपज्जत्ता आउअबंधया जीव विसेसाहिया। एवं विसेसाहिया विसेसाहिया होदूण गच्छंति जाव सुहुपपज्जत्ताउअबंधतदियतिभागपढमसमयो ति । तदुवरि विसेसाहिया जाव सुहमपज्जत्ताउअबंधजवमज्झे ति । तदुवरि विसेसाहिया जाव बादरपज्जत्ताउअबंधजवमज्झे त्ति । तदुवरि विसेसहीणा जाव सुहमचरिमआउअबंधठाणे त्ति । तदुवरि विसेसहीणा बादरउक्कस्साउअबंधणिल्लेवणढाणे त्ति । तदुवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण असंखेपद्धार होदि । असंखेपद्धाए उवरि+ अंतोमहत्तं गंतूण बावर. सुहमणिगोदपज्जत्ताणं घादजणिदं सव्वजहण्णजीवणियट्ठाणं होदि ।।
तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहमणिगोदजीवपज्जत्तयाणं मरण
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर निगोद पर्याप्त जीवोंका आयुबन्धयवमध्य होता है ॥६८६॥
उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर सबसे जघन्य आयुके दो तीन भागप्रमाण अध्वान जाकर तृतीय त्रिभागके प्रथम समयमें आयुका बन्ध करनेवाले बादर निगोद पर्याप्त जीव सबसे थोडे हैं। ऐसा होते हुए भी सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंके तृतीय त्रिभागके प्रथम समयसे अन्तर्मुहूर्त पीछे सरक कर यह आयुबन्धस्थान होता है। कारण क्या है ? क्योंकि, बादर निगोद जीव घात द्वारा स्तोक आयुको शेष रखता है। उससे उपरिम समयमें आयुका बन्ध करनेवाले बादर निगोद पर्याप्त जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंके आयुबन्धके तीसरे विभागके प्रथम समयके प्राप्त होने तक विशेष अधिक विशेष अधिक होकर जाते हैं। उससे ऊपर सूक्ष्म पर्याप्तके आयुबन्ध यवमध्यके प्राप्त होने तक विशेष अधिक होते हैं। उससे ऊपर बादर पर्याप्तके आयबन्ध यवमध्यके प्राप्त होने तक विशेष अधिक होते हैं। उससे ऊपर सूक्ष्म निगोद पर्याप्तके अन्तिम आयुबन्ध स्थानके प्राप्त होने तक विशेष हीन होकर जाते हैं। उससे ऊपर बादर निगोद पर्याप्तके उत्कृष्ट आयुबन्ध निर्लेपनस्थानके प्राप्त होने तक विशेष हीन होकर जाते हैं। उससे ऊपर अन्तर्मुहर्त जाकर आसंक्षेपाद्धा होता है । आसंक्षेपाद्धासे ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर निगोद पर्याप्तको व सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंका घातसे उत्पन्न हुआ सबसे जघन्य जीवनीय स्थान होता है।
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक जीवोंका मरण यवमध्य प्रत्यो ' असंखेयद्धा ' इति पाठः। * प्रत्यो। ' असंखेयद्धा उवरि' इति पाठ)
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५३४)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६ ६८७
जवमज्झं ।। ६८७ ॥
उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमहत्तं सव्वजहण्णघादखुद्दाभवग्गहणमेत्तमुवरि गंतूण सव्वजहण्णजीवणियकालचरिमसमए मरता सहमपज्जत्ता जीवा थोवा। तदुवरिमसमए मरंता जीवा विसेसाहिया । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया होदूण मरति जाव सुहमणिगोदमरणजवमझं त्ति । तदुवरि विसेसहीणा विसेसहीणा जाव सुहुमणिगोदपज्जत्तजीवेण बद्धजहग्णाउअणिवत्तिटाणे ति ।
तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण बादरणिगोदजीवपज्जतयाणं मरणजवमज्झं ॥ ६८८ ॥
उप्पण्णपढमसमयप्पडि घादेदूण दृविदसव्वजहण्णजीवणियकाल मेत्तमवरि गंतूण तस्स चरिमसमए मरंता बादरणिगोदपज्जत्ता जीवा थोवा । तदुवरिमसमए मरंता जीवा विसेसाहिया । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया होदूण मरति जाव* सुहमणिगोदपज्जत्तमरगजवमज्झपढमसमओ त्ति । तेण परं विसेसाहिया विसेसाहिया होदूण मरति जाव सहमपज्जत्तमरणजबमज्झं त्ति । तेण परं विसेसहीणा विसेसहीणा होडूण मरंति जाव* बादरपज्जत्तमरणजवमझं ति । तेण परं विसेसहीणा विसेसहीणा
होता है ।। ६८७ ॥
उत्पन्न होनेके पहले समयसे लेकर सब से जघन्य घात क्षुल्लक भवग्रहण का अन्तर्मुहूर्त जाकर सबसे जघन्य जीवनीय कालके अन्तिम समयमें मरने वाले सूक्ष्म पर्याप्त जीव स्तोक है । उससे उपरिम समयमें मरने वाले जीव विशेष अधिक है । इस प्रकार सूक्ष्म निगोद मरण यवमध्यके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक विशेष अधिक विशेष अधिक होकर जीव मरते हैं। उससे ऊपर सूक्ष्म निगोदपर्याप्त जीव द्वारा बद्ध जघन्य आयुनिर्वृत्तिस्थानके प्राप्त होने तक विशेष हीन विशेष हीन जीव मरते हैं।
उसके बाद अन्तर्महर्त जाकर बादर निगोद पर्याप्त जीवोंका मरणयवमध्य होता है । ६८८ ।
उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर घात करके स्थापित किये गये सबसे जघन्य जीवनीय कालमात्र ऊपर जाकर उसके अन्तिम समय में मरनेवाले बादर निगोद पर्याप्त जीव थोडे हैं। उससे उपरिम समयमें मरने वाले जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार सुक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंके मरणयवमध्यके प्रथम समयके प्राप्त होने तक विशेष अधिक विशेष अधिक होकर जीव मरते हैं। उसमे आगे सूक्ष्म पर्याप्तकों के मरण यवमध्यके प्राप्त होने तक विशेष अधिक विशेष अधिक जीव मरते हैं। उसके बाद बादर पर्याप्तकोंके मरणयवमध्यके प्राप्त होने तक विशेष हीन विशेष होन
४ ता० प्रती -जीवणि ( का) य काल- का० प्रती -जीवणिकायकाल-' इति पाठः । * ता० प्रती 'होदूण जाव ' इति पाठः। ता० प्रती . विसेसाहिया विमेमाहिया इति पाठ 1
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५, ६, ६९० ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५३५ होदूण गच्छंति जाव सुहमणिगोदपज्जत्तमरणजवमज्झचरिमसमओ त्ति । तेण परं विसेसहीणा जाव बादरपज्जत्तमरणजवमज्झचरिमसमओ त्ति ।
तदो अंतोमुहत्तं गंतूण सुहमणिगोदपज्जत्तयाणं विल्लेवणट्ठाणाणि आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्ताणि ॥६८९।।
उप्पण्णपढमसमयप्पडि अंतोमहत्तमवरि गंतूग सुहमणिगोदजीवपज्जत्ताणं बंधेण जहण्णाउअं होदि । तमेग णिल्लेवणट्टाणं । एवम्हादो समउत्तराआउअं बिदियणिल्लेवणटाणं । एवं समउत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तणिल्लेवणढाणाणि लग्भंति । तत्थेव सुहमणिगोदपज्जत्ताणमुक्कस्साउअं होदि।
तदो अंतीमुहत्तं गंतून बादरणिगोदपज्जत्तयाणं पिल्लेवणट्ठाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥६९०॥
उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमहत्तमेत्तमद्धाणमुवरि गंतूण बादरणिगोदपज्जताणं बंधेण जहण्णाउअं होदि । तमेगं पिल्लेवणटाणं । समउत्तरेपबद्धेबिदियं पिल्लेवणटाणं । एवं विसमउत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेतणिल्लेवणट्ठाणाणि उवरि गंतूण बादरणिगोदपज्जत्ताणं उक्कस्साउअणिल्लेवणढाणं होदि । तत्थेव बादरणिगोदपज्जत्ताणमुक्कस्साउअं होदि त्ति घेत्तव्वं ।
जीव मरते हैं। उसके बाद सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंके मरणयवमध्यके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक विशेष हीन विशेष हीन होकर जीव जाते हैं । उसके बाद बादर निगोद पर्याप्तकोंके मरणयवमध्यके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक विशेष हीन होकर जीव जाते हैं ।
उसके बाद अन्तर्मुहर्त जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंके निर्लेपनस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । ६८९ ॥
उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहुर्त ऊपर जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंकी बन्धसे जघन्य आयु होती है । वह एक निर्लेपनस्थान है । इससे एक समय अधिक आयु दूसरा निर्लेपनस्थान है। इस प्रकार एक समय अधिक आदिके क्रम में आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान प्राप्त होते हैं। वहीं पर सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट आयु होती है।
उसके बाद अन्तर्मुहर्त जाकर बादर निगोद पर्याप्त जीवोंके निर्लेपनस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ।। ६९० ।।
उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अध्वान ऊपर जाकर बादर निगोद पर्याप्तकोंकी बन्धसे जघन्य आयु होती है । वह एक निर्लेपनस्थान हैं । एक समय अधिक आयुका बन्ध होने पर दूसरा निलेपनस्थान होता है। इस प्रकार दो समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थान ऊपर जाकर बादर निगोद पर्याप्तकोंका उत्कृष्ट आयु निर्लेपनस्थान होता है । तथा वहीं पर बादर निगोद पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट आयु होती है ऐसा यहां पर ग्रहण करना चाहिए।
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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ६९१
तम्हि चेव पत्तेयसरीरपज्जत्तयाणं पिल्लेवणट्ठाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥ ६९१ ॥
तम्हि चेवे ति णिद्देसो किमट्ठ कीरदे? बादरणिगोदाणमाधारभूदपत्तेयसरीर पज्जत्तजीवग्गहणठें। कुदो ? बादरणिगोदपदिद्विदाणमक्कस्सआउअस्स वि पमाणमंतोमहुत्तमेत्तं चेवे ति गरूवदेसादो । उप्पण्णसमयप्पडि बंधेण सव्वजहण्णाउअमेत्तमद्धाणं गंतूण पत्तेयसरीरपज्जत्तयस्स एयमाउअणिवत्तिद्वाणं होदि । एवं समउतरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तआउअणिल्लेवणटाणाणि उवरि गंतूण बंधेण पत्तेयसरीरपज्जत्तयस्स बादरणिगोदपदिट्टिदस्स उक्सस्साउणिव्वत्तिट्ठाण होदि । एदेसि पिल्लेवणटाणाणं थोवबहुत्तपरूवणसुतरसुत्तमागयं ।
एत्थ अप्पाबहुगं-- सव्वत्थोवाणि सुहमणिगोदजीवपज्जत्तयाण पिल्लेवणठ्ठाणाणि ।। ६९२ ॥
कुदो ? आवलियाए असंखेज्जविभागपमाणत्तादो ।
बादरणिगोवजीवपज्जत्तयाणं पिल्लेवणट्ठाणाणि विसेसा-- हियाणि ॥ ६९३ ॥
वहीं पर प्रत्येकशरीर पर्याप्तकोंके निपनस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ।। ६९१ ।।
शंका-- 'तम्हि चेव' ऐसा निर्देश किसलिए करते हैं ?
समाधान-- बादर निगोदोंके आधारभूत प्रत्येक शरीर पर्याप्तकोंके ग्रहण करने के लिए उक्त निर्देश किया है, क्योंकि, बादर निगोद प्रतिष्ठितोंकी उत्कृष्ट आयुका प्रमाण भी अन्तर्मुहूर्त ही है ऐसा गुरुका उपदेश है।
उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर बन्धसे प्राप्त सबसे जघन्य आयुमात्र अध्वान जाकर प्रत्येकशरीर पर्याप्तका एक आयुनिर्वत्तिस्थान होता है। इस प्रकार एक समय अधिक आदिके क्रम से आलिके असंख्यातवें भागप्रमाण आयुनिर्लेपनस्थान ऊपर जाकर बन्धसे बादर निगोद प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर पर्याप्तका उत्कृष्ट आयुनिर्वत्तिस्थान होता है। इन निर्लेपनस्थानोंके अल्पबहत्वका कथन करने के लिए आगे सत्र आया है--
यहां पर अल्पबहुत्व- सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंके निर्लेपनस्थान सबसे थोडे हैं ।। ६९२॥
क्योंकि, वे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । बादर निगोद पर्याप्त जीवोंके निर्लेपनस्थान विशेष अधिक हैं ॥ ६९३ ।।
ता० प्रती सूत्रमिदं सूत्रत्वेनोल्लिखितम् ]
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५, ६, ६९७ )
घणानुयोगद्दारे चूलिया
केत्तियमेत्ते ? आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तव्वित्तिट्ठाणेहि तम्हि चेव पत्तेयसरीरपज्जत्तयाणं णिल्लेवणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।। ६९४ ॥
केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तव्वित्तिट्ठाणेहि । तत्थ इमानि पढमदाए आवासयाणि हवंति ॥ ६९५ ॥ एवमेइं दियणामावासयाणि भणिऊण संपहि एइंदियाणं पंचिवियाणं च आवासयपरूवणट्टमिदं सुत्तमागयं
तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमणिगोदजीवपज्जत्तयाणं समिलाजवमज्झं ।। ६९६ ।।
अणादिसिद्धांतपदमस्सिदूण
आउ अबंधजवमज्झस्स समिलाजवमज्झं त्ति
समणा ।
तदो अंतोमुहृत्तं गंतूण बावरणिगोदजीवपज्जत्तयाणं समिलाजवमज्झं ॥। ६९७ ॥
एत्थ विपुव्वं व आउअबंधजवमज्झस्स गहणं कायव्वं । एवस्स सुत्तस्स
( ५३७
कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वृत्तिस्थानोंसे अधिक हैं । वहीं पर प्रत्येकशरीर पर्याप्तकोंके निर्लेपनस्थान विशेष अधिक हैं । ६९४ । कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानोंसे अधिक हैं ।
वहां सर्वप्रथम ये आवश्यक होते हैं । ६९५ ।
इस प्रकार एकेन्द्रियोंके आवश्यकोंका कथन करके अब एकेन्द्रियों और पञ्चेन्द्रियों के आवश्यकों का कथन करनेके लिए यह सूत्र आया है---
उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवका शमिलायवमध्य होता है । ६९६ ।
अनादि सिद्धान्तपदका आश्रय लेकर आयुबन्धयवमध्यकी शमिलायवमध्य यह संज्ञा है । उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर निमोद पर्याप्त जीवका शमिलायवमध्य होता है । ६९७ ।
यहाँ पर भी पहले के समान आयुबन्धयवमध्यका ग्रहण करना चाहिए । शंका-- इस सुत्रका बादमें आरम्भ किसलिए किया है ?
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५३८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
पच्छारंभो किमळं कौ? पुन्विल्लजवमज्झादो उरि गंतूण एदं जवमझं समत्तं त्ति जाणावणळं कदो।
तदो अंतोमुहत्तं गंतूण एइंदियस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती ॥ ६९८ ॥
एवं भणिदे बंधेण सुहमणिगोदपज्जत्तयस्स जहग्णाउअं घेतव्यं, अण्णस्त असंभावादो।
तदो अंतोमुहत्तं गंतूण सम्मुच्छिमस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती ॥ ६९९ ॥
एवं भणिदे उप्पण्णपढमसमयप्पहुडिमंतोमुत्तमेतमद्धाणमुवरि गंतूग पंचिदियसम्मुच्छिमस्स बंधण जहण्णाउ घेत्तव्वं ।
तदो अंतोमुहत्तं गंतूण गब्भोवक्कंतियस्स जहणिया पज्जतणिवत्ती ।। ७०० ।।
उप्पण्णपढमसमयप्पहुडिमंतोमहुत्तमेत्तमद्धाणमवरि गंतूण बंधेण गब्भोवक्कतियस्स पज्जत्तयस्स* जहणिया पज्जत्तणिवत्ती होदि । सम्मच्छिमजहण्णपज्जत्तणिवत्तीदो
समाधान-- पहलेके यवमध्यके ऊपर जाकर यह यवमध्य समाप्त होता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए बादमें इस सूत्रका आरम्भ किया है । उसके बाद अन्तर्मुहर्त जाकर एकेन्द्रियको जघन्य पर्याप्तनिवृत्ति होती है ।६९८।
ऐसा कहने पर बन्ध से प्राप्त सूक्ष्म निगोद पर्याप्त की जघन्य आयु लेनी चाहिए क्योंकि, अन्यकी आय लेना असम्भव है। फिर अन्तर्मुहूर्त जाकर सम्मच्छिमकी जघन्य पर्याप्तनिर्वृत्ति होती है । ६९९ ।
ऐसा कहने पर उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहुर्त प्रमाण अध्वान ऊपर जाकर पञ्चेन्द्रियसम्मच्छिमकी बन्धसे प्राप्त जघन्य आयु लेनी चाहिए ।
फिर अन्तर्मुहर्त जाकर गर्भोपक्रान्त जीवकी जघन्य पर्याप्त निर्वत्ति होती है । ७००।
उत्पन्न होने के पहले समयसे लेकर अन्तर्मुहुर्तमात्र अध्वान ऊपर जाकर बन्धसे गर्भोपक्रान्त पर्याप्त जीवकी जघन्य पर्याप्तनिर्वृत्ति होती है। सम्मच्छिमकी जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिसे
* का० प्रती सूत्रानन्तरं ' एवं भणिदे उप्पण्णपढ मसमयप्पहु डिमंतोमुत्तमेत्तमद्धाणमुवरि गंतूण पंचि
दियसम्मच्छिमस्स बंधेण गब्भोवक्कंतियस्स जत्तयस्स ' इति पाठः ।
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५, ६, ७०३ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया एसा उवरि होदि ति भणिदं होदि ।
तदो दसवाससहस्साणि गंतूण ओववादियस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती ॥ ७०१ ॥
तदो इदि वृत्ते उप्पण्णपढमसमयादो त्ति घेत्तव्वं, अण्णहा दसवाससहस्साणुववत्तीदो। ओववादिया त्ति वृत्ते देव-रइयाणं गहणं कायव्वं ।
तदो बावीसवाससहस्साणि गंतण एइंदियस्स उक्कस्सिया पज्जत्तणिवत्ती ॥ ७०२ ।।
एइंदियस्स बंधेण जहणिया पज्जत्तणिवत्ती अंतोमुत्तमेत्ता होदि। पुणो एदिस्से उरिमसमउत्तरादिकमेण सुहम-बादरणिगोदपदिद्विदपज्जत्ताणमावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि पिल्लेवणढाणाणि सम्मुच्छिम-गभोवक्कंतिय-ओववादियसम्वजहण्णपज्जत्तणिवत्तीओ च बोलेऊण बादरपुढविकाइयपज्जत्तयस्स बावीसवाससहस्समेत्ता बंधेण उक्कस्सिया णिवत्ती होदि ।
तदो पुवकोडि गंतूण समुच्छिमस्स उक्कस्सिया पज्जत्त -- णिवत्ती ॥ ७०३ ॥
यह आगे चलकर होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
फिर दस हजार वर्ष जाकर औपपादिक जीवकी जघन्य पर्याप्त निर्वृत्ति होती है । ७०१ ।
_ 'तदो' ऐसा कहनेपर उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर यह अर्थ लेना चाहिए, अन्यथा दस हजार वर्ष नहीं बन सकते हैं । ' ओववादिया ' ऐसा कहनेपर देवों और नारकियोंका ग्रहण करना चाहिए।
फिर बाईस हजार वर्ष जाकर एकेन्द्रिय जीवकी उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्ति होती है । ७०२।
एकेन्द्रियकी बन्ध की अपेक्षा जघन्य पर्याप्तनिर्वृत्ति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है । पुनः इसके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे सूक्ष्म निगोद और बादर निगोद प्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्लेपनस्थानोंको तथा सम्मच्छिम, गर्भोपक्रान्त और औपपादिकोंके सबसे जघन्य पर्याप्त निर्वत्तियोंको बिताकर बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तककी बन्धकी अपेक्षा बाईस हजार वर्षप्रमाण उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्ति होती है।
फिर पूर्वकोटि जाकर सम्मच्छिम जीवको उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्ति होती है ।७०३।
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५४० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ७०४ सम्मच्छिमपंचिदियपज्जत्तयस्स बंधेण जहणिया पज्जत्तणिवत्ती अंतोमुहुत्तमेत्ता होदि । पुणो तिस्से उवरि समउत्तर-दुसम उत्तरादिकमेण बावीसवस्ससहस्साणि बोलेदूण सम्मुच्छिमचिदियपज्जत्तयस्त पुव्वको डिमेत्ता बंधेण उक्कस्सिया णिवत्ती होदि।
तदो तिण्णि पलिदोवमाणि गंतण गब्भोवक्कंतियस्स उक्कस्सिया पज्जत्तणिवत्ती ।। ७०४॥
गब्भोवक्कंतियस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती अंतोमहुत्तिया । पुणो तिस्से उवरि समउत्तरादिकमेण पुवकोडि बोलेर्ण तिण्णिपलिदोवममेत्ता गम्भोवक्कंतियस्स बंधेण उक्कस्सिया पज्जत्तणिवत्ती होदि ।
तदो तेत्तीसं सागरोवमाणि गंतूण ओववादियस्स उक्कस्सिया पज्जतणिवत्ती ।। ७०५ ॥
ओववादियस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती दसवाससहस्समेत्ता । तिस्से उरि समउत्तरादिकमेण तिणि पलिदोवमाणि बोलेदूण ओवादियाणं तेत्तीससागरोवममेत्ती उक्कस्सिया पज्जत्तणिवत्ती होदि । एसा सव्वा वि परूवणा ण परवेयव्वा,
सम्मच्छिम पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकी बन्ध की अपेक्षा जघन्य पर्याप्त निर्वृत्ति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है। पुन: इसके ऊपर एक समय अधिक, दो समय अधिक आदिके क्रमसे बाईस हजार वर्ष बिताकर आगे सम्मच्छिम पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकी बन्धकी अपेक्षा पूर्वकोटिप्रमाण उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्ति होती है।
फिर तीन पल्य जाकर गर्भोपक्रान्त जीवकी उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्ति, होती है । ७०४ ।
गर्भोपक्रान्त जीवकी जघन्य पर्याप्त निर्वत्ति अन्तर्महर्तप्रमाण होती है। पुन: इसके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे पूर्वकोटिप्रमाण बिताकर गर्भोपक्रान्त जीवकी बन्धकी अपेक्षा तीन पल्यप्रमाण उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्ति होती है।
फिर तेतीस सागर जाकर औपपादिक जीवको उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वत्ति होती है ।। ७०५ ॥
औपपादिक जीवकी जघन्य पर्याप्त निर्वृत्ति दस हजार वर्षप्रमाण है। उसके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे तीन पल्य बिता कर औपपादिक जीवोंकी तेतीस सागरप्रमाण उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्ति होती है।
शंका-- यह सब प्ररूपणा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, सोलहपदिक महादण्डकमें जघन्य
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५, ६, ७०६ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५४१ सोलसदिए महादंडए जहण्णदिदि-उक्कस्सटिविविसेसेसु परूविज्जमाणेसु परूविदत्तादो । ण एस दोसो, बादर-सुहुर्माणगोदाणं जहण्णाउअप्पहुडि* जाव तेसि उक्कस्साउए त्ति ताव तत्थेव मरणजवमज्झ-आउअबंधजवमज्झ-णिव्वत्तिद्वाणजवमज्झाणि होति । अण्णस्स ण होंति ति परूविदे तेसिमण्णेसिमाउअवियप्पाणं संभालणमिदरेसिमाउआणं पमाणपरूवणाकरणादो। एवं ' जत्थेय मरइ जीवो' एदस्स गाहाए अत्थपरूवणा समत्ता।
पुव्वं तेवीसवग्गणाओ परूविदाओ । तत्थ इमाओ गहणपाओग्गाओ इमाओ च अगहणपाओग्गाओ ति परूवणा कदा । संपहि इमाओ पंचण्हं सरीराणं गेज्झाओ इमाओ च अगेज्झाओ त्ति जाणावेंतो भूदबलिभडारओ उत्तरसुत्तकलावं परूवेदि--
तस्सेव बंधणिज्जस्स तत्थ इमाणि चत्तारि अणुयोगद्दाराणि णायक्वाणि भवंति- वग्गणपरूवणा वग्गणणिरूवणा पदेसट्टदा अप्पाबहुए त्ति ॥ ७०६ ॥
एवाणि चत्तारि चेव एत्थ अणुयोगद्दाराणि होति, अण्णेसिमसंभवादो।
स्थिति और उत्कृष्ट स्थितिविशेषका कथन करने पर कथन हो ही जाता है ?
समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, बादर निगोद और सूक्ष्म निगोद जीवोंकी जधन्य आयुसे लेकर उनकी उत्कृष्ट आयुके प्राप्त होने तक वहीं पर मरणयवमध्य, आयुबन्धयवमध्य और निर्वत्तिस्थानयवमध्य होते हैं अन्यके नहीं होते है ऐसा कथन करने पर उन अन्य जीवोंके आयुविकल्पों की सम्हाल करने के लिए इतर जीवोंकी आयु के प्रमाणका कथन किया है।
इस प्रकार 'जत्थेय मरइ जीवो' इस गाथाकी अर्थप्ररूपणा समाप्त हुई।
पहले तेईस प्रकारकी वर्गणाओंका कथन कर आये हैं। उनमें ये ग्रहणप्रायोग्य हैं और ये अग्रहणप्रायोग्य हैं यह प्ररूपणा की ही है। अब ये पाँच शरीरोंके ग्रहण योग्य हैं और ये ग्रहण योग्य नहीं हैं ऐसा जानते हुए भूतबलि भट्टाकर उत्तरसूत्रकलापका कथन करते हैं--
उसी बन्धनीयके वहाँ ये चार अनयोगद्वार ज्ञातव्य हैं--वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, प्रदेशार्थता और अल्पबहुत्व ।।७०६॥
यहां पर ये चार ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि, अन्य अनुयोगद्वार यहां पर सम्भव नहीं हैं।
ता० प्रतो ' जहण्णट्ठिदि - ( उक्कस्सट्ठिदि ) उक्कस्सट्ठिदि- ' इति पाठ।) * ता० प्रती - णिगोदाणं । जहण्णं ) नहण्णाउअप्पहुडि ' का० प्रती ‘णिगोदाणं जहण्णं जह___ण्णाउअप्पहुडि ' इति पाठः ।
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५४२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ७०७
वग्गणपरूवणदाए इमा एयपदेसिया परमाणुपोग्गलदव्व'वग्गणा णाम ।। ७०७ ।।
इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववठगणा णाम ॥ ७०८ ॥
एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय-छप्पदेसिय-सत्तपदेसियअट्ठपदेसिय-णवपदेसिय-वसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय'अणंतपदेसिय-अणंताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम ।।
तासिमगंताणंतपदेसिय*परमाणुपोग्गलदव्ववठगणाणमुवरिमाहारसरीरदव्ववग्गणा णाम ॥ ७१० ।।
आहारसरीरदव्ववग्गणाणमुवरिमगहणदव्ववग्गणा णाम ७११ अगहणदन्ववग्गणाणमुवरि तेजादश्ववग्गणा णाम ।। ७१२॥ तेजावव्ववग्गणाणमवरि अगहणदव्ववग्गणा णाम ।। ७१३ ।। अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि भासादब्ववग्गणा णाम ॥ ७१४ ।। भासादव्ववग्गणाणमुवरिमगहणदत्ववग्गणा णाम ॥ ७१५ ।।
वर्गणाप्ररूपणाकी अपेक्षा यह एकप्रदेशी परमाणपुद्गलद्रव्यवर्गणा है ।७०७। यह द्विप्रदेशी परणाणपुदगलद्रव्यवर्गणा है । ७०८ ।
इसप्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पञ्चप्रदेशी, षट्प्रदेशी, सप्तप्रदेशी,अष्ट प्रदेशी, नवप्रदेशी, दशप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा होती है । ७०९ ।
उन अनन्तानन्तप्रदेशी परमाणपुदगलद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर आहारशरीरद्रव्यवर्गणा होती है। ७१० ।
आहारशरीरद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर अग्रहणद्रव्यवर्गणा होतो है ।७११ । अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर तेजसद्रव्यवर्गणा होती है । ७१२ । तैजसद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर अग्रहणद्रव्यवर्गणा होती है । ७१३ । अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर भाषाद्रव्यवर्गणा होती है । ७१४ । भाषाद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर अग्रहणद्रव्यवर्गणा होती है । ७१५ ।
* ता० प्रती तासिमणंतपदेसिय-' इति पाठः।
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बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५४३
अगहणवव्ववग्गणाणमुवरि मणदव्ववग्गणा णाम ।। ७१६ ॥ मणदव्ववग्गणाणमुवरिमगहणदव्ववग्गणा णाम ॥ ७१७ ।। आगहणदव्ववग्गणाणमुवरि कम्मइयदव्ववग्गणा णाम ।७१८।
एवमुवरिमसुत्ताणं पि सन्वेसिमुच्चारणा कायव्वा । पुणो एदेसिमत्थे भण्णमाणे जहा अभंतरवग्गणाए परूविदं तहा परूवेयव्वं । एदेहि सवेहि म्मि सुत्तेहि पुन्छतवग्गणाणं चेव संभालणं कदं। कुदो ? पुव्वं परूविदत्थस्सेव परूवणादो ।
एवं वग्गणपरूवणा गदा । वग्गणणिरूवणदाए इमा एयपदेसियपरमाणुपोग्गलवव्ववग्गणा णाम किं गहणपाओग्गाओ किमगहणपाओग्गाओ* ॥ ७१९ ।।
पंचण्ण सरीराणं जा गेज्झा सा गहणपाओग्गा गाम । जा पुण तासिमगेज्झा (सा)अगहणपाओग्गा णाम । तासि दोणं मज्झे कत्थ इमा पददि त्ति पुच्छा कदा । एयपदेसियवग्गणा एक्का चेव, तत्थ कधं गहणपाओग्गाओ ति बहुवयण----
अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर मनोद्रव्यवर्गणा होती है ॥७१६।। मनोद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर अग्रहण द्रव्यवर्गणा होती है ॥७१७॥ अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर कार्मणद्रव्यवर्गणा होती है ॥७१८॥
इसी प्रकार आगेके सभी सूत्रोंकी भी उच्चारणा करनी चाहिये । पुनः इनके अर्थका कथन करते समय जिसप्रकार आभ्यन्तरवर्गणामें कथन किया है उस प्रकार कथन करना चाहिये । इन सब सूत्रोंके द्वारा पूर्वोक्त वर्गणाओंकी ही सम्हाल की गई है, क्योंकि, इन द्वारा पहले कहे गये अर्थका ही कथन किया गया है ।
___ इस प्रकार वर्गणाप्ररूपणा अनुयोगद्वारा समाप्त हुआ। वर्गणानिरूपणाकी अपेक्षा यह एकप्रदेशी परमाणपुद्गलद्रव्यवर्गणा क्या ग्रहण प्रायोग्य हैं या ग्रहणप्रायोग्य नहीं हैं ।।७१९।।
पाँच शरीरोंके जो ग्रहणप्रायोग्य है वह ग्रहण योग्य कहलाती है। परन्तु जो उनके ग्रहणयोग्य नहीं है वह अग्रहणप्रायोग्य कहलाती है। उन दोनोंके मध्य इसका समावेश किसमें होता है इस प्रकारकी पृच्छा इस सूत्रमें की गई है।
शंका-- एकप्रदेशी वर्गणा एक ही है। वहां 'गहणपाओग्गाओ' इस प्रकार बहुवचन का निर्देश नहीं बन सकता है ?
४ ता० प्रती 'सव्वेहि सुत्तेहि' इति पाठ: 1 *ता० प्रती । किमगहणपाओग्गाओ' त्यने । णाम ' इत्यधिका पाठ 1
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५४४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ७२० णिद्देसो जुज्जदे ? ण, जादिदुवारेण एयत्तमावण्णाए वत्तिभेदेण* जणिदबहुत्तं पडि बहुवयणणिद्देसुववत्तीदो।
__ अगहणपाओग्गाओ इमाओ एयपदेसियसव्वपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणाओ ॥ ७२० ॥
पंचण्णं सरीराणं गहगपाओग्गाओ ण होंति हथिहत्थस्स सरिसओ व्व । कुदो ? साभावियादो।
इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम किं गहणपाओग्गाओ किमगहणपाओग्गाओ || ७२१ ॥
सुगममेदं पुच्छासुत्तं ।
अगहणपाओग्गाओ ॥ ७२२ ।। एवं पि सुगमं ।
एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय-छप्पदेसिय-सत्तपदेसियअट्ठपदेसिय-णवपदेसिय-वसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसियअणंतपदेसियपरमाणपोग्गलदव्ववग्गणा णाम कि गहणपाओग्गाओ
समाधान-- नहीं, क्योंकि, यद्यपि जातिको अपेक्षा वह एक है फिर भी व्यक्तिभेदसे वह बहुत्वको प्राप्त है, इसलिए बहुवचन निर्देश बन जाता है।
ये एक प्रदेशी सब परमाणपुद्गलद्रव्यवर्गणायें अग्रहणप्रायोग्य हैं ॥७२०॥
जिस प्रकार हाथीके हाथसे सरसों ग्रहण योग्य नहीं होता है उसी प्रकार ये पाँच शरीरोंके ग्रहणयोग्य वहीं होती हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है ।
यह द्विप्रदेशी परमाणपुद्गलद्रव्यवर्गणा क्या ग्रहणप्रायोग्य होती हैं या क्या अग्रहणप्रायोग्य होती हैं ॥ ७२१ ॥
यह पृच्छासूत्र सुगम है। अग्रहणप्रायोग्य होती हैं । ७२२ । यह सूत्र भी सुगम है।
इस प्रकार त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पंचप्रदेशी, षट्प्रदेशी, सप्तप्रदेशी, अष्टप्रदेशी, नवप्रदेशी, दशप्रदेशी संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी
४ का. प्रती ' तत्थ गहणपाओग्गाओ ति बहवयणणिदेसो ( ण- ) जज्जदे ' इति पाठ।। * ता० प्रती 'एयत्तमावण्णाए वं ( वे ) तिभेदेण' इति पाठ। 1
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५, ६, ७२७ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५४५ किमगहणपाओग्गाओ ।। ७२३ ॥
सुगममेदं। अगहणपाओग्गाओ ।। ७२४ ॥ एवं पि सुगमं ।
अणंताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम कि गहणपाओग्गाओ किमगहणपाओग्गाओ ।। ७२५॥ ___सुगमं ।
काओ चि गहणपाओग्गाओ काओ चि अगहण पाओग्गाओ ॥ ७२६ ॥
आहारवग्गणाए जहण्णवग्गणप्पहुडि जाव महाखंधवव्ववग्गणे त्ति ताव एवाओ अणंताणंतपवेसियवग्गणाओ त्ति एत्थ सुते घेत्तवाओ। तत्थ आहार तेज-मासा-मण. कम्मइयवग्गणाओ गहणपाओग्गाओ अवसेसाओ अगहणपाओग्गाओ त्ति घेत्तव्वं ।
तासिमणताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलववववग्गणाणमुवरिमाहारदव्ववग्गणा णाम ॥७२७ ॥
परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा क्या ग्रहणप्रायोग्य होती हैं या क्या अग्रहणप्रायोग्य होती हैं ॥७२३॥
यह सूत्र सुगम है । अग्रहणप्रायोग्य होती हैं । ७२४।।
यह सूत्र भी सुगम है।
अनन्तानन्तप्रदेशी परमाणपुदगलद्रव्यवर्गणा क्या ग्रहणप्रायोग्य होती हैं या क्या अग्रहणप्रायोग्य होती हैं ॥७२५॥
यह सूत्र सुगम है। कोई ग्रहणप्रायोग्य होती हैं और कोई अग्रहणप्रायोग्य होती हैं ।।७२६ ।
आहारवर्गणाकी जघन्य वर्गणासे लेकर महास्कन्धद्रव्यवर्गणा तक ये सब अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणायें हैं इस प्रकार यहाँ सूत्र में ग्रहण करना चाहिए। उनमेंसे आहारवर्गणा, तेजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा ये ग्रहणप्रायोग्य हैं, अवशेष अग्रहणप्रायोग्य हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
उन अनन्तातन्तप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर जो होती है उसकी
आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है ॥७२७॥ ४का० प्रती ' काओ वे गहणपाओग्गाओ काओ वे अगहण-' इति पाठ |
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५४६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ७२८
उवरि ति वृत्ते मज्झे इदि घेत्तव्वं, अण्णहा उरित्तासंभवादो। अथवा हेटिमअणंताणंतपदेसियवग्गणाणमुवरि आहारवग्गणा होंति त्ति घेत्तन्वं । एदेण सुत्तेण आहारवग्गणा एदेण सरूवेण परिणमदि त्ति जाणावेंतेण तदवढाणपदेसपरूवणा कदा ।
आहारदव्ववग्गणा णाम का ॥ ७२८ ।।
केण लक्खणेण जाणिज्जदि, किं वा तत्तो णिप्पज्जमाणमिदि एदेण* सुत्तेण पुच्छा कदा।
आहारदव्ववग्गणं तिण्णं सरीराणं गहणं पवत्तदि ॥ ७२९ ॥ जिस्से परमाणपोग्गलक्खंधे घेतण तिण्णं सरीराणं गहणं णिप्पत्ती पवत्तदि* होदि सा आहारदव्ववग्गणा णाम । तिण्णं सरीराणं णामणिद्देसळं गहणसरूवपरूवणठं च उत्तरसुत्तं भणदि
ओरालिय-वेउविय-आहारसरीराणं जाणि दवाणि घेत्तण ओरालिय-वेउन्विय-आहारसरीरत्ताए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि दव्वाणि आहारवववग्गणा णाम ॥ ७३० ।।
___ ऊपर ऐसा कहने पर मध्य में ऐसा ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा ऊपरपना नहीं बन सकता है। अथवा अधस्तन अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाओंके ऊपर आहारवर्गणा होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इस सूत्रद्वारा आहारवर्गणा इस रूपसे परिणमन करती है ऐसा जानते हए उसके अवस्थानके प्रदेशका कथन किया है।
आहारद्रव्यवर्गणा क्या है ।। ७२८ ॥
वह किस लक्षणसे जानी जाती है, अथवा उससे क्या निष्पन्न होता है इस प्रकार इस सूत्रद्वारा पृच्छा की गई है।
आहारद्रव्यवर्गणा तीन शरीरोंके ग्रहण के लिए प्रवृत्त होती है ।। ७२९ ।।
जिसके परमाणुपुद्गलस्कन्धको ग्रहण कर तीन शरीरोंका ग्रहण अर्थात् निष्पत्ति होती है वह आहारद्रव्यवर्गणा है। अब तीन शरीरोंके नामोंका निर्देश करने के लिए और ग्रहणके स्वरूपका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं---
___ औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके जिन द्रव्योंको ग्रहणकर औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीररूपसे परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं उन द्रव्योंकी आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है ।। ७३० ।।
। ता० प्रतौ णिप्फज्जमाणइनित ( णिप्पज्जमाणमिदि ) एदेण' का प्रती । णिप्फज्जमाण इज्जते
एदेण' इति पाठः । * ता० प्रती 'गहणं णिवत्ती पवतदि ' का० प्रती 'गहण
णिप्फत्ती पवत्तदि । इति पाठ 8 क'० प्रतो परिणमिदूण , इति पाठः ।
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५, ६, ७३२ )
बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया।
( ५४७
आहारसरीरवग्गणाए अंतो काओ चि वग्गणाओ ओरालियसरीरपाओग्गाओ काओ चि वेउव्वियसरीरपाओग्गाओ काओ चि आहारसरीरपाओग्गाओ। एवमाहार सरीरवग्गणा तिविहा होदि । एविस्से तिविहत्तं कुदो णव्वदे ? उवरिभण्णमाणओगाहणप्पाबहुगादो कज्जभेदण्णहाणववत्तीदो वा। जाणि ओरालिय.वेउविय-आहार सरीराणं पाओग्गाणि दव्वाणि ताणि धेत्तण पाविऊण ओरालिय वेउब्विय-आहारसरीरत्ताए ओरालिय वेउविय-आहारसरीराणं सरूवेण ताणि परिणामेदूण परिणमाविय जेहि सह परिणमंति बंधं गच्छंति जीवा ताणि दव्वाणि आहारदव्ववग्गणा णाम । जदि एदेसि तिण्णं सरीराणं वग्गणाओ ओगाहणभेदेण संखाभेदेण च भिण्णाओ तो आहारदव्ववग्गणा एक्का चेवे ति किमळं उच्चदे ? ण, अगहणवग्गणाहि अंतराभावं पड़च्च तासिमेगत्तवएसादो । ण च संखाभेदो असिद्धो, उवरिभण्णमागअप्पाबहुएणेव तस्स सिद्धीदो।
आहारदव्ववग्गणाणमुवरिमगहणदव्ववग्गणा णाम ॥ ७३१ ॥ एवेण अगहणवग्गणावट्ठाणपदेसो परूविदो। अगहणदव्ववग्गणा णाम का ॥ ७३२ ।।
आहारशरीरवर्गणाके भीतर कुछ वर्गणायें औदारिकशरीरके योग्य हैं, कुछ वर्गणायें वैक्रियिकशरीरके योग्य हैं और कुछ वर्गणायें आहारकशरीरके योग्य हैं। इस प्रकार आहारशरी रवर्गणा तीन प्रकार की है।
शंका-- यह तीन प्रकारकी है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- आगे कहे जानेवाले अवगाहना अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। अथवा अन्यथा कार्यभेद नहीं बन सकता है इससे जाना जाता है कि वह तीन प्रकारकी है।
जो औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीरके योग्य द्रव्य हैं उन्हें ग्रहण कर अर्थात् प्राप्तकर औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीररूपसे अर्थात् औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके आकारसे उन्हें परिणामकर जिनके साथ जीव परिणमन करते हैं अर्थात् बन्धको प्राप्त होते हैं उन द्रव्योंकी आहारद्रव्यवर्गणा संज्ञा है।
शंका-- यदि तीन शरीरोंकी वर्गणायें अवगाहनाके भेदसे और संख्याके भेदसे अलग अलग हैं तो आहारद्रव्यवर्गणा एक ही है ऐसा किसलिए कहते हैं।
समाधान-- नहीं, क्योंकि, अग्रहणवर्गणाओंके द्वारा अन्तरके अभावकी अपेक्षा इन वर्गणाओंके एकत्वका उपदेश दिया गया है । और संख्याभेद असिद्ध नहीं है, क्योंकि, आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्वसे ही उसकी सिद्धि होती है।
आहार द्रव्यवर्गणाओंके ऊपर अग्रहणद्रव्यवर्गणा है। ७३१ ।
इस सूत्रद्वारा अग्रहणद्रव्यवर्गणाके अवस्थानके प्रदेशका कथन किया है। अग्रहणद्रव्यवर्गणा क्या है । ७३२ ।
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५४८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६. ७३३
किलक्खणेणे त्ति भणिदं होदि ।
अगहणवव्ववग्गणा आहारवव्वमधिच्छिदार तेयादव्ववग्गणं न पाववि ताणं दवाणमंतरे अगहणदव्ववग्गणा णाम ।। ७३३ ॥
आहारदनवमधिच्छिवा एदेणतिण्णं सरीराणमप्पाओग्गत्तं आहारदव्ववग्ग. णाए उक्कस्सवग्गणादो वि अगहणजहण्णवग्गणाए रूवाहियत्तं परविदं । तेयादववग्गणं ण पावदि एदेण तेजा-भास-मण-कम्माणमप्पाओग्गत्तं तेजाजहण्णवग्गणादो एदिस्से उक्कस्सवग्गणाए रूवणतं च परूविदं । ताणं दवाणमंतरे एदासि दोणं वग्गणाणं विच्चाले अगहणवववग्गणा णाम । एदेण द्विदपदेसपरूवणा कदा ।
अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि तेयादव्ववग्गणा णाम ॥ ७३४ ॥ एदेण सुत्तेण तेयादव्ववग्गणाए पमाणं परूविदं ।
तेयादव्ववग्गणा णाम का ।। ७३५ ॥ सुगममेदं पुच्छासुत्तं ।
क्या लक्षणवाली है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
अग्रहणद्रव्यवर्गणा आहारद्रव्यसे प्रारंभ होकर तेजसद्रव्यवर्गणाको नहीं प्राप्त होती है, अतः इन दोनों द्रव्योंके मध्यमें जो होती है उसकी अग्रहणद्रव्यवर्गणा संज्ञा है ।। ७३३ ॥
'आहारदव्वमधिच्छिदा' इस वचन द्वारा अग्रहणवर्गणा तीन शरीरोंके अयोग्य है और आहारद्रव्यवर्गणाकी उत्कृष्ट द्रव्यवर्गणासे भी जघन्य अग्रहण वर्गणा एक प्रदेश अधिक है यह कहा गया है। तेयादव्ववग्गणं ण पावदि इस वचन द्वारा यह तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणाके अयोग्य और जघन्य तैजसवर्गणासे यह उत्कृष्ट वर्गणा एक प्रदेश न्यन है यह कहा गया है। 'ताणं दव्वाणं अंतरे' अर्थात् इन दोनों वर्गणाओं के बीच में अग्रहणद्रव्यवर्गणा है। इस द्वारा उसके स्थित होने के प्रदेशका कथन किया गया है।
अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर तैजसद्रव्यवर्गणा है ॥ ७३४ ॥
इस सूत्र द्वारा तंजसद्रव्यवर्गणाका प्रमाण कहा गया है । तेजसद्रव्यवर्गणा क्या है ॥ ७३५ ॥ यह पृच्छासूत्र सुगम है।
ता० प्रती ' -मधिच्छिदा (ए) एदेण ' इति पाठः ।
४ ता० प्रती । -मच्छिदा' इति पाठः। 1ता० प्रतो 'अपरूविदं ' इति पाठः ।
:
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५, ६, ७४० ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५४९ तेयादववग्गणा तेयासरीरस्स गहणं पवत्तदि ॥ ७३६ ॥ तेजासरीरस्स तेयासरीरटें गहणं जत्तो पवत्तदि सा तेजावग्गणा त्ति भण्गदि । एदस्स णिग्णयमुत्तरसुत्तं भणदि ।
जाणि दव्वाणि घेतूण तेयासरीरत्ताए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि वन्वाणि तेजादव्ववग्गणा णाम ॥ ७३७ ॥
जाणि दव्वाणि घेत्तण पावितण तेजासरीरत्ताए तेजासरीरसरूवेण परिणामेदूण मिच्छादिपच्चएहि परिणमाविय परिणमंति संबंधं गच्छति जीवा ताणि दवाणि तेजा दववग्गणा णाम ।
तेजाववववग्गणाणमुवरिमगहणवववग्गणा णाम । ७३८ ॥ अगहणवव्ववग्गणा णाम का ॥ ७३९ ।।
अगहणदववग्गणा तेजादवमविच्छिदा भासादव्वं ण पावेदि ताणं वन्वाणमंतरे अगहणवव्ववग्गणा णाम ॥ ७४० ।।
सुगममेदं सुत्ततियं ।
तैजसद्रव्यवर्गणासे तैजसशरीरका ग्रहण होता है ॥ ७३६ ।।
' तेयासरीरस्स' अर्थात् तेजसशरीरके लिए ग्रहण जिससे होता है वह तैजसवर्गणा कही जाती है। अब इसका निर्णय करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं ।
जिन द्रव्योंको ग्रहणकर तैजसशरीररूपसे परिणमा कर जीव परिणमन करते हैं उन द्रव्योंकी तेजसद्रव्यवर्गणा संज्ञा है ।। ७३७ ॥
जिन द्रव्योंको ग्रहण कर अर्थात् प्राप्त कर तैजसशरीररूपसे 'परिणामेदूण ' अर्थात् मिथ्यात्व आदि कारणोंसे परिणमा कर जीव 'परिणमंति' अर्थात् सम्बन्धको प्राप्त होते हैं वे द्रव्य तैजसद्रव्यवर्गणा कहलाते हैं।
तेजसद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर अग्रहणद्रव्यवर्गणा होती है । ७३८ ।। अग्रहणद्रव्यवर्गणा क्या है । ७३९ ।
अग्रहणद्रव्यवर्गणा तैजसद्रव्यवर्गणासे प्रारम्भ होकर भाषाद्रव्यको नहीं प्राप्त होती है, अतः इन दोनों द्रव्योंके मध्य में जो होती है उसकी अग्रहणद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । ७४० ।।
ये तीन सूत्र सुगम हैं।
0 का० प्रती ' पबत्तीदि' इति पाठ)
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५५० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ७४१ अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि भासावव्ववग्गणा णाम ॥ ७४१ ॥ भासावववग्गणा णाम का ॥ ७४२ ।। सुगमेदं सुत्तदुअं। भासादविवग्गणा चउन्विहाए भासाए गहणं पवत्तदि ॥७४३॥
जा वग्गणा चउविहाए भासाए गहणं होदूण पवत्तदि सा भासादब्यवग्गणा होदि । एदस्स णिण्णयत्थमुत्तरसुत्तं भणदि
सच्चभासाए मोसभासाए सच्चमोसभासाए असच्चमोसभासाए जाणि वन्वाणि घेत्तूण सच्चभासत्ताए मोसभासत्ताए सच्चमोसभासत्ताए असच्चमोसभासत्ताए परिणामेदूण णिस्सारंति जीवा ताणि दवाणि भासादव्ववग्गणा णाम ।। ७४४॥
भासादब्वग्गणा सच्च-मोस-सच्चमोस-असच्चमोसभेवेण चउबिहा । एदं चउविहत्तं कुदोणवदे? चउविवह भासाकज्जण्णहाणुववत्तीदो। चउन्विहभासाणं
अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर जो होती है उसकी भाषाद्रव्यवर्गणा संज्ञा है ।७४१॥ भाषाद्रव्यवर्गणा क्या है ।।७४२॥
ये दो सूत्र सुगम हैं। भाषाद्रव्यवर्गणा चार प्रकारकी भाषारूपसे ग्रहण होकर प्रवृत्त होती है ।७४३।
जो वर्गणा चार प्रकारकी भाषारूपसे ग्रहण होकर प्रवृत्त होती है वह भाषाद्रव्यवर्गणा है। अब इसका निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं--
सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा और असत्यमोषभाषाके जिन द्रव्योंको ग्रहण कर सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा और असत्यमोषमाषारूपसे परिणामा कर जीव उन्हें निकालते हैं उन द्रव्योंकी भाषाद्रव्यवर्गणा संज्ञा है ।। ७४४ ।।
भाषाद्रव्यवर्गणा सत्य, मोष, सत्यमोष और असत्यमोषके भेदसे चार प्रकारकी है। शंका-- यह चार प्रकारकी है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधाम-- उसका चार प्रकारका भाषारूप कार्य अन्यथा बन नहीं सकता है इससे जाना जाता है कि वह चार प्रकारकी है।
चार प्रकारकी भाषाके योग्य जो द्रव्य हैं उन्हें ग्रहण कर तालु आदिके व्यापार द्वारा
४ ता. प्रती ' चउम्विहा 1 तं चउविवहा कूदो' इति पाठ: । * ता० प्रती ' णव्वदे तचउबिह-' इति पाठः।
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५, ६, ७५० ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५५१ पाओग्गाणि जाणि दव्वाणि ताणि घेत्तण सच्च-मोस-सच्चमोस-असच्चमोसमासाणं सरूवेण तालुवादिवावारेण परिणमाविय जीवा महादो णिस्तारेति ताणि दव्वाणि भासादविवग्गणा णाम |
भासावववग्गणाणमुवरिमगहणदव्ववग्गणा णाम ॥ ७४५ ॥ अगहणदव्ववग्गणा णाम का ॥ ७४६ ।।
अगहणवव्ववग्गणा भासादब्वमधिच्छिदा मणदव्वं ण पावेवि ताणं दवाणमंतरेर अगहणदव्ववग्गणा पाम ॥ ७४७॥
सुगममेदं सुत्तत्तियं। अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि मणदव्ववग्गणा णाम ॥ ७४८॥ मणदव्ववग्गणा णाम का ।। ७४९ ॥ मणवव्ववग्गणा चउव्विहस्स* मणस्स गहणं पवत्तदि ।७५०। एदाणि वि सुगमाणि। सच्चमणस्स मोसमणस्स सच्चमोसमणस्स असच्चमोसमणस्स जाणि
सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोषभाषा और असत्यमोषभाषारूपसे परिणमाकर जीव मुखसे निकलते हैं, अतएव उन द्रव्योंकी भाषाद्रव्यवर्गणा संज्ञा है ।
भाषाद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर जो होती है उसकी अग्रहणद्रव्ववर्गणा संज्ञा है ।। ७४५ ।।
अग्रहणद्रव्यवर्गणा क्या है । ७४६ ।।
अग्रहणद्रव्यवर्गणा भाषाद्रव्यवर्गणासे प्रारंभ होकर मनोद्रव्यको नहीं प्राप्त होती है, अतः उन द्रव्योंके मध्य में जो होती है उसकी अग्रहणद्रव्यवर्गणा संज्ञा है।७४७१
ये तीन सूत्र सुगम हैं। अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर जो होती है उसको मनोद्रव्यवर्गणा संज्ञा है। ७४८ ।
मनोद्रव्यवर्गणा क्या है । ७४९ । मनोद्रव्यवर्गणा चार प्रकारके मनरूपसे ग्रहण होकर प्रवृत्त होती है । ७५० ।
ये सूत्र भी सुगम हैं। सत्यमन, मोषमन, सत्यमोषमन और असत्यमोषमनके जिन द्रव्योंको ग्रहणकर
४ ता० प्रती ' ताणि ( णं ) दवाणमंतरे ' का० प्रती ' ताणि दव्वाणमंतरे' इति पाठः ।
* का० प्रती ' -वग्गणाए चउवहस्स' इति पाठ:1
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५५२ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ७५१
दव्वाणि घेत्तूण सच्चमणत्ताए मोसमणत्ताए सच्चमोसमणत्ताए असच्चमोसमणत्ताए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि दवाणि मणदव्ववग्गणा णाम ॥ ७५१ ॥
मणदव्यवग्गणा चउविहा- सच्मणपाओग्गा मोसमणपाओग्गा सच्चमोसमणपाओग्गा असच्चमोसमणपाओग्गा चेदि । मणदव्ववग्गणाए चउत्रिहत्तं कुदो णवदे? मणदव्यवग्गणादो णिप्पज्जमाणदव्वमगस चउविहभावण्णहाणववत्तीदो। सेसं सुगम।
मणदव्ववग्गणाणमवरिमगहणव्ववगणा णाम।। ७५२ ॥ अगहणवव्ववग्गणा णाम का ॥ ७५३ ।।
अगहणदव्ववग्गणा मणदव्वमविच्छिदार कम्मइयदव्वं ण पावदि ताणं दवाणमंतरे अगहणदववग्गणा णाम ॥ ७५४ ॥
एवाणि वि सुत्ताणि सुगमाणि । अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि कम्मइयदव्ववग्गणा णाम ७५५।
सत्यमन, मोषमन, सत्यमोषमन और असत्यमोषमनरूपसे परिणमा कर जीव परिणमन करते हैं उन द्रव्योंकी मनोद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । ७५१ ।
__ मनोद्रव्यवर्गणा चार प्रकारकी है-- सत्यमनप्रायोग्य, मोषमनप्रायोग्य, सत्यमोषमनप्रायोग्य और असत्यमोषमनप्रायोग्य ।
शंका-- मनोद्रव्यवर्गणा चार प्रकारकी है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- मनोद्रव्यवर्गणासे उत्पन्न होनेवाला द्रव्यमन चार प्रकारका अन्यथा बन नहीं सकता है इससे जाना जाता है कि मनोद्रव्यवर्गणा चार प्रकारकी होती है ।
शेष कथन सुगम है। मनोद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर अग्रहणद्रव्यवर्गणा होती है । ७५२ । अग्रहणद्रव्यवर्गणा क्या है । ७५३ ।
अग्रहणद्रव्यवर्गणा मनोद्रव्यवर्गणासे प्रारम्भ होकर कार्मणद्रव्यको नहीं प्राप्त होती है, अतः इन दोनों द्रव्योंके मध्यमें जो होती है उसको अग्रहणद्रव्यवर्गणी संज्ञा है । ७५४।
यह सूत्र भी सुगम है। अग्रहणद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर कार्मणद्रव्यवर्गणा होती है । ७५५ ।
४ का० प्रती - मधिच्छिदा' इति पाठः ।
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५, ६, ७५८ )
बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५५३
कम्मइयवस्ववग्गणा णाम का ।। ७५६ ।।। कम्मइयवश्ववग्गणा अट्ठविहस्स कम्मस्स गहणं पवत्तवि ७५७। सुगमाणि एदाणि सुत्ताणि । एदेसि सुत्ताणं णिण्णयट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
णाणावरणीयस्स दंसणावरणीयस्स वेयणीयस्स मोहणीयस्स आउअस्स णामस्स गोदस्स अंतराइयस्स जाणि दव्वाणि घेत्तण णाणावरणीयत्ताए दंसणावरणीयत्ताए वेयणीयत्ताए मोहणीयत्ताए आउअत्ताए णामत्ताए गोदत्ताए अंतराइयत्ताए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि दव्वाणि कम्मइयवस्ववग्गणा णाम ॥ ७५८ ॥
णाणावरणीयस्स जाणि पाओग्गाणि दव्वाणि ताणि चेव मिच्छत्तादिपच्चएहि पंचणाणावरणीयसरूवेण परिणमंति ण अण्णेसि सरूवेण । कुदो ? अप्पाओग्गत्तावो। एवं सम्वेसि कम्माणं वत्तव्वं, अण्णहा गाणावरणीयस्स जाणि वन्वाणि ताणि घेत्तूण मिच्छाविपच्चएहि जाणावरणीयत्ताए परिणामेदूण जीवा परिणमंति त्ति सुत्ताणववत्तीदो । जदि एवं तो कम्मइयवग्गणाओ अट्ठे ति किण्ण परूविदाओ? ण, अंतरा. भावेण तथोवदेसाभावादो। एदाओ अट्ट वि वग्गणाओ कि पुध पुध अच्छंति आहो
कार्मणद्रव्यवर्गणा क्या है ।। ७५६ ।। कार्मणद्रव्यवर्गणा आठ प्रकारके कर्मका ग्रहणकर प्रवृत्त होती है । ७५७ ।
ये सूत्र सुगम हैं। अब इन सूत्रोंका निर्णय करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके जो द्रव्य हैं उन्हें ग्रहणकर ज्ञानावरणरूपसे, दर्शनावरणरूपसे, वेदनीयरूपसे, मोहनीयरूपसे, आयुरूपसे, नामरूपसे, गोत्ररूपसे और अन्तरायरूपसे परिणमा कर जीव परिणमन करते हैं, अतः उन द्रव्योंकी कार्मणद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । ७५८ ।
ज्ञानावरणीयके योग्य जो द्रव्य हैं वे ही मिथ्यात्व आदि प्रत्ययोंके कारण पाँच ज्ञानावरणीयरूपसे परिणमन करते हैं, अन्यरूपसे वे परिणमन नहीं करते, क्योंकि, वे अन्यके अयोग्य होते हैं । इसी प्रकार सब कर्मोंके विषयमें कहना चाहिए, अन्यथा ज्ञानावरणीयके जो द्रव्य हैं उन्हें ग्रहण कर मिथ्यात्व आदि प्रत्ययवश ज्ञानावरणीयरूपसे परिणमाकर जीव परिणमन करते हैं यह सूत्र नहीं बन सकता है।
शंका-- यदि ऐसा है तो कार्मणवर्गणायें आठ हैं ऐसा कथन क्यों नहीं किया है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, अन्तरका अभाव होनेसे उस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता।
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५५४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ७५९ करंबियाओ ति ? पुध पुध ण अच्छंति किंतु करंबियाओ । कुदो एवं व्वदे ? 'आउअभागो थोवो गामा-गोदे समो तदो अहिओ' एदीए गाहाए णव्वदे । सेसं जाणिदूण वत्तव्वं ।
एवं वग्गणणिरूवणा समत्ता। पदेसट्ठवा- ओरालियसरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्ठदा अणंताणंतपदेसियाओ ॥ ७५९ ॥ ।
ओरालियसरीरवववग्गणाणं पदेसपरिमाणं पुव्वं चेव आहारवग्गणणिरूवणाए परूदिदं । तमेत्थ किमढें वच्चदे ? ओरालियवग्गणापदेसे अस्सिदण वण्णादिपरूवणं करेमि त्ति जाणावणठं वुच्चदे ।
पंचवण्णाओ ॥ ७६० ।।
ओरालियसरीरदव्ववग्गणाओ सुक्किल-रुहिर-किण्ण-णील-पीदवण्णसंजुत्ताओ होति । कथं एकम्हि परमाणुम्हि पंचण्णं वण्णाणं संभवो? ण एक्केक्कम्हि परमाणुम्हि एक्केक्को चेव वग्णपज्जाओ, किंतु ओरालियसरीरवग्गणाए जेण काओचि सुक्किल. वण्णाओ काओचि रुहिरवण्णाओ काओचि किण्णवण्णाओ काओचि णीलवण्णाओ
शंका-- ये आठ ही वर्गणायें क्या पृथक् पृथक् रहती हैं या मिश्रित होकर रहती हैं? समाधान-- पृथक् पृथक् नहीं रहती हैं किन्तु मिश्रित होकर रहती हैं । शंका-- यह किस प्रमाणसे जान जाता है ?
समाधान- ' आयु कर्मका भाग स्तोक है । नाम कर्म और गोत्र कर्म का भाग उससे अधिक है। इस गाथा से जाना जाता है । शेष का कथन जानकर करना चाहिये।
इस प्रकार वर्गणानिरूपणा समाप्त हुई। प्रदेशार्थता- औदारिकशरीरद्रव्यवर्गणायें प्रदेशार्थताको अपेक्षा अनन्तानन्तप्रदेशवाली होती हैं ।। ७५९ ।।
शंका-- औदारिकशरीरकी द्रव्यवर्गणाओंके प्रदेशोंका परिणाम पहले ही आहारवर्गणानिरूपणामें किया है, उसे यहां किसलिए कहते हैं ?
समाधान-- औदारिकवर्गणाके प्रदेशोंका आश्रय लेकर वर्ण आदिका कथन करते है इस बातका ज्ञान करानेके लिए कहते हैं।
वे पाँच वर्णवाली होती हैं ।। ७६० ।। औदारिकशरीरद्रव्यवर्गणायें शुक्ल, लाल, कृष्ण, नील और पीतवर्णसे संयक्त होती हैं। शंका-- एक परमाणु में पाँच वर्ण कैसे होते हैं ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, एक एक परमाणु में एक एक ही वर्णपर्याय होती है। किन्तु औदारिकशरीरवर्गणाकी चूंकि कुछ वर्गणायें शुक्लवर्णवाली होती हैं, कुछ लालवर्णवाली होती हैं
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बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५५५ काओचि पीदवण्णाओ काओचि करंबियवण्णाओ, तेणेदाणं पंचवण्णत्तं जुज्जवे । जदि एवं तो ओरालियसरीरवग्गणाए एक्कतीसवण्णभेदा पावेंति ? ण, पंचवण्णेहि एयंतेण पुधभूदसंजोगाभावादो ।
पंचरसाओ ॥ ७६१ ।।
ओरालियसरीरवग्गणासु तित्त-कडअ-कसायंविल-महुरभेदेण पंच रसा होति । एदे पंच वि रसा एक्केक्कपरमाणुम्हि जुगवं ण होंति, किंतु कमेण होति। वग्गणासु पुण अक्कमेण कमेण वि होंति, अणंताणंतपरमाणणं समदयसमागमेण समुप्पण्णवग्गणासु पंचवण्णाणं व पंचरसाणमक्कमेण वृत्तीए विरोहाभावादो। एत्थ वि एक्कतीसं रसभेदा परूवेदव्वा ।
दुगंधाओ ।। ७६२ ।।
सुरहिगधो दुरहिगंधो त्ति बे चेव गंधभंगा संखेवेण । विसेसदो पुण सुरहिगंधो दुरहिगंधो वि अणेयविहो, जाइ-केयइ मालियादिफुल्लेसु अणेयगंधुवलंभादो। एदेहि दोहि गंधेहि ओरालियपरमाण कमेण संजत्ता होंति, वग्गणाओ पुण अक्कमक्कमेहि
कुछ कृष्णवर्णवाली होती है, कुछ नीलवर्णवाली होती हैं, कुछ पीतवर्णवालो होती हैं और कुल मिश्रवर्णवाली होती हैं इसलिए इनके पाँच वर्ण बन जाते हैं।
शंका-- यदि ऐसा है तो औदारिकशरीरवर्गणाके इकतीस वर्णके भेद प्राप्त होते हैं? समाधान-- वहीं, क्योंकि, पाँच वर्णसे संयोगी भेद सर्वथा पृथग्भूत नहीं होते । पाँच रसवाली होती हैं । ७६१।।
औदारिकशरीर वर्गणाओंमें तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल और मधुरके भेदसे पाँच रस होते होते हैं । ये पांचों रस एक एक परमाणु में एक साथ नहीं होते हैं किन्तु क्रमसे होते हैं। परन्तु वर्गणाओं में अक्रमसे होते हैं और क्रमसे भी होते हैं, क्योंकि, अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदयसमागमसे उत्पन्न हुईं वर्गणाओंमें पाँच वर्गों के समान पाँच रसोंकी अक्रमसे वृत्ति होने में कोई विरोध नहीं है। यहाँ पर भी इकतीस रसके भेद कहने चाहिए।
_ विशेषार्थ-- रसके मूल भेद पाँच हैं, इसलिए प्रत्येक भेद पाँच हुए। इन पाँचोंके द्विसंयोगी भेद दस होते हैं, त्रिसंयोगी भेद भी दस होते हैं, चतुःसंयोगी भेद पाँच होते हैं और पाँचसंयोगी भेद एक होता है । इस प्रकार कुल भेद इकतीस होते हैं। पाँच वर्गों के इकतीस भेद इसी प्रकार ले आने चाहिए।
दो गन्धवाली होती हैं। ७६२ ।।
सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध इस प्रकार संक्षेपसे गन्धके भग दो ही हैं। विशेषकी अपेक्षा तो सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध अनेक प्रकार का होता है, क्योंकि, जाति, केतकी और नेमाली आदि फूलोंमें अनेक प्रकारकी गन्ध उपलब्ध होती हैं। इन दो प्रकार की गन्धोंसे औदारिक परमाणु क्रमसे संयुक्त होते हैं। परन्तु वर्गणायें क्रमसे और अक्रमसे संयुक्त होती हैं, क्योंकि
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५५६ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६. ७६३
संजुज्जंति, सावयवेसु तदविरोहावो ।
अट्ठफासाओ ।। ७६३ ॥
कक्कड-मउअ-णिद्ध ह लक्ख-गुरु-लहु-सीदुण्णभेदेण अट्ठ मूलफासा होति । संजोगेण पुण दुसदपंचवण्णफासभेवा। ते एत्थ ण गहिदा, संगहे असंगहस्सअमावादो। एवेहि अट्ठपासेहि ओरालियवग्गणाओ अक्कमक्कमेहि संजुत्ताओ होति ।
वेउब्वियसरीरदव्ववग्गणाओ पदेसठ्ठदाए अणंताणंतपदेसियाओ ।। ७६४ ॥
पंचवण्णाओ ।। ७६५ ॥ पंचरसाओ ॥ ७६६ । दुगंधाओ ॥ ७६७ ॥ अट्ठफासाओ ।। ७६८॥
एदेसि पंचण्णं सुत्ताणं जहा ओरालियसरीरस्स पंचसुत्तपरूवणा कदा तहा कायव्वा ।
सावयव पदार्थोंमें ऐसा होने में कोई विरोध नहीं आता।
आठ स्पर्शवाली होती हैं। ७६३ ॥
कर्कश, मदु, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु, लघु, शीत और उष्णके भेदसे मल स्पर्श आठ होते हैं। परन्तु संयोगसे दो सौ पचयन स्पर्शके भेद होते हैं। उनका यहां पर ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि, संग्रहमें प्रत्येक का अभाव है। इन आठ स्पर्शोसे औदारिकशरीरवर्गणायें क्रमसे और अक्रमसे संयुक्त होती हैं।
वैक्रियिक शरीर द्रव्यवर्गणायें प्रदेशार्थताको अपेक्षा अनन्तानन्त प्रवेशवाली होती हैं ।। ७६४ ।।
वे पांच वर्णवाली होती हैं ।। ७६५ ॥ पाँच रसवाली होती हैं ।। ७६६ ॥ दो गन्धवाली होती हैं ॥ ७६७ ॥ आठ स्पर्शवाली होती हैं ॥ ७६८ ॥
जिस प्रकार औदारिकके पांच सूत्रोंका कथन किया है उसी प्रकार इन पांच सूत्रीका कथन करना चाहिये।
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५, ६, ७७३ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५५७ आहारसरीरवव्ववग्गणाओ पवेसठ्ठदाए अणंताणंतपदेसियाओ ॥ ७६९ ॥
सुगमं । पंचवण्णाओ ।। ७७० ।।
जदि एवाओ पंचवण्णाओ, आहारसरीरं धवलं चेवे ति कथं जुज्जदे ? ण, विस्सासुवचयस्स धवलत्तं वळूण तदुवदेसादो।
पंचरसाओ ॥ ७७१ ।।
एत्थ असुहरसाणं संभवे संते आहारसरीरस्स महुरतं कथं जुज्जदे ? ण, अप्पसत्थरसाणं वग्गणाणं अव्वत्तरसभावेण तत्थ महुररसुवदेसादो।
दुगंधाओ ॥ ७७२ ।। एत्थ वि आहारसरीरस्स सुअंधत्तं पुव्वं व परवेयव्वं । अठ्ठपासाओ ॥ ७७३ ॥
आहारकशरीरवर्गणायें प्रदेशार्थताको अपेक्षा अनन्तानन्त प्रदेशवाली होती हैं ।।७६९॥
यह सूत्र सुगम है। वे पाँच वर्णवाली होती हैं ॥७७०॥ शंका- यदि ये पांच वर्णवाली होती हैं तो आहार शरीर धवल ही होता है यह
कैसे बन सकता है
समाधान- नहीं, क्योंकि, विस्रसोपचयकी धवलताको देखकर वह उपदेश दिया है। पाँच रसवाली होती हैं ॥७७१॥
___ शंका- यहाँ अशुभ रस की सम्भावना होने पर माहारकशरीर मधुप होता है यह कैसे बन सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, अप्रशस्त रसवाली वर्गणाओंका अव्यक्त रस होनेसे वहां मधुर रसका उपदेश दिया गया है ।
दो गन्धवाली होती हैं ॥७७२।। यहाँ पर भी आहारकशरीरका सुगन्धपना पहले के समान कहना चाहिये । आठ स्पर्शवाली होती हैं ॥७७३॥
* मप्रतिपाठोऽयम् 1ता० प्रतो ' सुअंधतं परूवेयव्वं ' का० प्रती ' सुअत्तं परूवेयव्वं ' इति पाठ:1
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५५८ )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ७१४
- एत्थ वि-आहारसरीरस्स सुहपासो पुव्वं परूवेयवो । अथवा असुहरसगंधपासवग्गणाओ आहारसरीरागारेण परिणमंतीओ सुहरस-गंध-पासेहि परिणमंति त्ति वत्तव्वं ।
तेजासरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्टवाए अणंताणंतपदेसियाओ॥ ७७४ ॥
पंचवण्णाओ ॥ ७७५ । पंचरसाओ ॥ ७७६ ।। दोगंधाओ ॥ ७७७ ॥ सुगममेदं सुत्तचउक्कं ।
चदुपासाओ ॥ ७७८॥ णिद्ध ल्हुक्खाणमेक्कदरो सीदुण्हाणमेक्कदरो कक्खड-मउआणमेक्कदरो गरुअलहुआणमेक्कदरो पासो । एदम्मि खंधे पडिवक्खपासो ण होवि ति कुदो जव्वदे ? चत्तारि पासा ति णिद्देसणहाणुववत्तीदो।
___ यहां पर भी आहारकशरीरका शुभ स्पर्श पहले के समान कहना चाहिए । अथवा अशुभ रस, अशुभ गन्ध और अशुभ स्पर्शवाली वर्गणायें आहारकशरीररूपसे परिणमन करती हुई शुभ रस, शुभ गन्ध और शुभ स्पर्शरूपसे परिणमन करती हैं ऐसा यहाँ पर कहना चाहिए।
तैजसशरीरकी द्रव्यवर्गणायें प्रदेशार्थताको अपेक्षा अनन्तानन्त प्रदेशवाली होती हैं ।। ७७४ ॥
वे पाँच ववाली होती हैं । ७७५ । पांच रसवाली होती हैं । ७७६ । दो गन्धवाली होती हैं । ७७७ । ये चार सूत्र सुगम हैं।
चार स्पर्शवाली होती हैं । ७७८ ।
स्निग्ध और रूक्षमें से कोई एक, शीत और उष्णमें से कोई एक, कर्कश और मृदुमेंसे कोई एक तथा गुरु और लधुपैसे कोई एक स्पर्श होता है ।
शंका- इस स्कन्ध में प्रतिपक्ष स्पर्श नहीं होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है? समाधान- सूत्र में चार स्पर्शों का निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है।
* ता० प्रती ' वत्तव्वं ' इति स्थाने 'घेतव्वं ' इति पाठ: 1 *ता० प्रती - मेक्कदरो पामो' इति यावत सूत्रत्वेन निबद्धं 1
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५, ६, ७८४ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया
( ५५९ भासा-मण-कम्मइयसरीरदविवग्गणाओ पदेसट्ठदाए अणंताणंतपदेसियाओ ॥ ७७९ ॥
पंचवण्णाओ ।। ७८० ॥ पंचरसाओ ॥ ७८१॥ दुगंधाओ ॥ ७८२ ॥ चदपासाओ ।। ७८३ ॥
एदेसि पंचण्णं सुत्ताणमत्थो जहा तेजासरीरस्स पंचण्णं सुत्ताणं परूविदो तहा परूवेयन्वो।
एवं पदेसटुवा समत्ता। अप्पाबहुगं दुविहं- पदेसअप्पाबहुअं चेव ओगाहणअप्पा-- बहुअं चेव ॥ ७८४ ॥
पुत्वं बाहिरवग्गणाए पंचसरीरागारेण परिणदपोग्गलाणमप्पाबहुगं परविदं । संपहि पंचण्णं सरीराणं वग्गणाणं* पदेसस्स थोवबहुत्तपरूवणठें पदेसअप्पाबहुगमागदं
___ भाषाद्रव्यवर्गणाय, मनोद्रव्यवर्गणायें और कार्मणशरीरद्रव्यवर्गणायें प्रदेशार्थताको अपेक्षा अनन्तानन्त प्रदेशवाली होती हैं।। ७७९ ॥
वे पांच वर्णवाली होती हैं ॥ ७८० ।। पांच रसवाली होती हैं ।। ७८१ ॥ दो गन्धवाली होती हैं ।। ७८२ ॥ चार स्पर्शवाली होती हैं ।। ७८३ ।।
तैजसशरीरके पाँच सूत्रोंका अर्थ जिस प्रकार कहा है उस प्रकार इन पाँच सूत्रोंका अर्थ कहना चाहिये।
___ इस प्रकार प्रदेशार्थता समाप्त हुई। अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-प्रदेशअल्पबहुत्व और अवगाहना अल्पबहुत्व ।७८४।
पहले बाह्य वर्गणा अनुयोगद्वारमें पाँच शरीररूपसे परिणत हुए पुद्गलोंका अल्पबहुत्व कहा है। अब पाँच शरीरोंकी वर्गणाओंके प्रदेशोंके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए
* ता० प्रती ' सरीराणं च वग्गणाणं' इति पाठः ।
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५६० )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, ७८५
पंचसरीरपाओग्गवग्गणाणं पि थोवबहत्तमभंतरवग्गणाए परविदं ति एत्थ पदेसअप्पाबहुए ण कज्जमिदि वोत्तुं ण जुत्तं, ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरोरपाओग्गवग्गणाणं थोवबहुत्तस्स तत्थ परूवणाभावादो। पंचण्णं सरीराणमोगाहणप्पाबहुअं वेयणखेत्तविहाणे परूविदं ति एत्थ ण परूविज्जदे । किंतु पंचणं सरीराणं पाओग्गवग्गणाणमोगाहणाणं थोवबहुत्त परूवणटमोगाहणअप्पाबहुअमागयं ।
पदेसअप्पाबहए त्ति सव्वत्थोवाओ ओरालियसरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्ठदाए ॥ ७८५॥
एवमप्पाबहुअंजोगेणागच्छमाणएगसमयपबद्ध वग्गणाणं परविदं ण सव्ववग्गणाणं । कुदो एवं णव्वदे? आहारसरीरवग्गणाए वग्गणग्गेण पदेसग्गेण च तेजासरीरवग्गणादो अणंतगुणाए तत्तो अणंतगणहीणत्तविरोहादो। तेण एगेण जोगेण आगच्छमाणओरालियसरीरदब्यवग्गणाओ पदेसग्गेण वग्गणग्गेण च* थोवाओ त्ति भणिदं । आहारसरीरवग्गणाए वग्गणग्गे असंखेज्जे खंड कदे तत्थ बहुमागा आहारवग्गणाए वग्गणगं होदि, सेसे असंखेज्जे खंड कदे बहुमागा वेउब्वियसरीरपाओग्गवग्गणग्गं होवि । सेसेगभागो ओरालियपाओग्गवग्गणग्गं होदि । तेण थोववग्गणाहितो थोवाओ प्रदेश अल्पबहुत्व आया है । पाँच शरीरोंके योग्य वर्गणाओंका भो अल्पबहुत्व आभ्यन्त र वर्गणा अनुयोगद्वारमें कहा है, इसलिए यहाँ पर प्रदेश अल्पबहुत्वसे कोई प्रयोजन नहीं है ऐसा कहना योग्य नहीं है, क्योंकि, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके योग्य वर्गणाओंके अल्पबहुत्वका वहां पर कथन नहीं किया है। पाँच शरीरों की अवगाहनाका अल्पबहुत्व वेदनाक्षेत्रविधान अनुयोगद्वारमें कहा है, इसलिए उसका यहाँ पर कथन नहीं करते हैं किन्तु पाँच शरीरोंके योग्य वर्गणाओंकी अवगाहनाओंके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए अवगाहना अल्पबहुत्व यहाँपर आया है ।
प्रदेशअल्पबहुत्व-औदारिकशरीर द्रव्यवर्गणायें प्रवेशार्थताको अपेक्षा सबसे स्तोक हैं। ७८५ ।
यह अल्पबहुत्व योगसे आनेवाले एक समय प्रबद्धकी वर्गणाओंका कहा है सब वर्गणाओंका नहीं।
शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-- वर्गणाग्र और प्रदेशाग्रकी अपेक्षा तेजसशरीरवर्गणासे आहारवर्गणा अनन्तगुणी होती है । उससे अनन्तगुणी हीन होने में विरोध आता है। इसलिए एक योग से आनेवाली औदारिकशरीर द्रव्यवर्गणायें प्रदेशाग्न और वर्गणानकी अपेक्षा स्तोक हैं यह कहा है ।
आहारवर्गणाके वर्गणाग्र के असंख्यात खण्ड करने पर वहाँ बहुभाग प्रमाण आहारक शरीर प्रायोग्य वर्गणाग्र होता है। शेष के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभागप्रमाण वैक्रियिकशरीरप्रायोग्य वर्गणाग्र होता है । तथा शेष एक भागप्रमाण औदारिकशरीरप्रायोग्य वर्गणाग्र
* ता० प्रती ' वग्गणेण च इति पाठः ।
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५, ६.७८८
योगद्दारे चूलिया
( ५६१
चेव आगच्छति त्ति ओरालिय सरीरवग्गणाणं थोवत्तं मणिदं त्ति के वि भणति । एसो अत्थो ण भल्लयो, तेजामरीरवग्गणादिसु एदस्स अत्यस्स पवृत्तीए अदंसणादो । ते पुठिवल्लत्थो चेव धेत्तव्वो ।
वे उव्वियसरी रदव्वग्गणाओ पदेसटुबाए असंखेज्जगुणाओ ||७८६ ॥
जेण जोगेण ओरालियसरीरट्ठमाहारवग्गणादो ओरालिय० वग्गणाओ एगसम - एणागमणपाओग्गाओ ताहितो तत्तो तम्हि चेव समए अण्णस्स जीवस्स तेणेव जोगेण वेव्वियसरी रट्ठमागममपाओग्गाओ असंखेज्जगुणाओ । कुदो ? सभावियादो । को गुणगारो ? सेढी असंखेज्जदिभागो ।
आहारसरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्ठदाए असंखेज्जगुणाओ | ७८७ |
तम्हि चेव समए तेणेव जोगेण आहारवग्गणादो आहारसरीरदव्ववग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ । कुदो ? साभावियादो को गुणगारो ? सेढीए असंखेज्जदिभागो । तेजासरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्ठदाए अनंतगुणाओ || ७८८ ॥
होता है, इसलिए स्तोक वर्गणाओं में से स्तोक ही आते हैं, इसलिए औदारिकशरीरवर्गणायें स्तोक कही हैं ऐसा कितने ही आचार्य कथन करते हैं किन्तु यह अर्थ भला नहीं है, क्योंकि, तैजसशरीर वर्गणा आदिमें इस अर्थकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती, इसलिए पहलेका अर्थ ही ग्रहण करना चाहिए ।
वैक्रियिकशरीरद्रव्यवर्गणायें प्रदेशार्थताको अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ॥ ७८६ ॥
जिस योगसे औदारिकशरीरके लिए आहारवर्गणाओं में से औदारिकशरीरवर्गणायें एक समय में आगमनप्रायोग्य होती हैं उन्हीं वर्गणाओंमेंसे उसी समय में अन्य जीवके उसी योग से वैक्रियिकशरीर के लिए आगमनयोग्य वर्गणायें असंख्यातगुणी होती हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव हैं । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है ।
आहारकशरीरद्रव्यवर्गणायें प्रदेशार्थताकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ।। ७८७ ॥
उसी समय में उसी योगसे आहारवर्गणा में से आनेवाली आहारकशरी द्रव्यवर्गणाय असंख्यातगुणी होती हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है ।
तैजसशरीरद्रव्यवर्गणायें प्रदेशार्थताको अपेक्षा अनन्तगुणी हैं ॥७८८
* ता० प्रतो' असखे० गुणाओ ? ( मणदव्ववग्गणाओअसंखेज्नगुणाओ ) 1 कुदो इति पाठ: ] तथा का० प्रती कृतसंशोधनमवलोक्य म० प्रतावपि असंज्जगुणाओ मणदव्ववग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ | कुदो इति पाठ: प्रतिभाति ।
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५६२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ७८९ तम्हि चेव समए तेणेव जोगेण तेजासरीरदब्ववग्गणादो तेजासरीरटुमागच्छ - माणवग्गणाओ पदेसग्गेण अणंतगणाओ। कुदो ? साभावियादो । को गणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो ।
भासा-मण-कम्मइयसरीरदव्ववग्गणाओ पदेसठ्ठदाए अणंतगुणाओ ।। ७८९ ॥
तम्हि चेव समए तेणेव जोगेण भासावरगणादो भासापज्जाएण परिणममाणवग्गणाओ पदेसग्गेण अणंतगणाओ। तम्हि चेव समए तेणेव जोगेण मणदव्ववागणादो दव्वमणटुमागच्छमाणवग्गणाओ पदेसग्गेण अणंतगणाओ । तम्हि चेव समए तेणेव जोगेण कम्मइयदव्यवग्गणादो अढण्णं कम्माणमागच्छमाणवग्गणाओ पदेसग्गेण अणंतगुणाओ। सव्वत्थ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंतगणो सिद्धागमणंतभागो।
एवं पदेसअप्पाबहुअं समत्तं । ओग्गाहणअप्पाबहुए ति सम्वत्थोवाओ कम्मइयसरीरदव्ववग्गणाओ ओगाहणाए॥ ७९० ॥
कुदो ? एगम्हि घणंगुले अंगुलस्स असंखेज्जदिमागेण खंडिदे एगकम्मइय -
उसी समयमें उसी योगके द्वारा तैजसशरीरद्रव्यवर्गणाओंमेंसे तैजसशरीरके लिए आनेवालो वर्गणायें प्रदेशाग्रकी अपेक्षा अनन्तगुणी होती हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है ।
भाषाद्रव्यवर्गणायें मनोद्रव्यवर्गणायें और कार्मणशरीरद्रव्यवर्गणायें प्रवेशार्थता की अपेक्षा अनन्तगुणी हैं । ७८९।।।
____ उसी समयमें उसी योगसे भाषावर्गणाओं में से भाषारूप पर्यायसे परिणमन करनेवाली वर्गणायें प्रदेशाग्रकी अपेक्षा अनन्तगणी होती हैं। उसी समय में उसी योगसे मनोद्रव्यवर्गणाओंमेंसे द्रव्यमनके लिए आनेवाली वर्गणायें प्रदेशाग्रकी अपेक्षा अनन्तगणी होती है । उसी समय में उसी योगसे कार्मणद्रव्यवर्गणाओंमेंसे आठों कर्मों के लिए आनेवाली वर्गणायें प्रदेशाग्रकी अपेक्षा अनन्तगुणी होती हैं । सर्वत्र गुणकार अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण होता है।
इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। अवगाहनाअल्पबहुत्व- कार्मणशरीरद्रव्यवर्गणायें अवगाहनाको अपेक्षा सबसे स्तोक हैं ॥७९०॥
क्योंकि, एक घनांगुल में अंगुलके असंख्यातवें भागका भाग देने पर एक कार्मणवर्गणाकी
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( ५६३
बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया वग्गणाए ओगाहणप्पत्तीदो।
मणदव्ववग्गणाओ ओगाहणाए* असंखेज्जगुणाओ ॥ ७९१ ॥
को गणगारो ? अंगुलस्स असंखेज्जविभागो। घणंगुलभागहारादो असंखेज्जगुणहीणा कथमतगणहीणवग्गणाणमोगाहणा असंखेज्जगुणा होज्ज ? ण एस दोसो, घणागारेण द्विवलोहगोलियाए ओगाहणादो थोवपदेसस्स फेणपुंजस्स ओगाहणाए बहुत्तुवलंभादो । एवमत्थपदमुरि सव्वत्थ वत्तत्वं ।
भासादविवग्गणाओ ओगाहणाए असंखेज्ज*गुणाओ ॥७९२॥ को गुणगारो ? अंगुलस्स असंखेजदिमागो। .. तेजासरीरदव्ववग्गणाओ ओगाहणाए असंखेज्जगुणाओ। ७९३ ।
को गणगारो ? अंगुलस्स असंखेज्जविभागो । कुदो एसो णव्वदे । अविरुद्धाइरियवयणादो।
आहारसरीरदव्ववग्गणाओ ओगाहणाए असंखेज्जगुणाओ७९४।
अवगाहना उत्पन्न होती है।
मनोद्रव्यवर्गणायें अवगाहनाको अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ॥७९१॥ गुणकार क्या है ? अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है।
शंका- अनन्तगुणी हीन वर्गणाओंकी घनांगुलके भागहारसे असंख्यातगुणी हीन अवगाहना असंख्यातगुणी कैसे हो सकती है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, घनाकाररूपसे स्थित लोहकी गोलाकी अवगाहनासे स्तोक प्रदेशवाले फेनपुंजकी अवगाहना बहुत उपलब्ध होती है ।
यह अर्थपद ऊपर सर्वत्र कहना चाहिए। भाषाद्रव्यवणायें अवगाहनाकी अपेक्षा असंख्यातगणी हैं ।।७९२।।
गुणकार क्या है ? अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । तेजसशरीरद्रव्यवर्गणायें अवगाहनाको अपेक्षा असंख्यातगणी हैं ॥७९३।। गुणकार क्या है ? अगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- अविरुद्ध आचार्य वचनसे जाना जाता है । आहारकशरीरद्रव्यवर्गणायें अवगाहनाको अपेक्षा असंख्यातगणी हैं ॥७९४॥
* ता० प्रती'-वग्गणाए (ओ) ओगाहणाएकाप्रती -वग्गणाए ओगाहणाए 'इति पाठ । *ता०प्रतो'-धग्गणाए (ओ) ओगाहणाओ (ए) असंखेज्ज-' इति पाठ।1 ४ का०प्रती '-वग्गणाए ओगाहणाए' इति पाठः। ता० प्रती' ओगाहणाओ (ए) असंखेज्जगणाओ ' इति पाठः।
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५६४)
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, ७९५
को गणगारो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो।
वेउव्वियसरीरदव्ववग्गणाओ ओगाहणाए असंखेज्जगुणाओ ।। ७९५ ॥
को गुणगारो ? अंगुलस्स असंखेज्जविभागो।
__ओरालियसरीरदव्ववग्गणाओ ओगाहणाए असंखेज्जगुणाओ ॥ ७९६ ॥
को गुणगारो? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। __एवमोगाहणप्पाबहुए समत्ते बंधणिज्ज* समत्तं होदि ।
जं तं बंधविहाणं तं चउन्विहं-पयडिबंधो ट्ठिदिबंधो अणुभागबंधो पदेसबंधो चेदि ॥ ७९७ ॥
एदेसि चदुषणं बंधाणं विहाणं भूदबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिदं ति अम्मेहि एत्थ ण लिहिवं । तदो सयले महाबंधे एत्थ परूविदे बंधविहाणं समप्पदि।
एवं बंधणअणुयोगद्दारं समत्तं ।
गुणकार क्या है ? अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । वैक्रियिकशरीरद्रव्यवर्गणायें अवगाहनाको अपेक्षा असंख्यातगणी हैं ॥७९५॥ गुणकार क्या है ? अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । औदारिकशरीरद्रव्यवर्गणायें अवगाहनाकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हैं ॥७९६।। गुणकार क्या है ? अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है ।
इसप्रकार अवगाहना अल्पबहुत्वके समाप्त होने पर
बन्धनोय अनुयोगद्वार समाप्त होता है। जो बन्धविधान है वह चार प्रकारका है- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ।। ७९७ ॥
इन चारों बन्धोंका विधान भूतबलि भट्टारकने महाबन्ध में विस्तारके साथ लिखा है, इसलिए हमने यहाँ पर नहीं लिखा है । इसलिए सकल महाबन्धके यहाँ पर कथन करने पर बन्धविधान समाप्त होता है।
इसप्रकार बन्धन अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
* का०प्रती ' -णप्पाबहुए सु वुत्ते बंधणिज्जं ' इति पाठः ।
'
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१ बंधणअणुयोगद्दारसुत्ताणि मूत्राणि
पृ० सं० | सू० सं० सूत्राणि
सू० सं०
पृ० सं०
१ बंधणे त्ति चउविवहा कमविभासा- १० जो सो दव्वबंधो णाम सो थप्पो । ७
बंधो बंधगा बंधणिज्जं बंधविहाणे त्ति । १११ जो सो भावबंधो णाम सो दुविहो२ जो सो बधो णाम सो चउविहो
आगमदो भावबंधो चेव णोआगमदो णामबंधो टुवणबंधो दव्वबंधो
भावबंधो चेव । भावबंधो चेदि।
२|१२ जो सो आगमदो भावबंधो णाम तस्स ३ बंधणयविभासणदाए को णओ के
इमो णिद्देसो- ट्ठिदं जिदं परिजिदं बंधे इच्छदि ।
वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसमं ४ णेगम-ववहार-संगहा सव्वे बंधे ।
गंथसमं णामसमं घोससमं । जा तत्थ
वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा ५ उजुसुदो ट्ठवणबंधं च णेच्छदि ।
वा परियट्टणा वा अणुपेहणा वा ६ सद्दणओ णामबंध भावबंधं च इच्छदि । ३
थय-थुदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे ७ जो सो णामबंधो णाम सो जीवस्स
एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कटु वा अजीवस्स वा जीवाणं वा अजीवाणं
जावदिया उवजुत्ता भावा सो सव्वो वा जीवस्स च अजीवस्स च जीवस्स:
आगमदो भावबंधो णाम।
७ च अजीवाणं च जीवाणं च अजीवस्स |१३ जो सो णोआगमदो भावबंधो णाम च जीवाणं च अजीवाणं च जस्स
सो दुविहो- जीवभावबंधो चेव अजीवणामं कीरदि बंधो त्ति सो सम्वो
भावबंधो चेव । णामबंधो णाम।
४|१४ जो सो जीवभावबंधो णाम सो ८ जो सो टुवणबंधो णाम सो दुविहो- । तिविहो- विवागपच्चइयो जीवभावसब्भावट्ठाणबंधो चेव असब्भाव
बंधो चेव अविवागपच्चइयो जीवभावट्ठवणबंधो चेव ।
बंधो चेव तदुभयपच्चइओ जीवभाव९ जो सो सब्भावासब्भावट्ठवणबंधो णाम बंधो चेव ।
तस्स इमो णिद्देसो- कट्टकम्मेसु वा १५ जो सो विवागपच्चइओ जीवभावबंधो चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्प
णाम तत्थ इमो णिद्देसो- देवे त्ति वा कम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु
मणुस्से त्ति वा तिरिक्खे ति वा रइए वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा
त्ति वा इत्थि वेदे त्ति वा पुरिसवेदे त्ति दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मे वा अक्खो
वा णवंसयवेदे त्ति वा कोहवेदे त्ति वा वा वराडओ वा जे चामण्णे एव
माणवेदे त्ति वा मायवेदे त्ति वा मादिया सब्भाव-असब्भावट्ठवणाए
लोहवेदे त्ति वा रागवेदे त्ति वा दोसवेदे ठविज्जदि बंधो त्ति सो सम्वो सब्भाव
त्ति वा मोहवेदे त्ति वा किण्हलेस्से त्ति असब्भावट्रवणबंधो णाम ।
वाणीललेस्से त्ति वा काउलेस्से त्ति वा
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२ ) सू० सं०
सट्टा
पृ० सं०
सूत्राणि तेउलेस्से त्ति वा पम्मले से त्ति वा सुक्कलेस्से त्ति वा असंजदेत्ति वा अविरदेत्ति वा अण्णाणे त्ति वा मिच्छादिट्ठित्ति वा जे चामण्णे एवमादिया कम्मोदयपच्चइया उदयविवागपिण्णा भावा सो सव्वो विवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम 1 १६ जो सो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम सो दुविहो- उवसमिओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव । १२ १७ जो सो ओवसमियो अविवागपच्चइयो
११
जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो- से उवसंत कोहे उवसंतमाणे उवसंतमाए उवसंतलोहे उवसंतरा उवसंतदोसे उवसंत मोहे उवसंतकसायवीय रागदुत्थे उवसमियं सम्मत्तं उवसमियं चारितं जं चामण्णे एवमादिया उवसमिया भावा सो सव्व उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम । १८ जो सो खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंध णाम तस्स इमो णिद्देसोसेखीणको खीणमाणे खीणमाये खीणलोहे खीणरागे खीणदोसे खीणमोहे खीणकसायवीयरायछदुमत्थे खइयसम्मत्तं खइयचारितं खइंया दाणलद्धी खइया लाहलद्धी खइया भोगलद्धी खइया परिभोगलद्धो खइया वीरियलद्धी केवलणाणं केवलदंसणं सिद्धे बुद्धे परिणिव्वुदे सव्वदुक्खाणमंतयडे त्ति जे चामण्णे एवमादिया खइया भावा सो सव्वो खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम । १९ जो सो तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो नाम तम्स इमो णिद्देसो- खओवसमय एइंदियलद्धित्ति वा खओव
१५
१४
सूत्राणि
सू० सं० समियं वीइंदियलद्धित्ति वा खओवसमियं तीइंदियलद्धित्ति वा खओवसमियं चउरिदियलद्धि त्ति वा खओवसमियं पंचिदियलद्धित्ति वा खओवसमियं मदिअण्णाणि त्ति वा खओवसमियं सुदअण्णाणि त्ति वा खओवसमियं विहंगणाणि त्ति वा खओवसमियं आभिणिबोहियणाणि त्ति वा खओवसमियं सुदणाणित्ति वा खओवसमियं ओहिणाणि त्ति वा खओवसमियं मणपज्जवणाणि त्ति वा खओवसमियं चवखुदसणित्ति वा खओवसमियं अचक्खुदंसणित्ति वा खओवसमियं ओहिदंसणि त्ति वा खओवसमियं सम्मामिच्छत्तलद्धि ति वा खओवसमियं सम्मत्तलद्धित्ति वा खओवसमियं संजमासंजमलद्धित्ति वा खओवस मियं संजमलद्धि त्ति वा खओवसमियं दाणलद्धि त्ति वा खओवसमियं लाहलद्धित्ति वा खओवसमिय भोगलद्धि त्ति वा खओवसमियं परिभोगलद्धित्ति वा खओवसमियं वीरियलद्धित्ति वा खओवसमियं से आयारघरे त्ति वा खओवसमियं सूदयडघरे त्ति वा खओवसमियं ठाणधरे त्ति वा खओवसमियं समवायधरेत्ति वा खओवसमियं वियाहपण्णत्तधरे त्ति वा खओवसमियं नाहधम्मधरे त्ति वा खओवसमियं उवासयज्झेणधरे त्ति वा खओवसमियं अंतयडधरे त्ति वा खओवसमियं अणुत्तरोववादियदतधरे त्ति वा खओवसमियं पण्णवागरणधरे त्ति वा खओवसमियं विवागसुत्तधरे त्ति वा खओवसमियं दिट्टिवादधरे त्ति वा खओवसमियं गणित्ति वा खओवसमियं वाचगे त्ति बा खओवसमियं
पृ० स०
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परिसिट्ठाणि सू० सं० सूत्राणि पृ. सं० | सू० सं० सूत्राणि
१० सं० दसपुत्वहरे त्ति वा खओवसमियं
पओअपरिणदा वण्णा वण्णा विस्ससाचोद्दसपुव्वहरे त्ति वा जे चामण्णे
परिणदा पओअपरिणदा सहा सद्दा एवमादिया खओवसमियभावा सो
विस्ससापरिणदा पओअपरिणदा गंधा सव्वो तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो
गंधा विस्ससापरिणदा पओअपरिणदा णाम ।
रसा रसा विस्ससापरिणदा पओअ२० जो सो अजीवभावबंधो णाम सो
परिणदा फासा फासा विस्ससातिविहो- विवागपच्चइयो अजीव
परिणदा पओअपरिणदा गदी गदी भावबंधो चेव अविवागपच्चइयो
विस्ससापरिणदा । पओअपरिणदा अजीवभावबंधो चेव तदुभयपच्चइयो
ओगाहणा ओगाहणा विस्ससाअजीवभावबंधो चेव ।
२२ परिणदा ) पओअपरिणदा संठाणा २१ जो सो विवागपच्चइयो अजीव
संठाणा विस्ससापरिणदा पओअभावबंधो णाम तम्स इमो णिद्देसो
परिणदा खंधा खंधा विस्ससापरिणदा पओगपरिणदा वण्णा पओगपरिणदा
पओअपरिणदा खंधदेसा खंधदेसा सद्दा पओगपरिणदा गंवा पओग
विस्ससापरिणदा पओअपरिणदा परिणदा रसा पओगपरिणदा फासा
खंधपदेसा खंधपदेसा विस्ससापओगपरिणदा गदी पओगपरिणदा
परिणदा जे चामण्णे एवमादिया ओगाहणा पओगपरिणदा संठाणा
पओअ-विस्ससापरिणदा संजुत्ता पओगपरिणदा खंधा पओगपरिणदा
भावा सो सम्वो तदुभयपच्चइओ खंधदेसा पओगपरिणदा खंधपदेसा
अजीवभावबंधो णाम । जे चामण्णे एवमादिया पओग
२४ जो सो थप्पो दव्वबंधो णाम सो परिणदसंजुत्ता भावा सो सवो
दुविहो- आगमदो दव्वबंधो चेव विवागपच्चइयो अजीवभावबंधो णाम । २३ | णोआगमदो दव्वबंधो चेव । २२ जो सो अविवागपच्चइयो अजीव- |२५ जो सो आगमदो दव्वबंधो णाम भावबंधोणाम तत्स इमो णिदेसो
तस्स इमो णिद्देसो- ट्ठिदं जिद परिविस्ससापरिणदा वण्णा विस्ससा
जिदं वायणोवगद सुत्तसमं अत्थसमं परिणदा सद्दा विस्ससापरिणदा गंधा गंथसमं णामसमं घोससमं । जा तत्थ विस्ससापरिणदा रसा विस्ससा
वायणा वा पूच्छणा वा पडिच्छणा । परिणदा फासा विस्ससापरिणदा गदी वा परियट्टणा वा अणुपेहणा वा थयविस्ससापरिणदा ओगाहणा विस्ससा
थदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे एकपरिणदा सठाणा विस्ससापरिणदा
मादिया अणुवजोगा दवे त्ति कटु खंधा विस्ससापरिणदा खंधदेसा
जावदिया अणवत्ता भावा सो विस्ससापरिणदा खंधपदेसा जे
सम्वो आगमदो दवबंधो णाम । २८ चामण्ण एवमादिया विस्ससापरिणदा २६ जो सो णोआगमदो दवबंधो सो संजुत्ता भावा सो सम्बो अविवाग- | दविहो- पओअबंधो चेव विस्ससापच्चइयो अजीवभावबंधो णाम । २५ | बंधो चेव ।
२८ २३ जो सो तदुभयपच्चइयो अजीव- २७ जो सो पओअबंधो णाम सो थप्पो। २८ भावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो- २८ जो सो विस्ससाबंधो णाम सो
२७
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३०
परिसिट्टाणि सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० | सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० दुविहो- सादियविस्ससाबंधो चेव ३९ जो सो कम्मबंधो णाम सो थप्पो। ३७
अणादियविस्ससाबंधो चेव । २८ | ४० जो सो णोकम्मबंधो णाम सो २९ जो सो सादियविस्ससाबंधो णाम
पंचविहो- आलावगबंधो अल्लीवणसो थप्पो।
२८ बंधो संसिलेसबंधो सरीरबंधो ३० जो सो अणादियविस्ससाबंधो णाम
सरीरिबंधो चेदि ।
३७ सो तिविहो- घम्मत्थिया अधम्म- |४१ जो सो आलावणबंधो णाम तस्स त्थिया आगासत्थिया चेदि । २९ | इमो णिद्देसो- से सगडाणं वा ३१ धम्मत्थिया धम्मत्थियदेसा धम्मत्थिय- । जाणाणं वा जगाणं वा गड्डीणं वा
पदेसा अधम्मत्थिया अधम्मत्थियपदेसा गिल्लीणं वा रहाणं वा सदणाण अधम्मत्थियपदेसा आगासत्थिया
वा सिवियाण वा गिहाणं वा पासादाणं आगासत्थियदेसा आगातत्थियपदेसा
वा गोवुराणं वा तोरणाणं वा से एदासिं तिण्णं 14 अस्थि आणमण्णोण्ण- कट्ठण वा लोहेण वा रज्जुणा वा पदेसबंधो होदि।
वब्भेण वा दब्भेण वा जे चामण्णे ३२ जो सो थप्पो सादियविस्ससाबंधो
एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदव्वेहि
आलावियाणं बंधो होदि सो सम्बो णाम तस्स इमो णिद्देसो- वेमादा णिद्वदा वेमादा ल्हुक्खदा बंधो। ३०
आलावणबंधो णाम ।
३८ ३३ समणिद्वदा समल्हुक्खदा भेदो।
४२ जो सो अल्लीवणबंधो णाम तस्स ३४ णिद्धणिद्धा ण बज्झंति ल्हुक्खल्हुक्खा
इमो णिद्देसो- से कडयाणं वा य पोग्गला । णिद्धल्हुक्खा य बझंति
कुडाणं वा गोवरपीडाणं वा पागाराण रूवारूवी य पोग्गला ।।
वा साडियाणं वा जे चामण्णे एवमा३५ वेमादा णिद्धदा वेमादा ल्हुक्खदा बंधो। ३२
दिया अण्णदव्वाणमण्णदब्वेहि अल्ली
विदाणं बंधो होदि सो सव्वो अल्ली३६ णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण ल्हुक्खप्स
वणबंधो णाम। ल्हुक्खेण दुराहिएण । णिद्धस्स
४३ जो सो संसिले सबंधो णाम तस्स इमो ल्हुक्खेण हवेदि बंधो जहण्णवज्जे
णि द्देसो- जहाकट्ठ-जदूणं अण्णोण्णविसमे समे वा ॥
संसिलेसिदाणं बंधो संभवदि सो सव्वो ३७ से तं बंधणपरिणामं पप्प से अब्भाणं
संसिलेसबंधो णाम। वा मेहाणं वा संज्झाणं वा विज्जूण
४१ ४४ जो सो सरीरबंधो णाम सो पचविहोवा उक्काणं वा कणयाणं वा दिसादाहाणं वा धूमके दूणं वा इंदाउहाणं वा
ओरालियसरीरबंधो वे उव्वियसरीरसे खेत्तं पप्प कालं पप्प उडु पप्प अयणं
बधो आहारसरीरबधो तेयासरीरबधो पप्प पोग्गलं पप्प जे चामण्णे एव
कम्मइयसरीरबंधो चेदि । ४१ मादिया अंगमलप्पहुडीणि बंधण- ४५ ओरालिय-ओरालियसरीरबंधो। ४२ परिणामेण परिणमंति सो सम्वो
४६ ओरालिय-तेयासरीरबधो। सादियविस्ससाबंधो णाम ।
३४ | ४७ ओरालिय-कम्मइयसरीरबंधो। ३८ जो सो थप्पो पओअबंधो णाम सो | ४८ ओरालिय-तेया-कम्मइयसरीरबंधो। ४३
दुविहो- कम्मबंधो चेव णोकम्म- | ४९ वे उव्विय-वे उब्वियसरीरबंधो। बंधो चेव।
३६ ५० वे उविव्य-तेयासरीरबंधो।
:
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________________
اس
ال
४३
الله
४४
परिसिट्टाणि सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० । सू• सं० सूत्राणि
पृ० सं० ५१ वे उब्विय-कम्मइयसरीरबंधो। ४३ भवंति-वग्गणा वग्गणदव्वसमुदा५२ वे उब्विय-तेया-कम्मइयसरीरबंधो। ४३ हारो अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा ५३ आहार-आहारसरीरबंधो ।
अवहारो जवमज्झं पदमीमांसा अप्पा५४ आहार-तेयासरीरबंधो।
बहुए त्ति। ५५ आहार-कम्मइयसरीरबंधो।
७० वग्गणा त्ति तत्थ इमाणि वग्गणाए ५६ आहार-तेया-कम्मइयसरीरबंधो ।
सोलस अणुयोगद्दाराणि- वग्गण५७ तेया-तेयासरीरबंधो।
णिक्खेवे वग्गणाणयविभासणदाए ५८ तेया-कम्म इयसरीरबंधो।
वग्गणपरूवणा वग्गणणिरूवणा, वग्ग५९ कम्मइय-कम्मइयसरीरबंधो। ४४
णधुवाधुवाणुगमो वग्गणसांतरणिरं६० सो सव्वो सरीरबंधो णाम । ४४
तराणुगमो वग्गणओजजुम्माणुगमो ६१ जो सो सरीरिबंधो णाम सो दुविहो
वग्गणखेत्ताणुगमो वग्गणफोसणाणुगमो सादियसरीरिबंधो चेव अणादिय
वग्गणकालाणुगमो वग्गणअंतराणुगमो सरीरिबंधो चेव ।
४४
वग्गणभावाणुगमो वग्गणउवणयणाणु६२ जो सो सादियसरीरिबंधो णाम सो
गमो वग्गणपरिमाणाणुगमो वग्गणभागाजहा सरीरबधो तहा णेदवो। ४५/
भागाणुगमो वग्गणअप्पाबहुए त्ति। ५० ६३ जो अणादियसरीरिबंधो णाम यथा
अटण्णं जीवमज्झपदेसाणं अण्णोण्ण- ७१ वग्गणणिक्खेवे त्ति छबिहे वग्गणपदेसबंधो भवदि सो सव्वो अणादिय
णिवखेवे- णामवग्गणा ढवणवग्गणा सरीरिबंधो णाम।
दव्ववग्गणा खेत्तवग्गणा कालवग्गणा ६४ जो सो थप्पो कम्मबंधो णाम यथा
भाववग्गणा चेदि ।। कम्मे त्ति तहा णेदव्वं ।
| ७२ वग्गणणयविभासणदाए को णओ ६५ जे ते बंधगा णाम तेसिमिमो णिद्देसो- | काओ वग्ग गाओ इच्छदि । णेगम
गदि इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे | ववहार-संगहा सव्वाओ। ५२ संजमे दसणे लेस्सा भविय सम्मत्त
७३ उजुसुदो वणवग्गणं णेच्छदि । ५३ सणि आहारे चेदि ।
४७ ६६ गदियाणवादेण णिरयगदीए णेरइया
|७४ सद्दणओ णामवग्गणं भाववग्गणं च बंधा तिरिक्खा बंधा देवा बंधा मणुसा
इच्छदि ।
५३ बधा वि अस्थि अबंधा वि अत्थि सिद्धा ७५ वग्गणदव्वसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि अबंधा । एवं खद्दाबंधएक्कारसअणु
चोद्दस अणुयोगद्दाराणि -वग्गणपरूवणा योगद्दारं णेयव्वं ।
वग्गणणिरूवणा वग्गणधुवाधुवाणुगमो ६७ एवं महादंडया यव्वा ।
वग्गणसांतरणिरंतराणुगमो वग्गण६८ जं तं बर्धाणज्ज णाम तस्स इममणु
ओजजुम्माणुगमो वग्गणखेत्ताणुगमो गमणं कस्सामो-वेदणअप्पा पोग्गला, वग्गणफोसणाणुगमो वग्गणकालाणुगमो पोग्गला खंधसमुद्दिट्ठा खंधा वग्गण
वग्गणअंतराणुगमो वग्गणभावाणुगमो समुद्दिट्ठा।
४८
वग्गण उवणयणाणुगमो वग्गणपरिमा६९ वग्गणाणमणुगमणट्ठदाए तत्थ इमाणि णाणुगमो वग्गणभागाभागाणुगमो अट्ठ अणुओगद्दाराणि णादव्वाणि
वग्गणअप्पाबहुए त्ति ।
४६
४७
४१
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परिसिट्टाणि सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० । सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० ७६ वग्गणपरूवणदाए इमा एयपदेसियपर- । सरीरदव्ववग्गणा णाम ।।
माणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम। ५४ / ९२ पत्तेयसरीरदव्ववग्गणाणमुवरि धुव७७ इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्य-
सुण्णदव्ववग्गणा णाम । वग्गणा णाम ।
५५ ९३ धुवसुण्णदव्ववग्गणाणमुवरि बादर७८ एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय- णिगोददव्ववग्गणा णाम । ८४
छप्पदेसिय-सत्तपदेसिय-अट्टपदेसिय- | ९४ बादरणिगोददव्ववग्गणाणमुवरि धुवणवपदेसिय-दसपदेसिय-संखेज्जपदेसिय- सुण्णदव्ववग्गणा णाम । ११२ असंखेज्जपदेसिय-परित्तपदेसिय
९५ धुवसुण्णदव्ववग्गणाणमुवरि सुहुमअणंतपदेसिय-अणंताणतपदेसियपर
णिगोदवग्गणा णाम । माणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम ।
९६ सुहमणिगोददव्ववग्गणाणमुवरि धुव७९ अणंताणंतपदेसियपरमाणपोग्गल
सुण्णदव्ववग्गणा णाम । दव्ववग्गणाणमुवरि आहारदव्व
९७ धुवसुण्णवग्गणाणमुवरि महाक्खंधवग्गणा णाम।
दव्ववग्गणा णाम ।
११७ ८० आहारदव्ववग्गणाणमुवरि अगहण
वग्गणणिरूवणिदाए इमा एयपदेसियदव्ववग्गणा णाम
परमाणपोग्गलदव्ववग्गणा णाम कि ८१ अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि तेयादव्व
भेदेण कि संघादेण कि भेदसंघादेण १२० वग्गणा णाम ।
९९ उवरिल्लीणं दवाणं भेदेण । १२१ ८२ तेयादव्ववग्गणाणमुवरि अगहणदव्व -
१०० इमा दुपदेसियपरमाणपोग्गलदव्ववग्गणा णाम ।
वग्गणा णाम कि भेदेण कि संघादेण
कि भेदसंघादेण। ८३ अगहणदव्ववग्गा । भासादव्व
१२१ वग्गणा णाम ।
| १०१ उवरिल्लीणं दव्वाणं भेदेण हेटिल्लीणं । ८४ भासादव्ववग्गणाणमुवरि अगहण
दव्वाणं संघादेण सत्थाणेण भेददव्ववग्गणा णाम ।
संघादेण।
६२ ८५ अगहणदव्ववग्गणाए उवरि मणदव्व
| १०२ तिपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववगणा वग्गणा णाम ।
चदु० पंच० छ० सत्त० अट्ठ० णव ८६ मणदव्ववग्गणाणमुवरि अगहणदव्व
दस० संखेज्ज० असंखेज्ज० परित्त० वग्गणा णाम ।
अपरित्त० अणंत० अणंताणतपदे८७ अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि कम्मइय
सियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम दव्ववग्गणा णाम ।
कि भेदेण किं संघादेण किं भेद८८ कम्मइयदव्ववग्गणाणमुवरि धवक्खंध
संघादेण ।
१२३ दव्ववग्गणा णाम ।
६३ | १०३ उवरिल्लीणं दव्वाणं भेदेण हेट्ठिल्लीणं ८९ धुवक्खंधदव्ववग्गणाणमुवरि सांतर
दवाणं संघादेण सत्थाणेण भेदणिरंतरदव्ववग्गणा णाम । ६४ । संघादेण ।
१२४ ९० सांतरणिरंतरदव्ववग्गणाणमुवरि धुव- १०४ आहार० अगहण० तेया अगहण० सुण्णवग्गणा णाम ।
मण० अगहण० कम्म इय० ध्रुव९१ वसुण्णदव्ववग्गणाणमुवरि पत्तेय- ]
क्खंधदव्ववग्गणा णाम कि भेदेण
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पृ० सं०
परिसिट्टाणि सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० सू• सं० सूत्राणि कि संघादेण किं भेदसंघादेण । १२५ १२० तत्थ जे ते साहारणसरीरा ते णियमा १०५ उवरिल्लीणं दवाणं भेदेण हेट्ठि
वणप्फदिकाइया । अवसेसा पत्तेयल्लीणं दव्वाणं संघादेण सत्थाणेण
सरीरा।
२२५ भेदसंघादेण ।
१२५ | १२१ तत्थ इमं साहारणलक्खणं भणिदं । २२६ १०६ धुवखंधदव्ववग्गणाणमुवरि सांतर- १२२ साहारणमाहारो साहारणमाणपाणणिरंतरदव्ववग्गणा णाम कि भेदेण
गहणं च । साहारणजीवाणं साहारणकि संघादेण कि भेदसंघादेण । १२५
लक्खणं भणिदं ।।
२२६ १०७ सत्थाणेण भेदसंघादेण। १२५ / १२३ एयस्स अणुग्गहणं बहूण साहार१०८ उवरिल्लीणं दव्वाणं भेदेण हेटिल्लीणं । णाणमेयस्स । एयस्स जं बहूणं समा दव्वाणं संघादेण सत्थाणेण भेद
सदो तं पि होदि एयस्स ॥ २२८ संघादेण।
१२७ / १२४ समगं वक्ताणं समग तेसि सरीर१०९ सांतरपिरंतरदव्व वग्गणा णाम कि
णिप्पत्ती । समगं च अणुग्गहणं भेदेण कि संघादेण कि भेद
समगं उस्सासणिस्सासो।। २२९ संघादेण ।
१२७ / १२५ जत्थेउ मरइ जीवो तत्थ दु मरणं ११० सत्थाणेण भेदसंघादेण । १२८ भवे अणंताणं । वक्कमइ जत्थ एक्को १११ पत्तेयसरीरवग्गणाए उवरि बादर
वक्कमणं तत्थणताणं ।। २३० णिगोददव्ववग्गणा णाम किं भेदेण १२६ बादरसहमणिगोदा बद्धा पूदा य
किं संधादेण किं भेदसंघादेण । १३० एयमेएण । ते हु अणंता जीवा ११२ सत्थाणेण भेदसंघादेण। १३० मूलयथूहल्लयादीहि ॥ २३१ ११३ बादरणिगोददव्ववग्गणाणमुवरि | १२७ अत्थि अणंता जीवा जेहि ण पत्तो
सुहमणिगोददव्ववग्गणा णाम कि भेदेण तसाण परिणामो। भावकलंकअ
कि संघादेण कि भेदसंघादेण । १३१ पउरा णिगोदवासं ण मुंचंति ॥ २३३ ११४ सत्थाणेण भेदसंघादेण। १३२ | १२८ एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्प११५ सुहुमणिगोदवग्गणाणमुवरि महाखंध- माणदो दिट्ठा । सिद्धेहि अणंतगुणा दव्ववग्गणा णाम किं भेदेण कि
सव्वेण वि तीदकालेण। २३४ संघादेण किं भेदसंघादेण । १३३ | १२९ एदेण अट्ठपदेण तत्थ इमाणि अणु११६ सत्थाणेण भेदसंघादेण ।
योगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति ११७ तत्थ इमाए बाहिरियाए वग्गणाए
संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो अण्णा परूवणा कायव्वा भवदि । २२३ खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो काला११८ तत्थ इमाणि चत्तारि अणुयोगद्दाराणि णुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो
णादव्वाणि भवंति-सरीरिसरीरपरू- __ अप्पाबहुगाणुगमो चेदि । वणा सरीरपरूवणा सरीरविस्सासुव- | १३० संतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसोचयपरूवणा विस्सासुवचयपरूवणा ___ओघेण आदेसेण। चेदि ।
२२४ | १३१ ओघेण अस्थि जीवा.विसरीरा ११९ सरीरिसरीरपरूवणदाए अत्थि जीवा | तिसरीरा चदुसरीरा असरीरा। २३७ पत्तेय-साधारणसरीरा। २२५ १३२ आदेसेण गदियाणुवादेण पिरय
दि
२३७
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सूत्राणि
सूत्राणि
पृ० सं०
परिसिट्टाणि सू० सं०
पृ० सं० | सू० सं० गईए जेरइएसु अत्थि जीवा विसरीरा पज्जत्ता तसकाइया तसकाइयपतिसरीरा। २३८ ज्जत्ता ओघं ।
२४२ १३३ एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया । २३८ | १४४ जोगाणुवादेण पंचमणजोगी पंच१३४ तिरिक्खगदीए तिरिक्ख-पंचिदिय
वचिजोगी ओरालियकायजोगी तिरिक्ख पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त
अस्थि जीवा तिसरीरा चदुसरीरा।२४२ पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु ओषं ।२३८
१४५ कायजोगी ओघं ।
२४३ १३५ पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्ता अस्थि
१४६ ओरालियमिस्सकायजोगि-वेउविजीवा विसरीरा तिसरीरा। २३९
यकायजोगि-वे उव्वियमिस्सकाय१३६ मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त
जोगीसु अस्थि जीवा तिसरीरा । २४३ मणुसिणीसु ओघं।
१४७ आहारकायजोगी आहारमिस्स१३७ मणुसअपज्जत्ता अत्थि जीवा
कायजोगी अस्थि जीवा चदुसरीरा ।२४४ विसरीरा तिसरीरा।
१४८ कम्मइयकायजोगी णेरइयाणं भंगो।२४४ १३८ देवगदीए देवा अत्थि जीवा १४९ वेदाणुवादेण इत्थिबेदा पुरिसवेदा विसरीरा तिसरीरा।
णवंसयवेदा ओघं ।
२४४ १३९ एवं भवणवासियप्पहडि जाव
१५० कसायाणुवादेण कोधकसाई माण__सव्वट्ठसिद्धियविमाणवासियदेवा । २४० कसाई मायकसाई लोभकसाई १४० इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरे
ओघं ।
___ २४५ इंदिया तेसिं पज्जत्ता पचिदिय
१५१ अवगदवेदा अकसाई अस्थि जीवा
तिसरीरा। पंचिंदियपज्जत्ता ओघं । २४०
१५२ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुद१४१ बादरएइंदियअपज्जत्ता सुहुमे इंदिया
अण्णाणी ओघं।
२४५ तेसिं पज्जत्ता अपज्जत्ता बीइंदिया
१५३ विभंगणाणी मणपज्जवणाणी अस्थि तीइंदिया चउरिदिया तस्सेव
जीवा तिसरीरा चदुसरीरा। २४६ पज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिदियअप
१५४ आभिणि-सुद-ओहिणाणी ओधं । २४६ ज्जत्ता रइयभंगो।
२४१
१५५ केवलणाणी अस्थि जीवा तिसरीरा।२४६ १४२ कायाणुवादेण पुढविकाइया
१५६ संजमाणुवादेण संजदा सामाइय-- आउकाइया वणप्फदिकाइया
छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा संजदाणिगोदजीवा तेसिं बादरा सुहुमा
संजदा अत्थि जीवा तिसरीरा पज्जत्ता अपज्जत्ता बादरवणप्फदि
चदुसरीरा।
२४६ काइयपत्तेयसरीरा तेसिं पज्जता
१५७ परिहारविसुद्धिसंजदा सुहुमसांपअपज्जत्ता बादरतेउक्काइयअपज्जत्ता
राइयसुद्धिसंजदा जहाक्खादविहारबादरवाउक्काइयअपज्जत्ता सुहमतेउ
सुद्धिसजदा अस्थि जीवा तिसरीरा।२४६ काइय-सूहमवाउकाइयपज्जत्ता अप१५८ असंजदा ओघ ।
२४७ ज्जत्ता तसकाइयअपज्जत्ता अस्थि १५९ दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी अचक्खु
जीवा विसरीरा तिसरीरा। २४१ | दसणी ओहिदसणी ओघं । २४७ १४३ तेउक्काइया वाउक्काइया बादर- | १६० केवलदसणी अस्थि जीवा तिसरीरा॥२४७ तेउक्काइया बादरवाउक्काइया तेसि । १६१ लेस्साणुवादेण किण-णोल-काउ
२४५
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परिसिट्राणि सू० सं० सुत्राणि पृ० सं० सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० लेस्सिया तेउ पम्म-सुक्कलेस्सिया १८४ तिसरीरा संखेज्जगुणा । ३०६ ओघं।
२४७ / १८५ मणुसअपज्जत्ता पंचिदियतिरिक्ख१६२ भवियाणुवादेण भवसिद्धिया अभव-
अपज्जत्तभंगो।
३०६ सिद्धिया ओघं। ___ २४७ | १८६ देवगदीए देवा सव्वत्थोवा विसरीरा।३०६ १६३ समत्ताणुवादेण सम्माइट्ठी खइय- १८७ तिसरीरा असंखेज्जगुणा । ३०६
सम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसम- १८८ एवं भवणवासियप्पहुडि जाव अवसम्माइट्ठी सासणसम्माइट्ठी मिच्छा- | राइदविमाणवासियदेबा त्ति यन्त्र।३०६ इट्ठी ओघं।
२४८ | १८९ सव्वसिद्धिविमाणवासियदेवा सव्व१६४ सम्मामिच्छाइट्ठीणं मणजोगिभंगो।२४८ त्थोवा विसरीरा।
३०७ १६५ सण्णियाणुवादेण सण्णी असण्णी | १९० तिसरीरा संखेज्जगुणा । ओघं।
२४८ | १९१ इंदियाणुवादेण एइंदिया बादर१६६ आहाराणुवादेण आहारा मण
एइंदियपज्जत्ता ओघं । ३०७ जोगिभंगो।
२४८ | १९२ बादरेइंदियअपज्जत्ता सुहमे इंदिय१६७ अणाहारा कम्मइयभंगो। २४८ पज्जत्तापज्जत्ता वीइंदिय-तीइंदिय१६८ अप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिद्देसो
चउरिदियपज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिओघेण आदेसेण य ।
३०१ दियअपज्जत्ता सव्वत्थोवा विसरीरा।३०७ १६९ ओघेण सव्वत्थोवा चदुसरीरा। ३०१ | १९३ तिसरीरा असंखेज्जगुणा । ३०८ १७० असरीरा अणंतगुणा ।
३०२ | १९४ पंचिदिय-पंचिदियपज्जत्ता मणुसगदि१७१ विसरीरा अणंतगुणा ।
भंगो।
३०८ १७२ तिसरीरा असंखेज्जगुणा । ३०२ १९५ कायाणुवादेण पुढविकाइया आउ१७३ आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए काइया वणप्फदिकाइया णिगोद__णेरइएसु सव्वत्थोवा विसरीरा। ३०२ जीवा बादरा सुहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता १७४ तिसरीरा असंखेज्जगुणा । ३०२ बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा १७५ एवं जाव सत्तसु पुढवीसु । ३०३ पज्जत्ता अपज्जत्ता बादरतेउक्काइय१७६ तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु ओघं । ३०३ बादरवाउकाइयअपज्जत्ता-सहमतेउ१७७ पंचिदियतिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्ख
काइय-सूहमवाउकाइयपज्जत्ता अपपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्ख जोणिणीसू
ज्जत्ता तसकाइयअपज्जत्ता सव्वसव्वत्थोवा चदुसरीरा। ३०३ स्थोवा विसरीरा। १७८ विसरीरा असंखेज्जगुणा ।।
१९६ तिसरीरा असंखेज्जगुणा । ३०९ १७९ तिसरीरा असंखेज्जगुणा । ३०४
१९७ तेउकाइय-वाउकाइय-बादरतेउकाइय१८० पचिदियतिरिक्खअपज्जत्ता णेरइयाणं । बादरवाउकाइयपज्जत्ता तसकाइया भंगो।
३०४ तसकाइयपज्जत्ता पंचिदियपज्जत्त१८१ मणुसगदीए मणसा पंचिदिय
भंगो।
३०९ तिरिक्खाणं भंगो।
३०५/१९८ जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंच१८२ मणुसपज्जत्त मणुसिणीसु सव्व- __वचिजोगीसु सव्वत्थोवा चदुसरीरा।३०९ त्थोवा चदुसरीरा।
३०५ | १९९ तिसरीरा असंखेज्जगुणा। ३१० _Jain Educati१८३ विसरीरा संखेज्जगुणा । For३०५६ २०० कायजोगी ओघं।
B ainelibrary.org
३०३|
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परिसिट्टाणि सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० | सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० २०१ ओरालियकायजोगीसु सव्वत्थोवा | सिद्धिय-अभवसिद्धिया ओघं। ३१४ चदुसरीरा।
३१० / २२१ दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी ओहि२०२ तिसरीरा अणंतगुणा । ३१० दसणी तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया २०३ ओरालियमिस्सकायजोगि-वेउविय- पंचिंदियपज्जत्ताणं भंगो। ३१४ कायजोगि-वेउध्वियमिस्सकाय
२२२ केवलदसणींणं णत्थि अप्पाबहुगं । ३१५ जोगि-आहारकायजोगि-आहारमिस्स- २२३ सुक्कलेस्सिया सव्वत्थोवा विसरीरा ३१५
कायजोगीसु णत्थि अप्पाबहुअं। ३१० २२४ चदुसरीरा असंखेज्जगुणा। ३१५ २०४ कम्मइयकायजोगीसु सम्वत्थोवा २२५ तिसरीरा असंखेज्जगुणा । ३१६ तिसरीरा।
३११
२२६ सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्ठी वेदग२०५ तिसरीरा अणंतगुणा ।
सम्माइट्ठी सासणसम्माइट्ठी २०६ वेदाणुवादेण इत्थिवेद-पुरिसवेदा
पंचिदिपज्जत्तभंगो। ३१६ पंचिंदियभंगो ।
३११ | २२७ ख इयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी २०७ णqसयवेदा कसायाणुवादेण
सव्वत्थोवा विसरीरा।
३१६ कोधकसाई माणकसाई मायकसाई २२८ चदुसरीरा असंखेज्जगुणा। ३१६ लोभकसाई ओघं।
२२९ तिसरीरा असंखेज्जगुणा। ३१७ २०८ अवगदवेद-अकसाईण णत्थि अप्पा- २३० सम्मामिच्छाइट्ठी संजदासंजदाणं बहुगं ।
भंगो ।
३१७ २०९ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुद २३१ मिच्छाइट्ठी ओघं ।
३१७ अण्णाणि ओघं।
३१२ | २३३ सण्णियाणुवादेण सण्णी पंचिंदिय२१० विहंगणाणी सव्वत्थोवा चदुसरीरा ।३१२ पज्जत्ताणं भंगो।
३१७ २११ तिसरीरा असंखेज्जगुणा। ३१२ २३३ असण्णी ओघं ।
३१८ २१२ आभिणि-सुद ओहिणाणीसु पंचि- २३४ आहाराणुवादेण आहारएसु ओरादियपज्जत्ताणं भंगो।
३१२ लियकायजोगिभंगो।
३१८ २१३ मणपज्जवणाणीसु सम्वत्थोवा
२३५ अणाहारा कम्मइयकायजोगिभंगो ।३१८ चदूसरीरा।
२३६ सरीरपरूवणदाए तत्थ इमाणि छ २१४ तिसरीरा संखेज्जगुणा ।
अणुयोगद्दाराणि-णमणिरुत्ती२१५ केवलणाणीसु णत्थि अप्पाबहुगं । ३१३ पदेसपमाणाणगमो णिसेयपरूवणा २१६ संजमाणुवादेण संजदा सामाइय
गुणगारो पदमीमांसा अप्पाच्छेदोवट्ठावणसूद्धिसंजदा मणपज्ज
बहुए त्ति । वणाणिभंगो।
३१३ | २३७ णामणिरुत्तीए उरालमिदि २१७ परिहारसुद्धिसंजद-सुहुमसांपराइय
ओरालियं ।
३२२ सुद्धिसंजद-जहाक्खादविहारसुद्धि- २३८ विविहइड्डिगुणजुत्तमिदि वे उव्वियं । ३२५
संजदाणं णत्थि अप्पाबहुगं। ३१३ | २३९ णिवुणाणं वा णिण्णाणं वा सुहु२१८ संजदासजदा विभंगणाणिभंगो। ३१४ माणं वा आहारदव्वाणं सुहुमदर२१९ असंजद-अचक्खुदसणी ओघं। ३१४ मिदि आहारयं ।
३२६ २२० लेस्साणुवादेण किण्ण-णील-काउ- २४० तेयप्पगुणजुत्तमिदि तेजइयं । ३२७ लेस्सिया भवियाणुवादेण भव- २४१ सव्वकम्माणं परूहणुप्पाक्य सुह
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परिसिट्टाणि सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० | सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० दुक्खाणं बीजमिदि कम्मइयं । ३२८/ आहारसरीरत्ताए जं पढमसमए पदे२४२ पदेसपमाणाणुगमेण ओरालिय-
सग्गं णिसित्तं तं केवडिया। ३३६ सरीरस्स केवडियं पदेसग्गं । ३३० | २५० अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाण२४३ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाण- मणंतभागो। मणंतभागा।
___३३० | २५१ जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं २४४ एवं चदुण्हं सरीराणं।
३३०
तं केवडिया। २४५ णिसेयपरूवणदाए तत्थ इमाणि छ
| २५२ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो अणुयोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति
सिद्धाणमणंतभागो।
३३७ समुक्कित्तणा पदेसपमाणाणुगमो
२५३ जं तदियसमए पदेसग्गं गिसित्तं तं अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा
केवडिया। पदेसविरओ अप्पाब हुए त्ति ।
३३७ ३३१ २४६ समुक्कित्तणदाए ओरालिय-वेउब्विय
२५४ अभवसिद्धिएहि अणंत गुणो सिद्धाणमणंतभागो।
३३७ आहारसरीरिणा तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण
२५५ एवं जाव उक्कस्सेण तिणिपलिदोओरालिय-वेउब्विय-आहारसरीर
वमाणि तेत्तीससागरोवमाणि ताए जं पढमसमए पदेसग्गं गिसित्तं
अंतोमुहुत्तं । तं जीवे किंचि एगसमयमच्छदि | २५६ तेजा-कम्मइयसरीरिणा तेजा-कम्मकिचि विसमयमच्छदि किंचि तिसम
इयसरीरत्ताए जं पढमसमए यमच्छदि एवं जाव उक्कस्सेण
पदेसग्गं णिसित्तं तं केवडिया । ३३७ तिणिपलिदोवमाणि तेत्तीससागरो- २५७ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो वमाणि अंतोमुत्तं । ३३१ | सिद्धाणमणंतभागो।
३३८ २४७ तेयासरीरिणा तेयासरीरत्ताए जं |२५८ जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं पढमसमए पदेसग्गं णि सित्तं तं
तं केवडिया ।
३३८ जीवे किंचि एगसमयमच्छदि किचि
| २५९ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणविसमयमच्छदि किंचि तिसमय
मणतभागो।
३३८ मच्छदि एवं जाव उक्कस्सेण छावट्रि- २६० जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं सागरोवमाणि ।
केवडिया। २४८ कम्मइयसरीरिणा कम्मइयसरीर-- | २६१ अभवसिद्धिएहि अणंतगणो ताए जं पदेसग्गं णिसित्तं तं किचि
सिद्धाणमणंतभागो।
३३८ जीवे सम उत्तरावलियमच्छदि किंचि |२६२ एवं जाव उक्कस्सेण छावट्टिसागरोविसम उत्तरावलियमच्छदि किचि
वमाणि कम्मदिदी।
३३८ तिसम उत्तरावलियमच्छदि एवं जाव |२६३ अणंतरोवणिधाए ओरालिय-वेउ
उक्कस्सेण कम्मट्ठिदि त्ति। ३३५ व्विय-आहारसरीरिणा तेणेव पढम२४९ पदेसपमाणाणुगमेण ओरालिय
समयआहारएण पढमसमयतब्भववे उव्विय-आहारसरीरिणा तेणेव
त्थेण ओरालिय-वेउव्विय-आहारपढमसमयआहारएण पढमसमय
सरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं तब्भवत्थेण ओरालिय-वेउव्विय
णिसित्तं तं बहुअं।
३३९
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________________
३४९
परिसिट्ठाणि सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० | सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० २६४ जं बिदियसमए पदेसग्गं णिमित्तं तं । पदेसग्गं तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण विसेसहीणं । ३४० । दुगुणहीणं ।
३४८ २६५ ज तदियसमए पदेसगं णिसित्त तं २७८ एवं दुगुणहीणं दुगुणहीण जावुक्कस्सेण विसेसहीण।
३४० अंतोमहत्तं २६६ जं चउत्थसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं २७९ एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमंतोमहत्तं विसेसहीणं।
३४०
णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि २६७ एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव
संखेज्जा समया। उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि २८० णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराण तेत्तीसं सागरोवमाणि अंतोमुहुत्तं । ३४१ | थोवाणि ।
३४९ २६८ तेजा- कम्मइयसरीरिगा तेजा-कम्म- २८१ एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमइयसरीरत्ताए जं पढमसमए
संखेज्जगणं । पदेसग्गं णिसित्त तं बहअं। ३४१ / २८२ तेजा-कम्मइयसरीरिणा तेजा-कम्म२६९ जे बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं
इयसरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसख्गं तं विसेसहीणं।
३४१
तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभाग २७० जं तदियसमए पदेसगं णिसित्तं तं
गंतूण दुगुणहीणं पलिदोवमस्स असविसेसहीणं ।
३४१ खेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणं । ३५० २७१ एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव
२८३ एवं दुगुणहीणं दुगुणहीणं जाव उक्कस्सेण छावट्टिसागरोवमाणि
उक्कस्सेण छावट्टिसागरोवमाणि कम्मट्टिदी।
कम्मट्टिदी।
३५० २७२ परंपरोवणिधाए ओरालिय-वेउविय- ।
२८४ एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जाणि सरीरिणा तेणेव पढमसमयआहार
पलिदोवमवग्गमलाणि णाणापदेस
गुणहाणिट्ठाणंतराणि पलिदोवमवग्गएण पढमसमयतब्भवत्थेण ओरालियवेउव्वियसरीरत्ताए जं पढमसमय
मूलस्स अखेज्जदिभागो। ३५० पदेसग्गं तदो अतोमुहुत्तं दुगुणहीणं ३४६ |
२८५ णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि
थोवाओ। २७३ एवं दुगुणहीणं दुगुणहीण जाव
| २८६ एयपदेस गुणहाणिट्ठाणंतर उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि
असंखेज्जगुणं । तेत्तीसं सागरोवमाणि ।
३४७ | २८७ पदेसविरए त्ति तत्थ इमो पदेसविर
३४७ | २७४ एगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमंतोमुहत्तं
अस्स सोलसवदिओ दडओ कायव्वो णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि
भवदि । पलिदोवमस्स असांखज्जदिभागो। ३४७ | २८८ सव्वत्थोवा एइंदियस्स जण्णिया २६५ एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं थोवं । ३४८ पज्जत्तणिव्वत्ती।
३५२ २७६ णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि २४९ णिव्वत्तिट्टाणाणि खेज्जगुणाणि। ३५३ __ असंखेज्जगुणाणि ।
३४८ | २९० जीवणियट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।३५४ २७७ आहारसरीरिणा तेणेव पढमसमय- २९१ उक्कस्सिया णिव्वत्ती विसेसाहिया।३५७
आहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण | २९२ सव्वत्थोवा सम्मुच्छिमस्स जहणिया आहारसरीरत्ताए जं पढमसमए
पज्जत्तणिवत्ती।
'
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परिसिट्टाणि सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० | सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० २९३ णिव्वत्तिट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि । ३५७ | ३१८ उववादिमस्स णिव्वत्तिट्ठाणागि २९४ जीवणियट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ३५८ | जीवणियट्ठाणाणि च दो वि तुल्लाणि २९५ उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया। ३५८ संखेज्जगुणाणि । २९६ सव्वत्थोवा गब्भोवक्कंतियस्स ३१९ उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया ।३६६
जहणिया पज्जत्तणिवत्ती। ३५८ | | ३२० तस्सेव पदेसविरइयस्स इमाणि २९७ णिवत्तिढाणाणि असंखेज्ज
छअणुयोगद्दाराणि- जहणिया गुणाणि ।
अग्गदिदी अग्गट्ठिदिविसेसो अग्ग२९८ जीवणियट्टाणाणि विसेसाहियाणि । ३५९
द्विदिट्ठाणाणि उक्कस्सिया अग्गदिदी २९९ उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया । ३५९
भागाभागाणुगमो अप्पाबहुए त्ति। ३६६ । ३०० सव्वत्थोवा उववादिमस्स जहणिया
३२१ सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स
जहणिया अ पज्जत्तणिवत्ती। ३५९
३६७ ३०१ णिव्वत्तिट्ठाणाणि जीवणियट्ठाणाणि च ।
३२२ अग्गद्विदिविसे सो असंखेज्जगुणो। ३६७ दो वि तुल्लाणि असंखेज्जगुणाणि । ३६०
३२३ अग्गट्ठिदिट्ठाणाणि रूवाहियाणि
_ विसेसाहियाणि। ३०२ उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया। ३६०
३६७
३२४ उक्कस्सिया अग्गट्ठिदी विसेसाहिया।३६८ ३०३ एत्थ अप्पाबहुअं।
३२५ एवं तिण्णं सरीराणं ।
३६८ ३०४ सव्वत्थोवं खुद्दाभवग्गणं । ३६१
३२६ सव्वत्थोवा आहारसरीरस्स ३०५ एइंदियस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती
____जहणिया अग्गद्विदी। संखेज्जगुणा ।
३२७ अग्गद्विदिविसेसो संखेज्जगुणो। ३६९ ३०६ समुच्छिमस्स जहणिया पज्जत्त
३२८ अग्गट्ठिदिट्ठाणाणि रूवाहियाणि । ३६९ णिवत्ती संखेज्जगुणा । ३६३
३२९ उक्कस्सिया अग्गट्ठिदी विसे साहिया. ३६९ ३०७ गब्भोवक्कंतियस्स जहणिया पज्जत्त
३३० भागाभागाणुगमेण तत्थ इमाणि णिवत्ती संखेज्जगुणा ।
३६४
तिणि अणुयोगद्दाराणि- जहण्णपदे ३०८ उववादिमस्स जहणिया पज्जत्त
उक्कस्सपदे अजहण्ण-अणुक्कस्सणिवत्ती संखेज्जगुणा । ३०९ एइंदियस्स णिवत्तिढाणाणि
३३१ जहण्णपदेण ओरालियसरीरस्स संखेज्जगुणाणि।
जहणियाए ट्ठिदीए पदेसग्गं सब३१० जीवणियट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ३६४ पदेसग्गस्स केवडियो भागो। ३७० ३११ उक्कस्सिया गिवत्ती विसेसाहिया। ३६५) ३३२ असंखेज्जदिभागो।
३७० ३१२ समुच्छिमस्स णिव्वत्तिट्ठाणाणि
३३३ एवं चदुण्णं सरीराणं । ३७० संखेज्जगुणाणि।
___३६५ | ३३४ उक्कस्सपदेण ओरालियसरीरस्स ३१३ जीवणियट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ३६५
उक्कस्सियाए द्विदीए पदेसग्गं सव्व३१४ उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया ।३६५
पदेसग्गस्स केवडिओ भागो। ३७१ ३१५ गब्भोवक्कंतियम्स णिव्वत्तिट्ठाणाणि | ३३५ असंखेज्जदिभागो।
३७१ ___ असंखेज्जगुणाणि।
३६५ ३३६ एवं चदुण्णं सरीराणं । ३७२ ३१६ जीवणियट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ३६६ | ३३७ अजहण्ण-अणुक्कस्सपदेण-ओरालिय३१७ उक्कस्सिया णिवत्ती विसेसाहिया ।३६६ ] सरीरस्स अजहण्ण-अणुक्कस्सियाए
पदे ।
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सूत्राणि
३८०
१८१
- १४ )
परिसिट्ठागि सू० सं० सुत्राणि पृ० सं० सू० सं०
पृ० सं० ट्ठिदीए पदेसग्गं सवद्विदिपदेसग्गस्स | ३५७ पढमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु केवडिओ भागो।
३७२
पदेसग्गं विसेसाहियं । ३८० ३३८ असंखेज्जा भागा ।
३७३
३५८ अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु ३३९ एवं चदुण्णं सरीराणं । ३७३ | पदेसगं विसेसाहियं । ३८० ३४. अप्पाबहुए त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि | ३५९ सव्वेसु गुणहाणिट्ठणंतरेसु पदेसग्गं ।
। अणुयोगद्दाराणि -जहण्णपदे उक्कक्सपदे विसेसाहियं । जहण्णुक्कस्सपदे।
३७३ ३६० एवं तिण्णं सरीराणं ।
३८० ३४१ जहण्णपदेण सव्वत्थोवा ओरालिय
३६१ सव्वत्थोवं आहारसरी रस्स चरिमसरीरस्स चरिमाए ट्ठिदीए पदेसग्ग।३७३
गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं । ३८१ ३४२ पढमाए ट्ठिदीए पदेसग्गम
३६२ अपढम-अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणसंखेज्जगुणं ।
३७४
तरेसु पदेसग्गं संखेज्जगुणं । ३८१ ३४३ अपढम-अचरिमासु ट्ठिदीसु
३६३ अपढमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गमसंखेज्जगुणं
पदेसग्गं विसेसाहियं ।
३७६ ३४४ अपढमासु ठ्ठिदीसु पदेसग्गं
३६४ पढमे गुणहाणिट्ठाणंतरे पदेसग्गं विसेसाहियं।
विसेसाहियं ।
३८१ ३७७ ३४५ अचरिमासु ट्ठिदीसु पदेसग्गं
३६५ अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु । विसेसाहियं ।
पदेसरगं विसेसाहियं ।
३७७ ३४६ सव्वासु हिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ,
३६६ सव्वेसु गुणहाणिट्ठाणंत रेसु पदे
सग्गं विसेसाहियं । ३४७ एवं तिण्णं सरीराणं । ३७७
३६७ जहण्णुक्कस्सपदेण सव्वत्थोवं ओरा३४८ जहण्णपदेण सव्वत्थोवं आहारसरीरस्स चरिमाए ट्ठिदीए पदेसग्गं३७४
लियसरी रस्स चरिमाए ट्ठिदीए
पदेसरगं । ३४९ पढमाए ट्ठिदीए पदेसग्गं संखेज्जगुणं ,,
३८२ ३५० अपढम-अचरिमासु ठ्ठिदीसु
३६८ चरिमे गुणहाणिट्ठाणंतरे पदेसग्गपदेसग्गमसंखेज्जगुणं
मसंखेज्जगुणं ।
३८२ ३७८ ३५१ अपढमासु ट्ठिदीसु पदेसग्गं
३६९ पढमाए ट्ठिदीए पदेसग्गविसेसाहियं ।
मसंखेज्जगुणं ।
३८२ ३५२ अचरिमासु टिदीसु पदेसग्गं ३७० अपढम-अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाण - ___ विसेसाहियं ।
३७९ तरेसु पदेसग्गमसंखेज्जगुणं । ३८२ ३५३ सव्वासु टिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं , ३७१ अपढमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु ३५४ उक्कस्सपदेण सव्वत्थोवं ओरालिय
पदेसग्गं विसेसाहियं । सरीरस्स चरिमे गुणहाणिट्ठाणतरे । ३७२ पढमे गुणहाणिट्ठाणतरे पदेसग्गं पदेसग्गं ।
विसेसाहियं । ३५५ अपढम-अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु ३७३ अपढम-अचरिमासु ट्ठिदीसु पदेपदेसग्गमसंखेज्जगुणं । ___ ३७९ सग्गं विसेसाहियं ।
३८३ ३५६ अपढमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु
३७४ अपढमाए ट्ठिदीए पदेसग्गं पदेसग्गं विसेसाहियं । ३८० ।
विसेसाहियं ।
३८३
३८१
'
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३८३
टाणि
परिसिट्टाणि
( १५ सू० सं० सूत्राणि पु० सं० [ सू० सं० सूत्राणि
१० सं० ३७५ अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु
३९४ उक्कस्सपदेण सव्वत्थोवाणि आहारपदेसग्गं विसेसाहियं ।।
सरीरस्स णाणापदेसगुणहाणि३७६ अचरिमाए ट्ठिदीए पदेसग्गं
ट्ठाणंतराणि ।
३८९ विसेसाहियं ।
३८४ | ३९५ कम्मइयसरीरस्स णाणापदेसगुण३७७ सव्वासु द्विदीसु सव्वेसु गुणहाणि
हाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि ३८९ ट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं विसेसाहियं । ३८४ ३९६ तेयासरी ३७८ एवं तिणं सरीराणं । ३८४ ट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि । ३८६ ३७९ जहण्णुक्कस्सपदेण सव्वत्थोवं आहार- | ३९७ ओरालियसरीरस्स णाणापदेसगुण
सरीरस्स चरिमाए टिदीए पदेसग्ग। ३८५ | हाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि ।३८९ ३८० पढमाए टिदीए पदेसग्गं संखेज्जगणं।३८६ | ३९८ बेउव्वियसरीरस्स णाणापदेसगण३८१ चरिमे गुणहाणिट्ठाणतरे पदेसग्ग
हाणिट्ठाणंतराणि संखेज्जगुणाणि। ३९० मसंखेज्जगुणं ।
___३८६ | ३९९ जहण्णुक्कस्सपदेण सव्वत्थोवाणि ३८२ अपढम-अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणं
आहारसरीरस्स णाणापदेसगुणतरेसु पदेसग्गं संखेज्जगणं । ३८६ हाणिट्ठाणंतराणि ।
३९० ३८३ अपढमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु
४०० ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीरस्स। पदेसग्गं विसेसाहियं ।
एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्ज३८४ पढमे गुणहाणिट्ठाणंतरे पदेसग्गं
गुणं ।
३९० विसेसाहियं।
३८६ | ४०१ कम्मइयसरीरस्स णाणापदेसगुण३८५ अचरिमेसु गुणहाणिट्ठाणंतरेसु
हाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि ।३९० पदेसग्गं विसेसाहियं ।
४०२ तेयासरीरस्स णाणापदेस गुणहाणि३८६ अपढम-अचरिमासु ट्ठिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ।
ट्ठाणराणि असंखेज्जगुणाणि। ३९१
| ४०३ तेयासरी रस्स एगपदेसगुणहाणि- ३९१ ३८७ अपढ मासु ट्ठिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ।
ट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं । ३८८ अचरिमासु ट्ठिदीसु पदेसग्गं
४०४ कम्मइयसरीरस्स एयपदेसगुणहाणिविसे साहियं ।
ट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं । ३९१ ३८९ सव्वासु ट्ठिदीसु सम्बेसु गुणहाणि
४०५ ओरालियसरीरस्स णाणागुणहाणिट्ठाणंतरेसु पदेसग्गं विसेसाहियं । ३८७
ट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि । ३९१ ३९० णिसे यअप्पाबहुए त्ति तत्थ इमाणि
४०६ वेउव्वियसरीरस्प णाणापदेसगुणतिणि अणुयोगद्दाराणि-जहण्णपदे
हाणिट्ठाणंतराणि संखेज्जगुणाणि । ३९१ उक्कस्सपदे जहण्णुक्कस्सपदे। ३८७ ४०७ गुणगारे त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि ३९१ जणण्णपदेण सव्वत्थोवमोरालिय
अणुयोगद्दाराणि-जहण्णपदे उक्कस्सवेउविय-आहारसरीरस्स एयपदेस
पदे जहण्णुक्कस्सपदे। ३१२ गुणहापिट्ठाणंतरं ।
३८८
| ४०८ जहण्णपदे सव्वत्थोवा ओरालिय३९२ तेयासरीरस्स एयपदेसगुणहाणिट्ठा
वेउव्विय-आहारसरीरस्स जहण्णओ णंतरमसंखेज्जगुणं ।
३८८ गुणगारो सेडीए असखेज्जदिभागो।३९२ ३९३ कम्मइयसरीरस्स एगपदेसगुणहाणि- | ४०९ तेया-कम्मइयसरीरस्स जहण्णओ
ट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ।। ३८८ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंत
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सू० सं०
१६)
परिसिठ्ठाणि सूत्राणि
पृ० सं० सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० गुणो सिद्धाणमणंतभागो। ३९३ / ४२८ चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं ४१० उक्कस्सपदेण ओरालियसरीरस्स
गदो।
४०३ उक्कस्सओ गुणगारो पलिदोवमस्स ! ४२९ तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स तस्स असंखेज्जदिभागो।
३९४ ओरालियसरीरस्स उक्कस्सयं ४११ एवं चदुण्णं सरीराणं । ३९४ ।। पदेसग्गं ।
४०४ ४१२ जहण्णुक्कस्सपदेण ओरालिय-वेउ- ४३० तव्वदिरित्तमणुक्कस्स । ४१०
विय-आहारसरीरस्स जहण्णओ |४३१ उक्कस्सपदेण वे उव्वियसरीरस्त
गुणगारो सेडीए असंखेज्जदिभागो। ३९५ उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स। ४११ ४१३ उक्कस्सओ गुणगारो पलिदोवमस्स |४३२ अण्णदरस्स आरण-अच्चदकप्पअसंखेज्जदिभागो।
३९५ वासियदेवस्स बावीससागरोवम४१४ तेजा-कम्मइयसरीरस्स जहण्णओ
द्विदियस्स।
४११ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंत- ४३३ तेणेव पढ मसमयआहारएण पढमगुणो सिद्धाणमणंतभागो।
समयतब्भवत्थेण उक्कस्सजोगेण ४१५ तस्सेव उक्कस्सओ गुणगारो पलिदो
आहारिदो।
४१२ वमस्स असंखेज्जदिभागो। ३९५ ४३४ उवकस्सियाए वड्ढीए वड्ढिदो। ४१२ ४१६ पदमीमांसाए तत्थ इमाणि दुवे
| ४३५ अंतोमुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि अणुयोगद्दाराणि- जहण्णपदे ।
पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो। ४१२ उक्कस्सपदे।
३९७४३६ तस्स अप्पाओ भासद्धाओ। ४१२ ४१७ उक्कस्सपदेण ओरालियसरीरस्स
४३७ अप्पाओ मणजोगद्धाओ। ४१२ उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स । " कस्तो
३९७ ३९७ / ४३८ णत्थि छविच्छेदा।।
४१२ ४१८ अण्णदरस्स उत्तरकुरु-देवकुरुमणुअस्स ४३९ अप्पदरं विउव्विदो।
४१३ तिपलिदोवमट्ठिदियस्स । ३९८ | ४४० थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति जोग४१९ तेणेव पढमसमयआहारएण पढम
जवमज्झस्सुवरिमंतोमुत्तद्धसमयतब्भवत्थेण उक्कस्सेण जोगेण
मच्छिदो।
४१३ आहारिदो।
३९९| ४४१ चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे ४२० उक्कस्सियाए वड्ढीए वड्डिदो। ४०० आवलियाए असंखेज्जदिभाग४२१ अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सवाहि
मच्छिदो।
४१३ पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो।
|४४२ चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं ४२२ तस्स अप्पाओ भासद्धाओ। ४०१ गदो। ४२३ अप्पाओ मणजोगद्धाओ।
४०१ ४४३ तस्स चरिमपमयतब्भवत्थस्स तस्स ४२४ अप्पा छविच्छेदा ।
४०१ वेउब्वियसरीरस्स उक्कस्सपदेसग्गं ।४१३ ४२५ अंतरे ण कदाइ विउव्विदो। ४०१ ४४४ तव्वदिरित्तमणुक्कस्सं । ४१३ ४२६ थोवावसे से जीविदवए ए त्ति जोग
| ४४५ उक्कस्सपदेण आहारसरीरस्स जवमज्झस्स उवरिमंतोमहत्तद्ध
उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स । ४१४ मिच्छिदो।
४०२१ ४४६ अण्णदरस्स पमत्तसंजदस्स उत्तर४२७ चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलि- | सरीरं विउव्वियस्स। ४१४ याए असंखेज्जदिभागमच्छिदो। ४०३ ४४७ तेणेव पढमसमयआहारएण पढम
Ve
४१३
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________________
सू० सं
सूत्राणि
समय तब्भवत्थेण उक्कस्सजोगेण आहारिदो ।
४४८ उक्कस्साए वड्ढीए वड्ढिदो । ४४९ अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जत्ती हि पज्जत्तयदो । ४५० तस्स अप्पाओ भासद्धाओ ४५१ अप्पाओ मणजोगद्वाओ । ४५२ णत्थि छविच्छेदा ।
४५३ थोवावसेसे णियत्तिदव्वए त्ति जोगजवज्झाणाए मितद्धमच्छिदो । ४१५ ४५४ चश्मे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो । ४५५ चरिम- दुरिमसमए उक्कस्सं जोगं गदो ।
४१५
४१५
४५६ तस्स चरिमसमयणियत्तमाणस्स तस्स आहारसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं ।
४५७ तव्वदिरित्तमणुक्कस्सं ।
४५८ उक्कस्सपदेण तेजासरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स ।
४५९ अण्णदरस्स ।
४६० जो जीवो पुव्वकोडाउओ अघो
परिसिद्वाणि
पृ० सं सू० सं
सूत्राणि
४६६ अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जत्ती हि पज्जत्तयदो ।
४१४
४१९
४१४ ४६७ तत्थ य भबठ्ठिदि तेत्तीससागरोवाणि आउअणुपालइत्ता । ४६८ बहुसो बहुसो उक्कस्सियाणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि ।
४१४
४१४
४१४
४ १४
४१५
४१६
४१६
४१६
सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु आउअ बंधदि ।
४६१ कमेण कालगदसमाणो अघो सत्तमाए पुढवीए उववण्णो । ४५२ तदो उवदिसमाणो पुणरवि पुत्रकोडाउएसुववण्णो ।
४६३ तेणेव कमेण आउअमणुपालइत्ता तदो कालगदसमाणो पुणरवि अघो सत्तमा पुढवीणेरइएसु उववण्णो. ४१८ ४६४ तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमय तब्भवत्थेण उक्कम्सजोगेण आहारदो
४६५ उक्कस्सियाए वड्ढीए वड्ढिदो ।
४१६
४१७
४१८
(
पृ० सं
४७१ चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ।
४१९
४६९ बहुसो बहुसो बहुसं किलेसपरिणामो भवदि ।
४२०
४७० एवं संसरिदूण थोवावसेसे जीविदव्वएत्ति जोगजवमज्झस्स उवरितमुत्तमच्दो |
४२०
४१९
४१९
४२०
४२०
४७२ दुरिम - तिचरिमसमए उक्कस्स संकिलेस गदो
४७३ चरिम- दुरिमसमए उक्कस्साजोगं गदो |
४२१
४७४ तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स तस्स तेजइयसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं । ४७५ तदिरित्तमणुक्कस्सं ।
21
४२२
४२२
४७६ उक्कस्सपदेण कम्मइयसरीरस्स उक्कस्यं पदेसग्ग कस्स । ४७७ जो जीवो बादरपुढ विजीवेसु वेहि सागरोवमसहस्सेहि सादिरेगेहि ऊणियं कम्मट्ठदिमच्छिदो । ४७८ जहा वेदणाए वेदणीयं तहा णेयव्वं । ४७९ जहण्णपदेण ओरालियस रस्स जहणयं पदेसग्गं कस्स । ४८० अण्णदरस्स सुहुमणिगोदजीव
४२२
अपज्जत्तयस्त ।
४२१
४२३
४२३
४८१ पढमसमयआहारयस्स पढमसमयतब्भत्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स ओरालिय सरीरस्स जहणं पदेसग्गं ४२३ ४८२ तव्वदिरित्तमजहणणं ४८३ जहण्णपदेण वे उव्वियसरी रस्स
४२४
जहणयं पदे गं कस्स ।
४२४
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________________
१८)
परिसिट्टाणि सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० । सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० ४८४ अण्णदरम्स देव-णेरइयस्स असण्णि- ४९९ आहारसरीरस्स पदेसग्गमसंखेज्जपच्छायदस्स । ४२४] गणं ।
४३० ४८५ पढमसमयआहारयस्स पढमसमय- ५०० तेयासरी रस्स पदेसग्गमणंत गुणं । ४३० तब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स
५०१ कम्मइयसरीरस्स पदेसग्गमणंतगुणं।४३० वेउव्वियसरीरस्स जहण्णयं
५०२ सरीरविस्सासुवचयपरूवणदाए तत्थ पदेसग्गं ।
४२५
इमाणि छ अणुयोगद्दाराणि४८६ तव्वदिरित्तमजहण्णं ।
४२५
अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गण४८७ जहण्णपदेण आहारसरीरस्स
परूवणा फड्डयपरूवणा अंतरजहण्णवं पदेसग्गं कस्स। ४२५
परूवणा सरीरपरूवणा अप्पा४८८ अण्णदरस्स पमत्तसंजदस्स उत्तरं विउव्विदस्स ।
४३० बहुए त्ति । ४२५]
५०३ अविभागपडिच्छेदपरूवणदाए ४८९ पढमसमयआहारयस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स
एक्केक्कम्मि ओरालियपदेसे
केवडिया अविभागपडिच्छेदा। आहारसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं । ४२५].
४३१ ४९० तव्वदिरित्तमजहणं । ४२६)
|५०४ अणंता अविभागपडिच्छेदा सव्व४९१ जहण्णपदेण तेयासरीरस्स जहण्णयं
जीवेहि अणंतगुणा ।
४३१ पदेसग्गं कस्स।
४२६५०५ एवडिया अविभागपडिच्छेदा। ४३१ ४९२ अण्णदरस्स सुहमणिगोदजीवअप- ५०६ वग्गणपरूवणदाए अणंता अविभाग
ज्जत्तयस्स एयंताणुवड्ढीए वड्डमाण- | पडिच्छेदा सव्वजीवेहि अणंतगुणा यस्स जहण्णजोगिस्स तस्स तेया
एया वग्गणा भवदि ।
४३२ सरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं । ४२६ | ५०७ एवमणंतओ वग्गणाओ अभव४९३ तव्वदिरित्तमजहण्णं ।। ४२८
सिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाण
मणंतभागो। ४९४ जहण्णपदेण कम्मइयसरीरस्स
४३२ जहण्णयं पदेसग्गं कस ।
४२८५०८ फड्डयपरूवणदाए अणंताओ वग्ग४९५ अण्णदरस्त जीवो सुहुमणिगोद
णाओ अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो जीवेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदि
सिद्धाणमणंतभागो तमेगं फड्डयं भागेण ऊगयं कम्मट्टिदिमच्छिदो। ।
भवदि ।
४३३ एवं जहा वेयणाए वेयणीयं तहा ५०९ एवमणंताणि फड्डयाणि अभवसिद्धिणेयव्वं । णवरि थोवावसेसे जीवि
एहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतदव्वए त्ति चरिमसमयभवसिद्धिओ
भागो।
४३३ जादो तस्स चरिमसमयभवसिद्धि- ५१० अंतरपरूवणदाए एक्केक्कस्स यस्स तस्स कम्मइयसरीरस्स
फड्डयस्स केवडियमंतरं । ४३४ जहण्णयं पदेसग्गं ।
४२८ | ५११ सव्वजीवेहि आगंतगुणा । एवडिय४५६ तव्वदिरित्तमजहण्णं । ४२९ मंतरं ।
४३४ ४९७ अप्पाबहुए त्ति सव्वत्थो ओरा- ५१२ सरीरपरूवणदाए अणंता अविभागलियसरीरस्स पदेसग्गं ।
पहिच्छेदा सरीरबंधणगुणपण्णच्छे४९८ वेउब्वियसरीरस्स पदेसग्गमसंखेज्ज
दणणिप्पण्णा।
४३४ गुणं।
४२९ ५१३ छेदणा पुण दसविहा ।
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________________
सू० सं
सूत्राणि
४३५
५१४ णाम दुवणा दवियं सरीरबंधणगुणपदेसाय । वल्लरि अणुत्तडे य उपाइया पण्णभावे य ॥ ५१५ अप्पा बहुए त्ति सव्वत्थोवा ओरालियस रस्स अविभागपडिच्छंदा । ४३७ ५५६ वेउव्वयसरीरस्स अविभागपडिच्छेदा अनंतगुणा ।
५१७ आहारसरीरस्स अविभागपडिच्छेदा
५२४ दव्वहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एयपदेसिय वग्गणाए दवा ते बहुआ अणतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा |
परिसिट्ठाणि
पृ० सं सू० सं
५२५ जे दुपदेसियवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अनंतेहि विस्सासुव - चएहि उवचिदा |
५१८ तेयासरीरस्स अविभागपडिच्छेदा अतगुणा ।
५१९ कम्मइयसरी रस्स अविभागपडिच्छेदा अगुण ।
५२० विस्सा सुवचयपरूवणदाए एक्केम्हि जीवपदे से केवडिया विस्सासुवचया उवचिदा ।
५२१ अनंता विस्सासुवचया उवचिदा सव्जीवेहि अनंतगुणा । ५२२ ते च सव्वलोगागदेहि बद्धा । ५२३ तेसिं चउव्विहा हाणी - दव्वहाणी खेत्तहाणी कालहाणी भावहाणी चेदि ।
४३७
४३७
४३७
४३८
४३८ | ५३१ एवं ति चदु-पंच-छ-सत्त- अट्ठ-णवदस - संखेज्ज - असंखेज्जपदेसियखेत्तोगाढवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा विस्सा सुवचएहि
उवचिदा ।
४४०
४३९
४३९ | ५३२ तदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण तेसिं चउविवहा हाणी - असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी सखेज्जगुणहाणी असंखेज्ज - गुणहाणी |
४४१
४४२
५२६ एवं तिपदेसिय- चदुपदे सिय-पंचपदेसिय- छप्पदेसिय सत्तपदे सिय- अट्ठपदेसिय- नवपदे सिय- दस पदे सिय-संखेज्जपदेसिय असंखंज्जपदेसिय अनंतपदेसिय अनंताणंतपदेसिय- वग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अणतेहि विस्सासुवच एहि उवचिदा । ५२७ तदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं
( १९
पृ० सं
सूत्राणि
गंण तेसि पंचविहा हाणी-अनंतभागहाणी असंखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणी | ५२८ एवं चदुण्णं सरीराणं । ५२९ खेत्तहाणिपरूवणदाए ओरालियसरस जे एयपदेसियखेत्तोगाढवग्गणा दव्वा ते बहुगा अनंतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा । ५३० जे दुपदेसियक्खेत्तोगाढवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अणतेहि विस्सासुवचएहि उवचिदा ।
४४२
५३६ एवं ति चदु-पंच-छ- सत्त-अट्ठ-णवदस-संखेज्ज-असंखेज्जसमय ट्ठदि
४४३ ४४४
४४४
४४५
४४५
५३३ एवं चदुष्णं सरीराणं । ५३४ कालहाणिपरूवणदाए ओरालियसरीरस्स जे एगसमयद्विदिवग्गणाए ते बहुआ अहि विस्सासुवचएहि उवचिदा । ५३५ जे दुसमय ट्टिदिवग्गणाए दव्वा ते विसेसहीणा अणतेहि विस्सासुत्रचएहि उवचिदा ।
४४६
४४७
४४७
४४८
वग्गणा दव्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि विस्तासुव एहि उवचिदा । ५३७ तदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं गंतून तेसिं चउव्विहा हाणी - असखेज्जभागहाणी संखेज्जभागहाणी
४८८
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________________
४४९
२०)
परिसट्टाणि सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० । सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुण
५५० तस्सेव जहण्णयस्सुक्कस्सपदे हाणी।
उक्कस्सओ विस्सासुवचओ ५३८ एवं चदुण्णं सरीराणं । ४४९ । अणंतगुणो। ५३९ भावहाणिपरूवणदाए ओरालिय
५५१ तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्णपदे सरीरस्स जे एयगुणजुत्तवग्गणाए
जहण्णओ विस्सासुवचओ दव्वा ते बहुआ अणंतेहि विस्सा
अणतगुणो। सुवचएहि उचिदा। ४५० | ५५२ तस्सेव उक्कस्सयस्स उक्कस्सपदे ५४० जे दुगुणजुत्तवग्गणाए दव्वा ते
उक्कस्सओ विस्सासुवचओ विसेसहीणा अणंतेहि विस्सासुव
अणंतगणो।
४५९ चएहि उवचिदा।
४५० / ५५३ बादरणिगोदवग्गणाए जहण्णियाए ५४१ एवं ति-चदु-पंच-छ-सत्त-अट्ठ
चरिमसमयछदुमत्थस्स सव्वजहणियाए णव-दस-संखेज्ज-असंखेज्ज
सरीरोगाहणाए वट्टमाणस्स जहण्णओ अणंत-अणंताणतगुणजुत्तवग्गणाए
विस्सासुवचओ थोवो।
४६० दव्वा ते विसेसहीणा अणंतेहि
५५४ सुहमणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए
छण्णं जीवणिकायाणं एयबंधणविस्सासुवचएहि उवचिदा । ४५२
बद्धाणं सपिडिदाणं संताणं सव्वक्क५४२ तदो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं
स्सियाए सरीरोगाहणाए वद्रमाणस्स गंतूण तेसि छव्विहा हाणी-अणंत
उक्कस्सओ विस्सासुवचओ भागहाणी असंखेज्जभागहाणी
अणंतगुणो। संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी
| ५५५ एदेसि चेव परूवणट्ठदाए तत्थ असंखेज्जगुणहाणी अणंतगुणहाणी ।४५२
इमाणि तिण्णि अणुयोगद्दाराणि ५४३ एवं चदुण्णं सरीराणं । ४५३
जीवपमाणाणुगमो पदेसपमाणाणुगमो ५४४ ओरालियसरीरस्स जहण्णयस्स
अप्पाबहुए त्ति ।
४६२ जहण्णपदे जहण्णओ विस्सासुवचओ ५५६ जीवपमाणाणुगमेण पुढविकाइया थोवो।
४५३ जीवा असंखेज्जा। ५४५ तस्सेव जहण्णयस्स उक्कस्सपदे
५५७ आउकाइया जीवा असंखेज्जा। ४६३ उक्कस्सओ विस्सासुवचओ
५५८ तेउक्काइया जीवा असंखेज्जा। ४६३ अणंतगुणो ।
५५९ वाउक्काइया जीवा असंखेज्जा । ४६३ ५४६ तस्सेव उक्कस्सयस्स जहण्णपदे ५६० वणप्फदिकाइया जीवा अणंता। ४६३ जहण्णओ विस्सासुवचओ
५६१ तसकाइया जीवा असंखेज्जा। ४६३ अणंतगुणो।
४५४ / ५६२ पदेसपमाणाणुगमेण पुढ विकाइयजीव५४७ तस्सेव उक्कस्सयस्स उक्कस्सपदे
पदेसा असखेज्जा।
४६४ उक्कस्सविस्सासुवचओ अणंतगुणो। ४५४ / ५६३ आउक्काइयजीवपदेसा असंखेज्जा ४६४ ५४८ एवं बेउव्विय-आहार-तेजा-कम्मइय- ५६४ ते उक्काइयजीवपदेसा असंखज्जा । ४६४ सरीरस्स।
४५५ । ५६५ वा उक्काइयजीवपदेसा असंखेज्जा ।४६४ ५४९ जहण्णयस्स जहण्णपदे जहण्णओ ५ ६६ वणप्फदिकाइयजीवपदेसा अणंता ।४६४
विस्सासुवचओ अणंतगुणो । ४५५ । ५६७ तसकाइयजीवपदेसा असंखेज्जा । ४६४
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________________
( २१ पृ० सं०
४७५
परिसिट्ठाणि सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० । सू० सं० सूत्राणि । ५६८ अप्पाबहुअं दुविहं-जीवअप्पाबहुअं ५८८ अद्धाअप्पाबहुए त्ति सव्वत्थोवो
चेव पदेसअप्पाबहुअं चेव । ४६५ सांतरसमए वक्कमणकालो। ४७४ ५६९ जीवअप्पाबहुए त्ति सव्वत्थोवा । ५८९ णिरंतरसमए वक्कमणकालो असंतसकाइयजीवा। ४६५ | खेज्जगणो।
४७४ ५७० ते उक्काइयजीवा असंखेज्जगणा । ४६५ | ५९० सांतरणिरंतरसमए वक्कमणकालो ५७१ पुढत्रिकाइयजीवा विसेसाहिया। ४६५
विसेसाहिओ।
४७५ ५७२ आउकाइय जीवा विसेसाहिया। ४६६ | ५९१ सव्वत्थोवा सांतरसमयवक्कमण५७३ वाउक्काइयजीवा विसेसाहिया । ४६६
कालविसेसो। ५७४ वणप्फदिकाइयजीवा अणंतगणा । ४६६ | ५९२ णिरंतरसमयवक्कमणकालविसेसो ५७५ पदेसअप्पाबहुए ति सव्वत्थोवा
असंखेज्जगुणो। तसकाइयपदेसा।
४६६ | ५९३ सांतरणिरंतरवक्कमणकालविसेसो ५७६ ते उक्काइयपदेसा असंखेज्जगुणा । ४६६
विसे साहिओ।
४७५ ५७७ पुढविकाइयपदेसा विसेसाहिया। ४६ | ५९४ जहण्णपदेण सव्वत्थोवो सांतर
वक्कमणसव्वजहण्णकालो। ४७६ ५७८ आउक्काइयपदेसा विसेसाहिया। ४६६ ५७९ वाउक्काइयपदेसा विसेसाहिया। ४६६
५९५ उक्कस्सपदेण उक्कस्सओ सांतरसमय
वक्कमणकालो विसेसाहिओ। ४७६ ५८० वणप्फदिकाइयपदेसा अणंतगुणा। ४६६ चुलिया
| ५९६ जहण्णपदेण जहण्णगो णिरंतरवक्कमणकालो असं
। ४७६ ५८१ एत्तो उवरिमगंथो चूलिया णाम । ४६९ । ५८२ जो णिगोदो पढमदाए वक्कममाणो
५९७ उक्कस्सपदेण उक्कस्सओ णिरंतर
वक्कमणकालो विसेसाहिओ। ४७७ अणंता वक्कमंति जीवा । एयसमएण
५९८ जहण्णपदेण सांतरणिरंतरवक्कमणअणंताणतसाहारणजीवेण घेत्तूण एगसरीर भवदि असंखेज्जलोग
सव्वजहण्णकालो विसे साहिओ। ४७७ मेत्तसरीराणि घेत्तण एगो णिगोदो
५९९ उक्कस्सपदेण सांतरणिरंतरवक्कहोदि ।
मणकालो विसेसाहिओ।
४६९ ५८३ बिदयसमए असंखेज्जगुणहीणा
|६०० सम्वत्थोवो सांतरवक्कमणकालवक्कमंति।
४७०
। विसेसो। ५८४ तदियसमए असंखेज्जगुणहीणा ६०१ णिरंतरवक्कमणकालविसेसो असंवक्कमंति।
खेज्जगुणो। ५८५ एवं जाव असंखेज्जगुणहीणाए ६०२ सांतरणिरंतरवक्कमणकालविसेसो सेडीए णिरंतर वक्कमति जाव उकासेण | विसेसाहिओ।
४७८ आवलियाए असंखेज्जदिभागो। ४७१ | ६०३ जहण्णपदेण सांतरसमयवक्कमण५८६ तदो एक्को वा दो वा तिणि वा
कालो असंखेज्जगुणो ।
४७८ समए अंतरं काऊण णिरंतर वक्कमति |६०४ उक्कस्सपदेण सांतरसमयवक्कजाव' उक्कस्सेण आवलियाए असं- | मणकालो विसेसाहिओ। ४७८ खेज्जदिभागो।
४७१ । ६०५ जहण्णपदेण णिरतरसमयवक्कमण५८७ अप्पाबहुअं दुविहं-अद्धाअप्पा
कालो असंखेज्जगुणो। ४७८ बहअं चेव जीव चेव । ४७४६०६उक्कस्सप ण णिरंतरसमयवक्क
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________________
४८० ४८१
२२)
परिसिट्टाणि सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० । मू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० मणकालो विसेसाहिओ। ४७८/६२७ अचरिमसमएसु वक्कमंति जीवा ६०७ जहण्णपदेण सांतरणिरंतरवक्क
_ विसे साहिया। __ मणकालो विसेसाहिओ।
४८३ ४७१/६२८ सव्वेस समएसु वक्कमिदजीवा ६०८ उक्कस्सपदेण सांतरणिरंतरवक्क
विसेसाहिया।
४८३ मणकालो विसेसाहिओ। ४७९ ! ६२९ सव्वो बादरणिगोदो पज्जत्तो वा ६०९ उक्कस्सयं वक्कमणंतरमसंखेज्जगुणं।४७९
| वामिस्सो वा।
४८३ ६१० अवक्कमणकालविसेसो असंखज्ज
| ६३० सुहुमणिगोदवग्गणाए पुण णियमा गुणो।
वामिस्सो ।
४८४ ६११ पबंधणकालविसेसो विसेसाहिओ। ४७९/६३१ जो णिगोदो जहण्णएण वक्कमण६१२ जहण्णपदेण जहण्णओ अवक्क
कालेण वक्कमंतो जहण्णएण पबंधमणकालो असंखेज्जगुणो।
४८०
णकालेण पबद्धो तेसिं बादरणिगो६१३ जहण्णपदेण जहण्णओ पबंधण
दाणं तथा पबद्धाणं मरणकमेण कालो विसेसाहिओ। ४८० णिग्गमो होदि ।
४८५ ६१४ उक्कस्सपदे उक्कस्सओ अवक्क
६३२ सव्वुककस्सियाए गुणसे डीए मरणेण मणकालो विसेसाहिओ।
४८०
मदाणं सव्वचिरेण कालेण णिल्ले६१५ उक्कस्सपदेण उक्कस्सओ पबंधणकालो विसेसाहिओ।
विज्जमाणाणं तेसिं चरिमसमए
मदावसिवाणं आवलियाए असंखे६१६ जीवअप्पाबहुए त्ति। ६१७ सम्वत्थोवा चरिमसमए वक्कमंति
ज्जदिभागमेत्तो णि गोदाणं ।
४८७ जीवा।
६३३ एत्थ अप्पाबहुअं- सव्वत्थोवं ६१८ अपढम-अचरिमसमएसु वक्कमंति
खुद्दाभवग्गहणं । जीवा असंखेज्जगुणा ।
६३४ एइंदियस्स जहणिया णिव्वत्ती ६१९ अपढमसमए वक्कमंति जीवा
संखेज्जगुणा।
४९१ विसेसाहिया।
६३५ सा चेव उक्कस्सिया विसेसाहिया । ४९१ ६२० पढमसमए वक्कमंति जीवा
६३६ बादरणिगोद वग्गणाए जहणियाए असंखेज्जगुणा ।
आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो ६२१ अचरिमसमएसु वक्कमति जीवा
णिगोदाणं।
४९२ विसे साहिया।
६३७ सुहमणिगोदवग्गणाए जहणियाए ६२२ सव्वेसु समएसु वक्कमति जीवा
आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो विसेसाहिया ।
णिगोदाणं । ६२३ सव्वत्थोवा चरिमसमए वक्कमति ६३८ सुहुमणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए जीवा ।
आलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो ६२४ अपढम अरिमसमएस वक्कांति
णिगोदाणं । जीवा असंखेज्जगुणा । ४८२ | ६३९ बादरणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए ६२५ अपढमसमए वक्कमति जीवा
से डीए असखेज्जदिभागमेत्तो विसेसाहिया ।
णिगोदाणं । ६२६ पढमसमए वक्कमंति जीवा
| ६४० एदेसि चेव सव्वणिगोदाणं मलमहाअसखेज्जगुणा।
४८३
खंधट्ठाणाणि।
४८२
४८२
४९३
४९३
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________________
सूत्राणि
पृ० सं०
___५१०
परिसिट्टाणि सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं सू० सं ६४१ अट्ठ पुढवीओ टंकाणि कूडाणि
__ आवलियाए असंखेज्जदिभागभवणाणि विमाणाणि विमाणि
मेत्ताणि । दियाणि विमाणपत्थडाणि णि याणि | ६५३ तदो जवमज्झं गंतूण बादरणिगोदणिरइंदियाणि णिरयपत्थडाणि
जीवअपज्जत्तयाणं णिल्लेबणगच्छाणि गुम्माणि वल्लीणि जदाणि
ढाणाणि आवलियाए असंखेज्जदितणवणप्फदिआदीणि । ४९४
__ भागमेत्ताणि ।
६५४ तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुम६४२ जदा मूलमहाक्खंधट्ठाणाणं
णिगोदजीवअपज्जत्तयाणमाउअजहण्णपदे तदा बादरतसपज्जत्ताणं
बंधजवमझं। उक्कस्सपदे।
६५५ तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण बादरणिगोद६४३ जदा बादरतसपज्जत्ताणं जहण्णपदे
जीवअपज्जत्तयाणमाउअबंधजवतदा मूलमहाक्खंधट्ठाणाण
मज्झं। मुक्कस्सपदे ।
४९६ / ६५६ तदो अंतोमुहुत्तं गंतुण सुहुम६४३ एत्तो सव्वजीवेसु महादंडओ
जीवअपज्जत्तयाणं मरणकायव्वो भवदि। ... ५०१ जवमज्झं।
५११ ६४४ सव्वत्थोवं खुद्दाभवग्गहणं । तं तिधा | ६५७ तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण बादरविहत्तं-हेट्ठिल्लए तिभाए सव्वजी
णिगोदजीवअपज्जत्तयाणं मरणवाणं जहणिया अपज्जत्तणिवत्ती।
जवमज्झं । मज्झिल्लए तिभाए णत्थि आवास
| ६५८ तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुम
णिगोदजीवअपज्जत्तयाणं णिव्वत्तियाणि । उरिल्ला तिभागे आउअ
ठाणाणि आवलि० असंखे०भागबंधो जवमझं समिलामज्झे त्ति
मेत्ताणि ।
५१३ वुच्चदि ।
५०१ | ६५९ तदो अंतोमुत्तं गंतूण बादरणिगोद६४५ तस्सुवरिमसंखेपद्धा ।
५०३ जीवअपज्जत्तयाणं णिव्वत्तिट्ठाणाणि ६४६ असंखेपद्धस्सुवरि खुद्दाभवग्गहणं ५०४ | आवलियाए असंखेज्जदिभाग६४७ खुद्दाभवग्गहणस्सुवरि जहणिया
मेताणि ।
४१४ अपज्जत्तणिवत्ती।
६६० तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सव्वजीवाणं ६४० जहणियाए अपज्जत्तणिव्वत्तीए
णिव्वत्तीए अंतरं।
५१५ उवरिमुक्कस्सिया अपज्जत्तणिवत्ती
| ६६१ तत्थ इमाणि पढमदाए आवास
याणि भवंति। अंतोमुहुत्तिया।
५०४ | ६४९ तं चेव सुहमणिगोदजीवाणं जह- | ६६२ तदो अंतोमहत्तं गंतूण तिण्णं णिया अपज्जत्तणिवत्ती।
सरीराणं णिव्वत्तिट्ठाणाणि आवलि६५० उवरिमुक्कस्सिया अपज्जत्तणिव्वत्ती
याए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । ५१६ ____ अंतोमहत्तिया।
६६३ ओरालिय-वेउविय-आहारसरीराणं । ६५१ तत्थ इमाणि पढमदाए आवासयाणि । जहाकम विसेसाहियाणि । ५१७ होति।
५०६ / ६६४ एत्थ अप्पाबहुअं-सव्वत्थोवाणि ६५२ तदो जवमज्झं गंतूण सुहमणिगोद
ओरालियसरीरस्स णिव्वत्ति- अपज्जत्तयाणं पिल्लेवणट्ठाणाणि
ठाणाणि।
५०४
५१८
Page #621
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृ० सं०
५२९
२४)
परिसिट्टाणि सू० स० सूत्राणि
पृ० सं० | सू० सं० सूत्राणि ६६५ वे उब्वियसरीरस्स णिव्वत्तिट्ठाणाणि ६७९ एत्थ अप्पाबहुगं-सव्वत्थोवाणि विसेसाहियाणि।
ओरालियसरीरस्स णिल्लेवण६६६ आहारसरी रस्स णिव्वत्तिढाणाणि
ट्राणाणि । विसेसाहियाणि।
५१९ / ६८० वेउव्वियसरीरस्स णिल्लेवण६६७ तदो अंतोमुत्तं गंतूण तिण्णं
ढाणाणि विसे साहियाणि । ५२९ सरीराणमिदियणिव्वत्तिट्ठाणाणि
| ६८१ आहारसरीरस्स पिल्लेवणढाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभाग
विसेसाहियाणि। मेत्ताणि ।
५११६८२ तत्व इमाणि पढमदाए आवास६६८ ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीराणं
याणि होति ।
५२९ जहाकम विसेसाहियाणि । ५२०
६८३ तदो जवमझं गंतूण सुहुम
णिगोदजीवपज्जत्तयाण णिव्वत्ति६६९ एत्थ अप्पाबहुअ-सव्वत्थोवाणि
ढाणाणि आवलियाए असंखेज्जदि__ ओरालियसरी रस्स इंदियणिबत्ति
भागमेत्ताणि। ट्ठाणाणि।
५२१ | ६८४ तदो जवमझं गतूण बादरणिगोद६७० वेउव्वियसरी रस्स इंदियणिव्वत्ति
जीवपज्जत्तयाणं णिव्वत्तिट्टाणाणि ठाणाणि विसेसाहियाणि। ५२१ |
आवलियाए असंखेज्जदिभाग६७१ आहारसरीरस्स इंदियणिन्वत्ति
मेत्ताणि । ट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ५२१ | ६८५ तदो अंतोमुत्तं गंतुण सुहुम६७२ तदो अंतोमुत्तं गंतूण तिण्णं
णिगोदजीवपज्जत्तयाणमाउअबंधसरीराणं आणापाण-भासा-मण
जवमज्झं। णिव्वत्तिट्ठाणाणि आवलि० असंखे० ।
६८६ तदो अतोमुत्तं गंतूण बादरगिगोदभायमेत्ताणि ।
५२१
जीवपज्जत्तयाण आउअबंधजव६७३ ओरालिय-वेउविय-आहारसरीराणि
मज्झं। जहाकम विसेसाहियाणि । ५२२ |
१९६८७ तदो अंतोमहत्तं गतूण सुहुमणि गोद६७४ एत्थ अप्पाबह-सव्वत्थोवाणि
जीवपज्जत्तयाणं मरणजवमझं। ५३३ ओरालियसरीरस्स आणापाणभासा-मण णिव्वत्तिढाणाणि। ५२५ / ६८८ तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण बादर
णिगोदजीवपज्जत्तयाणं मरण - ६७५ वे उव्वियसरी रस्स आणापाण
जवमज्झं। भासा-मणणिव्वत्तिट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।
|६८९ तदो अंतोमुहत्तं गतूण सुहमणिगोद
पज्जत्तयाणं णिल्लेवट्ठाणाणि ६७६ आहारसरीरस्स आणापाण-भासा
आवलियाए असंखेज्जदिभागमणणिव्वत्तिट्ठाणाणि विसेसा
मेत्ताणि । हियाणि । ६७७ तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण तिण्ण
६९० तदो अतोमुहुत्तं गतूण बादरसरीराणं पिल्लेवणट्ठाणाणि आव
णिगोदपज्जत्तयाण णिल्लेवणलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । ५२६ ट्ठाणाणि आवलियाए असंखज्जदि६७८ ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीराणं
भागमेत्ताणि। जहाकमेण विसेसाहियाणि । ५२८ / ६९१ तम्हि चेव पत्तेयसरीरपज्जत्तयाणं
५२५ |
राण
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________________
परिसिट्राणि
पृ० सं०
सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० | सू० सं० सूत्राणि णिल्लेवणट्टाणाणि आवलियाए ७०६ तस्सेव बंधणिज्जस्स तत्थ इमाणि असंखेज्जदिभागमेत्ताणि। ५३६
चत्तारि अणुयोगद्दाराणि णाय६९२ एत्थ अप्पाबहुगं-सव्वत्थोवाणि
व्वाणि भवंति- वग्गणपरूवणा सुहुमणिगोदजीवपज्जत्तयाणं णिल्ले
वग्गणाणिरूवणा पदेसठ्ठदा वणट्ठाणाणि।
अप्पाबहए त्ति ।
५४१ ६९३ बादरणिगोदजीवपज्जतयाणं णिल्ले- । ७०७ वग्गणपरूवणदाए इमा एयदेसिया वणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ५३६
परमाणु पोग्गलदबवग्गणा णाम । ५४२ ६९४ तम्हि चेव पत्तेयसरीरपज्जत्तयाणं
७०८ इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्वणिल्लेवणाणिाण विसेसाहियाणि।५३७
वग्गणा णाम ।
५४२
७०९ एवं तिपदेसिय-चदपदेसिय-पंच६९५ तत्थ इमाणि पढमदाए आवासयाणि ।
पदेसिय-छप्पदेसिय-सत्तपदेसियहवंति।
अट्ठपदेसिय-णवपदेसिय-दसपदे६९६ तदो अंतोमुहुत्तं गंतुण सुहुम
सिय-संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जणिगोदजीवपज्जत्त पाणं समिला
पदेसिय-अणंतपदेसिय-अणंताणतजवमझ।
पदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा ६९८ तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण एइंदियस्स
णाम ।
५४२ जहणिया पज्जत्तणिवत्ती। ५३८ | ७१० तासिमर्थताणंतपदेसियपरमाणु६९९ तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सम्मच्छिमस्स । पोग्गलदव्ववग्गणाणमुवरिमाहार
जहगिया पज्जतणिव्वत्ती। ५३८ | सरीरदव्ववग्गणा णाम। ५४२ ७०० तदो अंतोमहत्तं गंतूण गब्भो- ७११ आहारसरीरदव्ववग्गणाणमुवरिवतियस्स जहणिया पज्जत्त
मगहणदव्ववग्गणा णाम। ५४२ णिवत्ती।
| ७१२ अगहणदब्ववग्गणाणमवरि तेया
दव्ववग्गणा णाम । ७०१ तदो दसवाससहस्साणि गंतुण
५४२ ओववादियस्स जहणिया पज्जत्त -
| ७१३ तेयादवग्गणाणमुवरि अगहण
दव्ववग्गणा णाम । णिवत्ती।
५४२ ७०२ तदो बावीसवाससहस्साणि गंतूण
| ७:४ अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि भासादव्ववग्गणा णाम ।
५४२ एइंदियस्स उक्कस्सिया पज्जत्त
| ७१५ भासादव्ववग्गणाणमुवरिमगहणणिवत्ती । ५३९ | दववग्गणा णाम ।
५४२ ७०३ तदो पुवकोडि गंतूण समुच्छिमस्स
| ७१६ अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि मणदबउक्कस्सिया पज्जत्तणिवत्ती । ५३९ | वगणा णाम ।।
५४३ ७०४ तदो तिणि पलिदोवमाणि
| ७१७ मणदव्ववग्गणाण मुवरिमगहणदव्वगब्भोवतियस्स उकस्सिया
वग्गणा णाम ।
५४३ पज्जत्तणिवत्ती।
५४० | ७१८ अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि कम्मइय७०५ तदो तेत्तीसं सागरोवमाणि
दव्ववग्गणा णाम। णा णामा
५४३ गतण ओववादियस्स उक्कस्सिया ७१९ वग्गणणिपरूवणदाए इमा एयपढेपज्जत्तणिवत्ती।
५४० । सियपरमाणुपोग्गलदव्वबग्गणा णाम
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________________
५४४
५४४
२६)
परिसिट्टाणि सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० किं गहणपाओग्गाओ किमगहण-
मधिच्छिदा तेयादव्ववग्गणं ण पाओग्गाओ।
पावदि ताणं दव्वाणमंतरे अगहण७२० अगहणपाओग्गाओ इमाओ एय
दव्ववग्गणा णाम ।
५४८ पदेसियसव्वपरमाणुपोग्गलदव्व
..! ७३४ अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि तेयावग्गणाओ।
दव्ववग्गणा णाम । ७२१ इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्व
५४८ ७३५ तेयादव्ववग्गणा णाम का। वग्गणा णाम किं गहणपाओग्गाओ
५४८ किमगहणपाओग्गाओ।
| ७३६ तेयादववग्गणा तेयासरीरस्स गहणं ५४४ पवत्तदि।
५४९ ७२२ अगहणपाओग्गाओ। ७२३ एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पंच
| ७३७ जाणि दव्वाणि घेत्तूण तेयासरीरपदेसिय छप्पदेसिय-सत्तपदेसिय
त्ताए परिणामेदूण परिणमंति जीवा अट्टपदेसिय-णवपदेसिय- दसपदेसिय
ताणि दव्वाणि तेजादव वग्गण। संखेज्जपदेसिय-असंखेज्जपदेसिय
णाम।
५४९ अणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्व- |७३८ तेजादव्ववग्गणाणमुवरिमगहणवग्गणा णाम किं गहणपाओग्गाओ
दव्ववग्गणा णाम ।
५४९ किमगहणपाओग्गाओ।
५४४ ७३९ अगहणदव्ववग्गणा णाम का। ५४९ ७२४ अगहणपाओग्गाओ ।
५४५ | ७४० अगहणइव्ववग्गणा तेजादव्वमवि ७२५ अणंताणतपदेसियपरमाणपोग्गल
च्छिदा भासादव्वं ण पावेदि ताणं दव्ववग्गणा णाम किं गहणपाओ
दव्वाणमंतरे अगहणदव्ववग्गणा ग्गाओ किमगहणपाओग्गाओ। ५४५
णाम।
५४९ ७२६ काओ चि गहणपाओग्गाओ काओ [७४१ अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि भासा चि अगहणपाओग्गाओ। ५४५ | दव्ववग्गणा णाम।
५५० ७२७ तासिमणंताणंतपदेसियपरमाणु
७४२ भासादव्ववग्गणा णाम का । पोग्गलदव्ववग्गणाणमुवरिमाहार- |७४३ भासादव्ववग्गणा च उविहाए दव्ववग्गणा णाम ।
भासाए गहणं पवत्तदि। ५५० ७२८ आहारदव्ववग्गणा णाम का। ५४६ | ७४४ सच्चभासाए मोसभासाए सच्चमोस७२९ आहारदव्ववग्गणं तिण्णं सरीराणं
भासाए असच्चमोसभासाए जाणि गहण पवत्तदि।
५४६ दव्वाणि घेत्तूण सच्चभासत्ताए ७३० ओरालिय-वेउन्विय-आहारसरीराणं । मोसभासत्ताए सच्चमोसभासत्ताए जाणि दव्वाणि घेत्तूण ओरालिय
असच्चमोसभासत्ताए परिणमेदूण वेउव्विय-आहारसरीरत्ताए परिणामे
णिस्सारंति जीवा ताणि भासादूण परिणमंति जीवा ताणि दवाणि
दव्ववग्गणा णाम।
५५० आहारदव्ववग्गणा णाम । ५४६ ७४५ भासादव्ववग्गणाणमुवरिमगहण७३१ आहारदव्ववग्गणाणमवरिगहण
दव्ववग्गणा णाम।
५५१ दव्ववग्गणा णाम।
५४७ | ७४६ अगहणदव्ववग्गणा णाम का। ५५१ ७३२ अगहणदव्ववग्गणा णाम का। ५४७,७४७ अगहणदव्ववग्गणा भासादव्व७३३ अगहणदव्ववग्गणा आहारदव्व
मधिच्छिदा मणदब्वं ण पावेदि
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________________
सूत्राणि
ताणं दव्वाणमंतरे अगहणदव्व
वग्गणा णाम ।
७४८ अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि मण
दव्ववग्गणा णाम ।
सू० सं०
परिसिद्वाणि
पृ० सं सु० सं
५५१
५५१
५५१
७४९ मणदव्ववग्गणा णाम का । ७५० मणदव्ववग्गणा चउव्विहस्स मणस्स गहणं पवत्तदि ।
इयदव्ववगणा णाम ।
७५६ कम्म झ्यदव्ववग्गणा णाम का । ७५७ कम्मइयदव्वग्गणा अट्ठविहस्स कम्मस्स गहणं पवत्तदि । ७५८ णाणावरणीयस्स दंसणावरणीयस्स
५५१
७५१ सच्चमणस्स मोसमणस्स सच्चमोसमणस्स असच्चमोतमणस्स जाणि दव्वाणि घेत्तूण सच्चमणत्ताए मोसमणत्ताए सच्च मोसमणत्ताए असच्च मोसमणत्ताए परिणामेदूण परिणमंति जीवा ताणि दव्वाणि
मणदव्ववग्गणा णाम ।
७५२ मणदव्ववग्गणाण मुवरिमगहण
दव्ववग्गणा णाम ।
७५३ अगहणदव्ववग्गणा णाम का ७५४ अगहणदव्वग्गणा (मण ) दव्व - मविच्छिदा कम्मइयदव्वं ण पावदि ताणं दव्त्रणमंतरे अगहणदव्ववग्गणा णाम ।
७५५ अगहणदव्ववग्गणाणमुवरि कम्म
५५१
५५२
५५२
५५२
५५२
५५३
५५३
णामस्स
वेणीयस्स मोहणीयस्स आउअस्स गोदस्स अंतराइयस्स जाणिदव्वाणि घेत्तूण णाणावरणीयत्ताए दंसणावरणीयत्ताए वेयणीयत्ताए मोहणीयत्ताए आउअत्ताए णामत्ताए गोदत्ताए अंतराइयत्ताए परिणामेण परिणमंति जीवा ताणि
दव्वाणि कम्मइयदव्ववग्गणा णाम ।५५३ Jain Educ७५९ पदेसवा - ओरालियसरी रदव्ववग्ग
सूत्राणि
ओ पदेसदा अणंताणंतपदेसियाओ ।
७६० पंचण्णाओ ।
७६१ पंचरसाओ ।
७६२ दुगंधाओ ।
७६३ अट्ठफासाओ ।
७६४ वेव्वियसरीरदव्ववग्गणाओ पदेस
७६५ पंचवण्णाओ |
७६६ पंचरसाओ ।
दाए अनंताणंतपदेसियाओ । ५५६
५५६
५५६
५५६
५५६
७६७ दुगंधाओ ।
७६८ अट्ठफासाओ |
७६९ आहारसरीरदव्ववग्गणाओ पदेस
दाए अनंताणंतपदेसियाओ ।
७७० पंचवण्णाओ ।
७७१ पंचरसाओ ।
७७२ दुगंधाओ ।
७७३ अट्टपासाओ ।
७७४ तेया सरीरदव्ववग्गणाओ पदेस
( २७
प० सं०
दाए अनंताणंतपदेसियाओ ।
७७५ पंचवण्णाओ
७७६ पंचरसाओ ।
५५४
५५४
५५५
For Private & Personal User
५५५
५५६
५५७
५५७
५५७
५५७
५५७
५५८
५५८
५५८
५५८
५५८
७७७ दोगंधाओ ।
७७८ चदुपासाओ |
७७९ भासा -मण- कम्मइयसरीरदव्वगाओ पाए अनंताणंतपदेसियाओ ।
७८० पंचवण्ण। ओ ।
७८१ पंचरसाओ ।
७८२ दुगंधाओ । ७८३ चदुपासाओ । ७८४ अप्पा बहुगं दुविहं-पदेसअप्पाबहुअं चेव ओगाहअप्पा बहुअं चेव । ७८५ पदे अप्पा बहुए त्ति सव्वत्थोवाओ ओरालियसरी रदव्ववग्गणाओ
सदा ।
५५९
५५९
५५९
५५९
५५९
५५९
५६०
w
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________________
२८)
परिसिट्ठाणि सू० सं० सूत्राणि
पृ० सं० सू० सं० सूत्राणि पृ० सं० ७८६ वेउव्वियसरीरदव्ववग्गणाओ पदे- । ७९२ भासादव्ववग्गणाओ ओगाहणाए सट्टदाए असंखेज्जगुणाओ। ५६१ असंखेज्जगुणाओ।
५६३ ७८७ आहाहसरीरदब्ववग्गणाओ पदे- ७९३ तेजासरीरदव्ववग्गणाओ ओगाह
सट्ठदाए असंखेज्जगुणाओ। ५६१ हणाए असंखेज्जगुणाओ। ५६३ ७८८ तेजासरीरदव्ववग्गणाओ पदेस- ७९४ आहारसरीरदव्ववग्गणाओ ओगाह
ट्ठदाए अणंतगुणाओ। ५६१ णाए असंखेज्जगुणाओ। ५६३ ७८९ भासा-मण-कम्मइयसरीरदव्ववग्गणाओ ७९५ वे उब्वियसरीरदव्ववग्गणाओ ओगा
पदेसट्टदाए अणंतगुणाओ। ५६२ हणाए असंखेज्जगुणाओ। ५६४ ७९० ओग्गाहणअप्पाबहुए त्ति सव्वत्थोवाओ | ७९६ ओरालियसरीरदव्ववग्गणाओ। कम्मइयसरीरदव्ववग्गणाओ
ओगाहणाए असंखेज्जगुणाओ। ५६४ ओगाहणाए।
५६२ | ७९७ जं तं बंधविहाणं तं चउबिह७९१ मणदव्ववग्गणाओ ओगाहणाए
पयडिबंधो टिदिबंधो अणुभागबंधो असंखेज्जगुणाओ।
५६३ । पदेसबंधो चेदि
५६४
० ० ० २ अवतरण.गाथा-सूची
क्रम
पृष्ठ ११७ ११७
अन्यत्र कहां धवला प्र० पु० पृ० ३१ जीवकाण्ड गा० ५९३ ( पाठभेद ) धवला प्र० पु० पृ. ३१
११७
गाथा १ अणु संखा संखगुणा २ अणुसंखासंखेज्जा ३ अवगयणिवारणटुं ४ आहारतेजभासा ५ इच्छं विरलिय दु ६ उत्तरगुणिदं इच्छं ७ एदेसिं गुणगारो ८ एयक्खेत्तोगाढं ९ औपश्लेषिकवैषयिका१० जत्थेव चरइ वालो ११ जियदु मरदु व जीवो १२ तिण्णिसदा छत्तीसा १३ तिण्णिसहस्सा सत्त१४ धुवखंधसांतराणं १५ पल्लासंखेज्जदिमो १६ बीजे जोणीभूदे १७ वियोजयति चासुभिः
११८ ४३९
गो० कर्मकाण्ड गा० १८५ (पाठभेद)
५०२
३६२ ३६२
मूलाचा० ५, १३२ प्रवचन० १७ ( पाठभेद ) गो० जीवकाण्ड गा० १२२ सर्वार्थ सिद्धि टिप्पण पृ० ५५
११८ २३२ गो० जीवकाण्ड गा० १८९
९० स्वयंभूस्तोत्र
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________________
९०
०
२३१
५०४
परिसिट्ठाणि
(२९) १८ सत्ता सव्वपयत्था
२३४ पच्चास्तिकाय गा०८ १९ सरवासे दु पदंते
९० मूलचा० ५, १३१ २० साहारण आहारो
४८७ गो० जीवकाण्ड गा० १९१ २१ सांतरणिरंतरेदर
११७ २२ सेडिअसंखेज्जदिमो
११८ २३ स्वयं ह्यहिंसा स्वयमेव
३ विशेष-वाक्य-संग्रह १ एत्थ सव्वे 'वा' सद्दा समुच्चयठे दडव्वा । २ प्रत्येकमात्मदेशा कवियवैरनन्तकैर्बद्धाः इति वचनात् । ३ यत एवकारकरणं ततोऽन्यत्रावधारणमिति वचनात् ।
२२५ ४ 'दु' सहस्स अवहारण?स संबंधादो।। ५ 'इदि ' सद्दो हेदुविवक्खाणमुववत्तीदो उरालमेव ओरालियमिदि सिद्धं ।
३२२ ६ 'स्त्रियो मूलमनर्थानाम् ' इत्यत्र ।
४९४ ४ न्यायोक्तियाँ १ यद्यस्य भावाभावानुविधानतो भवति तत्तस्येति वदन्ति तद्विद इति न्यायात् । २ नावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्तीति न्यायात् ।
४३८ ३ एकदेशविकृतमनन्यवदिति न्यायात ।
५०३ ३ समुदायेषु प्रवृत्ताः शब्दा अवयवेष्वपि वर्तन्ते इति न्यायात् ।
___५ ग्रन्थोल्लेख
कम्माणयोगद्दार १ जो सो थप्पो कम्मबंधो णाम यथा कम्मेति तहा णेयव्वं । २ कम्मबंधस्स चउसट्ठिभंगा जहा कम्माणुयोगद्दारे परूविदा तहा परूवेदव्वा ।
खुद्दाबंध १ एदेसि मग्गणट्ठाणाणं जहा खुद्दाबंधे परूवणा कदा तहा कायव्वा । २ एवं खुद्दाबंधएक्कारसअणुयोगद्दारं णेयव्वं । ३ एत्थ उद्देसे खुद्दाबंधस्स एक्कारसअणुयोगद्दाराणं परूवणा कायव्वा, अम्हेहि पुण __ गंथबहुत्तभएण ण कदा।
चूलियासुत्त १ खीणकसायचरिमसमए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तणिगोदाणं त्ति उवरि ___ भण्णमाणचूलियासुत्तादो। २ ओरालियवग्गणोगाहणाए बहुत्तं कुदो णव्वदे ? चूलियअप्पाबहुआदो।
जीवट्ठाणसुत्त १ असंखेज्जा लोगा त्ति जीवट्ठाणसुत्ते परूविदत्तादो।
२१४ २ ण च जीवट्ठाणसुत्तेण सह विरोहो, तत्थ ओरालियसरीरे पज्जत्ते संते चेव संजमो उप्पज्जदि ण तम्मि अपज्जत्ते इदि मणम्मि कादूण अप्पज्जत्तजीवसमासपडिसेहादो। ४२६
तच्चत्थ ( तत्वार्थसूत्र ) तच्चत्थे जं जीवभावस्स परिणामियत्तं परूविदं तं पाणधारणत्तं पडुच्च ण परूविदं । १३
परियम्म १ परियम्मे परमाणू अपदेसो त्ति वुत्तो।
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________________
३० )
परिसिद्वाणि
२ असंखेज्जलोगमेत्तं कुदो णव्वदे ? परियम्मादो ।
३ संपहि पलिदोवमादो हेट्ठा असंखेज्जाणि वग्गणद्वाणाणि ओसरिदूण सूचियंगुलच्छेदणाणमुवरि तस्सेव उवरिमवग्गादो हेट्ठा घणलोगच्छेदणया होति त्ति पम्मे भणिद ।
बाहिरवग्गणा
१ तं कथं परिच्छिज्जदित्ति वृत्ते बाहिरवग्गणाए पंचण्णं सरीराणं वृत्तपदेसप्पा बहुआ दो सुत्तादो ।
२ बाहिरवग्गणाए पंचण्णं सरीराणं विस्सासुवचयस्स भणिदप्पा बहुगसुत्तादो | ३ एदमप्पा बहुगं बाहिरवग्गणाए पुधभूदं ति काऊण के वि आइरिया जीवसंबद्धपंचणं सरीराणं विस्सासुवचयस्सुवरि परूवेंति तण्ण घडदे, जहण्णवत्तेयसरीरवग्गणादो उक्करसपत्तेयसरी रवग्गणाए अनंतगुणत्तप्पसंगादो |
४ एदं सुतं बाहिरवग्गणाए ण होदि, जहण्णबादरणिगोदवग्गणाए सामित्तपदुपायादो ?
भावविहाण
१ तेसि परूवणाए कीरमाणाए जहा भावविहाणे परूविदं तहा परूवेदव्वं । महाकम्पयडिपाहुड
१ ण ताव अजाणतेण ण कदा, चउवीसअणुयोगद्दारा सरू व महाकम्मपयडिपाहुडपारयस्स भूदबलिभयवंतस्स तदपरिणाणविरोहादो |
महाबंध
१ एदेसि चदुष्णं बंधाणं विहाणं भूदबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिद ति अम्हेहि एत्थ ण लिहिदं । तदो सयले महाबंधे एत्थ परूविदे बंधविहाणं समप्पदि ।
वग्गणासुत्त
१ पुणो एवंविहकम्मइयसरी राणा गुणहाणि सलागाहिती तेजइयसरीरस्स णाणागुणहाणिस लागाओ असंखेज्जगुणाओ त्ति वग्गणसुत्ते भणिदं ।
arrafवहाण
१ से वेयणदव्वविहाणेण भणिदविहाणं संभलिदेण वत्तव्वं ।
२ जहा वेयणदव्वविहाणेण सामित्तपरूवणा कदा तहा एत्थ वि णिरवसेसा कायव्वा, विसेसाभावादो |
वेणा
१ अथवा जहा वेयणाए णाणागुणहाणिसलागाणं गुणहाणीए च परूवणा कदा तहा वि कायव्वा ।
१ के वित्तपोत्थए एसो पाठो |
सुत्तकार
सुत्तपोत्थिय
६ ऐतिहासिक - नामसूची
१३४
भूदबलिभयवंत ) भूदबलिभडारय
३७४
३७५
७३
७३
४५७
४६१
४३४
१३४
५६४
३८५
१८४
४२२
३५१
१२७
१३४
५४१, ५६४
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________________
३६७
३५
३२६
४३६
७ पारिभाषिक शब्द-सूची अविरदत्त
१२ आहार-तेया-कम्मइयअविवाग
१०
सरीरबंध अक्ख अविवागपञ्च इय
आहार-तेयासरीरबंध ४३ अगहणदव्व वग्गणा ५९,६०
अजीवभावबंध २३, २५ आहारदव्ववग्गणा ५४६, ६२,६३,५४८ अविवागपच्चइय जीव
५४७, ५४९, ५५१, ५५२ अगहणपाओग्ग ५४३ भावबंध १०, १२
आहारय ३२६, ३२७ अग्ग असम्भावट्ठवणबंध ५, ६
आहारसरीर ७८, ३२६ अग्गट्रिदिविसेस
असरीर २३८, २३९ अजीवभावबंध २२,२३ असंजद
इत्थिवेदभाव अणंतरोवणिधा
असिद्धत्त
१३ अणादियसरीरबंध
३२५ असुह
३२८
इंदा उह अण्णाण १२ अंगमल
इंदियपज्जत्ति अणिस्सरणप्पय
५२७ ३२८ अंडर
८६ अणुग्गहण
२२८ असंजमबहुलदा अणुच्छेद
उक्कस्सपद
३९२
आ अणुपेहण
उक्कस्सपदमीमांसा ३९७ आगम अत्थ
उक्कस्ससांतरवक्कआगमदवबंध अत्थसम आगमदव्ववग्गणा
मणकाल ५२
४७६ अपढम-अचरिमसमयआगमभावबंध
उक्का
७, ९ वक्कंत ४८२
उप्पाइयछेदणा आगमभाववग्गणा अप्पडिहय ३२७
उराल आण २२६
३२२, ३२३ अप्पमाद
उवसमियअविवागपच्चआणा
३२६ अप्पाबहुअ ३२२
इयजीवभावबंध आणाकणिट्ठदा ३२६
उवसमियचारित्त अप्पाबहुगपरूवणा ५०
१५ आणावाण
२२६ अप्रदेश ५४
उवसमिय सम्मत्त १५ आदेस
२३७
उवसंतकसायबीयरायअब्भ
आधार
५०२ अभव आभिणिबोहियणाणी २०
छदुमत्थ अयण आयारधर
उवसंतकोह अरूवी आलावणबंध ३७, ३८,
उवसंतदोस अल्लीवणबंध ३७, ३९
उवसंतमाण
३९, ४० ४०, ४१
उवसंतमाय आवास अवक्कमणकाल ४७९ आहार
उवसंतराग
२२६,३३९ अवहार आहार-आहारसरीरबंध ४३
उवसंतलोह अवाण
आहार-कम्मइयअविभागपडिच्छेद ४३१ । सरीरबंध
इंदियलद्धि
२८
३२
२२६
२०
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________________
mrr m
२३८
६
३८
१६
७८
३२)
परिसिवाणि एयपदेसियपोग्गल| पम्म-सुक्कलेस्सा
गणपच्चासत्तिक दव्ववगणा
कुडु
४० गोवरपीड एयपदेसियवग्गणा
कूड
४९५ गोवुर १२१, १२२ केवलणाण एयबंधण केवलदसण
घादखुद्दाभवग्गहण ३६२ कोध-माण-माया
घोससम ओघ
२३७ लोहभाव ओरालिय ३२३
च उग्गइणिगोद
२३६ ओरालिय ओरालिय
खइयअविवागपच्चइय- चरिदियलद्धि सरीरबंध
४२ जीवभावबंध १५, १६ चदुसरीर ओरालिय-कम्मइयखइयचारित्त
चित्तकम्म सरीरबंध खइयदाणलद्धि
चंद ओरालय-तेयासरीरबंध ४२ खइयपरिभोगलद्धि
चूलिया ओरालिय-तेया-कम्मइय- खइय भोगलद्धि सरीरबंध
खइयलाहलद्धि ओरालियसरीर
छट्राण खइयविरियलद्धि
४३४ ओरालियसरीरकायत्त २४२
छवि
४०१ खइयसम्मत
४०१ ओरालियसरीरट्ठाण
खंध खीणकसायवीदराग
छेदणा ४३२, ४३३
४३५, ४३६ क
छदुमत्थ कडय
४०
खीणकोह कणय खीणदोस
जवमझ ५०, ४०२, ५०२ कदजुम्म
१४७ खीणमाय
५०३
जहण्णपद खीणमोह
३९२ ४३३
जहण्णपदमीमांसा कम्मइय
३९७ खीणराग ३२८
जहण्णुक्कस्सपद खीणलोह कम्मइय-कम्मइय
३९२
जाण खेत्त सरीरबंध
४४ खेत्तवग्गणा
जिद कम्मइयदव्ववग्गणा
जीवत्त ६३, ५५३
जीवण कम्मइयसरीर ७८ गड्डी
३८ जीवभाव कम्मबंध
गणी
२२ जीवपदेससण्णा कम्मवग्गणा ५२ | गहणपाओग्ग
जीवभावबंध कलिओज
१४७ गंथ कार्मण
३२९
गंथसम कार्मणशरीर ३२८, ३२९
गिल्ली काल गिह
ट्रवणबंध कालवग्गणा ५२ गिहकम्म
ट्रवणवग्गणा
५२ किण्ण-णील-का उ-तेउ
३२१ | 8वणा
४३५
कम
rurr
.wmum or
-1३१
५४३
जुग
३८
टंक
४९५
गुणगार
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--------------------------------------------------------------------------
________________
द्विदणाण
ठवणबंध
ठवणसद्द
णाणासेडि णामच्छेदणा
णामणिरुत्ती
णामबंध
णामवग्गणा
णामसम
णिउण
भ
णिगोद
णिगोदसरी
णिच्चणिगोद
5
ण
णिण्ह
णिरइंदिय
णिरय
णिरयपत्थड
णिरंतरवक्कमणकाल
तडच्छेद
विसेस
णिरंत रसमयवक्क्रमण
काल
८
त
६
६
११
१३४
४३५
३२१
४
५२
८
४९५
४९५
४७८
आगमदव्वबंध णोआगमदव्ववग्गणा
आगमभावबंध गोआगमभाववग्गणा ५२ गोआगमवग्गणा
५२
३२७
८५, ४९२ | तेया- तेयासरीरबंध
८६
२३६
३२७
४९५
परिसिट्टाणि
तदुभयपच्चइय अजीवभावबंध २३, २६, २७
तदुभयपच्पइय जीव
भावबंध
तब्भवत्थ
१०, १८, १९
३३२
तव्वदिरित्तदव्ववग्गणा ५२
२३९
तिरिक्ख
तिरिक्खभाव
तिसरी
तीइं दिलद्धि
तेजइय
४३६
२०
३२७
३२७
१४७
तेयाम्मइयसरीरबंध ४४
४४
तेजस्
तेजोज
४७४, ४७५ दविय
पिल्लेवण
५०७
पिल्लेवणट्ठाण
५२७
णिव्वत्ति
३६३
३५८
णिव्वत्तिट्ठाण णिसेयखुद्दाभवग्गहण ३६२ द्विमात्रा
दिसादाह
णिसेयपरूवणा
इयभाव
यादव्ववग्गणा ६०, ५४९
७८
३२८
३९
यासरी
तैजसशरीर
तोरण
थव
,
दव्ववग्गणा
दव्वबंध
दंतकम्म
३२१ दुपदेसि परमाणु
११
२८
५२
९
द
पोग्गलदव्ववग्गणा
दुपदेसि वग्गणा
देवभाव
देसपच्चासत्तिकय
दोस
११
२३८
ध
धम्मकहा धुववखंधदव्ववग्गणा
९
९
४३५
५२
२७
६
३५
३२
५५
१२२
११
२७
११
९
६३
ध्रुवसुण्णदव्ववग्गणा
८३, ११२, ११६
६३
३५
ध्रुवसुण्णवग्गण्णा
धूमके
निक्षेप
न
प
पओअबंध पओगपरिणद
पागार
पासाद
पुच्छण
पुरिसवेदभाव
पुलविय
पोग्गल
( ३३
परंपरोवणिधा
परिजिद
परिणदभाव
५१
वण्णादि )
पज्जत्तणिव्वत्ति
पडिच्छण
पढमतिभाग
पढमसमय तब्भवत्थ
पणभावच्छेदणा पत्तेयसरीर
२२५
पत्तेयसरी रदव्ववग्गणा
६५
पदमीमांसा
५०, ३२२
पदेसछेदणा ४३६ पदेस माणा गम ३२१ पबंधणकाल
४८०
परमाणु
५४
३७
२३, २४
परित्त अपरित्तवग्गणा
परिट्टण
पस्समाणकाल
पंचिदियलद्धि
परमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा
३५२ ९
५०१, ५०२
३३२
४३६
१२१
४९
A
१८
५८
९
१४३
२०
४०
३९
९
११
८६
३६
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________________
४९५
४८५
४९५
mmmmmm
KW
बंध
N
मेह
that we start alla
ख्वी
२५
परिसिट्टाणि पोत्तकम्म
भावबंध
२३ प्रदेशविरच मज्झिल्लतिभाग ५०२
विमाणपत्थड प्रबन्धन मणदव्ववग्गणा ६२,
विमाणिदिय प्रबन्धनकाल
५५१, ५५२ विमादा प्रभा मणुस्सभाव
विरइ प्ररोहण
३२८ मदिअण्णाणी २० विरच
३५२ महाखंधट्ठाण
विवाग
१० फडुय
महाखंधदव्ववग्गणा ११७ विवागपच्चइय जीवभावफड्डयंतर
मादा ३०, ३२
१०,११ फिरिक्की
मिच्छत्त
१२ विसम
३३ विसरीर
२३७ बन्धन मोह
विस्ससापरिणदओगाबन्धविधान
हणा
विस्ससापरिणदखंध २६ बन्ध १, २, ३० | रह
विस्ससापरिणदखंधदेस २६ बन्धणगुण
४३५ राग बन्धणिज्ज १, २, ४८, ९६
विस्ससापरिणदखधपदेस २६
विस्ससापरिणदगदि धंधय
२५ २
विस्ससापरिणदगंध बंधविहाण लेणकम्म
विस्ससापरिणदफास बादरजम्म
१४७ लेप्पकम्म
विस्ससापरिणदरस बादरणिगोददव्ववग्गणा ८४
व
विस्ससापरिणदवण्ण बाहरियवग्गणा २२३, २२४ वक्कमणकालविसेस ४७६ बीज
विस्ससापरिणदसद्द २५ ३२०
वग्गणणयविभासणदा ५२ बुद्धभाव १८
विस्ससापरिणदसंठाण २६ वग्गणणिक्खेव
विस्ससाबंध वग्गणदव्वसमदाहार भव
४३० ४२५
विस्सासुवचय
४९, ५३, ५४ भवग्गहण
विस्सासुवचयपरूवणदा ३६२ वग्गणपरूवणा भवण
विहंगणाणी वग्गणा भव्वजीव वग्गणादेस
वेइंदियलद्धि भावकलङ्क २३४ वराडय
वेउव्विय
३२३ भावकलङ्कल २३४ वल्लरिच्छेद
वे उव्विय-कम्मइयभाववग्गणा ५२ वाचक
सरीरबंध भासादव्ववग्गणा ६१, ५५० वाचना
वेउविय-तेया-कम्मइयभित्तिकम्म
सरीरबंध वायणा भेद ३०, १२१, १२९ वायणोवगद
वेउव्विय-तेयासरीरबंध ४३ भेदजणिद १३४ विज्जू
वेउव्विय-वेउवियभेदसंघाद
विमाण ४९५ सरीरबंध
४३ भेंडकम्म
विवागपच्चइय अजीव- वेउव्वियसरीय
२५
२५
४९५
४३
१२१
७८
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________________
परिसिटाणि
१२१ १३४
सम
विसेस
संदण
~
संभव
me
१३६
सव्वदुक्खाणमंतयडभाव १० । विसेस
४७७ सद्भावस्थापना संघाद
सांतरवक्कमणजहण्णसब्भावट्ठवणबंध संघादज
काल संजम
सांतरसमयवक्कमणकाल ४७४ समगं वक्त २२९ । संजोग
सांतरसमयवक्कमणकालसमिला ५०३ संज्झा
४७५ समिलामज्झ ५०३
सिद्ध सम्मत्तलद्धि
२१ संबंध
सिद्धभाव सम्मामिच्छत्तलद्धि २१
६७ सिविया सयड
३८
संसिलेसबंध ३७, ४१ सुण्ण सरीर ४३४, ४३५ साडिय
४१ सरीरणिव्वत्तिट्ठाण ५१६ सादियविस्ससाबंध
सुत्तसम सरीरपज्जत्ति ५२७ सादियसरीरबंध
सुदअण्णाणी सरीरबंध
३७ साहारणजीव २२७, ४८७ सरीरबंधणगुणछेदणा ४३६
साहारणलक्खण
२२६
सुह सरीरविस्सासुवचयसाहारणसरीर
सुहमणिगोदवग्गणा ११३
२२५ परूवणा २२४ सांतरणिरंतरदव्व
सेलकम्म सरीरिबंध ३७, ४१, ४४ वग्गणा
स्थित सरीरिसरीरपरूवणा २२४ सांतरवक्कमणकाल ४४७ सरीरी ४५, २२४ | सांतरवक्कमणकाल
८, ९, ९०
सुत्त
३२८
| हिंसा
! *
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________________
0 धवला षट्वंडागम 0
पुस्तक क्रमांक
विषय
सतप्ररूपणा-१
सतप्ररूपणा-२
द्रव्यप्रमाणानुगम
क्षेत्र-स्पर्शन-कालानुगम
३-४.५
अंतर-भाव-अल्पबहुत्व चूलिका
क्षुद्रकबंध
बंधस्वामित्व ( वेदनाखंड ) कृतिअनुयोगद्वारम् ( वेदनानिक्षेप-वेदनानय-वेदनाद्रव्य )
वेदनाक्षेत्र वेदनाकाल
( वेदना भाव विधान ) ( वर्गणाखंड ) स्पर्शकर्म प्रकृति अनुयोग ( वर्गणाखंड ) बंधन अनुयोग ( वर्गणाखंड ) निबंधनादि ४ अनुयोग ( वर्गणाखंड ) मोक्षादि १४ अनुयोग
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