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________________ केवली जिनके पाया जाता है । इन आठ प्रकारके जीवोंको छोडकर शेष जितने संसारी जीव है उनका शरीर या तो निगोद जीवोंसे प्रतिष्ठित होने के कारण सप्रतिष्ठित प्रत्येकरूप है या स्वयं निगोदरूप है। मात्र जो प्रत्येक वनस्पति निगोदरहित होती है वह इसका अपवाद है। यहां यह प्रश्न उठता है कि जब मनुष्योंके शरीर अन्य अवस्थाओं में निगोदोंसे प्रतिष्ठित होते हैं तब ऐसी अवस्थामें आहारकशरीरी, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जीवों के शरीर निगोदरहित कैसे हो सकते हैं ? समाधान यह है कि प्रमत्तसंयत जीवके जो औदारिकशरीर होता है वह तो निगोदोंसे सप्रतिष्ठित ही होता है। वहां जो आहारकशरीर उत्पन्न होता है वह अवश्य ही निगोदराशिसे अप्रतिष्ठित होने के कारण केवल प्रत्येकरूप होता है। इसी प्रकार जब यह जीव बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है तो वहां उसके शरीरमें जितनी निगोदराशि होती है उसका क्रमसे अभाव होता जाता है और बारहवें गुणस्थानके अंतिम समयमें निगोदराशि और क्रमराशिका पुरी तरहसे अभाव होकर सयोगिकेवली जीवका शरीर केवल प्रत्येकरूप हो जाता है। उसके बाद अयोगिकेवली जीवके यही शरीर रहता है, इससिए यह भी प्रत्येकरूप होता है। यह जघन्य प्रत्येकशरीर वर्गणा क्षपितकशि विधिसे आये हए अयोगिकेवली अंतिम समयमें होती है और उत्कृष्ट प्रत्येकशरीरवर्गणा महावनके दाहादिके समय एकबंधनबद्ध अग्निकायिक जीवोंके होती है। यहां यद्यपि महावनके दाहके समय जितने अगि जीव होते हैं उनका अपना अपना शरीर अलग अलग ही होता है, पर वे सब जीव और उन शरीर परस्पर संयुक्त रहते हैं, इसलिए उन सबकी एक वर्गणा मानी गई है। यहां एक प्रश्न यह होता है कि विग्रहगतिमें स्थित जो बादर निगोद और सूक्ष्म निगोद जीव होते हैं उन्हें प्रत्येकशरोर मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि, वहां उन जीवोंका एक शरीर न होनेसे वे सब अलग अलग ही माने जाने चाहिए। इस शकाका समाधान यह है कि वहां भी उनके साधारण नोकर्मका उदय रहता है और इसलिए वे अनंत होते हुए भी एकबंधनबद्ध ही होते हैं, अतः उन्हें प्रत्येकशरीर नहीं माना जा सकता। यह कहना कि विग्रहगतिमें शरीरनामकर्मका उदय देखा जाता है, इसलिए जिनके इन कर्मोंका उदय होता है उन्हें निगोद जीव मानने में कोई बाधा नहीं आती। तथा इनके अतिरिक्त जो जीव होते हैं, चाहे उन्होंने शरीर ग्रहण किया हो और चाहे शरीर ग्रहण न किया हो. वे सब प्रत्येकशरीर जीव कहलाते हैं । इस प्रकार प्रत्येकशरीरवर्गणा किन किन जीवोंके किस प्रकार होती है इसका विचार किया। उक्त चार वर्गणाओंमें दूसरी वर्गणा बादरनिगोदवर्गणा है। यह वर्गणा क्षपित कशिविधिसे आये हुए क्षीणकषाय जीवके अंतिम समयमें होती है, क्योंकि, एक तो जो क्षपितकशि विधिसे आया हुआ जीव होता है उसके कर्म और नोकर्मका सञ्चय उत्तरोत्तर न्यन न्यन होता जाता है। दूसरे ऐसा नियम है कि क्षपकवेणि पर आरोहण करनेवाले जीवके विशुद्धिवश ऐसी योग्यता उन्पन्न हो जाती है जिससे उस जीवके क्षीणकषाय गणस्थान में पहँचने पर उसके प्रथम समयमें शरीरस्थित अनंत बादरनिगोद जीव मरते है इस प्रकार क्षीणकषायके प्रथम समयसे लेकर आवलिपृथकत्बप्रमाण काल जाने तक उत्तरोत्तर विशेष अधिक विशेष अधिक बाद रनिगोद जीव मरते हैं। उससे आगे क्षीणकषायके काल में आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल शेष रहने तक संख्यातभाग अधिक संख्यातभाग अधिक जीव मरते हैं। उससे अगले समय में असंख्यात गुणे जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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