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________________ विषय सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके कहाँ से कितना जाकर कितने निर्वृत्तिस्थान होते हैं इस बातका निर्देश बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके कहाँसे कितना जाकर कितने निर्वृत्तिस्थान होते हैं इस बातका निर्देश विषय अग्रहणप्रायोग्यका अर्थ आहारद्रव्यवर्गणाका कार्य निर्देश अग्रहणद्रव्यवर्गणा का स्वरूप निर्देश तैजसशरीर द्रव्यवणाका कार्य निर्देश अग्रहणद्रव्यवर्गणाका स्वरूप निर्देश ५३१ | भाषा द्रव्यवर्गणाका कार्य निर्देश अग्रहणद्रव्यवर्गणा का स्वरूप निर्देश मनोद्रव्यवर्गणाका कार्य निर्देश अग्रहणद्रव्यवर्गणाका स्वरूप निर्देश कार्मणद्रव्यवर्गणाका कार्य निर्देश पृष्ठ ( २४ ) सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंका कहाँसे कितना काल जाने पर आयुयवमध्य होता है इस बातका निर्देश Jain Education International ५४३ ५४६ ५४८ ५४९ ५४९ ५५० ५५१ ५५१ ५५२ ५५३ अपने अपने अवान्तर कार्यको करनेवाली ये ५३३ | वर्गणायें अलग अलग हैं इस बातका निर्देश ५३० बादर निगोद पर्याप्त जीवोंका कहांसे कितना काल जाने पर आयुयवमध्य होता है इस बातका निर्देश सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंका कहाँसे कितना काल जाने पर मरणयवमध्य होता है इस बातका निर्देश ५३२ बादर निगोद पर्याप्त जीवोंका कहाँसे कितना काल जाने पर मरणयवमध्य होता है इस बातका निर्देश सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवों के कहांसे कितना काल जानेपर कितने निर्लेपनस्थान होते हैं इस बातका निर्देश बादर निगोद पर्याप्त जीवोंके कहाँ से कितना काल जाने पर कितने निर्लेपनस्थान होते हैं इस बातका निर्देश ५३५ ५३५ ५३६ ५३६ वहीं पर प्रत्येक शरीर पर्याप्तकोंके कितने निर्लेपनस्थान होते हैं इस बातका निर्देश इस विषय में अल्पबहुत्व वहाँ एकेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रियसंबंधी आवश्यकों का निर्देश बन्धनी वर्गणाओंके प्रसंगसे चार अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश वर्गणाप्ररूपणा वर्गणानिरूपणा के प्रसंगसे कौन वर्गणा ग्रहणप्रायोग्य है और कौन वर्गणा ग्रहणप्रायोग्य नहीं है इस बातका निर्देश ग्रहणप्रायोग्यका अर्थ औदारिकशरीर वर्गणाओंके प्रदेशार्थताका ५३३ व वर्णादिकका विचार ५५४ वैक्रियिकशरीरवर्गणाओंके प्रदेशार्थताका व वर्णादिकका विचार ५५६ आहारकशरीरवर्गगाओंके प्रदेशार्थता व वर्णादिकका विचार आहारकशरीर धवलवर्णवाला होता है। फिर पाँच वर्णवाला क्यों कहा है इस प्रश्नका समाधान इसी प्रकार पाँच रस आदिवाला कहने के कारणका निर्देश तैजसशरीरवर्गणाकी प्रदेशार्थता व वर्णादिकका विचार ५५८ भाषा, मन और कार्मणवर्गणाकी प्रदेशार्थता व वर्णादिकका विचार प्रकृतमें दो प्रकारके अल्पबहुत्व कहने की प्रतिज्ञा प्रदेश अल्पबहुत्व विचार ५३४ ५३७ ५४१ ५४२ पृष्ठ अवगाहना अल्पबहुत्व विचार बन्ध विधान ५५३ For Private & Personal Use Only ५५७ ५५७ ५५९ ५५९ ५६० ५६२ बन्धविधानके चार भेद ५४३ | बन्धविधानका विशेष व्याख्यान महाबंध में ५४३ | किया है इस बातकी सूचना ५६४ ५६४ www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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