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सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदो छक्खंडागमो
सिरि-वीरसेणाइरिय विरइय-धवला टीका-समण्णिदो
तस्स पंचमे खंडे वग्गणाए
बधणाणुयोगटार
सिद्धे विउद्धसयले अज्झत्थबहित्थबंधणुम्मवके ।
भत्तीए अहं गमिउं पुणो पुणो बंधणं वोच्छं ॥१॥ बंधणे ति चउन्विहा कमविभासा -- बंधो बंधगा बंधणिज्ज बंधविहाणे ति ॥१॥
बंधो बंधणं, तेण बंधो सिद्धो। बध्नातीति बन्धनः । तदो बंधगाणं गहणं। बध्यत इति कर्मसाधने समाश्रीयमाणे बंधणिज्जस्स गहणं । बध्यते अनेनेति करणसाधने
__सब पदार्थोंका साक्षात्कार करनेवाले और भीतर तथा बाहरके सब बन्धनोंसे मुक्त हुए सिद्धोंको बार बार भक्तिपूर्वक नमस्कार करके मैं ( ग्रन्थकर्ता ) बन्धननामक अनयोगद्वारका कथन करता हूं ॥१॥
__ 'बन्धन' इस अनुयोगद्वारमें बन्धनको क्रमसे चार प्रकारको विभाषा है-- बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान ॥ १॥
बँधना इसका नाम बंधन हैं, इससे बंध की सिद्धि होती है। जो बाँधता है वह बंधन है, इससे बंधकका ग्रहण होता है। 'जो बाँधा जाता है ' इस प्रकार कर्मसाधनका आश्रय करनेपर बंधन शब्दसे बधनीयका ग्रहण होता है । जिसके द्वारा बाँधा जाता है। इस प्रकार करण
४ ताप्रती 'कम्मविभासा ' इति पाठः ।
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