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________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड शब्दनिष्पत्तौ सत्यां बनधिवधानोपलब्धिः । तेण बंधणस्स चउन्विहा चेव कमविभासा होदि । दव्वस्स दवेण दव-भावाणं वा जो संजोगो समवाओ वा सो बंधो णाम । बंधस्स दव-भावभेदभिण्णस्स जे कत्तारा ते बंधया णाम । बंधपाओग्गपोंग्गलदवं बंधणिज्जं णाम । पडि-दिदि-अणुभाग पदेसभेदभिण्णा बंधवियप्पा बंधविहाणं णाम। एदेसु चउसु बंधणेसु ताव बंधपरूवण?मुत्तरसुत्तं भणदि ।। ___जो सो बंधो णाम सो चउन्विहो-णामबंधो ट्ठवणबंधो दवबंधो भावबंधो चेदि ॥२॥ बंधणयविभासणवाए को गओ के बंधे इच्छदि ॥ ३॥ णिक्खेवं काऊण तदपरूवणं मोत्तण बंधणयविभासणा किमळं कीरदे?ण एस दोसो, अणवगयणयसरूवस्स भावजीवस्स मिक्खेवट्ठपरूवणाए किज्जंतीए अवुत्ततुल्लत्तप्पसंगादो अण्णाणविणासणठें परूवणा कीरदेोजदि सा तंण कुणइ तोसा किफला साधनमें बन्धन शब्दकी सिद्धि करनेपर उससे बन्धविधानका ग्रहण होता है । इसलिये बन्धनका विशेष व्याख्यान क्रमसे चार प्रकारका ही होता है । विशेषार्थ- यहां व्युत्पत्ति पूर्वक 'बन्धन' के चार भेद किये गये हैं- बन्ध, बन्धक बन्धनीय और बन्धविधान । कोई किसीसे बंधता है इससे बन्धकी सिद्धि की गई है। जो बाँधता है वह बन्धक है, और जो बाँधता है वह बन्धनीय है। इससे बन्धक और बन्धनीयकी सिद्धि की गई है । जब कोई वस्तु बधती है तो वह कितने प्रकारसे बंधती है, इसके द्वारा बन्धविधानकी सिद्धि की गई है । इस प्रकार बन्धनके चार भेद ही हो सकते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। द्रव्यका द्रव्यके साथ तथा द्रव्य और भावका क्रमसे जो संयोग और समवाय होता है वह बन्ध कहलाता है । द्रव्य और भावके भेदसे भिन्न दो प्रकारके बन्धके जो कर्ता हैं वे बन्धक कहलाते हैं । बन्धके योग्य पुद्गल द्रव्य बन्धनीय कहा जाता है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे भेदको प्राप्त हुए बन्धके भेदोंको बन्धविधान कहते हैं। इन चार प्रकारके बन्धनों में से सर्व प्रथम बन्धका कथन करने के लिय आगेका सूत्र कहते हैं - बन्धके चार भेद है- नामबन्ध, स्थापनाबन्ध, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध ।। २॥ बन्धका नयको अपेक्षा विशेष विचार करनेपर कौन नय किन बन्धोंको स्वीकार करता है ।। ३ ॥ शंका- निक्षेपका निर्देश करने के बाद उसका निरूपण करना था, किन्तु वैसा न करके पहले बन्धनका नयकी अपेक्षा विशेष विचार किसलिये किया जाता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, नयके स्वरूपको समझे विना भव्योंको निक्षेपका कथन करनेपर वह अनुक्तके समान प्राप्त होता है, इसलिये अजानकाविनाश करनेके लिए पहले बन्धनका नयकी अपेक्षा विशेष विचार किया गया है। यदि वह अज्ञानका विनाश न करे मप्रतिपाठोऽयम् | अ-आ- का-ताप्रतिषु 'अण्णोण्णविणासणटुं ' इति पाठ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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