SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधणाणुयोगद्दारे बंधणणयविभासणदा होज्ज । जदि एवं, तो बंधणयविभासणा चेव पुवं किण्ण परूविदा ? ण, णिक्खेवे अणुद्दिठे संते तमाधारं काऊण भण्णमाणणयविभासणाणुववत्तीदो । तम्हा णिक्खेव काऊण पच्छा बंधणयविभासणा कोरदे। णेगम-ववहार-संगहा सव्वे बंधे ॥ ४ ॥ णेगम-ववहार-संगहणया सव्वे बंधे इच्छंति; तेसि विसए चदुण्णमेदेसि संभवादो। सुद्धसंगहणए चदुण्णमेदेसि णिक्खेवाणं संभवो णस्थि ति ण वोत्तुं जुत्तं; असुद्धसंगहमस्सिदूणेदेसि णिक्खेवाणमवलंभादो । दवट्रिएसु एदेसु णएसु कधं भावणिक्खेवो लब्भइ ? ण, वंजणपज्जायमस्सिदूण भावबंधोवलंभादो। उजुसुदो ट्ठवणबंधं णेच्छदि ॥ ५॥ कुदो ? तत्थ भावाणं सरिसत्ताभावादो । ण च संकप्पवसेण भावो भावंतरं पडिवज्जदि; एगत्थंभम्मि संकप्पवसेण तिहुवणप्पवेसप्पसंगादो । ण च एवं, तिहुवणभावाणुवलंभादो। सद्दणओ णामबंघे भावबंधं च इच्छदि ॥ ६ ॥ तो उसका और क्या फल हो सकता है ? शंका-यदि ऐसा है तो पहले बन्धका नयकी अपेक्षा ही विशेष विचार क्यों नहीं किया? समाधान-नहीं, क्योंकि, निक्षेपका कथन किये बिना उसे आधार बनाकर नयकी अपेक्षा विशेष व्याख्यान करना नहीं बन सकता, इसलिये निक्षेपका निर्देश करनेके बाद ही बन्धका नयकी अपेक्षा विशेष व्याख्यान किया है। नैगम, व्यवहार और संग्रह नय सब बन्धोंको स्वीकार करते हैं ॥ ४ ॥ नैगमनय, व्यवहारनय और संग्रहनय सब बन्धोंको स्वीकार करते हैं; क्योंकि, इनके विषयरूपसे ये चारों बन्ध सम्भव हैं । यदि कहा जाय कि शुद्ध संग्रहनयमें ये चारों निक्षेप सम्भव नहीं हैं, सो ऐसा कहना ठीक नहीं है ; क्योंकि, अशुद्ध संग्रहनयकी अपेक्षा ये सब निक्षेप उसके विषय बन जाते हैं । शंका-ये तीनों द्रव्याथिक नय हैं, इसलिये इनके विषयरूपसे भावनिक्षेप कैसे प्राप्त हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, व्यञ्जनपर्यायकी अपेक्षा भावबन्ध इनका विषय बन जाता है । ऋजुसूत्रनय स्थापनाबन्धको स्वीकर नहीं करता ॥ ५ ॥ क्योंकि, यह नय पदार्थोंकी सदृशताको स्वीकार नहीं करता। यदि कहा जाय कि संकल्पवश एक पदार्थ दूसरे पदार्थरूप हो जायगा, सो यह बात भी नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर एक खम्भेमें संकल्पवश तीन लोकके प्रवेशका प्रसंग प्राप्त होता है । और ऐसा है नहीं, क्योंकि, उसमें तीन लोकका सद्भाव नहीं पाया जाता। शब्दनय नामबन्ध और भावबन्धको स्वीकार करता है ॥ ६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy