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________________ ४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ७. कधं णामबंधस्स तत्थ संभवो ? ण, णामेण विणा इच्छिदत्थपरूवणाए अणुववत्तीदो ! जो सो णामबंधो णाम सो जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाणं वा जीवस्स च अजोवस्स च जीवस्स च अजीवाणं च जीवाणं च अजीवस्स च जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णामं कोरदि बंधोत्ति सो सव्वो णामबंधो णाम ।। ७ ।। णामस्स पवृत्ती एदेसु अट्ठसु चेव; एदेहितो बज्झस्स अण्णस्साणुवलंभादो । एदे अट्ठसु पवत्तमाणबंधसद्दो णामबंधो कधं नाम अप्पा पयासेदि ? ण, सुज्ज-मणिचंदादिसु स- परप्पयासस्सुवलंभादो । जो सो टुवणबंधो णाम सो दुविहो- सब्भावट्ठवणाबंधो चेव असब्भावट्ठवणाबंधो चेव ॥ ८ ॥ सब्भावासब्भावटुवणबंधेहितो पुधभूदट्ठवण बंधाभावादो दुविहो चेव टुवणबंधो होदि । को दुवणबंधो णाम ? अण्णबंधम्मि अण्णबंधस्स सो एसो त्ति बुद्धीए दुवणा शंका- इन दोनों नयोंमें नामबन्ध कैसे सम्भव है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, नामके बिना इच्छित पदार्थका कथन नहीं किया जा सकता; इस अपेक्षा नामबन्धको इन दोनों नयोंके विषय स्वीकार किया है । जो यह नामबन्ध है वह इस प्रकार है- एक जीव, एक अजीव, बहुत जीव, बहुत अजीव, एक जीव और एक अजीव, एक जीव और बहुत अजीव, बहुत जीव और एक अजीव तथा बहुत जीव और बहुत अजीव; इनमेंसे जिसका बन्ध यह नाम किया जाता है वह सब नामबन्ध है ॥ ७ ॥ नामकी प्रवृत्ति इन आठों में ही होती है, क्योंकि, इनके बाहर अन्य पदार्थ नहीं पाया जाता । शंका- इन आठ में प्रवृत्त हुआ बन्ध शब्द नामबन्ध होता हुआ अपने आपको कैसे प्रकाशित करता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, सूर्य, मणि और चन्द्र आदिमें स्व और परके प्रकाशनकी योग्यता पाई जाती है । आशय यह है कि जैसे सूर्य आदि स्व-परप्रकाशक होते हैं वैसे नाम शब्द भी स्व-परप्रकाशक है । स्थापना बन्ध दो प्रकारका है-- सद्भावस्थापनाबन्ध और असद्भाव स्थापनाबन्ध ।। ८ ।। सद्भावस्थापनाबन्ध और असद्भावस्थापनाबन्धसे जुदा कोई तीसरा स्थापनाबन्ध नहीं पाया जाता, इसलिये स्थापनाबन्ध दो प्रकारका ही होता है । शका - स्थापनाबन्ध किसे कहते हैं ? समाधान - अन्य बन्ध में अन्य बन्धकी ' वह यह है' इस प्रकार बुद्धिसे स्थापना करना स्थापनाबन्ध है | आकृतिवाले पदार्थ में सद्भावस्थापना होती है और आकृतिरहित पदार्थ में • तातो 'णामबंधो' । कथं णाम अप्पाणं' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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