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________________ ५, ६, ९.) बंधाणुयोगद्दारे ठवणबंध परूवणा garबंध णाम । आकृतिमति सद्भावस्थापना, अनाकृतिमति तद्विपरीता । जो सो सम्भावासम्भावट्ठवणाबंधो णाम तस्स इमो निद्देसोकट्ठकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्यकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मे सु ar भेंडकम्मे वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया सब्भाव - असब्भावट्ठवणाए ठविज्जदि बंधो त्ति सो सव्वो सब्भावअसम्भावट्ठवणबंधो णाम ॥ ९ ॥ ( ५ सर्वाणि खइरसाग कट्ठादिसु चक्कबंध. मुरवबंध-विज्जाहरबंध-नागपाबंध- संसरवास - बंधादोणं जहासरूवेण घडियठवणा सम्भावटुवणबंधो णाम । अजहासरूवेण एसि बंधा ते वा सब्भाववणबंधो नाम । चित्तारेहिंतो वण्णविसेसेहि निष्कनाणि चित्तकम्माणि णाम । वत्थेसु पाण- सालिय- कोसद्दादीहिं जाणि वूणfoरियाणि पाइदाणि स्वाणि छिपएहि वा कदाणि पोत्तकम्माणि णाम 1 लेप्पयारेहि लेविऊण जाणि णिप्पाइदाणि रुवाणि ताणि लेप्यकम्माणि णाम 1 पत्थरकट्टए हि* जाणि पव्वदेसु घडिदाणि रुवाणि ताणि लेणकम्माणि णाम 1 तेहि चेव छिण्णसिलासु घडिदरूवाणि सेलकम्माणि णाम । सद्भाव स्थापना होती है । जो वह सद्भावस्थापनाबन्ध और असद्भावस्थापनाबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है --- काष्ठकर्मोंमें, पोतकर्मों में, लेप्यकर्मोंमें, लयनकर्मोंमें, शैलकर्मोंमें, गृहकर्मों में, भित्तिकर्मोंमें, दन्तकर्मोंमें, भेंडकर्मोंमें; तथा अक्ष या कौडी इनको आदि लेकर और दूसरे पदार्थ अभेदस्वरूपसे सद्भावस्थापना तथा असद्भावस्थापनामें 'यह बन्ध है' इस रूपसे स्थापित किये जाते हैं वह सब सद्भावस्थापनाबन्ध और असद्भावस्थापना बन्ध है ॥ ९ ॥ श्रीपर्णी, खंर और साग काष्ठ आदिमें चक्रबन्ध, मुरजबन्ध, विद्याधरबन्ध, नागपाशबन्ध, और संसारवासबन्ध आदिकी तदाकार स्थापना करना सद्भावस्थापनाबन्ध कहलाता है । बन्धोंकी उन श्रीपर्णी आदि काष्ठों में अतदाकार स्थापना करना असद्भावस्थापनाबन्ध कहलाता है । चित्रकार रंग विशेषोंसे जो चित्र बनाते हैं वे चित्रकर्म कहलाते हैं । वस्त्रों में पाण, सालिय और कोसद्द आदि बुनकरोंके द्वारा बुनने रूप क्रियासे जो आकार बनाये जाते हैं या छीपा उनपर जो आकार बनाते हैं वे पोतकर्म कहलाते हैं । लेप्यकार लेपन कर जो आकार बनाते हैं वे लेप्यकम कहलाते हैं । पत्थर फोडा पर्वतों में जो आकार घटित करते हैं वे लयनकर्म कहलाते हैं । वे ही छिन्न शिलाओंमें जो आकार घटित करते हैं वे शैलकर्म कहलाते हैं । मृत्तिकापिण्डके द्वारा प्रासादोंमें जो X अप्रतौ'- कोसद्दादीहि जाणि दूणण किरियाए' काप्रती ' - कोसट्टादीहिं जाणि दूणणकिरियाए तातो'- कोसट्टादीहिं जाणि दूणण किरियाए ' इति पाठा । अ आ-काप्रतिषु एत्थ रट्टट्टएहि मप्रती 'पत्थरउट्टएहि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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