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________________ ३२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ३५. जे गिद्धल्हुक्खगुणजुत्तपोग्गला ते रूविणो णाम, ते वि बझंति । विसरिसा पोग्गला अरूविणो णाम, ते वि बंधमागच्छति । णिद्धल्हुक्खपोग्गलाणं गुणाविभागपडिच्छेदसंखाए सरिसाणमसरिसाणं च बंधो होदि त्ति भणिदं होदि । वेमादा णिद्धदा वेमादा ल्हक्खदा बंधो ॥ ३५ ॥ णिद्धपोग्गलाणं गिद्धपोग्गलेहि ल्हुक्खपोग्गलाणं ल्हुक्खपोग्गलेहि गुणाविभागपडिच्छेदेहि सरिसाणमसरिसाणं च पुग्विल्लत्थे बंधाभावे संते तेसि पि बंधो अस्थि त्ति जाणावणळं एक्स्स सुत्तस्स बिदियो अत्थो वच्चदे । तं जहा-मादा णाम अविभागपडिच्छेदो। कि पमाणं तस्स ? जहण्णगुणवड्ढिमेत्तो। द्वे मात्रे यस्यां स्निग्धतायामधिके होने वा द्विमात्रा* स्निग्धता, सो बंधो बंधकारणं होदि । णिद्धपोग्गला वेअविभागपडिच्छेदुत्तरणिद्धपोग्गलेहि वेअविभागपडिच्छेदहीणणिद्धपोग्गलेहि वा बझंति । तिष्णिआदिअविभागपडिच्छेदुत्तरपोग्गलेहि तिण्णिआदि-- अविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण परिहीणपोग्गलेहि च बंधो पत्थि त्ति घेत्तव्यं । एवं ल्हुक्खपोग्गलाणं पि ल्हुक्खपोग्गलेहि सह बंधो पत्तव्यो । अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा समान होते हैं वे रूपी कहलाते हैं। वे भी बंधते हैं। और विसदृश पुद्गल अरूपी कहलाते हैं । वे भी बन्धको प्राप्त होते हैं। स्निग्ध और रूक्ष पुद्गल गुणोंके अविभागप्रतिच्छेदोंकी संख्याकी अपेक्षा चाहे समान हों चाहे असमान हों, उनका परस्पर बध होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। द्विमात्रा स्निग्धता और द्विमात्रा रूक्षता ( परस्पर ) बन्ध है ॥ ३५ ॥ गुणोंके अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा सदृश और विसदृश ऐसे स्निग्ध पुद्गलोंका स्निग्ध युद्गलोंके साथ और रूक्ष पुद्गलोंका रूक्ष पुद्गलोंके साथ पूर्वोक्त अर्थ के अनुसार बन्धका अभाव प्राप्त होनेपर उनका भी बन्ध होता है, इस बात का ज्ञान करानेके लिये इस सूत्रका दूसरा अर्थ कहते हैं । यथा- मात्राका अर्थ अविभागप्रतिच्छेद है। शंका- उसका कितना प्रमाण है ? समाधान- गुणकी जघन्य वृद्धिमात्र उसका प्रमाण है । जिस स्निग्धतामें दो मात्रा अधिक या हीन होती है वह द्विमात्रा स्निग्धता कहलाती हैं । वह बन्ध है अर्थात् बन्धका कारण है । स्निग्ध पुद्गल दो अविभागप्रतिच्छेद अधिक स्निग्ध पुद्गलोंके साथ या दो अविभागप्रतिच्छेद कम स्निग्ध पुद्गलोंके साथ बँधते हैं। इनका तीन आदि अविभागप्रतिच्छेद अधिक पुद्गलोंके साथ और तीन आदि अविभागप्रतिच्छेद कम पुद्गलोंके साथ बन्ध नहीं होता, यह अर्थ यहाँ लेना चाहिये । इसी प्रकार रूक्ष पुद्गलोंका भी रूक्ष पुद्गलोंके साथ बन्धका कथन करना चाहिये। अब इस अर्थका निश्चय उत्पन्न करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- * अ-आ-काप्रतिषु, 'द्विमात्रो' इति पाठः 1 मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ काताप्रतिष :-पोग्गले हि ण बज्झंति, इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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