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________________ ५, ६. ६६७ ) योगद्दारे चूलिया ( ५१९ कुदो ? वेउव्वियसरीरणिव्वत्तिद्वाणाणमंतो पविसिय ओरालियस रीरजहण्णव्वित्तिद्वाणमुत्पत्ती दो ओरालियसरीरस्स उवरिमणिव्वत्तिट्टाणेहितो ओरालियविद्वाणादो हेमिवे उव्वियसरी रणिव्वत्तिद्वाणाणं विसेसाहियत्तदंसणादो । वे उब्विय सरीरस्स निव्वत्तिट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ६६५ । केत्तियमेते ? आवलि. असंखे० भागमेत्तेण । कारणं पुव्वमेव परुविदं । आहारसरीरस्स णिव्वत्तिट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ।।६६६ ॥ केत्तियमेत्तेण ? आवलि. असंखे ० भागमेत्तेण । आहारसरीरउक्कस्सणिव्वत्तिट्ठाणादो उबरिमवे उब्वियणिव्वत्तिद्वाणेहि सुद्धहेट्टिम आहारणिवदत्तिट्ठाणेहि वा विसेसाहियाणि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण तिष्णं सरीराणमंदियणिव्वत्तिट्ठाणाणि आवलिया असंखेज्जविभागमेत्ताणि ॥ ६६७ ।। ओरालियरीरस्स उक्कस्ससरीरणिव्वत्तिद्वाणादो अंतोमृहुत्तमेत्तअद्वाणं गंतूण तिष्णं सरीरार्णामदिय निव्वत्तिद्वाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि होंति । सरीरपज्जतीए पज्जत्तयदो होदूण जाव अंतोमृहुत्तं ण गदो ताव सव्वो जीवो इंदिय - पज्जत्तीए पज्जत्तयदो ण होदित्ति भणिदं होदि । होते हैं ।। ६६४ ।। क्योंकि, वैक्रियिकशरीर के निर्वृत्तिस्थान भीतर प्रविष्ट होकर औदारिकशरीरका जघन्य निर्वृत्तिस्थान उत्पन्न होता है । तथा औदारिकशरीरके उअरिम निर्वृत्तिस्थानों से औदारिकशरीर के निर्वृत्तिस्थानोंकी अपेक्षा अधस्तन वैक्रियिकशरीर के निर्वृत्तिस्थान विशेष अधिक देखे जाते हैं । किशरीर के निर्वृत्तिस्थान विशेष अधिक हैं । ६६५ । कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं । कारणका कथन पहले ही किया है । आहारकशरीर के निर्वृत्तिस्थान विशेष अधिक हैं । ६६६ । कितने अधिक हैं ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं। आहारकशरीर के उत्कृष्ट निर्वृत्तिस्थानकी अपेक्षा तथा उपरिम वैक्रियिकशरीर के निर्वृत्तिस्थानों की अपेक्षा अथवा केवल अघस्तन आहारकशरीर के निर्वृत्तिस्थानोंकी अपेक्षा विशेष अधिक हैं । उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर तीन शरीरोंके इन्द्रियनिर्वृत्तिस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । ६६७ । औदारिकशरीर के उत्कृष्ट शरीरनिर्वृत्तिस्थानसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अध्वान जाकर तीन शरीरोंके इंद्रियों के निर्वृत्तिस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होकर जबतक अन्तर्मुहूर्त नहीं गया है तबतक सब जीवराशि इन्द्रियपर्याप्तिसे पर्याप्त नहीं होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । X का० प्रती - द्वाणाणमावलि ०' इति पाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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