SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधाणुयोगद्दारे दव्वबंध परूवणा ( ३५ गुणपरिणामं पप्प पाविदूण सव्वे गिद्ध ल्हुक्खपोग्गला बंधमागच्छंति । णवरि णिद्वाणं गिद्धेहि ल्हुक्खाणं ल्हुक्खेहि पोग्गलेहि णत्थि बंधो। किंतु वेअविभागपडिच्छेदाहियाणं निद्धपोग्गलाणं वेअविभागपडिच्छेद हीण णिद्धपोग्गलेहि अस्थि बंधो। वेअविभागपडिच्छेदाहियल्हुक्ख पोग्गलाणं च वेअविभागपडिच्छेद ही णल्हुक्खपो ग्गले हि य सह अस्थि बंधो । एवं बंधं पाविण से अमाणं वा अवारिसु वा मेहा अब्भा णाम, तेसिमभाणं सरूत्रेण तेसि ते परिणमति । वारिसु वा कसणवण्णा मेहा णाम । उदयत्थवण्णकाले पुव्वावर दिसासु दिस्समागा जासवण कुसुमसंकासा संज्झा णाम | रत्त-धवल - सामवण्णाओ - तेजङभ हियाओकुवियभुवंगो व्व चलंतसरीरा मेहेसु उवलब्भमाणाओ विज्जूओ णाम । जलंतग्गिपिंडो व्व अणेगसंठाणेहि आगासादो विदंता उक्का जाम । माणुस - पसु-पक्खिमारणीयो तरु- गिरिसिहर-वियारणीय असणयो कणया णाम । उत्पायकाले अग्गिणा विणा दावाणलो व्व दिसासु उवलब्भमाणो दिसादाहो नाम उप्पादकाले चेव धूमलट्ठि व्व आगासे उबलब्भमाणा धूमकेदू णाम | पंचवण्णा होदूण धणुवागारेण खुट्टागारेण वा पुव्वावर दिसासु उवलभमाणा इंदा उहा णाम । एदेसि मेह- संज्झा-विज्जुक्क कणय-1 य- दिसादाह- धूमकेदुभूत स्निग्ध और रूक्ष गुणरूप परिणामको प्राप्त होकर सब स्निग्ध और रूक्ष पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि स्निग्ध पुद्गलोंका स्निग्ध पुद्गलोंके साथ और रूक्ष पुद्गलों का रूक्ष पुद्गलोंके साथ बन्ध नहीं होता । किन्तु दो अविभागप्रतिच्छेद अधिक स्निग्ध पुद्गलोंका दो अविभागप्रतिच्छेद हीन स्निग्ध पुद्गलोंके साथ बन्ध होता है । तथा दो अविभागप्रतिच्छेद अधिक रूक्ष पुद्गलोंका दो अविभागप्रतिच्छेद हीन रूक्ष पुद्गलोंके साथ बन्ध होता है । इस प्रकार बन्धको प्राप्त होकर वे पुद्गल परिणमन करते हैं । यथा- वर्षा ऋतु के सिवा अन्य समयमें जो मेघ होते हैं उन्हें अभ्र कहते हैं । उन अभ्ररूपसे वे परिणत होते हैं । अथवा वर्षाऋतुमें जो कृष्णवर्ण के बादल होते हैं वे मेघ कहलाते हैं । सूर्योदयके समय और सूर्यास्त के समय पूर्वापर दिशाओं में जो जपा कुसुमके सदृश दिखाई देती है वह सन्ध्या कहलाती है । जो रक्त, धवल और श्यामवर्णकी होती है, जिसमें अत्यधिक तेज होता है, जो कुपित हुए भुजंगके समान चञ्चल शरीरवाली होती है, और जो मेघों में उपलब्ध होती है वह विद्युत् कहलाती है । जो जलते हुए अग्निपिण्डके समान अनेक आकारवाली होकर आकाशसे गिरती है वह उल्का कहलाती है । जिससे मनुष्य, पशु और पक्षी मर जाते हैं तथा जो वृक्ष और पर्वतोंके शिखरों का विदारण करती है ऐसी अशनिको कनक कहते हैं। उत्पातकाल अनि बिना दावानलके समान जो दशों दिशाओं में उपलब्ध होता उसे दिशादाह कहते हैं । उत्पातकाल में ही धूमयष्टिके समान जो आकाश में उपलब्ध होता है उसे घूमकेतु कहते हैं । जो पाँच वर्णका होकर धनुषाकाररूपसे या त्रुटित आकाररूपसे पूर्वापर दिशाओं में उपलब्ध होता है उसे इन्द्रायुध कहते हैं । इन मेघ, सन्ध्या, विजली, दिशादाह, धूमकेतु और इन्द्रायुध के आकाररूपसे वे पुद्गल परिणत • तातो 'भुवं ( जं ) गो' इति पाठ । कनक, For Private & Personal Use Only ५, ६, ३७.) अ आ-काप्रतिष 'अच्चाणं' इति पाठ: 1 Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy