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________________ नहीं नहीं नहीं नहीं नहीं ३४. ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ३७. से तं बंधणपरिणामं पप्प से अब्भाणं वा मेहाणं वा संज्झाणं वा विज्जणं वा उक्काणं वा कणयाणं वा दिसादाहाणं वा धूमकेणं वा इंदाउहाणं वा से खेत्तं पप्प कालं पप्प उड्डे पप्प अयणं पप्प पोग्गलं पप्प जे चामण्णे एवमाविया अंगमलप्पहुडीणि* बंधणपरिणामेण परिणमंति सो सम्वो सावियविस्ससाबंधो गाम ॥ ३७ ॥ से ते जहण्णगणपोग्गलवदिरित्ता पोग्गला तं बंधणपरिणामं तं बंधकारणणिद्ध-ल्हुक्ख दूसरी परम्पग तत्त्वार्थसूत्रकी है । इसके अनुसार निम्न व्यवस्था फलित होती है-- क्रमांक गुणांश सदृशबन्ध । विसदृशबन्ध जघन्य+जधन्य जघन्य+एकादिअधिक नहीं जघन्येतर+समजघन्येतर नहीं जघन्येतर-+एकाधिकजघन्येतर नहीं | जघन्येतर+व्यधिकजघन्येतर | जघन्येतर-+त्र्यादिअधिकजघन्येतर नहीं नहीं यद्यपि सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिकमें 'णिद्धस्स णिद्धेण' इत्यादि गाथा उद्धृत की गई है, पर इस गाथाके उत्तरार्द्धके अर्थ में मतभेद है और यह मतभेद तत्त्वार्थवार्तिकसे स्पष्ट हो जाता है । गाथाके उत्तरार्द्धका शब्दार्थ यह है कि स्निग्धगुणवाले परमाणुका रूक्षगुणवाले परमाणुके साथ सम या विषमगुण होनेपर बध होता है । मात्र जघन्य गुणवालेका किसी भी अवस्थामें बंध नहीं होता । किन्तु तत्त्वार्थवार्तिकमें 'समे विसमे वा' इस पदमें समका अर्थ तुल्यजातीय और विषमका अर्थ अतुल्यजातीय किया है । तत्त्वार्थवातिककारके समक्ष वर्गणाखण्डके ये सूत्र उपस्थित थे, फिर भी उन्होंने यह अर्थ किया है । तत्त्वार्थसूत्र में 'बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च' यह सूत्र आया है और इस सूत्रसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थसूत्रके मतसे तुल्यजातीय और अतुल्यजातीय पुद्गलपरमाणुओंका बन्ध दो अधिक गुणके होनेपर ही होता है । यही कारण है कि तत्त्वार्थवार्तिककारने उक्त गाथांशका उक्त प्रकारसे अर्थ किया है। इस प्रकार वे पुदगल बन्धनपरिणामको प्राप्त होकर विविध प्रकारके अभ्ररूपसे, मेघरूपसे, सन्ध्यारूपसे, बिजलीरूपसे, उल्कारूपसे, कनकरूपसे, दिशादाहरूपसे, धूमकेतुरूपसे व इन्द्रधनुषरूपसे, क्षेत्रके अनुसार, कालके अनुसार, ऋतुके अनुसार, अयनके अनुसार और पुद्गलके अनुसार जो बन्धन परिणामरूपसे परिणत होते हैं वह सब सादिविस्रसाबन्ध है ॥ ३७ ।। _ 'से ते' अर्थात् जघन्यगुण पुद्गलोंके सिवा वे पुद्गल 'तं बंधणपरिणाम' अर्थात् बंधके कारण * अ-आ-काप्रतिषु 'अन्याण' इति पाठ: 1 * ताप्रती-'प्पहुडि (डी) णि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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