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________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ३८. इंउहाणमागारेण ते परिणमंति । ते कधं परिणमंति ति वृत्तं विसिटागासदेसो खेत्तं । सीदुसुण* वरिसणेहि उवलक्खियो कालो*। सिसिर-वसंत-णिदाह-वासा-- रत्त-सरदहेमंता उडू । दिणयरस्य दविखणुत्तरगमणमयणं । पूरण-गलणसहावा पोग्गला णाम । खेत्तं कालं उड्ड अयणं पोग्गलं च तप्पाओग्गं पप्प पाविदूण ते पोग्गला तेसिमागारेण परिणमंति, अण्णहा सव्वत्थ सव्वद्धं तेसिमप्पत्तिप्पसंगादो । जे च अमी अण्णे च एवमादिया अंगमलप्पहुडीणि सरीरमलप्पहुडीणि* एत्य प्पहुडिसणई 4 सुज्जचंदग्गह--णक्खत्तुवराग-परिवेस- धब्धणयरादओ घेत्तव्वा । सा सव्वोसादियविस्ससाबंधो नाम । जो सो थप्पो पओअबंधो गाम सो दुविहो- कम्मबंधो चेद णोकम्मबंधो चेव ॥ ३८॥ होते हैं । वे किस कारणसे परिणत होते हैं, ऐसा पूछनेपर 'से खेत्तं पप्प' इत्यादि सूत्रवचन कहा है। विशिष्ट आकाशदेशका नाम क्षेत्र है। शीत, उष्ण और वर्षासे उपलक्षित समयका नाम काल है। शिशिर, वसन्त, निदाघ, वर्षा, शरद और हेमन्तका नाम ऋतु है । सूर्यका दक्षिण और उत्तरको गमन करना अयन है जिनका पूरण और गलन स्वभाव है वे पुद्गल कहलाते है। अपने अपने योग्य क्षेत्र, काल, ऋतु, अयन और पुद्गलको प्राप्त होकर वे पुद्गल उन मेघ आदिके आकाररूपसे परिणत होते हैं; अन्यथा सर्वत्र और सर्वदा उनकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है । जो ये और अन्य अगमल अर्थात् शरीरमल आदि पदार्थ हैं । यहाँ 'प्रभात' शब्दसे सूर्य, चन्द्र, ग्रह और नक्षत्र इनका उपराग तथा परिवेश और गन्धर्वनगर आदि लेने चाहिए । यह सब सादि विस्रसाबन्ध है । विशेषार्थ--आगमद्रव्यबन्धके सिवा शेष सब बन्ध नोआगमद्रव्यबन्ध कहलाते हैं। इसके प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध ये दो भेद हैं जिसमें जीवके व्यापारकी अपेक्षा होती है वह प्रयोगबन्ध कहलाता है और जो जीवके व्यापारके बिना अपनी योग्यतानुसार होता है वह विस्रसाबन्ध कहलाता है। यहाँ सादिविस्रसाबन्धका विचार किया जा रहा है। यह पुदगलोंकी अपनी-अपनी योग्यतानुसार होता है। यों तो जितने भी कार्य होते है वे सब अपनी अपनी योग्यतानुसार ही होते है । किन्तु बाह्य निमित्तको ध्यानमें रखकर बन्धके प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध ये भेद किए गए हैं । कर्मबन्ध प्रयोगबन्ध में आता है, पर समयप्राभूतमें इसके विषयमें लिखा है कि रागदिकका निमित्त पाकर कर्मपुद्गल स्वयं कर्मरूपसे परिणत होते हैं और कर्मका निमित्त पाकर जीव रागादिकरूपसे परिणमण करता है । समयप्राभृतके उक्त कथनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बलात् अन्य अन्यका परिणमन करानेवाला नहीं होता, किन्तु एक दूसरे का निमित्त पाकर प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणमन करता है । शेष कथन सुगम है । जो प्रयोगबन्ध स्थगित कर आये हैं वह दो प्रकारका है--कर्मबन्ध और नोकर्मबन्ध ॥ ३८ ॥ ता. प्रती ' सोदुसण' इति पाउ::1* अ. प्रतौ 'काले' इति पाठ अ. आ. प्रत्योः 'काल उद् इति पाठः18 ता. प्रतो 'प्पहुडि' (डी) णि' इति पाठः । * ता. प्रती 'प्पहडीण (णि) अ. आ. प्रत्यो 'पहडीण' इति पाठ: 10 अ. आ. प्रत्यो 'सज्जेग' इति पा5: .आ.7 त्योः 'गंधबण्णयरादओ' इति पाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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