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________________ ३९२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड को गुण ० ? संखेज्जा समया । एवं णिसेयपरूवणा समत्ता | गुणगारेति तत्थ इमाणि तिणि अणुयोगद्दाराणि जहण्णपद उक्कस्सपदे जहष्णुक्कस्सपदे ।। ४०७ ।। ( ५, ६, ४०७ जहणदव्वमस्सिदूण जो गुणगारो तं जहण्णपदं णाम । उक्कस्सदव्वमस्सिदूण जो गुणगारो तमुक्कस्सपदं णाम । उभयमस्तिऊण जो गुणगारो तं जहण्णुक्कस्सपदं णाम । जहण्णपदे सव्वत्थोवा ओरालिय-वेउब्विय- आहारसरीरस्स जहण्णओ गुणगारो सेडीए असंखेज्जदिभागो ।। ४०८ ।। कुदो ? सामावियादो । जहण्णपदप्पाबहुए कीरमाणे सेडीए असंखे० भागो गुणगारो होदित्ति भणिदं होदि । तं जहा- सन्वत्थोवमोरालिय सरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं । तं पुण एगसमयपबद्धमेत्तं सुहुमेइंदिय अपज्जत्तएण पढमसमयतमवत्थेण जहण्ण उववादजोगेण अपज्जत्तिवित्तणणिमित्तं गहिदणोकम्पपवेसग्गं । वेउब्वियसरीरस्स जहरणयं पदेसग्गमसंखे० गुणं । को गुण० ? सेडीए असंखे० भागो । एदं पि एगसमयपबद्धमेत्तं असणिपच्छायददेव णेरइएसु उप्पण्णेण पढमसमयआहारएण गुणकार क्या है ? संख्यात समय गुणकार है । इस प्रकार निषेकप्ररूपणा समाप्त हुई । गुणकारका प्रकरण है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं- जघन्यपद, उत्कृष्टपद और जघन्य उत्कृष्टपद ॥ ४०७॥ Jain Education International जघन्य द्रव्यका आश्रय कर जो गुणकार है वह जघन्यपद कहलाता है । उत्कृष्टपदका आश्रय कर जो गुणकार है वह उत्कृष्टपद कहलाता है और दोनोंका आश्रय कर जो गुणकार है वह जघन्य - उत्कृष्टपद कहलाता है । जघन्य पदकी अपेक्षा औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरका जघन्य गुणकार जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ||४०८ || क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । जघन्य पदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व करने पर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यथा - औदारिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्न सबसे स्तोक है । परन्तु वह प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवके द्वारा जघन्य उपपादयोगसे अपर्याप्तिकी रचना के लिए ग्रहण किया गया नोकर्मप्रदेश ग्र एक समयप्रबद्धमात्र होता है । उससे वैक्रियिकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । यह भी प्रथम समय में आहारक हुए तथा प्रथम समय में तद्भवस्थ हुए ऐसे असंज्ञियों में से आकर देव और नारकियों में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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