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________________ ५, ६, ४०९ ) बंधणाणुयोगदारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ ( ३९३ पढमसमयतमत्थेण जहण्णउववावजोगेण गहिदणोकम्मपदेसरगं । आहारसरीरस्त जहण्णयं पदेसग्गमसंखेज्जगणं । को गण ०? सेडीए असंखे०भागो। एवं पि एगसमयपबद्धमत्तं आहारसरीरमट्ठावेंतसंजदेण पढमसमयतप्पाओग्गजहण्णपरिणामजोगेण गहिवणोकम्मपदेसग्गं । तेजा-कम्मइयसरीरस्स जहण्णओ गुणगारो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमतभागो ॥४०९॥ एवेण सुत्तेण तेजा-कम्मइयसरीरस्स जहण्णदवाणं गुणगारो परूविदो । तं जहा-आहारसरीरस्स जहण्णपदेसग्गादो तेजासरीरस्स जहण्णपदेसग्गमणंतगुणं । को गण० ? अभवसिद्धिएहि अणंतगणो सिद्धाणमतभागो। एवं पि अण्णदरस्स सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्सर एयंताणवड्ढीए वडमाणयस्स जहण्णजोगिस्स सामितवरिसमयए वट्ठमाणस्स होदि । कम्मइयसरीरस्स जहण्णयं पदे सग्गमणंतगणं । को गुण ? अभवसिद्धिएहि अणंतगणो सिद्धाणमणंतभागो । एवं पि खविदकम्मंसिय. लक्खणेणागद अजोगिचरिसमए वठ्ठमाणअघादिचदुक्कदव्वं घेत्तव्वं । एवं जहण्णपदप्पाबहुअं समत्तं । उत्पन्न हुए जीवके द्वारा जघन्य उपपादयोगसे ग्रहण किया गया नोकर्मप्रदेशाग्र एक समयप्रबद्ध प्रमाण होता है । उससे आहारकशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। यह भी आहारकशरीरको उत्पन्न करनेवाले संयतके द्वारा प्रथम समय में तत्प्रायोग्य जघन्य परिगामयोगके द्वारा ग्रहण किया गया नोकर्मप्रदेशाग्र एक समयप्रबद्धप्रमाण होता है । तेजसशरीर और कार्मणशरीरका जघन्य गुणकार अभव्योंसे अनन्तगणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है ॥४०९।। इस सूत्रके द्वारा तैजसशरीर और कार्मणशरीरके जघन्य द्रव्योंका गुणकार कहा गया है। यथा--आहारकशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रसे तैजसशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है। यह प्रदेशाग्र भी एकान्त वृद्धिसे वृद्धिगत जघन्य योगवाले और स्वामित्वके अन्तिम समयमें विद्यमान अन्यतर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवके होता है । उससे कार्मणशरीरका जघन्य प्रदेशाग्र अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है। यह भी क्षपितका शिकलक्षणसे आये हुए अयोगी जीवके अन्तिम समयमें विद्यमान अघातिचतुष्कके द्रव्यरूप ग्रहण करना चाहिए। ___ इस प्रकार जघन्य पदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । ४ता. प्रतो' -जीवपज्जत्तयस्स ' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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