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________________ ३९४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ४१० उक्कस्सपदेण ओरालियसरीरस्स उक्कस्सओ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो ॥४१०॥ जहण्णउववादजोगेण बद्धएगोरालियसमयपबद्धादो उक्कस्सपरिणामजोगेण बद्धएगोरालियसमयपबद्धो तिणिपलिदोवमसंचिददिवगणहाणिमेत्तउक्कस्सओरालियसमयपबद्धा वा असंखेज्जगणा । एत्थ गणगारो पलिदो० असंखे० भागो। एवं चदण्णं सरीराणं ॥४११।। जहा ओरालियसरीरजहण्णव्वादो उक्कस्सदव्वं पलिदो० असंखे० भागगणं तहा सेसचदुण्णं सरीराणं पि सगसगजहण्णसमयपबद्धादो सगसगउक्कस्ससमयपबद्धो गणिदकम्मंसियलक्खणेण संचिददिवगणहाणिमेतसमयपबद्धा वा पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागगुणा । णवरि एगक्कस्ससमयपबद्धं पडुच्च जोगगुणगारो गणिदकम्म. सियलक्खणेण संचिदसवक्कस्सवध्वं पडच्च जोगगणगारेण गणिदविषड्ढगणहाणीओ गणगारो होदि । वरि कम्मइयसरीरस्स जहण्णवव्वमुक्कस्सदव्वं च दिवड्डगणहाणि. गणिदसमयपबद्धमेत्तं होदि, अणादिबंधेण बंधत्तादो । एत्थ वि जहण्णदम्वादो उक्क. स्सदव्वगुणगारो जोगगुणगारमेत्तो । एवमुक्कस्सपदेण सत्थाणप्पानहु समत्तं । उत्कृष्ट पदको अपेक्षा औदारिकशरीरका उत्कृष्ट गणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥४१० । जघन्य उपपादयोगसे बन्धको प्राप्त हुए औदारिकशरीरके एक समयप्रबद्धसे उत्कृष्ट परिणामयोगसे बन्धको प्राप्त हुआ औदारिकशरीरका एक समयप्रबद्ध अथवा तीन पल्य कालके भीतर संचित हुए डेढ़ गुणहानि प्रमाण औदारिकशरीरके उत्कृष्ट समयप्रबद्ध असख्यातगुणे हैं । यहाँ पर गुणकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार चार शरीरोंको अपेक्षासे जानना चाहिए ।।४११।। जिस प्रकार औदारिकशरीरके जघन्य द्रव्यसे उसका उत्कृष्ट द्रव्य पल्यके असंख्यातवें भागगुणा कहा है उसीप्रकार शेष चार शरीरोंके भी अपने अपने जघन्य समयप्रबद्धसे अपना अपना उत्कृष्ट समयप्रबद्ध अथवा मुणितकांशिकलक्षणसे सञ्चित हुए डढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्ध पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गृणे हैं । इतनी विशेषता है कि एक उत्कृष्ट समयप्रबद्धकी अपेक्षा योगगुणकार ही गुणकार होता है और गुणितकांशिकलक्षणसे सञ्चित हुए सर्वोत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा योगगुणकारसे गुणित डेढ़ गुणहानियाँ गुणकार होता है। इतनी और विशेषता हैं कि कार्मणशरीरका जघन्य द्रव्य और उत्कृष्ट द्रव्य डेढ गुणहानिगुणित समयप्रबद्धप्रमाण होता है, क्योंकि, उसका अनादिसम्बन्धरूपसे बन्ध उपलब्ध होता है । यहाँ भी जघन्य द्रव्यसे उत्कृष्ट द्रव्य लाने के लिए गुणकार योगगुणकारप्रमाण है। ___इस प्रकार उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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