SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३७७ ५, ६, ३४७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ मोत्तूण मज्झिमसनवदम्वमागच्छदि । तेण अपढम-अचरिमदव्वस्स असंखेज्जगणतं सिद्धं । मज्झिमदव्वमेदं ५७७९ । अपढमासु ट्ठिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३४४ ।। केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमणिसेयमेतो ५७८८ । अचरिमासु ट्ठिवीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ।। ३४५॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमणिसेगेणूणपढमणिसेगमेत्तो ६२९१ । सव्वासु ट्ठिवीसु पदेसग्गं विसेसाहियं ॥ ३४६ ।। केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमणिसेगमेत्तो ६३०० । एवं तिण्णं सरीराणं ॥ ३४७ ॥ जहा ओरालियसरीरस्स जहण्णपदप्पाबहुअपरूवणा कदा तहा वेउविय-तेजाकम्मइयसरीराणं पि कायव्वा, विसेसाभावादो। णवरि तेजासरीरस्स अण्णोण्णब्भत्थरासी असंखेज्जओसप्पिणि-उस्सप्पिणिमेत्तो, पलिदोवमअद्धच्छेदणाहितो तेजइयसरीर. णाणागुणहाणिसलागाणमसंखेज्जगुणत्तदंसणादो। एदं कुदो जव्वदे ? कम्मइयसरीरस्स निषेकको छोड कर मध्यके निषेकोंका सब द्रव्य आता है। इसलिए अप्रथम-अचरम द्रव्य असंख्यातगुणा है यह सिद्ध होता है। मध्यका द्रव्य इतना है-- ५७७९ । उससे अप्रथम स्थितियोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ॥ ३४४ ।। विशेष का प्रमाण कितना है ? अन्तिम निषेकका जितना प्रमाण है उतना है (५७७९+९)%3D५७८८ ।। उससे अचरम स्थितियोंमें प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ॥ ३४५ ॥ विशेषका प्रमाण कितना है ? प्रथम निषेकमेंसे अन्तिम निषेकके प्रमाणको कम करके जो शेष रहे उतना है। ( ५१२ - ९ = ५०३; ५७८८+५०३ % ) ६२९१ । उससे सब स्थितियों में प्रदेशाग्र विशेष अधिक है ॥ ३४६ ॥ विशेषका प्रमाण कितना है ? अन्तिम निषेकका जितना प्रमाण है उतना है। ( ६२९१+९ = ६३०० ) । इसी प्रकार तीन शरीरोंके प्रदेशाग्रका जघन्यपदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिए ॥ ३४७ ।। ___ जिस प्रकार औदारिकशरीरके जघन्य पदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणा की है उसी प्रकार वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर और कार्मणशरीरकी प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि तेजसशरीरकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका प्रमाण असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सपिणियोंके कालप्रमाण है, क्योंकि, पल्यके अर्धच्छेदोंसे तैजसशरीरकी नानागुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी देखी जाती हैं। __ शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy