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________________ ३७६ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ६, ३४३ असंखे० मागेण पदरावलियं गुणेदूण तेण गुणिदरासिणा उवरि वग्गं गुणेवण णेयव्वं जाव पलिदोवमबिदियवग्गमले त्ति । जत्थ जत्तियाणि ख्वाणि तत्थ तत्तियाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि आगच्छति । एवमेत्तियाओ ओरालियसरीरणाणागुणहाणिसलागाओ होंति । पुणो एदाओ विरलिय विगं करिय अण्णोष्णमत्थे कवे असंखेज्जलोगमेत्तरासी उप्पज्जदि त्ति णत्थि संदेहो । पुणो एदेण रासिगा ओरालियसरीरचरमणिसे गुणिदे तस्सेव पढमणिसेगो होदित्ति गेव्हियत्वं । अपढम अचरिमासु ट्ठिदीस पदेसग्गमसंखेज्जगुणं ॥ ३४३ ॥ को गुण ? संखेज्जावलियमेत्ताओ सादिरेगेगरूवेणूणदिवड्डूगुणहाणीओ । तं जहा - तिसु पलिदोवमेसुप्पज्जिय उप्पण्णपढमसमए ओरालियस रोरणिप्पायणट्ठ गहिदणोकम्मपदे से हितो घेतूण तिणिपलिदोवमाणं पढमसमए बहुअं पदेसपिडं निसिचवि । बिदियसमए विसेसहीणं णिसिचदि । एवं निरंतरं विसेसहीणकमेण ताव निसिचदि जाव तिष्णं पलिदोवमाणं चरिमसमओ त्ति । पुणो एवं णिसित्तसव्वदन्वे पढमणिसेपमाणेण कदे दिवडगुणहाणिमेत्तपढमणिसेया होंति । पुणो एत्थ पढमणिसेगस्स चरिमणिसेगस्स च अवणयणट्ठ सादिरेगमेगरूवमवणेदव्वं । सेसमेत्तियं होदि५७७९ ५१२/ । एदेण पढमणिसे गुणिदे तिष्णं पलिदोवमाणं पढमणिसेयं चरिमणिसेगं च आवलिके असंख्यातवें भागसे प्रतरावलिको गुणित करके उस गुणित राशिसे ऊपर वर्गको गुणित करके पल्यके द्वितीय वर्गमूलके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । जहाँ जितनी संख्या होती है वहाँ उतने पल्य के प्रथम वर्गमूल आते हैं । इस प्रकार जितनी औदारिकशरीरकी नानागुणहानिशलाकायें होती हैं। पुनः इनका विरलन करके और विरलितराशिके प्रत्येक एकको दूना करके परस्पर गुणा करने पर असंख्यात लोकप्रमाण राशि उत्पन्न होती है इसमें सन्देह नहीं है । पुन: इस राशिसे औदारिकशरीरके अन्तिम निषेकके गुणित करने पर उसीका प्रथम निषेक होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । उससे अप्रथम-अचरम स्थितियोंमें प्रदेशाग्र असंख्यातगुणा होता है । ३४३ । गुणकार क्या है ? संख्यात आवलिप्रमाण जो साधिक एक अंकसे न्यून डेढ गुणहानि है उतना गुणकार है । यथा - तीन पल्की आयुवालोंमें उत्पन्न हो कर उत्पन्न होनेके प्रथम समय में औदारिकशरीरको उत्पन्न करनेके लिए ग्रहण किये गये नोकर्मके प्रदेशोंमेंसे लेकर तीन पल्के प्रथम समय में बहुत प्रदेश पिण्डको निक्षिप्त करता है । द्वितीय समय में विशेष हीन प्रदेशपिण्ड निक्षिप्त करता है । इस प्रकार निरन्तर विशेष हीन क्रमसे तीन पल्यके अंतिम समय तक निक्षिप्त करता है । पुनः इस प्रकार निक्षिप्त किये गये सब द्रव्यको प्रथम निषेकके प्रमाणरूप से करने पर डेढ गुणहानिप्रमाण प्रथम निषेक होते हैं । पुनः यहाँ पर प्रथम निषेक और अंतिम निषेकका अपनयन करनेके लिए साधिक एक अंक घटाना चाहिए । शेषका प्रमाण इतना होता ५७७९ । इससे प्रथम निषेकके गुणित करने पर तीन पल्यके प्रथम निषेक और अन्तिम ५१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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