SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड सूचीए गणिदसगसगअवहारकालो। तिसरीरा असंखेज्जगुणा ॥१७९॥ को गुण ? आवलि० असंखे० भागो । कुदो ? आवलियाए असंखे०भागमेत्तउवक्कमणकालेण सगसगरासीए ओवट्टिदाए बिसरीराणं पमाणप्पत्तीवो । विग्गहगदीए चेव उप्पज्जमाणा नहुगा ण उजगदीए, उज्जवाए गदीए उप्पज्जमाणोपदेसस्स थोवत्तुवलंभादो । के वि आइरिया उजगदीए उप्पज्जमाणा जीवा बहुआ त्ति भणंति तेसिमहिप्पाएण गुणगारो पलिदो० असंखे० भागो होदि । एदमत्थपदं सव्वमग्गणासु परूवेयन्वं । पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्ता रइयाणं भंगो ॥१८०॥ जहा रइयाणमप्पाबहुगं परूविदं तहा एत्थ वि परवेयव्वं । तं जहासव्वत्थोवा बिसरीरा । तिसरीरा असंखेज्जगणा । को गणगारो? आवलियाए असंखे०भागो। पलिदो० असंखे० भागो गुणगारो ति सव्वमग्गणासु के वि आइरिया भणंति, तण्ण धडदे । कुदो? संखेज्जावलियाहि सध्वजीवरासिम्मि ओवट्टिदे कम्मइयरा. सिपमाणागमण*ण्णहाणुववत्तीदो। जदि उप्पज्जमाणजीवाणमसंखेज्जो भागो विग्गह क्या है ? अपने अपने अवहारकाल को चार शरीरवालोंकी विष्कंभसूचीसे गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतना प्रतिभाग है। उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं ।।१७९॥ गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण उपक्रमण कालसे अपनी अपनी राशिके भाजित करने पर दो शरीर वालोंका प्रमाण उत्पन्न होता है । विग्रहगतिसे ही उत्पन्न होनेवाले जीव बहुत हैं, ऋजुगतिसे नहीं, क्योंकि, ऋजुगतिसे उत्पन्न होने वाले जीव स्तोक हैं ऐसा उपदेश पाया जाता है । कितने ही आचार्य ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेवाले जीव बहुत हैं ऐसा कहते हैं, इसलिए उनके अभिप्रायसे गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। यह अर्थपद सब मार्गणाओंमें कहना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें नारकियों के समान भंग है ॥१८० । जिसप्रकार नारकियोंका अल्पबहुत्व कहा है उसीप्रकार यहां भी कहना चाहिए। यथादो शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है । सब मार्गणाओं में पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है ऐसा भी कितने ही आचार्य कथन करते हैं किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, संख्यात आवलियोंसे सर्व जीवराशिके भाजित करने पर कामणराशिका प्रमाण आता है, अन्यथा वह बन नहीं सकता है। यदि उत्पन्न होनेवाले जीवोंको असंख्यातवें *अ. का. प्रत्योः ' -पमाणगमण-' इति पाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy