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________________ ४८४ ) छपखंडागमे वग्गणा-खं ( ५, ६, ६३० पज्जत्तो वा होदि । कुदो ? बादरणिगोदपज्जतेहि सह खंधंडरावासपुलवियासु उप्पण्णबादरणिगोदअणंतापज्जत्तएसु अंतोमहत्तेण कालेण णिस्सेसं मदेसु सुद्धाणं बादरणिगोदपज्जत्ताणं चेव तत्थावट्ठाणदंसणादो। किमढमपज्जत्ताणं पुव्वं चेव सवेसि मरणं होदि। पज्जत्ताउआदो अपज्जत्ताउअस्स थोवत्तवलंभादो अपुवाणं बादरणिगोवाणं उप्पत्तीए विणटजोगत्तादो च । एत्तो हेढा पुण बादरणिगोदो वामिस्सो होदि, खंधंडरावासपुलवियासु बादरणिगोदपज्जतापज्जत्ताणं अणंताणं सहावट्ठाणदंसणादो। सुहमणिगोदवग्गणाए पुण णियमा वामिस्सो* ।। ६३० ।। सुहमणिगोदवग्गणाए पज्जत्तापज्जत्ता च जण सत्वकालं संभवंति तेण सा णियमा पज्जत्तापज्जत्तजीवेहि वामिस्सा होदि । किमळं सव्वकालं संभवंति ? सुहमणिगोद. पज्जत्तापज्जत्ताणं वक्कमणपदेस-कालणियमाभावादो । एत्थ पदेसे एत्तियं चेव कालमुप्पत्ती परदो ण उप्पज्जति त्ति जेण णियमो स्थि* तेण सा सव्वकाले वामिस्सा त्ति भणिदं होदि। 'वक्कमदि जत्थ एयो वक्कमणं तत्थणंताणं' एदस्स गाहापच्छि सब बादर निगोद जीव पर्याप्त होते हैं, क्योंकि, बादर निगोद पर्याप्तकोंके साथ स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियों में उत्पन्न हुए अनन्त बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर सबके मर जानेपर वहाँ केवल बादर निगोद पर्याप्तकोंका ही अवस्थान देखा जाता है। शंका--- सब अपर्याप्तकोंका पहले ही मरण क्यों होता है ? समाधान-- क्योंकि, पर्याप्तकोंकी आयुसे अपर्याप्तकोंकी आयु स्तोक उपलब्ध होती है और अपूर्व बादर निगोदोंकी उत्पत्तिके कारणभूत योगका नाश हो जाता है । परन्तु इससे पूर्व बादर निगोद व्यामिश्र होता है, क्योंकि, स्कंध, अण्डर, आवास और पुलवियोंमें अनंत बादर निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका एक साथ अवस्थान देखा जाता है। परन्तु सूक्ष्मनिगोदवर्गणामें नियमसे मिश्ररूप है ।। ६३० ।। यतः सूक्ष्मनिगोदवर्गणामें पर्याप्त और अपर्याप्त जीव सर्वदा सम्भव हैं, इसलिए वह नियमसे पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंसे मिश्ररूप होती है। शंका-- उसमें सर्वकाल किसलिए सम्भव है ? समाधान-- क्योंकि, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंकी उत्पत्ति के प्रदेश और कालका कोई नियम नहीं है। इस प्रदेशमें इतनी ही कालतक उत्पत्ति होती है आगे उत्पत्ति नहीं होती इस प्रकारका चूंकि नियम नहीं है इसलिए वह सूक्ष्मनिगोदवर्गणा सर्वदा मिश्ररूप होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार वक्कमदि ‘जत्थ एयो वक्कमणं तत्थणंताणं' गाथा के इस पश्चिमार्धके अर्थका कथन ब ता० प्रती '-पज्जतापज्जत्ताणं (पज्जताणं) अणंजाणं' अ. का. प्रत्यो। । पज्जत्ताज्जत्ताणं पज्जत्ताणं ' इति पाठ ।* ता० प्रतौ 'वामिस्सा' इति पाठः । *अ०का प्रत्योः ' अस्थि इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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