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________________ ५, ६, ६२९ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया ( ४८३ केत्तियमेत्तेण चरिमकंडयचरिमसमए वक्कमिदजीवमेतेण । पढमसमए वक्कमति जीवा असंखेज्जगुणा ।। ६२६ ॥ को गणगारो? आवलियाए असंखेज्जदिभागो। अचरिमसमएस वक्कमंति जीवा विसेसाहिया ॥ ६२७ ॥ केत्तियमेत्तेण ? अपढम-अचरिमसमएसु वक्कमिदजीवमेत्तेण । सम्वेसु समएस वक्कमिदजीवा विसेसाहिया ॥ ६२८ ।। केत्तियमेत्तेण ? चरिमसमए वक्कमिदजीवमेत्तेण । एवं जीवअप्पाबहुअं समत्तं । सम्वो बादरणिगोदो पज्जत्तो वा वामिस्सो वा ॥ ६२९ ।। खधंडरावासपुलवियाओ अस्सिदूण एवं सुत्तं परूविदं ण सरीरं, एगम्मि सरीरे पज्जत्तापज्जत्तजीवाणमवढाणविरोहादो । किमट्टमिदं सुत्तमागदं ? खंधंडरावासपुलवियासु कि बादर-सुहमणिगोदजीवा सुद्धा पज्जत्ता चेव होंति आहो अपज्जत्ता चेव कि वामिस्सा ति पुच्छिदे एवं होति त्ति जाणावगळं इदं सुत्तमागदं । सव्वो बादरणिगोदो कितने अधिक हैं ? अन्तिम काण्डकके अन्तिम समयमें उत्पन्न हुए जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं। प्रथम समयमें उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगुणे हैं ॥ ६२६ ॥ गुणकार क्या है ? आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। अचरम समयों में उत्पन्न होनेवाले जीव विशेष अधिक हैं ॥ ६२७ ।। कितने अधिक हैं ? अप्रथम-अचरम समयोंमें उत्पन्न हुए जीवोंका जितना प्रमाण हैं उतने अधिक है। सब समयोंमें उत्पन्न हुए जीव विशेष अधिक हैं ॥ ६२८ ॥ कितने अधिक हैं ? अन्तिम समयमें उत्पन्न हुए जीवोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं। इस प्रकार जीव अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। सब बादर निगोद पर्याप्त है या मिश्ररूप है । ६२९ ॥ स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियों का आश्रय लेकर यह सूत्र कहा गया है, शरीरोंका आश्रय लेकर नहीं कहा गया है, क्योंकि, एक शरीरमें पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अवस्थान होने में विरोध है । शंका-- यह सूत्र किसलिए आया है ? समाधान-- स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियोंमें क्या बादर और सूक्ष्म निगोद जीव केवल पर्याप्त ही होते हैं या अपर्याप्त ही होते हैं या क्या मिश्र होते हैं ऐसा पूछनेपर इस प्रकार होते हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए यह सूत्र आया है। ४ अ० प्रती ' पढमए' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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