SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ६४० मूलय-थूहल्लयादिसु सेडीए असंखेज्जविभागमेत्तपुलवीओ अणंतजीवावूरिदअसंखेज्जलोगसरीराओ घेत्तण बादरणिगोदुक्कस्सवग्गणा होदि । णिगोदवग्गणाणं कारणपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं पणदि एदेसिं चेव सव्वणिगोदाणं मूलमहाखंधट्ठाणाणि ॥६४०॥ सव्वणिगोदाणमिदि वृत्ते सव्वबादरगिगोदाणमिवि घेतव्वं । सुहमणिगोदा किण्ण गहिदा? ण एत्थेव ते उप्पज्जति अण्णत्थ ण उप्पज्जति त्ति णियमाभावादो। महाक्खंधस्स हाणाणि त्ति भणिदे महावखंधस्स अवयवा त्ति घेत्तध्वं, ढाणसहस्स सरूवपज्जायस्स दंसणादो । तेण महाक्खंधावयवा सव्वणिगोदाणमुप्पणा मूलं कारणमिदि भणिदं होदि ण च मलसद्दो कारणत्थे अप्पसिद्धो, 'स्त्रियो मूलमनर्थानाम्' इत्यत्र मूलशब्दस्य कारणपर्यायस्योपलभ्भात् । महाक्खंधस्स द्वाणाणं परूवणठें उत्तरसुत्तं भणदि-- ___ अट्ठ पुढवीओ टंकाणि कडाणि भवणाणि विमाणाणि विमाणिदियाणि विमाणपत्थडाणि णिरयाणि णिरइंदियाणि णिरय मूली, थूवर और आर्द्रक आदिमें अनन्त जीवोंसे व्याप्त असंख्यात लोकप्रमाण शरीरवाली जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियाँ होती हैं । इन्हें ग्रहण कर बादरनिगोद उत्कृष्ट वर्गणा होतो है । अब निगोद वर्गणाओंके कारणका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- इन्हीं सब निगोदोंका मूल महास्कंधस्थान हैं ॥ ६४० ।। सब निगोदोंका ऐसा कहनेपर सब बादर निगोदोंका ऐसा कहना चाहिए । शंका- सूक्ष्म निगोदोंका ग्रहण क्यों नहीं किया है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, यहाँ ही वे उत्पन्न होते हैं, अन्यत्र उत्पन्न नहीं होते ऐसा कोई नियम नहीं है। महास्कन्धके स्थान ऐसा कहनेपर महास्कन्ध के अवयव ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, स्थान शब्द स्वरूप पर्यायवाची देखा जाता है। इसलिए महास्कन्धके अवयव सब निगोदोंकी उत्पत्तिमें मल अर्थात् कारण हैं यह उक्त कथन का तात्पर्य है । मल शब्द कारणरूप अर्थमें अप्रसिद्ध है यह कहना ठीक नहीं है. क्योंकि, 'स्त्रियो मूलमनर्थानाम् ' अर्थात् स्त्रियां अनर्थों का मल है इस वचनमें मल शब्द कारणवाची उपलब्ध होता है । अब महास्कन्धके स्थानोंका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- आठ पृथिवियां टङ्क, कूट, भवन, विमान, विमानेन्द्रक, विमानप्रस्तर, नरक ता०प्रती · चेव ( मध- ) णिगोदाणं अका० प्रत्योः ' चे व णिगोदाणं ' इति पाठ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy