SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ६, ६३९ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया (३४९३ "सुहमणिगोदवग्गणाए जहणियाए आवलियाए: - असंखेज्जदिभागमेसो णिगोदाणं ॥ ६३७ ॥ एसा जहणिया सहमणिगोदवग्गणा जले थले आगासे वा होदि, वव्व खेत्तकाल-भावणियमाभावादो । एदिस्से वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवियाओ अणंताणंतजीवावूरिदअसंखेज्जलोगमेत्तसरीराओ होति । संपहि सुहमणिगोदुक्कस्स। वग्गणाए पमाणपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि सुहमणिगोववग्गणाए उक्कस्सियाए आवलियाए असंखेज्जदि। भागमेत्तो 'णिगोवाणं ।। ६३८ ।। • जा उक्कस्सिया ' सुहमणिगोदवग्गणा तत्थ पुलवियाणं पमाणमावलियाए असंखेज्जदिभागो चेव । एदेण पल्लस्स असंखेज्जविभागादिसंखापडिसेहो कदो। एस। पुण सुहमणिगोदुक्कस्सवग्गणा महामच्छसरीरे चेव होंति ण अण्णत्थ, उवदेसाभावादो। 'संपहि बादरणिगोदुक्कस्सवग्गणाए पमाणपरूवणठें उत्तरसुत्तं भणदि बादरणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए सेडीए असंखेज्जविभागमेसो णिगोदाणं ॥ ६३९ ।। - जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणामें निगोदोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागमात्र है ॥ ६३७ ॥ यह जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणा जलमें, स्थल में और आकाशमें होती है, इसके लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका कोई नियम नहीं है। इसका भी अनन्तानन्त जीवोंसे व्याप्त असंख्यात लोकप्रमाण पारीरवाली आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियाँ होती हैं। अब उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणाके प्रमाणका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणामें निगोदोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागमात्र हैं।। ६३८ ।। जो उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा है उसमें पुलक्यिोंका प्रमाण आवलिके' असंख्यातवें भागमात्र ही है। इस वचन द्वारा पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण आदि संख्याका प्रतिषेध किया है। परन्तु यह उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा महामत्स्यके शरीरमें ही होती है, अन्यत्र नहीं होती, क्योंकि, अन्यत्र होती है ऐसा उपदेश नहीं पाया जाता। अब उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणाके प्रमाणका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणामें निगोदोंका प्रमाण जगणिके असंख्यातवें भागमात्र है ।। ६३९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy