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________________ .. .४९२) • छक्खंडागमे वमाणा-खंडं ( ५, ६. ६३६ केत्तियमेत्तो विसेसो ? आबलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो । जहण्णाउआदो - उक्कस्साउअं असंखेज्जगणमिदि के वि आइरिया भणंति तमेदेण सह किण्ण विरु... ज्झदे? ण, वक्खामेण सुत्तस्स बाधाभावादो । जबमज्झमरणचरिमसमए मोत्तूण-गुण सेडिमरणचरिमसमए चेव जहणिया बादरणिमोदवग्गणा होदि त्ति जाणावणठें - . उत्तरसुत्तं भणदि बावरणिगोदवग्गणाए जहणियाए. आवलियाए असंखेज्जदि.. भागमेत्तो णिगोदाणं ॥ ६३६ ॥ खीणकसायचरिमसमए जहणिया बांधरणिगोदवग्गणा होदि । तत्थ णिगोदाणं पमाणं आवलियाए असंखेन्जविभागो। के "णिगोदा णाम ? पुलवियाओत्र 'एदेण पल्लंगल-जगसेडि-पदरादीणमसंखेज्जदिभागो पडिसिद्धो । सुत्तेण विणा जणिया , · बादरणिगोदवग्गणा खोणकसायचरिमसमए चेव होदि ति कुदो गव्वदे? सुत्ताविरुध्दाई' इरियवयणादो। जहण्णसुहमणिगोदवग्गणाए पमाणपरूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि विशेषका प्रमाण कितना है ? विशेषका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागमात्र है। .: शंका--- जघन्य आयुसे उत्कृष्ट आयु: असंख्यातगुणी है ऐसा- कितने ही आचार्य कहते __ . हैं। उसके साथ विरोध कैसे नहीं होता ? | . . . समाधाम-- नहीं, क्योंकि व्याख्यानसे सूत्र में बाधा नहीं आती।। अब यवमध्यमरणके अन्तिम समयको छोडकर गुणश्रेणिमरणके अन्तिम समय में ही - जघन्य बादर निगोद वर्गणा होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- 7 जघन्य बादर निगोद वर्गणामें निगोदोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें.भाग' मात्र होता है ।। ६३६ ॥ क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य बादर निगोद वर्गणा होती है। वहाँ निगोदोंका . प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागमात्र है। शंका-- निगोद कौन है ? - समाधान-- पुलवियाँ । इस वचन के द्वारा पल्य. : अङ्गुल, जगश्रेणि और जगप्रतर आदिके असंख्यातवें • भागका प्रतिषेध हो जाता है। शंका-- सूत्रके बिना जघन्य बादर मिगोद वर्गणा क्षीणकषायके अन्तिम समय में ही होती है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -- सूत्राविरूद्ध आचार्योंके वचनसे जाना जाता है। अब जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणाके प्रमाणका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं * अ० प्रती ' असंखेमागो भागमेत्तो ' इति पाठ। ४ अ० प्रती 'उक्कस्साउअ संखेज्जगणमिदि ' इति पाठ: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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