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________________ ४१० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ४३० अद्धाणेसु एगेगसमयपबद्धस्स अद्धमद्धमप्पज्जदि त्ति णादव्वं । एवमुप्पण्णसमयपबद्धस्स अाणि संखेज्जावलियच्छेदणयमेत्ताणि होति । ते च छेदणया असंखेज्जा, जहण्णपरीत्तासंखेज्जस्स अद्धच्छेदणएहि जहण्णपरीत्तासंखेज्जे गणिदे आवलियद्धच्छेदणयसलागुप्पत्तीदो । तम्हा असंखेज्जसमयपबद्धमेत्तो ओरालियसरीरपदेसग्गसंचओ होदि त्ति घेत्तव्वं । एवं दो वि उवदेसे अस्सिदूण असंखेज्जसमयपबद्धमेतपदेसग्गं होदि त्ति सिध्दं । गवरि पुग्विल्ल उवदेसेण लदसमयपबध्देहितो पछिल्ल उवदेसेण लध्दसमयपबध्दा असंखेज्जगणहीणा । एत्थ बिदियउवदेसो ण घडदे, सामित्तसुत्तेण सह विरुध्दत्तादो । तं जहा- जदि निदियवियप्पो घेवि तो जत्थ उदये दो समयपबध्दा गलंति तत्तो हेट्ठा चेव उक्कस्ससामित्तेण होदव्वं ण चरिमसमए, आयादो वयस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो। ण च एवं, सुत्तविरुध्दस्त वक्खाणत्तविरोहादो। तव्वदिरित्तमणुक्कस्सं ॥४३० ।। एवम्हादो ओकडणवसेण एगपरमाणुम्हि फिट्टे अणुक्कस्सटाणमुप्पज्जदि । एवं दो-तिण्णि-चत्तारिआदिकमेण ऊणं कादूण अणक्कस्सट्टाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव एगविगलपक्खेवो परिहीणो त्ति । तदो एगजोगपवखेवेण परिहीणजोगट्टाणेण बंधाविय सरिसं कायव्वं । एवं जाणिदूण ओदारिय अणक्कस्सटाणाणि उप्पादेबत्तीसवें भाग और चौसठवें भाग आदि उपरिम अध्वानोंके जाने पर एक समयप्रबद्धका आधा आधा उत्पन्न होता है ऐसा यहां जानना चाहिए । इस प्रकार उत्पन्न हुए समयप्रबद्धके अर्धभाग संख्यात आवलियोंके अर्धच्छेदप्रमाण होते हैं। और वे अर्धच्छेद असंख्यात हैं; क्योंकि, जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंसे जघन्य परीतासंख्यातके गुणित करने पर एक आवलिके अर्धच्छेदों की शलाकायें उत्पन्न होती हैं। इसलिए औदारिकशरीरके प्रदेशाग्रका संचय असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार दोनों ही उपदेशोंका आश्रय लेकर असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण प्रदेशाग्र होता है यह सिद्ध हुआ। इतनी विशेषता है कि पहलेके उपदेशके अनुसार जो समय प्रबद्ध लब्ध आते हैं उनसे पिछले उपदेशके अनुसार लब्ध हुए समयप्रबद्ध असंख्यातगुणे हीन होते हैं। इनमें से यहां पर द्वितीय उपदेश घटित नहीं होता, क्योंकि, उसका स्वामित्व सूत्रके साथ विरोध आता है। यथा- यदि द्वितीय विकल्पको ग्रहण करते हैं तो जहां पर उदयमें दो समयप्रबद्ध गलते है उससे पूर्व ही उत्कृष्ट स्वामित्व होना चाहिए, अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व नहीं होना चाहिए, क्योंकि, वहां द्वितीय उपदेशके अनुसार आयसे व्यय असंख्यातगुणा उपलब्ध होता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, जो सूत्रविरुद्ध हो उसके व्याख्यान होने में विरोध आता है। उससे व्यतिरिक्त अनुत्कृष्ट प्रदेशाग्र है । ४३० ।। पहले जो उत्कृष्ट प्रदेशाग्र कह आये हैं उसमेंसे अपकर्षण वश एक परमाणुके नष्ट होने पर अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार दो, तीन और चार आदि कम करने के एक विकल प्रक्षेपके हीन होने तक अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न करने चाहिए। अनन्तर एक योगप्रक्षेपसे हीन योगस्थावके द्वारा बन्ध कराकर सदृश करना चाहिए । इस प्रकार जानकर उतारते हुए जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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