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________________ ५, ६, ४३२. ) बधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा ( ४११ दव्वाणि जाव जहण्णट्ठाणे ति। उक्कस्सपदेण वेउव्वियसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स।४३१॥ सुगम। अण्णवरस्स आरण-अच्चुदकप्पवासियदेवस्स बावीससागरोंवमट्ठिवियस्स ॥ ४३२ ॥ सम्मत्त-मिच्छत्तादीहि दवविसेसो पत्थि त्ति जाणावणळं अपणदरस्स गिद्दे सो कदो । हेटिम उवरिमदेवाणं रइयाणं च पडिसेहटें आरणच्चुदकप्पवासियदेवणिद्देसो कदो। सव्वदृसिद्धिदेवेसु दीहाउएसु उक्कस्ससामित्तं किण्ण दिज्जदे? ण, णवगेवज्जादिउवरिमदेवेसु उक्कस्स जोगपरावत्तणवाराणं पउरमणुवलंभादो। उक्कस्सजोगपरावत्तगवारा तत्थ पउरा ण लब्भंति ति कुदो णव्वदे? एदम्हादो चेव सुत्तादो उरि ओगाहणा दहरा त्ति तत्थ ण सामित्तं दिज्जदि त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, जोगवसेण आगच्छमाणकम्मणोकम्मपोग्गलाणमोगाहणादो संखाविसेसाणुप्पत्तीदो । हेटिमदेवेसु स्थानके प्रप्त होने तक अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न करने चाहिए । उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा वैक्रियिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है।४३१॥ __ यह सूत्र सुगम है। जो बाईस सागरको स्थितिवाला आरण और अच्युत कल्पवासी अन्यतर देव है ।। ४३२ ॥ सम्यक्त्व और मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे द्रव्य विशेष नहीं होता इस बातका ज्ञान कराने के लिए अन्यतर पदका निर्देश किया हैं । अधस्तन और उपरिम देवोंका तथा नारकियोंका प्रतिषेध करनेके लिए 'आरण और अच्युत कल्पवासी देव ' पदका निर्देश किया है। शका- दीर्घ आयुवाले सर्वार्थसिद्धि के देवोंमें उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं दिया? समाधान- नहीं, क्योंकि, नौ ग्रैवेयक आदि ऊपरके देवोंमें उत्कृष्ट योगके परावर्तनके बार प्रचुरमात्रामें नहीं उपलब्ध होते । शंका- वहाँ उत्कृष्ट योगके परावर्तनके बार प्रचुरमात्रा में नहीं उपलब्ध होते यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- इसी सूत्रसे जाना जाता है । ऊपर अवगाहना हस्व है, इसलिए वहाँ पर स्वामित्व नहीं देना चाहिए यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, योगके वशसे आनेवाले कर्म और नोकर्म पुद्गलोंकी अवगाहनाके कारण संख्याविशेष नहीं उत्पन्न होती। शंका- नीचेके देवोंमें उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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