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________________ ४१२ ) उपखंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ४३३ उक्कस्ससामित्तं किग्ण दिज्जदे ? ण तत्थ दीहाउआमावादो। सत्तमपुढविणेरइएसु दीहाउएसु उक्कस्सजोगेसु किण्ण दिज्जदे ? ण, तेसु संकिलेसबहुलेसु बहुणोकम्मणिज्जरदसणादो। एक्कारससागरोवमसंचयादो संकिलेसेण गलमागदां बहुअमिदि कुदो गव्वदे ? एदम्हादो चेव सुतादो। आरण-अच्चुददेवेसु सेसाउद्विदिपडिसेहट्ठ वावीससागरोवमदिदिणिद्देसो कदो। तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतम्भवत्येण उक्कस्सजोगेण आहारिदो ॥ ४३३ ।। उक्कस्सियाए वड्ढीए वड्ढिदो ॥ ४३४ ॥ अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तपदो ॥४३५॥ तस्स अप्पाओ भासद्धाओ ॥ ४३६ ॥ अप्पाओ मणजोगद्धाओ ।। ४३७ ।। एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । णत्थि छविच्छेदा ॥४३८ ॥ समाधान-- नहीं, क्योंकि, वहाँ पर लम्बी आयुका अभाव है। शंका-- सातवीं पृथिवीके नारकियोंकी आयु लम्बी होती है और उत्कृष्ट योग भी है, इसलिए वहाँ उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ? ___समाधान-- नहीं, क्योंकि, वे संक्लेशबहुल होते हैं, इससिए उनमें बहुत नोकर्मोकी निर्जरा देखी जाती है। ___ शंका-- ग्यारह सागरके भीतर होनेवाले संचयसे संक्लेशवश गलनेवाला द्रव्य बहुत है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- इसी सूत्रसे जाना जाता है । आरण और अच्युत कल्पके देवोंमें शेष आयुका प्रतिषेध करने के लिए 'बाईस सागरकी स्थितिवाले' पदका निर्देश किया है। उसी देवने प्रथम समयमें आहारक और प्रथम समयमें तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योगसे आहारको ग्रहण किया ॥ ४३३ ।। उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ ॥ ४३४ ॥ सबसे लघु अन्तर्मुहर्त काल द्वारा सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ॥ ४३५ ॥ उसके बोलनेके काल अल्प हैं ॥ ४३६ ।। मनोयोगके काल अल्प हैं ॥ ४३७ ।। ये सूत्र सुगम हैं। उसके छविच्छेद नहीं होते ।। ४३८ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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