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________________ ५, ६, ४४४. ) बधणाणुयोगदारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा वेउब्वियसरीरस्स छेदभेदावोणमभावादो । अप्पदरं विउव्विदो ॥ ४३९ ॥ कुदो बहुविउव्वणाए बहुआणं परमाणपोग्गलाणं गलणप्पसंगादो। थोवावसेसे जीविदवए ति जोगजवमज्झस्सुवरिमंतोमुत्तद्धमच्छिदो॥ ४४०॥ चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ।। ४४१॥ चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो ॥ ४४२ ।। तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स तस्स वेउब्वियसरीरस्स उक्कस्सपदेसग्गं ।। ४४३ ॥ एदेसि सुत्ताणं जहा ओरालियसरीरम्मि परूवणा कदा तहा कायव्वा. विसेसाभावादो। तन्वदिरित्तमणुक्कस्सं ॥ ४४४ ॥ एवं पि सुगमं । क्योंकि, वैक्रियिकशरीरके छेद व भेद आदिक नहीं पाये जाते । उसने अल्पतर विक्रिया को ।। ४३९ ॥ क्योंकि, बहुत विक्रिया करनेसे बहुत परमाणुपुद्गलोंके गलन होने का प्रसंग प्राप्त होता है। जीवितव्यके स्तोक शेष रहने पर वह योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा ।। ४४० ।। अन्तिम जीवगणहानिस्थानान्तरमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहा ।। ४४१ ।। चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ ॥ ४४२ ।। अन्तिम समयमें तद्भवस्थ हुआ वह जीव वैक्रियिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी है ।। ४४३ ॥ ___ इन सूत्रोंकी जिस प्रकार औदारिकशरीरके प्रसंगसे प्ररूपणा की है उस प्रकार करनी चाहिए, क्योंकि, कोई विशेषता नहीं हैं। उससे व्यतिरिक्त अनुत्कृष्ट है । ४४४ । यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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