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________________ छक्खंडागमे वग्गणा-खंचं ( ५, ६, ४४५ उक्कस्सपदेण आहारसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स |४४५ | सुगमं । अण्णदरस्स पमत्त संजदस्स उत्तरसरीरं णिउव्वियस्स ॥४४६ ॥ ओगाहणांदीहि दव्वभेदो णत्थि त्ति जाणावणट्ठे अण्णदरणिद्देसो कदो । पमादेण तत्थ आहारसरीरस्त उदओ अस्थि त्ति जाणावणट्ठे पमत्तगहणं कदं । असंजदप डिसेहट्ठ संजदग्गहणं कदं । तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण उक्कस्सजोगेण आहारिदो ॥ ४४७ ॥ उक्कस्सियाए वड्ढीए वड्ढिदो । ४४८ ॥ अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो । ४४९ । तस्स अप्पाओ भासद्धाओ ।। ४५० ॥ अप्पाओ मणजोगद्धाओ । ४५१ ॥ णत्थि छविच्छेदा ॥ ४५२ ॥ थोवावसेसे नियत्तिदव्बए त्ति जोगजवमज्झट्ठाणाए मितद्ध ४१४ ) उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा आहारकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है १४४५ | यह सूत्र सुगम है । उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेवाला जो अन्यतर प्रथम संयत जीव है ।। ४४६ ।। अवगाहना आदिकी अपेक्षा द्रव्यभेद नहीं है इस बातका ज्ञान करानेके लिए अन्यतर पदका निर्देश किया है । प्रमादके होने पर वहाँ आहारकशरीरका उदय नहीं है इस बातका ज्ञान कराने के लिए ' प्रमत्त' पदका ग्रहण किया है । असंयतका प्रतिषेध करनेके लिए 'संयत ' पदका ग्रहण किया है । उसी जीवने प्रथम समय में आहारक और प्रथम समय में तद्भवस्थ होकर योगद्वारा आहारको ग्रहण किया ।। ४४७ ॥ उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धिको प्राप्त हुआ If ४४८ ॥ सबसे लघु अन्तर्मुहूर्त कालद्वारा सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ । ४४९ ॥ उसके बोलनेके काल अल्प हैं । ४५० मनोयोग काल अल्प हैं || ४५१॥ छविच्छेद नहीं हैं ॥ ४५२ ॥ निवृत्त होनेके कालके थोडा शेष रह जाने पर योगयवमध्यस्थानके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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