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________________ ५, ६, ४५६ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा ( ४१५ मच्छिदो ॥ ४५३ ॥ चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ॥ ४५४ ।। चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सयं जोगं गदो ॥४५५ ।। तस्स चरिमसमयणियत्तमाणस्स तस्स आहारसरीरस्स उक्कस्सयं पवेसग्गं ।। ४५६ ।। एदाणि सुत्ताणि सुगमाणि । णवरि एसो पमत्तसंजदो आहारसरीरमुट्ठावेतो अपज्जत्तकाले अपज्जत्तजोगं पडिवज्जदि त्ति घेत्तव्वं, अण्णहा उक्कस्सियाए वड्ढीए आहारमिस्सद्धाए वडणाणववत्तीदो । किं च णिसेगरचणाए कीरमाणाए अवट्टिद-- सरूवेणेव णिसेगरचणा होदि ण गलिदसेसा । कथमेदं णव्वदे? आहारसरीरपरिसदणकालस्स अंतोमहत्तपमाणपरूवणादो। ण च कालभेदेण विणा एक्कम्मि चेव समए णिसित्ताणमेगसमएण विणा अंतोमहत्तण गलणं संभवदि, विरोहादो । सेसं सुगमं । एवं तिरिक्ख-मणुस्सेसु वेउवियसरीरस्स वि णिसेयरचणा वत्तव्वा, अण्णहा तत्थ परिसदणकालस्स अंतोमहत्तपमाणत्तविरोहादो। ऊपर परमित काल तक रहा ॥४५३॥ __ अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहा ॥४५४॥ चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ ।।४५५।। . निवृत्त होनेवाला वह जीव अन्तिम समयमें आहारकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी है ।।४५६॥ ये सूत्र सुगम हैं। इतनी विशेषता है कि यह प्रमत्तसंयत जीव आहारकशरीरको उत्पन्न करता हुआ अपर्याप्त काल में अपर्याप्त रोगको प्राप्त होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा उत्कृष्ट वृद्धिद्वारा आहारमिश्रकालके भीतर वृद्धि नहीं बन सकती । दूसरे निषेक रचना करने पर अवस्थितरूपसे ही निषेकरचना होती है, गलितशेष निषेकरचना नहीं होती। शंका-- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- क्योंकि, आहारक शरीरकी निर्जरा होनेका काल अन्तमहर्त प्रमाण कहा है। यदि कहा जाय कि कालभेदके विना एक ही समयमें निक्षिप्त हुए प्रदेशोंका एक समयके बिना अन्तर्मुहुर्तमें गलना सम्भव है सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा होने में विरोध आता है । शेष कथन सुगम है। इसी प्रकार तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें वैक्रियिकशरी - रकी भी निषेकरचना कहनी चाहिए, अन्यथा वहाँ पर क्षीण होनेका काल अन्तर्मुहुर्तप्रमाण होने में विरोध आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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