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________________ ५१० ) छपखंडागभे वग्गणा खंड ( ५, ६, ६५४ विणा कुदो णव्वदे? अविरुद्धाइरियवयणादो । तदो सुहमणिगोदजीवादो तम्मज्झादो च उवरि जवमज्झं गंतूण बादरणिगोदजीवअपज्जताणं पिल्लेवणढाणाणि आवलि. असंखे० भागमेत्ताणि होति त्ति सुत्तद्वत्तादो वा एसो विसेसोवगम्मदे । हेट्ठिमभागस्स आवलियाए असंखे० भागमेत्तमेदेणेव देसामासियसुत्तेणावगंतव्वं ।। तदो अंतोमहत्तं गंतूण सुहमणिगोवजीवअपज्जत्तयाणमाउअबंधजवमज्झं ॥६५४॥ तदो जवमज्झं गंतूणे त्ति अभणिय तदो अंतोमहत्तं गंतूण आउअबंधजवमज्झमिदि किमळं भणिदं ? जहा आहारादिपज्जत्तीणं उप्पणपढमसमए चेव पारंभो होदि तहा आउअबंधस्स पारंभो ण होदि किंतु उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि सगजहण्णजीवियस्स वेतिभागे गंतूण तिभागावसेसे आउअबंधो होदि त्ति जाणावणठं भणिदं। एत्थ जवमज्झसरूवपरूवणा कीरदे । तं जहा- तदियतिभागपढमसमए आउअबंधया जीवा जदि वि अणंता तो वि उवरिमजीवे पेक्खिदूण थोवा । बिदियसमए आउअबंधया जीवा विसेसाहिया । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया होदूण आउअं बधंति जवमझे त्ति । तदो अणंतरउवरिमसमए विसेसहीणा विसेसहीणा जाव सुहुमणिगोद शंका-- सूत्रके बिना यह किस प्रमाणसे जाान जाता है ? समाधान-- अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है। अथवा सूक्ष्म निगोदके यवसे और उसके मध्यसे ऊपर यवमध्य जाकर बादर निगोद अपर्याप्त जीव के निर्लेपनस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं इस प्रकार यह विशेष सूत्रके अर्थका परामर्श करनेसे जाना जाता है। अधस्तन भाग का जो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है वह इसी देशामर्षक सूत्रसे जानना चाहिए । उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंका आयुबन्ध यवमध्य होता है ।। ६५४ ॥ शंका-- उसके बाद यवमध्य जाकर ऐसा न कहकर उसके बाद अन्तर्महतं जाकर ऐसा किसलिए कहा है ? समाधान-- जिस प्रकार आहार आदि पर्याप्तियोंका उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही प्रारम्भ होता है उस प्रकार आयुबन्धका प्रारम्भ नहीं होता किन्तु उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर अपने जघन्य जीवित रहने के दो त्रिभाग जाकर एक त्रिभाग शेष रहने पर आय बन्ध होता है इस बात का ज्ञान कराने के लिए कहा है। यहां पर यवमध्यके स्वरूपका कथन करते हैं । यथा- तृतीय त्रिभागके प्रथम समयमें आयुका बन्ध करनेवाले जीव यद्यपि अनन्त हैं तो भी आगेके जीवोंको देखते हुए थोडे हैं। दूसरे समयमै आयुका बन्ध करनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक विशेष अधिक विशेष अधिक जीव आयुका बन्ध करते हैं। उसके बाद अनन्त र उपरिम समयोंमें विशेष हीन विशेष हीन जीव आयु का बन्ध करते हैं। इस प्रकार यह क्रम सुक्ष्म निगोद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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