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________________ ५, ६, ६३२ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया ( ४८७ वुच्चदे- असंखेज्जगणहीणाए सेडीए कमेण वि उप्पज्जति अक्कण वि अणंता जीवा एगसमए उप्पज्जति । ण च साहारणत्तं फिट्टदि । साहारणआहारो साहारणआणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥ २२ ।। एदीए गाहाए भणिदलक्खणाणमभावे साणारणत्तविणासादो । तदो एगसरीरुप्पण्णाणं मरणक्कमेण णिग्गमो होदि त्ति एवं पि ण विरुज्झदे । ण च एगसरीरुप्पण्णा सवे समाणाउआ चेव होंति त्ति णियमो अस्थि जेण अक्कमेण तेसि मरणं होज्ज । तम्हा एगसरीरटिदाणं पि मरणजवमज्झं समिलाजवमज्झं च होदि त्ति घेत्तव्वं । संपहि सो मरणक्कम्मो दुविहो जवमझकमेण अजवमझकमेण चेदि । तत्थ जवमज्झकमेण मरणविहाणमवरि भणिस्सदि। अजवमज्झकमेण जो णिग्गमो तप्परूवणळं उत्तरसुत्तं भणदि __ सन्वुक्कस्सियाए गुणसेडीए मरणेण मवाणं सवचिरेण कालेण जिल्लेविज्जमाणाणं तेसिं चरिमसमए मदावसिट्ठाणं आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तो णिगोदाणं ।। ६३२ ।। मरणगुणसेडी जहण्णा वि अस्थि उक्कस्सा वि अस्थि । तत्थ जहण्णगणसेडि समाधाव-- यहां इस शंका का परिहार करते हैं-- असंख्यातगुणी हीन श्रेणिके क्रमसे भी उत्पन्न होते हैं और अक्रमसे भी अनन्त जीव एक समयमें उत्पन्न होते हैं। और साधारणपना भी नष्ट नहीं होता है, क्योंकि-- साधारण आहार और साधारण श्वास-उच्छ्वासका ग्रहण यह साधारण जीवोंका साधारण लक्षण कहा है ।। २२ ॥ इस प्रकार इस गाथा द्वारा कहे गये लक्षणोंके अभावमें ही साधारणपने का विनाश होता है। इसलिए एक शरीरमें उत्पन्न हुए निगोदोंका मरणके क्रमसे निर्गम होता है इस प्रकार यह कथन भी विरोधको नहीं प्राप्त होता। और एक शरीरमें उत्पन्न हुए सब समान आयुवाले ही होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है, जिससे अक्रमसे उनका मरण होवे, इसलिए एक शरीरमें स्थित हुए निगोदोंका मरण यवमध्य और शमिलायवमध्य है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। वह मरण दो प्रकारका है- यवमध्यके क्रमसे और अयवमध्यके क्रमसे। उनमें से यवमध्यके क्रमसे मरणविधिका कथन आगे करेंगे। अयवमध्यके क्रमसे जो निर्गम है उसका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं--- सर्वोत्कृष्ट गुणश्रेणि द्वारा मरणसे मरे हुए तथा सबसे दीर्घ काल द्वारा निर्लेप्यमान होनेवाले उन जीवोंके अन्तिम समयमें मृत होनेसे बचे हुए निगोदोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ ६३२ ।। __ मरणगुणश्रेणि जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। उनमें से जघन्य गुणश्रेणिमरणका www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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