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________________ ४८६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५,६ ६३१ पबद्धाणं' तेण पुवमणिदपयारेण असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए पबद्धाणं समुप्पण्णाणमुष्पत्तिकमेण असंखेज्जगणहीणाए सेडीए णिग्गमो स्थि किंतु मरणक्कमेण णिग्गमो होदि त्ति भणिदं होदि । कत्तो तेसि णिग्गमो ? एगसरीरादो । जहण्णसंचयकालेण संचिदाणं अण्णोण्णाणुगयभावेण जहण्णकालमवदिवाणं मरणक्कमेण णिग्गमो होदि । उप्पत्तिकमेण ण होदि ति किमळं वच्चदे ? ण, एत्थ जहण्णवक्कमणकालेण सचिदागं जहाणपबंधणकालेण पबद्धाणं चेव मरणक्कमेण णिग्गमो होदि ति णियमाभावादो। किंतु जहण्णवक्कमण-जहण्णपबंधणकालवयणं देसामासियं तेण सव्ववक्कमणकालेसु संचिदाणं सव्वपबंधणकालेसु पबद्धाणं उप्पत्तिकमेण णिग्गमो ण होदि। किंतु मरणक्कमेण होदि ति पत्तेयं पत्तेयं परूवणा कायवा । एक्कम्हि सरीरे उप्पज्जमाणबादरणिगोदा किमक्कमेण उप्पज्जति आहो कमेण । जदि अक्कमेण उप्ज्ज्जंति तो अक्कमेणेव मरणेण वि होदव्वं, एक्कम्हि मरते सते असि मरणाभावे साहारणत्तविरोहादो । अह जइ* कमेण असंखेज्जगणहीणाए सेडीए उज्पण्जंति तो मरणं पि जवमज्झगारेण ण होदि, साहारणत्तस्स विणासप्पसंगादो त्ति । एत्थ परिहारो प्रकारके अनुसार असंख्यातगुणी हीन श्रेणिरूपसे बँधे हुए और उत्पन्न हुए निगोदोंका उत्पत्तिके क्रमसे अर्थात् असंख्यातगुणी हीन श्रेणिरूपसे निर्गम नहीं होता किन्तु मरणके क्रमसे निर्गम होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका-- किससे उनका निर्गम होता है ? समाधान-- एक शरीरसे । शंका-- जघन्य संचयकाल द्वारा संचयको प्राप्त हुए और परस्पर अनुगतरूपसे जघन्य कालतक अवस्थित हुए जीवोंका मरणके क्रमसे निर्गम होता है, उत्पत्तिके क्रमसे नहीं होता है यह किसलिए कहते हैं ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, यहाँपर जघन्य उत्पत्तिकालके द्वारा संचित हुए और जघन्य प्रबन्धनकालके द्वारा बन्धको प्राप्त हुए जीवोंका ही मरणके क्रमसे निर्गम होता है इस प्रकारका नियम नहीं है। किन्तु जघन्य उत्पत्तिकाल और जघन्य प्रबन्धनकाल वचन देशामर्षक है। इससे सब उत्पत्ति कालोंमें संचित हुए और सब प्रबन्धन कालोंमें बन्धको प्राप्त हुए जीवोंका उत्पत्तिके क्रमसे निर्गम नहीं होता है, किन्तु मरणके क्रमसे निर्गम होता है, इस प्रकार अलग अलग प्ररूपणा करनी चाहिए। शंका-- एक शरीर में उत्पन्न होने वाले बादर निगोद जीव क्या अक्रमसे उत्पन्न होते हैं या क्रमसे ? यदि अक्रमसे उत्पन्न होते हैं तो अक्रमसे ही मरण होना चाहिए, क्योंकि, एकके मरनेपर दूसरों का मरण न होनेपर उनके साधारण होने में विरोध आता है। और यदि क्रमसे असंख्यातगुणी हीन श्रेणिरूपसे उत्पन्न होते हैं तो मरण भी यवमध्य के आकाररूपसे नहीं हो सकता है, क्योंकि, साधारणपने के विनाशका प्रसंग आता है ? णिग्गमो होदि ' इति ४ मप्रतिपाठोऽयम् । अ० प्रती - णिग्गमो (ण) होदि ' अ. का. प्रत्योः पाठ 1 * मप्रतिपाठोयम् । प्रतिष 'अइ जइ' इति पाठः । Jain Education International www.jainelibrary.org' For Private & Personal Use Only
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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