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________________ ५१२ ) पखंडागमे वगणा-ख समओ त्ति ताव एत्तियमद्धाणं गंतण मरणजवमज्झस्त पारंभो होदि त्ति घेत्तन्वं । एत्थ जवमज्झसरूवपरूवणा कीरदे । तं जहा-खद्दाभवग्गहणचरिमसमए मरंता जीवा अणंता वि होदूण उवरिमेहितो थोवा । तदणंतरउवरिमसमए मरंता जीव विसेसाहिया। एवं विसेसाहिया विसेसाहिया मरंति जाव जवमज्झे ति। तेण परं विसेसहीणा होदण मरंति जाव गिसेयखुद्दाभवग्गहणचरिमसमओ त्ति । एत्थ मरणजवमज्झस्स हेट्ठिमउवरिमअद्धाणं सव्वं णिसेयखद्दाभवग्गहणस्त संखेज्जा भागा। किंतु हेट्ठा आवलि. असंखे० भागो उवरि अंतोमहत्तं । एत्थ वि गुणहाणिअद्धाण-णाणागणहाणिसलागासु आइरियाणं पुव्वं व विप्पडिवती परूवेयव्वा । एदेसि तिण्ण जवमज्झाणमभंतरे एगा वि दुगुणवड्ढी णत्थि एसो अत्थो जत्तिमंतो । कुदो? सुत्तम्मि णाणागुणहाणिसलागाणमेगगुणहाणिअद्धाणस्स च पमाणपरूवणाभावादो । ण च संतमत्थं सुत्तं वक्खाणाणि वा ण परूवेंति, विरोहादो। तदो अंतोमहत्तं गंतण बादरणिगोदजीवअपज्जत्तयाणं मरण -- जवमज्झं । ६५७ । जहा सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयाणं मरणजवमज्झस्स परूवणा कदा तहा ग्रहणके अन्तिम समय तक इतना स्थान जाकर मरणयवमध्य ऐसा ग्रहण करना चाहिए। यहाँ पर यवमध्यके स्वरूपका कथन करते है। यथा-क्षल्लकभवग्रहणके अन्तिम समयमें मरने वाले जीव अनन्त होकर भी आगेके जीवोंसे स्तोक होते है। उससे अनन्तर उपरिम समयमें मरनेवाले जीव विशेष अधिक होते हैं । इस प्रकार यवमध्यके प्राप्त होने तक मरनेवाले जीव प्रति समय में विशेष अधिक विशेष अधिक होते हैं। उसके बाद निषेक क्षुल्लकभवग्रहणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक प्रत्येक समय में विशेष हीन विशेष हीन जीव मरते हैं। यहाँ पर मरण यवमध्यका अधस्तन और उपरिम सब अध्वान निषेक क्षुल्लक भवग्रहणका संख्यात बहभागप्रमाण होता है। किन्त अधस्तन अध्वान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उपरिम अध्वान अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है। यहाँ पर गुणहानिअध्वान और नानागुणहानिशलाकाओंके विषयमें आचार्यों में विवाद है सो इसका कथन पहले के समान करना चाहिए। इन तीनों ही यवमध्योंके बीच में एक भी द्विगुणवृद्धि नहीं है यह अर्थ युक्तिको लिए हुए है, क्योंकि, सूत्रमें नानागुणहानिशलाकाओंके और एक गुणहानिअध्वानके प्रमाणका कथन नहीं किया है। सूत्र व व्याख्यान सद्रूप अर्थका व्याख्यान नहीं करते हैं ऐसा नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है । उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंका मरणयवमध्य होता है ।। ६५७ ॥ जिस प्रकार सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके मरणयवमध्यका कयन किया है उस प्रकार * ता. प्रतो 'परूवेति ति, 'विरोहादो ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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