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________________ ५, ६, ६५८ बंधानुयोगद्दारे चूलिया ( ५१३ बादरणिगोदजीव अपज्जत्ताणं पि मरणजवमज्झस्स परूवणा कायव्वा । णवरि बादरणिगोदअपज्जत्ताणं मरणजवमज्झे पारंभिय आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तद्वाणे गदे संते पच्छा हुमणिगोदअपज्जत्तजवमज्झस्स पारंभो होदि । सुहुमणिगोदअपज्जतजवमज्झे समत्ते संते पच्छा उवरि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तद्वाणं गंतूण बादरणिगोदअपज्जत्ताणं मरणजवमज्झं समप्यदि । के वि अंतोमृहुत्तमिदि भांति ! एवं दोष्णं जवाणं मज्झे देसपरूवणा जाणिवण कायव्वा । जहण्णाउअम्मि संचय गदहुमणि गोदअपज्जत्तएसु कालं काढूण णिट्टिदेसु जहण्णाउअम्मि संचयं गवबादरणिगोद अपज्जत्ता पच्छा कालं काऊण समप्यंति त्ति भणिदं होदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमणिगोदजीव अपज्जत्तयाणं णिव्वत्तिट्ठाणाणि आवलि० असंखेज्ज० भागमेत्तानि ।। ६५८ ।। तदो अंतोमुहुत्तं गंतणे त्ति वृत्ते मरणजवमज्झचरिमसमयादो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतून निव्वत्तिद्वाणाणि होंति त्ति ण घेत्तव्वं । किंतु उप्पण्णपढमसमय पहुडि अंत्तोमुहुत्तं गंतून मरणजवमज्झचरिमसमयप्पहूडि निव्वत्तिद्वाणाणि उवरि आवलि० असंखे० भागमेत्ताणि होंति त्ति घेत्तव्वं । कुदो ? सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तआउअस्स जिसे यट्टिदिवियप्पाणं णिव्यत्तिट्ठाण त्तन्भुवगमादो । तं जहा - सुहुमणिगोदजीवबादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके भी मरणयवमध्यका कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि बाहर निगोद अपर्याप्तकों के मरणयवमध्यको प्रारम्भ करके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने पर बादमें सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकों के यवमध्यका प्रारम्भ होता है । सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकों के यवमध्यके समाप्त होनेपर बाद में ऊपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर बादर निगोद अपर्याप्तकों का मरण यवमध्य समाप्त होता है । यहाँ कितने ही आचार्य अन्तर्मुहूर्त काल कहते है । इस प्रकार दोनों यवोंके मध्य में देशप्ररूपणा जानकर करनी चाहिए | जघन्य आयुके भीतर संचित हुए बादर निगोद अपर्याप्तकों के मरकर समाप्त होने के बाद जघन्य आयुके भीतर संचित हुए बादर निगोद अपर्याप्त जीव मरकर समाप्त होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वृत्तिस्थान होते हैं ।। ६५८ ॥ उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर ऐसा कहने पर मरणयवमध्यके अन्तिम समय से ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर निर्वृत्तिस्थान होते हैं ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए | किन्तु उत्पन्न होने के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त जाकर मरणयवमध्यके अन्तिम समयसे लेकर निर्वृत्तिस्थान ऊपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकी आयुके जो निषेकस्थितिविकल्प हैं उन्हें निर्वृत्तिस्थानरूपसे स्वीकार किया है । * अ० का० प्रत्यो - णिगोदअरज्जत्ताणं इति पाठ । ता० प्रतो त्रित्तिद्वाणत्वगमादो' इति पाठ | Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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