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________________ ५१४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ६५९ अपज्जत्तयस्स सम्वजहण्णं णिसेयखद्दाभवग्गहणं तमेगं णिवत्तिटाणं । पुणो जं समउत्तरं णिसेयखुद्दाभवग्गहणं तं बिदियणिवत्तिद्वागं । जं दुसमउत्तरं गिसेयखुद्दाभवग्गहणं तं तदियणिवत्तिद्वाणं । एवं तिसमयउत्तरादिकमेण आवलि० असंखे० भाग मेत्तणिव्वत्तिद्वाणाणि जिरंतरमरि गंतूण सहमणिगोदजीवअपज्जत्ताणं सवुक्कस्सआउणिव्वत्तिढाणं होदि त्ति सिद्धं । तदो अंतोमहत्तं गंतूण बावरणिगोदजीवअपज्जत्तयाण* णिवत्तिट्ठाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ।। ६५९ ।। तदो अंतोमहुत्तं गंतूणे ति वृत्ते एत्थ वि उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि जाव मरगजवमज्झचरिमसमओ ति ताव एदमतोमहत्तमेतद्धाणं गंतूण मरणजवमज्झचरिमसमयप्पहुडि उवरि आवलि. असंखे० भागमेत्ताणि बादरणिगोदजीवअपज्जत्ताणं णिवत्तिट्ठाणाणि होति त्ति घेत्तव्वं । णवरि एदाणि बादरणिगोदअपज्जत्तणिव्वत्तिद्वाणाणि सुहमणिगोदअपज्जत उक्कस्सणिव्वत्तिद्वाणादो उरि आवलि० असंखे०भागमेत्तमद्धाणं* गंतूण द्विदाणि त्ति घेत्तव्वं । कुदो एवं जव्वदे ? ततो पच्छा एदस्स सुत्तस्स णिद्देसण्णहाणुववत्तीदो । यथा- सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवका सबसे जघन्य जो निषेक क्षुल्लक भवग्रहण है वह एक निर्वत्तिस्थान है । पुनः जो एक समय अधिक क्षुल्लकभवग्रहण है वह दूसरा निर्वत्तिस्थान है । जो दो समय अधिक निषेक क्षुल्लक भवग्रहण है वह तिसरा निर्वत्तिस्थान है। इस प्रकार एक समय अधिक आदिके क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वत्तिस्थान निरन्तर ऊपर जाकर सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंका सर्वोत्कृष्ट आयुनिर्वृत्तिस्थान होता है यह सिद्ध हुआ। उसके बाद अन्तर्महर्त जाकर बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वत्तिस्थान होते हैं ।। ६५९ ॥ उसके बाद अन्तर्मुहर्त जाकर ऐसा कहने पर यहाँ भी उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर मरणयवमध्यके अन्तिम समयतक यह अन्तर्मुहुर्तप्रमाण अध्वान जाकर मरणयवमध्य के अन्तिम समयसे लेकर ऊपर बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण निर्वत्तिस्थान होते हैं ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि बादर निगोद अप प्ति जीवोंके ये निर्वत्तिस्थान सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकों के उत्कृष्ट निर्वृत्तिस्थानसे ऊपर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अध्वान जाकर स्थित हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । शंका-- यह कित प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- क्योंकि, उसके बाद इस सूत्रका निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है। ४ ता० का० प्रत्यो: ' एवं तिसमउत्तरादिकमेण ' इति पाठः । * ता० प्रती · बादरणिगोदअप्पज्जत्तयाणं ' इति पाठः। ता० प्रती गंतुणे ति एत्थ ' इति पाठ:1:का० प्रती 'मेतद्धाणं ' इति पाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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