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________________ ५, ६, ९३.) बंधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा (१०३ एवं जाणिदूण छप्पि पुंजा परिवाडीए वड्ढावेदव्वा जाव चरिमसमयफड्डय जीवाणमुक्कस्सट्टाणपमाणं दुचरिमफड्डयजीवाणं छप्पुंजा पत्ता त्ति । पुणो एदस्स परमाणुत्तरकमेण ओरालियसरीरपुंजस्सुवरि अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता परमाण सविस्तसुवचयसहिदा अपुणरुत्तट्टाणप्पत्तिणिमित्ता वड्ढावेदव्वा । वड्ढंता वि केतिया इदि वृत्ते एगबादरणिगोदजीवस्स जत्तिया विस्ससुवचयसहिदोरालियपरमाण संभवंति तत्तियमेत्ता । तदो अण्णो जीवो पुत्वत्तोरालियसरीरदब्वमेत्तेगोरालियसरीरमब्भहियं काऊण पुणो विस्ससुवचयसहिदेगपरमाणुणा तेजासरीर*मभहियं काऊणच्छिदो ताधे सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तटाणाणि अंतरिदूण अण्णमपुणरुत्तद्वाणं होदि । पुणो णिरंतरमिच्छामो त्ति इममागदपरमाणुं पण्णाए पुध ट्रविय पुणो एदस्स जत्तिया विस्ससुवचयपरमाणू अस्थि तत्तियमेतविस्ससुवचयएहि ऊणतेजइयसरीरपुंजम्मि पुवमणिदपरमाणुम्हि वढिदे गिरतरं होदूण अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो एगविस्ससुवचयपरमाणुम्हि वढिदे अण्णेगमपुणरुत्तट्टाणं होदि । दोसु विस्तसुवचयपरमाणुसु वढिदेसु बिदियमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । तिसु विस्ससुवचयपरमाणुसु वढिदेसु तदियमपुणरत्तटाणं होदि । एवं जाव सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्तविस्ससुवचयपरमाणुपोग्गलेसु बड्ढिदेसु एत्तियाणि चेव अपुणरुत्तट्टाणाणि लद्धाणि होति । पुणो एवं वड्ढावेदव्वं जाव परमाणुको प्रवेश कराकर बढाना चाहिए । इस प्रकार जानकर छहों पुञ्ज अन्तिम समयवर्ती स्पर्धक जीवोंके उत्कृष्ट स्थान प्रमाणको द्विचरम समय सम्बन्धी स्पर्धक जीवोंके छह पुञ्ज प्राप्त होने तक आनुपूर्वी क्रमसे बढाना चाहिए। पुन: इस औदारिकशरीरके पुञ्जके ऊपर एक परमाणु अधिकके क्रमसे अपने विस्रसोपचयसहित अपुनरुक्त स्थानोंको उत्पन्न करने के लिए अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण परमाणु बढाने चाहिए। बढाते हुए कितने बढाने चाहिर ऐसा पूछने पर कहते हैं कि एक बादर निगोद जीवके विस्रसोपचयसहित जितने औदारिक परमाणु सम्भव हैं उतने बढाने चाहिए। अनन्तर एक अन्य जीव लीजिए जो पुर्वोक्त औदारिक शरीरके द्रव्यमात्र एक औदारिकशरीरको अधिक करके तथा विस्र सोपचय सहित एक परमाणुके द्वारा तैजसशरीरको अधिक करके अवस्थित है तब सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थानोंका अन्तर देकर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । पुन: निरन्तर स्थान चाहते हैं इसलिए इस आयें हुए परमाणुको बुद्धि के द्वारा पृथक् स्थापित करके पुनः इसके जितने विस्रसोपचय परमाणु हैं उतने विस्रसोपचयोंसे रहित तेजसशरीरके पुञ्जमें पहले अलग किये गये परमाणुके बढाने पर निरन्तर होकर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । पुनः एक विस्रसोपचय परमाणुके बढने पर अन्य एक अपुनरुक्त स्थान होता है। दो विस्रसोपचय परमाणुओंके बढ़ने पर दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। तीन विस्रसोपचय परमाणुओंके बढ़ने पर तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढ़ने पर इतने ही अपुनरुक्त स्थान लब्ध होते हैं। म० प्रती ' चरिमसमयफाइडय ' इति पाठ | * ता. प्रतो -परमाणुते जासरीर- इति पाठ: 1 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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