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________________ १०४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ६, ९३. अभवसिद्धिएहि अणंतगणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तेजापरमाण सव्वजीवेहि अणंत-- गुणमेत्ता तेजाविस्तासुवचयपरमाणू च वड्ढिदा ति। वड्ढंता वि केत्तिया त्ति वुत्ते एगबादरणिगोदस्स जीवस्स तेजासरीरम्हि जत्तिया विस्सासुवचयसंजुत्ता परमाणू अस्थि तेत्तियमेत्ता। पुणो अण्णो जीवो पुव विहाणेणागंतूण खीणक सायदुचिरमसमए ओरालियतेजासरीराणि पुवुत्तवढिवदव्वेण अहियाणि काऊग पुणो कम्मइयसरीरं विस्सासुवचयसंजुत्तेगकम्मपरमाणुणा अमहियं कादूच्छिदो ताधे सधजीवेहि अणंतगुणमेत्तट्ठाणाणि अंतरिदूण अण्णद्वाण मप्पज्जदि । पुणो गिरंतरमिच्छामो ति इममागदविस्सासुवचयसहिदपरमाणुं पण्णाए पुध द्वविय एगपरमाणु विस्सासुवचयपमाणेण परिहोणकम्मइयसरीरपुंजम्मि पुवमणिद परमाणुम्हि पक्खित्ते परमाणुत्तरं होदूण अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो एगकम्मइयविस्सासुवचयपरमाणुम्हि वढिदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि। दोसु* कम्मइयविस्सासुवचयपरमाणुपोग्गलेस वड्ढिदेमु बिदियमपुणरुत्तट्टाणं होदि । एवं यव्वं जाव सव्वजीवेहि अणंतगणमेत्ता विस्तासुवचयपरमाणू वड्ढिदा त्ति । ताधे एत्तियाणि चेव अपुणरुत्तट्ठाणाणि लद्धाणि होति । पुणो एवमेगेग पुन: इस प्रकार अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण तैजसशरीरके परमाण और सब जीवोंसे अनन्तगुणे तैजसशरीरके विस्रसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि होने तक बढाते जाने चाहिए । इस प्रकार बढाते हुए वे कितने हैं ऐसा पूछने पर कहते हैं कि एक बादर निगोद जीवके तैजसशरीरमें जितने विस्रसोपचय सहित परमाणु हैं वे उतने हैं। पुनः एक अन्य जीव लीजिए जो पूर्वोक्त विधिसे आकर क्षीणकषायके द्विचरम समय में औदारिक और तैजसशरीरको पूर्वोक्त बढ हुए द्रव्यसे अधिक करके तथा कार्मणशरोर को विस्रसोपचय सहित एक कर्मपरमाणुसे अधिक करके स्थित है तब सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थानोंका अन्तर देकर अन्य स्थान उत्पन्न होता है। पुनः निरन्तर स्थान चाहते हैं इसलिए इस आये हुए विस्रसोपचय सहित एक परमाणुको बुद्धिसे अलग स्थापित करके एक परमाणु विस्रसोपचयक प्रमाणसे हीन कार्मणशरीरके पुञ्जमें पहले निकले हुए परमाणुके मिलाने पर एक परमाणु अधिक होकर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। पुनः एक कार्मण विस्रसोपचय परमाणुके बढ़ने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। दो कार्मण विस्र सोपचय परमाणु पुद्गलोंके बढाने पर दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार सब जीवोंसे अनन्त गुण विस्रसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि होने तक ले जाना चाहिए । तब इतने ही अपुनरुक्त स्थान लब्ध होते हैं । पुनः इस प्रकार एक एक विस्रसोपचयसहित कर्मपरमाणुका पुनः पुनः प्रवेश 0 ता० प्रतौ ‘जीवो वि पुव-' इति पाठ:1 . अ० का० प्रत्योः 'अप्पट्ठाण-' इति पाठः । ता० आ० का० प्रतिषु 'पुत्ववणिद-' इति पाठः। *ता० प्रती 'परमाणुत्तरं होदूण अण्ण ___मपुणरुत्तट्ठाण होदि ] दोसु ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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