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________________ ५, ६, ३२३ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ ( ३६७ भागाभागाणुगमो अप्पाबहुए ति ॥ ३२० ॥ एदाणि छच्चेव एत्थ अणुयोगद्दाराणि होति, अण्णेसिमसंभवादो। सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहणिया अग्गठ्ठिदी ।३२१॥ जहण्णणिवत्तीए चरिमणिसेओ अग्गं णाम । तस्स टिदी जहणिया अग्गदिदी त्ति घेत्तवा । जहण्णणिवत्ति त्ति भणिदं होदि। अग्गट्ठिविविसेसो असंखेज्जगुणो ।। ३२२ ॥ को गण ? पलिदो० असंखे०भागो। कुदो ? उक्कस्समग्गं णाम तिण्णं पलिदोवमाणं चरिमणिसेओ। तस्स दिदी तिण्णि पलिदोवमाणि उक्कस्सअग्गट्टिवी णाम। तत्थ जहण्णअग्गट्टिदीए अवणिवाए अग्गद्विदिविसेसो। तम्हि जहण्णअग्गदिदीए भागे हिदे पलिदो० असंख०मागवलंभादो। अग्गठिविट्ठाणाणि रूवाहियाणि विसेसाहियाणि ॥३२३॥ अग्गदिदिविसेसेहितो अग्गट्टिविट्ठाणाणि विसेसा० । केत्तियमेत्तो विसेसो त्ति मणिवे एगरूवमेत्तो त्ति जाणावणठें रूवाहियाणि त्ति भणिदं। एगरूवाहियाणि त्ति पदुप्पडि विसेसाहियणिद्देसो ण कायव्यो ? ण एस दोसो, दवटियणयाणुग्गहढें अग्रस्थितिस्थान, उत्कृष्ट अग्रस्थिति, भागाभागानगम और अल्पबहुत्व । ३२० । यहाँ ये छह ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि, अन्य अनुयोगद्वार सम्भव नहीं हैं। औदारिकशरीरको जघन्य अग्रस्थिति सबसे स्तोक है । ३२१ । जघन्य निर्वृत्तिके अन्तिम निषेककी अग्र संज्ञा है। उसकी स्थिति जघन्य अग्रस्थिति है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। जघन्य निर्वृत्ति यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उससे अग्रस्थितिविशेष असंख्यातगुणा है । ३२२ । गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, क्योंकि, उत्कृष्ट अग्र तीन पल्यके अन्तिम निषेककी संज्ञा है। उस अन्तिम निषेककी जो तीन पल्यप्रमाण स्थिति है वह उत्कृष्ट अग्रस्थिति है। उसमें से जघन्य अग्रस्थितिके कम कर देने पर जो लब्ध आवे उतना अग्रस्थितिविशेष होता है। उसमें जघन्य अग्रस्थितिका भाग देने पर पल्यका असंख्यातवाँ भाग उपलब्ध होता है। उससे अग्रस्थितिस्थान रूपाधिक विशेष अधिक हैं ॥ ३२३ ॥ अग्रस्थितिविशेषसे अग्रस्थितिस्थान विशेष अधिक है । विशेषका प्रमाण कितना है ऐसा पूछने पर एक अंकप्रमाण है, इस बातका ज्ञान कराने के लिए सूत्र में 'रूवाहियाणि' ऐसा कहा है। शंका-- एक अंकप्रमाण अधिक हैं ऐसा कहने पर विशेषाधिक पदका निर्देश नहीं करना चाहिए ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्यार्थिकनयका अनुग्रह करनेके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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