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________________ १४२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड संखेज्जदिभागभहियाओ होदण णिरतरं गच्छंति जाव अण्णमणंतमद्धाणं गदं त्ति। तेण परमसंखेज्जविभागभहियाओ असंखेज्जदिभागब्भहियाओ होदूण णिरंतरं गच्छंति जाव अणंतमद्धाणं गदं ति । तेण परमगंतभागभहियाओ अणंतभागभहियाओ होदूण णिरंतरं गच्छंति जाब एदाओ अणंतमद्धाणं गदं ति तेण परमणंतभागहीणाओ अणंतभागहीणाओ होदण णिरंतरं गच्छति जाव अण्णं अणंतमद्धाणं गदं ति । तेण परमसंखेज्जदिभागहीणाओ असंखेज्जदिभागहीणाओ होदूग गिरंतरं गच्छंति जाव अण्णमणंतमद्धाणं गदंति। तेण परं संखेज्जदिभागहोणाओ संखेज्जविभागहीणाओहोदूण णिरंतरं गच्छंति जाव अण्णमणंतमद्धाणं गदं ति । तेण परं संखेज्जगुणहीणाओ संखेज्जगुणहोणाओ होदण जिरंतरं गच्छंति जाव अण्णमणतमद्धाणं गदं ति । सेण परमसंखज्जगुणहीणाओ असंखेज्जगुणहीणाओ होदूण गच्छंति जाव अण्णं अणंतमद्धाणं तेण परमणंतणगणहीणाओ अणंतगुणहीणाओ होदूण गिरन्तरं गच्छंति जाव अण्णमणंतमद्धाणं गदं ति । एवमसुण्णवग्गणाणमेगादिएगत्तराणं उभयपाससुग्णागं जाओ टुरिदसलागाओ ताओ छविहाए वड्ढीए छविहाए हाणीए च अवट्ठाणं कुणंति त्ति घेत्तव्वं । पत्तेयसरीरक्खंधदव्ववग्गणाओ भवसिद्धियपाओग्गाओ जाओ सजोगि-अजोगीसु लब्भमाणाओ ताओ सांतराओ चेव । कुदो? सव्वजीवेहि अणंतगुणमेत्तट्ठाणेसु केवलिपाओग्गेसु संखेज्जाणं केवलोणं गिरं रमवट्ठाणविरोहादो । तम्हा तक जाती हैं। उससे आगे अन्य अनन्त स्थानोंके व्यतीत होने तक संख्यातभाग अधिक संख्यात भाग अधिक होकर निरन्तर शलाकाऐं जाती हैं। उससे आगे अनन्त स्थानोंके व्यतीत होने तक असंख्यातवेंभाग अधिक असंख्यातवेंभाग अधिक होकर निरन्तर शलाकाएं जाती हैं, उससे आगे अनन्त स्थानोंके जाने तक अनन्तवें भाग अधिक अनन्तवेंभाग अधिक होकर निरन्तर जाती हैं। उससे आगे अन्य अनन्त अध्वानके व्यतीत होनेतक अनन्तवेंभाग हीन अनन्तवेंभाग हीन होकर निरन्तर जाती है। उससे आगे अन्य अनन्त अध्वानके व्यतीत होनेतक असख्यातवें भाग हीन असंख्यातवें भाग हीन होकर निरन्तर जाती हैं। उससे आग अन्य अनन्त अध्वानके व्यतीत होने तक संख्यातवें भाग हीन संख्यातवें भाग हीन होकर निरन्तर जाती हैं। उससे आगे अन्य अनन्त अध्वानके व्यतीत होने तक संख्यातगुणी हीन संख्यातगुणी हीन होकर निरन्तर जाती है। उससे आगे अन्य अनन्त अध्वानके व्यतीत होने तक असंख्यातगुणी हीन असंख्यातगुणी हीन होकर निरन्तर जाती है । उससे आगे अन्य अनन्त अध्वानके व्यतीत होने तक अनन्तगुणी हीन अनन्तगुणी हीन होकर निरन्तर जाती है । इस प्रकार एकादि एकोत्तर अशून्य वर्गणाओंके उभय पार्श्वमें शून्य वर्गणा ओंकी जो स्थापित की गई शलाकायें हैं वे छह प्रकार की वृद्धि और छह प्रकारको हानिके द्वारा अवस्थान करती हैं ऐसा अर्थ यहाँ ग्रहण करना चाहिए। भव्योंके योग्य जो प्रत्येक शरीरस्कन्धद्रव्यवर्गणायें सयोगी और अयोगी गुणस्थान में लभ्यमान हैं वे सान्तर ही हैं, क्योंकि, सब जीवोंसे अनन्तगुणे केलिप्रायोग्य स्थानों में संख्यात केवलियोंके निरन्तर रहने में विरोध है । इसलिए वर्तमान कालमें विवक्षित स्थान सान्तर ही हैं। अतीन काल में भी केवलियोंके द्वारा ता० प्रती जाव अणंत ( मणंत) मद्धाणं इति. पाठ: 1 आ० प्रतौ 'जाब अणंतमद्वाणंति पाठ.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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