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________________ ५५६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ६. ७६३ संजुज्जंति, सावयवेसु तदविरोहावो । अट्ठफासाओ ।। ७६३ ॥ कक्कड-मउअ-णिद्ध ह लक्ख-गुरु-लहु-सीदुण्णभेदेण अट्ठ मूलफासा होति । संजोगेण पुण दुसदपंचवण्णफासभेवा। ते एत्थ ण गहिदा, संगहे असंगहस्सअमावादो। एवेहि अट्ठपासेहि ओरालियवग्गणाओ अक्कमक्कमेहि संजुत्ताओ होति । वेउब्वियसरीरदव्ववग्गणाओ पदेसठ्ठदाए अणंताणंतपदेसियाओ ।। ७६४ ॥ पंचवण्णाओ ।। ७६५ ॥ पंचरसाओ ॥ ७६६ । दुगंधाओ ॥ ७६७ ॥ अट्ठफासाओ ।। ७६८॥ एदेसि पंचण्णं सुत्ताणं जहा ओरालियसरीरस्स पंचसुत्तपरूवणा कदा तहा कायव्वा । सावयव पदार्थोंमें ऐसा होने में कोई विरोध नहीं आता। आठ स्पर्शवाली होती हैं। ७६३ ॥ कर्कश, मदु, स्निग्ध, रूक्ष, गुरु, लघु, शीत और उष्णके भेदसे मल स्पर्श आठ होते हैं। परन्तु संयोगसे दो सौ पचयन स्पर्शके भेद होते हैं। उनका यहां पर ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि, संग्रहमें प्रत्येक का अभाव है। इन आठ स्पर्शोसे औदारिकशरीरवर्गणायें क्रमसे और अक्रमसे संयुक्त होती हैं। वैक्रियिक शरीर द्रव्यवर्गणायें प्रदेशार्थताको अपेक्षा अनन्तानन्त प्रवेशवाली होती हैं ।। ७६४ ।। वे पांच वर्णवाली होती हैं ।। ७६५ ॥ पाँच रसवाली होती हैं ।। ७६६ ॥ दो गन्धवाली होती हैं ॥ ७६७ ॥ आठ स्पर्शवाली होती हैं ॥ ७६८ ॥ जिस प्रकार औदारिकके पांच सूत्रोंका कथन किया है उसी प्रकार इन पांच सूत्रीका कथन करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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