SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ६, १०९ ) बंधाणुयोगद्दारे वग्गणाणिपरूवणा ( १२७ पसंगादो च । तम्हा सत्थाणेण भेदसंघादेणेव होदित्ति घेत्तव्वं । अथवा उवरिम - वग्गणाओ विष्फट्टाओ धुवखंदादिसरूवेणेव णिवदंति; साहावियादो । धुवखंदादिविग्गणाओ सत्थाणे चेव समागमंति उवरिमवग्गणाहि वा; साहावियादो । सांतरणिरंतरवग्गणा पुण सत्थाणे चेव भेदेण संघादेण तदुभयेण वा परिणमदित्ति जाणावणट्ठ भेदसंघादेणे त्ति परुविदं । उवरिल्लोणं दव्वाणं भेदेण हेट्ठिल्लीणं दव्वाणं संघादेण सत्थाणेण भेदसंघादेण ॥ १०८ ॥ सुविसुत्थपोत्थ एसो पाठो । एदस्स सुत्तस्स जहा धुवखंधवग्गजाए तिहि पयारेहि उप्पत्ती परुविदा तहा एत्थ वि परूवेदव्वा; विसेसाभावादो । कथं सचित्तवग्गणा महाखंधवग्गणा वा सांतरणिरंतरवग्गणसरूवेण परिणमइ ? ण, तरभेदेण आगदवखंधाणं सांतरणिरंतरवग्गणायारेण परिणामुवलंभादो । सांतरणिरंतर दव्ववग्गणाणमुवरि पत्तेयसरीरदव्ववग्गणा णाम किं भेदेण किं संघादेण किं भेदसंघादेण ।। १०९ ।। सान्तरनिरन्तर वर्गणाका अभाव भी प्राप्त होता है, इसलिए स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघात से ही यह वर्गणा होती है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । अथवा ऊपरकी वर्गणायें टूट कर ध्रुवस्कन्ध आदि रूपसे ही उनका पतन होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । तथा ध्रुवस्कन्ध आदि नीचेकी वर्गणायें स्वस्थान में ही समागमको प्राप्त होती हैं, अथवा ऊपरकी वर्गणाओंके साथ समागमको प्राप्त होती हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । परन्तु सान्तर निरन्तरवर्गणा स्वस्थान में ही भेदसे, संघातसे या तदुभयसे परिणमन करती है इस बातका ज्ञान कराने के लिए ' भेदसंघातसे ' ऐसा कहा ' ऊपर के द्रव्योंके भेदसे, नीचेके द्रव्योंके संघातसे ओर स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघात से होती है ॥ १०८ ॥ कितनी ही सूत्र पोथियों में यह पाठ है । इस सूत्रकी व्याख्या करते समय जिस प्रकार ध्रुवस्कन्ध वर्गणाकी तीन प्रकारसे उत्पत्ति कही है उसी प्रकार यहां भी कहनी चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । शंका- सचित्तवर्गणा या महास्कन्धवर्गणा सान्तर निरन्तर वर्गणारूपसे कैसे परिणमन करती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उनके भेद द्वारा आये हुए स्कन्धोंक। सान्तर निरन्तर वर्गणारूपसे परिणमन पाया जाता है । सान्तर निरन्तरद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघातसे होती है या क्या भेद-संघातसे होती है ॥ १०९ ॥ * ता० प्रती 'सुत्तपोत ( त्थ ) एसु ' अ० आ० का० प्रतिषु 'सुत्तपोत्तएसु' इति पाठ: 1 Q अ आ प्रत्यो 'पादो' इति पाठ: । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy