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________________ १२६ ) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड (५, ६, १०७. मचित्तवग्गणसरूवेण परिणामविरोहादो। ण च सचित्तवग्गणाए कम्म-णोकम्मक्खंधेसु तत्तो विष्कट्टिय सांतरणिरंतरवग्गणाणमायारेण परिणदेसु तब्भेदेणेवेदिस्से समुप्पत्ती; तत्तो विष्फट्टसमए चैव ताहितो पुधभूदखंधाणं सचित्तवग्गणभावविरोहादो । ण महाखंधभेदेणेदिस्से समुप्पत्ती; महाखंधादो विप्फट्ट खंधाणं महाखंधभेदेहितो पुधभूदाणं महाखंधववएसाभावेण तेसि तब्भेदत्ताणुववत्तदो । एदम्मि गए अवलंबिज्जमाणे उवरिल्लीणं वग्गणाणं भेदेण वि होदि त्ति परूविदं । दव्वंद्वियगए पुण अवलंबिज्जमाणे उवरिल्लीणं भेदेण वि होदि । धुवक्खंधादीणं संघादेण सांतर निरंतर वग्गणा न होदि ; दवयिणावलंबनादो । सांतरणिरंतर वग्गणा एक्का चेव; तिस्से आयारेण धुवक्खंधवग्गणादीणमणंतरं चैव परिणामाभावादो । पज्जवट्टियणए पुण अवलंबिज्जमाणे हेल्ली संघादेण वि होदि; उक्कस्पधुववबंधवग्गगाए एगादिपरमाणुसमागमे सांतरणिरंतर वग्गणाए समुपत्त पडि विरोहाभावादो। ण विवरीयकप्पणा; सचित्तवग्गणद्वाणाणमणुपत्तिप्पसंगादो । सांतरणिरंतरवग्गणाए परिणामंतरावत्ती णत्थि त्तिण वोत्तुं जुत्तं ; धुवसुण्णवग्गणागमाणं तियप्पसंगादो। ण सत्थाणे चेव परिणामो वि; जहण्णवग्गणादो परमाणुत्तरवग्गणाए उष्पत्तिविरोहादो सांतरणिरंतरवग्गणाए अभाव - होती, क्योंकि, सचित्तवर्गणाओंका अचित्तवर्गणारूपसे परिणमन होने में विरोध है । यदि कहा जाय कि सचित्तवर्गणाके कर्म और नोकर्मस्कन्धोंके उससे अलग होकर सान्तर निरन्तर वर्गणारूपसे परिणत होनेपर उनके भेदसे इस वर्गणाकी उत्पत्ति होती है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उनसे अलग होने के समय ही उनसे अलग हुए स्कन्धोंको सचित्त वर्गणा विरोध आता है । महास्कन्धके भेदसे इस वर्गणाकी उत्पत्ति होती है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, महास्कन्धसे अलग हुए स्कन्ध यतः महास्कन्ध के भेदसे अलग हुए हैं, अत: उनकी महास्कन्ध संज्ञा नहीं हो सकती और इसलिए उनका उससे भेद नहीं बन सकता । इस नयका अवलम्बन करने पर ऊपरकी वर्गणाओंके भेदसे यह वर्गणा नहीं होती है यह कहा गया है । परन्तु द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर ऊपरकी वर्गणाओंके भेदसे भी यह वर्गणा होती है । ध्रुवस्कन्ध आदिकके संघात से सान्तर निरन्तर वर्गणा नहीं होती है, क्योंकि, यहां द्रव्याधिक नयका अवलम्बन लिया गया है । सान्तरनिरन्तर वर्गणा एक ही है, उस रूपसे ध्रुवस्कन्ध वर्गणा आदिका अनन्तर ही परिणामका अभाव है । परन्तु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लेने पर नीचेकी वर्गणाओंके संघात से भी यह वर्गणा होती है, क्योंकि, उत्कृष्ट ध्रुवस्कन्धवर्गणामें एक आदि परमाणुका समागम होनेपर सान्तरनिरन्तर वर्गणाकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं है । यह विपरीत कल्पना भी नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर सचित्तवर्गणास्थानोंकी अनुत्पत्तिका प्रसंग आता है । सान्तरनिरन्तरवर्गणा का दूसरे प्रकारसे परिणमन नहीं होता है यह कहना भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि, ऐसा होनेपर ध्रुवशून्यवर्गणाओंके अनन्त होनेका प्रसंग आता है । केवल स्वस्थानमें ही परिणमन होता है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, जघन्य वर्गणासे एक परमाणुअधिक वर्गणाकी उत्पत्ति होने में विरोध आता हैं, दूसरे ०ता० आ० का० प्रतिषु '-क्खंधादीणं सांतर -' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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