SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और अल्पबहुत्व । अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणामें बतलाया है कि औदारिक शरीरके एक एक प्रदेश में सब जीवोंसे अनन्तगुणे अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। वर्गणाप्ररूपणामें बतलाया है कि इस प्रकार अविभागप्रतिच्छेदवाले सब जीवोंसे अनन्त गुणे परमाणुओंकी एक वर्गणा होती है और ये सब वर्गणायें अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण होती हैं। इतनी वर्गणाओंका एक औदारिकशरीरस्थान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। स्पर्धक प्ररूपणामें बतलाया है कि अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणाओंका एक स्पर्षक होता है । तथा सब स्पर्धक मिलकर भी इतने ही होते हैं। अन्तर प्ररूपणामें बतलाया है कि एक स्पर्धकसे दूसरे स्पर्धककी अन्तिम वर्गणामें जितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं उन्हें सब जीवोंसे अनन्तगुणे करने पर जो लब्ध आवे उतने अविभागप्रतिच्छेद उससे अगले स्पर्धककी प्रथम वर्गणामें जानने चाहिए। शरीरप्ररूपणामें बतलाया है कि ये अनन्त अविभागप्रतिच्छेद शरीरके बन्धनके कारणभूत गुणोंका प्रज्ञासे छेद करने पर उत्पन्न होते हैं और फिर यहीं पर प्रसंगसे छेदके दस भेदोंका स्वरूपनिर्देश किया गया है। अल्पबहत्वमें पांच शरीरोंके अविभागप्रतिच्छेदोंके अल्पबहत्वका विचार करके शरीरविस्रसोपचयप्ररूपणा समाप्त की गई है। वित्रसोपचयप्ररूपणा- जो पाँच शरीरोंके पुद्गल जीवने छोड दिये हैं और जो औदारिकभावको न छोडकर सब लोकमें व्याप्त होकर अवस्थित हैं उनकी यहाँ विस्रसोपचय संज्ञा मानकर विस्रसोपचयप्ररूपणा की गई है। एक एक जीवप्रदेश अर्थात् एक एक परमाण पर सब जीवोंसे अनन्तगुणे विस्रसोपचय उपचित रहते हैं और वे सब लोकमें से आकर विस्रसोपचयरूपसे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं। या वे पाँच शरीरोंके पुद्गल जीवसे अगल होकर सब आकाश प्रदेशोंसे सम्बन्धको प्राप्त होकर रहते हैं। इस प्रकार जीवसे अलग होकर सब लोकको प्राप्त हुए उन पुद्गलोंकी द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, कालहानि और भावहानि किस प्रकार होती है, आगे यह बतलाया गया है और यह बतलाने के बाद जीवसे अभेदरूप पाँच शरीर पुद्गलोंके विस्रसोपचयका माहात्म्य बतलाने के लिए अल्पबहुत्वका निर्देश किया गया है। तथा मध्यमें प्रसंगसे जीवप्रमाणानुगम प्रदेशप्रमाणानुगम और इनके अल्पबहुत्वका भी विचार किया गया है। इस प्रकार इतना विचार करने पर बाह्यवर्गणाका विचार समाप्त होता है। चलिका __ पहले जो अर्थ कह आये हैं उनका विशेषरूपसे कथन करना चूलिका है। पहले 'जत्थेय मरदि जीवो' इत्यादि गाथा कह आधे हैं । यहां पर सर्व प्रथम इसी गाथाके उत्तरार्ध विचार किया गया है। ऐसा करते हुए बतलाया है कि प्रथम समयमें एक निगोद जीवके उत्पन्न होने पर उसके साथ अनन्त निगोद जीव उत्पन्न होते हैं। तथा जिस समय ये जीव उत्पन्न होते हैं उसी समय उनका शरीर और पुलवि भी उत्पन्न होती है। तथा कहीं कहीं पुलविकी उत्पत्ति पहले भी हो जाती है, क्योंकि, पुलवि अनेक शरीरोंका आधार है, इसलिए उसकी उत्पत्ति पहले मानने में कोई बाधा नहीं आती। साधारण नियम यह है कि अनन्तानन्त निगोद जीवोंका एक शरीर होता है और असंख्यात लोकप्रमाण शरीरोंकी एक पुलवि होती है। प्रथम समय में जितने निगोद जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy