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________________ उत्पन्न होते हैं दूसरे समयमें वहीं पर असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं । तीसरे समय में उनसे भी असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं । उसके बाद कमसे कम एक समयका और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका अन्तर पड जाता है। पुन: अन्तरके बादके समय में असंख्यातगणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं और यह क्रम आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक चालू रहता है। इस प्रकार इन निगोद जीवोंकी उत्पत्ति और अन्तरका क्रम कहकर अद्धाअल्पबहुत्व और जीव अल्पबहुत्वका विचार किया गया है । अद्धाअल्पबहुत्वमें सान्तरसमयमें और निरन्तरसमयमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका अल्पबहत्व तथा इन कालोंका अल्पबहुत्व विस्तारके साथ बतलाया गया है । जीव अल्पबहुत्वमें कालका आश्रय लेकर जीवोंका अल्पबहुत्व बतलाया गया है । इसके बाद स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियों में जो बादर और सूक्ष्म निगोद जीव उत्पन्न होते हैं वे सब पर्याप्त ही होते हैं या अपर्याप्त ही होते हैं या मिश्ररूप ही होते हैं इस प्रश्नका समाधान करते हुए प्रतिपादन किया है कि सब बादर निगोद जीव पर्याप्त ही होते हैं, क्योंकि, अपर्याप्तकोंकी आयु कम होनेसे वे पहले मर जाते हैं, इसलिए पर्याप्त जीव ही होते हैं। किन्तु इसके बाद वे मिश्ररूप होते हैं, क्योंकि बादमें पर्याप्त और अपर्याप्त बादर निगोद जीवोंके एक साथ रहने में कोई बाधा नहीं आती। किन्तु सूक्ष्म निगोद वर्गणामें सभी सूक्ष्म निगोद जीव मिश्ररूप ही होते हैं, क्योंकि, इनकी उत्पत्तिके प्रदेश और कालका कोई नियम नहीं है । इस प्रकार 'जत्थेय मरदि जीवो' इत्यादि गाथाके उत्तरार्धका कथन करके उसके पूर्वार्धका विचार करते हुए बतलाया गया है कि जो बादर निगोद जीव उत्पत्तिके क्रमसे उत्पन्न होते हैं और परस्पर बन्धनके क्रमसे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं उनका मरणका क्रमसे ही निर्गम होता है। इनका उत्पत्तिके क्रमसे निर्गमन नहीं होता है, किन्तु मरण के क्रमसे निर्गमन होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । मरणका क्रम क्या है इस प्रश्नका समाधान करते हुए बतलाया है कि वह दो प्रकारका है- यवमध्यक्रम और अयवमध्य क्रम। इनमेंसे पहले अयवमध्यक्रमका निर्देश करते हैं- सर्वोत्कृष्ट गुणश्रेणिके द्वारा मरनेवाले और सबसे दीर्घकाल द्वारा निर्लेप्यमान होनेवाले जीवोंके अन्तिम समयमें मृत होनेसे बचे हुए निगोदोंका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । यहाँ निगोद शब्द पुलविधाची है। अभिप्राय यह है कि क्षीणकषायके अन्तिम समय में पूर्व में मृत हुए जीवोंसे बचे हुए जीवोंकी पुलवियाँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है। क्षीण कषायके अन्तिम समय में निगोद जीवोंके शरीर असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं और एक एक शरीर में पूर्व में मरनेसे बचे हुए अनन्त निगोद जीव होते हैं। तथा उनकी आधारभत पुलवियाँ उक्त प्रमाण होती हैं । यहाँ क्षीणकषायके कालके भीतर वा थवर आदि में मरनेवाले जीवोंकी प्ररूपणा चार प्रकारकी है- प्ररूपणा. प्रमाण. श्रेणि और अल्पबहुत्व । प्ररूपणामें बतलया है कि क्षीणकषायके प्रत्येक जीव मरते है । प्रमाणमें बतलाया है कि क्षीणकषायके प्रत्येक समयमें अनंत जीव मरते हैं। श्रेगि दो प्रकारकी है- अनंतरोपनिधा और परंपरोपनिधा। अनंतरोपनिधामें बतलाया है कि क्षीणकषायके प्रथम समयमें मरनेवाले जीव स्तोक हैं। दूसरे समय में मरनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार आवलिपृथक्त्व कालतक प्रत्येक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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