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________________ १२४ १२३२ ५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे उवणिधापरूवणा ( १८५ ___संपहि एस्थ पढमगुणहाणिचरिमवग्गण विवियगण११५२ । ११५२ ११२० १२०० हाणिपढमवग्गणाओ संदिट्ठीए अत्थदो च दो वि सरि१०५६ १२३२ साओ। तदुवरिमवग्गणाओ जाव जवमज्झं ताव विसे १२४८ । | साहियाओ ति घेत्तत्वं । पुणो जवमझस्सुवरि विसेसहीण८३२ कमेण णेयव्वं जाव धुवक्खंधवग्गणाए असंखेज्जभागहीण६७२ | संखेज्जभागहीणदव्ववग्गणे त्ति । एवं कदे जवमज्झस्स ४८० | १२०० | हेट्टा असंखेज्जाओ दुगणवड्ढीयो उप्पज्जति ति । संपहि २५६ । ११५२२ जवमज्झस्स हेटा गुणहाणीयो दवदाए दिवड्गुणहाणीणमद्धच्छेदणयमेत्ताओ। तं जहा- जवमज्झस्स हेटुिमपढमगुणहाणिअद्धाणादो तदणंतरहेट्ठिमगुणहाणिअद्धाणमद्धं होदि ।विदियगुणहाणिअद्धाणादो तदणंतरहेट्रिमप्रथम गु० हा० द्वि गु० हा० तृ० गु० च० गु० पं० गु० १२८ ३२ अन्तिम वर्गणा प्रथम वर्गणा अन्तिम प्रथम अन्तिम १६० १२० ११२ ४४ २८ १९२ ४८ १४४ १० ११ WW.०० २०८ २२४ ८० २४, ७२ इस संदृष्टि में २५६ परमाणुवर्गणाकी द्रव्यार्थता है, २४० द्विप्रदेशी, २२४ त्रिप्रदेशी, २०८ चतुःप्रदेशी, १९२ पंचप्रदेशी वर्गणाकी द्रव्यार्थता है । इसीप्रकार आगे भी जानना चाहिये । प्रदेशार्थताका प्रमाण जानने के लिए २५६ को एक से, २४० को दो से, २२४ को तीनसे, २०८को चारसे गुणा करनेपर २५६, ४८०, ६७२ और ८३२ प्रदेशार्थताका प्रमाण आ जाता है । इसीप्रकार आगे भी जानकर गुणा करनेसे प्रदेशार्थताका प्रमाण आ जाता है । संदृष्टि मूलमें दी ही है। इसमें १२४८ की यवमध्य संज्ञा है। ___ यहाँ पर प्रथम गुणहानिकी अन्तिम वर्गणा और द्वितीय गुणहानिकी प्रथम वर्गणाकी संदृष्टि है। वास्तव में ये दोनों वर्गणायें समान हैं । इनसे ऊपरकी वर्गणायें यवमध्यके प्राप्त होने तक विशेष अधिक है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। पुनः यवमध्यके ऊपर ध्रुवस्कन्धवर्गणाकी असंख्यातभागहीन और संख्यातभागहीन द्रव्यवर्गणाके प्राप्त होने तक विशेषहीन क्रमसे ले जाना चाहिए। ऐसा करनेपर यवमध्यके पूर्व असंख्यात द्विगुणवृद्धियाँ उत्पन्न होती हैं । यवमध्यके पूर्व ये गुणहानियां द्रव्यार्थताकी अपेक्षा डेढ़ गुणहानिके अर्धच्छेदप्रमाण होती हैं। यथा-यवमध्यके पूर्व प्रथम गुणहानिअध्वानसे तदनन्तर पूर्वका गुणहानिअध्वान अर्धभागप्रमाण होता १म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु — १२४० ' इति पाठः 1 २ अ० का० प्रत्योः ' ११५६ ' इति पाठ। म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिष । बिदियगणहाणि-' इत्यादि वाक्यं नोपलभ्यते । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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